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ज़िंदादिली का दूसरा नाम : कृष्णा सोबती - विपिन चौधरी

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कृष्णा सोबती का होना हिंदी कथा जगत की उपलब्धि है। अनुनाद की साथी कवि विपिन चौधरी ने उन पर अपना आत्मीय लेख हमें सौंपा है। यह लेख फेमिना में छप चुका है। यह इसका पुन:प्रकाशन है और अनुनाद इस सहयोग के लिए विपिन का आभारी है। अगली पोस्ट में विपिन की कुछ कविताएं हम अपने पाठकों से साझा करेंगे।

दिल्ली महानगर,  हिंदी साहित्यकारों का गढ़  माना जाता है. यहाँ लगभग हररोज़ ही साहित्यिक आयोजनों की चहल-पहल होती है,  तमाम तरह की खेमेबाजी और विमर्श को यहाँ जगह ज़मीन मिलती आयी  है. कई बड़े साहित्यकारों की पनाहगाह है दिल्ली. देश से कोने-कोने से यही आकर बसे साहित्यकार दिल्ली की ज़मीन पर उर्वर हुए यहीं की आबो-हवा में वे सब अपनी साहित्यक काबिलियत के बल पर शीर्ष तक  पहुंचे और युवा रचनाकारों की प्रेरणा स्रोत बने.

इसी दिल्ली  में रहती है  91 वर्षीय कृष्णा सोबती,  जिनके लेखन का अंदाज़- ए- बयां  अपनी अलहदा  विशिष्टता के लिए हिंदी साहित्य में अलग से चिन्हित किया जाता है. पकिस्तान के गुजरात शहर में जन्मी कृष्णा जी आज भी जब  अपने बचपन अपने परिवेश को शिद्दत से याद करती हैं तो उनकी आवाज़ में गज़ब की मिठास और आँखों की चमक देखने लायक होती है. कई बार मैं उनकी आँखों की इसी चमक से हो कर गुज़री हूँ.  गाहे-बगाहे उनकी बातों में  कराची शहर, जिसे रोशनियों का शहरमाना जाता है, प्रवेश करता है. फिर बातों से बातें निकलती जाती हैं. गुज़रे समय के यादों के शहर, वहां का खान-पान, वहां का फैशन, बातचीत का सुगढ़ तौर-तरीका, वहां के लोगों में खरीददारी का जुनूनवहां के पुराने घरों और बड़ी-बड़ी हवेलियों की वास्तुकला का सौंदर्य और फिर बगीचों का शहर’, लाहौर  से जुडी अनगिनत यादें चली आती हैं और कृष्णा जी फिर उन्हीं यादों की हो कर रह जाती हैं, मैं उन्हें एकटक देखती हुए सोचती हूँ इतनी बातों और इतनी यादों को मैं अपने करीब कैसे समेट सकूंगी. उनकी स्म्रतियों में विभाजन से पहले के भारत का परिवेश, उस दौर की गहमागहमी अच्छा खासा दबदबा रखते हैं. हर बुजुर्ग की तरह पुरानी यादों में गुम होनागुज़रे समय को मुड- मुड कर देखना उन्हें बेहद अज़ीज़ है. लेकिन एक साहित्यकार का मन-मस्तिक्ष होने के कारण, वे गुजरते समय के साथ बहते हुए भी वर्तमान की विभीषिका पर नज़र रखते हुए अपनी असहमति दर्शाती हैं.  फिर उनके द्वारा महामहिम के नामलिखा पत्र हो, या फिर वर्तमान सरकार की कार्यप्रणाली के प्रति नाराज़गी दर्ज करने वाला उनका लेख हो, उनके लिखे को प्रतिष्ठत अख़बारों में प्रमुखता से जगह दी जाती है. अपनी अस्वस्थता के बावजूद  वे आम जन के दर्द से आज भी पल प्रतिपल गुजरती हुयी दिखती हैंबिसरे दिनों की बेपनाह दुःख और अलगाव भरी यादें आज भी उन्हें सालती हैं. पाठकों ने उनके लेखन में उसी विभाजन के ठहरे हुए दर्द को बार-बार अपना कद निकालते हुए देखा है. उनके प्रतिष्ठित उपन्यास,' जिंदगीनामामें विभाजन से पहले का ग्रामीण परिवेश अपनी पूरी धूसर तबियत और स्फटिक धमक के साथ मौजूद है. अपने लेखन में इसी बानगी के तहत वे युवा पीढी के रचनाकारों में अपने लिए एक अलग तरह की मिठास पाती है. 

भीड़-भाड़ और तमाम तरह की चौंधयाती रोशनियों से दूर कहीं शांत जगह में झिलमिलाता हुआ दीपक मन को असीम शांति से भर देता है ठीक उसी तरह ही दिल्ली की भागमदौड़ और शोर शराबे से दूर मैंने, कृष्णा सोबती के सानिध्य को अपने भीतर ग्रहण किया  सच में  उनका सानिध्य मुझे,शांत और मद्धम-मद्धम आंच देते हुए दीपक जैसा ही महसूस होता है। गाँव के घरों में छोटे-छोटे से आलों में दीपक, जिस सुंदरता से अपने प्रकाश को उजागर करते हुए दिख पड़ते हैं उनकी सहज सुंदरता की शब्दों में व्याख्या करना सहज नहीं। जीवन में कहीं शांति से रचने- पकने की प्राकृतिक सहूलियत है तो इन्हीं सहज चीज़ो के आज-पास है.

कई इंसान भी अपने करीब ऐसी सहज सुंदरता को जगह देते हैं कृष्णा सोबती भी ऐसी ही शख़्सियत हैं जिनका साथ किसी भी मन को असीम तसल्ली दे सकता है. जीवन को जीने का सलीका और अनुशासन उनके संग रह कर सीखा जा सकता है. कई बार एक भोली सी कामना, मन में जगह बनाती है कि उनके जीवन के उत्तरार्ध को मैं आगे बढ़ कर थाम लूँ पर निजता की घोर हिमायती, कृष्णा जी अपने पास सिर्फ अपनी मौजूदगी ही चाहती है. यह एक लेखक का निजत्व है, जो उन्हें हद दर्ज का प्रिय है फिर कोई क्यों उसपर सेंध लगाये ? किसी परिचितअपरिचित से मुलाकात के बाद वे फिर से अपनी सीपी में बंद हो जाती हैं और दुनिया के समुन्दर में आनंदोल्लास करती लहरोँ जैसा उनका रचा हुआ साहित्य, जिसका धरातललोक की बहुलता की बेहद सयंमित अभिव्यक्ति और साफ-सुथरी रचात्मकता के सूत से बुना गया है नज़र आता है. 

कृष्णा सोबती से पहली मुलाक़ात

दिल्ली महानगर की कोलाहल से दूर अपने घर में एक शांत सुकून से भरे वातावरण में कृष्णा जी से पहली मुलाक़ात अपने एक कवि दोस्त की मार्फ़त हुयी।  वरिष्ठ साहित्यकार और अपनी विशिष्ट खूबियों के कारण किवदंती बन चुकी कृष्णा सोबती,  अपनी बढ़ती वय के कारण लेखन कार्यों में हाथ बटाने के लिए वे किसी साहित्यिक सहायिका की तलाश में थी और मैं उनकी मदद के लिए उनके समक्ष थी। एक वरिष्ठ साहित्यकार से नजदीकी की मधुर चाह के चलते ही उम्र की लंबे अंतर के बावजूद मेरी, कृष्णा जी की स्नेहिल दोस्ती पनपी सकी।  लगभग चार साल साल पहले का एक दिनजब  एक शामरात में तब्दील होने को ही थी कि ठीक उसी  वक़्त के आस-पास कवि दोस्त आर. चेतन क्रांति का फ़ोन आया उन्होंने यह कहते हुए,  " कृष्णा जी तुमसे बात करना चाहती हैं"फ़ोन कृष्णा जी को थमा दिया और कुछ सेकंड के अन्तराल में एक बेहद मधुर आवाज़ मेरे कानों में उतरी, बड़ी ही मीठी आवाज़ में  उन्होंने अपना पता नोट करवाया। अगले ही दिन मैं कृष्णा जी की उसी मधुर आवाज़ के आरोह अवरोह में डूबते-उतरते हुए मयूर विहार फेज़ -1 में उनके फ़्लैट के सामने थी. उनसे मेरा यह पहला परिचय था, पहली भेंट आज भी स्मृतियों में सबसे मुखर है.

अपनी सेविका, विमलेश जी  के साथ थोडा झुककर छोटे छोटे क़दमों से कृष्णा जी ड्राइंग रूम में आई और अंग्रेजी में कहा, हेल्लो विपिन यू आर ए स्मार्ट गर्ल’. उन दिनों कृष्णा जी मुक्तिबोध पर एक लंबा लेख लिख रही थी, उसी लेख को उनके साथ पढ़ते और टाइप करते हुए, मैंने मुक्तिबोध को ठीक से जाना और फिर उन्हें तफ़सील से पढने की कोशिश जारी रखी.  

हिंदी साहित्य, कृष्णा सोबती की बेबाक और संयमित अभिव्यक्ति और कलात्मक रचनात्मकता से बखूबी परिचित है. उन्होंने हिंदी की कथा भाषा को विलक्षण ताज़ग़ी से नवाजा हैं. कृष्णा जी ने पचास के दशक में अपने लेखन की शुरुआत की और उनकी पहली  कहानी, 'लामामें 1950  में प्रकाशित हुई। मुख्यत: उपन्यासकहानीसंस्मरण विधाओं में लिखने वाली कथाकार की दिलचस्पी कविताओं में भी हैं इस बात को शायद इस बात को कम ही लोग जानते होंगे.

कृष्णा जी हिंदी की स्टार लेखिका हैं, लेकिन ऐसी स्टार लेखिका जिनके यहाँ किसी तरह की शोशेबाजी कभी दिखाई नहीं दी. हमेशा लंबी ड्रेस में नज़र आने वाली और हशमतनाम से खुद को संबोधित करने वाली कृष्णा जी की  हिंदी साहित्य में जो पैठ है उसका कोई सानी नहीं। 

उनके साथ इतने अरसे सोहबत में मैं जान पायी हूँ कि  भीड़ और जमवाड़ा उन्हें बिलकुल नहीं सुहाताआयोजनो से वे दूर ही रहती  हैं.  सीधे-सीधे इंटरव्यू देना उन्हें पसंद नहींउन्हें कागज़ पर प्रश्न लिख कर दे दो समय मिलने पर वे उनका उत्तर लिख देंगी, काम समय पर हो जाएगा पर उनकी शर्तें अडिग हैं. उनकी ये सारी स्वभावगत आदतें मुझे उनसे दैनिक व्यवहार और बातचीत में साफ दिखी। आँखों में तकलीफ के कारण वे काफी बड़े -बड़े सुंदर शब्दों में लिखती हैं । हशमत, यानी खुद कृष्णा सोबतीअपने आप को एक अर्धनारीश्वर में प्रस्तुत करती हैं यह मानते हुए कि एक स्त्री में आधा पुरुष है और आधी स्त्री और ठीक इसी तरह एक पुरुष में भी आधी स्त्री का समावेश है और इसी तरह दोनों को मिला कर एक पूरा व्यक्तित्व बनता है. 

कृष्णा जी, रात का समय को अपने लेखन के लिए निश्चित करती हैं. रोज़ दोपहर 12 के आसपास उनका दिन शुरू होता है उर्दूपंजाबी, अंग्रेज़ी, हिंदी के अखबारों के साथ. 
किसी नजदीक के इंसान पर लिखने में हमेशा असमंजसता महसूस होती है मुझे. इरादे से कभी ऐसा सोचा होता की कृष्णा जी पर लिखूंगी तो उनसे की गयी ढेर सारी बातों को सिलसिलेवार से नोट या रिकॉर्ड कर लेती.

फिर भी इस लेख को लिखते हुए बहुत सारी चीज़े टुकड़ों में याद आ रहीं हैं, उनके साथ उनके टेलीविज़न पर देखी गयी फिल्मजिसमे उनकी रिश्तेदार युवती ने किरदार अदा किया है. बातों बातों में कई बार कहा गया उनका यह वाक्य कि शरीर अब पुराना हो गया है’. कृष्णा जी को  इकाबल बानो की ग़ज़लें सुनना बहुत अज़ीज़ हैं कई बार खाना खाते हुए वे विमलेश से कहकर इकबाल बानो की सी. डी. लगवाती हैं और फिर देर तक, इकबाल बानों की बुलंद आवाज़ से उनका घर गूंजता है, साथ ही कृष्णा जी का मेज़ पर थपथापना ज़ारी रहता है और फिर शुरू हो जाती हैं इकबाल बानों के गायन की चर्चा. बीच-बीच में अपनी मौज़ में कृष्णा जी कभी कराची की गलियों से गुज़र जाती हैं तो कभी दिल्ली के बनने बिगड़ने की कहानी बयां कहती हैं  और  मैं उनकी बातों के साथ उनके स्वभाव की नरमी को अपने भीतर ज़ज्ब करती जाती हूँ.
उनकी मेहनावाजी भी गज़ब की है. खूबसूरत चाय टिकोजी के साथ  और ढेर सारे खाने के माल-असबाबविपिन को केक भी खिलाओ, कुकीज़ भी, मिठाई भी. खाने की मेज़ पर बार-बार पूछना और यह कहना की जो भी पसंद हो विमलेश से बनवा लो. लेकिन मेरी नज़र उनकी थाली पर रहती है वे बहुत कम खा पाती हैं. "अब इससे ज्यादा नहीं खा पाती"वे कहती हैं. एक बार सर्दियों के दिनों में कृष्णा जी के लिए बाजरे की रोटी बना कर ले गयी जिसे उन्होंने गुड के साथ बड़े चाव से खाया और कहा  - "अरसे बाद बाजरे का स्वाद चखा है". दो साल पहले जब मैंने पी. जी होस्टल को छोड़कर फ़्लैट में शिफ्ट किया तो लगातार उनका अनुरोध बना रहा कि "विपिन तुम अपनी जरुरत के सामानों की  लिस्ट बना कर मुझे दो". अपने घर से दूर दिल्ली में एक वरिष्ठ का ऐसा स्नेहिल आग्रह भला कितने लोगों को नसीब होता है

उनका घर एक खूबसूरत संग्राहलय जैसा दिखता हैं, ड्राइंग रूम में इतिहासकार प्रेम चौधरी द्वारा बनायीं गयी एक बड़ी सी पेंटिंग और श्वेत-श्याम फोटोग्राफस, छोटे बड़े कई बुक शेल्फ्स में सजी किताबें, सोफे,  कई छोटे बड़े कालीन, सभी पर सादगी तारी है. याद हैं मेरे यह कहने पर आपके घर की सारी चीज़े काफी पुरानी हैं ऐसी चीज़े अब नहीं मिलती. इसपर उनका यह कहना"भई हम भी तो पुराने हैं". मुझसे परिचय के बाद जाने कितनी बार उन्होंने कहा - "विपिन पुरानी पत्रिकाओं को पलटते हुए तुम्हारी कवितायेँ सामने आयी". एक बार उन्होंने कहा "कवितायें भी अच्छी हैं और इसके साथ छपी तुम्हारी तस्वीर भी". तब मैंने कहा - "तस्वीर तो चाहे कैसी भी हो उसका क्या "?  इसपर उन्होंने कहा -"नहीं हमारे प्रकाशको को इस पक्ष पर भी ध्यान देना चाहिए हम हिंदी वाले इतने गए गुज़रे नहीं हैं ". मैं कुछ बोली नहीं सिर्फ मुस्कुराई। अपनी खुद की बीमार स्थिति के बावजूद बार-बार फ़ोन कर, सर्दी  जैसी आम व्याधि पर भी फ़ोन पर कई हिदायतें देने की उनकी आदत हमेशा मेरे भीतर गहरे में घर कर जाती है. उनसे मुलाकात से कई साल पहले मैंने सिर्फ उनकी एक ही चर्चित कृति 'मित्रो मरजानी',उनके परिचय के बाद ही उनके विपुल लेखन से भी परिचय हुआ. साहित्य चर्चा में भी उनका उदार स्वभाव प्रकट होता है, सत्येन कुमार, शिवनाथ, पद्मा सचदेव, मुक्तिबोध, कृष्ण बलदेव वैद्य से जुडी अनेकों बातें आपको एक खूबसूरत दुनिया में ले जाती हैं.   

अपनी साहित्यिक अभिरुचि के चलते जल्द ही मैं उनसे जुड़ती चली गयी और मेरा मैं हमेशा यह मानती रही हूँ कि कृष्णा सोबती एक ऐसे ज़ज्बे का नाम है, एक ऐसा नाम जो हिंदी साहित्य के स्तम्भ को मजबूत आधार देता है. लेखन उनके लिए जीवन का पर्याय और एक कठोर अनुशासन है जिसको उन्होंने बरसो ओढा-बिछाया है.

कृष्णा जी अपने लेखन में शिल्प और कथ्य के सुन्दर और नए प्रतिमान रचती हैं. उनके शांत और स्थिर लेखन के पीछे उनके स्वाभाव की जीवंतता साफ़ झलकती है. उन्होंने अपने शर्तों पर जीवन जिया और एक बादशाह की विराटता की तरह लेखन में अपनी अभूतपूर्व ऊँचाई को स्थापित किया. अपने जीवन की लम्बी साहित्य यात्रा में उन्होंने जो लकीरे खींची वे आने वाली पीढ़ी में एक आदर्श लेखन की तरह मील का पत्थर साबित होंगी. अपने समकालीनों में वे अलग से पहचानी जा सकती हैं. उनके पास शिल्प की असीम गहराई, भाषा का घनत्व, संप्रेक्षण की जीवंत सजलता है, जिसे  वे लगातार मांजती आई है इसलिए उनकी हर नई कृति  नए प्रतिमान रचती है. वे जीवन की मैल को अपने लेखन के धोबी पटके से इस तरह धोती है सारी तथाकथित पाखंडता, नैतिक आडम्बर धरे के धरे रह जाते हैं. अपने अस्तित्व को लेकर वे सदा सचेत रही शायद यही कारण है कि उनके किरदार अपनी पूरी ठसक के साथ सामने द्रष्टिगोचर होते हैं.

अपने पूरे लेखन काल में उन्होंने कभी गुटबंदी का साथ नहीं दिया. वे किसी खेमे विशेष में शामिल नहीं हुयी. उन्होंने सिर्फ और सिर्फ अपनी लेखनी पर विश्वास किया और ताउम्र एक सच्चे शिल्पकार की तरह अपने पात्रो को तराशा. उनके पात्र जीवन की तलझट से कई ऐसे मोती निकाल के सामने लाते हैं जिन्हें अक्सर हम अनदेखा कर देते हैं. उनकी लंबी साहित्यिक यात्रा में रची गयी कृतियों के पात्र हमेशा पाठक की जीवन यात्रा में हस्तक्षेप करते रहते हैं क्योंकि उनके पास अपनी अस्मिता की आवाज़ है और जो आज के निपट अलोकतांत्रिक समय में सबसे जरुरी चीज़ है. डार से बिछुड़ी’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘यारों के यार’, ‘तिन पहाड़’, ‘बादलों के घेरे’, ‘सूरजमुखी अँधेरे में’, ‘जिन्दगीनामा’, ‘ए लड़की’, ‘दिलो दानिश’, हम हशमत, ‘समय सरगम’, ‘शब्दों के आलोक मेंऔर जैनी मेहबान सिंहने बौद्धिक विमर्श को जन्म दिया और समय के साथ हर बार उनके द्वारा रचित पात्रो पर चर्चा  करना जरुरी समझा गया.  सर्वसाधारण लोक की उजास उनके लेखन की महत्वपूर्ण कड़ी है. उनकी कृतियों के पात्रों का इतिहास कभी न मृत होने वाले इतिहास है क्योंकि वर्तमान में आते ही वे पात्र फिर से जीवत हो अपने दैनिक कर्मो में निवृत हो जाते हैं और पाठक को वे अपने करीब का जीवन का आभास देते हैं. कहते हैं जितना बड़ा इंसान होगा उसके साथ उतने ही बड़े विवाद जुड़े होंगे. कृष्णा जी का जीवन भी विवादों से घिरा रहा और उन्होंने हमेशा उससे डट कर सामना किया. कभी अपनी किताबों के शीर्षकों पर अधिकार के लिए लड़ी तो कभी  आज की उम्र में भी वे वकील केस बहस आदि के झगड़ों से अलग नहीं हुयी हैं अपनी ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा उन्हें इन विवादों में खर्च करना पड़ा है. पर जो थक कर हाथ खड़े कर दे वो खिलाड़ी ही क्या. वे सच के साथ रहती है इसलिए पीछे हटने का सवाल ही नहीं अपने निज की अस्मिता को गहरे से समझने की वकालत करने वाली कृष्णा जी अपने लेखन की तरह ही अपने जीवन में अनोखी और अद्भुद हैं. बिना किसी लाग लपेट के जीवन के पत्तों को दुनिया के सामने रखने वाली कृष्णा जी कभी सनसनीखेज़ और दिखावटी जीवन में नहीं पड़ी. कृष्णा सोबती जी के साथ बिताया गया समय मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. 
***

विपिन चौधरी की कविताएं

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समकालीन कविता-संसार में विपिन चौधरी का हस्तक्षेप बख़ूबी पहचाना गया है। अनुनाद पर विपिन की उपस्थिति के ये लिंक पाठकों के लिए - 
1.आत्मकथ्य और कविताएं
2.दस कविताएं  
3.माया एंजेला  

अनुनाद के एक पुराने पन्ने पर उनकी दस कविताएं लगाते हुए जो टिप्पणी की थी, उसे यहां दुबारा लगा रहा हूं। 
- - -


विचित्र लेकिन बहुत सुन्‍दर है आज की, अभी की हिंदी कविता का युवा संसार। कितनी तरह की आवाज़ें हैं इसमें,कितने रंग-रूप,कितने चेहरे,अपार और विकट अनुभव, उतनी ही अपार-विकट अभिव्‍यक्तियां। इस संसार का सबसे बड़ा सौन्‍दर्य यही है कि यह बनता हुआ संसार है,इसमें निर्मितियों की अकूत सम्‍भावनाएं हैं। यहां गति है, कुछ भी रुका-थमा नहीं है। यह टूटे और छूटे हुए को जोड़ रही है। इसमें पीछे खड़े संसार के प्रभाव कम, अपने अनुभवों पर यक़ीन ज्‍़यादा है। विपिन चौधरी की कविताएं इस दृश्‍य की लिखित प्रमाण हैं।



विपिन का नाम एक अरसे पढ़ा-सुना जा रहा लेकिन इस नाम परिचित होने के क्रम में बहुत चमकदार पुरस्‍कार या ऐसा कोई मान्‍यताप्रदायी प्रसंग नहीं है। उन्‍हें किसी बड़े नाम ने ऊंचा नहीं उठाया है, विपिन ने अपना नाम ख़ुद की मेहनत और अनिवार्य धैर्य के साथ स्‍थापित किया है। ए‍क बहुत ख़ास कोण है विपिन की कविता का कि वे प्रचलित,ऊबाऊ और अधकचरे स्‍त्री विमर्श की अभिव्‍यक्ति भूले से भी नहीं करती - वे अपनी कविताओं में डिस्‍कोर्स करती नज़र नहीं आतीं,वे बहस छेड़ती हैं। सीधी टक्‍कर में उतरती हैं। अभी के भारतीय समाज (उसमें हरियाणा जैसे समाज) में गहरे तक व्‍याप्‍त सामंतवाद और खाप-परम्‍पराओं से लड़ती हैं। ये सजगता का निषेध और पीछे छोड़ दी गई सहजता का स्‍वागत करती कविताएं हैं।  डिस्‍कोर्स के छिछले और उथलेपन के बरअक्‍स यहां गहरे ज़ख्‍़मों को कुरदने का साहस है। कविता में निजी लगने वाली पर दरअसल जनता के पक्ष में निरन्‍तर जारी रहनेवाली इस लड़ाई का अपना एक अलग सौन्‍दर्यशास्‍त्र है। 

*** 
उसका अकेलापन 


कभी- कभी मन करता 
बढ़ जाते उसकी ओर कदम   
वह,
हमारे स्कूल की एकमात्र एथलीट 
करती स्पोर्ट्स पीरियड को वही गुलज़ार 

स्पोर्ट्स पीरियड की घंटी बजते ही 
लड़के  हो जाते क्लास  से फुर्र 
लड़कियां, मध्यम  गति में मुस्कुराती हुयी 
निकल आती  कक्षा से बाहर  

लड़के खेलते क्रिकेट, वॉलीबॉल 
लड़कियां करती  गपशप 
करती  बातें गए  दिन देखे  सपनों की,  
परियों की, नेल पॉलिश के रंगों की  
स्पोर्ट्स पीरिएड में भी खेलों से रहती कोसों दूर   

वही एक,
खेल में घोलती हंसी-ख़ुशी भी
न होती वह लड़कों की टोली में शामिल
न लड़कियों के लगती नज़दीक 
जाती अक्सर ही खेल प्रतियोगिता में  
कक्षा में दिखती कभी कभार 
पढ़ाई में उसकी रुचि कम ही होती    
हो उठती  परेशान कभी  पीठ दर्द तो कभी पाँव की मोच से
नहीं बन सकी उसकी कोई सखी- सहेली 
 
स्पोर्ट्स पीरियड में लड़के गोल करते 
रन बनाते, विकेट लेते  
खेल से बेरुखी दिखाती लड़कियां 
स्कूल में प्रार्थना के समय   
न्यूज़ में जिक्र करती  
ताबड़तोड़ रन बनाते लड़को की 
 
सहेलियों से बातचीत में साथ जोड़ देती
यह टैग 
हमारा कैप्टन सनी अच्छा खेलता है’ 
मगर मुझे पसंद आता है विकेट कीपर राहुल 
 
आती है याद आज भी वे सब लड़कियां
अपने स्कूल की एकमात्र एथलीट 
जिसने छोटी उम्र में

अर्जित कर ली थी शोहरत,
के साथ
अथाह  अकेलापन
*** 
ठसक  

पुकारती वे प्रेममयी करुणा में  प्रभु-प्रभु 
निर्विकारअदेह हवा सा प्रभु
उनका प्रेमी  
 
इधर,जीवन को रंगीन सूत  में लपेटने वाली हम 
अपनी पूर्वज प्रेमिकाओं की स्मृतियाँ  
हम पर अपनी तह नहीं जमाती
तो कैसे बन पाती हम
नीची नज़रों वाली तुम सी
भीरु प्रेमिकाएं 
 
सीटियाँ बजाते हुए
हर बार हम प्रेम की गहन गुफा में दाखिल हुयी तो
निकली हर बार  चाहे रोते कलपते ही 
मगर हमनें हर बार प्रेम को,
कहा प्रेम ही 
*** 
 
लय के  रेखागणित का भार ढ़ोती, नृत्य-योगिनियां  
 
हमारी भाषा
देह की भाषा 
हमारी चाल,
हथनी की चाल 
हमारी ऊंगलियां,
हिलते हुए पात
नाखूनआभूषण और श्रृंगार मीठे फलों सा  मधुर
हम आदमकद कठपुतलियां,
पृथ्वी की  नृत्य-योगिनियाँ हम

ज्यों  सांप का जहर चूसता  बादी
मन का तमाम जहर विष चूसने में सिद्धहस्त  हम
नृत्य के कड़े अनुशासन भीतर रह
कमान सी कसती  देह को अपनी,
 
सुबह -सवेरे  नृत्य का  अभ्यास  कर 
समेट लेती  देह भीतर,
पृथ्वी की सारी गतियां  
देवदासियां देवालयों में नाचती प्रभु के आनंद में 
हम राज दरबार में  सिंहासनों  पर बैठे प्रबुद्धजनों  खातिर 
नृत्य के अंग-विन्यास में
 
बूँद की तरह मन की धरती पर धिरकती  हम
चाहती थी हम बनना नर्तकी
सिर्फ नर्तकी 
राज सिंहासनों  ने बनाया हमें राज नर्तकी 
भेदे हमारे  नख- शिख 
जांची हमारी गतियां  
पहनाये हमें तमगे
फेंकी हमपर अपने गले की  स्वर्ण मालाएं 
 
घोषित किया हमें राज नर्तकी
राजा की मुग्धता पर लज्जित हुआ तब राज  दरबार 
कैसे मान्य होता दरबार को  हमारा मान- सम्मान ?
हमारी तुलना अप्सराओं से करता राजा तब   
स्वर्ग के देवता फूला लेते अपने चेहरे 
 
हज़ारों होते हमारी देह संचालन पर  मन्त्र- मुग्ध 
कुतूहल करते देह की लचक पर  लाखों  

बदल जाते उनकी दिनचर्या के इशारे 
नृत्य के आँगन में सिमटकर  
तब हम स्त्री से नर्तकी  बनती  
फिर बनती वसंतमालिनी 
कभी बनती कामकंदला 
कभी आम्रपाली 

हमारा परिचय यही
हमारी गति यही 
मोहनजोदड़ो की खुदाई से मिलती हमारी  प्रतिमाएं 
सदियों से कांसे के सांचे में कसमसाती हम, बिना हिले- डुले 
थक गयी थी हमारी देह तुम्हारे मनोरंजन में 
हमने किया पृथ्वी की गोद में जी भर कर लम्बा आराम 
*** 
हर बार यही देहवासवदत्ता


सत्य को तलाशने के लिए  देखती थी हम दर्पण 
प्रेम दिखा तो एक छोटे से झरोखें से 
तेज़ क़दमों से आगे बढ़ता   हुआ 
 
आस जन्मी भिक्षु उपगुत्ता  को  पाने की  
मनचाहा टला इस बार भी  
तुम्हारा मन कब तुम्हारा हुआ वासवदत्ता  ? 
और देह तुम्हारी 
देह से ही हटती तुम बार बार
लौट आती इसकी देहरी  पर फिर 
 
देह की स्वीकृति के लिए नहीं करनी चाहिए प्रार्थना 
तुम करती थी मगर ध्यान 
देह ठहरती तो  आत्मा मोक्ष का गुहार करती 
मन की दूसरे किनारे 
दिखते  बुद्ध
तुम्हारी देह को देह मनवाने के लिए  
 
झूलती रहती  
इस बीच तुम देह और जीवन के मध्य 
उपगुत्ता के  इंकार ने जीवन तपाया 
हामी ने दी नयी दिशा 
 
थी अब तुम देह के उस पार 
दूर बैठे मुस्कुरा रहे थे बुद्ध
विभोर थी तब तुम
कातती हुयी प्रेम की कपास 
देह के नज़दीक रह कर भी
देह से दूर जा कर भी 
*** 
 

प्रशान्त विप्लवी की बारह कविताएं

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प्रशान्त की कविताएं समकालीन युवा कविता संसार में केन्द्रों के बरअक्स सीमान्तों की हूक की तरह हैं। उन्हें पढ़ना दूर-दराज़ के इलाक़ों को पढ़ने जैसा है जबकि कवि का रहवास सीमान्तों या दूर-दराज़ के इलाक़ों का नहीं है। ये सामान्य जीवनानुभव हैं, उन अनुभवों की निजी लेकिन विकट छवियां हैं, जो एक संसार रचती हैं। वह संसार, जो हमारा है, हमारे निकट का है पर जिस पर हमारा ध्यान कभी है, कभी नहीं।


साथ ही यह कविता के केन्द्रों में मान्यता मसला भी है, जहां विशिष्टों का ही बोलबाला है। कविता के सामान्य-से ठिये अनुनाद पर प्रशान्त का स्वागत है।
*** 
प्रशान्त-आलाप


.बदचलन औरतें


कुछ औरतें सचमुच बदचलन होती हैं
जैसे कुछ मर्द होते हैं सद्चरित्र
बाप,भाई, पति और समाज के मुँह पर पोतती हैं कालिख
लेकिन कोई शर्म से डूबकर नहीं मरता
 
मार दी जाती हैं वो औरतें
घर से, समाज से, स्मृति से, शरीर से
कुछ बदचलन औरतें फिर भी रह जाती हैं शेष
कि सचेत कर सके
 
कैसे इंद्र की खूबसूरती एक छद्म है
और उसके देवत्व में छुपा हुआ है कुछ देवताओं का छल-प्रपंच भी

नामर्द जैसे शब्द बेहिचक इस्तेमाल करती हैं ये औरतें
शब्द उच्चारण में एक हिचक
समय से नष्ट हो जाती है
जैसे-जैसे वो शाप-भ्रष्ट होने  लगती  हैं
बदचलन हो जाती हैं एक अदद औरत

किसी बदचलन औरत ने ही किया था पहली बार खुलासा
कि मर्दों की एक बड़ी आबादी है
जो दरअसल मर्द नहीं हैं



२. कविता

शब्दों को रखो ऐसे ..
जैसे तुलसी-चौरे पर रखती थी दादी
 
काँपते हाथों से संभालकर
 
एक टिमटिमाता हुआ दीया
पंक्तियों को बन जाने दो खुद-ब-खुद 
जैसे छोटी लड़कियाँ
 
खेल-खेल में बाँध लेती है
 
अपना-अपना हाथ
संवेदना के ज्वर में तपने दो अभिव्यक्ति 
जैसे देर तक सेंकती है माँ
 
मक्के की रोटी दोनों ही पीठ
बराबर-बराबर ..
बहने दो कविता को 
उसको उसकी ही गति में
 
जैसे कोई बच्चा विदा करता है
 
कागज की कश्ती को किसी बरसाती नाले में ...




३. उदास दोपहर में ..

 
उदास दोपहर में ..
जब छतें बेहद चुप रहती हैं 
और घरेलू बिल्ली दुलकते हुए चलती है सूनी सड़क पे 
सबकुछ ठीक होने की 
एक आश्वस्ति रहती है ..
मुझे रात के किसी भी गंभीर पहर में 
बिल्ली का रोना अच्छा नहीं लगता
 
मुझे नहीं लगता कि कोई घरेलू बिल्ली रात में रोती है
उदास दोपहर में ..
 
सबसे अकेला लगता है वो खजूर का पेड़
 
जिसके खुरदरे शरीर पर
 
शाखें नहीं टिकती
 
उसने एक मुट्ठी हरियाली बचा रखी है
 
अपने ही मुँह में
खजूर का पेड़
 
घरेलू बिल्ली को नहीं डरा रहा अभी ...
बिल्ली दुलकते हुए चल रही है
 
फिर तेजी से फांद गई है
 
एक छत से दूसरे छत
शाम उतरते ही मुस्कुराने लगा है बूढ़ा खजूर




४. कवि की मौत 

 
अंतिम कविता में
पानी माँगा
गाँव माँगा
छाँव माँगी
और अलसाई-सीठाँवमाँगी
कविता के उर्ध्व पंक्तियों में दर्ज की
अपनी अकुलाहट
अंतिम पंक्ति के नीचे
रुग्ण हस्ताक्षर किये
और आँखें गोल कर पढता रहा कई बार
पानी..
गाँव ..
छाँव
ठाँव ..
विछोह में मरते हुए कवि के शब्द पंक्तिबद्ध रहे
पानी के तल-अतल तक
गाँव के सिमाने पर नीम के नीचे
छंद को टिकाये रहा देर तक
भाव पड़े रहे शिथिल-निष्प्राण
पन्नों के ठाँव में ..
एक अदद बाजार में ढूंढती रही कविता
अपने लिए एक छाँव
कवि, झूठे शब्दों के तिलिस्म में फँसा रहा जीवन-भर
पानी सूखते रहे
गाँव उजड़ते रहे
छाँव कौए की पीठ ही रही
हर अलसाई दोपहर में
एक कवि की मौत होती है




५. जनता की आँखों में

सामंती कुर्सी का एक हत्था 
जब जलाया गया घूरे की आग में
 
बिरंची की आँखें चौंधिया गई
 
लालबाबू को विलीन होते देखकर राख में
बिसेसरा को दे दी गई जोत की ज़मींन 
मालती को सौंप दी गई जप्त बकरी गाभिन
 
हेहड़ बच्चा रगेदने लगा खेत से बाछी
परिहारा वाली नवकी को चिढ़ावे बोलकर चाची
गाँव में घसर-घसर चलने लगे चप्पल
किसका घर-किसकी देहरी
कौन मालिक और है कौन मुख्तार
 
पन्नू बूढ़ा जोर से बोले यही है सुराज
अदला है बदला है सपने भी खूब है 
जनता की आँखों में मंहगाई की धूप है
खेत है खलिहान है किसान भी खूब हैं
 
गाँव की आँखों में सपनों की भूख है
कुर्सी का हत्था टूटता कहाँ है
बाप गया हाथ धोने, बेटा यहाँ है
बदला मिजाज़ है, ये कैसी सरकार है
चर्चे चले हैं मँहगे सामान पर 
रिश्ते बढे हैं पडोसी दूकान पर
 
मोहलत में टिकी है गरीबों की गरीबी
 
सपनों को देकर किसने सत्ता खरीदी
पन्नू बूढ़ा देख गए अपना सुराज 
पन्नू बूढ़ा ले गए अपना सुराज
मरे कोई भूख से या जान जाय गोली से
पास करे पढ़कर या टॉप करे लूट से
एक मुद्दा दारु पर अटकी हुई है सुई
कौन जाने इस प्रदेश को नज़र लग गई मुई
 



६. काले चादर पर रौशनी

सिराज़ घर पर नहीं था
उसकी अम्मी ने पानी पिलाया और नोट्स दिये
नये शहर में नॉर्मल और सेंसटिव डे जैसा कुछ फील नहीं होता है
बेकापुर के ललन सर मैथ्स पढ़ाते थे
मुंह में पान की गिलौरी दबाकर
एक एक आर्टिकल मोटे-मोटे अक्षरों से कॉपी भर देते थे
कॉपी में पान के पिक के छींटे ही 
ललन सर के शिष्य होने का प्रमाण था
दिलावरपुर से काली ताजिया होते हुए
बेकापुर के लिए एक सहज रास्ता है
लेकिन किसी आम दिन के लिए
अगर कमेला को पार कर सकते हैं
तो पुरबसराय दिलाबरपुर के नाक के पास है
लेकिन किसी आम दिन के लिए
अज़नबी शहर में शहर के बंदिशों से वाकिफ नहीं था
बेकापुर से दिलावरपुर लौट आया
बीच में काली ताजिया भी आई थी
सिराज़ का घर भी आया था
उसके दादा जी भी खूब पान खाते थे
उस रोज़ अचानक कुर्सी से उठकर आ गए
घर का हालचाल पूछते हुए साथ साथ चलने लगे
दिलावरपुर की सड़क दिखने लगी थी
पान दुकान पर रेडियो पर गाने की जगह खबरे सुनी जा रही थी
दिलावरपुर काली मन्दिर के पास मेरा स्वागत हुआ
देह टटोला गया
कोई खरोच नहीं
कोई खरोच नहीं, उनके लिए हतोत्साहित करने जैसा रहा होगा
कुछ लोग अचरज में भी थे
बेकापुर के लिए रास्ता लम्बा हो गया
रिफ्यूजी कॉलोनी से घूमते हुए बेकापुर
मेरे लिए दुरी असहजता नहीं थी
मेरे लिए असहजता थी
काली ताजिया के पास के उस अभ्यस्त जीवन से दूर हो जाना
उस जाने-पहचाने लोगों को नहीं देख पाने की छटपटाहट
 
मैं बीमार हो गया
जैसे देश बीमार हो गया था
खैर ! लौट आया हूँ ..
लेकिन दिलावरपुर की कोई खबर मेरे पास नहीं है
अखबारी ख़बरों में मेरे हिस्से का दिलावरपुर नहीं है ..

शायद इस जेठ की दोपहरी में सूर्य की चटकती किरनें
उस काले चादर पर पड़ रही होगी
और सिराज़ के दादा जी के होठो पर पान की लाली और गहरी हो गई होगी
दिलावरपुर के लोग
 
उन सबों का हालचाल पूछते हुए
बेकापुर की तरफ बढ़ गए होंगे



७. आदमी मर सकता है

पुराने बाशिंदों के स्मृति लेखों वाली दीवारें
कुछ गिरा दी गई हैं
कुछ गिर पड़े हैं
विह्वल प्रेमियों के नाखूनों से कुरेदे हुए अक्षर
स्वरूप खो चुके हैं
समय ने अक्षरों में झुर्रियाँ दी है
आसमानी इमारतों ने घेर लिया है रंगीन छतों को
सड़के, गलियाँ और मोहल्ले
 
आबादी से पटा है
बंटा है घर
और एक-एक आदमी बंटा है
तन्हाई नहीं है
दोपहर का सूनापन भी नहीं है
दरवाजों के पाटों के बीच फांक से
कोई लड़की नहीं घूरती है सड़क
पुरानी चीजों से जकड़कर भी आदमी मर सकता है
पीपल की छाँव, जहाँ झूले लगे हों
फुरसतिया लोगों के पाँव पसरे हो
कुत्ते झपकियां लेकर पड़े हों चुपचाप
वहां किसी भी आदमी का कत्ल हो सकता है
मगर आदमी उस जी उठने को लालायित आदमी का ही गला घोंट देता है
आईने के झुर्रियों पर आदमी सँवारता है चेहरा
आदमी अपने अंदर उस आदमी का लाश ढोता है




८. बाहर गया हुआ आदमी

सुनो प्रिये..
मैं सकुशल हूँ
 
लेकिन एक उन्मादी भीड़ ने फिर एक निर्दोष को पीट-पीट कर मार डाला
उसके मृत्यु पश्चात एक भीड़ अफ़सोस भी जता रही है
दुर्भाग्यवश मैं इस घटना का चश्मदीद हूँ
और मैं उस मरते हुए आदमी को भूलना चाहता हूँ
कातर होकर उसके जुड़े हुए हाथ
और थूथने से अनवरत रक्तस्राव 
भीड़ से अनुनय और याचना के लिए उच्चारित एक-एक शब्द
अभी भी मुझे कचोट रहे हैं
सुनो प्रिये
मैं ठीक हूँ
 
लेकिन एक निर्दोष व्यक्ति को मरते हुए देखकर
मैं बहुत डरा हुआ हूँ
अंधे-बहरों के बीच में गुनाह बाद में तय होता है
आदमी पहले मार दिए जाते हैं
हाँ, आश्वस्त रहो कि इसी देश में तय गुनाह पर
गुनहगार को कोई हाथ भी नहीं लगा सकता
सुनो प्रिये
मेरे लिए तुम्हारी चिंता लाज़िमी है
मैं एक डरपोक आदमी हूँ
 
जो न भीड़ बनना चाहती है
 
और न ही भीड़ के खिलाफ की कोई आवाज़
मैं उन मरे हुए लोगों में हूँ
 
जिन्हें कोई निर्दोष आदमी मरते हुए
 
छोड़कर चला जाता है
सुनो प्रिय 
मैं ठीक नहीं हूँ
कभी किसी भीड़ की चपेट में मैं मर जाऊं
तो सोचना मुझे निष्कृति मिली उस प्रायश्चित से
असहज था
निरुपाय था
कि मैं स्तब्ध देख रहा था
एक आदमी लड़खड़ा कर गिर रहा है
और हाँफता भीड़ पसीना पोछ रही है
सुनो प्रिये
आतंकित रहकर भी कुछ किया नहीं जा सकता
पेट के लिए इन वहशी भीड़ के बीच से ही गुज़रना पड़ता है
दस गुनाहगार के साथ एक निर्दोष का मर जाना
 
बुरा तो है , बेपरवाह सा जवाब था भीड़ का, मलाल नहीं था
तुम अपना ख्याल रखना 
बोझिल पैर कितने भी भटक जाएँ
घर का पता ही ढूंढती है
इस भीड़ से बचकर आ पाऊं
 
इसकी प्रार्थना करना
इति 
तुम्हारे घर से बाहर गया हुआ एक आदमी




९. पानी मेरे पिता 

पानी मेरे पिता 
बड़े आयत्व में
 
बेशक बहुत कमतर रहे
 
मगर मौजूदगी कायम रही
 
हर जगह .......
उछाले गए कंकड़-पत्थर
विनम्रता से आने दिया तल तक
 
विस्थापित हुए
 
लेकिन लौट आये समय से
 
अपनी ही जगह पिता
आस टूटने पर 
उतर आये पिता
अन्तरंग तक गीला करने
 
और बुन दिया आहिस्ते-आहिस्ते कोई नयी योजना
निरुपाय पिता 
पानी रहे ...
सूखते रहे
 
सूखते रहे
 
सूखते रहे
 
जैसे लुप्त हो गए
 
फिर आँखों से उमड़ आये
 
मन का बोझ
 
बहा ले गये
 
पानी मेरे पिता
 




१०.नैयकी का स्वांग

चार साल के वैवाहिक जीवन में 
नैयकी को दौड़ा पड़ा पूरे सात बार 
ओझा गुनी सब उम्र-दराज 
हार गया नैयकी के भूत से 
मगर मंतरिया जानता है देह-गंध 
ब्रह्म-डाकिनी और चुड़ैल की
देह सूंघ के कुछ देर तो चुप रहा 
फिर कलाई को आहिस्ते से दबाकर
 
मिलाया आँख-से-आँख
 
भयानक आँच से डरा
 
एक लम्बी सांस छोड़कर जाहिर किया
 
ऐसा-वैसा नहीं बड़का पीपर वाली ब्रह्म-डाकिनी है
 
नैयकी आश्वस्त हुई
 
मंतरिया के आँखों की लाली देख
 
पक्का इलाज़ इसी के पास है
हर रात जब भी संजोती कोई रंगीन ख्वाब 
पिटती और रोकर गुजार देती रात
 
नवेली दुल्हन की टीस
 
और पियक्कड़ दूल्हा
 
दोनों बिछावन के दो तरफ
बंधन में बंधी लड़की 
बनाती है योजना ..
बाल खुलते ही
 
सूर्ख लाल हो जाती है आँखें
 
भवें तन जाती है
 
और घृणा से भर उठता है मन
 
पहले आहट पर गुर्राई
 
कलाई पकड़ते ही चिल्लाई
 
उठा-पटक में पियक्कड़ था बिल्कुल नीचे
 
बैठ उसके छाती चीखती रही
 
तृष्णा और अतृप्त देह की चीत्कार से
 
गूंज उठा पूरा मुहल्ला
 
किसी चुड़ैल का साया है
 
या है ब्रह्म-डाकिनी की ये डाक
उस रात ...
बेसुध सोई नवेली
 
और पियक्कड़ रतजगा बैठा
 
सेवता रहा नैयकी को
 
देह का उत्पीडन तो खत्म हुआ चुड़ैल की
 
मगर यौवन की प्यास में
 
तड़पती रही नवेली कई-कई रात
मन्तरिया का स्नेहिल स्पर्श 
जगा गई है एक क्षीण उम्मीद
 
गाँव की सहमति है
 
कई-कई रात कटे मन्तरिया संग अकेले
 
तब जायेगी ब्रह्म-डाकिनी
 
मगर उसकी आस्था जाग उठी है
 
रोई लिपटकर पति से
 
इस दुर्गन्ध से मुक्ति लो जल्दी
 
वर्ना जायेगी नहीं ब्रह्म-डाकिनी
फिर उस रात के बाद 
न मन्तरिया आया ..न ब्रह्म-डाकिनी
 
न महकी शराब की गंध
 
न उठा कोई कायर हाथ
 
कोख में पैर पटक रही है
 
कोई नई जीव बार-बार
 



११. बनारस

एक बूढ़े शहर के तलघर में 
बची हुई है निझूम शांति 
उसकी खुरदरे जमीन ने बचा रखी है 
पैरों के घर्षण का पुराना संगीत 
अतीत के पन्नों पर कोई रख गया है उम्मीद का एक बड़ा पत्थर 

बूढ़े शहर के पुराने लोग बंद हैं अपने घर के बंद कमरों में
उनकी स्मृति में बूढ़े शहर की सुबहें हैं , दोपहर है , रात है
हर शाम उस जर्जर चाय की दुकान पर
आश्वस्त होने के लिए गटकते हैं गर्म चाय की एक बड़ी घूँट

उस मरगंग के पेट पर
डोल रहे हैं कुछ नाव
कुछ विक्षिप्त लोग एक नाव के मचान पर याद कर रहे हैं अपना पुराना शहर
आगंतुकों की जिज्ञासा पर उत्सुक नहीं है बूढ़ा कवि
बूढ़े कवि ने हाथ में ले रखी है एक नई किताब
उसकी आँखें पीछा कर रही है शब्दों का

मेरे भागते पैर क्लांत होकर टूट रहे हैं
आकुल होकर ढूंढ रहा हूँ एक बूढ़ा शहर
उन घाटों पर चमकीले पोस्टर्स हैं
पागल चिन्तक , चित्रकार , मलंग बेदखल हो चुके हैं
लेकिन वहां बैठा हुआ है एक चिंतित बूढ़ा कवि
उसकी आँखों में मैं देख रहा हूँ
एक शहर , एक पुराना शहर , एक बूढ़ा शहर ....बनारस 



१२. कड़क चाय

कितनी आसानी से पूछ लेती हो
कॉफ़ी या चाय
और मैं अनमने ढंग से बोल देता हूँ
चाय कड़क
तुम सोचती हो हर बार
मैं कॉफ़ी क्यों नहीं बोलता
लेकिन जब भी तुम कॉफ़ी मग बढ़ा देती हो
मैं थामकर, मुस्कुरा देता हूँ
और चुस्कियों में सुनाता हूँ
पापा से जुडी कोई कहानी
बिलकुल मेरे पास बैठकर
तुम तन्मयता से सुनती हो
हर बार कहानी पूरी हो जाती है
और कॉफ़ी ठंढी
तुम दूसरा मग बनाना चाहती हो
सिर्फ मेरे लिए गरमा-गरम
मगर मैं किसी गहरी तन्द्रा में देखता हूँ -
पापा बरामदे पर रेडिओ से आ रही कोई पुरानी गीत सुन रहे हैं
लैंप की पीली रौशनी में
मैं पलट रहा हूँ कोई किताब
माँ आकर बता जाती है कॉफ़ी बनने की बात
मैं होठो की मुस्कान दबाकर झांकता हूँ
पापा का चेहरा
जहाँ सुकून ठहरा है
माँ उबाल कर कॉफ़ी बना रही है
मैं जानबूझकर खड़ा हूँ माँ के पास
एक चम्मच कॉफ़ी बढ़ा देती है माँ
मेरी घूँट तक टकटकी लगाये देखती है
फिर पूछती है आँखों के इशारे से कॉफ़ी का स्वाद
मैं भी आँखों से बहुत खूब कहता हूँ
पापा झांकते हैं रसोई में
और खींच लेते हैं नाक भर, कॉफ़ी की महक
माँ की आँखें भर आती हैं
पापा बहुत खुश हैं आज
उनकी आँखें चमक रही है
मैं जानता था
माँ की आँखे पापा की ख़ुशी में भर आती थी
और हमारे घर कॉफ़ी बहुत कम बन पाती थी
इसलिए जब भी तुम
आसानी से पूछती हो – “चाय या कॉफ़ी
मैं अनमने ढंग से बोलता हूँ
चाय कड़क 
***

हिंदी दिवस विशेष : हिंदी-उर्दू कविता के गढ़वाली रूपान्तरण : नेत्र सिंह असवाल

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सोशल मीडिया पर रहने दौरान अचानक मेरा ध्यान नेत्र सिंह असवाल जी की टाइमलाइन पर गया। वहां हिंदी और उर्दू कवियों की कविता के गढ़वाली रूपान्तरण दर्ज़ थे। अपनी बोली-बानी में इन अनुवादों को पढ़कर मैं चकित रह गया। मेरे लिए मेरी भाषा की ताक़त को इस रूप में देखना सुखद है। मैं बहुत आभारी हूं अग्रज नेत्र सिंह असवाल जी का कि उन्होंने इन्हें अनुनाद पर लगाने की अनुमति दी।
कुंवर नारायण की कविता 'अबकी अगर लौटा तो'और उसका गढ़वाल़ी रूपांतरण :

अबकी बार लौटा तो
बृहत्तर लौटूंगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
कमर में बांधें लोहे की पूँछे नहीं
जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूंगा उन्हें
भूखी शेर-आँखों से

अबकी बार लौटा तो
मनुष्यतर लौटूंगा
घर से निकलते
सड़को पर चलते
बसों पर चढ़ते
ट्रेनें पकड़ते
जगह बेजगह कुचला पड़ा
पिद्दी-सा जानवर नहीं

अगर बचा रहा तो
कृतज्ञतर लौटूंगा

अबकी बार लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूंगा


अबै दा अगर बौड़ुलो त
 

अबै दा अगर बौड़ुलो त
अफु से माथ
सबका साथ ह्वेकि बौड़ुलो

नाक मूड़ लगैकि चूंचदार मूच ना
कमर मा बांधिकि लोखर का पूच ना
दगड़ मा चल्दा बटोयूं तैं द्यूंलो काग भी
नि द्यखुलो वूं तैं---हिर्र, भूखो बाघ-सी


अबै दा अगर बौड़ुलो त
सचे, द्वी हाथ
मनिख से माथ ह्वेकि बौड़ुलो


घर से भैर निकल़्द दा
सड़कु फर आंद-जांद दा
बसु मा चढ़द दा
ट्रेन पकड़द दा
जगा-कुजगा पत्त पत्यड़्यूं प्वड़्यूं
क्वी चखुलो मखुलो- सी ना


अगर बच्यूं रयो त
बड़ो ऐसान मुंड माथ ल्हेकि बौड़ुलो


अबै दा अगर बौड़ुलो त
म्वर्यूं-भज्यूं ना
सब्यूंको भलो-बुरो सोचदो
निगुरो निगुसैं को ना
पैलि चुले पूर्ण सनाथ ह्वेकि बौड़ुलो ।

*** 

वीरेन डंगवाल की कविता 'इतने भले नहीं बन जाना साथी'और उसका गढ़वाली  रूपांतरण :

इतने भले नहीं बन जाना साथी

जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी
गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कूवत सारी प्रतिभा
किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?

इतने दुर्गम मत बन जाना
सम्भव ही रह जाये न तुम तक कोई राह बनाना
अपने ऊँचे सन्नाटे में सर धुनते रह गये
लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना

इतने चालू मत हो जाना
सुन-सुन कर हरकतें तुम्हारी पड़े हमें शरमाना
बगल दबी हो बोतल मुंह में जनता का अफसाना
ऐसे घाघ नहीं हो जाना

ऐसे कठमुल्ले मत बनना
बात नहीं हो मन की तो आता जिसको बस तनना
दुनिया देख चुके हो यारो
एक नज़र थोड़ा सा अपने जीवन पर भी मारो
पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव
कठमुल्ला-पन छोड़ो, उस पर भी तो तनिक विचारो

काफी बुरा समय है साथी
गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती
अन्धकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन
जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती
संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती
इनकी असल समझना साथी
अपनी समझ बदलना साथी

अपणी समझ बदलणा साथी
 

इतगा भलो नि बणि जाणो साथी
जतगा भला चुचौं सरकस का हाथी ।


गधा बणणा मा ही लगै दे
अपणी सर्या ताकत,अक्कल, खैंचाताणी
ना कै से कुछ ल्यायो
ना कै तैं कुछ द्यायो
इनो भी क्या जीवन लोल़ो
फगत उमर गंवाये, बुढे गयो भुजेलो ।


इनो भेल़-भंगार भी नि बणि जाणो अबेड़ो
बुरै की मौ, जु कै तैं मौका हो
तुमु तक क्वी पैंडो पैटाणो/बाटु बणाणो
अपणा ऊंचा निलाट मा ही
कपाल़ रेचदो रै जाणो
पण जीवन को जरा भी मर्म नि जाणो ।


इतगा चंट चलाक भी नि ह्वे जाणो
कि सूणिक/देखिक तुम्हरा रंग-ढंग
मुश्किल ह्वे जाउ
हमु तैं अपुणो मुक लुकाणो
काख मा बोतल़/मुख मा जनता को/
संस्कृति को गाणु बजाणो
छी, इतगा छंट्यूं भी नि ह्वे जाणो ।


इतगा फुंड्या /लकीर को फकीर नि बणि जाणो
कि बात नि ह्वा जब अपणी गौं की
तब खड़बट नरनुरु ह्वे जाणो
देस-दुन्या देखिक ऐ रो, ठैरो
जरा एक नजर अफु जनैं भी हेरो
पोथी पतरा ज्ञान कपट से भौत बड़ो छ मनखी जीवन
नाड़पना छोडो
यां फर भी कुछ सोच विचारो ।


जमनु भौत खराब छ साथी
घोर गिड़कणा घन घमंड का
आसमान की फुटणी छाती
चौछ्वडि़ अंधाघोर अंध्यर मा
चिलबिल चिलबिल मनखी जीवन
जै फर चाल चल्ल/घड़ी घड़ी
अपणी स्वटगी तैं चमकाणी


संस्कृति का ऐना मा
ई जो मुखड़ी छन मल़काणी
यूंकी असल शकल पछ्यणणा साथी
अपणी समझ बदलणा साथी ।
*** 


दुष्यंत कुमार की दो ग़ज़लें और उनका गढ़वाली  रूपांतरण :
 

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

-    - -
ह्वे गए परबत कनी, या पीड़ गल़णी चैंद भै
ये हिमाला से कुई गंगा निकल़णी चैंद भै ।


आज मत्थे पाल़ परदौं की तरौं हलणा लगे
शर्त लेकिन छै कि मूडे़ पौउ हलणी चैंद भै ।


हर सड़क फर, हर गल़ी मा हर नगर हर गौंउ मा
हाथ झटगांदा झटग, हर लाश चलणी चैंद भै ।


सिर्फ हफरोल़ो लगाणो ही मेरो मकसद नि छा
मेरी कोशिश छा कि या बघबौल़ मिटणी चैंद भै ।


मेरा जिकुड़ा मा नि ह्वा त, तेरा जिकुड़ा मा सही
ह्वा कखी भी आग लेकिन आग जगणी चैंद भै ।

- - -


कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये.
- - -

कखा त बल़्णि छै बग्वाल़ यख मवार खुणै
कखा स्यु हर्चिगे बतुलो भी गौं जवार खुणै ।


यखा त डाल़्यूं का छैलु घाम लगद ब्वयो
चला जि फुंडु कखी हौर गौं गुठ्यार खुणै ।


नि ह्वा कमीज त घुंजौंल पेट ढकि ल्याला
इ लोग कन लौबाणी का जाण पार खुणै ।


खुदा नि ह्वा न सही आदमी को ख्वाब सही
दिखण दिखौण्य त छैं छ दिल दुख्यार खुणै ।


उ बौंहडा. पड्यां कि ढुंगु गैल़ि नी सकदो
मैंकू उठाप्वड. आवाज मा अंगार खुणै ।


तेरो निजाम छ डामी दे थुंथरि शायर की
उज्याड. बाड. जरूरी छ या, गितार खुणै ।


जियां त चांठ अपणा डाल़ि गछ फुलार फुनैं
म्वरां त बोण बिरणा डाल़ि गछ फुलार खुणै ।


***
 
उर्दू शायर निदा फ़ाज़ली की एक ग़ज़ल और उसका गढ़वाली  रूपांतरण :


बेनाम-सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता
सब कुछ तो है क्या ढूँढ़ती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यों नहीं जाता
वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में
जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता
मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब, मैं उधर क्यों नहीं जाता
वो ख़्वाब जो बरसों से न चेहरा, न बदन है
वो ख़्वाब हवाओं में बिखर क्यों नहीं जाता

 - - -
क्याप-सी यो दर्द ठहर क्यो जि नि जांदो
जो बीत गए स्यां, स्यु गुजर क्यो जि नि जांदो।


सब कुछ त छ, झणि क्या खुजणी रंदन आंखी
क्या बात छ, मी बगतल् घर क्यो जि नि जांदो।


वा एक ही मुखडी. त नी छ सैरि दुन्या मा
जो दूर छ, वो दिल से उतर क्यो जि नि जांदो ।


मी अपणा ही बिरड्यां बाटौं को तमाशो
जैं पैंड जँदन सब,मी भि सर क्यो जि निजांदो।


वो ख्वाब जो बर्षू से न 'मुखडी.''टुकडी.'
वो ख्वाब बथौं मा बिखर क्यो जि नि जांदो ।

***

हॉली मैक्निश : स्तनपान पर शर्मिंदा : भावानुवाद एवं प्रस्तुति - यादवेन्द्र

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स्तनपान के बारे में वैज्ञानिक शोध चाहे कितनी सकारात्मक बातें कहें पूरी दुनिया में युवा शहरी और कामकाजी स्त्रियों में इसको लेकर नकार का भाव बढ़ता जा रहा है - घर से बाहर की दुनिया में पुरुष बहुमत के मद्देनज़र चाहे पुरुष निगाहों की लोलुपता से बचाने वाली लज्जा हो या स्तनों का आकार बिगड़ जाने का भय , तमाम प्रयासों के बाद भी स्तनपान स्त्रियों के दैनिक जीवन का स्थायी भाव नहीं बन पा रहा है। 

हाल के दिनों में दुनिया के पश्चिमी देशों में समाज के ऊँचे पायदानों पर आसीन कुछ जानी मानी हस्तियों ने लगभग मिलिटैंट तेवर में स्तनपान को अन्य क्रियाकलापों की तरह सामान्य व्यवहार मानने का आग्रह किया है और दुनियाभर में उनकी इस पहल का आम तौर पर स्वागत किया गया है।इनमें अग्रणी नाम है अर्जेंटीना की युवा ऐक्टिविस्ट सांसद विक्टोरिया दोंडा पेरेज़ का जिनकी संसद की कार्यवाही में भाग लेते हुए बेटी को स्तनपान कराते रहने वाली तस्वीर मीडिया में चर्चा का विषय बनी। इस फ़ोटो पर जहाँ भरपूर शाबाशी मिली वहीँ यह भी आरोप लगा कि यह सरासर नॉनसेंस और अश्लील है ,संसद किसी का निजी बेडरूम नहीं बनाया जा सकता।  

ऑस्ट्रेलिया की राजनेता गिउलिआ जोन्स ने भी कैनबरा स्थित एसीटी विधान सभा के अंदर विधायी कामकाज के बीच बच्चे को दूध पिला कर इतिहास बनाया।पूरी दुनिया में यह चलन है कि सुरक्षा और गोपनीयता की आड़ लेकर संसद या विधान सभाओं के अंदर किसी बाहरी व्यक्ति को प्रवेश करने की मनाही होती है ,और कानूनन बच्चे बाहरी व्यक्ति माने जाते हैं।  कुछ साल पहले एसीटी विधान सभा ने नियमों में बदलाव करते हुए नवजात शिशुओं की परवरिश करती महिला सदस्यों को सदन में उपस्थित रहने की छूट प्रदान की थी। हाँलाकि पूर्व मुख्य मंत्री केटी गेलंघर कैबिनेट मीटिंगों के बीच अपने बच्चों को कैबिनेट मीटिंग के दौरान स्तनपान कराने के लिए मशहूर थीं। श्रीमती जोन्स का साफ़ कहना है :"यदि मेरे बेटे को भूख लगी है और मैं सदन के कामकाज में व्यस्त हूँ तो उसे दूध ज़रूर पिलाऊँगी -  उसके प्रति यह मेरी ज़िम्मेदारी है। यदि वह भूखा है तो उसको दूध पिलाना ही होगा ,इसमें उसकी ,मेरी और पूरे समाज की भलाई है। "

आज से पंद्रह साल ब्रिटिश हाउस ऑफ़ कॉमन्स की सदस्य जूलिया ड्रोन के प्रश्न के लिखित जवाब में अध्यक्ष ने बताया था कि सदस्यों और बुलाये गए अफसरों सिवा किसी अन्य का संसद में प्रवेश वर्जित है। कोई दस साल बाद कुछ विशेष कमरे इस काम के लिए चिह्नित कर दिए गए। 

इटालियन संसद सदस्य लीसिया रोंजुली की सितम्बर2010  में सदन में डेढ़ महीने के बच्चे को सीने से चिपकाये मतदान करती हुई फ़ोटो पूरी दुनिया  और सराही गयी थी। उन्होंने कहा :"जब हम यूरोपियन संसद में महिलाओं के रोज़गार के अवसर बढ़ाने के लिए काम करते हैं तो प्रेस  पर जूँ नहीं रेंगती - जब मैं अपने बच्चे को गॉड में लेकर संसद में आयी तो अब सबको मुझसे इंटरव्यू करने का समय चाहिए। "

पश्चिमी जगत में सार्वजनिक स्तनपान की वकालत करने वालों ने सोशल मीडिया पर स्वास्थ्य और निजी स्वतंत्रता का हवाला दिया तो विरोध में दूसरा मज़बूत स्वर डिब्बा बंद दूध के चुनाव की आज़ादी के पक्ष में उठ खड़ा हुआ। 

इस तकरार के बीच सोशल मीडिया पर सेल्फ़ी की तर्ज़ पर एक नया शब्द बड़े जोर शोर से उभरा : "ब्रेल्फ़ी" ,यानि स्तनपान कराते हुए खुद की फ़ोटो। 

भारतीय संसद के अंदर ऐसी किसी सम्भावना के बारे में क्या स्थिति है मालूम नहीं चल पाया - पर  निश्चय ही यहाँ  लिखित नियम कानून की तुलना में संस्कृति पोषित लज्जा का पलड़ा भारी होगा इसका अनुमान सहज लगाया जा सकता है।  
 
समसामयिक विषयों पर मुखर प्रतिक्रिया देने वाली ब्रिटेन की अत्यंत लोकप्रिय युवा "स्पोकन वर्ड" कवि हॉली मैक्निश ने स्तनपान से जुड़े लज्जाभाव और परेशानी को व्यक्त करने वाली कविता "इम्बैरेस्ड" ( अनुवाद करते हुए मैंने उसको शर्मिंदा शीर्षक दिया) लिखी जो यू ट्यूब पर लाखों लोगों द्वारा दुनिया भर में देखी और सराही गयी। कैम्ब्रिज में रहने वाली मैक्निश के कविता संकलन और एल्बम बाज़ार में हैं और स्लैम पोइट्री के अनेक ख़िताब वे जीत चुकी हैं। वास्तविक घटनाओं से उपजी इस कविता को लिखने के बारे में वे बताती हैं : 

"यह कविता मैंने अपने छः महीने की  बच्ची  के सो जाने पर पब्लिक टॉयलेट में लिखी। मैं दिनभर बेटी के साथ शहर में यहाँ वहाँ घूमती रही और जब उसको दूध पिलाने लगी तो सामने से किसी ने कॉमेंट किया कि इतने छोटे बच्चे को लेकर मुझे घर में रहना चाहिये ,बाहर निकलने की क्या दरकार है। छोटे बच्चों को हर दो तीन घंटे बाद भूख लगती है और उन्हें दूध पिलाना पड़ता है,और हर दो तीन घंटे बाद काम धाम छोड़ कर घर भागना मुमकिन नहीं है - वैसे भी यह तर्क निहायत मूर्खतापूर्ण है। पर यह कॉमेंट सुनकर मैं शर्म से भर उठी और अगले छः महीने बच्ची के साथ अकेली होती तो दूध पिलाने के समय भाग कर टॉयलेट में घुस जाती - साथ में ब्वॉय फ्रेंड ,दोस्त मित्र या माँ हुई तो अलग बात है। मुझे ऐसा करते हुए हमेशा अपने आपसे घृणा हुई पर करती क्या - डर ,घबराहट और झेंप घेर लेती। अब जब टीवी या मीडिया के बारे में सोचती हूँ तो अजीब लगता है कि न किसी सोप में न  किसी कार्टून में या और न कहीं और ही किसी स्त्री को बच्चे को दूध पिलाते हुए दिखाते हों - भूल कर भी नहीं। अंग्रेज़ और अमेरिकी इस बात से डर कर बहुत दूर भागते हैं - मुझे यह बहुत अजीब सा लगता है। मुझे अपने देश की संस्कृति बेहद अजीब लगती है जहाँ लोगबाग पैसों से हर सूरत में चिपके रहते हैं। मुझे बड़ी शिद्द्त से महसूस होता है कि कुदरत ने जो नियामत हमें बिना कोई मूल्य चुकाये बख्शी है - अपने शरीर को लेकर मैं उन खुश नसीबों में शुमार हूँ - उसके लिए भारी भरकम राशि खा म खा चुकाते रहने वाले माँ पिता की तादाद हमारे समाज में कम नहीं है।खुद मेरी अनेक सहेलियाँ हैं जिनका बच्चों के लिए फॉर्मूला खरीदते खरीदते दिवाला निकल जाता है पर उन्हें अपना दूध पिलाने में शर्म आती है। आखिर हम खरबपति कंपनियों को वैसी चीज़ से मुनाफ़ा क्यों कमाने दें जो हमारे शरीर में बगैर कानी कौड़ी चुकाये भरपूर मात्र में उपलब्ध है। मार्केटिंग की यह कितनी कुशल रण नीति है कि हम ऐसा कुछ करना  अनुचित समझने लगते हैं- यह सोच सोच कर मैं हर आते दिन ज्यादा उदास हो जाती हूँ। अब वह दिन दूर नहीं जब हम  टेस्कोज़ मॉल  में पसीने की बोतल खरीदने जाया  करेंगे और रात में पढ़ने के लिए इलेक्ट्रॉनिक किताबें -- पढ़ें और साथ साथ खरीदे हुए पसीने की बूँदें अपने बदन पर मलते रहें। आप इन्तजार कीजिये … 

मेरा ऐसा कोई आग्रह नहीं है कि दूसरों के विचार बदल डालूँ ,बस यह चाहती हूँ कि मेरी बात लोगों तक सीधे सीधे पहुँच जाये - जब यह बात लोगों की समझ में आकर प्रतिध्वनित होने लगती है तो बहुत ख़ुशी होती है। स्तनपान पर लिखी इस कविता के बारे में ढेर सारे लोगों ने मुझे ई मेल किये ,उसको बार बार पढ़ा सुना और आश्वस्त हुए ,और घर से बाहर निकल कर स्तनपान कराते हुए ज्यादा सहज महसूस किया।"


शर्मिंदा 
        
मैं अक्सर सोचती हूँ पब्लिक टॉयलेट्स में दूध पीना 
कहीं उसको क्रुद्ध तो नहीं करते 
फैसले लेने की मनमानी से 
और खा म खा की विनम्रता ओढ़े ओढ़े 
अब मैं खीझने लगी हूँ 
कि मेरी बच्ची की शुरू शुरू की घूँटें 
सराबोर हैं मल  की दुर्गन्ध से 
हर वक्त घबरायी और असहज रहती  
जन्म के बाद के महीनों में जब जब उसको दूध पिलाती  
जबकि चाहा सबकुछ अच्छा हो उसके सुंदर जीवन में ....
…………………… 
………………… 
मुझे आठ हफ़्ते लगे जब हिम्मत जुटा पायी 
कि निकलूँ सबके सामने शहर में 
और अब लोगों की फब्तियाँ हैं 
नश्तर की तरह आर पार काटने को आतुर .... 
भाग कर घुस जाती हूँ टॉयलेट के अंदर 
इसमें भला क्या है जो अच्छा लगे ....... 

मुझे शर्म आती है कि 
मेरे बदन की पल भर की कौंध कैसे लोगों को ठेस मार देती है 
जिसकी मैंने कोई नुमाइश नहीं लगाई  
न ही उघाड़ कर दिखलाती ही हूँ
पर लोग हैं कि मुझे घर के अंदर बंद रहने की हिदायत देते हैं 
एक सहेली को धक्के मार मार कर 
लगभग फेंक दिया लोगों ने बस से नीचे 
और दूसरी औरत को खदेड़  दिया 
बच्चे सहित पब से बाहर … 
...................... 
………………… 
जीसस ने इस दूध को पिया 
ऐसा ही सिद्धार्थ ने किया 
मुहम्मद ने किया 
और मोज़ेज ने किया 
दोनों के पिताओं ने भी ऐसा ही किया
गणेश शिव ब्रिजिट  और बुद्ध 
सब के सब ऐसा ही करते रहे 
और मैं पक्के भरोसे के साथ कह सकती हूँ 
कि बच्चों ने भूख से पेशाब के भभकों को  
बिलकुल गले नहीं लगाया  
उनकी माँओं को मुँह छुपाने के लिए सर्द टॉयलेट की सीटों पर 
मज़बूरी में घुस कर बैठना पड़ा लज्जापूर्वक
वह भी ऐसे देश में जो अटा पड़ा है 
वैसे विशालकाय इश्तहारों से 
जिनमें यहाँ से वहाँ  तक चमकते दमकते हैं 
स्तन ही स्तन ....... 
………………  
................... 
प्रदूषण और कचरे से बजबजाते शहरों में 
उनको खूब अच्छी तरह मालूम है 
कि बोतल दूध पीने वाले ढेरों बच्चे मर जाते  हैं 
शहरों में तो पैसों की लूट पड़ी है जैसे हों मिठाई 
और हम चुका रहे हैं भारी कीमत उसकी 
जो कुदरत ने हमें नियामत बख्शी है बे पैसा 
शहरों के अस्पताल में पटापट मर रहे हैं बच्चे 
उलटी दस्त से पलक झपकते 
माँओं का दूध पलट सकता है पल भर में यह चलन 
इसलिए अब नहीं बैठूँगी सर्द टॉयलेट की सीटों पर 
चाहे कितना भी असहज लगे बेटी को सबके बीच दूध पिलाते 
यह  देश अटा पड़ा है 
वैसे विशालकाय इश्तहारों से 
जिनमें यहाँ से वहाँ  तक चमकते दमकते हैं 
स्तन ही स्तन ....... 

अब हमें यहाँ वहाँ बच्चों की दूध पिलाती माँओं को 
देखते रहने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।  
****

चर्चित समकालीन मैसिडोनियन कवि निकोला मेदजीरोव की कविताएं ( पेगी, ग्राहम डब्ल्यू रीड, मेगडेल्ना होर्वट तथा एडम रीड के अंग्रेजी अनुवाद से) : हिदी अनुवाद -दुष्यंत

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कवि की औपचारिक अनुमति से हिंदीमें पहली बार अनूदित ये कविताएं प्रिंट में जनसत्ता में आई थीं, (वैसे ये अनुवाद मूलत :kritya international poetry festival के लिए किए गए थे), यानी इनअनुवादों से ही इस कवि को हिंदी दुनिया से पहली बार रूबरू करवाया गया ।स्‍त्रूमिका नामक स्‍थान पर बाल्‍कन वॉर के शरणर्थी परिवार मेंजन्‍में निकोला मेदजीरोव की कविताएं पहली नजर में पलायन की कविताएं लगती है, पर वे गहरे इतिहासबोध के साथ विस्‍थापनऔर बदलते समय को दस्‍तावेज करती महीन काव्‍यात्‍मक कारीगरी वाली कविताएं हैं,उनकी कविताओं के दुनिया की तीस से ज्‍यादा भाषाओं में अनुवाद हुए हैं।हुबर्ट बुरदा यूरोपियन कविता पुरस्‍कार उन्‍हें मिल चुका है। 


***

दरवाजे से ठीक पहले की माटी में

तुम्हारे घर के गिर्द बनी बाड़ ने
तुम्हारे घर को दुनिया का केंद्र बना दिया है।

हर सुबह/ पर्दे की पारदर्शी बुनाई के फूलों से
फिसलती है सूरज की किरणें
खिड़की के कांच पर फैली धूल उतरती है
निष्ठावान विधवा के चहरे के मैकअप की तरह।

हमारा कमरा एक अंतहीन मरूस्थल है
चौखट पर रखे फूलदानों में सजे कैक्टसों के साथ
दरवाजे से ठीक पहले की मिट्टी में।

हम हर रोज उगाते हैं
वह जो कभी नहीं फलेगा फूलेगा
जैसे नाभिनाल या तुम्हारे कपड़ों झडी धूल का टुकड़ा।

कुछ जो बचा रहेगा हमेशा
जैसे किसी के बचपन से
एक स्टिकर रहता है फ्रिज पर चिपका हुआ।
***

हर दिन एक नई दुनिया है

हर दिन नया/ हम रचते हैं एक नया ही संसार
पहाड़ यहां खड़े होगे/ वहां होगे शहर
आज नदियां हमारे लिविंग रूम में बहेंगी

और कल नए सिरे से
बिल्कुल ही शुरूआत से

पतंगो को रहने दो आसमान में
और वहां युद्धविराम।

इस खेल में/ केवल हम बाहर हैं
हर दिन/ कुदरत तय करती है हमारा स्थान

ठीक उन्हीं जगहों पर
मैं सोने के लिए तैयार था एक माचिस की डिबिया में
और तुम एक वायलिन के बक्से में।
***

साए गुजरते हैं

हम मिलेंगे एक रोज
कागज की नाव की तरह और नदी में तैरते तरबूज की तरह
दुनिया का तनाव हमारे साथ होगा
हमारी हथेलियों से होगा सूर्य ग्रहण
और एक दूसरे तक पहुचेंगे हम
हाथों में लिए लालटेन।

एक दिन जब
हवाएं अपना रूख नहीं बदलेगी
सनोबर के पेड की पत्तियां चली आएंगी
हमारे जूतों में शामिल होकर
हमारे घर की दहलीज तक
हमारी मासूमियत के पीछे पड़ेगे क्रूर लोग
तितलियां अपनी धूल छोड़ जाएंगी
हमारे गालों पर

एक बूढी नानी सुनाएगी हमारी कहानियां
वेटिंग रूम में हर सुबह
यहां तक कि जो कह रहा हूं
वो भी कहा जा चुका है पहले
हम हवा के इंतजार में हैं
जैसे होते हैं दो ध्वज किसी सरहद पर ।

और / एक दिन हमारा साया हमसे आगे चला जाएगा।
***

दो चांद


एक लड़की ने देखा अपना अक्स
शहर की साफ~साफ सरहद पर
और अपनी दो आंखों में दो चांद
खोजी जा चुकी दुनिया के आखिरी कोनों को
उसकी नजर करीब ले आती है।

छतों के पार जाता है उसका काई से सना साया
और नीचे अकेलेपन से मरती स्थानीय प्रजातियों को देखता है
दैहिक कंदरा से लेकर
उसके कूल्हों और अस्थिपंजर के बीच से
चमकती है प्रकाश की एक रेखा हर रात।
***

हमारे जन्म से पहले

सड़कें डामर बिछी हुईं/ हमारे जन्मों से पहले
आकार ले चुके थे/ सारे के सारे तारामंडल।
फर्श के किनारों तक/ पत्तियां सड़ गई थीं
चांदी थी कलंक सी/ मजदूरों की त्वचा पर
नींद की लंबाई तक जा रही थी/ किसी की हड्डियां

यूरोप का एकीकरण हो रहा था
हमारे जन्म से पहले
एक स्त्री के केश बिखरे हुए थे
समंदर की सतह पर/ निःशब्द।
***

सूरज तुम्हारे गर्भाशय में निद्रामग्न है

हमने जो उगाए हैं
अनिश्चितता के बगीचे
रात तक इसमें फल आएंगे
जब सूरज सो चुका होगा
तुम्हारे गर्भाशय में
जो इंतजार में होगा मेरे बीज के।

हम खनिजों के बारे में अनजान हैं
और उन दफनाए गए खिलौनों के बारे में
और उन भंवरों के बारे में भी
दो युद्धरत देशों के बीच

भुला दिए गए/ बचपन के निशान
ढक दिए गए हैं/ बैलगाड़ी के पहियों के निशानों से
और धरती महकती है

यहां से हमारी मासूमियत
और गतिमान होता है चमकीले शहरों की ओर
और वजूद उसका सिर्फ नक्शों में बचा है
और आसमान में/ जब वहां चांद अनुपस्थित है।
*** 
दुष्यन्त हमारे लिए अब तक अनजान रहे कविता के कुछ हिस्से रोशन कर रहे हैं। अनुनाद इन अनुवादों के लिए उनका आभारी है।

अमित श्रीवास्तव की दो कविताएं

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इस दुनिया में रात भर जागती है कोई स्त्री
इसी दुनिया में कोई कोई पागल प्रेम कर बैठता है

सरल, लगभग अभिधात्मक दीखते वाक्यों के बीच भाषा जीवन के बिम्ब बनाती है तो कविता में एक अलग हूक उभरती है। अमित का कवि आजकल ऐसी ही किसी हूक के बीच छपटपटा रहा है। अतिपदत्व की आशंका भी उसे राह से विचलित नहीं करती। हठ सरीखी हूक और हठ सरीखी ही एक भाषा के साथ वह ऐसे इलाक़े में है जहां धूप में पत्तियां गर्म नहीं होतीं/चुपचाप सिर झुकाकर/विलगा लेतीं खुद को..... यह बेबसी अनायास ही उस संसार का पता देती है, जो अब सरल से जटिल हुआ जाता है -  इस जटिलता को ऐसी ही अकस्मात् सरलता में संभव किया जा सकता है।

मित्रताएं, प्रेम, अकेलापनऔर बहुत तपाक से कही गई लगती कई बातें यहां हैं, किन्तु उतना ही ख़ामोश करवटें बदलता एक भीतरी जगत भी है, जिसे समझा जाना हमेशा बाक़ी ही रहा है। कहीं कुछ चरमराने-टूटने की आवाज़ आती है तो आप न देखते हुए भी एक वृक्ष को टूटते देखते हैं – समूचे संसार और उसके अवयवों से हर ओर ऐसी ही आवाज़ें आएं तो आप क्या समझेंगे... गिरती हुई संरचनाओं को थामने जो हाथ आगे बढ़ते हैं, कवि के हाथ हैं .... किसी टूटन को समूचा प्रकट कर देने के बीच ही कहीं उसे थाम भी लेना कवि का काम है – इस मायने में अमित बहुत समर्थ कवि है ..... बहुत दिन बाद अमित की कविताएं अनुनाद को मिली हैं, संयोग ही कहिए कि बहुत दिन अनुनाद पर कोई पोस्ट लग रही है।
***
फिर फिर गुएर्निका

फ्रेंड फॉलोवर एन्ड लाइक

इस दुनिया में

अक्सर
इसका तर्जुमा इतना भर होता
कि वो होता है
क्या होना इतना ही आसान है होना
मैं पूछता हूँ और अतिपदत्व का दोषी हो  जाता हूँ

मेरा होना व्यक्त होना भी है
मैं प्रेम के अतिरेक में थूक देता हूँ
वो घृणा की हद पर जाकर चूम लेता
अनुभूति के सघनतम क्षणों में
इस तरह दोनों ही
स्किज़ोफ्रेनिया के पीड़ित कहलाते

इसी दुनिया में
प्रेम पाने की न्यूनतम योग्यता
न्यूनतम मनुष्य होने की कसौटी से हटाकर
कुछ प्रश्नों के आतुर जवाबों के पीछे छिपा दी गयी है
प्रश्नों में रक्त चाप से सम्बंधित सवाल ज़्यादा हैं
घृणा के बारे में न्यूनतम शर्त कुछ नहीं
आदमी दिखना बस एक बहाना है
पशु हो जाने का

वैसे तो सबकुछ कहा जा चुका
लेकिन अभी अभी कहा गया कुछ
अभी अभी सुना गया है यहां

कहा गया कि तस्वीर के पीछे पहेली वही है
कहा गया कि तस्वीर के हिज्जे वही हैं
सुना गया कि तस्वीर वही है
होने न होने के बीच
पसन्द नापसन्द का झीना पर्दा है
कुछ इशारों की दूरी है
जो अक्सर उतना ही कहती है
सुना ज़्यादा जाता है

कभी किसी इजलास में
भाषा को जब कटघरे में खींचा जाएगा
कौन तय करेगा इशारों की जवाबदेही
गो कि मनुष्यता के सरलतम दांव पेंच में 
फैसला मुश्किल होगा

इस दुनिया में
पर्दे के ऊपर का नीला उजाला
पीछे की अँधेरी धूप से रोशन है
ऐसा कहना इतिहास को प्रेयसी की नज़र से देखना है
धूप में पत्तियां गर्म नहीं होतीं
चुपचाप सिर झुकाकर
विलगा लेतीं खुद को
मियाद पूरी होने के बाद
क्यों तुम्हारे ख़त गुलाबी न रहे
इसलिए क्या कि ख़ाक से रिश्ता टूट गया

इसी दुनिया में मगध सज गया है
द्वारिका बस गयी है
हड़प्पा की अधटूटी मूर्ति  
फिर दफनाई गयी है अभी अभी
समझ नहीं आता यहां घर हैं या चौसर

अपनी उड़ान स्थगित कर दी है पंछियो ने
हमेशा हमेशा के लिए
उन्होंने उड़ते हुए कुछ मगर देखे हैं
इस दुनिया में एक टुकड़ा ज़मीन के लिए
कई घरों का आसमान उधार पर है
इसी दुनिया में हवाएं रुख़ बदलती हैं तो
पानी रंगत छोड़ देता है
इस दुनिया में जलकर भी
प्यास नहीं बुझती
राख से उठती है फिर उड़ने लगती है पंख फड़फड़ाते

ये दुनिया अब भी इसी दुनिया में है
इस दुनिया में इसी दुनिया की
मुकम्मल आवाजाही है 
यही दुनियादारी है

इस दुनिया में रात भर जागती है कोई स्त्री
इसी दुनिया में कोई कोई पागल प्रेम कर बैठता है
***
 
आधा दरिया आधा ख़ाक


कांटे की तरह चुभने लगे 'वो'शब्द
चुन चुन कर निकाले
.......
लहरा रहा गूंगापन
दबे हुए कण्ठ से
अब बोलना मुश्किल लगता है
देखो मैंने मुश्किल कहा ना
लंगड़ी भाषा में
बिना गिरे चलना मुश्किल है
दौड़कर कैसे आऊंगा पास तुम्हारे
कैसे जताऊंगा अपना प्रेम

मैंने किताबें जलाईं 'उनकी'
फैज़ मोमिन ग़ालिब
अरे उफ़ हाय
आधे तो प्रेमचन्द ही जल गए
प्यास के किनारे सूखे होठ
राख से बिखर गए
इस मुए गुलज़ार का क्या करूँ

कटोरियाँ पांच लगाईं
खाली रह गईं तीन
अब भूख से कुलबुलाते
स्वाद से बेजान
दस्तरखान
लपेटकर उठ गया हूँ

कानों को थोड़ा कष्ट हो शायद
अहम् सन्तुष्ट
इसलिए कुछ रागनियां छाँट कर अलग कीं
कुछ भजन रख दिए परे
कुछ घराने अलगाए
वाद्य यन्त्र तो फोड़ ही दिए 'उनके'दिए
नृत्य मुद्राओं से छीन लीं सारी गतियां
इश्क़ मजाज़ी से इश्क़ हक़ीक़ी तक
चौंसठ पड़ाव थे
इतने ही घाव दिए
अपाहिज हुई कला के साथ
सम्राट सा व्यवहार नहीं
सीमा पार से घुसपैठिये आतंकियों
सा व्यवहार किया
अब आलाप में गर्म शीशे सा पड़ता हूँ

मैंने खारिज की नींद आज की
वापिस किया खर्राटों को सिरहाने से खाली हाथ
मुझे 'उनके'बुने नर्म गलीचों से घिन थी
छत को भेद कर बाहिर जाना चाहती थीं नज़रें
ये छत उनके शागिर्दों ने बिछाई थी
मैं रात भर जागता रहा
ये पूरे जीवन की अनिद्रा की शुरुआत थी
सभ्यता के इतिहास में
मैं बेघर हुआ था अभी अभी

उतार कर रख दिए सब लिबास
जिस्म से खाल सी नोच ली
बदबू आती थी उनमें
जिनपर छापे थे 'उनके'
अब नंगा घूमता हूँ
सभ्यता की दहलीज़ के आर पार

आग हवा पानी मिट्टी और आसमान
सबको काटा आधा आधा
आधा उनका आधा मेरा
आधी सांस आधी हिचकी का अनुवाद
पूरी पूरी मौत हुआ मगर
इस तरह जो जतन किये
ख़ुद को अलगाने के
वो अंततः
खुद को ही विसराने के मानी बने

'उन्हें'खरोंच कर निकलता हूँ बार बार
बार बार 'वो'मुझमें उग आते हैं
इस उगने और निकलने के बीच
पहचान के सारे रास्ते बन्द हो जाते
मैं नहीं रह जाता कतई मैं

सच कहूँ तो
मैं भूखा रहना नहीं चाहता
मैं नंगा रहना नहीं चाहता
मैं गूंगा रहना नहीं चाहता
मैं इस तरह मरना नहीं चाहता
मैं बस इतना भर 'वो'होना चाहता
कि मैं 'मैं'रह सकूं

मेरे नागार्जुन - शिरीष कुमार मौर्य

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बाबा का संस्‍मरण
मेरे जीवन में-मन में वह एक-अकेला औघड़ बाबा

प्रगतिशील हिंदी कविता का वह परम औघड़-ज़िद्दी यात्री, जिसे नागार्जुन या बाबा कहते हैं, मेरे जीवन में पहली बार आया तब मैं आठवीं में पढ़ता था। 1986की बात रही होगी जब सुनाई पड़ा कि ये महाकवि हर बरस अपनी गर्मियाँ जहरीखाल में वाचस्पति जी के घर गुज़ारते हैं जो राजकीय महाविद्यालय में मेरे पिता की ही तरह हिंदी के प्राध्यापक हैं। हम उसी इलाक़े में नौगाँवखाल नामक गाँव में रहते थे। दो साल बाद हाईस्कूल की पाठ्यपुस्तक में नागार्जुन की एक कविता बादल को घिरते देखा हैसामने आयी। हालाँकि बरसात के दिनों में मित्रों के साथ शराब पी लेने के बाद पिता को अकसर इस कविता कुछ हिस्से सुनाते हुए पाया था, ख़ासकर वो जिसमें किन्नरों की मृदुल मनोरम अँगुलियाँ वंशी पर फिरती हैं, जाहिर है कविता के उस हिस्से में मदिरा का भी ज़िक़्र था, जो तब तक पिता  के उदर और मस्तिष्क के कुछ अंशों पर हावी हो चुकी होती थी। बताना होगा कि पिता 70के ज़माने में नागपुर में शोध करते हुए नागार्जुन के सम्पर्क रह चुके थे लेकिन उनके ऐसे अद्भुत प्रशंसक थे, जिनमें 60-70किलोमीटर दूर जहरीखाल में मौजूद अपने प्रिय कवि से मिलने जाने की कोई इच्छा मैंने कभी जागते नहीं देखी। कुछ सबन्ध शायद ऐसे ही होते होंगे, जिनमें सम्पर्क करना/रखना अनिवार्य न होता हो।

बहरहाल, वक़्त बहुत जल्दी गुज़रा और 1990की बरसात में हमारा परिवार पिता के स्थानान्तरण के फलस्वरूप नैनीताल जि़ले के रामनगर क़स्बे में जा पहुंचा। यहाँ पहुंचते ही सुनाई दिया कि अब फिर बाबा जहरीखाल से काशीपुर आ चुके वाचस्पति जी के घर पाए जाते हैं। काशीपुर की दूरी रामनगर से27किलोमीटर थी। मैं भी अब बी.एस-सी. का छात्र हो चुका था और कुछ इच्छाएँ साहित्य प्रेम के चलते मेरी भी जागने लगी थीं। अगले बरस यानी 1991में वाचस्पति जी का संदेश आया कि बाबा पधार चुके हैं और हम अगर मिलना चाहें तो हमारा स्वागत है। यूं पिता और मैं उनसे मिलने काशीपुर गए। अब तक मैं नागार्जुन को काफ़ी कुछ पढ़ चुका था और उनके धारदार चुटीले व्यंग्य का कायल था। बस में वक़्त गुज़ारते हुए कई बार दिल की धड़कन बढ़ी कि मेरा भी अत्यन्त प्रिय हो चुका यह बुज़ुर्ग कवि कैसा होगा और हमसे कैसे मिलेगा। पतली गली में आकर थोड़ी खुली जगह पर एक उजड़ रही चूना भट्टी के सामने वाचस्पति जी का घर मिला, जिसके मुख्य द्वार पर कालबेल की छोटी गोल काली बटन तो थी ही, एक मोटी लोहे की साँकल भी थी, जिसे बिजली न होने की स्थिति में दरवाज़े पर भरपूर शोर के साथ बजाया जा सकता था। मैंने अपने उस किशोर उत्साह में दोनों का प्रयोग किया तो ऊपर मंजि़ल से एक कड़क आवाज़ आयी - अरे बेटू देखो तो कौन है? कहो आ रहे हैं भाई, आ रहे हैं! इतनी भी जल्दी क्या है!  फिर तुरत ही ऊपर से मूंछों वाला एक चेहरा नीचे देखता हुआ बोला - कहिये ! किस से मिलना है!  अब पिता ने अपनी वाणी को अवसर देते हुए कहा - मैं हरि मौर्य हूं.... ऊपर वाला चेहरा एकाएक अपनी मूंछों में जैसे खिल उठा - अरे भाई साब आप है! आता हूं। आता हूं!  हम सीढि़यों से ऊपर पहुंचे तो एक गोल बरामदे में हमें बैठा दिया गया। पता चला जिस बेटू को आवाज़ दी जा रही थी, वह वाचस्पति जी का बड़ा बेटा है और घर में मौजूद ही नहीं है। वे मूंछें ख़ुद वाचस्पति जी के चेहरे की शान हैं, जिन्हें शायद उन्होंने अपनी स्वाभाविक मानवीय स्निग्धता और स्नेह को छुपाने के लिए उगाया है, ताकि रौब ग़ालिब करने में कोई कसर न रहे। उन्होंने बताया बाबा अभी खाना खाकर सोए हैं, एकाध घंटे का इंतज़ार करना होगा। तब तक एक स्त्री निकल कर आईं, जिनके समूचे व्यक्तित्व में एक अनोखी आभा थी और उतना ही अनोखा अपनापा भी। वे घर की मालकिन शकुंतला आंटी थीं। परिचय के तुरत बाद ही वे मुझे अपने साथ बरामदे के दूसरे कोने पर मौजूद एक कमरे की ओर ले गईं जो उनका कार्यक्षेत्र था- उनकी रसोई। बिना कुछ बोले एक पीढ़े पर बिठाया और आलू-टमाटर की सब्ज़ी और गर्म पूडि़यों की एक विराट प्लेट मेरे सामने धर दी। मैं हिचकिचाया तो बोलीं-  अरे बस से आए हो। बच्चे हो भाई, भूख लग आई होगी। शर्माओ मत, खाओ। अभी खीर भी गर्म करती हूं।  मैंने सोचा क्या मैं यहाँ तक सिर्फ़ खाना खाने आया हूं? तब पता नहीं था कि यही खाना एक दिन मुझे जीवन की उन राहों तक ले जाएगा, जिन पर मुझे कविता से लेकर प्रेम तक वे तमाम चीज़ें मिलेंगी, जिनके बिना अब जीवन सम्भव नहीं।

कुछ देर बाद अंदर के कमरे से अचानक काफ़ी खाँसने-खँखारने और बलगम निकालने की आवाज़ों का एक विकट सिलसिला शुरू हो गया और वाचस्पति जी ने कहा -लगता है बाबा जाग गए!  यह साधारण-सा लगनेवाला वाक्य मेरे लिए बेहद असाधारण था और मैं तुरत कुर्सी से उठकर अंदर जाने को तत्पर हुआ। वाचस्पति जी ने रोका, कहा - ज़रा रुकिए, पहले देख लें कहीं और तो नहीं सोएंगे।  वे अंदर गए और सूचना लाए कि अब नहीं सोएंगे, आप लोगों को बुला रहे हैं। ख़ुदा-ख़ुदा करके सहर हुई थी। हम लोग अंदर गए। मैं पलंग पर बैठे व्यक्ति को देखकर भौंचक्का रह गया। चेहरा तो फोटो में देखा था और उस चेहरेवाले व्यक्ति की कल्पना एक पतले-दुबले बुर्ज़ग की ही थी पर इतने अशक्त की नहीं। बहुत छोटा-सा क़द जो बैठे होने पर और भी छोटा लग रहा था। इस क़द के बड़प्पन के बारे में अभी मुझे बहुत कुछ जानना था।

हमारी पहली मुलाक़ात के तुरत बाद बाबा दस-पन्द्रह दिनों के लिए हमारे घर रामनगर आए और आनेवाले तीन साल तक इसी तरह आते रहे। कुल मिलाकर अपने जीवन के कोई साठ दिन उन्होंने हमारे साथ गुज़ारे होंगे और इन साठ दिनों की स्मृतियाँ अब मेरे जीवन भर का धन हैं। इस धन में बाबा के पत्रों का कुछ चक्रवृद्धि ब्याज भी है, जिन्हें कभी सबके पढ़ने के लिए उपलब्ध कराऊँगा। अभी की बात सिर्फ़ स्मृतियों की.....बाबा के बारे में जो कुछ मैं लिख रहा हूं शायद सैकड़ों बार कई लोगों ने यही कुछ लिखा होगा ...और ऐसा इसलिए कि बाबा का दिया हुआ स्मृतिधन मेरे अकेले की बपौती नहीं....मुझ जैसे सैकड़ों लोगों के पास वह है और कईयों के पास तो मुझसे कई गुना ज़्यादा। ऐसे लोगों में सर्वोपरि वाचस्पति जी हैं पर इस स्मृतिधन को ख़र्च करने में उनके जैसा कंजूस भी मैंने दूसरा नहीं देखा।

बाबा घर आए तो उनके आने की सूचना मुहल्ले की कुछ धर्मपारायण स्त्रियों को मिली। ऐसी स्त्रियों को जिनके पति सुनार, इंजीनियर, व्यापारी आदि थे और उनके गिर्द घूसखोरी, टैक्सचोरी, गबन आदि का बड़ा मज़बूत घेरा था, जिसके भीतर वे स्त्रियाँ पुण्य की लालसा में मंदिरों, सत्संगों, बाबाओं आदि के चक्कर काटा करती थीं। पुण्य और सत्संग की यही इच्छा उन्हें हमारे घर लायी। वे आयीं तो साथ में पुष्प, अक्षत, धूप, मिठाई वगैरह से भरी भारी-भारी थालियाँ भी लायीं, जिन्हें उन्होंने बाबा के चरणों में रखा। बाबा अद्भुत रूप से प्रसन्न हुए। अपनी मूंछों पर कुछ अंश गिराते हुए मिठाई में से कुछ उन्होंने ग्रहण भी किया। फूल आदि उन औरतों के सिर पर रखे तो वे धन्य हो गयीं। उन्होंने बाबा से सत्संग की प्रार्थना की तो उन्होंने कहा कि सुंदर गृहणियों का साथ तो हमेशा ही सत्संग है....वे और भी प्रसन्न हुईं। बाबा ने सासों से बहुओं के हाल पूछे और बहुओं से सासों के। पतियों का भी नंबर आया...कुछ नवविवाहिताएँ लजा गईं। उनके मुखड़े की लाली बाबा को भायी। मैं परेशान हुआ कि यह सब हो क्या रहा है! मुझे बाबा ने कालेज जाने का आदेश दिया। उस सत्संग में आगे क्या हुआ मैं नहीं जानता पर बाबा के प्रवास के दौरान उन स्त्रियों का आना हर साल अबाध रूप से जारी रहा।

मेरी माँ का नाम कला है और वे काफ़़ी साफ़ रंग की हैं पर बाबा ने पहले दिन से ही उन्हें कल्लू कहा। बताया कि उम्र, शक्ल-सूरत और आदतों में वे ठीक बाबा की उड़ीसावाली बेटी की तरह हैं अतः वे उनकी बेटी ही हैं और मेरे पिता उनके दामाद जिन्हें ठीक किए जाने की सख़्त ज़रूरत है। माँ इन बातों से ख़ुश हुई और बाबा की ख़ातिरदारी में लगी रही। सामन्ती कूड़े के बीच ज़िन्दगी गुज़ारते रहने के कारण पिता को ठीक किए जाने वाली बात उन्हें विशेष अच्छी लगी थी। बाबा के साथ उनका सम्बन्ध स्थिर हो गया और स्थायी भी। बाबा ने पिता को तंग करने का कार्यक्रम आंदोलन के स्तर पर शुरू कर दिया। पिता से भयभीत रहनेवाला मैं उनकी विद्रोही गतिविधियों में शामिल रहने लगा।

कविता और साहित्य की कोई बात कई दिनों तक नहीं हुई। फिर एक दिन अचानक कुमाऊँनी के प्रसिद्ध कवि श्री मथुरादत्त मठपाल तशरीफ़ लाए। मठपाल जी का बड़ा बेटा नवेन्दु मुझसे पाँच साल बड़ा था और मेरे भीतर की ज़मीन तोड़ रहा था ताकि आइसा, आई.पी.एफ. और जसम के बीज वहाँ बोए जा सकें। मैं अपनी शिक्षा और संस्कारों से मार्क्‍सवादी ही था सो उसे अपने काम में दिक्‍कत नहीं हुई। मठपाल जी ने साहित्य का ज़िक़्र बड़े ज़ोरों से छेड़ा...बाबा उनके परिवार में दिलचस्पी ले रहे थे पर मठपाल जी थे कि बात को काटकर कुमाऊँनी कविता पर आ जाते थे। उन्होंने आँग-आँग चिचैल है गोशीर्षक अपनी लोकप्रिय कविता का ज़ोरदार पाठ किया और बाबा को उसका भावानुवाद बताते हुए प्रतिक्रिया की अनिवार्य माँग रखी। बाबा ने थोड़ा पानी माँगा और कुछ देर ख़ामोश रहने के बाद टूटे-फूटे शब्दों में कहा कि जैसे बछड़े को दाग कर साँड बनने और लोगों के बीच आतंक फैलाने के लिए शंकर जी के नाम पर छोड़ दिया जाता है वैसे ही तुम्हें भी कुमाऊँनी के नाम पर किसी ने छोड़ दिया है। यह भीषण प्रतिक्रिया थी और मठपाल जी के कान शायद बाबा की अस्पष्ट आवाज़ को सुनने के लिए ठीक से अभ्यस्त नहीं थे, तब भी इसका भावार्थ उनकी समझ में तुरत आ गया। वे लाल हो गए और चुप भी। अपने आक्रमण के बाद छाए इस युद्धविराम के बीच अब बाबा ने उनकी पत्नी की ओर रुख़ किया। उनसे घर-गृहस्थी की बातें कीं और यह भी पूछा कि एक हठी और इतने ज़बरदस्त कवि के साथ निभाने में उन्हें किन मुश्किलों का सामना आम तौर पर करना पड़ता है। कुछ बातें अपनी पत्नी अपराजिता देवी के बारे में बताई और उनके बलिदानों को सलाम भी पेश किया। मेरे लिए इस सत्संग में शामिल रहना कमाल की बात थी। मुझे अब लगने लगा कि यही बाबा नागार्जुन हैं और यही वह बात है जिसके कारण समूची प्रगतिशील कविता में वे अलग हैं। बाबा से मिलने आनेवालों में लालबहादुर वर्मा, उनके दामाद, स्थानीय रंगकर्मी अजीत साहनी और बहुत से वामपंथी कार्यकर्ता शामिल थे।

बाबा हर बार आते और कहने-सुनने को बहुत कुछ छोड़ जाते। मैं उनके व्यक्तित्व को अब जानने लगा। उनकी कविताओं में जो आग, अटपटापन, अपनी तरह की अनोखी कलात्मकता, सपाटबयानी, छंद, बहक, तोड़-फोड, भटकाव, विचार, प्रतिहिंसा, शास्त्रीयता, लोकराग आदि एक साथ था, वह सबकुछ ज्यों का त्यों ख़ुद उनमें भी उसी स्तर पर मौजूद था। वे अपनी कविताओं की तरह थे और कविताएँ उनकी तरह थीं।

दिनचर्या के बारे में निजी हो कर कहूं तो वे नहाना तो दूर कभी दाँत भी साफ़ नहीं करते थे। कपड़े कभी महीने में मुहूर्त निकालकर बदलते थे। उनके धुले कपड़े भी मनमाने इस्तेमाल के चलते ख़ासे गंदे ही दिखाई देते थे। मेरी माँ उन्हें एक-एक घंटा उबलते पानी में रखती थी। खाने के शौकीन पर कम खाते थे। दिन में एकाध बार बिफरने की हद तक नाराज़ हो जाते थे। भद्रलोक की ऐसी-तैसी करने का कोई मौक़ा नहीं गँवाते थे। भाषा का बोलचाल में कभी-कभी कवितानुमा इस्तेमाल करते थे और कविता में बोलचालनुमा का। मेरे हिस्से के दिनों में मैंने उन्हें कभी कविता लिखते नहीं देखा - हाँ, पत्र लिखा करते थे.... पोस्टकार्ड्स पर कुछ पंक्तियाँ, जो अकसर श्रीकांत, विजयबहादुर सिंह, हरिपाल त्यागी, रामकुमार कृषक आदि के नाम होते थे और उनमें बाबा की निकटसम्भावी दिल्ली वापसी का ज़िक़्र होता था।

मेरे पिता पान खाया करते थे... दिनभर में चालीस-पचास......निरन्तर....जबड़ा चलता रहता था....बोलते बहुत कम थे। बाबा को यह बात अच्छी लगी। एक दिन कहा भी कि हरि तुम पान खाते हो और हम लोगों की जान खाते हैं....पान की वजह से बोलते नहीं हो...अच्छा करते हो....कई लोगों को सुख मिलता होगा। औरों का तो पता नहीं पर शायद ख़ुद बाबा को ज़रूर कोई सुख मिलता होगा। बाबा से पिता के रिश्ते पुराने थे...गुरु रामेश्वर शर्मा के ज़माने के, जिन्होंने हमारे चारों प्रगतिशील कवियों पर पहले आलोचनात्मक लेख लिखे। कुछ हँसी-मज़ाक का सम्बन्ध भी था, यूं हँसी-मज़ाक तो बाबा पहली बार मिले आदमी से भी करते थे। मैं भोजन में माँस पसन्द करता हूं और बाबा के लिए मेरा प्रतिदिन का माँसभक्षण उत्सुकता का कारण बनता गया। घर में माँस सप्ताह में एक बार ही बनता था पर मुझे चौराहे पर ठेले पर  मिलनेवाला भुटवा बहुत प्रिय था, जिसे बकरे की आँतों और दूसरे बेकार समझकर अलगाए गए हिस्सों से बनाया जाता था - यह मेहनतकश मजदूर वर्ग का व्यंजन है, उनके लिए प्रोटीन का एक बड़ा स्त्रोत जो कम दामों पर मिल जाता है। हमारे घर रहते हुए बाबा अकसर मुर्गे का सीनेवाला एक टुकड़ा बड़े स्वाद से खाया करते थे। रात के खाने पर अकसर इस बात पर बाबा का पिटारा खुला रहता था कि उन्होंने ख़ुद कितनी तरह का माँस अब तक खाया है। इस विषय में उनके पास तिब्बत से लेकर सिंहलद्वीप तक के अनुभव थे। बिहार और बंगाल का मत्स्यप्रेम इसमें शामिल था। भुटवा के बारे में पता लगने पर उन्होंने बताया कि मुसहरों के साथ भुना हुआ चूहा तक वे खा चुके थे। मछलियों की किस्मों पर बाबा अबाध और आधिकारिक किस्म का व्याख्यान प्रस्तुत करते थे। शाम को अकसर रसोई में पहुंच जाते थे। माँ की पाककला में निखार का बीड़ा उन्होंने उठाया और एक हद तक निखारकर भी दिखाया। आम उन्हें पसन्द थे पर शायद दमे के कारण वे आम खाते नहीं थे। बाबा के रामनगर आगमन का मौसम आसपास के बग़ीचों से ख़ुश्बूदार आम की आमद का मौसम भी होता था। बाबा साबुत आम लेकर उसे बहुत देर तक सूंघा करते। उन्हें मिथिला की अमराईयाँ याद आतीं। कभी कटे हुए टुकड़े पर हल्के-से जीभ की नोक फिराकर वापस रख देते। आम के साथ उनकी ये कार्रवाईयाँ प्रणय के स्तर तक जा पहुंचतीं। बाद में छूट लेते हुए मैंने इस दिशा में प्रकाश डाला तो वे खुलकर हँसे और कहा कि बच्चू इस कच्ची उम्र में प्रणय के बारे में कहाँ से जाना। मेरा जवाब था अज्ञेय के उपन्यास नदी के द्वीपसे। वे हँसे और कहा अगर अज्ञेय से प्रणय के बारे में जानोगे तो उम्र भर खोज पूरी नहीं होगी...वो तो शहरों की तरह स्त्रियाँ बदलता रहा...फिर बाबा ने शमशेर और एक स्त्री और अज्ञेय के किसी त्रिकोण का अस्पष्ट-सा ज़िक़्र भी किया। मैं 19-20साल का था और मेरे जीवन में प्रेम तो नहीं पर एक बेहद आत्मीय मित्रता का रिश्ता पनप चुका था...जो बाद में पक कर प्रेम बना।  बाबा आम के सन्दर्भ में कही गई मेरी बात को लेकर लगातार संज़ीदा होते गए। वे बार-बार पूछते कि कितनी लड़कियों से तुम्हारी दोस्ती है....नहीं है तो क्यों नहीं है....और है तो किस हद तक है। एक अजीब से संकोच में मैं उन्हें कभी सीमा से नहीं मिला पाया, जो मेरी पत्नी बनी।

मैं भाऊ समर्थ की किताब चित्रकला और समाजसे बेहद प्रभावित था और उसके असर में रेखाचित्र बनाने लगा था जो कुछ पत्रिकाओं में छपने लगे थे। कविताएँ भी कुछ लिखीं थीं पर उन्हें किसी को दिखाया तक नहीं था...पता नहीं क्यों कविता करना मुझे प्रेम करने जैसा लगता था। वह संकोच और आइसा के कुछ कार्यकर्ताओं के बीच गोपन सम्भाषण का विषय था। मैंने बाबा को कविताएँ तो नहीं, रेखांकन ज़रूर दिखाए। उन्हें पसन्द आए और उन्होंने मुझसे कलाओं की सामाजिक भूमिकाओं पर कई बार बातचीत की। भाऊ समर्थ उनके मित्र रहे थे और मेरे पिता के भी....उन दोनों के बीच भाऊ की बातें अकसर हुआ करती थीं।

रामनगर रहते हुए बाबा से मिलने और उन्हें अपने घर न्योतने कई लोग आते थे। एम.ए. की कुछ लड़कियाँ थीं जिनमें कविता की समझ तो बिलकुल नदारद थी पर नागार्जुन का नाम और हैसियत उन्हें हमारे घर खींच लाती थी। एक सुंदर-सी लड़की ने बाबा के साथ फोटो खिंचाने की ख़्वाहिश जाहिर की तो बाबा ने कहा पहले कच्ची-पक्की कैसी भी एक कविता लिखकर लाओ हम फोटो खिंचा लेंगे। लड़की ने कहा उसे लिखना नहीं आता। बाबा ने जाँच बिठाई कि कुछ तो लिखती होगी...कुछ नहीं तो सहेलियों और रिश्तेदारों को पत्र.....वैसा ही कुछ ले आओ। इस संवाद के बाद उस लड़की ने हमारे घर का रुख़ कभी नहीं किया। फोटो के मामले में बाबा बहुत चौकन्ने थे। वाचस्पति जी ने भी बता रखा था कि वे फोटो खिंचाना पसन्द नहीं करते। मैं इस मामले में सावधान रहता था पर उन्होंने कई फोटो खींचने का मौका मुझे दिया।

बाबा की साप्ताहिक साफ़-सफ़ाई करने का जिम्मा मेरा था। हालाँकि वे इसके लिए आसानी से तैयार नहीं होते थे। कभी दमे का हवाला देते तो कभी हाइड्रोसिल का, जिसका वज़न बक़ौल बाबा साढ़े-तीन पाव था। मैंने अपनी नौजवानी के कुछ बेहद ऊर्जावान दिन उस औघड़ के साथ गुज़ारे और वह मेरे भीतर कहीं हमेशा के लिए बस गया। वे मुंहफट थे, जि़द्दी थे, अटपटे थे लेकिन जीवन और अपार प्रेम से भरे। मेरे साथ रहते हुए उन्होंने कविता की बातचीत कम की...ख़ुद की कविता की तो बिलकुल नहीं। वाचस्पति जी ने दो-तीन बार उनके सम्मान में जो काव्यगोष्ठियाँ आयोजित कीं, उनका आनन्द बाबा ने अपने हिसाब से लिया। इन गोष्ठियों में स्थानीय तुक्कड़ और हास्य के नाम हद दर्जे़ की फूहड़ता परोसने वाले लोग होते थे जिन्हें किसी हाल में कवि नहीं कहा जा सकता। कवि वहाँ दो होते थे- बल्लीसिंह चीमा और हरि मौर्य... एक बार मुरादाबाद से नवगीतकार श्री माहेश्वर तिवारी आए, जिन्हें सुनना अच्छा लगा। बाबा मौज में होते थे और अपनी बेतरतीब खिचड़ी मूंछों में मुस्कान बिखरते। एक बार ऐसी ही गोष्ठी से कुछ पहले बाबा ने अपने झोले से सीताकान्त महापात्र की कविताओं का हिंदी संकलन निकाला और मुझे कहा जल्दी से पढ़ जाओ। यह 92या 93की बात है। मैंने उसे उलटाया-पलटाया और भगवान को धिक्कारती  एक कविता पर रुक गया...बाबा को वह पेज दिखाया....बोले - बिलकुल सही जगह पकड़े हो कविता को ...किताब अपने पास रखो और पेज नंबर भी याद रखो। गोष्ठी शुरू हुई और किसी फार्म हाउस की मालकिन एक महिला ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत की। कुछ और लोगों की वाणी गूंजी फिर अचानक बीच राह में बाबा कड़के - यह कविता है? कविता की ऐसी तैसी हो रही है! फिर बोले ये जो कोने में लड़का बैठा है न हरि जी का सुपुत्र यह आपको बताएगा कि कविता क्या होती है। मैं अचकचाया। सारे लोगों की कुपित दृष्टि मुझ पर मानो मैंने बाबा को भड़का दिया हो। एक-दो बार थूक गटक कर मैंने बाबा को देखा, उनका चेहरा ख़ुराफ़ात करने के बाद किसी शैतान बच्चे-सा खिला हुआ....वैसी ही मुस्कान। मैं समझ गया। मैंने काँपते हाथों से वह किताब खोली और उस कविता का पाठ करना शुरू किया। शुरूआती भर्राहट के बाद स्वर भी स्थिर हो गया। यह मेरे जीवन का पहला कवितापाठ था और आश्चर्यजनक रूप से कामयाब भी...पीछे बाबा की मुस्कान टूटे-अधटूटे गँदले दाँतों वाली....कहती हुई ....अजी घिन तो नहीं आती? अजी बुरा तो नहीं लगता?

मैंने कविताएँ लिखीं...95में कथ्यरूप से पहला संकलन एक पुस्तिका के रूप में आया...तब तक बाबा का काशीपुर-रामनगर आना छूट गया था। पता लगा कि बाबा के बड़े पुत्र को उनकी ऐसी यात्राएँ नहीं भातीं थीं। मैं दिल्ली गया पर अपनी पुस्तिका उन्हें नहीं दी। वे कभी ठीक से नहीं जान पाए कि शिरीष कविता लिखता है। मैंने अपनी पुस्तिका त्रिलोचन जी, कृषक जी, सलिल जी सहित कई कवियों को दी पर बाबा को देने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। बाबा कहते थे नए कवि अपनी कविताएँ लेकर प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया और अन्यथा प्रोत्साहन की आकांक्षा में पुराने कवियों की तरफ भागते हैं जबकि कविताओं को जनता के बीच जाना चाहिए। जनता ही किसी को कवि बना सकती है,कोई पुराना कवि या आलोचक नहीं। मेरी कभी हिम्मत नहीं हुई कि मैं बाबा को अपनी कविताएँ दिखाऊँ। मेरी यह कायरता दरअसल उस छोटे-से कमज़ोर शरीर के भीतर मौजूद हिंदी की महाकाय और महान कविता के प्रति मेरा प्रेम और आदर था और हमेशा रहेगा। मुझे ख़ुशी है कि बाबा ने मुझे एक राजनैतिक कार्यकर्ता और उत्साही नौजवान के रूप जाना और अपना प्यार दिया। वह बीहड़ व्यक्ति और कवि मेरी साहित्यिक ही नहीं, व्यक्तिगत और निजी स्मृतियों का भी वासी है, यह बात मुझे उपलब्धि की तरह लगती है और सुक़ून देती है। यह संस्मरणनुमा थोड़ा-सा लेखाजोखा भी उसी का एक छोटा-सा अंश है, बहुत कुछ बताना-कहना अभी शेष रह गया है, ठीक मेरी ऊटपटांग कविताओं की तरह!

पुरखों की ये कोहराम मचाती यादें इसी तरह धीरे-धीरे व्यक्त होंगी।  
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यात्री की कविता
यह क्षार-अम्‍ल,दाहक विगलनकारी

मैं अपनी शुरूआती पढ़त में जिन कविताओं को नागार्जुन की समझता रहा,बाद की पढ़त में वे यात्री की निकलीं। इस नाते मैंने तय किया है कि बाबा के इस चिरसंगी कवि की उन्‍हीं प्रिय कविताओं में से पांच को नाभिक बनाकर अपनी इस लिखत के दूसरे खंड को पूरा करूंगा।
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मिथिला बाबा का अपना अंचल है पर यात्री की ये कविताएं आंचलिक नहीं हैं। इनमें बोली-बानी की भाषिक सुन्‍दरता और शक्ति है,जो मैथिली से हिन्‍दी रूपान्‍तरण में कहीं नष्‍ट नहीं होती। बाबा कई भाषाओं के आधिकारिक विद्वान थे पर त्रिलोचन की तरह इस मामले में उन्‍होंने किन्‍हीं किंवदंतियों जन्‍म नहीं दिया – यही नहीं,जिन चंद भाषाओं से अधिक आत्‍मीयता अनुभव की उनमें कविता भी लिखी। मैथिली तो उनकी मां-बोली ही है। बाबा ने संस्‍कृत में पारम्‍परिक और आधुनिक कई कविताएं लिखी पर उनमें से अधिकांश उपलब्‍ध नहीं हैं,जो बच गईं वे रचनावली में संकलित हैं। बांग्‍ला से बाबा का गहरा लगाव रहा और अपनी इस प्रिय भाषा में उन्‍होंने महत्‍वपूर्ण कविताएं लिखीं। इन सभी कविताओं में मैथिली की कविताएं हिन्‍दी कविताओं में बहुत हद तक घुल-मिल गईं और अधिकांश आरम्भिक पाठक उनमें फ़र्क़ अनुभव नहीं कर पाते। बहरहाल मैं उस पहली कविता पर आता हूं,जिसने मुझे कविता के विज्ञान और तर्क संसार की समझ दी। यह भी सोचें कि यह समझ किसी विज्ञान स्‍नातक भारी-भरकम भारोपीय अज्ञेय कवि से नहीं,एक फक्‍कड़ यायावर और कई लोगों द्वारा बहुत समय तक लगभग अराजक गंवार समझे गए कवि की ओर से आयी -

क्षार अम्‍ल
विगलनकारी,दाहक
रेचक,उर्वरक...
रिक्‍शावाले की पीठ पर तार-तार बनियाइन
पसीने के अधिकांश गुण-धर्म को
कर रही है प्रमाणित
मेरा मन करता है
विज्ञान के किसी छात्र से जाकर पूछूं
अधिक-अधिक से क्‍या सब होता है
पसीने का गुण-धर्म ?
रिक्‍शावाले की पीठ की चमड़ी
और कितनी शुष्‍क-श्‍याम होगी ?
स्‍नायुतंत्र की ऊर्जा और कितनी पिघलेगी ?
इस नरवाहन की प्राणशक्ति और कितनी पकेगी ?
और कितना ....
क्षार-अम्‍ल,दाहक विगलनकारी
                      (पसेनाक गुण-धर्म/पसीने का गुण-धर्म,पत्रहीन नग्‍न गाछ)

संयोग ही था कि जब बाबा से मेरी संगत बढ़ी मैं विज्ञान स्‍नातक का ही छात्र था और बाबा ने यह कविता सुनाकर मुझे बेदर्दी से घेरा। रसायन विज्ञान के अनुसार पसीना क्षार है लेकिन यह भी तय है कि जितना क्षार शरीर से निकलेगा,शरीर में अम्‍लीयता बढ़ेगी। तो इस तरह वाकई क्षार-अम्‍ल दोनों पसीने के गुर्ण-धर्म में शामिल हुए लेकिन कविता पसीने के बारे में नहीं है –वह इस बारे में है कि यह पसीना किसका है और क्‍यों है। इस पसीने के गुण-धर्म की असल परीक्षा रिक्‍शावाले की पीठ पर है। कवि चेहरे की बात नहीं करता,कविता में विवरण की बारीक़ी का यह आलम कि दरअसल यह पीठ ही है जो रिक्‍शा की सवारी को दिखती है,चेहरा नहीं। पीठ की चमड़ी का शुष्‍क-श्‍याम होते जाना वर्षों की मेहनत और संताप का सख्‍़त निशान है,जिसके गहराते जाने के बारे में कवि के सवाल का उत्‍तर मैं नहीं जानता,शायद कोई नहीं जानता और सबसे ख़ास बात यह कि सवाल ख़ुद कोई उत्‍तर नहीं चाहता – इसका यही आदर्श उत्‍तर हो सकता है कि हालात ऐसे हो जाएं कि यह सवाल ही न बने। उस नरवाहन के स्‍नायुतंत्र की लगातार पिघलती ऊर्जा और पकती प्राणशक्ति के बौखला देने वाले बिम्‍ब बनाता वह क्षार-अम्‍ल,दाहक विगलनकारी कब तक बहता रहेगा का प्रश्‍न बिना कोई नारा लगाए,न अधिक शोर मचाए साम्‍यवादी वैचारिकी में उतर जाता है। पसीने के गुण-धर्म की बात संसार में वर्गभेद और अन्‍याय के मूल प्रश्‍नों में बदल जाती है और यही कविता की वह कला है,जिसमें बाबा का जोड़ नहीं। दुनिया का महान लेखन किस तरह आपस में जुड़ता है ,यह मैंने बाद में निकोलाई ओस्‍त्रोवस्‍कीके विख्‍यात उपन्‍यास व्‍हेन दि स्‍टील वाज़ टेम्‍पर्ड पढ़ते हुए जाना,जहां इस कविता के दाहक विगलनकारी प्रसंग की याद भी लगातार मेरे साथ बनी रही।     
***

2

शिशु कंकाल
तरुण कंकाल
वृद्ध कंकाल
कंकाल वृद्धाओं के
कंकाल तरुणियों के
कंकाल नन्‍हीं बच्चियों के
साफ़ चमड़ीवाले कंकाल
काली चमड़ीवाले कंकाल
पांडुश्‍याम चमड़ीवाले कंकाल
घूमते-टहलते कंकाल
चलते-फिरते कंकाल
लेटे कंकाल
खड़े कंकाल
सोए कंकाल
जगे कंकाल
सूखे स्‍तन वाले कंकाल
छंटुआ गर्भ वाले कंकाल
मालगाड़ी वाली साइडिंग की ओर
लाइन के दोनों किनारे
अंजुरी-अंजुरी भर,मुट्ठी-मुट्ठी भर
दाना मिश्रित धूल उठाते कंकाल

सप्‍लाई विभाग के चपरासी की नज़र थाहते कंकाल
दो-दो  प्‍लेटफार्म आमने-सामने फंलागते
पांचेक कुलियों का
तनिक-सा मात्‍सर्य,रत्‍तीभर सहानुभूति
अनायास हासिल करते कंकाल
ज्‍येष्‍ठ की दुपहरी में जलते कंकाल
गया की तरफ़ का कोई ब्राडगेज स्‍टेशन
क्‍या रहा होगा नाम ?
अनुग्रह नारायण रोड !
या फिर गुरारू !या फिर तो क्‍या
लेकिन अभी तो शेष बच रहा है
वहां की स्‍मृति के खाते में
कंकाल ही कंकाल
कंकाल ही कंकाल   
                  (कंकाले-कंकाल/कंकाल ही कंकाल,पत्रहीन नग्‍न गाछ)

हिन्‍दी में अल्‍पज्ञात यह एक महान कविता है यात्री की। कंकालों की हूक को चांपकर खड़ी हो जाने वाली शासन की बंदूक वाला दोहा हम हिन्‍दी वालों को याद है। अकाल और उसके बाद के दो सधे हुए चित्र प्रस्‍तुत करने वाली कविता तो ख़ासी प्रसिद्ध है। कंकालों की इस कविता में कोई उत्‍तरकाल नहीं है। कंकालों की स्‍मृति को अपने भीतर गुंजाते हुए दोहराने वाली इस कविता का बेसम्‍भाल शिल्‍प किसी उत्‍तरकाल की अपेक्षा भी नहीं रखता। मैं उत्‍सुक हूं यह जानने के लिए क्‍या दुनिया की किसी भाषा में इस तरह की कोई कविता उपलब्‍ध है?शायद इथोपिया-सोमालिया जैसे अफ्रीकी देशों में किसी जनकवि ने कुछ लिखा हो। वामिक जौनपुरी ने बंगाल के अकाल पर नज्‍़म लिखी थी पर वह छंद में और हावी होते नारे में व्‍यर्थ-सी हो गई। ये कंकाल तो किसी और ही अकाल के बनाए कंकाल हैं। यह भूगोल गया के पास का छोटा-सा भूभाग भर है और वहां मनुष्‍यों की इस दुर्दशा को देखकर लगता है कि बाक़ी देश-समाज शायद मर चुका है। जाहिर है कि इन कंकालों का समकाल सर्वव्‍यापी कंकालों का समय नहीं है – यह तो इनका अपना कंकाल-समय है। इस कंकाल-समय को किसने बनाया यह प्रश्‍न कविता में न पूछा जाकर भी इस कविता सबसे बड़ा प्रश्‍न है,जो इन कंकालों की हूक को साध कर बार-बार हमारे आगे खड़ा हो जाता है। कुलियों में तनिक-सा मात्‍सर्य और रत्‍तीभर सहानुभूति वर्गबोध की थोड़ी-सी आंच का पता देती है लेकिन वह पर्याप्‍त नहीं। देश में बड़े-बड़े किसान-आंदोलन वर्गबोध की पूरी आंच न मिल पाने के कारण स्‍खलित हो गए,यह तो रत्‍तीभर का मामला है। यात्री ने अपनी इस छोटी-सी (कविता)यात्रा में इस बड़ी सच्‍चाई से पर्दा उठाया है,जिसे अब तक दूसरे तो छोड़ दीजिए,हमारे साम्‍यवादी दल  तक ठीक से पकड़ नहीं पाए। इस कंकाल-समय की जिम्‍मेदारी वर्गशत्रुओं तक सीमित नहीं,वर्गमित्र भी इसके दायरे में आते हैं। नागार्जुन ने अपने जीवन काल में कविता से इतर कई बार इन प्रश्‍नों को उठाया लेकिन अब वे निरुत्‍तरित ही संसार से जा चुके हैं।
***

3

तीसरी कविता भी हिन्‍दी के लिए अल्‍पज्ञात है लेकिन 2013 वर्ष इस के समापन काल में इस‍की प्रासंगिकता अनुभव करने की बात है और इसका महत्‍व तो हमारे देश की राजनीतिक आपाधापी में हमेशा प्रमाणित रहेगा। नाम है – देशदशाष्‍टक। हाल ही में गुजरात में सरदार पटेल की मूर्ति-स्‍थापना को लेकर राजनीति में एक नई कुकुरहाव शुरू हुई है। यह कविता उस समय का दस्‍तावेज़ है,जब नेहरू और पटेल दोनों जीवित थे। आज का मसला रा.एस.एस. और मोदी द्वारा पटेल को हाईजैक करने का है।आधुनिक इतिहास भारत के इतिहास से परिचित जन जानते हैं कि नेहरू समाजवादी विचार के हामी थे और पटेल उसके विरुद्ध। नेहरू मंत्रीमंडल में पटेल को चुनौती देने की स्थिति में नेहरू अकसर नहीं रहते थे। इसका यह अर्थ नहीं कि पटेल आर.एस.एस. के निकट थे। स्थिति इससे उलट ही थी,वे गांधी जी की हत्‍या के बाद आर.एस.एस. की राजनीति पर पूरी सख्‍़ती के साथ अंकुश लगाकर उसे सांस्‍कृतिक संगठन की भूमिका तक सीमित कर चुके थे। यह एक निकट का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य है,जिसके तथ्‍य प्रमाणित हैं और दस्‍तावेज़ों में सुरक्षित भी हैं। यात्री की इस कविता पहला खंड उस समय में इन दोनों राजनेताओं की स्थिति पर रोशनी डालता है –

फैल गए हैं नेताओं के सूंड़
बूढ़े जर्जर हो गए जवाहर
प्रभु पटेल हैं सर्वशक्तिसम्‍पन्‍न
तब भी कितना रुला रहे चीनी की ख़ातिर
                                      (पत्रहीन नग्‍न गाछ)
  
जवाहर आयु में पटेल से कुछ पांच-छह बरस छोटे थे फिर यह उलट स्थिति क्‍यों....जाहिर है कि बात शरीर की नहीं राजनैतिक क़द और शक्ति की हो रही है। नेहरू का समाजवाद क्षीण हुआ और पटेल की वह राष्‍ट्रवादी भावना बलवती हुई,जिसके परम कट्टर रूप की स्‍थापना आर.एस.एस. में है। यह कविता दरअसल बढ़ती मंहगाई और उसकी मार से पस्‍त जनता के बारे में है। गृहमंत्री पटेल के नियंत्रण में कितना कुछ था,इस बारे में कविता का बयान साफ़ है। यात्री ने उस वक्‍़त में कारपोरेट-राजनीति-नौकरशाही के कुटिल गठजोड़ को भी बख़ूबी पहचाना था –

बनिए-लीडर-अफ़सर तीन त्रिमूर्ति
कर रहे अपनी मनोरथ पूर्ति
अपने हित में सब करते हैं औरों के लिए झांसा
रोते फटे कलेजा जैसे देने हेतु दिलासा
                            (पत्रहीन नग्‍न गाछ)

मैथिली का सधा हुआ छंद यहां हिन्‍दी रूपान्‍तर में गड़बड़ा गया है पर हमें ध्‍यान देना है कही गई बात पर,यों भी यह कविता काव्‍यकला की सिद्धि के निमित्‍त नहीं लिखी गई है। बहुत बड़े कारपोरेट घराने तब दो ही थे – टाटा और बिड़ला,ये दोनों ही हमेशा नागार्जुन की कविता की ज़द में रहे। स्‍यवं नेहरू को उनके साथ गठजोड़ में भागीदार पाया गया शायद इसीलिए उनका समाजवादी स्‍वप्‍न उनकी मृत्‍यु से बहुत पहले ही बिला गया।  
***

4

पुराने गाछ का  एकमात्र यह पूरा कटहल
फला सहज ही प्रकृति के प्रताप से
जुआया सहज ही प्रकृति के प्रताप से
पका सहज ही प्रकृति के प्रताप से
गिरा उसी तरह
उसी तरह उपलब्‍ध हुआ हम लोगों को
                             (पाकल आछि ई कटहर/पका है यह कटहल,पत्रहीन नग्‍न गाछ)

यह कविता हिन्‍दी में बहुज्ञात है। कटहल जैसे खुरदुरे फल पर कविता लिखना उतना ही खुरदुरा काम हो सकता था पर यात्री ने इसे भरपूर महक और लहक के साथ लिखा। प्रकृति के प्रताप का बहुल्‍लेख देखकर कोई अनाड़ी सहयात्री हमारे पुरनिया यात्री को कोरा प्रकृतिवादी न समझ बैठे इसलिए मैंने सबसे पहले यही अंश उद्धृत किया है। सहज पर कबीर ने बल दिया और बाद में एक ही पीढ़ी के त्रिलोचन और नागार्जुन ने....नागार्जुन ने किसी के लिए असहज लगते को भी अकसर सहज ही बना दिया है। कटहल को शहराती जन सब्‍ज़ी के रूप में खाते हैं लेकिन ग्रामीण जन पके कटहल का फलरूपी स्‍वाद भी ख़ूब जानते हैं। बाटनिक्‍ली भी कटहल फल ही है। पके कटहल की सुगंध लोकजीवन और लोकउपलब्धियों की सुगंध है। उसके सहज गिरने और सहज ही लोगों को उपलब्‍ध होने में कवि की सहज-समाधि भी भरपूर समझ आती है। कविता आगे रोचक होती जाती है - 

महाकाली का यह अपूर्व प्रसाद
शताब्‍दी के बाद ही मिलता है लोगों को
आओ,आओ,अजी ओ फलां
शुचिभाव से ग्रहण करो प्रसाद
कान को होने दो पवित्र
प्रसाद-ग्रहण करते ही सुनने में आएगा
एक अद्भुत,एक अश्रुतपूर्व मंत्र...
अकाली...
काली...
कंकाली...
महाकाली...
विकाली...
सकाली...
ला रे अभागे
बढ़ा अपनी गरदन
पड़ने दे उस पर
मेरी कता,मेरी भुजाली
इधर देख,इधर देख,करम-हीन
कहां देखा होगा यह रूप मुंडमाली
क्‍लीं क्‍लीं क्‍लूं क्‍लूं
ऐं ह्वीं हूं आं हों
खच् खच् खच् खचाक् 
                      (वही)

प्रसंग कटहल के बंटवारे का है और लगता है कि यहां यात्री का खिलंदड़ा मौजी स्‍वभाव उभर कर आ रहा है। यह खेल तो है पर बेहद गम्‍भीर अभिप्रायों वाला खेल। यह पुराने गाछ का एकमात्र पूरा कटहल है जो लोगों की क्षुधापूर्ति के निमित्‍त सहज ही गिरा और उपलब्‍ध हुआ है। यह घटना जैसी नहीं लगने वाली एक बड़ी घटना है। जिस देशकाल में यह घटी है,उसने इसे बड़ा बनाया है। असहज स्थितियों में पूर्ण सहजता सिद्ध कर लेने वाले यात्री ने इस देशकाल को कविता के उत्‍तरार्द्ध में प्रकट किया है-

अजी ओ फलां,डर कर भाग नहीं जाना आप
आजकल वह मंत्र काम कहां करता है
उलट गया है अर्थ
आओ,आओ,लो माता का प्रसाद
अकाल का प्रसाद
दुर्भिक्ष का प्रसाद
इसी तरह किया था प्राप्‍त
दादा के दादा के दादा,नाना के नाना के नाना ने
....
अमरीका का दलिया,कनाडा का दुद्धी पाउडर
न जाने,कहां-कहां का स्‍वाद
समेटे है अपने भीतर
                            (वही)

यहां तक आते-आते यात्री आपको कटहल के गाछ के नीचे से लाकर अंतर्राष्‍ट्रीय कुचक्रों के बीच कहीं खड़ा कर देते हैं,जहां पी‍ढ़ियों से अकाल और दुर्भिक्ष के दिन हैं। यात्री की कविता-कला,एक पूर्णबिद्ध राजनैतिक कला है,इसे इसकी सहजता के साथ पाना किसी भी कवि के लिए एक दुर्लभ सिद्धि होगी।     
*** 

5

मैंने चार कविताएं लीं जिनका स्‍वर राजनैतिक है। पांचवी और अंतिम कविता अलग है। यह हिन्‍दी में ख़ूब पढ़ी और सराही गई है। लम्‍बी कविता है इसलिए कुछ अंश देते हुए उन पर बात करनी होगी,पूरी कविता देना सम्‍भव नहीं। प्रसंग यात्री के अपने गांव तरौनी का है -

कच्‍ची सड़क पर  
देखा पास-पास छोटे-छोटे मंदिरों का एक जोड़ा
पूछा एक घसियारिन से
अरी ओ किसने बनवाया है
बीच परती-पांतर में यह जोड़ा मंदिर
                               (जोड़ा मंदिर,पत्रहीन नग्‍न गाछ)

यह गांव के राउत (पिछड़ी जाति) के बूढ़ा-बूढ़ी (भोकर राउत-मुंगिया माई) का मंदिर है,जिसे उनके बेटे सरजुगी राउत ने बनवाया है। इस मंदिर जोड़े के होने में कुछ ख़ास अभिप्राय हैं। एक तो साधारण (उस पर पिछड़े) मनुष्‍यों की स्‍मृति में मंदिर एक अनहोना स्‍थापत्‍य है,जो वर्ण से लेकर ईश्‍वर तक के कई परम्‍परागत स्‍थापत्‍यों को चुनौती देता है।

पहले देखें कि यह जोड़ा मंदिर बना किन संसाधनों से –

पतली मूंछोंवाला सांवला ग्रामीण युवक
सरजुग राउत
बोला निरभिमान स्‍वर में –
अपने ही हाथों बूढ़े ने पिछले वर्ष
लगाया था पांच कट्ठे में गन्‍ना
इसी में से पांच-एक सौ
लगा दिए उनके नाम पर
माह भर के भीतर ही दोनों जनों ने मूंद ली आंखें
                                  (वही)

हमारे आसपास जिस तरह धार्मिक मंदिर बनते हैं,सब जानते हैं कि उनके लिए कितना चंदा,कितने धत्कर्म होते हैं। यह उस श्रमसरूप बूढ़े का ही अर्जन था,जिसे उसके बेटे ने इस तरह की विरासत में बदल लिया कि वह मंदिर रूप में साकार हो पाया। पाठक मंदिर शब्‍द के भ्रम में आ जाएं,इसकी कोई गुंजाइश यह कविता नहीं छोड़ती – यह लोकजगत के अपने विरल स्‍वर में श्रम की स्‍थापना है और प्रेम की - 

हमारे बूढ़े-बूढ़ी में रहा करता था हद से ज्‍़यादा मेल
वैसा नहीं देखा होगा किसी ने कहीं
सो हम और आप भी गवाह
सभी को है पता अच्‍छी तरह से
हमारे बूढ़े-बूढ़ी के बीच कहां कभी हुआ झगड़ा-तकरार
हमारे बूढ़े-बूढ़ी के बीच कहां कभी रहा मनमुटाव
कहावत भी है कि एक प्राण,दो देह
बिलकुल उसी का नमूना रहे हमारे बूढ़े-बूढ़ी
इसी कारण सूझी यह बात
बना दिया जोड़ा मंदिर 
                        (वही)

इस जोड़ा मंदिर के बनने में किसी भी पौराणिक-मिथकीय श्रद्धा का न हेतु है,  न प्रयोजन। एक दीर्घ दाम्‍पत्‍य दो जनों ने हाड़तोड़ मेहनत में खटते हुए जिया और क़दर जिया कि बेटे की स्‍मृति में यह प्रेम और श्रम,दोनों ही सदियों के जमे संस्‍कारों की परतें साफ़ करते हुए सर्वोच्‍च स्‍थान पर जा बैठे। इस मंदिर जोड़े को देख यही कुछ यात्री के मन में भी हुआ।

बाबा ने हमेशा लोक के उपकरणों को कविता में लिया लेकिन उन्‍हें अपनी धार देते हुए जनसंघर्षों की अभिव्‍यक्ति के औज़ारों में बदल दिया। काश हमारे आज के कुछ सायास लोकवादीबने कवि इसका कुछ अंश भी कर दिखाते तो वंश नहीं बूड़ता....हालांकि नागार्जुन विरासत उनके पास नहीं,कविता में गद्य लिखने को आरोप की तरह सहने वाले दूसरे युवा राजनैतिक कवियों के पास अधिक है – जहां उसे पूरा सम्‍मान मिलता है। 

अंत में अपनी भी कहूं तो श्रम और प्रेम की यह सम्मिलित महत्‍ता ही मेरे लिए मेरी राजनैतिक विचारधारा है। मैं बिना हिचक के कहूंगा कि विचार मैंने पहले साहित्‍य से सीखा और फिर सैद्धान्तिक किताबों में उसे पढ़ा। ऐसे ही पूर्वजों की किताबों से गुज़रते हुए मैं अपनी राजनैतिक और साहित्यिक समझ के बारे में कम से कम इतना तो कह ही सकता हूं कि वह ग़लत किताबों की संतान नहीं है।    
*** 

यह नोट तो तुम्हें वोट के बदले मिला है - पंकज चतुर्वेदी की नई कविताएं

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प्रतिरोध और बहस की सुन्दरता पंकज चतुर्वेदी के सौम्य और सादे लहजे में जिस तरह निखरती है, उसे जानना, समकालीन कविता में कला के संघर्ष को जानना है। आज की कविता पर विचार करते हुए प्रगतिशीलता जैसे चलन से बाहर हो चुके शब्द को पंकज एक नया मूल्य और एक नई रोशनी प्रदान करते हैं। समकालीन संकटों और उनसे हमारे बेेबस समझौतों के बीच पंकज की ये नई कविताएं हम हासिल कर पाए हैं और इनके लिए कवि के आभारी हैं। इस पढ़त के लिए पाठकों से जो मेरा अनुरोध है, उसके लिए मैं एक अटूट याद और यक़ीन की तरह वीरेन डंगवाल के ये शब्द इस्तेमाल कर रहा हूं - 



ज़रा सम्भल कर
धीरज से पढ़
बार-बार पढ़
ठहर- ठहर कर
आँख मूंद कर आँख खोल कर.


***

इमरजेंसी

इमरजेंसी भी लौटकर
आती है इतिहास में
कहती हुई :
मैं वह नहीं हूँ
जिसने तुम पर
अत्याचार किये थे

इस बार
मैं तुमसे
करने आयी हूँ
प्यार
***
 
पूर्ण बहुमत 

जब पूर्ण बहुमत
दिया जाता है
तब सरकार
पूर्णता से
काम करती है :
पूर्ण उपेक्षा
पूर्ण अत्याचार

दोस्तो,
पूरे मन से
इसे करें
स्वीकार !
***
 
यह नोट
 
पहले कभी-कभी
कोई ऐसा नोट
मुझे मिल जाता था
जिसे परखकर
दुकानदार कहते थे
कि 'नक़ली है'

अब वे कहते हैं
कि नक़ली तो नहीं है
पर चलेगा नहीं
क्योंकि यह नोट तो
तुम्हें वोट के
बदले मिला है
***
 
तुम्हारी मेहरबानी
 
कॉर्पोरेट घरानों का
अरबों रुपये क़र्ज़
माफ़ करने से
जो बैंक औंधे मुँह गिरे
उन्हें नग़दी के
भारी संकट से
उबारने के लिए
तुमने दो सामान्य नोट
अचानक चलन से बाहर किये
और समूचे अवाम को
मुसीबत में डाल दिया

यों छोटे कारोबारियों, बिचौलियों
और जालसाज़ों से
जो हासिल होगा
काले धन का
कुछ हिस्सा
वह उस घाटे की
भरपाई के लिए
जो कॉर्पोरेट घरानों पर
तुम्हारी मेहरबानी का
नतीजा है

और जब कोई पूछता है :
यह अराजकता, तकलीफ़
और अपमान
हम किसके लिए सहते हैं
तो तुम कहते हो :
देश के लिए

जबकि सच यह है
कि पूँजीपतियों का सुख
और जनता का दुख
जिस कारख़ाने में
तुम बनाते हो
उसका नाम तुमने
देशभक्ति रखा है !
***
 
उन्हें यह कल्पना नहीं थी

लोग यह जानते थे
कि बीते पच्चीस बरसों में
तीन लाख किसानों की तरह
ऋणग्रस्त होने पर
आत्महत्या करने से
बचाने उन्हें
कोई नहीं आयेगा

भारत विभाजन से लेकर
गुजरात दंगों तक के उदाहरण से
लोग यह जानते थे
कि साम्प्रदायिकता के चलते
उन्हें कभी भी मारा जा सकता है

कश्मीर को लेकर
अगर युद्ध हुआ
तो लोग यह जानते थे
कि पड़ोसी देश की
आकस्मिक बमबारी में
उनकी जान जा सकती है

इसी तरह बाढ़, भूकंप, अकाल
बीमारी, दुर्घटना सरीखे
मृत्यु के हज़ार हाथ हैं
लोग यह जानते थे

मगर उन्हें यह कल्पना नहीं थी
कि अपनी ही चुनी सरकार के
व्यवहार से
बैंकों में अपने ही जमा
पैसों को पाने की कोशिश में
असमाप्य-सी क़तार में खड़े-खड़े
असंभव इंतिज़ार में
एक दिन उन्हें मरना पड़ेगा
***
 
शासक की रुलाई

अगर शासक रोने लगे
तो जनता सोच में
पड़ जाती है
कि आख़िर 
गुनहगार कौन है ! 
***
 
कसौटी

किसी राज्य की
नृशंसता जाँचनी हो
तो देखो :
उसकी पुलिस
कितनी कायर है
***
 
'सत्यमेव जयते'मार्ग
 
शुरू में उसने
ख़ुशी ज़ाहिर की :
अब भारत धार्मिक राज्य
बनने की ओर बढ़ चला

मगर मैंने कहा :
संविधान में तो
'पंथनिरपेक्ष'लिखा है

उसने जवाब दिया :
उसका मतलब
'धर्मनिरपेक्ष'नहीं
और अगर है भी
तो यह तो
तभी तक लिखा है
जब तक हम उसे
लिखा रहने दें

फिर मैंने बात बदली :
संविधान में भारत को
'समाजवादी'लिखा है

वह बोला : यह एक
विदेशी विचारधारा है
देश का विकास
पूँजी के बग़ैर
नहीं हो सकता
जो महाजनों के
पास है

लोकतंत्र का सबक़ है :
'महाजन जिस राह जायें
वही पन्थ है'

फिर उसने सहसा
नाराज़ होकर कहा :
लिखा तो जगह-जगह
'सत्यमेव जयते'भी है
पर सत्य की जीत
हो कहाँ पायी ?

हम इसी अभियान में लगे हैं
और अगर जज
और पत्रकार मदद करें
तो यह लक्ष्य हम पा लेंगे
***
 
इतिहास में कभी-कभी

इतिहास में कभी-कभी
विपक्ष भी सत्ता में होता है
ज़्यादा सही यह कहना होगा
कि उसकी उप-सत्ता रहती है

उप यानी जो पास में हो
और हूबहू प्रधान न हो
बल्कि उसके जैसा हो

जैसे अध्यक्ष के पास जो रहे
वह उपाध्यक्ष होता है
वैसे ही विपक्ष होता है
***
 
बधाई हो 

कारण वही हैं

मगर कश्मीर में
पहले कभी इतनी
दहशत नहीं थी

न इज़रायल की
दमन-शैली में
लोग अंधे
किये गये थे
न उनके हाथ में
थे पत्थर

और न ही
देश की सीमा पर था
ख़ून-ख़राबे का
यह मंज़र

अब यही
सामान्य जीवन है :
युद्ध न हो तो भी
युद्ध के हालात में
उसकी मानसिकता में
रहना है

राजसत्ता ने
साबित किया है :
पुराने कारणों से
नये कार्य
पैदा किये
जा सकते हैं

नये महाराज को
बधाई हो !
***
 
रौशनी उतनी ही 

जन-शक्ति निर्भर
नहीं किसी पर

वह बिजली की
तीक्ष्ण रेखा-सी
तड़पती है
दुर्दिन के घुमड़ते
घन घमंड में

रौशनी उतनी ही है
जितनी जनता ने
संभव की है

राजसत्ता ने जो
पैदा किया है अँधेरा
उसके बावजूद !
***

नरेश सक्सेना की कविता : कत्लगाहों की तरफ़ फुसलाते शब्द -आशीष मिश्र

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ठंड से नहीं मरते शब्द 
वे मर जाते हैं साहस की कमी से 

केदारनाथ सिंह के इन शब्दों को आलोचना के सन्दर्भ में देखना रोचक है। आशीष मिश्र ने युवा आलोचना में एक हद तक यह साहस संभव किया है कि शब्द बचे रहें। इस वर्ष अनुनाद सम्मान के ज्यूरी मेंबर सुबोध शुक्ल ने उनके नाम की अनुशंसा की और सर्वसम्मति से उनकी पुस्तक के प्रकाशन को अनुनाद सम्मान के लिए चुना गया। आशीष के इस साहस से कोई बचा नहीं है, बतौर कवि मैं भी नहीं, आशीष की आलोचना का यही पक्ष मुझे उनकी लिखत की ओर आकर्षित करता है। वे अपना मत निर्भीक हो व्यक्त करते हैं, उनके निष्कर्षों पर बहस हो सकती है। वे दरअसल बहस का आमंत्रण देते हैं। यहां पल-प्रतिपल के आलोचना अंक में छपे उनके लेख का पुन:प्रकाशन किया जा रहा है। कहना न होगा कि इस पर बहस अपेक्षित है।
**** 
 कत्लगाहों की तरफ़ फुसलाते शब्द

क़ाबा एक ऐतिहासिक पत्थर है। बल्कि एक पत्थर मात्र है। इसकी ऐतिहासिकता कोई नितांत भिन्नकारी वैशिष्ट्य नहीं है। तमाम पत्थर,तमाम चट्टानें हैं,जिनका ऐतिहासिक महत्त्व है। यह विशिष्ट इस अर्थ में है कि विश्व-विस्तृत समुदाय की आस्था का केन्द्र है। दुनिया भर में बसे हुए एक समुदाय को इस केन्द्र से अर्थ मिलता है। और क़ाबा को इस विश्व-विस्तृत समुदाय से पहचान। इस केन्द्र के न होने से इस समुदाय का वही अर्थ न रह जाएगा। यह पूरी संरचना इसी तरह के सत्ता-केन्द्रों का संजाल है। भाषा इन्हीं सत्ता-केन्द्रों की एक संकेत-व्यवस्था है। प्रत्येक आस्थावन मुस्लिम इस पत्थर की तरफ़ मुँह करके दिन में पाँच बार प्रार्थना करता है। इसके हर सज़्दे के साथ यह पत्थर और भी ज़्यादा ताक़तवर होता जाता है। सज़्दा करता प्रत्येक मुसलमान दिग्सूचक है। यह बताता है कि काबा किस दिशा में है। यह संकेत है कि क़ाबा है। काबा और सज़्दा करता हुआ व्यक्ति एक-दूसरे को पहचान और अर्थ देते हैं। इसी तरह शब्द हर समय सत्ताओं के सज़्दे में झुके होते हैं। सत्ताएँ शब्दों को अर्थ देती हैं और शब्द उन्हें पहचान और स्थाईत्व। ये एक-दूसरे को छिपाते हैं,एक-दूसरे का सार्वभौमीकरण करते हुए सामान्य बोध का हिस्सा बनाते हैं। अर्थ और सत्ता का यह समंजन बच्चों को सुनायी जाती लोरी से लेकर हुंकार तक,समाचार से लेकर संगीत फैला होता है। हमारे स्वप्न,हमारी चाहतें,उदासी,आनंद इसी से समंजित हैं। हमारी चेतना इसी सत्ता और भाषा की संबद्धता का प्रभावोत्पाद है। हमारा रोज-ब-रोज का सामान्य भाषिक व्यवहार इसी दायरे में,इसी के दम पर,इसी को मज़बूत करता हुआ संभव होता है। हमारे द्वारा दुहराया गया हर वाक्य इस उपलब्ध संरचना को मज़बूत करता है। उपलब्ध वाक्य को दुहराना अतीत को दुहराना है। इस तरह हम हर दुहराव के साथ अपनी आत्मविरोधी दुनिया रचते जाते हैं। और हर दुहराव के साथ इसे और मज़बूत करते हैं। किसी भी भाषिक सृजन का काम गहराई में इस दुष्चक्र को तोड़ना है। शब्दों में कुछ पुरानी अर्थ-छवियों को पुनर्जीवित करना या नई अर्थ-छवियां पैदा करना है। पुरानी लय को तोड़ना और नई लय पैदा करना है। शब्दों को इस तरह का संदर्भ उपलब्ध करवाना जिससे उनके भीतर छिपा इतिहास दिखने लगे और अर्थ-छवियों के गमन से उनके भीतर बनी राह खुल जाए। आपको यहाँ तक पहुँचने में समय ज़रूर लगा परन्तु इस बिन्दु से ही सार्थकता,सम्प्रेषण और लोकप्रियता जैसे तमाम मुद्दे जुड़ते हैं। 

भाषिक व्यवहार वर्तमान सत्ता संरचना,उसकी लय,उसकी विचारधारा के अनुकूल है तो सम्प्रेषण और लोकप्रियता सहज संभाव्य है। परन्तु इस रास्ते सृजन और सार्थकता संभव नहीं है। अतः कविता का संभव होना सार्थकता और सम्प्रेषण के तनाव पर ही निर्भर है। एक कवि दुनिया में संवेदना के गमन के लिए नई जमीन तोड़ता है। उसे नया लय,नया भावावेग देना और साथ ही सृजन को संप्रेषणीय भी बनाना होता है। इसके लिए मौजूद भाषिक संरचना का एक हद तक उपयोग भी करना होता है। वरना बात ही संप्रेषित न होगी। अगर वह मौजूद भाषिक संरचना में ही क़ैद रह जाता है तो कविता संभव न होगी। किसी कवि की जमीन,उसकी दिशा की पड़ताल करने के लिए यहाँ तक आना ही होता है। अगर आप यहाँ नरेश सक्सेना की कविताएं लाएँ तो उनकी ताक़त और उनका अधूरापन दोनों साफ़ हो जाएगा।

नरेश सक्सेना की कविताएं श्रुतिसुखद और सहज संप्रेषणीय कविताएं हैं। जो तार्किक क्रम में आगे बढ़ती हुई एक लय और ठोस मुद्रा का रूप ले लेती हैं। इस तार्किक रचाव के नाते कविताएं गठे हुए वाक्य-विन्यास के साथ बहुत सधी हुई लगती हैं। इनमें सब कुछ बंधा-बँधाया और पूर्व निश्चित लगता है। नरेश सक्सेना के लिए कविता सत्य को पाने की भाषा नहीं बल्कि पाये और जाने हुए की अभिव्यक्ति का माध्यम है। इन कविताओं में तकनीक इतनी भारी है कि भाव-आवेग उसे लाँघ नहीं पाता। या भाव-आवेग इतना मद्ध्म और अनुकूलित है कि वह कवि-कौशल के लिए चुनौती नहीं बन पाता। मुझे इस संदर्भ में दूसरी बात ज़्यादा सटीक लगती है। उनकी एक लोकप्रिय कविता है- कंक्रीट। गिट्टी में रेत,रेत में सीमेंट,सीमेंट में पानी के लिए जगह होती है। इसलिए रिश्तों में जगह होनी चाहिए। यह कविता बहुत गणितीय ढंग से आगे बढ़ती है। जैसे कोई प्रमेय सिद्ध किया जाए। विशिष्ट से सामान्य निष्कर्ष तक निगमनात्मक तर्क-पद्धति का व्यवहार है। “रिश्तों में जगह होनी चाहिए”- इति सिद्ध्म। अपनी इसी ठोस संरचना और बहुपरिचित कथ्य के कारण ही कविता आसानी से संप्रेषित होती है। यह नरेश सक्सेना की रचना प्रक्रिया की सामान्य विशेषता है। और उनकी मंचीय सफलता का कारण भी यही है। लेकिन दूसरी तरफ़ से यह सीमा भी रच देती है। और कविता बहुवर्णी दुनिया से सहज भावात्मक संबंध और नैतिक व सौंदर्यात्मक उपलब्धि के बदले ठस्स वास्तु रचते हुए आसान लोकप्रिय मुहावरे में चुक जाती है। दाँतों के कीड़े,ईंटें,लोहे की रेलिंग,पत्थर,पानी,सीढ़ी और तमाम कविताएं इसी तरह की कविताएं हैं। कविता तर्क-पद्धतियों और शास्त्रों से बहिष्कृत दुनिया की पुनर्स्थापना है। नितांत तार्किक प्रक्रिया में विविधवर्णी दुनिया और इसकी बहु आयामिता को नहीं समझा जा सकता। इस बात को गहराई से,दार्शनिक स्तर पर समझने के लिए फ्रेंकफुर्त स्कूल और क्रिटिकल थ्योरी को समझना चाहिए। इस समय जबकि हमारे समाज पर फ़ासिज़्म की पकड़ बढ़ती जा रही है तो अपने समयों में उसके महीन रेसों को पकड़ रहे दार्शनिकों को पढ़ना चाहिए। उद्धृत कविता इतनी तेजी से संप्रेषित होती है तो इसके पीछे कारण यह तर्क पद्धति ही है। तर्क पद्धति सामान्य बोध का हिस्सा होती है। बात सिर्फ एक पंक्ति की है और पूरी कविता उसकी पैराफ्रेजिंगहै। हिन्दी कविता में अधिकांश लोग बहुत शाहख़र्च हैं। जिनकी जेब से एक दमड़ी नहीं निकलती वे शब्दों को पत्तों की तरह उड़ाते हैं।         

“आपस में सट कर फूटी कलियाँ
एक दूसरे के खिलने के लिए जगह छोड़ देती हैं

जगह छोड़ देती हैं गिट्टियाँ
आपस में चाहे जितना सटें
अपने बीच अपने बराबर जगह
खाली छोड़ देती हैं
जिसमें भरी जाती है रेत

और रेत के कण भी
एक दूसरे को चाहे जितना भींचें
जितनी जगह खुद घेरते हैं
उतनी जगह अपने बीच खाली छोड़ देते हैं।
इसमें भरी जाती है सीमेंट

सीमेंट
कितनी महीन
और आपस में सटी हुई
लेकिन उसमें भी होती हैं खाली जगहें
जिसमें समाता है पानी
और पानी में, खैर छोड़िए

इस तरह कथा काँक्रीट की बताती है
रिश्तों की ताकत में
अपने बीच
खाली जगह छोड़ने की अहिमयत के बारे में।“

रिश्तों में थोड़ी व्यक्तिगत जगह भी होनी चाहिए। दूसरे के व्यक्तित्त्व को फलने-फूलने भर हवा-पानी और आसमान होना चाहिए। इसमें कोई नयापन नहीं है,यह सामान्य बोध का हिस्सा बन चुका है। छठे दशक से यह बोध हा हिस्सा बनने लगता है। पिछले साठ वर्षों में न जाने कितनी कहानियाँ,नाटक और कविताएं लिखी गयी हैं हिन्दी में। बल्कि मीडिया ने तो इतना जगह पैदा कर दिया है कि आवाज़ भी पहुँचना मुश्किल है या फिर उसकी ज़रूरत नहीं रही। दूसरे जिन माध्यमों से इस निष्कर्ष तक कविता में पहुँचा जा रहा है उससे प्रेम का पदार्थीकरण हुआ है। गिट्टी,रेत और पानी हमारे भावात्मक दुनिया का हिस्सा बनने के बजाए भौतिक तथ्य ही रह जाते हैं और उलटे प्रेम का भी पदार्थीकरण होने लगता है।      

नरेश सक्सेना अनुकूलित भाव-दृष्टि के कवि हैं। नवगीत की आत्मबद्धता के दायरे को वे कभी तोड़ नहीं पाए। सर्जनात्मक उन्मेष उन्हीं कवियों में दिखता है जो इस दायरे को तोड़ने में सफल रहे। जैसे केदारनाथ सिंह। यहाँ उद्देश्य तुलना करना नहीं है। लेकिन दोनों कवियों को साथ देखते हुए कुछ नयी बातों तक पहुँच सकेंगे। केदारनाथ सिंह आरंभिक दौर से ही अपने सघन अनुभवों से कविता रचने का प्रयास करते हैं। अनुभवों को समझने और रचने के प्रयास में ही केदारनाथ सिंह नई दिशाओं की तरफ़ बढ़ते हुए दिखते हैं। उनमें एक विकास है,जिसकी एक रेखा खीची जा सकती है। नरेश सक्सेना की कविता में कोई विकास नहीं है- न आंतरिक भाव-सम्बन्धों के संयोजन में और न ही भाषा में। वे पहले दिन से ही बहुत कुशल हैं! उनकी रचनात्मकता एक वृत्तीय गति का आभास कराती है। इसका कारण यह है कि वे अनुभव के बजाय रचना में कारीगरी के विश्वासी रहे हैं। जिस कवि में कोई विकास न दिखे उसके बारे में यह समझना चाहिए कि वह पूर्वाग्रह,अवधारणा,और कारीगरी से कविताएं गढ़ रहा है। इतनी अटल और अपरिवर्तनशील सिर्फ़ अवधारणाएँ और कारीगरी ही हो सकती हैं। इससे यह समझना चाहिए कि कवि जीवन की गतिशीलता से छिटका हुआ अपने आत्मबद्ध दायरे में क़ैद हो चुका है। नरेश सक्सेना का अनुभव-संसार बहुत सीमित है। वे हिन्दी के एक मात्र कवि हैं जिनकी कविता में कोई परेशान मनुष्य नहीं दिखता,कोई संघर्ष करता हुआ इंसान मौजूद नहीं है। कहीं कोई अपराधबोध नहीं है,न किसी तरह का तनाव! नरेश सक्सेना का कविही इस मटमैले कशमकश से भरी दुनिया का नहीं लगता। हम जिस तरह की दुनिया में रह रहे हैं,वहाँ हर दिन तमाम समझौते करने होते हैं। हम तमाम तरह के दबावों और अपराधबोध के बीच जिंदगी जीते हैं। एक कवि जो इन्हीं सब के बीच रह रहा है परन्तु उसकी कविताओं पर इसका तनाव नहीं दिखता,तो यह सामान्य स्थिति नहीं है। यह बोध अपने आपमें आत्मग्रस्तता का प्रमाण बन जाता है। रूमानी और ट्रिकबाज़कवियों के लिए यह स्थिति अस्वाभाविक भी नहीं है। कविता अवधारणा और कवि की निजी छापों से बाहर संसार की दत्तता का अनुभूति कराती है। अगर किसी कवि से यह संभव नहीं हो पा रहा है तो इसका अर्थ यह है कविता उसके तईं अहम के आभूषण से ज़्यादा नहीं है।

नरेश सक्सेना के लिए कविता बहु-विमीय यथार्थ को उद्घाटित करने की भाषा के बजाय उद्घाटित और दुहराये गए पक्षों को छविवान बनाने या इसके रहस्यकरण का प्रयास है। इनकी लगभग कविताओं में एक सार्वभौमिक धारणा होती है। जिससे पाठक सुपरिचित होता है- ठीक मिथकों की तरह। कविताएं भौतिकी के सार्वभौमिक धारणा/तथ्य से शुरू होकर नीतिशास्त्र के किसी सामान्य सूक्ति तक जाती हैं। इसी के बीच नरेश सक्सेना का कुल कवि कर्म है। शास्त्र और विज्ञान का सीमित देश-काल नहीं होता। आइंस्टीन की सापेक्षता का सिद्धान्त हर जगह लागू होता है। यह यूरोप में भी सही है और इतनी गरीबी के बावजूद एशिया में भी! हर जगह पानी हिमांक से नीचे जम जाता है। बर्फ कंबल का काम करने लगती है और इसके नीचे अपेक्षाकृत तापमान ज़्यादा बना रहता है। इसलिए मछलियाँ बची रह जाती हैं। चूँकि यह एक सामान्य प्रक्रिया है इसलिए सामान्य पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी इसे समझ ही लेता है। नरेश सक्सेना इस तथ्य का रहस्यकरण करते हैं और बताते हैं कि “पानी क्या कर रहा है”। पानी के कार्य को बताने के लिए एक वैज्ञानिक प्रक्रिया का कविताकरण शुरू होता है-

“सतह का पानी ठंडा और भारी हो
लगाता है डुबकी
और नीचे से गर्म और हल्के पानी को
ऊपर भेज देता है ठंड से जूझने”

संवहन की इस प्रक्रिया का जितना भी रहस्यकरण हुआ हो परन्तु इसमें मार्मिकता नहीं है। फिर पानी के जमने की प्रक्रिया बताते हैं- “तीन डिग्री हल्का/ दो डिग्री और हल्का और / शून्य डिग्री होते ही,बर्फ बनकर / सतह पर जम जाता है”। तीन चौथाई कविता पानी के जमने की प्रक्रिया बताती है और चूँकि सिर्फ प्रक्रिया वर्णन से कविता हो नहीं सकती थी इसलिए उसे किसी तरह मानवीय संदर्भ से जोड़ देना है।

“पानी के प्राण मछलियों में बसते हैं
आदमी के प्राण कहाँ बसते हैं?

नरेश सक्सेना की कविता तथ्य के रहस्यकरण की एक प्रक्रिया है। कुछ जगहों पर कविता तथ्य से शुरू होकर सामान्य भाव-समवेदनाओं में घुल जाती है। परन्तु अधिकांशतः यह इसी तरह कसरत होकर रह जाती है। वे कहते हैं कि कविता में उनकी दिशा पदार्थ से जीवन की तरफ़ आने की है। लेकिन हैं ठीक इसके उलट- कविताओं में जीवन का पदार्थीकरण होने लगता है। कुछ कविताओं में,जहाँ वे सहज हैं और संसार की दतत्ता को थोड़ा भी महसूस कर पाते हैं,वहाँ अच्छी कविताएं संभव हुई हैं। इसी तरह की एक कविता है – उसे ले गये। “अरे कोई देखो / मेरे आँगन में गिरा कट कर /  गिरा मेरा नीम / गिरा मेरी सखियों का झूलना / बेटे का पालना गिरा / उड़ीं उसकी चिड़ियाँ / देखो उड़ा उनका शोर / देखो एक घोसला गिरा / देखो / वे आरा ले आये ले आये कुल्हाड़ी / और रस्सा ले आये उसे बांधने / देखो कैसे काँपी उसकी छाया / उसकी पत्तियों की छाया / जिनसे घाव मैंने पूरे”। इस कविता में भी नवगीत वाली आत्ममुग्धता है। पेड़ बिकने और कटने के लिए बाबा और बेटा जिम्मेदार है,कवि उसमें शामिल नहीं है। यह आत्ममुग्धता नवगीतों से साथ चली आयी और किसी न किसी रूप में आज भी मौजूद है। परन्तु इस कविता में जो मार्मिकता है वह उनकी किन्हीं और कविताओं में नहीं है। अधिकांश कविताएं मार्मिकता के अभाव में सरकस हो गयी हैं। पहले संग्रह में रोशनी शीर्षक से एक कविता है। इसमें प्रकाश के तरंग और कण वाले दोहरी प्रकृति के बारे में बताया गया है। तरंग हूँ तरंग हूँ कहती हुई / कणों में कर सकती है संचरण/ और दोनों जगह अपने सही होने का/ दे सकती है प्रमाण”। ऐसी कविताओं में भौतिक तथ्यों पर आरोपित मानवीकरण और रहस्यकरण हास्यास्पद हो जाता है। जैसे एक जादूगर आता है। वह बच्चे को बॉक्स में छिपाकर सिर्फ चाकचिक्य और भाषिक विस्फार के दम पर आपको किसी रहस्य का आभास कराना चाहता है। अगर आप इस ट्रिक को समझते हैं,अगर आप जानते हैं कि बच्चा छिपा हुआ है,तो आपके लिए हास्यास्पद उछल-कूद है। यदि आप इस ट्रिक को नहीं समझते तो अज्ञानता का अपना सुख होता ही है! भौतिक तथ्यों से कविता की शुरुआत करना और एक मानवीय-संवेदनात्मक जमीन तक उतार देना एक बड़ी बात होती,लेकिन इन कविताओं में यह नहीं है। इसके लिए मनुष्य और इस धरती के प्रति जिस अकूत प्रेम की ज़रूरत होती है,वह कलेजे में नहीं है। पहले संग्रह में एक कविता है – लालटेनें। इस कविता का ठीक से पाठ होना चाहिए। समुचित पाठ से आप नरेश सक्सेना की कविताओं की बनावट समझ पाएँगे।

“रोशनी का नाम लेते ही
याद आता है सूरज 
याद आती हैं बिजली की बत्तियाँ और टार्चें
लेकिन अन्धे तहख़ानों
और जहरीली गैसों से भरे मैनहोलों में
उतारी जाती हैं सिर्फ लालटेनें

जो अक्सर वहाँ से बुझी और तड़की हुई लौटती हैं
हमें ख़तरों का पता देती हुई
क्योंकि जहाँ जाकर लालटेनें बुझ जाती हैं
वहाँ जाकर आदमी का दम घुट जाता है।

आग को जलने के लिए ऑक्सीज़न की आवश्यकता होती है। यह आप पहले से जानते होंगे। पुराने समय में ऑक्सीज़न की उपस्थिति को जानने के लिए खानों में विशेष तरह की लालटेन ले जाया जाता था। जहाँ ऑक्सीज़न कम हो जाती थी,वहाँ लालटेन बुझ जाती थी और लोग उसके आगे नहीं जाते थे। अब इस तरह के तमाम आधुनिक यंत्रों की खोज हो चुकी है कि लालटेन गधा गाड़ी के जमाने की बात हो गयी। पूरी बात सिर्फ ऑक्सीज़न और आग के सामान्य भौतिक संबंध की है। लेकिन इसके लिए एक रहस्य बुना गया है और इसमें सूर्य से लेकर टार्च और बल्ब तक,सबकुछ शामिल कर लिया गया है। तब भी पाठक इसे किसी मानवीय भाव-संबंध से नहीं जोड़ पाता। कोई मार्मिकता नहीं आ पाती। कविता का काम विज्ञान- उद्घाटित सत्य के बजाए जीवन के रहस्य से प्रेम करना है। इसके लिए एक धड़कता हुआ हृदय चाहिए ट्रिक और कौशल नहीं।                             

नरेश सक्सेना की अधिकांश कविताओं में ऐसी ही वैज्ञानिक अवधारणाएँ हैं। वैज्ञानिक अवधारणाओं का कोई सीमित देश-काल नहीं होता। इनकी कविताओं से किसी निश्चित भूगोल,स्पष्ट पारिस्थितिकी का आभास नहीं होता। कविता थल और काल के फ्रेम में सीमित सत्य को पकड़ती है। नरेश सक्सेना का थल और काल दोनों ही पकड़ से बाहर है। और आप देखेंगे कि नरेश सक्सेना की कविताओं में ऐतिहासिक समय नहीं अनैतिहासिक काल है। नरेश सक्सेना की एक कविता है- पृथ्वी। यह कविता खगोल-विज्ञान समझाती है। “पृथ्वी अपने केंद्र पर घूमती है / साथ ही एक और केंद्र के चारों ओर लगातार”। इस समझ के बाद कविता स्त्री और धरती की पारंपरिक छवियों पुनरुत्पादित करती है- “पृथ्वी क्या तुम कोई स्त्री हो/ तुम घूमती हो/ तो घूमती चली जाती हो। यह स्वाभाविक है। नरेश सक्सेना की कविताएं सामान्य वैज्ञानिक अवधारणओं को ही नहीं बल्कि पारंपरिक भाव-बोध को भी पुनरुत्पादित करती हैं। पुंसवाद चीज़ों का एक बाइनरी रचता है। उसके लिए सबकुछ एक द्वितत्व में है। पाप –पुण्य,सही-गलत,स्त्री-पुरुष,धरती- सूर्य। इसमें एक पक्ष कमतर या अवतर भी है। सूर्य ताक़तवर और केंद्र है। धरती उपग्रह है और सूर्य के चारों तरफ़ घूमती है। स्त्री खेत है और पुरुष हलवाहा। वह बीज डालता है और स्त्री और धरती एक पात्र है। यह प्रतीक बार-बार दुहराया जाता है। स्त्री चिंतकों ने बार-बार इस तरह के प्रतीकों को ख़ारिज किया है। उन्होने इस सौंदर्य के पीछे की राजनीति को उद्घाटित किया है। प्रसिद्ध समाज विज्ञानी लीला दुबे ने भारतीय स्तर पर इसे समझने का प्रयास किया है। लेकिन सामान्य सौंदर्यबोध के पुनरुत्पादन को ही सृजन समझने वाले व्यक्ति के लिए इस सबसे क्या?नरेश सक्सेना इसे जस का तस उठा लेते हैं और चाहते हैं कि हम इसे सिर्फ सृजन ही न मान लें और उन्हें सामाजिक न्याय का उदगाता भी समझें। इस तरह के तत्त्व ताली पिटवाऊ कविताओं की ख़ास विशेषता है। ताली पिटवा लेना कोई बुरी बात नहीं है। दिक़्क़त तब होती है जब इन तर्कों के आधार पर दूसरी तरह की कविताएं सिद्ध करने का प्रयास किया जाए। जब गधे के गुणावगुण के आधार पर घोडा सिद्ध करने का प्रयास हो तो सारे तर्क हास्यास्पद हो जाते हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण विष्णु खरे द्वारा नरेश सक्सेना पर लिखा गया लेख है। नरेश सक्सेना की एक कविता है – छः दिसंबर। विष्णु खरे इसे इस विषय पर हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कविता कहते हैं। मुझे पता नहीं उन्होने इस विषय पर हिन्दी की कितनी कविताएं पढ़ी हैं। परन्तु यह कविता इस विषय पर औसत से भी नीचे की कविता है। “इतिहास के बहुत से भ्रमों में से / एक भ्रम यह भी था / कि महमूद गजनवी लौट गया था। लौटा नहीं था वह /यहीं था”। जब ऊपर की पंक्तियों में लिखा जा चुका है कि उसका लौटना एक भ्रम था तो पुनः नीचे लौटा नहीं था वह यहीं था” से कौन-सा नया अर्थ पैदा हो रहा है?तीसरे बन्द में फिर उसे मिलते-जुलते ढंग से दुहराया गया – सैकड़ों वर्ष बाद वह अचानक / प्रकट हुआ अयोध्या में। सिर्फ अंतिम बन्द के लिए ऊपर के तीन बन्द जोड़े गये हैं। सोमनाथ में उसने किया था / अल्लाह का काम तमाम/ इस बार उसका नारा था / जय श्रीराम”। 6 दिसम्बर की घटना से भारत का सामाजिक ढाँचा ढह गया। पूरी राजनीति बदल गयी। आतंकवाद नये-नये रूपों में हमारे सामने बढ़ता जा रहा है। एक ऐसी घटना जिसने हमारे समाज की नींव हिला दी उसे तुक और ट्रिक के जरिए इतने सपाट ढंग से कह दिया गया है! बार-बार दुहराई गयी पंक्तियों में जरा भी मार्मिकता नहीं है। विष्णु खरे को युवा कवि अनिल कुमार सिंह की अयोध्या 1991शीर्षक कविता पढ़नी चाहिए। यह चर्चित कविता है। इसे नामवर सिंह ने भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार दिया है। खरे जी को चाहिए कि इस कविता पर नामवर सिंह का निर्णायक मत भी पढ़ें। इस विषय पर तमाम कविताएं उद्धृत की जा सकती हैं और तुलना भी हो सकती है। लेकिन इसकी ख़ास अवश्यकता नहीं है। इस तरह की कविताओं का भविष्य समय तय कर देता है। इसी तरह की कविता है – गुजरात एक और गुजरात दो। यह कठकरेजपन स्वाभाविक है। इसकी अनुगूँज शुरू से अन्त तक कविताओं में मौजूद है। कई बार वह चरित्र के स्तर पर सामने आ जाता है। यह संभव नहीं है कि आप श्रीराम कविता पाठ में मुरली मनोहर जोशी के साथ कविता पाठ भी कर लें और उसे संवेदनात्मक स्तर पर महसूस भी कर सकें। समझौते की कुछ क़ीमत तो होती ही है। और यह क़ीमत कविता और मनुष्यता को सबसे ज़्यादा चुकानी पड़ती है। नरेश सक्सेना “कविता की तासीर” को पके फोड़े को चीरने वाला चाकू कहते हैं,जिससे वाह नहीं आह निकले। पर अपनी कविताओं में सबसे आसान वाह-वाह का रास्ता ही चुनते हैं! एक कविता का शीर्षक है- दीमकें। “दीमकों को /पढ़ना नहीं आता/ वे चाट जाती हैं / पूरी किताब”। पूरी कविता में पढ़ना और चाट जाना दो पद हैं। इन्हीं दो पदों पर कविता पूरी तरह मुनहसिर है। दोनों का अलग- अलग सामान्य अर्थ पहले से निर्धारित है। चाट जाना शब्द दीमकों के लिए ही व्यवहृत होता है। उनके खा जाने को चाट जाना कहते हैं। कविता में इन पदों का सामान्य अर्थ ही मुख्य है। इसमें कुछ जुड़ता नहीं। इसी तरह की कविता है चट्टानें। पत्थर,पानी,सीढ़ी तमाम कविताएं इसी तरह की शाब्दिक खेल से गढ़ी गयी हैं। कोई कविता अगर अगर व्यवहृत पदों का अर्थ नहीं बदल सकती तो वह कविता नहीं हो सकती। नरेश सक्सेना इसी तरह शब्दों से कविता बनाते हैं। वे चाहते हैं कि इसे कविता मान लिया जाए (मनवाने के लिए जिन भौतिक चीज़ों की ज़रूरत होती है वह उनके पास है ही – ज्ञानरंजन जैसे संपादक और विष्णु खरे जैसे समीक्षक हैं।) और वाह भी नहीं आह! कहा जाए। यह कविता नहीं कविता की दांडी मारना है। और सही कहा गया है कि दांडी मारने वाला बनिया पल्ला बहुत पीटता है!             

नरेश सक्सेना की तारीफ़ कुछ आलोचक इसलिए करते हैं कि उन्होने गिट्टी,मोरंग,बालू और तमाम ऐसी चीज़ों को कविता में जगह दिया। यह सही है। नरेश सक्सेना ने पहली बार तमाम ऐसी उपेक्षित टूटी-फूटी चीज़ों से कविता बनाया। लेकिन यह कहने के साथ अपने एक उम्रदराज कवि का मूल्याँकन भी होना चाहिए। मुग्धता चिंतन के लिए सबसे सहज और घातक बात है। ध्यान इस बात पर भी होना चाहिए कि ये तमाम चीजें मनुष्य की भावात्मक दुनिया का हिस्सा कितना बन पाती हैं। दुनिया की प्रत्येक वस्तु अपने भौतिक गुणों के साथ सामाजिक – सांस्कृतिक और ऐतिहासिक निर्मितियों का साझीदार भी है। कोई वस्तु कलात्मक सृजन का हिस्सा तब बन पाती है जब वह सांस्कृतिक संदर्भ के साथ आए। नरेश सक्सेना के यहाँ अक्सर ऐसा नहीं होता। वे चीज़ों के सांस्कृतिक सन्दर्भ के बजाय उसके भौतिक गुणों को ही रहस्य बनाने लगते हैं। नरेश सक्सेना की कविता में विज्ञान-ज्ञान भी बहुत गहरा हो,ऐसा नहीं है। यह भौतिकी की अति सामान्य समझ पर आधारित है। अगर भौतिकी के गहरे समझ का जरा भी अक्स होता तो यह कविता का ठस्स और चुस्त ढाँचा ढह जाता। आधुनिकता के प्रारम्भिक दौर में भौतिकी ही चिन्तन का केन्द्र था। पूरी सृष्टि को एक बड़ी मसीन समझा जाता था। और चिन्तन के स्तर पर स्वीकार किया जाता था कि भौतिकी का सत्य इतिहास,संस्कृति और चेतना पर भी लागू होता है। आगे यह नकार दिया गया। कार्ल पापर ने सिद्ध कर दिया कि विज्ञान का सत्य भी निर्मितियों से बाहर नहीं है। अब विज्ञान को समझने के लिए खुद भाषा की तरफ़ लौटना पड़ता है। यह स्वीकृत है कि तर्क के द्वारा हम बहुआयामी यथार्थ को नहीं पकड़ सकते। इसके लिए हमें कलाओं की ओर लौटना पड़ेगा। लेकिन नरेश सक्सेना आधुनिकता के प्रारम्भिक निर्मितियों से बाहर नहीं हो पाए हैं। यह सब कविता में बहुत गहराई से दिखता है। काव्यवस्तु में समाजार्थिक तनावों का अभाव और वास्तु में शैलीगत यांत्रिकता से यही समझ बनती है। आधुनिकता के भाव-बोध के जो भीषण परिणाम देखने को मिलते हैं,उसका अक्स बहुत गहराई में नरेश सक्सेना के सौंदर्यबोध में भी झलक जाता है।         

कविता का संबंध अनुभव से है और विज्ञान का तथ्य से। नरेश सक्सेना तथ्य से अनुभव की तरफ आते हैं। लेकिन बहुवर्णी संसार से अपरिचय और अनुभव की क्षीणता के नाते कविता तथ्य के चारों तरफ़ ही चक्कर काट के रह जाती है। कविता मनुष्यता के सांस्कृतिक सन्दर्भ और उसके भावात्मक संसार को प्रदीप्त नहीं कर पाती। यह कविता होने के बजाए तमासा हो जाती है। मन के उलझे हुए यथार्थ को अवधारणाओं में रचने समझने का प्रयास निर्धारणवाद की तरफा ले जाता है। वे चिन्तन में भौतिकी से प्रभावित हैं। और कविता में लय व कारीगरी को महत्त्वपूर्ण मानते हैं:ये दोनों ही बातें अलग लग सकती हैं,लेकिन हैं नहीं। जिसके बोध का आधार भौतिकी की यांत्रिक समझ हो उसके लिए कविता में मार्मिकता कोई महत्त्वपूर्ण तत्त्व नहीं है तो यह स्वाभाविक है। वे सेना के अनुशासन से मोहित होते हैं और लेफ्ट-राइट में लय खोजते हैं। और उसे सृष्टि की लय बताते हुए उसका ग्लोरीफिकेशन करते हैं। यह फ़ासिज़्म की अनुगूँज है।   

साहित्य में ही बहु-विमीय यथार्थ को खोलना संभव है। जहाँ आधुनिकता द्वारा रूढ तार्किकता से एक अलग तरह के सार्थक अतर्क और काव्य-न्याय से सत्य को पकड़ना और रचना संभव हो पता है। जीवन की यांत्रिक समझ और उसे समाजार्थिक परिदृश्य से काट देना सेना की लय को सृष्टि की लय कहने की तरफ़ ही ले जाएगा। जो सेना की इस लय की ताक़त को सत सत प्रणाम कहता है उससे हिन्दी के समझदार लोगों को प्रणाम कर लेना चाहिए। कविता में फ़ासिज़्म तख़्ती लगाकर नहीं आता,इतने ही सौंदर्यात्मक ढंग से आता है। इसे विश्लेषित करने और समझने की ज़रूरत पड़ती है।

“शनैः-शनै: लय के सम्मोहन में डूब
सेतु का अन्तर्मन होता है आन्दोलित
झूमता है सेतु दो स्तम्भों के मध्य और
यदि उसकी मुक्त दोलन गति मेल खा गई
सैनिकों की लय से
तब तो जैसे सुध-बुध खो केन्द्र से
उसके विचलन की सीमाएँ टूटना हो जाती हैं शुरू
लय से उन्मत्त
सेतु की काया करती है नृत्त
लेफ़्ट-राइट, लेफ़्ट-राइट, ऊपर-नीचे, ऊपर-नीचे
अचानक सतह पर उभरती है हल्की-सी रेख
और वह भी शुरू करती है मार्च
लगातार होती हुई गहरी और केन्द्रैन्मुख
रेत नहीं रेत । लोहा, लोहा अब नहीं
और चूना और मिट्टी हो रहे मुक्त
शिल्प और तकनीकी के बन्धन से
पंचतत्त्व लौट रहे घर अपने
धम्म...धम्म...धम्म...धम्म...धम्म...धड़ाम

लय की इस ताक़त को मेरे शत-शत प्रणाम”
   

धड़ाम से प्रणाम को मिलना चाहिए बकिया भाव और अर्थछवियां जाएँ भाड़ में। भाषा भेदिया होती है। वह अंदर का सारा पता देती है। नरेश सक्सेना का सारा वाक्य-विन्यास बहु-प्रयुक्त और सामान्य है। इसका अर्थ यह होता है कि उनकी भावदृष्टि भी सामान्य है। दूसरी बात यह कि उनकी भाषा का इतिहास-भूगोल बहुत सीमित है। इनके साथ लिख रहे तमाम कवियों की भाषा का भूगोल इनसे बहुत विस्तृत है। यह सिर्फ भाषा और शिल्प जैसा यांत्रिक मसला नहीं,भाव और संवेदना की सीमाओं को भी दर्शाता है।             
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यहां लोक की बहुत ऊपरी और सतही समझ से काम नहीं चल सकता - आलोचक जीवन सिंह से कवि महेश पुनेठा की बातचीत/1

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(वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह और सुपरिचित कवि महेश पुुनेठा की यह महत्वपूर्ण बातचीत चार खंडों में अनुनाद पर आएगी। अनुनाद इस सहयोग के लिए महेश पुनेठा का आभारी है।)



डॉ0जीवन सिंह हिंदी के प्रतिष्ठित,प्रतिबद्ध और ईमानदार आलोचक हैं। अलवर राजस्थान में रहते हैं। अब तक आलोचना की तीन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। पहली किताब कविता की लोक प्रकृतिनाम से प्रकाशित हुयी। दूसरी किताब कविता और कवि कर्मबहुत चर्चित रही। तीसरी किताब शब्द और संस्कृतिमें भक्तिकालीन कवियों के अलावा साहित्य और संस्कृति पर बहुत जरूरी आलेख संकलित किए गए हैं। लोकधर्मी कविता के लिए जाने-जानी वाली पत्रिका कृति ओरमें वह निरंतर लिखते रहे। अलीबख्शी ख्याल और मेवाती लोक संस्कृति पर गहरी पैठ रखते हैं। अपने गांव जुरहरा (भरतपुर) की रामलीला में पिछले पैंतालीस वर्षों से जुड़ाव और रावण का अभिनय करते रहे हैं। राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर के सर्वोच्च मीरा पुरस्कारसे पुरस्कृत और ब्रजभाषा अकादमी से सम्मानित। 1968से 2004तक राजस्थान के विभिन्न राजकीय कॉलेजों में अध्यापन करते रहे। प्रस्तुत है उनसे फेसबुक के माध्यम से हुई लंबी बातचीत के कुछ अंश
-महेश पुनेठा  
                         
महेश चंद्र पुनेठा-आज लोक और लोकधर्मिता को लेकर हिंदी कविता और आलोचना में खूब कहा जा रहा है। खंडन और मंडल दोनों ही पुरजोर तरीके से हो रहा है। सबकी अपनी-अपनी व्याख्याएं हैं। यह बात शायद आप भी स्वीकार करेंगे कि लोक और लोकधर्मिता को बहस के केंद्र में लाने का श्रेय विजेंद्र जी को जाता है,जिसे आपने आगे बढाने का काम किया है। आपकी तीनों पुस्तकें-कविता की लोक प्रकृति,कविता और कवि कर्म तथा शब्द और संस्कृति इसका प्रमाण हैं। आपकी और विजेंद्र जी की लोक की अवधारणाओं में मुझे कोई विशेष अंतर नहीं दिखाई देता है, लेकिन पिछले दिनों आपने लोक की परिभाषा को लेकर विजेंद्र जी से अपने मतभेद की बात कही है। क्या आप उन मतभेदों के बारे में  विस्तार से बता पायेंगे?

जीवन सिंह-दो व्यक्तियों की बातों में समानता के बिन्दु होते हुए भी जरूरी नहीं कि हरेक बिन्दु पर समानता और एकता रहे। प्रारंभ में जब एक व्यक्ति कुछ सीखता है तो वह दूसरों से यानी अपने बड़ों से प्रभावित होकर अपना रास्ता निश्चित करता है। मैं आपातकाल की अवधि में बूँदी में था। 1980में तबादला कराकर अपने जिले के पास गंगापुर सिटी आ गया। यहाँ से मेरे गाँव का रास्ता भरतपुर होकर था। भरतपुर में मैंने 1960से1963तक रहकर स्कूली शिक्षा हासिल की थी। इस वजह से भरतपुर से लगाव था और वह मेरा जिला भी है। विजेन्द्र जी की कविता की आधारभूमि यही अंचल रहा है। इस वजह से हम एक दूसरे के समीप आए। वैसे भी कविता में ब्रजभाषा की देशज शब्दावली और परिवेश ने उनकी कविता के प्रति मेरे मन में आकर्षण पैदा किया। वैसे बूँ्दी में रहते हुए मैं अपने कई साथियों के साथ विचार सभाओं में अक्सर कोटा जाया करता था,जहाँ आपातकाल के विरोध में मेरे मन में समाजवादी विकल्प की एक जमीन तैयार हुई, इसमें मथुरा के कामरेड सव्यसाची के व्याख्यानों की एक बड़ी भूमिका है। वे मथुरा के एक कालेज में पढाते थे किन्तु आचरण में इतनी सादगी, सच्चाई ,लोकतांत्रिकता और सहयोग की भावना थी कि उनके विचारों का असर हुए बिना नहीं रहता था। यह एक जमीन थी जिस पर हम मिलकर आगे चले थे। विजेन्द्र जी के बारे में जहाँ तक मुझे मालूम है कि पहले वे भी लोहिया के समाजवाद से प्रभावित रहे। व्यक्ति एक दिन में नहीं बनता, कितने प्रभाव, सम्पर्क, अभिरुचि,संस्कार, अनुभव, अध्ययन आदि होते हैं, जो व्यक्ति को छीलते, छाँटते रहते हैं। जो कदली कभी कटता नहीं, वह फल देना बंद कर देता है। बहरहाल, विजेन्द्र जी से लगातार सम्पर्क सघन होता गया। इसी में से निकला लोकधर्म और समाजवाद। मैं पहले से ही तुलसी की कविता के सबसे ज्यादा नजदीक था। इस सम्पर्क ने उसको मजबूत किया। वैसे अपने परिवेश, परिवार व संस्कारों की वजह से मेरी रुचि नई कविता में इसलिए नहीं थी कि उसमें छंद नहीं था। जबकि ब्रज कविता छंदमय थी। विजेन्द्र जी उस समय भरतपुर से ओरनाम से पत्रिका निकालते थे। बाद में यही कृति ओरहुई। इस सम्पर्क और सत्संग का लाभ यह हुआ कि मेरी नई मुक्त छंद कविता में रुचि पैदा हुई। अब हमारी समान रुचि और जीवन दृष्टि होने से हम आपस में समीप होते चले गए। जब भी अवसर मिलता मैं भरतपुर चला जाता। दोनों दिनभर घना अभयारण्य में घूमते। पक्षी विहार का बहुत नजदीक से नजारा देखते। कविता पर बतियाते। विजेन्द्र जी की अक्सर सलाह होती कि गद्य लिखो। पत्रिकाओं के नाम बतलाते कि इसमें भेजो। इसी यात्रा में उस समय के मध्यप्रदेश के दुर्ग से महावीर अग्रवाल के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका में मेरा लेख कविता की लोकप्रकृतिप्रकाशित हुआ। इस तरह से एक दिशा बनती गई। इस दृष्टि से विजेन्द्र जी के कविता संग्रहों पर लिखा और त्रिलोचन,केदार, नागार्जुन,कुमारेन्द्र,कुमार विकल आदि की कविता पर भी। इसका कारण था कि इनकी कविताओं में लोक को एक आधारभूमि की तरह रखा गया था। मुक्तिबोध भी इस बीच मेरे मन में बसने लगे थे। यद्यपि उनको समझ पाना आसान नहीं था। सच तो यह है कि जिसकी मार्क्सवादी दृष्टि कमजोर है या यांत्रिक है वह मुक्तिबोध को कम ही पसंद करता है। मुक्तिबोध को रामविलास जी तक नहीं समझ पाए। विजेन्द्र जी ने भी मुक्तिबोध का उल्लेख तो हमेशा किया किन्तु उनकी कविता का खुला समर्थन कभी नहीं किया। इसकी एक बड़ी वजह हमारा लोक के खूँटे से बँध जाना भी था। मैं आज मानता हूँ कि इससे एक अजीब तरह का दृष्टिसंकोच पैदा हुआ। इसके बाद 2011में मैं जब अपने सुपुत्र के साथ आस्ट्रेलिया के सिडनी नगर में रहने के लिए गया तो मुक्तिबोध का सारा साहित्य अपने साथ पढ़ने को ले गया। वहाँ समय ही समय था। अपने पौत्र को लगभग पन्द्रह किलोमीटर दूर मिरांडा नाम के उपनगर के एक प्ले स्कूल में उसे छोड़ने जाता ,तब वहाँ चार घण्टे ठहरने का समय मिलता। वहाँ पास में ही एक लाइब्रेरी थी, जिसमें जितनी देर चाहो बैठकर पढो, मैं चार घंटे वहीं बैठता। पौत्र को वापस जो लाना होता था। रेल से आते जाते। यहीं मुक्तिबोध को बार बार पढ़ा। या फिर आस्ट्रेलिया के आदिवासियों के बारे में या उसके इतिहास के बारे में। मुक्तिबोध की खूबी मैनें देखी कि वे दृष्टि विस्तार करते हैं और सभी तरह की संकीर्णताओं और रुढ़िवादिता का पता बतलाते हैं। इसी से मुझे लगा कि यह कवि सीधे-सीधे जनपक्षधर और बेहद ईमानदार होते हुए भी हमारे लोक परिसर में अपनी सुनिश्चित जगह नहीं बना पाता। हमारी लोकदृष्टि में ही कहीं खोट है। इसी से मेरे सोच की भिन्नता शुरु हुई। हाँ,दो साल हुए, केदारनाथ सिंह दिल्ली से यहाँ अलवर एक कार्यक्रम में अलवर आए, इससे पहले भी वे जौकहरा में एक कार्यक्रम में बहुत गर्मजोशी से मुझसे मिल चुके थे, जबकि मैंने उनकी कविता पर बहुत आक्रामक तरीके से लिखा था। लेकिन उनके माथे पर इस बात की एक भी शिकन नहीं। बेहद लोकतांत्रिक और निर्दम्भ व्यक्तित्व। अपने भोजपुर से अगाध लगाव। उनके इस पक्ष को लेकर उनके अलवर आगमन पर एक कविता लिखी, जो फेसबुक पर डाल देने से पकड़ में आ गई। इसे मेरा विचलन कहा गया और इस बारे में अमीरचंद वैश्य के सम्पादन में कृति ओरमें सव्याख्या छापा गया जिसमें 1980में विजेन्द्र जी को लिखे मेरे एक पत्र का हवाला दिया गया और यह सिद्ध किया गया कि मेरा यह विचलन है। जबकि बहुत सी बातें ऐसी होती हैं, जिनको हम अपने विचारों की विकास प्रक्रिया में पुराने को छोड़ते हैं और बहुत सी नयी बातें जोड़ते हैं बशर्ते कि उनमें कुछ पाने के उद्देश्य वाला अवसरवाद न हो। 

हाँ इस बीच केदारनाथ सिंह का नया संग्रह सृष्टि पर पहराआया जिसकी कविताओं में मुझे पहले से अलग रंग दिखाई दिया, इसका उल्लेख भी मैंने एकाध जगह किया। कहने का तात्पर्य यह है कि लोकबद्धता में यदि हम संकुचित होते जाते हैं तो अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारते हैं। पुराना समय अब बहुत बदल चुका है। यथार्थ भी आज पहले से बहुत बदला हुआ है।

महेश चंद्र पुनेठा-विजेंद्र जी तो लोक को सर्वहारा का पर्याय मानते रहे हैं। अभिजात्य और शास्त्र का विपरीतार्थी कहते हैं। उनके लिए तो लोक का मतलब वह वर्ग है, जो शारीरिक श्रम से जुडा है। वह शहर या गांव कहीं भी रह सकता है। तब ऐसे लोक की बात करना आपको खूँटे से बँध जाना क्यों प्रतीत होता है?

जीवन सिंह- इसकी वजह जिस तरह के सर्वहारा की बात मार्क्स ने की,उस तरह का सर्वहारा हमारे यहाँ नहीं रहा। सर्वहारा का मतलब सिर्फ गरीब और श्रम से जुड़ा होना ही नहीं है,यह उस संगठित श्रम विवेक का नाम है जो पुरानी व्यवस्था को बदलता है। हमारे यहाँ जो भी व्यक्ति है वह सबसे पहले एक जातिगत इकाई है। हमारे देश जो खेती करता है,वह स्वयं को एक किसान से पहले ब्राह्मण,ठाकुर,बनिया,जाट,गूजर,अहीर,मीणा,लुहार,कुम्हार इत्यादि मानता है। इस वजह से हमेशा उसकी जातिगत अहमन्यता या बेचारगी कभी कम नहीं होती। दलितों और स्त्रियों के सवाल अलग है। वैसे सारी स्त्रियाँ पितृसत्ता से पीड़ित हैं, किन्तु उनकी जातिगत अहमन्यता कभी एक स्त्री लोक में संगठित नहीं होने देती। एक ब्राह्मण स्त्री और शूद्र स्त्री हमारे यहाँ कभी एक नहीं हो सकती क्योंकि स्त्री होने से पहले वे एक जाति हैं। हमारे यहाँ की अस्मिताओं में श्रम आधारित संगठित सामूहिक अस्मिताएं कहाँ रही हैं। हमारे देश में जाति एक बड़ा और क्रूर विभाजनकारी सामंती कारक ऐसा है, एक सामान्य मजदूर को भी जाति की अस्मिता से अलग नहीं होने देता। हमारे यहाँ मजदूर संगठनों की राजनीतिक चेतना हमेशा सामाजिक अस्मिता की भेंट चढ़ जाती है। यदि ऐसा होता तो आज विधान सभाओं और संसद में किसान और मजदूरों के प्रतिनिधि होते,न कि जातियों के। इसलिए वह लोक कहाँ है जिसे हम सर्वहारा कहते या मानते हैं। यह कविता लिखने के लिए तो ठीक है यथार्थ में सब कुछ उल्टा- पुल्टा है। कवि दरअसल यदि सचाई को नहीं जान रहा है तो सारी बात हवा में कर रहा है। जबकि कवि का उद्देश्य सचाई को प्रकट करना भी है। तभी उस सौन्दर्य की रचना संभव है, जो युगान्तरकारी होता है। साहित्य सृजन में रचना का आधार हमारे जीवनानुभव होते हैं, वे जितने बुनियादी हों सचाई तभी उजागर हो पाती है। इसीलिए हमारे यहाँ सर्वहारा के अलावा वह मध्यवर्ग ज्यादा महत्व का है जो सचाई को ज्यादा जानता है और उसको जानने में मदद करता है। लोक और सर्वहारा की एक किताबी धारणा तो ठीक है,लेकिन सर्जना तो वास्तविकता और व्यावहारिकता यानी जीवनानुभवों से होती है। कदाचित,यही वजह रही मुक्तिबोध ने श्रमिकों को ध्यान में रखते हुए भी मध्यवर्ग की भूमिका को अपनी आँखों से कभी ओझल नहीं होने दिया। उसकी दोनों तरह की भूमिकाओं को खुली आँखों से देखा। इसलिए इस सवाल को बहुत सरलीकृत करके नहीं समझा जा सकता। आभिजात्य और शास्त्र के विभाजन में भी हमारे यहाँ हर ब्राह्मण, राजपूत कृषक कर्म या मजदूरी करने के बावजूद अपने उस लोक समूह के साथ संगठित नहीं होता, जो शूद्र बताई गई जातियों से आता है। यह खुली वास्तविकता है जिसे न चाहते हुए भी लोग जीते हैं। इसको दूर करने में सर्वहारा या लोक के सहयोगी सचेतन,संघर्षशील और डिक्लास करने वाले मध्यवर्ग के योगदान को नकारा नहीं जा सकता ,जो अपने आभिजात्य के साथ लोक की बातों को पसंद करता है।

लोक इस वजह से हमारे यहाँ वैसी संज्ञा व्यावहारिकता में नहीं है। वह कविता और आलोचना के लिए वास्तविक आधारभूमि कम, सैद्धांतिक आधारभूमि ज्यादा सुलभ कराती है। कई बार तो आभिजात्य,शास्त्र और लोक सब हमारे यहाँ गड्डमड्ड हो जाता है। शायद, इसीलिए कबीर ने अपने जमाने में उस लोक का विरोध किया जो वेद के साथ भागता था। इस सचाई को समझकर उन्होंने लोक और वेद दोनों का रास्ता छोड़कर अपना तीसरा रास्ता बनाया था। कबीर उस लोक का विरोध करते हैं जो आभिजात्यवादी है। वे कहते हैं-पाछे भागा जाय था, लोक वेद के साथ। आगे थें सद् गुरु मिला, दीपक दीया हाथ।जबकि तुलसी लोक और वेद दोनों को एक साथ जरूरी मानते हैं। क्या यह सच नहीं है कि आज का हमारा समाज कबीर की अपेक्षा तुलसी के विचारों से ज्यादा प्रभावित है।

यदि हम इस जटिलता की उपेक्षा कर सिर्फ लोक की तोता रटन्त करते हैं तो वह खूँटे से बँध जाना नहीं है। फिर उस मध्यवर्गीय सचाई का क्या करोगे, जिसको जाहिर करने में मुक्तिबोध ने अपनी पूरी ऊर्जा और जीवन लगा दिया।हम भी अब लोक का हिस्सा कहाँ रहे हैं। क्या यह सचाई नहीं है कि जिन्दगी में कहीं न कहीं हम भी तो आभिजात्य का हिस्सा हैं।

महेश चंद्र पुनेठा-तब क्या यह माना जाय कि लोकधर्मी कविता या आलोचना जैसा वर्गीकरण अब अप्रासंगिक हो गया है? क्या किसी नये शब्द का इस्तेमाल किया जाना चाहिए?

जीवन सिंह- लोकधर्मी कविता या आलोचना हो सकती है और लोकदृष्टि से रचना और विश्लेषण दोनों संभव है। पहले से भी होता रहा है किन्तु यह मोटे- मोटे अर्थ में ही सही है। रचना तो अधिकांशतः मध्यवर्ग के लोग करते हैं, जिसमें उनके जीवन का अपना यथार्थ भी आता है। सच तो यही है कि व्यापकता की दृष्टि से लोक का आधार ही मुख्य आधार बनता है। किन्तु आज स्थितियां जितनी जटिल हैं, उनमें लोक की बहुत ऊपरी और सतही समझ से काम नहीं चल सकता। श्रम के सौन्दर्य और प्रकृति सौन्दर्य को केन्द्र में रखने से किसे गुरेज और एतराज हो सकता है और श्रम के शोषण उत्पीड़न के प्रतिरोध से भी। हमारे यहाँ दलित और स्त्री विमर्श भी इसी वजह से चला कि इनका इनकी अपनी स्थितियों से शोषण उत्पीड़न होता रहा है, किन्तु सवाल यह भी है कि इसके प्रतिरोध में मध्यवर्ग क्यों तटस्थ ,उदासीन और अवसरवादी हो जाता है। वह जिसे हम लोक कहते हैं, उसके साथ नहीं रहना चाहता। उसका पक्ष लेने वाले भी उसके स्वामी की मुद्रा में क्यों रहते हैं। हम जिस किसान मजदूर को लोक या सर्वहारा मानते हैं, वह स्वयं आपस में इतना विभाजित क्यों है? इसलिए हमको लोक के साथ साथ प्रगतिशीलता और जनवाद के लिए मध्यवर्ग द्वारा किये जाने वाले संघर्ष और उसकी ज्ञानात्मक भूमिका को ध्यान में रखना होगा। वैसे चाहें तो हम प्रगतिशीलता और जनवाद को कई दौरों में अलग-अलग करके देख सकते हैं। क्या यह सच नहीं है कि 1935-36के बाद से हिंदी साहित्य में जिस तरह से प्रगतिशील-प्रगतिवादी दौर की शुरुआत हुई, वही जीवन दृष्टि आज तक चली आ रही है। उसके दौर जरूर बदले हैं। आज भी हम निराला से अपनी शुरुआत करते हैं और कई बार प्रमाण में उनकी कविता को उद्धृत करते हैं। किसी भी तरह के बुनियादी बदलाव के लिए लम्बी यात्रा तय करनी पड़ती है। इसीलिए हमारे यहाँ भक्तिकाल की कविता चार सौ सालों तक चलती रही। रीतिकाल दो सौ साल तक चला। ऐसे ही पिछले अस्सी सालों से प्रगतिशील-जनवादी कविता के दौर चल रहे हैं। नई कविता के काल में भी मुक्तिबोध ने अपनी कविता को नया तो बनाया लेकिन प्रगतिशील दृष्टि का परित्याग नहीं किया। ऐसे ही नागार्जुन,केदार, त्रिलोचन आदि ने स्थानीयता को आधार बनाकर प्रगतिशील नजरिए के साथ रचना की। कई कवियों ने लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए प्रगतिशील-जनवादी दृष्टि को अपनाया। केन्द्र में प्रगतिशील-जनवादी दृष्टि ही रही, जिसे आज हम लोकदृष्टि भी कह देते हैं।

लोकधर्मिता एक प्रतिमान तो हो सकता है। कविता को परखने की पूरी कसौटी नहीं। आज का यथार्थ इतना बहुआयामी और जटिल है कि उसे केवल लोक के प्रतिमान से परिभाषित नहीं किया जा सकता। यदि लोक से ही परिभाषित करना है, तो उसके आधार को बहुत व्यापक बनाना होगा। मुख्य तो प्रगतिशीलता और जनवाद ही हैं जिनसे हम जटिल से जटिल यथार्थ को समझ सकते हैं।

कविता का सम्बंध सम्पूर्ण जीवन से होता है। यदि हम उसे एक निश्चित दायरे या सीमा में बाँध देंगे तो कविता का एक ही तरह का रूप सामने आयगा। उसकी विविधता खत्म हो जायगी। मसलन कोई यदि केवल मध्यवर्ग के नकली और अवसरवादी चरित्र पर ही व्यंग्य की कविता लिखता है तो लोक के प्रतिमान की दृष्टि से उसे कहाँ रखेंगे। कोई लोक की बात किए बगैर यदि सामन्ती, पूँजीवादी,फासीवादी प्रवृत्तियों के प्रतिरोध में ही काव्यसृजन करता है तो उसे कहाँ रखेंगे। एक और बात कि हमारी लोकधर्मी कविता और आलोचना दोनों में श्रम और पूँजी के संघर्षपूर्ण और निरंतर अमूर्त होते संबंधों के बारे में बहुत कुछ नहीं आ पाता। केवल श्रम सौन्दर्य या श्रमरत समाज की पीड़ाओं का उल्लेख और किताबों में लिखा जाने वाला सैद्घांतिक सा प्रतिरोध। सच तो यह है कि हमारे यहाँ श्रम का जो जातिगत और वर्णव्यवस्थावादी विभाजन है, उसकी तरफ ध्यान नहीं जाता। जबकि कबीर, प्रेमचंद, निराला, नागार्जुन के यहाँ उसकी शक्ल सूरत ज्यादा स्पष्ट, मूर्त और साफ रूप में आती है। उनके यहाँ साफ दिखता है कि हमारे यहाँ श्रम का आर्थिक ही नहीं ,सामाजिक शोषण उत्पीड़न होता रहा है। इसलिए हमारे यहाँ का लोक बहुत विभाजित रहा है जो आज भी है।

हमारे यहाँ के गांव इस तरह के सामाजिक श्रम विभाजन से शहरों की अपेक्षा ज्यादा पीडित रहे हैं इस सत्य को जानकर डॉ0अम्बेडकर ने दलितों का आह्वान किया था कि वे गाँवों को छोड़कर शहरों में जा बसें। क्या हमारी लोकधर्मी कविता और आलोचना इस तरह के असुविधाजनक का सामना करती है? जैसा कि मैंने पूर्व कहा कि इसी कारण से कबीर वेद के साथ साथ लोक का विरोध भी करते हैं ?क्या हम इस तरह के लोक का विरोध कर पाते हैं या हमेशा उसके सम्मोहन में बने रहते हैं। हमारे यहाँ लोक के भी अपने गहरे अन्तर्विरोध रहे हैं जिनको अम्बेडकर के जीवनानुभवों से जाना और समझा जा सकता है।

महेश चंद्र पुनेठा- लोक में किस तरह के अन्तर्विरोध रहे हैं? थोडा विस्तार से कहिये।

जीवन सिंह- लोक के इस सामाजिक अन्तर्विरोध से आर्थिक-राजनीतिक अन्तर्विरोध पैदा होते हैं।मेहतर के काम का मेहनताना भी उतना ही कम होता है जितनी उसकी सामाजिक हैसियत होती है। इसी सामाजिक बुनियाद पर देश का लोकतंत्र ,जातितंत्र में बदल चुका है। पिछले दिनों प्रो0तुलसी राम की आत्मकथा के दो भागों-मुर्दहिया और मणिकर्णिका को पढ़ने से मालूम हो जायगा कि हमारे उस समाज की वास्तविकता क्या है जिसे हम लोक कहते हैं। अब आप खुद देख लीजिए कि लोक के नाम से जानी जाने वाली कविता में इस तरह के अन्तर्विरोधों को कितना लाया गया है। जब लोक आदर्श बन जाता है तो उसके अन्तर्विरोधों को देखने वाला कहाँ से आयगा। हमने तो लोक को सर्वहारा का दर्जा दे रखा है।यह कौन देखे कि इस लोक की वास्तविकता क्या है? मार्क्स ने दुनिया के मजदूरों को एक होने का नारा दिया लेकिन किसने जाँचने की कोशिश की सामाजिक अन्तर्विरोधों के चलते देश दुनिया की बात तो दूर,हमारे एक छोटे से गांव का मजदूर ही एक नहीं है। वह जाति-बिरादरी के ऊँच नीच के सोपानों में विभाजित है। जहाँ तक कविता का सवाल है अभी तक उसको जाँचने की कोई वस्तुगत कसौटी नहीं बनी है। सब कुछ बहुत मोटे ढंग से देखा,परखा और समझा जाता है। कुछ सूत्र बना लिए जाते हैं सिर्फ उनसे कविता का मूल्यांकन कर लिया जाता है। इसमें पाठक के अपने सोच, संस्कार, अनुभव,अभिरुचियाँ, अध्ययन और समझ काम करती है। इसीलिए हर युग में कविता का एक ढर्रा सा बन जाता है। उस ढर्रे से यदि कोई थोड़ा भी बाहर निकलने या दिखने की कोशिश करता है तो ढर्रेवादी लोग मैदान में कूद पड़ते हैं। मसलन मुक्तिबोध का उदाहरण ही लें,क्या लोकवाद के चलते उनको एक बड़े कवि के रूप में देखा और समझा जा सकता है। हमने लोक की जो कसौटी बना ली है, उस पर शायद ही वे खरे उतर पाये। रामविलास जी ने तो साफ- साफ लिख दिया है कि किसान जीवन के अनुभव उनके यहाँ नहीं हैं और मार्क्सवादी नजरिये के प्रति भी उनके मन में संदेह रहता है। जबकि मेरा मानना यह है कि इस दर्शन को उन्होंने जितना समझा और भारतीय जीवन संदर्भों और उसके यथार्थ के अनुरूप व्यवहृत किया है उतना दूसरा कोई नहीं कर पाया है। लेकिन वे हमारी लोक की कसौटी के प्रतिमान नहीं हैं।जब हमारा इतना बड़ा और बहुत आगे तक कविता के आँगन को रोशन करने वाला कवि हमारी कसौटी पर नहीं आ पा रहा है तो हमको इस मुद्दे पर गम्भीरता से सोचने और मनन करने की जरूरत है।

आज की लोकधर्मी कविता में श्रम का सौन्दर्य है उसका छोटा मोटा सामान्य संघर्ष भी है,विशेषीकृत नहीं,। कुछ सैद्धांतिक आख्यान भी है।किसान मजदूर की पक्षधरता और प्रशंसा भी है। प्रकृति सौन्दर्य और श्रम एवं पूँजी के अन्तर्विरोध भी हैं किन्तु वह अन्दरूनी सचाई नहीं जो आज देश और समाजों को क्रूर विभाजन और अमानवीय विषमता के स्तर तक ले आई है जिससे फासिज्म दरवाजे तक आ गया है। क्या आपको लोकधर्मी कविता में कही आवारा पूँजी से बढ़ती अपसंस्कृति और अलगाव अजनबीपन से संघर्ष नजर आता है।

सिद्धांत कविता नहीं होते। कविता एक पूरा जीवन व्यवहार होती है।कविता हमारे मन का निर्माण तभी कर सकती है जब वह सचाई का ऊपरी ऊपरी नहीं, पूरी गहराई के साथ पता दे।

लोकधर्मी प्रतिमानों की सबसे बड़ी सीमा यह है कि उसमें शहरी मध्यवर्ग द्वारा व्यक्त किए और रचे जा रहे यथार्थ को जगह नहीं होती। इससे गांव और शहर के विभाजन का खतरा भी रहता है। आज दरअसल वे परिस्थितियां नहीं हैं जो पच्चीस साल पहले थी। नई नई तकनीकों और तेजी से बढ़ते शहरीकरण ने आदमी का सोच और व्यवहार दोनों बदल दिए हैं। अब कितने से लोग हैं जो सोचते हैं वैसा ही करते भी हैं। सब कुछ मैनेजरों के हाथ में आ गया है। प्रापर्टी डीलिंग ,सटोरियों,दलालों और कम्पनी नौकरशाहों की पूँजी का कोई ओर छोर नहीं है। तकनीक ने दिमागों पर कब्जा ही नहीं किया है उनके पूरे जीवन पर कब्जा कर लिया हैं। हम जो कहते हैं वैसा करते कहाँ है। अब निराला, नागार्जुन,त्रिलोचन,केदार के जमाने का यथार्थ नहीं है। इसलिए हमको एक व्यापक जनवादी सोच की ही नहीं, व्यवहार की भी आवश्यकता है क्योंकि दुनिया जितना व्यवहार से बदलती है सिद्धांतों से नहीं।
एक बात और कि क्या हमने कविता में लोक के नाम पर नये मिथकों का सृजन किया है या मिथकों को तोड़ा भी है।कबीर का महत्व हमारे लिए आज इसीलिए है कि उन्होंने अपने समय तक चले आ रहे कई सामाजिक-धार्मिक-साँस्कृतिक मिथकों को ध्वस्त किया। ऐसा वे तभी कर पाए जब वे पहले से लोक प्रचलित मिथकों का भंजन कर सके क्योंकि वे इस रहस्य को जान गये थे कि लोक में सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं चलता। मीरा ने स्त्री के पारम्परिक मिथक पर अपनी कविता और आचरण दोनों स्तरों पर प्रहार किया और स्त्री के लिए एक नया रास्ता दिखलाया ,जिसका उल्लेख आज के नए जीवन संदर्भों में किया जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोक को भी द्वंद्वात्मक रूप में देखने की आवश्यकता है। प्रेमचंद ने भी लोक को कभी इकहरी दृष्टि से नहीं देखा। हमारे ग्रामीण लोक के वे सबसे बड़े चितेरे हैं। उसी लोक के अनुभवों से वे सद्गति, ठाकुर का कुंआ,सवा सेर गेंहू जैसी कहानियां लिखते हैं। क्या हम आज इस तरह के अनुभवों और सवालों के रूबरू होकर काव्य सृजन करते हैं या फिर हमने लोक का वैसे ही मिथक नहीं गढ़ लिया है कि सारा लोक सर्वहारा है। क्या हमने वहाँ इन सर्वहाराओं के विभिन्न ऊँचे नीचे सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक स्तरों को गहराई से देखा और समझा है। हमारे लोक में आपस में चल रहे शोषण-उत्पीड़न को महसूस किया है? हमारी पुरानी चली आ रही मान्यताओं की परख कर उनको तोड़ने या उठाने की कोशिश की है या हमने अपने लिए सृजन की सुविधा के लिए अपना मनोलोक निर्मित कर लिया है। लोक के नाम पर हम अपने एक गढ़े हुए लोक में रहने के अभ्यस्त हो चुके हैं। हम उसके बिल्कुल इधर-उधर नहीं जाना चाहते। मैं आपके उत्तराखंड के लोक में निर्मित और अभी तक प्रचलित एक संस्कारगत मान्यता को बतलाना चाहता हूँ। हुआ यह कि मेरे एक गढवाली ब्राह्मण मित्र हैं उनकी अच्छी पढी-लिखी खूबसूरत बेटी का रिश्ता गढ़वाली ब्राह्मणों में करना था ।उनको मालूम हुआ कि अलवर के जिस कालेज में मैं अध्यापक हूँ। वहाँ विज्ञान संकाय में कार्यरत एक गढ़वाली ब्राह्मण प्राध्यापक के सुपुत्र के साथ उनकी सुपुत्री के रिश्ते की चर्चा चलायें। इस प्रयोजन से मैं उनके आवास पर मिलने गया और यह चर्चा भी प्रसंगवश चला दी। उनका पहला ही सवाल था कि वे कैसे ब्राह्मण हैं? ऊँची धोती वाले या नीची धोती वाले ? मैं इस सवाल से चकित और हतप्रभ दोनों था : मुझे हमारे यहाँ मेवात में प्रचलित एक चुटकुला याद आया कि गौड़ों में भी गौड़। इस वजह से ही वह रिश्ता नहीं हुआ। इस तरह की अनेक विभाजनकारी बातें और रीति रिवाज हैं जो गांव प्रधान देश के लोक में आज तक बहुत पढ़े लिखों में भी प्रचलित हैं। क्या इस तरह के अनुभवों को छेंककर एक आदर्श लोक में रहते हुए अपना सुविधाजनक सृजनकर्म करते रहें या फिर उसके यथार्थ का दायरा व्यापक बनाये।

अन्त में,एक बात और कि यह हमारे मौजूदा लोक का यथार्थ ही है कि राजनीति का सारा कर्मकाण्ड हमारे यहाँ सोशल इंजीनियरिंग यानी जाति पाँति और सम्प्रदायों के ध्रुवीकरण से धड़ल्ले से चल रहा है और हम हैं कि इस लोक को एक बार जो देख लिया उसके अलावा और शायद ही कुछ देखना चाहते हैं।

महेश चंद्र पुनेठा- कुछ लोग लोक, लोक संस्कृति और लोकधर्मिता शब्दों के प्रयोग से परहेज करते हैं उनका मानना है कि लोक में बहुत कुछ सामन्ती और प्रतिगामी है. इसलिए जब लोकबद्धता की बात की जाती है तो कहीं न कहीं सामन्ती और प्रतिगामी मूल्यों का समर्थन हो जाता है. लोक की सारी प्रवृतियों का महिममंडल होने लगता है. इससे बचने के लिए वे जन, जन संस्कृति और जनधर्मी शब्दों के प्रयोग करने की बात करते हैं. क्या जन और लोक शब्दों में आपको कोई अंतर दिखाई देता है?

जीवन सिंह- लोक एक ही तरह का कभी नहीं रहा। आपको पहले भी कह चुका हूँ।उसे द्वंद्वात्मक नजरिए से देखना चाहिए ।यह ठीक है कि लोक बहुत पुराना शब्द और धारणा है जो तरह तरह के अर्थों में प्रयुक्त होता रहा है।इससे विभ्रम पैदा होते हैं।मैने जब कविता की लोक प्रकृति की बात कही. थी तब वह अभिजन के विरोध में थी लेकिन आज के जटिल और समग्र यथार्थ को व्यक्त कर पाने के लिए पर्याप्त नहीं थी।हमारी ही कमी और गलती रही कि हम एकमात्र इसी प्रतिमान से सारी कविता का मूल्यांकन करने लगेःदरअसल हुआ यह कि जिस तरह से नामवर जी ने अपनी कृति कविता के नए प्रतिमान में नागार्जुन।त्रिलोचन, केदार,शील ,कुमारेन्द्र आदि की जानबूझकर या तत्कालीन मध्य वर्ग के आधुनिकता वादी कवियों के दबाव में इनकी उपेक्षा की और इनकी कविता को नए प्रतिमानों का आधार नहीं बनाया, उन परिस्थितियों के तहत इस लोकप्रतिमान को खड़ा किया गया ,यह गंभीरता से नहीं सोचा कि इस तरह से हम एक दूसरी अति कर रहे हैं।विजेन्द्र जी की कविता भी इसमें कवर हो जाती थी और हमारे स्वभाव में स्थानीयता,जनपदीयता का सम्मोहन था इसलिए यह सब होता गया।दूसरे यह जिन राजनीतिक-आर्थिक विश्व परिस्थितियों में उस समय एकध्रुवीय विश्व नहीं बना था। सोवियत संघ का विकल्प भी मौजूद था। फासिज्म का कोई बड़ा खतरा भी आसपास दिखाई नहीं देता था। वैसे भी कबीर पहले ही लोक और वेद दोनों का विरोध कर चुके थे। हमारे मन पर भी कबीर से ज्यादा तुलसी और आचार्य रामचंद्र शुक्ल की मान्यताओं का गहरा असर था। जबकि हमको और अधिक व्यापक स्तर पर सोचा जाना चाहिए था क्योंकि विश्व परिस्थितियां और राष्ट्रीय परिस्थितियां बहुत तेजी से बदल रही थी। नवउदारवाद दरवाजे पर आ खड़ा था। हम अपने मनोलोक में थे। सच यह भी लोकबद्ध होना हमारी परम्परा का हिस्सा है, किन्तु आज के विश्व में मध्यवर्ग की भूमिका की कम जरूरत नहीं है। श्रम सम्बंधों की वास्तविकता को केवल लोकबद्धता से नहीं समझा जा सकता। समझेंगे तो यह हमारा द्रविड़ प्राणायाम होगा।

महेश चंद्र पुनेठा-लोकधर्मिता और जनधर्मिता में क्या अंतर है? क्या लोकधर्मिता में प्रगतिशील और जनवादीदृष्टि समाहित नहीं है?

जीवन सिंह- मौजूदा परिस्थितियों में जनवाद अधिक व्यापक है और उसकी जरूरत भी है। उसके भीतर लोक स्वतः ही आ जाता है उसकी अवज्ञा नहीं होती। वैसे भी डेमोक्रेसी के लिए तीन शब्दों में से सबसे सटीक ,तथ्यपूर्ण,आधुनिक और व्यापक अर्थ देने वाला जन ही है,जो व्यक्ति और समाज दोनों के द्वंद्वात्मक रिश्ते को जाहिर करता है। जबकि लोक अमूर्त सामूहिकता को ज्यादा कहता है। जनवाद से क्यों परहेज है।जनसंस्कृति शब्द का प्रयोग खूब करते ही हैं।चाहें तो जनधर्मी भी कह सकते हैं।

हमारा जीवन भी उस समय संग्राम हो जाता है जब हम किसी कला माध्यम से रचना कर्म में उतरते हैं।रचना कर्म का मतलब समय के अनुसार बदलते जीवन मूल्यों और सम्बंधों की सही पहचान एवं उनकी रचना। इसमें मूल्य विरोधी प्रक्रियाओं को समझते हुए उनसे संघर्ष भी करना पड़ता है। इस संग्राम में सही अस्त्र-शस्त्रों और रणनीति का उपयोग करना भी जरूरी है, इसलिए समय-समय पर आत्माकलन की जरूरत भी होती है।समय जैसे बदलता है व्यक्ति को भी उसके अनुरूप अपने दाव पेच बदलने पड़ते हैं,जो नहीं बदलता उसका असफल होना या एक ही जगह पर ठहर जाना लाजिमी है।बार बार खुद को जाँचने की आवश्यकता हमेशा बनी रहती है।कविता या आलोचना इस प्रक्रिया का अपवाद नहीं है।सही दिशा को पाने के लिए बदलना कभी विचलन नहीं होता।प्रेमचंद लम्बे समय तक गाँधीवादी रास्ते पर चलते हैं किन्तु आगे चलकर अपने अनुभवों के आधार पर और अधिक वस्तुगतता की ओर आते हैं।खुद को बदल लेते हैं।

महेश चंद्र पुनेठा-क्या यह माना जाय कि साहित्य के मूल्यांकन के लोकधर्मी प्रतिमान पुराने पड़ चुके हैं और आज की कविता का उससे सही-सही मूल्यांकन संभव नहीं है?

जीवन सिंह- पुराने नहीं, अधूरे। उनसे आज की पूरी कविता या साहित्य का मूल्यांकन संभव नहीं है।गंगा में तब से बहुत पानी बह चुका है।लोगों का आपस में मिलबैठकर संगठित सोच विचार संचार की आधुनिकतम तकनीकों से इतना प्रभावित है कि उसने सभी को अपना शिकार बना लिया है।तकनीकों ने श्रम को परिदृश्य से लगभग आउट जैसा कर दिया है और लोगों के दिमागों पर अपना कब्जा जमा लिया है और हम हैं कि वही पुराने गीत आलापने में लगे हैं ।आज का आदमी वस्तुओं के एक ऐसे छद्म मोहक संसार में आ गया है । मिथ्या लोभ लालच की एक नई भाषा की गिरफ्त में आज का आदमी क्या अपनी पहचान को नहीं खो रहा है। आज का आदमी चौबीस घंटे धन के लालच पाश में नहीं आ फँसा है क्या फ्राँसीसी विचारक बौद्रिआ की इस बात में दम नहीं है कि अब श्रम उत्पादन को तय नहीं करता, स्वचालन की प्रक्रिया व तकनीकी विकास ने उसे उत्पादन के तमाम उपकरणों में से एक उपकरण जैसा नहीं बना दिया है क्या? तो क्या इस नए यथार्थ के संदर्भ में और आदमी के लगातार बदलते स्वरूप पर जरा भी गौर न करके अपनी वही पुरानी ढपली बजाते रहना चाहिए ?

महेश चंद्र पुनेठा-क्या पुराने को बचाने की आपको कोई जरूरत महसूस नहीं होती?इस पुराने में ही क्या हमारी लोकसंस्कृति निहित नहीं है. लोकसंस्कृति से हमारी पहचान जुडी है ,यही पहचान है जो हमें हमारी जमीन से जोड़े रखती है.तब क्या इससे कट जाना अपनी पहचान को खो देना नहीं होगा?

जीवन सिंह- गति का नियम है द्वन्द्वात्मकता। जब संसार नित्य नवीन हो रहा है और हम उसकी नई से नई तकनीक को अपने रोजमर्रा के उपयोग में ला रहे हैं तो कुछ तो कविता, साहित्य के बारे में भी सोचना पड़ेगा। पुराने को बचाना ही नए का काम नहीं होता। पुरानी स्वस्थ बातों को बचाते हुए काम नया ही करना पड़ता है। फिर पुराना भी हमारा सब कुछ एक जैसा कहाँ है?उसमें ऊँच-नीच ,उतार-चढाव बहुत हैं। पुराने को चयनित रूप में बचाते हुए नए को लाओ, तभी गति संभव है। मुझे तो ऐसा ही लगता है। पुराना ही सब कुछ अच्छा और शिवकारी होता तो नए की जरूरत ही क्या थी। पुरातन और सनातन तो धर्म में चलता है ,ज्ञान विज्ञान में नहीं। जहाँ तक हमारी लोकसंस्कृति का सवाल है,वह तब की संस्कृति ज्यादा है जब हमारे यहाँ कृषि से सामूहिक उत्पादन होता था। आज कृषि का दबाव नहीं रह गया है। सब कुछ कारपोरेट के नियंत्रण में आ चुका है। वह पुरानी लोकसंस्कृति जहाँ पैदा हुई वहीं उसके ऊपर बहुत से दबाव हैं। अब उत्तम खेती वाली बात कहाँ है?

हम अपने बच्चों से खेती कराने के बजाय ऊँची से ऊँची नौकरी कराना चाहते हैं तो पुरानी लोकसंस्कृति को बचाने वाले कहाँ से आयेंगे। सब तो गाँवों को छोड़कर शहरों की ओर आ रहे हैं। उस पुरानी गांव आधारित लोकसंस्कृति को कौन बचायेगा? हाँ,इतना अवश्य है कि उसके, साधारणता,सादगी, और सामूहिकता जैसे मूल्यों को अपने आचरण से बचा लें,यही लोकसंस्कृति को बचाना है। नए संचार माध्यमों से भी पुराना बहुत कुछ बचाया जा सकता है। बचाया भी जा रहा है। मुख्य हैं साधारणता और सादगी, वह जीवन में कैसे बचे, इस पर सोचने की जरूरत है। जहाँ तक जमीन से जोड़े रखने का सवाल है वह सही अर्थों में इन्सानियत से जुड़े रहने का सवाल है । जमीन का अर्थ यहाँ सिर्फ भूगोल नहीं है इतिहास भी है। इतिहास का मतलब है, गहरा इतिहास बोध, कि दुनिया कहाँ से कहाँ जा पँहुची है और कौन सी शक्तियां है, जो ऐसा कर रही हैं। इसी में जब हम श्रम और पूँजी के सम्बंधों पर विचार करते हैं, तभी हमारी जमीन का सही पता हमको चलता है। अन्यथा हम जमीन के नाम पर एक बँधे बँधाये भावलोक से बाहर नहीं निकल पाते। इससे पूरी सचाई सामने नहीं आ पाती। इससे हम संकीर्णता के एक ऐसे जाल में फँसते जाते हैं जिससे बाहर निकल पाना तभी संभव हो पाता है, जब हम अपनी जमीन की सचाई पर गंभीरता से सोचकर उसके बदलते आयामों को भी अपनी रचना प्रक्रिया का हिस्सा बनायें। अन्यथा हम भी जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि के शिकार हो जायेंगे।  पहचान खोना तो तब होगा, जब हम अपनी भाषा और इंसानों को भूल जायेंगे। जब तक अपनी भाषा-बोलियों और श्रमसंलग्न जीवन मूल्यों से आचरणपरक रिश्ता है तब तक हमारी पहचान को कोई खतरा मुझे नहीं लगता।खतरा तो तब ज्यादा है जब हम लोकसंस्कृति का उपयोग सिर्फ कविता लिखने के लिए करें, स्वयं को तदनुरूप बदलने के लिए नहीं। आज सबसे बड़ा संकट यह है कि मध्यवर्ग जो कहता और लिखता है वैसा कर नहीं पाता।

महेश चंद्र पुनेठा-बिलकुल सही कहा, तकनीक और अर्थव्यवस्था में आ रहे बदलाव के कारण लोकसंस्कृति की बहुत सारी बातें लुप्त होती जा रही हैं। लेकिन कुछ लोगों द्वारा उसे उसके पुराने रूप में ही बचाए रखने की कोशिश की जा रही है। इसके लिए अभियान चलाये जा रहे हैं। महोत्सवों का आयोजन किया जा रहा है। मंचों में लोकगीत-नृत्य,लोक कला आदि को प्रस्तुत किया जा रहा है। दूसरी ओर लोकसंस्कृति के केंद्र माने जाने वाले गाँव पलायन से लगातार खाली होते जा रहे हैं। क्या आपको लगता है कि लोकजीवन को बचाए बिना लोकसंस्कृति को बचाया जा सकता है?

जीवन सिंह- लोकजीवन अपनी संस्कृति को बचाता ही नहीं था बल्कि लगातार उसे समय के अनुसार नई से नई बनाता जाता है। उसे अलग से बचाने की जरूरत नहीं थी ।वह नयी होती जाती संस्कृति में समाहित होती जाती थी। जैसे पुरानी कविता नई कविता में समाती जाती है। इसीलिये तो मुक्तिबोध ने कहा कि कविता कभी खत्म नहीं होती। खत्म होते हैं उसके पुराने रूप। जैसे कविता लगातार लिखी जा रही है, लेकिन उसका कथ्य,अन्तर्वस्तु और रूप विधान समय के अनुसार बदल रहा है। जैसा समाज होता है और जैसी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितियाँ होती हैं वैसे ही संस्कृति भी अपना नया वेश धारण करती जाती है। अब चूंकि पुराना कृषि समाज हाशिये पर चला गया है और उसका स्थान एक नए तरह के समाज ने ले लिया है तो पुरानी बातों से मोह खत्म हो रहा है। आज के हमारे गांव भी वैश्वीकृत बाजार की जद में आ गये हैं। यह सब नये संचार साधनों और रोज नयी से नयी होती तकनीक ने किया है। अतः लोकसंस्कृति को आज की तकनीक ही बचा सकती है या फिर समाजवादी व्यवस्था। जैसे सोवियत संघ ने अपना वह सब पुराना बचाने का प्रयास किया था,जिसकी नए के लिए आवश्यकता थी।पुराने लोकरूपों को नई अकादमियाँ खोलकर भी बचाया जा सकता है। लेकिन मुनाफाखोर बाजार और उसका लोगों के दिमागों पर नियंत्रण सिवाय बाजार के और कुछ नहीं बचाना चाहता। वह क्रिकेट और फिल्मों को इसलिए बचा रहा है कि वे बाजार को फैलाने के काम आती हैं।जो कुछ बाजार के काम का है आज वही फल-फूल रहा है। उसी को विकास बतलाया जा रहा है। इसका प्रतिरोध करने का कोई तौर तरीका लोकसंस्कृति के पास है क्या? इसीलिए उसे सरकारों ने पर्यटन विभाग को सौंपकर बाजार को सौंप दिया है। इस तरह से अब वही काम का है जो बाजार के काम का है। हमारी शिक्षा भी एकमात्र बाजार के लिए संसाधन तैयार कर रही है। सब कुछ मैनेजमेंट में बदल रही हैं। गाँवों में अँग्रेजी भाषा के प्रति आकर्षण अपने बच्चों को इसी बाजार में प्रवेश दिलाने की वजह से है और इसी को विकास ,ग्रोथ और सूचकांकों से रोज परिभाषित किया जा रहा है। टी वी ने हमारे दिमागों में ही जैसे बाजार खोल दिया है। जब भाषा-बोलियाँ ही नहीं रहेंगी तो संस्कृति कहाँ से बचेगी। जिस देश में अपनी भाषाओं में पढ़ना पिछड़ेपन की निशानी माना जाने लगा हो वहाँ संस्कृति को बचाने वाले कहाँ से आयेंगे। इसीलिये आज जहाँ भी बाजार की दौड नहीं है, वहीं थोड़ी बहुत लोकसंस्कृति बची हुई है।

लोककलाओं के महोत्सव तो बाजार भी आयोजित करा रहा है। आप देख नहीं रहे हैं कि जयपुर में हर साल जनवरी में एक अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य महोत्सव होने लगा है। लेकिन उसका प्रयोजन संस्कृति नहीं बाजार है। आज आवारा पूँजी की तो कमी नहीं है उससे कला-संस्कृति सबको खरीदा जा सकता है।

जो कला-संस्कृति के महोत्सव आयोजित करेंगे, बाजार उनको सारी सुविधाएं उपलब्ध करा देगा। आज एन जी ओ भी बहुत कुछ बचाने में लगे हुए हैं। लेकिन नयी संस्कृति कौन बनायेगा ?पहले के लोकजीवन में लोकसंस्कृति के नए नए रूप भी विकसित होते थे क्योंकि उसको विकसित करने वाला समाज मौजूद था।क्या आज उसका सर्जक समाज बचा है?

जब गाँवों से लगातार पलायन हो रहा है तो इस मसले पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि जो किसान कभी अपनी जमीन बेचने को तैयार नहीं होता था,आज उससे मुक्ति पाकर शहर क्यों आना चाहता है। बाजार, रोजगार और जीवन की अन्य सारी सुविधाएं शहरों में हैं तो कोई असुविधा और अभावों में क्यों रहना चाहेगा। आवश्यकता ही आविष्कार करती है ऐसे ही जरूरतें ही जरूरी को लाती हैं और बचाती भी हैं।

संपर्क- डॉ0जीवन सिंह 1/14अरावली बिहार, अलवर-301001 (राजस्थान)
महेश चंद्र पुनेठा शिव कालोनी न्यू पियाना पो0डिग्री कालेज जिला-पिथौरागढ़ 262502


अमित श्रीवास्तव की नई कविता - चुनो

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देश के 5 राज्यों में चुनाव हैं। जनता के बीच कुछ भ्रम पहले से थे और कई इस बीच डाल दिए गए हैं। ऐसे ही भ्रमों के बीच हमें अमित श्रीवास्तव की यह कविता मिली है, जो कई जाले साफ़ करती है और किनारे खड़े होकर नहीं, संकटों बीच धंसे रहकर बोलती है।

  

गालियों और नारों के बीच
चुनो
फतवों और निषेधाज्ञाओं के बीच
चुनो
हत्या और आत्महत्या के बीच

चुनो
अपनी आख़िरी आवाज़
अगला बंकर
जंग खाए ताले
और उलझी बेड़ियों के बीच

चुनो
दरवाज़े चुनो
ये पर्दे फट चुके हैं
ढांपने को कुछ नहीं है
पर चुनो
कि बेशर्म साँसे उधड़ी पड़ी हैं

चुनो भूख चुनो
प्यास चुनो
चुनो बेघर होने के तमाम इंतजामों के बीच
कौन सा बेहतर है

चीख और आंसुओं में
अरदास और प्रार्थनाओं में
घण्टे की पुकार और मुहरों के तिरस्कार में
चुनो

रक्त छायाओं
और सफेद होती परछाइयों में
चुनो
साजिशों को चुनो

हत्यारा चुनो
अपनी सज़ा
अपनी अदालत
चुनो
राम या रहमान
चुनो
अपना इम्तेहान

चुनो
कि चुनने के अलावा
अब कोई और चारा नहीं

बदरंग और बेस्वाद के बीच
उलझन और उदासी के बीच
ठहाकों के बीच अपनी कमजोरियों से एक चुनो

चुनो बंजर आसमान
काली धरती
बेहद शुष्क हवाओं के बीच

बेवा या बलात्कार चुनो

चुनो
तुम चुनने को स्वतन्त्र हो
चुनो कि तुम
अभिशप्त हो
चुनो कि अब तक तुमने चुना नहीं
सुना नहीं
हड्डियों के ढाँचे
खिंची हुई तलवारें
भिंचे हुए जबड़े
फटे हुए नक्शे
झुके तराजू
सुनो इनकी मरी हुई आवाज़ें
सुनो ध्यान से सुनो

जल गई एक किताब के पन्नों की राख़ उँगलियों में लगाकर
चुनो
अपना विपक्ष चुनो
***

मुक्तिबोध मेहनतकश की आजादी के पक्षधर हैं : वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह से कवि महेश पुनेठा की बातचीत/2

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महेश चंद्र पुनेठा- मुक्तिबोध के समय बहुत सारे आधुनिकतावादी कवि यह कहते हुए पाए जाते थे कि जनवाद,समाजवाद भीड़ की मनोवृति के परिचायक हैं। जुलूस,हड़ताल आदि राजनीतिक सामूहिक कार्य गलत हैं।जनता ढोर है ,वह पशु है,क्योंकि वह नेताओं के बहकावे में आती है क्योंकि उसमें स्वतंत्र निर्णय करने की शक्ति नहीं है।  इस पर आपका क्या कहना है?

जीवन सिंह- मैं इस तरह की धारणाओं को गलत मानने के साथ-साथ इनका विरोध करता हूँ। यह जनवाद ही तो है जो हमको सामंती प्रवृत्तियों से बचाए हुए है। आज इस जनवाद को ही चारों तरफ से घेरकर एक नयी तरह के फासीवाद की तरफ धकेल कर ले जाने की कोशिशें संस्कृति के नाम से राजनीति और अर्थ नीति के स्तर पर की जा रही हैं। इसलिए जनवाद की रक्षा आज की पहली आवश्यकता है। रही समाजवाद की बात, जनवाद यदि सुरक्षित है और वह लगातार परिपक्व होता है तो अगली सीढ़ी समाजवाद की ही होगी।लेकिन आज जब जनवाद पर ही संकट के बादल मँडरा रहे हैं तो समाजवाद अभी दूर की बात है।सच तो यही है कि पूँजीवादी व्यवस्था का विकल्प यदि कोई है तो वह समाजवादी व्यवस्था ही हो सकती है।

जनवाद और उससे अगली सीढ़ी समाजवाद भीड़ की मनोवृत्ति के सूचक नहीं हैं। मुक्तिबोध ने अपनी डायरी में इस बात को साफ करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा है,‘कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति यह जानता है कि एक स्थान में एकत्र संगठित जनता भीड़ नहीं है,क्योंकि वह संगठित है।जहाँ संगठन है वहाँ एक प्रेरणा और एक उद्देश्य भी है। जहाँ एक प्रेरणा और उद्देश्य है,वहाँ एक स्फीत और सक्रिय चेतना है। देश-विदेश के पिछले इतिहास में हमें यह सूचित होता है कि संगठित जनता ने असाधारण कार्य किए हैं। 

सत्ता के प्रतिरोध में संगठित जनता ने ही जुलूस ,हड़ताल और अनशन जैसे विभिन्न संघर्ष-रूपों का आविष्कार किया है। ये लोकतांत्रिक प्रतिरोधों के अनुसार विकसित हुए हैं। इनके माध्यम से जनभावनाओं की अभिव्यक्ति होती है। यही कारण है कि दुनिया के सभी लोकतांत्रिक देशों में जनता अपनी भावनाओं और आकांक्षाओं को इन्हीं माध्यमों से व्यक्त करती है। मुक्तिबोध उन आधुनिकतावादियों के विचारों को उद्धृत करके उनकी काट प्रस्तुत करते हैं। वे तो मानते ही यह हैं कि सामान्य जन और मेहनतकश के पास ही ईमान का डंडा और अभय की गैंती और तगारी है जिससे आत्मा के नये भवन बनाए जा सकते हैं।
 
महेश चंद्र पुनेठा- समाजवाद में व्यक्ति के स्थान पर समाज को अधिक महत्व दिया जाता है। एक व्यक्ति को क्या करना है यह भी समाज तय करता है। जबकि मुक्तिबोध व्यक्तिगत स्वतंत्रता का समर्थन करते हैं। उनका मानना है कि व्यक्ति स्वातंत्र्य कला के लिए ,दर्शन के लिए ,विज्ञानं के लिए अत्यधिक आवश्यक और मूलभूत है। यह कैसा अंतर्विरोध है?

जीवन सिंह- मुक्तिबोध व्यक्ति और समाज में इकतरफा रिश्ता मानने के स्थान पर इन दोनों का द्वन्द्वात्मक रिश्ता मानते हैं। समाज अपनी जगह पर महत्वपूर्ण होता है किन्तु जीवन के अनेक क्षेत्रों का नेतृत्व करने में व्यक्ति की भूमिका भी कम महत्व की नहीं होती। मार्क्स, गांधी, लेनिन,भगत सिंह ,आइंस्टीन,प्रेमचंद आदि व्यक्ति ही थे,जो समाज के लिए अपना सब कुछ त्याग कर जीवन संग्राम में उतरे ,जिन्होंने समाज की दिशा बदलने का काम किया।यहाँ व्यक्ति की सामाजिक भूमिका स्पष्ट हो रही है।क्या व्यक्ति की इस भूमिका को नकारा जा सकता है।मुक्तिबोध इसी अर्थ में समाज के साथ व्यक्ति की भूमिका को कम आ्ँककर नहीं चलते।इसका मतलब यह कतई नहीं है कि वे व्यक्तिवाद के समर्थक हैं। व्यक्ति की भूमिका और व्यक्तिवाद में जमीन-आसमान जैसा फर्क होता है।

महेश चंद्र पुनेठा- मुक्तिबोध व्यक्तिगत स्वतंत्रता के समर्थक थे लेकिन उनका कहना था कि मुनाफाखोरों और उत्पीड़कों के व्यक्ति स्वातंत्र्य के लक्ष्य और जनता के व्यक्ति स्वातंत्र्य के लक्ष्य में अंतर है। यह अंतर किस तरह का है? कुछ प्रकाश डालिए।

जीवन सिंह- स्वाधीनता के बिना सृजन संभव नहीं होता।होता भी है तो वह पराधीनता की परिधि से बाहर नहीं निकल पाता। इसलिए व्यक्ति स्वातंर्त्य जरूरी होता है अन्यथा सचाई को व्यक्त कर पाना संभव नहीं होता ।लेकिन मुक्तिबोध का स्पष्ट कहना था कि स्वतंत्रता का अर्थ इस बात में है कि समाज में उसका क्या उपयोग किया जा रहा है और जन-कल्याण तथा मानव-उत्थान के लिए उसे कौन सी दिशा में ले जाया जा रहा है। वे मुनाफाखोरी करने वाली या किसी का भी शोषण -उत्पीड़न करने वाली स्वतंत्रता का बेहिचक विरोध करते हैं। उनकी एक कविता है,‘जमाने का चेहरायह कविता कहीं से भी दुर्बोध नहीं है। इसमें वे साम्राज्यवादी उत्पीड़कों और मुनाफाखोरों का विरोध करते हुए कहते हैं-फल-पुष्प-भारमय/वृक्षों की हरी भरी /शाखाओं पर बैठे हैं वानर व वन-बिलाव/साम्राज्यवादियों का वास्तविकता व वह/भविष्य को बढ़ने ही नहीं देगा जब तक/कि उसका न नाश हो/ इसी सोच-सोच में/लिखता जाता हूँ/कविता की पंक्तियाँ।पूँजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था जहाँ भी हैं अपनी मुनाफाखोरी के लिए आजादी की बात करती हैं किन्तु ये ही मेहनतकश की आजादी पर लगाम लगाती हैं। इसलिये वे मेहनतकश की आजादी के पक्षधर हैं शोषक वर्ग की आजादी के नहीं।

मेहनतकश की आजादी से उस लेखक की आजादी निर्धारित होती है जो उसके पक्ष में लिखता है और शोषक-उत्पीड़क वर्ग का विरोध करता है। लेकिन जिस व्यवस्था में मेहनतकश वर्ग की आजादी पर अंकुश लगा दिया जायगा तो यह रचनात्मकता पर भी प्रकारान्तर से अंकुश होगा ,जिसे मुक्तिबोध स्वीकार नहीं करते। वे रचना के संदर्भ में किसी भी तरह के रेजीमेंटेशन के विरोधी हैं। मुनाफाखोर के स्वातंत्र्य में शोषण होता है जबकि श्रमिक स्वातंत्र्य में रचनात्मकता की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
महेश चंद्र पुनेठा- मुक्तिबोध का व्यक्ति-स्वातंत्र्य अज्ञेय के व्यक्ति स्वातंत्र्य से किस रूप में भिन्न है?

जीवन सिंह- व्यक्ति-स्वातंत्र्य प्रयोजन और परिस्थिति में भिन्न स्वरूप ग्रहण कर लेता है। एक व्यक्ति का व्यक्ति-स्वातंत्र्य सिर्फ और सिर्फ अपने निजी लाभ और स्वार्थ-पूर्ति के लिए होता है उसे समाज और दूसरे लोगों के हितों से ज्यादा लेना देना नहीं होता।दूसरा व्यक्ति वह होता है जो सामाजिक हितों के प्रयोजन से व्यक्ति-स्वातंत्र्य की माँग करता है। अज्ञेय और मुक्तिबोध की व्यक्ति- स्वातंत्र्य की धारणाओं में यही अन्तर है।अज्ञेय की धारणा का सम्बंध निजी स्वातंत्र्य से है जबकि मुक्तिबोध की धारणा का सामाजिक हितों के लिए काम में आने वाली स्वतंत्रता से। इसीलिए वे अँधेरे मेंकविता के इस अंश में साफ-साफ कहते हैं-कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ वर्तमान समाज में चल नहीं सकता। पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता, स्वातंर्त्य व्यक्ति का वादी छल नहीं सकता मुक्ति के मन को ,जन को।

इसी वजह से नई कविता आन्दोलन में स्वतंत्रता के बारे में जो बातें अज्ञेय और उनके शिविर द्वारा उठाई गयीं थीं, कि समाजवादी व्यवस्था व्यक्ति-स्वातंर्त्य की सबसे बड़ी दुश्मन होती है तब मुक्तिबोध ने इस तरह की पक्षपातपूर्ण बातों का बिन्दुबार जवाब दिया था। तब उन्होंने यह भी कहा था कि कोई व्यवस्था सम्पूर्ण स्वतंत्रता नहीं देती। सम्पूर्ण स्वतंत्रता कहने भर की बात है।सामाजिक प्रतिबंध हर व्यवस्था लगाती है। देखने की बात यह है कि व्यक्ति-स्वातंत्र्य की जो सीमा बाँधी गई है। वह मानव मूल्यों और मानव मुक्ति के लक्ष्यों के अनुकूल है या प्रतिकूल।यही फर्क है अज्ञेय और मुक्तिबोध की व्यक्ति-स्वातंत्र्य सम्बंधी धारणाओं और उनके व्यवहार में।

महेश चंद्र पुनेठा-मुक्तिबोध लेखक और कलाकार की स्वतंत्रता को समाज-सापेक्ष या समाज-स्थिति-सापेक्ष मानते हैं। क्या यह एक तरह से लेखक और कलाकार की स्वतंत्रता में कुछ प्रतिबन्ध स्वीकारना तो नहीं है?क्या आपको लगता है कि किसी समूह या संगठन का हिस्सा रहते हुए एक लेखक अपनी स्वतंत्रता को बनाए रख सकता है?

जीवन सिंह- इस सम्बंध में मुक्तिबोध की मान्यता को ही समझना चाहिए। उनके एक लम्बे निबंध समाज और साहित्यमें उन्होंने कहा है, ‘‘प्रत्येक युग, अपनी सामाजिक-ऐतिहासिक स्थिति की अनुभूत आवश्यकता के अनुसार अपना साहित्य निर्माण किया करता है।’’ उन्होंने साहित्य और कला में मूल्यवान क्या होता है जैसे प्रश्न को समाज के साथ काल-सापेक्ष्य मानते हुए कहा है कि यदि हम सम्पूर्ण मानव समाज के विकास क्रम को देखें तो पायेंगे कि मनुष्य समाज ने प्रत्येक प्रत्येक नवीन समाज रचना में पूर्वकालीन समाज-रचना से अधिक स्वतंत्रता पायी है। स्वतंत्रता जिस तरह से समाज और काल-सापेक्ष्य होती है उसी तरह वह व्यक्ति-सापेक्ष्य भी होती है। यह बात एक लेखक को ही सुनिश्चित करनी होती है कि वह प्रदत्त स्वतंत्रता का उपभोग कैसे करता है? वह अपनी ऐतिहासिक, सामाजिक स्थिति की आवश्यकताओं के अनुसार अपने प्रधान विषय चुनता है। इन विषयों में वह तत्कालीन मानव सम्बंध, विश्व दृष्टि और जीवन मूल्यों को व्यक्त करता है। अब यह लेखक की अपनी मूल्य दृष्टि और वर्गीय जीवनानुभवों की ग्राहकता से तय होता है कि उसने प्राप्त स्वतंत्रता का कितना और किस तरह से उपयोग किया है। ऐसे भी लेखक होते हैं जो प्राप्त स्वतंत्रता का पूर्ण उपभोग करने से साहित्येतर कारणों से नहीं कर पाते। देश को आजादी मिलने के बाद पहले के कई लेखक ऐसे थे जिन्होंने अपनी दिशा और दृष्टि दोनों को बदल लिया था। तब भी नागार्जुन।त्रिलोचन, केदार और मुक्तिबोध सरीखे लेखकों ने अपनी घोर उपेक्षा सहकर तत्कालीन स्थितियों से समझौता नहीं किया और प्राप्त स्वतंत्रता का अपनी दृष्टि और मूल्य विवेक के अनुसार उपयोग किया।

किसी लाभ-लोभ से लेखक स्वयं अपनी स्वतंत्र स्थिति पर सेंसर लगा लेता है या उसके अनुभव संसार की परिधि उसके आकार को स्वयं छोटा कर देती है। मध्य वर्ग के लेखक जो लोक की बात करते हैं, वे भी लोक के दुख-दर्द की बात तो करते हैं और श्रम करते हुए लोक के सौन्दर्य का आख्यान भी रचते हैं किन्तु कोई अपवाद स्वरूप ही उन कारणों का तथ्यपूर्ण विश्लेषण कर पाता है, जिसकी वजह से उसके दुख-दर्दों की अनन्त श्रृंखला सी चलती रहती है।उनमें स्वयं मध्यवर्ग की स्थिति और वास्तविक भूमिका का शायद ही उसे कोई ऐसा बोध रहता है कि जो उन स्थितियों को बदलने में एक ईमानदार भूमिका अदा कर सके। यह स्वयं लेखक पर ही निर्भर करता है कि वह प्राप्त स्वतंत्रता का उपयोग किस उद्देश्य से करता है। लेखक संगठन और समूह में रहते हुए भी लोकतांत्रिक स्थिति में कोई ऐसी पाबंदी नहीं होती कि वह अपनी स्वाधीनता का उपयोग न कर सके। समाज भी एक समूह ही होता है जिसके द्वारा लगाई गई अनेक तरह की पाबंदियों के भीतर रहते हुए भी यह व्यक्ति और उससे निर्मित कोई समूह ही होता है जो अमानवीय स्थितियों के विरुद्ध वातावरण बनाकर एक दिन उनको तोड़ डालता है।

महेश चंद्र पुनेठा- मुक्तिबोध व्यक्तिगत स्वतंत्रता में अंतरात्मा के कठोर नियमों के अनुशासन की बात भी करते हैं। उनका मानना है कि इस अनुशासन के बिना व्यक्ति स्वातंत्र्य निरर्थक और विकृति हो जाता है ,खोखला हो जाता है। यह अंतरात्मा के कठोर नियमों के अनुशासन से उनका क्या आशय है? यह किस प्रकार संभव है?

जीवन सिंह- लेखक की अन्तरात्मा एक दिन में नहीं बनती। वह निरन्तर बदलती और विकसित होती है।वह एक जगह पर स्थिर और जड़ नहीं होती।इस बारे में उनकी एक कविता हैअन्तःकरण का आयतन’,जिसके बारे में वे बतलाते हैं कि यह संक्षिप्त होता है,।मनुष्य की बुद्धि इतनी कम है और उसके सामने यथार्थ इतना विस्तृत और उलझा हुआ है कि उसे केवल एक लेखक अपनी सीमित ग्यान प्रक्रिया से नहीं जान सकता।इसलिए उसे सम्पूर्ण जगत की ग्यान और भाव प्रक्रिया में शामिल होने और रहने की जरूरत होती है तभी वह उसका सर्वश्लेषी आकलन करने में समर्थ हो पाता है।उनके लिए अन्तरामा का प्रश्न उनकी या एक लेखक की अपनी आत्मा का सवाल नहीं है।इसका सम्बंध सम्पूर्ण जगत और उसकी स्थितिजन्य वास्तविकताओं से है,जिनको विश्व ग्यान परम्परा में जाकर समझना पड़ता है।इसीलिए एक व्यक्ति की अन्तरात्मा का आयतन संक्षिप्त ही रहता है।उसके विस्तृत करने की आवश्यकता हमेशा बनी रहती है।उसे राष्ट्रीय परिधियों में सीमित ज्ञान से भी आगे विश्व ज्ञान परम्परा में शामिल होने की जरूरत होती है।तभी असल में अन्तरात्मा का प्रयोजन पूरा हो पाना संभव है।वे संसार से असावधान रहने वाले लेखक के बारे में यह भी बतलाते हैं कि मनुष्य कभी कभी अपने ही बनाए जाल में फँस जाता है और अपनी अन्तरात्मा के प्रयोजनों के मार्ग से स्वयं ही हट जाता है और अपने जीवन में तरह तरह के समझौतों का शिकार होकर अपना रास्ता तक बदल लेता है।इस तरह के समझौतों से उसका व्यक्तित्व नपुंसक हो जाता है।

यही अन्तरात्मा का कठोर अनुशासन है कि वह समझौता विहीन जिन्दगी जीता हुआ न केवल अपने अन्तः:करण के आयतन का विकास करे वरन इस प्रक्रिया को कभी शिथिल न होने दे।यह संसार लेखकों द्वारा बनाया हुआ नहीं है बल्कि यह अपनी गति से चलता है।लेखक को पहले इसके सत्य को जानना पड़ता है ।चूंकि आज का संसार अपनी गति को बहुत तेज कर चुका है इसलिए उसे समझने के लिए लेखक को भी उसी तरह की तैयारियों की जरूरत होती है।यही है उनके कठोर अनुशासन की प्रक्रिया।यह संसार कितने ही तरह के प्रलोभन पाशों में लेखक को फँसाता है जिससे वह अपना मार्ग बदल ले।वैसे भी अधिकांश लेखक यश पाने और धन अर्जित तक ही सीमित होकर रह जाते हैं। इस वजह से भी कठोर अनुशासन की आवश्यकता होती है।

चूंकि इस संसार में किसी का भी व्यक्ति स्वातंत्र्य खरीदा जा सकता है और इसे बेचा भी जा सकता है।जो आजकल खूब हो रहा है। इससे लेखक के अन्तःकरण का आयतन विस्तृत होने के बजाय सिकुडता जाता है और एक लेखक के रूप में वह शीघ्र ही मृत्यु का शिकार हो जाता है या फिर एक समय की ढर्रे प्राप्त बातों को ही आजीवन दुहराता रहता है। उसके विकास की प्रक्रिया एक जगह आकर दम तोड़ देती है लेकिन वह अपनी ही बात पर अड़ा रहता है।वे यह भी मानते हैं कि जो व्यक्ति स्वातंत्र्य समाजवाद और जनतंत्र के समन्वय में बाधक हो या इन दोनों में से किसी भी एक का उत्सर्ग करने के लिए उत्सुक हो,ऐसे व्यक्ति स्वातंर्त्य की वे निन्दा करते हैं और इसे वे तिरस्करणीय मानते हैं। वे कहते हैं कि समाजवाद, जनता की, जनसाधारण की मुक्ति का राजपथ है।लेखक का यह प्रयोजन उसके अनुशासित व्यक्ति स्वातंर्त्य ,विश्व ज्ञान प्रक्रिया में उसकी ईमानदार संलग्नता और अपनी समृद्ध होती हुई संवेदनात्मक प्रक्रिया तथा तदनुरूप आचरण से ही संभव है। 

महेश चंद्र पुनेठा- यह बात बिलकुल सही है कि एक लेखक समझौता विहीन जिंदगी जीता हुआ न  केवल अपने अन्तःकरण के आयतन का विकास करे वरन इस प्रक्रिया को कभी शिथिल न होने दे। निश्चित रूप से यह कठोर अनुशासन है. आपको क्या लगता है आज का कवि-लेखक इस कठोर अनुशासन का पालन कर पा रहा है? आपके पास कुछ उदाहरण हों तो जरूर उल्लेख कीजियेगा।

जीवन सिंह- आज के अधिकाश लेखक उस मध्य वर्ग से आते हैं जो धीरे धीरे नव धनाढ्य वर्ग में शामिल हो रहे हैं।उनके पास जिन्दगी की वे सभी उच्चतर सुविधाएं मौजूद हैं जो कभी उच्च वर्ग के पास हुआ करती थी।इसके साथ वह निम्न मध्य वर्गीय लेखक भी है जो औसत जिन्दगी में संतोष कर लेता है।इस तरह का वर्ग विभाजन उनकी संवेदना भूमि की परिधि को तय करता है क्योंकि जिन बातों का कभी अनुभव ही लेखक को नहीं हुआ ,उनको वह रचना में कैसे ला सकता है।अखबारी अनुभव भी बहुतों को होते हैं जैसे किताबी ज्ञान से होता है ।किन्तु क्या कबीर की यह बात आज भी सच नहीं है कि पोथी पढ़ने मात्र से कोई पंडित नहीं होता।पंडित होने के लिए जीवन संग्राम में उतरना जरूरी है।जितनी दूर तक जो उतरेगा ,उसकी रचना भी उतनी ही दूर तक उसका साथ देगी।रचना कर्म की पहली सीढ़ी इन्द्रियबोध है,जिससे उसके जीवनानुभव समृद्ध होते चलते है।सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण और लेखक के लिए सबसे ज्यादा काम की यही सीढ़ी है।इसी के ऊपर रचना का भवन निर्मित होता है।इन्द्रियाँ ही उसे बतलाती हैं कि जिन्दगी के सबसे निचले धरातल पर क्या चल रहा है।ग्यानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ दोनों मिलकर रचना की आधार भूमि का निर्माण करती हैं क्योंकि यथार्थ और क्रूर एवं कठोर वास्तविकताओं को प्रामाणिक तौर पर मालूम करने का कोई दूसरा जरिया नहीं होता।इन सवालों पर विचार करते हुए जब आज के रचनाकार और उसके रचना संसार को देखते हैं तो बहुत कम लोग ऐसे दिखाई देते हैं जो अपना लेखन पूरी ईमानदारी और तैयारी के साथ कर रहे हैं।अधिकांश लेखक तो अपनी अस्तित्वगत मजबूरियों के चलते इसे सहलेखन की तरह करते हैं।यानी आजीविका से अलग।

पिछले पच्चीस सालों से जिस तरह की नई भौतिक परिस्थितियाँ पूरे विश्व और अपने देश में बनी हैं उनमें मध्य वर्ग में भी अलगाव की प्रक्रिया बहुत तीव्र हुई है जो एक तरफ व्यक्तिवादी दर्शन की राह दिखाती है ,साथ ही आत्ममुग्धता को भी बढ़ाती है।इससे तेजी से लेखक की सक्रिय और व्यवहारगत सामाजिकता का तेजी से क्षरण हुआ है।उसका मूल्य पक्ष भी दुर्बल हुआ है।धीरे धीरे उद्देश्यों ने भी दिशा बदल ली है।कुलमिलाकर आज के लेखक के लिए रचना कर्म करना और अपने सिद्धांत पर टिके रहना तथा नए यथार्थ को समझ पाना पहले से मुश्किल हुआ है।मौकापरस्त लेखकों की बाढ सी आ गई है।

महेश चंद्र पुनेठा- साहित्यकारों की नयी पीढ़ी में इस दृष्टि से आपको क्या संभावना दिखाई देती है?

जीवन सिंह- संभावना हर युग में होती हैं।किसका क्या पता कि कब कौन अपनी साहित्य-साधना और जीवन-साधना को एकरूप कर ले।यद्यपि मौजूदा स्थितियों और परिस्थितियों में ऐसा कर पाना बहुत मुश्किल हो गया है।सुख-सुविधाएं इतनी अधिक हो गई हैं और मध्य वर्ग के लिए अब जीवन यापन करने जैसी कठिनाई भी लगभग समाप्त हो गई है।दूसरी तरफ निम्न मेहनतकश की मुश्किलें ज्यादा बढ़ जाने से मध्य और निम्न वर्ग में अलगाव और फासला दोनों ही बहुत बढ़ गये हैं।इस वजह से मध्य वर्ग से आने वाले लेखक समुदाय के अन्तःकरण का आयतन विस्तृत होने के बजाय सिकुडने की स्थितियों में आ गया है।ऐसी स्थिति में ज्यादातर लेखक अपने सीमित अनुभवों में ही शिल्पगत वैशिष्टय के माध्यम में या अपने एक ही क्षेत्र के अनुभवों से प्राप्त बारीकियों को उकेरने तक ही सीमित रहने का खतरा उत्पन्न हो गया है ।इससे कला के आयाम तो विकसित अवश्य होते हैं किन्तु साहित्य का प्राण तत्व कमजोर पड़ जाता है।

मुझे तो उन युवा मित्रों में ज्यादा संभावना नजर आती है जो साहित्य-साधना के साथ जीवन-साधना भी करते हैं।हमारे साहित्य की परम्परा ही इसका सबसे बड़ा प्रमाण है।भक्ति काल और आधुनिक काल के साहित्य से ही इसको समझा जा सकता है।भक्ति का्ल का कवि साहित्य से आगे जीवन को रखता है इसलिए दरबारों की शरण में नहीं जाता ।सूर,तुलसी चाहते तो अकबर के दरबार में जा सकते थे।एक जनश्रुति है कि तुलसी के लिए रहीम ने ऐसा प्रयास किया भी था कि वे अकबर की मनसबदारी स्वीकार कर लें ।तो पता है उन्होंने क्या उत्तर दिया... हम चाकर रघुबीर के,पटौ लिखौ दरबार । तुलसी अब का होंहिगे , नर के मनसबदार।। सूर से आयु में बड़े अष्टछाप के प्रमुख कवि कुंभनदास का वह पद तो प्रसिद्ध है ही ,जिसका संबंध अकबर से ही बतलाया जाता है।उनका यह मशहूर पद है-संतन कौ कहा सीकरी सौं काम। आबत जात पनहिया टूटी, बिसर गयौ हरि नाम। जिनकौ मुख देखे दुख उपजत ,तिनकौं करिबे परी सलाम। कुंभनदास लाल गिरधर बिनु,और सबै बेकाम।

इससे दरअसल, यह पता चलता है कि एक कवि या रचनाकार को कैसा होना चाहिए। किसी भी तरह की सत्ता और प्रलोभनों से उसका कैसा रिश्ता होना चाहिए । क्योंकि इस दुनिया में चारों तरफ तरह तरह के प्रलोभनों का जाल फैला हुआ है जिसमें व्यक्ति को उलझाकर उसकी धार को कुन्द कर दिया जाता है। भक्तिकाल के बाद जब हिन्दी कविता राजदरबारों में प्रवेश कर गई तो आम जन से कट गई।वह राजदरबारों को रिझाने का काम करने लगी और उसके बदले में कविगण इनाम-इकरार और जागीर पाने लगे।उनको अपने समय में अपार धन और वैभव हासिल हुआ ।कविता रचने की प्रतिभा उनमें कम नहीं थे।वे बेहद प्रतिभाशाली और मेधा के धनी थे जिसका उपयोग उन्होंने निजी हित यानी अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए किया ।इस वजह से उनकी कविता लोकहृदय से दूर हो गई ।जब तक राजदरबार रहे ,उस कविता को महत्वपूर्ण माना गया।उसकी कीर्ति कथाएं भी साहित्यशास्त्र में लिखी गई लेकिन जब राजदरबारों की जगह पर लोकतंत्र आया तो उनकी सचाई सबके सामने आ गई।सबको मालूम हो गया कि ये प्रतिभाशाली तो हैं किन्तु उसका उपयोग इन्होंने निजी फायदे के लिए किया है।इनके जीवन में वैसा त्याग और कुर्बानी का भाव नहीं है जो भक्तिकाल के कवियों में था या आधुनिक काल में भारतेन्दु, महावीरप्रसाद द्विवेदी ,प्रेमचंद, निराला,आचार्य रामचंद्र शुक्ल,मुक्तिबोध सरीखे लेखकों में था।इनमें दो का सम्बंध-प्रेमचंद और आचार्य रामचंद्र शुक्ल का अलवर के तत्कालीन राजदरबार से जुड़ा। 1908में अलवर के तत्कालीन नरेश जयसिंह ने अपनी रियासत की राजभाषा हिंदी को घोषित कर दिया था और इस काम को अंजाम देने के लिए काशी से उक्त दोनों हिंदी विद्वानों को अच्छे वेतन-भत्तों और अन्य राजसी सुख-सुविधाओं के साथ अलवर आमंत्रित किया गया था। इनमें प्रेमचंद ने राजदरबार की नौकरी करने से साफ इन्कार कर दिया। उनकी पत्नी शिवरानी जी ने जब उनके न जाने का कारण जानना चाहा तो प्रेमचंद ने जवाब में कहा कि अलवर जाने पर मैं राजा का लेखक रह जाता, जनता का नहीं।कहते हैं कि अपने परिवार के दबाव में शुक्ल जी यहाँ चले तो आए किन्तु एक-दो माह से ज्यादा टिक न सके ।ये प्रसंग दरअसल इस बात के प्रमाण हैं कि लेखक के लेखन का प्रयोजन और उसके जीवन मूल्य क्या हैं? और उसके लिए उसकी तैयारी और उसका तरीका क्या है?इसका तात्पर्य यह भी है कि लेखक चाहे कितना ही प्रतिभाशाली है किन्तु उसकी जीवन-साधना और प्रयोजन सही दिशा में नहीं हैं और वह.केवल यश या अर्थार्जन के लिए साहित्य रचता है तो वह अपने समय में भले ही चर्चित हो जाय, बड़े बड़े सम्मान और पुरस्कार भी पा जाय किन्तु वह जनता के सम्मान का भागी नहीं बन सकता।अब आप स्वयं ही इस कसौटी पर अपने समय के साहित्यकार को देख लीजिए तो बहुत कम ऐसे साहित्यकार मिलेंगे ,जो किसी भी तरह की तिकडम, जोड-तोड से दूर रहकर अपने पुरखों जैसी जीवन और काव्य-साधना में लगे हों। इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि इस समय ऐसा कोई भी नहीं है।आज भी सत्ता प्रलोभनों से दूर ऐसे लोग हैं जो अपनी साधना में ईमानदारी से लगे हुए हैं।मैंने आपको ही नजदीक से देखा है कि आपने अपने शिक्षक होने के दायित्व को कितनी सक्रियता और ईमानदारी से अंजाम दे रहे हैं।यही आपके रचना-कर्म में सहायक होगा ।जो अपनी जिन्दगी में ईमानदार नहीं ,वह रचना में भी कम फ्राड नहीं करता। मुक्तिबोध ने अपनी डायरी में एक जगह पर लिखा है जिन्दगी एक महाविद्यालय या विश्वविद्यालय नहीं है।वह एक प्राइमरी स्कूल है,जहाँ टाट-पट्टी पर बैठना पड़ता है,जरा-सी बात पर चाँटे के आघात की सारी संवेदनाएं गालों पर झेलनी पड़ती हैं।तो जो जिन्दगी को एक सरकारी प्राइमरी स्कूल मानकर चलता है वही जिन्दगी के बुनियादी सरोकारों तक अपनी पँहुच बनाए रख सकता है।जिसकी जिन्दगी एक विश्वविद्यालय की तरह है उसका साहित्य भी जिन्दगी की बुनियाद से उतना ही दूर मिलेगा।पिछले दिनों मैं एक प्रतिभाशाली युवा रचनाकार अच्युतानंद के सम्पर्क में आया।उन्होंने कविता-कर्म भी किया है किन्तु इन दिनों वे आलोचना-कर्म में संलग्न हैं।वे आज के सभ्यता संकट और रचना कर्म से जुडे सवालों पर काम करने में लगे हुए हैं।जब हम इस तरह से सभ्यता के संकट को जानने की कोशिश करते हैं तो कोई विकल्प अवश्य निकल कर आता है।श्री मिश्र ईमानदारी से अपना काम कर रहे हैं।उन्होंने मध्यवर्ग में तेजी से बढ़ रही अलगाव की प्रवृति और आधुनिक विग्यान के अध्ययन के साथ फिर से आधुनिकता का सवाल तथा ज्ञान और ताकत का साझा इतिहास जैसे सभ्यता से सम्बंधित नए सवालों पर गहनता से विमर्श किया है।उनकी जिज्ञासा और ज्ञानात्मकता का क्षेत्रविस्तार रचना कर्म के लिए भी आवश्यक है।हमें इस तरह के सवालों पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है। पिछले दिनों जब शुभम श्री की कविता पोएट्री मैनेजमेंटपर कवयित्री को भारतभूषण अग्रवाल सम्मान घोषित किया गया तो कविता के पारम्परिक हल्कों में बड़ा बावेला मचा। जबकि मैं यह मानकर चलता हूँ कि वह एक संभावनाशील कवयित्री हैं। उन्होंने सभ्यता के संकट के उस बिन्दु को पकड़ा है और उस प्रवृत्ति की मजाक उडाई है जो मध्य वर्ग में तेजी से पनप रही है। उसने कविता को आत्मपरक भावुकता से आगे ले जाकर वस्तुपरक जमीन पर खड़ा किया है और उसके लिए पुराने शिल्प को भी ध्वस्त कर दिया है।हर समय की कविता की एक लीक बन जाती है। नयी से नयी कविता की भी।जब उसको कोई तोड़ता है तो हलचल मचती है। जबकि हमारी जिन्दगी हमारे नियंत्रण में नहीं है। उस पर विश्व शक्तियों का नियंत्रण हो चुका है और हम हैं कि अपनी ही ढपली बजाए चले जा रहे हैं।ढर्रे पर चलने से कुछ भी होने वाला नहीं है।उससे एक तरह का रीतिवाद पैदा हो जाता है।दूसरी बात यह है कि कला का काल भी बहुत छोटा नहीं होता।समझदारी आने में समय लगता है।मैंने किसी रूसी किताब में पढ़ा है कि हमारा जीवन हमारे चारों तरफ नए नए कार्य प्रस्तुत कर रहा है।हमें खुद को नई बात के अनुकूल बनाना पड़ता है।अठारह वीं-उन्नीसवीं सदी के एक प्रसिद्ध महान जापानी चित्रकार होकुसाई ने कहा था कि उन्होंने छः साल की उम्र से चित्र बनाना शुरु किया।पचास साल तक कई चित्र बनाए, लेकिन सत्तर साल की उम्र पर पँहुचने पर ही मैं कुछ महत्वपूर्ण कर पाया, इससे पहले नहीं।73साल की उम्र में मैंने जानवरों, चिड़ियों,कीटों और पौधों की संरचना का अध्ययन किया।उन्होंने कहा कि अस्सी साल की उम्र तक मेरी कला विकसित होती रहेगी। 90साल की उम्र पर पँहुचकर ही मैं कला के मर्म को समझ पाने में समर्थ हो पाँऊगा।
 
इस तरह से मैं कह सकता हूँ कि नयी युवा पीढ़ी में कुछ रचनाकार ऐसे अवश्य हैं जो रचना कर्म के लिए अपना सब कुछ दाव पर लगाए होंगे ।संभावनाएं हमेशा नई पीढ़ी और नया सोच रखने वालों में ही होती हैं।जो पुराने हो चुके हैं वे तो हर बात को अपने ही रंग में देखना चाहते हैं।इनमें बुनियादी उलट फेर भाषा के तर पर हुआ है।धीरे धीरे अँग्रेजी का इतना प्रभुत्व व वर्चस्व बढ़ गया है कि वह गाँवों के दरवाजों और खेतों तक जा पँहुची है।उसने देश की भाषाओं के भीतर अपनी घुसपैठ कर ली है।यह सब मध्य वर्ग की बढ़ती और नीचे के श्रमिक वर्ग की घटती ताकत का एक छोटा सा सबूत है।बाजार और आवारा पूँजी ने इस खेल को इतना फैला और बढ़ा दिया है कि अब सारी दुनिया एक मैनेजमेंट होकर रह गयी है।मनुष्य की अवधारणा तक को बदला जा रहा है और हम अपना पुराना राग ही आलापने में लगे हैं।अब हमारी भाव प्रणाली पर भी इन बातों का असर हुआ है।इस वजह से आज के ताकतवर होते मध्य वर्ग और निम्न वर्ग के बीच अलगाव की खाई तैयार हुई है।पुराने समय में एक व्यक्ति के दस-पाँच मित्र हुआ करते थे,अब फेसबुक ने मित्रों की संख्या बढ़ाकर पाँच हजार कर दी है।इस बारे में अच्युतानंद ने अपने एक आलेख में सवाल उठाया है कि क्या इस तरह के मित्र-संवाद की प्रक्रिया में हमारा जैविक अस्तित्व उसी तरह सक्रिय होगा ,जैसे कि पहले था।फिर इस पाँच हजार की संख्या के साथ हमारे मस्तिष्क का तालमेल किस तरह का होगा ? किस किस्म की तार्किक संवेदना हमारे मस्तिष्क में निर्मित होगी?‘इस तरह के सवालों को उठाते हुए आखिर में एक प्रश्न वे छोड़ते हैं कि इन प्रक्रियाओं से होकर जो मनुष्य बनेगा।क्या वह स्थायी रूप से अधिक क्रूर, अधिक यांत्रिक और अधिक अमानवीय नहीं होगाष्? ऐसे बदले और हर साल तेजी से बदलते समय में कविता के मानदंड क्या पुराने ही रहेंगे ?कविता के रूप-स्वरूप में क्या कोई बदलाव नहीं होगा?कविता के वनोद्यान में क्या एक ही तरह की तरुमालाएं होंगी या जीवन में आ रही भिन्नता की तरह उसमें भी अनेक तरह के फूल खिलेंगे? आज भी कविता में पुराने ढंग की कविताएं खूब लिख रहे हैं ।गीत-गजल भी खूब लिखी जा रही हैं ।सभी तरह का काव्य-व्यापार चल रहा है।उसमें यदि कोई साहसिक कवयित्री कोई जोखिम उठाती है और किसी नए रूप विधान में नयी बात को लाती है तो पुरानी बातों को मानते हुए भी नए का स्वागत नहीं किया जाना चाहिए ?

महेश चंद्र पुनेठा- आपने शुभम श्री की कविता पोयट्री मेनेजमेंटका उल्लेख किया है। इस पर पिछले दिनों सोशियल मीडिया में बहुत अधिक चर्चा हुयी। बहुत सारे कवि-आलोचकों का कहना था कि यह कविता होने की शर्तों को भी पूरा नहीं करती। इसमें तो न लय है और न ही काव्यात्मक भाषा। उस लद्धड गद्य का एक नमूना है जैसा आज की बहुत सारी अमूर्त और अबूझ कविताओं में दिखाई देता है। इस तरह की कविताएं आज बहुतायत में लिखी जा रही हैं। जैसा कि आप मानते रहे हैं कि एक अच्छी कविता मनुष्य भाव की रक्षा करती है,सामाजिकता के तीखे प्रश्नों से रु-ब-रु होती है, समय और समाज के यथार्थ और जीवन सौन्दर्य को व्यक्त करती है, वेदना के स्रोतों को संगत और पूर्ण निष्कर्षों तक पहुंचती है, मध्यवर्ग की सीमाओं को तोड़कर लोक के दुःख-दर्द और संघर्षों तक ले जाती है,उसमें अपनी जमीन की खुशबू होती है,जीवन की आवेगमयी अन्तर्व्याप्ति होती है, स्वयं के जीवन की ईमानदार और सच्ची अभिव्यक्ति होती है,इन्द्रियबोध की विलक्षणता होती है, उसमें मनुष्य जीवन का एक बड़ा सत्य व्यक्त होता है, जीवन का यथार्थ कविता बनता है ,अपने रंजक धर्म से पाठक के हृदय में प्रवेश करती और उसे अपना दोस्त बना लेती है, हृदय के रस्ते मन-मष्तिष्क तक पहुँचती है आदि-आदि। क्या आपको लगता है कि शुभम श्री की यह कविता उक्त कसौटियों से कुछ में भी खरी उतरती है? यदि हाँ तो इसके कविता होने पर ही प्रश्न खड़े करने वालों की काव्य समझ के बारे में क्या कहेंगे?

जीवन सिंह- इस तरह का ध्यानाकर्षण तो शायद इस कवयित्री की तरफ भी नहीं होता यदि इसकी एक कविता पर भारतभूषण अग्रवाल सम्मान की घोषणा न होती तो।शुभम श्री तो इससे पहले से लिख रही हैं।पहले भी एक बार इनकी कविताएं फेसबुक पर ही मेरी नजर में आईं थी।तब भी मेरे मन पर उनकी नवीनता का असर हुए बिना नहीं रहा था।ऐसा ही जब पहली बार शाहनाज इमरानी की कविताएंष्कृति ओर सम्मानष् के संदर्भ में पढ़ने को मिली थी तो उनका एक प्रभाव मन पर कायम हुआ था।नवीनता का भी अपना आकर्षण होता है और उसका पता पहली बार तभी चलता है जब उनमें कोई बात लीक से हटकर होती है।शुभम श्री की कविता का बदलाव कविता की अन्तर्वस्तु और उसके रूप विधान दोनों स्तरों पर है।उन्होंने कविता को मध्य वर्ग में तेजी से पैर पसार रही बोलचाल उस नयी भाषा में कविता को रचा है जो एक तरह से ऐसी संकर भाषा है जो जमीन से कटी हुई है।लेकिन है आज की वास्तविकता।वे उसे अपने व्यंग्य का निशाना बनाती हैं।ऊपर से जब हम उस भाषा को अभिधा में पढ़ते हैं तो वह कहीं से भी कविता नजर नहीं आती।इसके विपरीत वह कविता की खिल्ली उड़ाती जान पड़ती है।लेकिन वह व्यंजना में लिखी हुई कविता है जिससे उसकी पूरी संरचना का अर्थ बदल जाता है।इसीलिए तो वह कविता की लीक से अलग जाती हुई विरोध और विवाद का विषय बनती है।जिन्होंने ने भी कविता में इस तरह का नवाचार करने का प्रयास किया है,उनको विरोध झेलना पड़ा है।

दूसरे नवाचार करने वाले कवि भी जब किसी की नजर में आयेंगे, उनकी तरफ भी अवश्य ध्यान जायगा।देर-सबेर हो सकती है क्योंकि आज कोई ऐसा निश्चित स्थान नहीं है जहाँ कविता के प्रचलित सभी रूप सबको एक साथ पढ़ने को मिल जाते हों।इसके बावजूद यह कहा जा सकता है कि आज की वास्तविकता की जैसी पकड और उसको व्यक्त करने तथा हर तरह का जोखिम उठाने की जो शुरुआती समझ शुभम श्री के यहाँ है,वह विरल होती है।

महेश चंद्र पुनेठा-क्या आपको नहीं लगता है कि इस कविता को लेकर फेसबुक पर कुछ आवश्यकता से अधिक चर्चा हो गयी ?जो बहस हुयी क्या वह आपको किसी निष्कर्ष तक पहुँचती लगी? या कुछ लोग खारिज करने में और दूसरा बचाव करने में ही लगे रहे? क्या कुछ आवश्यकता से अधिक आक्रामक नहीं लगे?

जीवन सिंह- कविता के बारे में एक बार जिसकी जो धारणा बन जाती है,उसे छोड़ पाना बहुत मुश्किल होता है। हम एक समय में बनी हुई धारणा के अनुरूप जब हर कविता को जाँचते हैं तो इस तरह के विवाद होते ही हैं।जब कोई चीज टूटती है तो आहट होती ही है।व्यक्ति किसी भी तरह की नवीनता को आसानी से स्वीकार नहीं करता :पहले उसका विरोध होता ही है।आज तक भी ऐसे लोगों और पाठकों की संख्या बहुत अधिक है जो मुक्त छंद में लिखी कविता के प्रति नानुकर का रवैया अपनाते हैं।कोई बात नहीं, ज्यादा चर्चा हो गई तो।मंथन से ही अमृत भी निकला और गरल भी।दधि मंथन के बाद नवनीत और छाछ दोनों निकलते हैं तब नवनीत ही नहीं, छाछ भी सेहत के लिए उपयोगी होती है।दोनों पक्ष एक दूसरे से सीखते हैं और इसी प्रक्रिया से बात आगे बढ़ती है बशर्ते कि बात सदाशयतापूर्वक और समझदारी बढ़ाने के प्रयोजन से की गई हो।जरूरी नहीं कि कोई बहस तुरंत किसी निष्कर्ष तक पहुंचे लेकिन निष्कर्ष की दिशा में जाने के लिए एक कदम ही सही ,बात आगे बढ़ती है।लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी यही है।जो लोग किसी बहस का तुरंत परिणाम चाहते हैं वे नहीं जानते कि एक छोटे से बीज से ही एक दिन छतनार वृक्ष बन जाता है।

जो किसी बात को खारिज करते हैं या बचाव करते हैं उनके बीच एक ऐसा तटस्थ वर्ग भी होता है जो बहस की तराजू के दोनों पलड़ों के वजन को देख लेता है।इसी से आगे कोई फैसला होने में मदद मिलती है।आक्रामकता की प्रकृति कैसी है बात इससे तय होती है।हमारे यहाँ एक कहावत है कि ठंडा करके खाना चाहिए।बहुत गर्म खाने से मुँह ही नहीं जलता, आँतों और पेट को भी नुकसान होता है। भोजन को चबा चबाकर खाने से जो रस बनता है वह जल्दबाजी से नहीं।आक्रामकता और आत्मरक्षा दोनों ही युद्ध कला के अन्तर्गत आते हैं। कई बार कोरी आक्रामकता बहुत नुकसानदेह होती है।

संपर्क- डॉ0जीवन सिंह 1/14अरावली बिहार, अलवर-301001 (राजस्थान)
महेश चंद्र पुनेठा शिव कालोनी न्यू पियाना पो0डिग्री कालेज जिला-पिथौरागढ़ 262502







वर्तमान सन्दर्भ में उत्तरभारतीय तालों का व्यावहारिक स्वरूप: एकअध्ययन

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वर्तमान सन्दर्भ में उत्तर भारतीय तालों का व्यावहारिक स्वरूप: एकअध्ययन

श्रीमती ललिता, शोधार्थिनी, संगीत विभाग, कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल
डा०रेखा साह, असिस्टेन्ट प्रोफेसर, संगीत विभाग, कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल

संगीत प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ प्रदत्त कला है। संगीत का स्वरूप प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है, जिनका अनुभव जीवमात्र के द्वारा निरन्तर किया जाता है। प्रकृति संगीत की जननी है, परन्तु संगीत में स्वर तथा लय इसके आधार स्तम्भ है जिनके बिना संगीत का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। प्रकृति की रचनाओं मेंस्वर तथा लय का स्वरूप परिलक्षित होता है, जैसे : कोयल के कूकने का स्वर, नदियों की निर्झर ध्वनि, पक्षियों का चहकना, अन्तरिक्ष में ग्रह एवं नक्षत्रों की समान गति, मनुष्य की ह्र्दयगति, धमनियों में रक्तप्रवाह आदि,यह सब प्रकृति के द्वारा प्रदान की हुई गति है, जिसको मनुष्य ने जाना व पहचाना तथा प्रकृति की गति व ध्वनि को स्वर तथा लय का नाम दिया, इन्ही के आधार पर संगीत की रचना की जाती है। संगीत में समय के असीमित काल को निश्चित समय में बांधने के लिये ताल की परिकल्पना की गई जो कि मानव के अंक ज्ञान के पश्चात ही संभव हो पाया।
"ताल"संगीत रचना का आधारतत्व है, मात्राओं की निश्चित आवृति को ताल का स्वरूप दिया गयासंगीत के मूल तत्व स्वर तथा लय है परन्तु आधार ताल ही है। ताल पर ही संगीत को स्थापित किया जाता है, यदि गायन, वादन तथा नृत्य से ताल को निकाल दिया जाये तो संगीत, प्राण शुन्य शरीर की भांति हो जायेगा। संगीत में स्वर सीमित हो सकते है, परन्तु ताल की कोई सीमा नही है। ताल गति का निश्चित क्रम संगीत को रसानुभूति तथा स्थायित्व प्रदान करता है।
पाण्डे, शुधांशु (२०१३) संगीत रत्नाकर के अनुसार:
                                                तालस्तलप्रतिष्ठाय मितिधातोर्धत्रिस्मृत:
                                                गीतं वाद्यं तथा नृत्ययतस्ताले प्रतिष्ठितम॥

अर्थात: प्रतिष्ठा अर्थवालीतलधातु मेंधञप्रत्यय लगाने पर ताल शब्द बनता है, गीत, वाद्य और नृत्य इसमें सम्मिलित होते है, यहां पर प्रतिष्ठा का अर्थ व्यवस्थित करना, एक सूत्र में बांधना तथा आधार प्रदान से है, अर्थात गीत, वाद्य एंव नृत्य के विभिन्न तत्वों को व्यवस्थित या आधार प्रदान करने वाला ताल ही है।
राताजन्कर, एस. एन. (१९४०)
 वैदिककाल में ताल की परिकल्पना की गई, महान ऋषियों ने वेदों का संकलन सूक्तिबद्ध किया, उदात्त, अनुदात्त एंव स्वरित प्रणाली ह्र्स्व, दीर्घ एंव प्लुत उच्चारणो द्वारा वेदों की संगीत प्रणाली विकसित हुई जो आगे चलकर छंदोबद्ध हुए और पिंगलशास्त्र का निर्माण हुआ| दर्शनकाव्य आदि समस्त शास्त्र छंदबद्ध बनाये गये जिससे वे स्वर ताल और लय में गाये जा सके और सुगमता से कंठस्थ किये जा सके।
श्रीवास्तव, गिरीशचन्द्र (२००६)
निश्चित ही तालों की युक्ति छन्दों द्वारा ही प्राप्त की गई क्योंकि छन्दों के समानताल में भी समान वर्ण, मात्रा, लय, गति यति और चरण सम्बन्धी नियमों का पालन किया जाता है।
मिश्र, छोटेलाल (२००६)  
ताल पद्धति से तात्पर्य यह हैकि ताल व्याख्या, ताल गठन के नियम, ताल खण्ड, निश्चित पटाक्षर, सशब्द निशब्द क्रिया, ताल प्रस्तुति, ताल विस्तार आदि का विवेचन। नाटयशास्त्र में ताल की परिभाषा इस प्रकार की गयीहै"कलापात और लय से युक्त जो काल विभा गया परिणात्मक प्रमाण जो घनवर्ग में आता है ताल कहलाता है"। साधारण व्यवहार के काष्ठानिमेश या पल के परिमाण को ताल प्रसंग में कला नही कहा जाता।५ निमेशकाल को मात्रा कहते हैतथा एक मात्रा से, अथवा मात्राओं के योग से बनेगा न समय को कला कहाहै।मात्राओंकेतीनस्वरुपबतायेहैं, लघू, गूरु, औरप्लुत।लयकेतीनप्रकारबतायेहै, द्रुत, मध्य, तथाविलम्बित।प्राचीनकालमेंताललक्षणोंकेअनुसारमात्राकालहीपातकेद्योतकथे, प्रबन्धयाछन्दगायनहोताथाजिनगीतोंमें (गीतकोंमें) कहांकहांघातहोउसआधारपरधातकाकालनिश्चितकियाजाताथाऔरउसीअनुसारतालवादनहोताथा| "प्राचीनकालकेपूर्वमेंपंचमार्गीतालोंकाप्रचारथाजिनकाउल्लेखभरतनेनाटयशास्त्रमेंकियाहै।इनतालोंकास्वरूपइसप्रकारहै:

चचत्पुट:                                                                          Š                                              = मात्रा८
                                                                          ता           

चाचपुट:                                                                                                                        =मात्रा६
                                                             ता                         ता                           

षटपितापुत्रक                          Š                                                                    Š              = मात्रा१२
                                                             ता                         ता                         ता

सम्पक्वेष्टाक                              Š                                                     Š                              = मात्रा१२
                                                ता                         ता                         वा

उदघट                                                                                                                            = मात्रा६
                                                नि                        

प्राचीनकालमेंमार्गीतालोंकेसाथदेशीतालोंकीभीपरिकल्पनाकीगईवअसंख्यदेशीतालोंकानिर्माणकियागया।सर्वप्रथमदेशीशब्दकाउल्लेखमतंगमुनिनेवृहद्देशीमेंकियाहैपरन्तुतालाध्यायलुप्तहोनेकेकारणदेशीतालकाविवरणप्राप्तनहीहोता।शारंग्देवनेसंगीतरत्नाकरमें१२०तालोंकाविवरणप्रस्तुतकियाहै।नन्दिकेश्वरद्वारारचितग्रन्थभरतार्वणमेंकुल११२तालोंकावर्णनहै, जिनकोकिअंगोंद्वाराप्रदर्शितकियागयाहै।इनतालोंमेंप्रथमपांचतालेंमार्गीतालहैतथाअन्य१०७तालेंदेशीतालेंहै।इसमेंसबसेकममात्राकीतालएकतालाहीहैजोकिआधेमात्राकीहैएंवसबसेअधिकमात्राकीतालसिंहनन्दनहैजोकि३२मात्राकीहै।इसीग्रन्थमें६मात्रा, ८मात्रा, ७मात्रा, ९मात्रा, १०मात्रा, १२मात्रा, १४मात्राआदितालोंकावर्णनभीप्राप्तहोताहै।
प्राचीनग्रन्थोंमेंसमानमात्राकीविभिन्नतालोंकाविवरणभीप्राप्तहोताहैजैसे- आठमात्राकीमार्गीतालचत्चप्पुटमतथादेशीताल, श्रीरंगताल, मण्ढताल, जयमंगलताल, नान्दीताल, प्रतिमढयताल, वर्णतालआदि।जिनकाप्रयोगसम्भवत: भिन्न-भिन्नप्रकारकीसंगीतरचनाओंकेलिएहोताहोगा।गर्ग, प्रभुलाल (१९४०)प्राचीनकालमेंअसंख्यदेशीतालोंकीरचनाकीगईपरन्तुकुछहीतालोंकाप्रयोगसंगीतमेंकियाजाताथाइसविषयमेंदूल्हाखाँजीनेस्वरसागरमेंलिखाहै
                                                "पंचहजारनौसौकई, तालकहावतनाम।
                                                इनमेंतेसोलहलिए, इनसेचलताकाम॥"

भारतीयसंगीतसेभारतीयसंस्कृतिकीपहचानहोतीहै, प्राचीनकालमेंतथापूर्वमध्यकालमेंमार्गीतथादेशीसंगीतपद्धतिप्रचारमेंथी,परन्तुउत्तरमध्यकालमेंउत्तरपरमुस्लिमआक्रमणकेपश्चातभारतीयसंगीतकेप्रारम्भिकस्वरूपपरअत्यन्तप्रभावपडातथामुस्लिमशासकोंकीरुचितथाउनकेसंगीतकीविशेषतायेंभारतीयसंगीतमेंसम्मिलितहोकरनवीनरुपमेंपरिलक्षितहुई।भारतीयसंगीतमेंध्रुपदधमारकास्थानख्यालगायकीनेलेलियावअन्यसंगीतशैलियाँजैसे : टप्पा, ठुमरी, दादराआदिश्रंगारिकशैलियोंकाप्रचारबढनेलगा।मुगलोंकेप्रभावकेकारणभारतीयसंगीतकीदोपद्धतियोंकानिर्माणहुआ।उत्तरभारतीयसंगीतपद्धतिवदक्षिणीसंगीतपद्धति, दक्षिणीभारतीयसंगीतमेंप्राचीनभारतीयसंगीतकीसैद्धान्तिकगरिमाकीरक्षाकीगईहैजबकिउत्तरभारतीयसंगीतमेंऐतिहासिकउत्थान-पतनकेकारणसंगीतकास्वरूपपरिवर्तितहोगया।
कुदेशिया, शोभा (२०१२)आधुनिककालदक्षिणभारतीयसप्तमुख्यतालोंकेप्रचारवविकासकाऐतिहासिककालकहाजासकताहै।सोलहवींशताब्दीमेंपितामहकेरुपमेंविख्यातपुरन्दरदासनेअलंकार, गीततथाकीर्तनआदिकेसाथइनसप्तसुलादितालोंकाप्रयोगकियाएंवप्रचारमेंलाये।तदोपरान्तमद्रांचल, रामदास, क्षैत्रेयारामदासस्वामीआदिसंगीतज्ञोंनेअपनीरचनाओंद्वाराइनतालोंकोअत्यन्तसमृद्धशालीबनाया, शीघ्रहीऐसीस्थितीआयीकिप्राचीनतालोंकालोपहोकरइनकाबहुलतासेदक्षिणीसंगीतमेंप्रयोगहोनेलगा।यहपद्धति"सप्तसूल्लादि"नामसेजानीगयी।प्राचीनतथामध्यकालीनतालोंमेंसेइनसातोंतालोंकाचुनकरइनकाविकासहुआतथाजातिभेदकेआधारपरक्रमश: ३५एंव१७५तालोंकीरचनाहुई |
वर्तमानदक्षिणीतालपद्धतिकामुख्यआधारअंगजातितथासाततालेंहै।दक्षिणीसप्तताल- ध्रुव, मठ, रुपक, झम्प, त्रिपुट, अठ, तथाएकतालोंकोप्राचीनपद्धतिकेसमानअणुद्रुत, द्रुत, लघु, गुरु, प्लुततथाकाकपदछ: अंगोंकेद्वाराप्रदर्शितकियाजाताहैतथाजातिचतुरश्र, त्रयश्र, खण्डमिश्रऔरसंकीर्णकेभेदकेआधारपर 7X5=35 कीरचनाकीजातीहै।
उत्तरभारतमेंमुगलप्रभावकेकारणउत्तरीसंगीतप्राचीनसंगीतपद्धतिकोसंजोकरनहीरखपाया, तथाउत्तरभारतीयसंगीतमेंअनेकपरिवर्तनआये।मध्यकालमेंध्रुपदतथाधमारगायकीकाप्रचारथाऔरपखावजकाखूबप्रयोगकियाजाताथा, मुस्लिमआक्रमणऔरशासनकेपश्चातभारतीयसंस्कृतितथाकलाओंपरयवनसंस्कृतिकाप्रभावपडनाप्रारम्भहोगया, अकबरयुगमेंध्रुपदकीचारबाणियांप्रचारमेंथी।मुगलशासकमुहम्मदशाहरंगीलेकेदरबारमेंअनेकव्यवसायीकलाकारथे, जिनमेंसेकुछपखावजीतथाकुछतबलावादकथे, तथाउससमयतबलातथापखावजकीघरानोंकीनींवपडनेलगी।ध्रुपदतथाधमारशैलीकाप्रभावकमहोनेकेकारणऔरख्यालगायकीकाअधिकचलनहोनेकेकारणपखावजकास्थानतबलेनेलेलिया, इसकेअलावाअन्यश्रंगारशैलियाँठुमरी, दादरा, टप्पाआदिप्रचारमेंआनेलगीजिनकाआधारतबलाहीथाऔरतबलाबदलतीजनरूचिकेअनुसारसर्वश्रेष्ठअवनद्धवाद्यबनगया।
बदलतीमान्यताओं, जनरूचीएंवपाश्चातसंस्कृतिकेप्रभावकेकारणतालप्रयोगतथातालस्वरूपोंमेंभीअनेकपरिवर्तनपरिलक्षितहोतेहै।प्राचीनकालमेंनिर्मितअधिकसंख्यावालीकिलष्टतालेंतथाउनेकसाथरचितरचनायेंलगभगसमाप्तहोचुकीहै।क्लिष्टतालोंकास्थानअबसहजतालोंनेलेलियाइनकानिर्माणविभिन्नसंगीतशैलियोंकेसाथसंगतकरनेकेलियेकियागया।संगीतमेंविभिन्नविधायें (गायन, वादन, नृत्य) तथासंगीतकीविभिन्नशैलियाँशास्त्रीयसंगीत, उपशास्त्रीयसंगीत, सुगमसंगीत, तथालोकसंगीतमेंतालकेप्रयोगकीविशिष्ठभूमिकाहै, शास्त्रीयसंगीतकीविधाओंमेंप्रयोगहोनेवालीतालोंकाप्रयोगउपशास्त्रीयसंगीत, सुगमसंगीत, तथालोकसंगीतमेंनहीकियाजाताहैजैसे : ख्यालगायकीमेंप्रयोगहोनेवालीतालेंतीनताल, झपताल, एकतालआदिकाप्रयोगख्यालगायकीएंवशास्त्रीयसंगीतवादनतकहीसीमितरहताहै।उपशास्त्रीयसंगीतमेंप्रयोगहोनेवालीतालेंदीपचन्दी, झपताल, पंजाबी, दादराआदितालोंकाप्रयोगठुमरी, दादरातकहीसीमितहै, एंवलोकसंगीतहेतुविभिन्नप्रदेशोंमेंलोकसंगीतकीआवश्यकतानुसारतालोंकाप्रयोगकियाजाताहै, तथाध्रुपद-धमारशैलीकेसाथपखावजपरबजनेवालीचारताल, सुलताल, तथातीव्रातालआदिकाप्रयोगकियाजाताहै।
प्रत्येकतालरचनाकाउद्धेश्यविभिन्नविधाओंकेसाथसंगतकरनासार्थकसिद्धहोताहै; विलम्बितख्यालकेसाथसंगतहेतुएकताल, तिलवाडा, झूमरातथाआडाचारआदितालोंकोहीनिश्चितकियागया, इनतालोंमेंधागेतिरकिटजैसेबोलोंकाप्रयोगकियाजाताहैक्योंकिधागेतिरकिटकोजितनाचाहेउतनाविलम्बितकियाजासकताहै,जैसेधाऽगेऽतिऽरऽकिऽटऽ|इनतालोंकाप्रयोगविलम्बितलयमेंसरलतासेकियाजासकताहै।
इसीप्रकारछोटाख्यालमेंअधिकतरमध्यलयतथाद्रुतलयमेंतीनताल, रुपकतालतथाझपतालतालेंप्रयुक्ततथाउपर्युक्तसिद्धहुईजिनमेंतबलावादकअपनेकौशलप्रयोगसेठेकेकाभराव, तिहाई, मुखडे, मोहरेरेले, कायदेआदिरचनाओंकाप्रदर्शनसौन्दर्यानुभूतिहेतुकरताहै।इसीप्रकारठुमरी, टप्पाआदिश्रंगारिकशैलियोंकेलिएदीपचन्दी, रुपक, कहरवा, दादराआदिश्रंगारिकतालोंकाप्रयोगकियाजाताहै, जिनमेंश्रंगाररसकीउत्पत्तिहोतीहै।
प्राचीनकालमेंतालरचनाकेवलतालकेदसप्राणकाल, मार्गक्रिया, ग्रह, अंग, जाति, कला, लय, यति, तथाप्रस्तारकेआधारपरकीजातीथी, परन्तुआधुनिककालमेंउत्तरीसंगीतमेंतालप्राणकेमूलस्वरूपमेंपरिवर्तनहुआ।तालरचनाकेलिएनयेसिद्धान्तनिश्चितकरदियेगयेजैसे:
. मात्राओंकीसंख्या
. तालकेअंगयाविभाग
. तालकीजाति
. तालक्रियाकास्थान
. तालमेंबोलोंकाचयन

वर्तमानमेंतालोंकाप्रयोगतबलेपरविभिन्नबन्दिशोंकायदोंकाउलट-पलटकरप्रस्तारकियाजाताहै।विभिन्नगतिभेदअथवालयकारियोंकेद्वाराचमत्कारिकप्रदर्शनकियाजाताहै|
कलाहमेंशासामाजिकपरिवर्तनसेप्रभावितहोतीरहतीहै, वर्तमानतालव्यवहारमेंपरिवर्तनभीसामाजिकवातावरण, जनरुचिकेआधारपरपरिलक्षितहुआहै।वर्तमानमेंतालव्यवहारिकस्वरूपसंगत, तन्त्रवाद्योंकेसाथ, नृत्यकेसाथ, वाद्यवृन्द, तालवाद्यकचहरी, जुगलबन्दी, फ़िल्मीसंगीततथासुगमसंगीतआदिकेसाथप्रयोगकियाजाताहै
गायनवादनतथानृत्यकेसाथसंगत:
अवनद्धवाद्योंकाप्रयोगमुख्यरुपसेगायनतथाअन्यसंगीतशैलियोंकेसाथसंगतहेतुकियाजाताहैसंगतिशब्दकामुख्यअर्थअनुसरणकरनाहोताहै, संगतकारकामुख्यकार्यगायन, वादनतथानृत्यमेंलयतथातालकोनियन्त्रितकरतेहुएसंगतकरनाहोता।वादक, गायकयानर्तककलाकारकोरचनात्मकसांगीतिकसहयोगदेताहै, कईबारसंगतकारगायककेदोषोकोउजागरनहीहोनेदेतेहैं।वर्तमानमेंवादककलाकारठेकेकोनयेरुपमेंसौन्दर्यपूर्णरचनात्मकताउत्पन्नकरनेमेंसक्षमहै।शास्त्रीयसंगीतमेंध्रुपदतथाधमारकेसाथपखावजवादनकीप्रथाथी, परन्तुवर्तमानमेंपखावजकेस्थानपरतबलेकेसाथध्रुपदधमारगायाजाताहै, आजपखावजकीतालेंचारताल, सुलतालजोध्रुपदतथाधमारजैसीगम्भीरशैलियांहैइनकातबलेपरखूबप्रयोगकियाजाताहै।
तंत्रवाद्योंकेसाथसंगत:
कुदेशिया, शोभा (२०१२)तालव्यवहारकास्वरूपवादनकेसाथसंगतहेतुभीदिखाईपडताहै, जिनमेंविशेषत: तंत्रवाद्यहोतेहैजोस्वरप्रधानहोतेहैइनकेसाथसंगतहेतुतबलेपरतालतथालयप्रदर्शनकियाजाताहै।"तन्त्रवाद्योंमेंध्वनिसुक्ष्मखण्डोंमेंउत्पन्नहोनेकेकारणछंदऔरलयकारीकेवादनकीसुविधारहतीहै, इसलियेउनमेंजोरचनायेंबजायीजातीहै, उन्हेंगतकहाजाताहै,उनकीवादनशैलीकोतंत्रकारीयागतकारीकेनामसेसम्बोधितकियाजाताहै।"गतेंदोप्रकारकीहोतीहै: . मसीतखानीगतजोप्राय: विलम्बितत्रितालमेंहोतीहैतथा२. रजाखानीगतजोमध्ययाद्रुतत्रितालमेंनिबद्धहोतीहै।अन्यतालोंमेंविलम्बितलयमेंबजायीजानेवालीगतोंकोक्रमश: ’मध्यलयकीगततथाद्रुतलयकीगतकहाजाताहै,मिजराबप्रहारसेबजायेजानेवालेवाद्योंकीवादनशैलीमेंछंदऔरलयकाअधिकमहत्वहोनेसेउनकीसंगतिमेंस्वतंत्रतबलावादनमेंप्रयोगकियेजानेवालेउठान, पेशकार, कायदा, रेला, तिहाई , मुखडा, गत, टुकडा, रौआदिरचनाओंकोकिसीसीमातकप्रयोगकरनेकाअवसरमिलजाताहै।वादकतबलेकेइनसंरचनाओंकेआधारपरसमुचितबोलसंयोजनाद्वारासंगतिकरताहै।तंत्रवाद्योंमेंझालावादनकेसाथतबला-वादककोठेकेऔररेलोकीतैयारीप्रदर्शितकरनेकाअवसररहताहै।घर्षणयाफ़ूंककेद्वाराबजायेजानेवालेवाद्योंकीध्वनिमेंस्थिरताअधिकहोनेसेवहकंठध्वनिसेकुछसाम्यरखताहै,इसीलिएइनवाद्योंमेंगायकीअंगकीशैलीकाप्रयोगकियाजाताहै।इनवाद्योंकेसाथगायनशैलियोंकीभांतिहीसंगतिकीजातीहै।
जौहरी, रिमा (२०११)नृत्यकीसंगतिगायनएंववादनदोनोंसेहीभिन्नएंवकठिनहोतीहै, नृत्यकेसाथसंगतसर्वाधिकबुद्धिचातुर्यएंवपरिपक्वतासेपूर्णकार्यहोताहै, इसविद्याकीसंगतमेंवादककोआरम्भसेहीअत्यन्ततैयारीएंवसूझबुझकेसाथकलात्मकक्षमताकापरिचयदेनाहोताहै।कत्थकनृत्यकेसाथसंगतिमेंतबलावादककोनर्तककेपैरोद्वारानिकालेगयेबोलोंकोउतनीहीमात्रावउसीवजनकेअनुरुपतबलेपरनिकालनाहोताहै।
उदाहरणकेलिएनृत्यकारकाबोल
                                "तत     तत          थेई          तिगधा    दिंग         दिग         "थेई"
हैतोइसीवजनकोध्यानमेंरखकर
                                "ति                       ता            धाधातिरकिट         धा"
तबलेपरबजायाजायेगा।
श्रीवास्तव, गिरीशचन्द्र (२००६) इसीप्रकारचारतालमेंनिषद्धगणेशजीकीस्तुतिदीजारहीहैजिसकासंक्षिप्तअर्थइसप्रकारहै - सुन्दरकानवाले, ज्ञानकेदेवताकानामगणपतिहैजिनकाबडासापेटऔरएकदांतहै।इनरचनामेंपौनेदौगुन (बिआऽ) कीलयकाअधिकप्रयोगहुआहै:
                                श्रवणसुनदरनाऽमगणपति    ज्ञाऽन      नाऽथग   जाऽन     नमधेटे
                                धाऽन                      धिकिट                    धाधिता                   धिऽनगतिरकिट,  
                                लऽबो                      दरएक                    दऽन्त                      धा, तिरकिट,          लऽम्बो    दरएक
                                दऽन्त                      धा, तिरकिट           लऽम्बो                    दरएक                    दऽन्त।    धा

वृन्दवादनयावाद्यवृन्द
श्रीवास्तव, गिरिशचन्द्र (२००६)"वाद्यवृन्दऔरवृन्दवादनदोनोसमानार्थकहै।आजभीभारतकीसाधारणजनतावाद्यवृन्दसेअधिकविदेशीशब्दआरक्रेस्ट्रासेपरिचितहै।साधारणअर्थमेंविभिन्नवाद्योंयाध्वनियोंकेसुमधुरसंयुक्तवादनकोवाद्य-वृन्दकहतेहै।स्वतंत्रताप्राप्तिकेबादवृन्दवादनकेक्षेत्रमेंअनेकमहत्वपूर्णकार्यकियागया।आकाशवाणीदिल्लीकेन्द्रमेंभारतसरकारकीओरसेवृन्दवादनकीएकयुनिटकानिर्माणकियागया, जिसमेंसुप्रसिद्धसितारवादकप०रविशंकर, बांसुरीवादकस्वश्रीपन्नालालघोषतथाजयराममणिअय्यरआदिप्रकाण्डविद्धानोनेअपनासहयोगदियाऔरउच्चस्तरकीवृन्दरचनाऐंतैयारकीआकाशवाणीकेवृन्दवादनकीटोलियाँसमय-समयपरविभिन्नकेन्द्रोंपरअपनाप्रदर्शनकरतीरहतीहै।"
आजवृन्दवादनयावाद्यवृन्दकाप्रसारधीमीगतिसेहोरहाहैइसकाएकमहत्वपूर्णकारणयहभीहोसकताहैकिप्रत्येकवाद्यकावादककोएकसाथनिश्चितसमयपरअभ्यासकरनापडताहै, अत्यधिकव्यस्तजीवनशैलीतथासमयकेअभावकेकारणकलाकारअभ्यासनहीकरपाते।
स्वतंन्त्रवादन:
जैसाकिनामसेहीज्ञातहोताहै, स्वतंन्त्ररुपसेकियागयावादन, स्वतंन्त्रवादनहोताहै।तालवादकअपनीइच्छानुसारतालव्यवहारकरनेहेतुपूर्णरुपसेस्वतंन्त्रहोताहै, एकलवादनप्रस्तुतकरतेसमयकुछतबलावादकजैसे : लखनऊघरानाकेकलाकारपहलेबन्दिशकीपढन्तकरतेहैं, तदुपरान्तबन्दिशोंकोतबलेपरउसकावादनप्रस्तुतकरतेहैजिससेश्रोतागणभीआनन्दितहोतेहैं।विद्वानोद्वारास्वतंत्रयाएकलवादनप्रस्तुतकरतेकीविधितैयारकीगईहैजिसकेअनुसारवादककोवादनप्रस्तुतकरनाहोताहै।प्रत्येकघरानेकीअपनीविशेषताहैउसीकेअनुसारतालवादकतालकाचयनकरताहैसाथहीयहभीनिश्चितकरताहैकिकिसघरानेकीशैलीमेंतालव्यवहारकरनाहैजैसे : बनारसघरानेकेकलाकारवादकउठानसेस्वतंन्त्रवादनप्रस्तुतकरतेहैजबकिफ़र्रुखाबादघरानेमेंचालातथाचलनविशेषरुपसेबजायाजाताहै।मध्यकालमेंघरानापद्धतिकाजन्महुआ।घरानापद्धितकेतबलावादकअपनेघरानेकाबखूबीप्रस्तुतकरतेथे, आजादीकेकईवर्षबादतकभीघरानेदारवादकवादनशैलीकाप्रदर्शनकरतेथेपरन्तुअबघरानोंकालोपहोजानेकेकारणभारतीयवादनपद्धतियोंमेंअनेकपरिवर्तनहुये।आजतबलावादकसभीघरानोंकीविशेषताओंकोअपनेवादनकेद्वाराप्रदर्शितकरताहै।सर्वप्रथमतबलावादकतालचुनावकेपश्चातहारमोनियमकेसाथअपनावादनप्रदर्शितकरतेहै, स्वतन्त्रवादनमेंउठान, पेशकारा, कायदा, रेला, गत, टुकडा, परन, चक्करदार, तिहाईआदितालविषेयकबन्दिशोंकोप्रस्तुतकियाजाताहै।पखावजवादनमेंरेला, पडार, तिहाईआदिकावादनकियाजाताहै।
तालवाद्यकचहरी:
जौहरी, रीमा (२०११)तबला, पखावज, ढोलक, नाल, नक्कारा, तासा, घटमआदिलय- तालवाद्योंकाएकनिश्चिततालऔरलयमेंक्रमसेअथवाएकसाथवादनकरनातालवाद्यकचहरीकहलाताहै।ऐसेप्रदर्शनमेंअनेकलय- तालवाद्योंपरविभिन्नलयकारियोंमेंकामबहुतमनोरंजकहोताहै।
तालवाद्यकचहरीमेंसभीवाद्यउत्तरभारतीयहोतेहैतालवाद्यकचहरीमेंतालवादनपेशकारायाउठानसेप्रारम्भकियाजाताहैफ़िरबाकिवादकबारी-बारीसेमिलतीजुलतीरचनाओंकावादनकरतेहैसंगीतगोष्ठीयोंमेंइसप्रकारकेआयोजनदेखनेकोमिलजातेहै।
जुगलबन्दयुगलबन्द:
जौहरीरीमा (२०११)इनदोनोंशब्दोंकाभावार्थऔरशब्दार्थएकहीहै।जुगलबन्दीउर्दुभाषाऔरयुगलबन्दीहिन्दीभाषाकाशब्दहै।फ़ारसीकेशब्दजुकतकाअर्थहैजोडायादो।इसीसेउर्दुमेंजुगलबन्दीशब्दबना, इसकाअर्थदोयाजोडाहै।इसप्रकारकेकार्यक्रममेंदोगायक, वादकयानृत्यकारपूर्वनिश्चितकिसीएकतालमेंयाएकरागमेंअपनाकार्यक्रमप्रस्तुतकरतेहै, जैसेप०रविशंकरऔरउस्तादअलीअकबरखांकीसितारवसरोदकीजुगलबन्दीयाप०राजनसाजनमिश्रकीगायनमेंयाउस्तादअल्लारखाखाँवजाकिरहुसैनकीतबलेमें"जुगलबन्दी" |
संगीतमेंजनरुचिकेआधारपरअनेकपरिवर्तनोंमेंसेएकपरिवर्तनतालभीहै।वर्तमानमेंतालव्यवहारकेवलप्रत्यक्षरुपसेइलैक्ट्रोनिकवाद्योंकेमाध्यमसेभीप्रदर्शितकियाजासकताहैतथाइसकाप्रचलनतथाप्रयोगबढताजारहाहै।जैसे: मैट्रोनोम, तालमाल, सुनादमाला |
मैट्रोनोम:
श्रीवास्तव, गिरीशचन्द्र (२००६)घडीकेआधारपरबनेइसयन्त्रकाअविष्कार"एमेर्स्टडम"केवैज्ञानिक"तिकिल"नेकियातथासुधारवियेनाके"जानमैजिलनेसन१८१६मेंकिया"यहयन्त्रघडीकेआधारपरबनाहैजोएकनिश्चितगतिघटायीऔरबढायीजासकतीहै।कुछसुधरेहुएयन्त्रमेंलयकेसाथ-साथतालकाभीआभासमिलताहै।जिसमेंएकनिश्चितमात्रासंख्याकेउपरान्तएकघंटीकीध्वनिभीसुनायीपडतीहै।यहसर्वविदितहैकिसंगीतस्वरऔरलयपरआधारितहैऔरएकसफ़लसंगीतज्ञबननेकेलियेयेदोनोगुणअपेक्षितहैप्राय: विद्यार्थीअभ्यासकरतेसमयअपनीनिश्चितलयभूलजाताहैऔरलयसेइधर-उधरभटकजाताहै।प्रत्येकसमयमार्गदर्शकयाशिक्षककाउपलब्धहोनासम्भवनहीहैअत: ऐसेसमयमेंमैटोनोमकाप्रयोगउपयोगीसिद्धहोताहै|
तालमाला:
इसयन्त्रकीआकृतिएकरेडियोकेसमानहोतीहैजिसमेंविभिन्नतालोंकेठेकेबजतेरहतेहैंजिसमेंआवश्यकतानुसारठेकोंकीगतिकोविलम्बित, मध्ययाद्रुतकीजासकतीहैअभ्यर्थियोंकेलियेयहयन्त्रअत्यन्तउपयोगीसिद्धहोरहाहैतालमालाकेसाथगायन, वादनतथानर्तनतीनोंप्रकारसेअभ्यासकियाजासकताहै।
सुनादमाला: (हारमोनियम)
सुनादमालाकोइलैक्ट्रोनिकलहराभीकहाजाताहै,यहयन्त्ररागोंतथातालोंसेजुडेलयात्मकधुनेप्रस्तुतकरताहैइसकीध्वनिहारमोनियमकीध्वनिकेसमानहीसुनायीपडतीहैइसयन्त्रमेंलय, सुरतथाध्वनिकीगतिकोभीनियन्त्रितकियाजासकताहै।
सामान्यत: इसप्रकारकेवाद्योंकाप्रयोगकेवलविद्यार्थीवर्गतथाफ़िल्मीवसुगमसंगीतमेहीउपयोगीपायागयाहैशास्त्रीयसंगीतमेंइसप्रकारकेवाद्योंकोअधिकमहत्वनहीमिलताहै।
भारतीयसंगीतकेतालव्यवहारमेंअनेकपरिवर्तनहुएजिसमेंसेएकविशेषपरिवर्तनतालकाठेकाकेरुपमेंदिखाईपडताहै, संगीतशास्त्रीयोंनेप्रत्येकतालकीपहचानकरनेकेलिएठेकानिश्चितकियाजोकिसीभीतालकापर्यायमानाजाताहै।डा०लालमणिमिश्रजीलिखतेहै"मध्यकालसेमृदंगवादनकीपद्धतिमेंजोसबसेबडाअन्तरहुआ, वहहैउसमेंतालविशेषकाठेकावादन।प्राचीनकालमेंतालकाठेकाबजानेकीप्रथानहीथी।तालकेठेकाकावादनकरनेकीजिसप्रथाकासूत्रपातमृदंगसेहुआउसकोतबलेनेपुष्पिततथापल्लवित्तकिया।विद्धानोंनेतबलासाहित्यकीसमृद्धिकेलिएमृदंगढोलक, नक्काराआदिसेबोललियेऔरउन्हेतबलाकेयोग्यबनालिया।"
प्राचीनकालसेआजतकवादनकेपाटाक्षरोंमेंभीअनेकपरिवर्तनहुएवर्तमानमेंतबलावादनगीतयागतकीप्रकृतितथावजनकेअनुसारबोलनिश्चितकरनवीनठेकाकानिर्माणकरसंगतकरताहै।
मिश्र, लालमणि (२०११)प्राचीनबोल:
                                . मटकत                घिघघट्घेघघोटट     मंधि         घंघन        घिघि।
                                                . घड      गुटु           गुटुमघे     दो            घिंघ          दुघि          दुघेंघि।
                                                . किंकाकिटुभेदकितां             किंकेकितांद             तसितां      गुटुग।
                                                . मद्धि    कुट          घेघेमत्थिद्धिघ            खुखुणंघे   घोट्त्थिमट।आदि

मध्यकालीनबोल:
                                                . ननगिड।गिडदगि॥
                                                . ननग्डिदि
                                                . नखुंनखुं
                                                . खचटकिट
                                                . घिकटघिकट
                                                . थोगिणि।थोथांगि॥
                                                . थिरकिथों॥
                                                . नगिझेंनगिझें॥आदि

वर्तमानमृदंगकेबोल:
                                                धुमकिट   धुमकिट   तकिटत   , किट
                                                धुमकिट   धुमकिट   तकिटत   का, किट
                                                धुमकिट   तकधुम    किटतक  गदिगन
                                                धा            देत           देत           धुमकिट   तक       धुम
                                                किटतक  गदिगन    धा            देत           देत
                                                धुमकिट   तकधुम    किटतक  गदिगन

वर्तमानतबलाकेबोल:
                                                धगिनधा   ऽगधग     धिनाऽध   गिनधग    धेनेगेने
                                                धातिरकिट्ध             गिनधग    तिनकिन।
                                                तगिन       ता            ऽगतग     तिनाऽतगिनतक       धिनगिन
                                                धातिरकिरध             गिनधग    धिनगिन॥
उपर्युक्तबोलोंकेअक्षरोंकेसामान्यअन्तरपरिलक्षितहोताहैजोविशेषकालकासूचकहै।जिसप्रकारबोलचालकीभाषामेंपरिवर्तनहोतारहाहै।यद्यपिउतनीमात्रामेंनही, मृदंगकेइनपाटाक्षरोंमेंभीलगभगउसीप्रकारकापरिवर्तनदृष्टिगोचरहोताहै
भारतीयसंगीतमेंजनरुचि, सांगीतिकवातावरणतथाआवश्यकतानुसारविभिन्नसमपदीतालोंकानिर्माणतथाप्रयोगनिश्चितकियागयाजैसे : तिलवाडाताल१६मात्रा, तीनताल१६मात्रा, आडाचार१४मात्रा, झपताल१०मात्रा, कहरवाताल८मात्रा, दादराताल६मात्रा, एकताल१२मात्राआदि।प्राचीनकालमेंप्रचलिततालोंकाप्रयोगअत्यधिकक्लिष्ठताकेकारणसमाप्तहोगयाअत: नवीनतालोंकाप्रचलनबढगया।आजसममात्रिकतालोंकाहीनहीअपितुविषममात्रिकतालोंकाप्रयोगस्वतन्त्रवादनतथासंगतहेतुकियाजानेलगाहै।प्राचीनभारतीयसंगीतमेंतालकेमुख्यतत्वजिनकोतालकेदसप्राणकहाजाताथातालपद्धतिमेंमहत्वपूर्णस्थानप्राप्तथापरन्तुवर्तमानमेंतालप्राणोंकाअधिकमहत्वनहीरहगयाहै।आजकलतालव्यवहारमेंक्रियाकाप्रयोगकेवलदोरुपोंमेंकियाजाताहैसशब्दक्रिया, निशब्दक्रिया।क्रियाकेअन्यप्रकारोंकाप्रयोगपूर्णत: लुप्तहोचुकाहै।अंगोकेस्थानपरविभागकाप्रयोगकियाजाताहै, तालविभागमेंमात्रासंख्याकेआधारपरतालकीजातिनिश्चितकीजातीहैजैसे: तीनतालचतुरश्रजातितथादादरातालत्रयश्रजातिकीहैइसकेअलावातालप्रस्तारकास्वरूपहीबदलगयाहैआजतबलावादकबन्दिशोकोउलटपलटकरतालकाविस्तारकरताहै।
प्राचीनकालमेंलयकोविलम्बित, मध्यतथाद्रुततीनोरुपोंमेंप्रयोगकियाजाताथा।औरवहआजभीप्रचलितहैपरन्तुआजलयकारियोंकाप्रयोगठाह, दुगुन, तिगुन, चौगुन, अठगुन, आड, कुआड, बिआडआदिकाप्रयोगवादनमेंरसोत्पादनतथासौन्दर्यनुभूतिहेतुकियाजाताहै।आजतालवादकतालकोआकर्षकबनानेकेलियेबांयेतबलेकोदबाकरयाढीलाकरकेध्वनिउत्पन्नकरताहै।जिसेदांबगांसकहाजाताहैअधिकतरधागेबजानेमेंदांबगांसकाप्रयोगकियाजाताहै।ठेकेकास्वरूपअधिकआकर्षकबनानेकेलिएठेकेकाभरावकरबजायाजाताहै।जिससेतालमेंसौन्दर्यउत्पन्नहोताहै।
उत्तरभारतीयसंगीतमेंप्राचीनकालसेवर्तमानतकअनेकपरिवर्तनपरिलक्षितहुएहैअत: परिवर्तनकामूलआधारसामाजिकजनरुचिहै।सामाजिकअभिरुचिकेकारणतालकाव्यवहारिकस्वरुपस्थापितकियागया।तालकेद्वारासामान्यजनकोआकर्षितकरनेकाकार्यकियागयाहै।आजतालव्यवहारसिर्फ़संगीतशास्त्रीयोंकोहीनहीसामान्यश्रोताओंकोभीआनन्दितकरताहै।

सन्दर्भग्रन्थ:
·         कुदेशिया, शोभाप्राचीनतालकेपरिपेक्षमेंवर्तमानतबलावादन, राधापब्लिकेशन्स, नईदिल्ली, २०१२, पृ०स०१२६, १२७, २४१.
·         गर्ग, प्रभुलाल, तालकीविशेषता(सम्पादकीय), संगीततालअंक, संगीतकार्यालय, हाथरस, १९४०, पृ०स०१०.
·         जौहरी, रीमा, वर्तमानपरिपेक्षमेंभारतीयताल: स्वरुपएंवप्रयोग (शोधप्रबन्ध), दयालबागएजुकेशनलइन्स्टीटयूट (डीम्डविश्वविद्यालय), दयालबाग, आगरा, पृ०स०१२८, १७२, १७३.
·         पाण्डे, सुधांशु, तालप्राण, सांस्कृतिकदर्पण, लखनऊ, २०१३, पृ०स०२.
·         मिश्र, छोटेलाल, तालप्रबन्ध, कनिष्कपब्लिशर्सएंवडिस्ट्रीब्युटर्स, २००६, पृ०स०१११, १०८
·         मिश्र, लालमणिभारतीयसंगीतवाद्य, भारतीयज्ञानपीठ, नईदिल्ली, २०११, पृ०स०२१०, २११
·         राताजन्कर, एस. एन. हिन्दुस्तानीसंगीतमेंतालविचार, संगीततालअंक, संगीतकार्यालय, हाथरस, १९४०
·         श्रीवास्तव, गिरीशचन्द्र, तालपरिचय, भाग-, रुबीप्रकाशन, इलाहाबाद, २००६, पृ०स०९५, १२७,१४०,१४१

ईरानी कवयित्री और ऐक्टिविस्ट नसरीन परवाज़ की कविता : अनुवाद और प्रस्तुति - यादवेन्द्र

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ईरानी कवियित्री और ऐक्टिविस्ट नसरीन परवाज़जेल की सज़ा भुगत चुकी हैं।मानव त्रासदी कितनी कितनी विकट होती है, फिर भी साधारण लोग अपने conviction के भरोसे इसपर काबू पा लेते हैं। 

जेल में प्रेम 
               -- नसरीन परवाज़

उसकी मुस्कान से लबालब आँखें 
मुझे याद दिला रही हैं हमारे पहले चुम्बन की  

तभी कानों को भेदती हुई आवाज़ आती है गार्ड की :
पाँच मिनट .. और छूना नहीं ... बस दूर से

हम दोनों के बीचों बीच एक टेबल पड़ा ह
पर मैं सुन पा रही हूँ उसकी एक एक साँस 

चुप्पी वही तोड़ता है :
सुनो ,तुम जेल से जल्दी ही छूट जाओगी 
मैं चाहता हूँ तुम मुझे भूल जाओ 
मान लो जैसे मैं इस दुनिया में कहीं हूँ ही नहीं 
किसी भले इंसान को देखो  
जो हमारी औलाद को अपना मान ले 
और उस से निकाह कर लो।

उसके ये शब्द मुझसे बर्दाश्त बाहर थे 
मैं भला तुम्हें कैसे भूल सकती हूँ
हमारी औलाद को तुम्हारे बारे में सब कुछ मालूम होगा। 

बिलकुल नहीं ,मैं तुम्हारा अतीत हूँ
मेरी यादों के साथ जिन्दा रहने के कोई मायने नहीं 
बच्चे को भविष्य चाहिए 
तुम अतीत नहीं भविष्य के साथ जीवन जियो। 

चलो ,अब मुलाकात का समय ख़तम हो गया .... 

झट से वह टेबल पर कमानी सा झुका 
और चूम लिया मेरा मुँह 
मेरी कोख में पल रहा बच्चा हिलने डुलने लगा था  
कि तभी गार्ड आकर घसीट ले गया उसको 
गोली से उड़ाने को .... 


मालिनी गौतम की कविताएं

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1. दर्द पके-पके-से

लड़की जब भी देखती है 
काँच के पानी भरे ग्लास में पड़े 
बर्फ के चौकोर टुकड़े को 
उसे लगता है 
एक और ज़िंदगी डूब गयी...
पिघल-पिघल कर पानी हो गयी...

घूँट-घूँट उतरते पानी में 
फ्रीज़ होता जाता है पोर-पोर 
और जीने की एक रेशमी-सी डोर 
सर्रर्ररर से फिसल जाती है 
बेजान उँगलियों से..

लड़की रात भर
सपनों में देखती रहती है 
ट्यूमर की सर्जरी के कारण कटे बालों वाले 
कीमोथेरेपी से झड़े बालों वाले चेहरे
जिनकी हँसी सबसे ज्यादा दर्दनाक होती है

वो अक्सर आँख-मिचौली खेलती है 
इस दर्द से
अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर 
नज़रें चुराकर झाँकती है
कैंसर की गाँठों में, ट्यूमर में 
और बेबस-सी देखती है 
वहाँ पलते अवसाद, घुटन, 
बैचेनी, प्रतिरोध, तनाव, और आक्रोश को...

इंच-इंच छूकर महसूसती रहती है 
अपने शरीर पर उगती गाँठों को 
पगली है....इतना भर नहीं जानती 
कि मुट्ठी भर ज़मीन 
और बित्ता भर आसमान पर भी 
अपना नाम न लिख पाने की पीड़ा 
कब धीरे-धीरे गाँठों में बदल जाती 
है कोई नहीं जानता .....
***

2.  प्रेम खिचड़ी-सा

प्रेम के बिखरे-बिखरे रंग
लड़की को समझ नहीं आते
पहले पहर के गुलाबी प्रेम का
दिन ढलते-ढलते साँवला हो जाना
उसे पूरी रात बैचेन करता रहता है

वो प्रेम में समरस होना चाहती है  
लड़की अक्सर सोचती है
कि ये प्रेम खिचड़ी-सा क्यों नहीं होता..
.दाल, चावल, मिर्च-मसाले.
.किसी का अलग-अलग अस्तित्व नहीं ...
फिर भी थाली और मुँह
कैसे भरे-भरे लगते हैं  

लड़की हर रोज़ प्रेम के
बिखरे-बिखरे स्वाद और रंग इकट्ठे करती रहती है
खालिस देसी प्रेम के तड़के में
सारे रंग-स्वाद पकाती है ।
एक..दो...तीन...दिन बीतते जाते हैं
प्रेशर कुकर की सीटियों की तरह,
पर खिचड़ी जैसा प्यार नहीं पकता  

लड़की बार-बार जलती है..
सहेजती है आत्मा पर पड़े
बैचेनी और इंतज़ार के फफोले ..
पर हिम्मत नहीं हारती।
अधपके प्यार में से फिर चुनती है
चावल का स्वाद ... सब्जी का रंग ...और
भोरे-भोरे सीले जीवन को
सुलगाती, फूँक मारती...
फिर पकाने में जुट जाती है
खिचड़ी जैसा प्रेम ....
पगली है ....समझना नहीं चाहती
 कि खिचडी पकने के लिए आँच का,
बरतन के बाहर और अंदर
एक-सा होना जरूरी होता है ।
***
 
3.  सौ से शून्य तक
 
लड़की हर रोज
शुरू करती है काउंटडाउन
सौ से शून्य तक...
अंतिम दस से शून्य तक
गिनते समय
बेहद सतर्क हो जाती है
दस,नौ,आठ.....तीन,दो,एक
जैसे शून्य बोलते ही
उसके आस-पास की दुनिया
बिल्कुल बदल जायेगी....

लड़की के लिए वक़्त
हिलता हुआ पेंडुलम नहीं है
बल्कि दीवार पर टँगी सुनहरी फ्रेम है
जिसके चित्र कभी नहीं बदलते

लड़की नींद आने के डर से
पलकें नहीं झपकाती
उसे सपने में दिखती हैं
सफेद कपड़ों वाली...कटे पंखों वाली परियाँ
सब के सब एक जैसे चेहरों वालीं
माँ-नानी-दादी के
मिले-जुले चेहरों वाली परियाँ
जो पीठ पर अँगीठियाँ बाँधे
पकाती रहतीं हैं जिंदगी
कभी कच्ची तो कभी पक्की

लड़की बार-बार कोशिश करती है
पंखों को सँवारने की
अपनी पीठ के अंगारों पर
विस्मृति की एक बर्फीली सफेद चादर ढँकने की
और पुनः शुरू करती है काउंटडाउन
सब ठीक होने की उम्मीद में
पगली है ...
नहीं जानती कि
लड़कियों के हिस्से में फफोले ही आते हैं
ज़िन्दगी कम पके या ज्यादा ......
***
 
4. इश्क जामुनी-सा

लड़की बगीचे में बैठकर हर रोज़
एक उचटती सी नज़र डालती है
लाल गुलाब पर...

सुर्ख़ गुलाब देखकर
अब उसके चेहरे का रंग लाल नहीं होता..
दीवारों से झड़ते पलस्तर-सा
झड़ जाता है रंग उसके चेहरे का  

अतीत के अलग-अलग सिरे पकड़ कर
वह गूँथने लगती है चोटी
और आखिरी सिरे पर
बाँध देती है एक लाल रिबन कसकर
ताकि वापिस लौटने की
 कोई भी सँकरी गली
खुली न रह जाये।

लड़की की पुरानी फ्रॉक की जेब में
अब भी फड़फड़ाती हैं कुछ तितलियाँ ...
जिन्हें उसने चुराया था
किसी की झरने-सी चमकती हँसी से  

हर दिन तितलियों को
मुक्त करने की जद्दोजहद में
वह पके घाव-सी रिसती चली जाती है
मुक्त करने और मुक्त होने के
 इस निरन्तर प्रयास में
उसने तय की है यात्रा
लाल से जामुनी रंग तक की  

लड़की इन दिनों
उगाना सीख रही है
वक्त की क्यारियों में
जामुनी बूगनबेलिया,
जामुनी डहलिया, जामुनी कमल और जामुनी गुलाब....
उसे शिद्दत से है इंतज़ार
उस दरवाज़े का जिस पर
अपने दोनों हाथों की जामुनी छाप लगाकर
वह लाल रंग को अलविदा कह सके....

बावरी है ....
नहीं समझती कि रंग भी अभिषप्त हैं
अपनी सदियों से गढ़ी परिभाषाओं से ...
इश्क का रंग
भला कब जामुनी हुआ है ...
***
 
5. जूठे जामुन जैसे ख़्वाब

लड़की हर रात नींद में भी
अंजुरी भर-भर के
पानी छाँटती रहती अपनी आँखों पर
इस उम्मीद में कि शायद
धूल-मिट्टी और किरचों के साफ़ होने पर
उसे दिखाई देने लगेंगे
वो सपने, वो लोग
जिन्हें वो नींद में भी देखना चाहती है

 इंतज़ार की कच्ची डोर बार-बार टूटती
अब डोर में डोर कम गिरहें ज्यादा थीं
 उलझे बालों की लटें भी
सुलझने के इन्तजार में
और उलझती चली जा रहीं थीं

ऐसी तमाम रातें
लम्बी-लम्बी उम्र लिखवा कर लातीं अपने नाम ..
लड़की रात भर दम साधे
अँधेरे के लट्टू पर
उजालों के धागे लपेटती
और जैसे ही चहचहाती दूर कहीं.. कोई चिरैया
वो अपने सपनों पर लगा देती
पलकों का ताला 

आईने के सामने खड़ी होकर
अंजुरी भर पानी छाँटती चेहरे पर
और गौर से देखती
लाल-लाल, फूली-फूली आँखों को
गोया पलकों के एक किनारे पर
कहीं कोई सपना
छूट तो नहीं गया न
पगली है ....
इतना आसान होता है क्या
सुग्गे के जूठे जामुन जैसे
मीठे जामुनी ख़्वाबों का नींद में आना .....
***
 
6. पीठ पर जंगल
 
लड़की अपनी पीठ पर
एक शहर लादे चलती है
जिसमें बेतरतीब फैले हैं यादों के जंगल..

उम्र की हर सीढ़ी पर
उसके रोपे हुए तुलसी के बिरवे
कब कँटीले बबूल बन जाते हैं
उसे पता ही नहीं चलता,
उससे एक हाथ आगे चलती नदी
भरी बरसात में गायब हो जाती है
किसी के कमण्डल में
और वह
उदासियों की मुस्कराहट ओढ़े
पीछे बची रेत पर
काग़ज की छोटी-छोटी कश्तियाँ
तैराती रहती है..
छोटी-सी खिड़की वाले एक घर में
कभी उसकी हँसी फैलकर 
बरगद बन गयी थी,
उसकी कुर्ती का गुलाबी रंग
किसी के होठों पर फ़ैल गया था..
लड़की अब भी शहर के
बाहर बने मन्दिर में
घण्टियाँ बजाती है,
अपनी पीठ पर चुभे काँटे 
घाट पर धोती है
नींद में फूटते हैं तुलसी के बिरवे
उसकी आँखों में
बरगद पर झूले पींगें लेते हैं,
नदी समो जाती है उसके दुपट्टे में
और गुलाबी रंग गहरा कर जामुनी बन जाता है

बावरी है लड़की
फूलों की चाहत में पीठ पर
काँटे उठाये चलती जा रही है...
***
 
7. अक्कड़-बक्कड़ बम्बे-बो

लड़की घुटनो में चेहरा छिपाये
जार-जार रोती है
रोने के अनेकों कारण 
पतझर के पीले पात-से
हौले-हौले उड़े चले आते हैं
लड़की..अक्कड-बक्कड़ बम्बे बो
अस्सी- नब्बे पूरे सौ ..गिनकर
कारण और आँसुओं को मैच करती रहती है 
कलेजे से उठती हूक का
असली कारण इमली के पेड़ पर
फंदा लगाकर झूल जाता है...

वो चारपाई-सी चरमराती रहती है
कैलेंडर के बदलते पन्नों
और तारीखों के शोर में
गुजरते वक्त से 
बार-बार गुजरने की चाहत में 
ढलते बरस की आख़िरी सीढ़ियों पर खड़ी 
वो बेबस-सी तलाशती है
वापिस लौटने वाली सीढ़ियाँ
लड़की सहमते-सहमते 
पहनती है इन दिनों 
यादों के स्वेटर
कि डरती है अब वो
स्वेटर की तरह उधड़ जाने से,
फंदों को बुनना-उधेड़ना
उठाना-गिराना आया ही नहीं उसे,
वो तो कड़कड़ाती ठण्ड में भी
खुरपी लिए करती रहती है
यादों की गुड़ाई-निराई
सींचती है उन्हें आँसुओ से
और देखती है उनका घावों को चीरकर
अँखुआना, फूटना, पल्लवित होना

बावरी है लड़की
नहीं जानती कि
जब-जब यादों पर फूल खिलेंगे
वह फिर से रोयेगी जार जार
और फिर एक हूक 
लटक जायेगी इमली के पेड़ पर ...
***
 
8. एक बदरंग कोलाज

लड़की रोज़ आँखों में 
काजल आँजती है
उसे लगता है कि
काजल लगाने से उसकी आँखे
बड़ी-बड़ी हो जायेंगी
और वो नींद में देख सकेगी
बड़े-बड़े सपने,
उदास नींद,खारे आँसू, जिद्दी सपने
सब काजल के साथ मिलकर बनाते
एक बदरंग-सा कोलाज
हर सुबह लड़की के चेहरे पर,
परछाइयों पर परछाईयाँ जमती चली जातीं
और खिली धूप-सी लड़की 
साँवली होती चली जाती

लड़की भटकती है 
जंगल-जंगल,पहाड़-पहाड़
अपनी मुट्ठी में दबाये सपनों के बीज,
अपनी आँखों पर भरोसा नहीं उसे
वो तलाशती है उन आँखों को
जो उसके सपनों का गर्भ पाल सकें
आँखें मिलतीं...लड़की हौले से रोपती 
उन आँखों में अपने सपनों के बीज
दिन चढ़ते...पात टूटते....फूल झरते
मौसम बदलते
और न जाने कब आँखें भी बदल जातीं
सपने सड़ जाते
पकने के पहले ही...
लड़की इन दिनों आईना नहीं देखती
डरती है वो अपनी आँखों से
अपनी आँखों में बसी आँखों से
लड़की आजकल
अपनी टूटी कलम से 
काग़ज पर सपने लिखती है 
बावरी है ...नहीं जानती
कि काग़जी सपने कभी सच नहीं होते ।
***
मालिनी गौतम
574, मंगल ज्योत सोसाइटी
संतरामपुर-389260
जिला-महीसागर
गुजरात
मो. 9427078711









गज़ब कि अब भी, इसी समय में - राकेश रोहित के कविकर्म पर अनुराधा सिंह

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जब नष्ट हो रहा हो सब कुछ
और दिन आखिरी हो सृष्टि का
मेरी प्रियतुम मुझे प्यार करती रहना!
...क्योंकि यह प्यार ही है
जिसका कविता हर भाषा में अनुवाद
उम्मीद की तरह करती है।
          (अनुनाद, २०१५)

एक कवि जो लगातार कविता की सम्प्रेष्णीयता और सार्थकता पर एकांत में बैठा लिख रहा है और विश्वास कर रहा है उसके चरित्र की अनश्वरता पर, वह कवि राकेश रोहित हैं. राकेश रोहित की कविता लाउड नहीं है, और यह जानते ही उनकी कविता के दूसरे आयाम अनायास स्पष्ट होने लगते हैं. ये बड़े फलक की कविताएँ हैं जो प्रकृति के माध्यम से जीवन का लगभग हर पक्ष छू लेती हैं. इस घोर हड़बड़ी और उथल पुथल के समय में ये कविताएँ वह अंतराल प्रस्तुत करती हैं जहाँ खड़े होकर हम उनके लिखे हुए पर मनन कर सकते हैं. कवि के ह्रदय का जीवट और धैर्य उनकी कविताओं में भी परिलक्षित है.
उनकी विषय वस्तु प्रायः प्रेम, दुःख, जीवन और कविता है, जिसे वे क्षिति जल पावक गगन समीर से साधते हैं. उनकी कविता स्थूल से सूक्ष्म की तरफ बहती है. प्रकृति सायास बिम्बों के रूप में उपस्थित नहीं होती बल्कि यह तो चट्टान के नीचे का सतत नए आकार धरता अथाह पाताल है.

इच्छाओं ने मनुष्य को अकेला कर दिया है
आत्मा रोज छूती है मेरे भय को
मैं आत्मा को छू नहीं पाता हूँ।
मैं पत्तों के रंग देखना चाहता हूँ
मैं फूलों के शब्द चुनना चाहता हूँ
संशय की खिड़कियां खोल कर देखो मित्र
उजाले के इंतजार में मैं आकाश के आँगन में हूँ।

ऐसे विराट दृश्य गढ़ती है उनकी कविता . लगता है कि जैसे एक दिन ये सब चुक जायेंगे, ये दृश्य, ये शब्द, ये बिम्ब और इन सबसे बनने वाली उनकी कविताएँ भी लेकिन ऐसा नहीं होता. राकेश की कविताओं में प्रकृति जीवन के सारे तत्व: अपनी हरियाली और तरलता में डुबो कर पुनः प्रस्तुत करने के लिए ही अपने भीतर समेटती है.  हर कविता में उन्हें सांगोपांग परिवर्तित कर देती है, :

इसलिए जब मैं एक वृक्ष के बारे में बोलता हूँ
मैं उस वृक्ष में छिपे
थकेआश्रय लेते 
हजार अकेलेपन के बारे में सोचता हूँ।

वृक्ष का अकेलापन एक मुखर कविता के रूप में ढल जाता है और एक अनासक्ति प्रवाहित होती है अनायास पाठक के ह्रदय में.

वे कविता को केन्द्र में रखकर बहुत  कविता कहते हैं क्योंकि उन्हें उसकी अगोचर और सर्वव्याप्त सत्ता पर विश्वास है. शायद अलौकिक सत्ता से भी कहीं आगे पाते हैं इसे वे :

मैं समझता हूँ
सृष्टि की तमाम अँधेरी घाटियों में
केवल सूनी सभ्यताओं की लकीरें हैं
कि जहाँ नहीं जाती कविता
वहाँ कोई नहीं जाता.

एक कवि के लिए कविता शब्दों की बाज़ीगरी न होकर एक सप्राण अस्तित्व हो, इससे बड़ी बात क्या हो सकती है. केवल कविता को ही नहीं अपनी कविता में लाये हुए हर बिम्ब को वे इतनी ही संवेदनशीलता से निबाहते हैं .

उनके लिए नदी एक स्त्री है घुटनों तक अपना परिचय साथ लाती हुई.

नदियाँ तो अकसर
हमसे कुछ फ़ासले पर बहती हैं
और हमारे सपनों में किसी झील-सी आती हैं
पर मैं कब चाहता हूँ नदी
अपने इतने पास
जितने पास समुद्र
मेरे सामने टँगे फ्रेम में घहराता है.

नदी का अस्तित्व उन्हें जीवन में पिता के होने की सी आश्वस्ति देता है-

कितना भयानक होगा
उस समुद्र का याद आना
जब पिता पास नहीं होंगे
किसी नदी की तरह.

राकेश की भाषा व्यक्तिगत रूप से प्रभावित करती है मुझे. यह न केवल बहुत परिमार्जित भाषा है बल्कि कविताकर्म  के अनुरूप गति तरलता और कोमलता से भरपूर है. और उनकी कविता के वैचारिक और यथार्थवादी फसाड के अनुरूप भी है. उनका कवि निरंतर है. उन्होंने उसे ऐसे साध लिया है जैसे चलना, खाना और जीना साध लिया जाता है. वे कहते हैं मैंने अपने जीवन की किरचों को बंद ग्लास के भीतर रख दिया है. यह देखने वालों को सुंदर लगता है और चुभता सिर्फ मुझे है.

उनकी कविता में दुःख है एकांत है लेकिन वह पाठकों को चुभता नहीं है, दर्शन के सांचे में ढल कर कविता बन जाता है. हर कवि दुःख पर सबसे सहज हो लिखता है लेकिन राकेश ने पहले दुःख को भोथरा किया तब उस पर कविताएँ लिखीं क्योंकि अनगढ़ दुःख कविता नहीं एकालाप सिरजता है। उनका मनुष्य और कविता दोनों इस बिखराव से दूर हो पक चुके हैं.

दुख वही पुराना था
उसे नयी भाषा में कैसे कहता
पुरानी भाषा में ही
निहारता रहा अपना हारा मन
जब लोग युग का नया मुहावरा रच रहे थे.

ये कविताएँ जीवन के ठोस धरातल पर खड़े होकर सोचे गए सच की कविताएँ हैं. ‘मंगल ग्रह पर एक कविताऔरविषाद की कुछ कविताएँश्रंखला में कविता की सहजता और माधुरी ओढ़ कर यदा कदा विज्ञान भी आता है. जैसे

मेरा मन
इसे नहीं खींचता धरती का कोई बल
इसका कोई भार नहीं है
न ही कोई आयतन
फिर भी यह थिर क्यों नहीं होता.

वे अपने एकांत में गहमा गहमी से दूर कविता करते रहते हैं लेकिन दुनिया के क्रीड़ा कौतुक देखना नहीं भूलते . अपनी कविता"ग़ज़ब कि अब भी, इसी समय में'उन्हें खेद है कि इन्सान को दूसरे इन्सान की उपस्थिति या अस्तित्व का आभास तक नहीं. रोज़ मन में दर्शन के ऐसे सवाल उठते हैं कि नींद में देह जीवन से अलग होकर कहाँ जाती है आखिर. वे कहते हैं

ग़ज़बकि इस समय में मुग्धता
नींद का पर्याय है।

समय इतना नृशंस हो चुका है कि कवि प्रेम के व्यक्त न होने की आशंका भर से व्यथित हो जाता है. वे कहते हैं कि:

ग़ज़बकि ऐसे समय मेंअब भी,
तुम्हारे हाथों में मेरा हाथ है।

जिन्हें यह लगे कि राकेश ऐसे कोमल कवि हैं जो मात्र चाक्षुष प्राकृतिक बिम्बों के साथ अद्भुत प्रयोग कर सकते हैं उन्हें ये कविताएँ भी पढ़ लेनी चाहिए. कवि का एक नया आयाम खुलेगा उन पर. उनकी कवितामेरे अन्दर एक गुस्सा हैका अंश..... कई बार बहुत कोमल बिम्बों के माध्यम से ऐसा अशमनीय क्रोध व्यवस्था, ज़माने और व्यक्ति के लिए कविता के रूप में उमड़ पड़ता है.

एक जंग जैसे है दुनिया, एक दिन जीता, एक दिन हारा
कुछ मन में छुपाए बैठा हूँ, कुछ सब को बताए बैठा हूँ ।

हाय ! हमें ईश्वर होना थाबहुत क्षति के भाव की कविता है . वे मानते है कि धरती के सारे शब्दों की सुन्दरता है इस एकईश्वरशब्द में, यह सबसे छोटी प्रार्थना है. अभिमंत्रित आहूतियां, पितरों के सुवास और जीवन की गरमाई से बना है ईश्वर का अस्तित्व. इसलिए प्रत्येक विशिष्ट इंसान के लिए आवश्यक था कम से कम एक बार ईश्वर हो पाना .

सोचो तो जरा
सभ्यता की सारी स्मृतियों में
नहीं है
उनका ज़िक्र
हाय ! जिन्हें ईश्वर होना था

रेखा के इधर उधरमें मनुष्य के द्वारा अपने ही लिए बनायीं गयी वर्जनाओं और सीमाओं के प्रति खेद प्रकट किया है . केवल एकरेखाशब्द के माध्यम से हम इतनी बड़ी बात मानव जीवन की अन्यतम त्रासदी को अप्रतिम रूप से उद्घाटित कर लेते हैं।

मैंने नहीं चाही थी
टुकड़ों में बँटी धरती
यानी इस ख़ूबसूरत दुनिया में ऐसे कोने
जहाँ हम न हों
(नवनीत पत्रिका)

उनकी कविता बाज़ार के अतिभौतिकतावाद की परतें भी उधेड़ती है. बाज़ार में वह हर वस्तु और व्यक्ति बिक जाता है जिसका दाम लगा हुआ है लेकिन बाज़ार असम्प्रक्त है और निर्दयी भी. उन लोगों को पूछता भी नहीं जिनका सांसारिक सफलता के पैमाने पर कोई मूल्य न हो. यह कविता एक डिफरेंट मूड शेड की कविता है  जो अनुभवों के जरिये ज़िन्दगी को बहुत कुछ सिखा जाती है.

अब उसमें थोड़ा रोमांच है, थोड़ा उन्माद
थोड़ी क्रूरता भी
बाज़ार में चीज़ों के नए अर्थ हैं
और नए दाम भी।

राकेश की कविताएँ मुझे जीवन से जोड़े रखती हैं. कविताएँ वैचारिक हैं और व्यवस्था का विद्रूप भी प्रस्तुत करती हैं लेकिन कहीं भी वे जीवन से नहीं कटती हैं. जैसे प्रेम अपने कोमलतम रूप में उपस्थित है भले ही वह है, एक पीड़ा, टीस और विरह के आभास के साथ.

वह जो तुम्हारे पास की हवा भी छू देने से
कांपती थी तुम्हारी देह
वह जो बादलों को समेट रखा था तुमने
हथेलियों में
कि एक स्पर्श से सिहरता था मेरा अस्तित्व.....और जब कहने को कुछ नहीं रह गया है
मैं लौट आया हूँ .

राकेश रोहित की कविताएँ हैं संवेदना की, सृष्टि की कविताएँ, जूनून भी है इनमें. यह कविता है एक निडर जीवन पर्व की जिसे कवि जी लेना चाहता है विश्रांति से पहले, लक्ष्य पर पहुँचने से पहले, उत्साह चुकने से पहले. नैसर्गिक अंडरटोन के साथ दार्शनिकता भी सतत बहती है राकेश की कविताओं में. वे अपने काव्यकर्म में उस कड़कती बिछलती दामिनी की तरह नहीं हैं जो आँखें चौंधियाते और गर्जना करते हुए प्रकट होती है और अचानक लुप्त हो जाती है. वे चन्द्रमा के निरंतर व शीतल प्रकाश के साथ बने रहेंगे लगातार अभूतपूर्व कविताएँ रचते हुए, और अपनी सुन्दर वैचारिक कविताओं से हिंदी कविता के फलक को और अधिक समृद्ध करते हुए. और इसी प्रकार पूरी होती रहेगी उनकी यह अभिलाषा- -

चाहता हूँ कविता ऐसे रहे मेरे मन में
जैसे तुम्हारे मन में रहता है प्रेम!

 अनुराधा सिंह

यहां कविता में पुराने छंद चाहे न आ रहे हों किन्तु उन छंदों की लय आज भी बची हुई है - वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह से महेश पुनेठा की बातचीत/3

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महेश चंद्र पुनेठा -आप कविता के केंद्र में मनुष्य भाव को मानते हैं.कविता ही मनुष्य भाव की रक्षा करती है.यह अच्छी कविता का एक आधार बिंदु है. आखिर यह मनुष्य भाव क्या है ? भाव और मनुष्य भाव में क्या अंतर है? कविता में मनुष्य भाव का विस्तार कैसे संभव है?

जीवन सिंह-मनुष्य भाव दरअसल वे भाव हैं जो एक व्यक्ति की मनुष्यता को व्यक्त करते हैं।लेकिन इस संघर्षशील और वर्ग विभाजित दुनिया में बहुत आसान काम नहीं है।इसे समझते हुए उन ताकतों को पहचान कर संघर्ष करना पड़ता है जो मनुष्य भावों की विरोधी होती हैं।इसे आचार्य शुक्ल ने लोकमंगल की साधनावस्था कहा है। पुराने साहित्यशास्त्रियों ने मनुष्य के मन में नौ स्थायी भाव बतलाए हैं जिनमें प्रेम,क्रोध, उत्साह, घृणा,करुणा, भय,हास,आश्चर्य आदि भाव आते हैं।इन भावों की क्रिया-प्रतिक्रिया में सारा मनुष्य जीवन संचालित होता है।साहित्य सृजन इसी भाव संसार के भीतर होता है।मनुष्य अच्छाई से प्रेम करता है तो बुराई से घृणा और क्रोध भी।वह पीडित के प्रति करुण होता है तौ उसके मन में उत्पीडक के प्रति क्रोधित।वह भयानक से भयभीत होता है तो अचरज की बातों से आश्चर्यचकित।यह मनुष्य जीवन की भाव प्रक्रिया है।चूंकि मनुष्य एक विचारशील प्राणी भी है इसलिए भाव प्रक्रिया के साथ विचार प्रक्रिया भी चलती है जो भावों को अनुशासित करते हुए उनको सही दिशा भी प्रदान करता है। लेकिन यह सब व्यक्ति की अपनी स्थिति से तय होता है।

आधुनिक शब्दावली में मुक्तिबोध ने इसी को संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना नाम दिया।चूंकि समाज में अनेक तरह के उत्पीड़क होते हैं जो बिखरे हुए अच्छे लोगों का अपनी ताकत से उत्पीडन करते हैं इसलिए समाज के भीतर अनेक तरह के संघर्ष चलते रहते हैं।इनकी सही समझ जब तक किसी रचनाकार को नहीं होती, वह अच्छा और प्रभावी साहित्य नहीं रच सकता।

मनुष्य प्रकृति की संतान है ।इसलिए प्रकृति के प्रति भी हमारे मन में तरह तरह के भाव उत्पन्न होते रहते हैं।इन सबका प्रभाव मन पर पड़ता है जो हमारे भावों को उर्वरता प्रदान करता है। कोई भाव तभी मनुष्य भाव बनता है जब वह अपनी व्यक्तिगत सीमा से बाहर निकल कर सबका भाव बन जाता है अर्थात निजी भाव का जब साधारणीकरण हो जाता है।दुनिया में हरेक माँ अपने बेटे को प्यार करती है ।अपने परिवार से सबको लगाव होता है।हमारे प्रति जब कोई अन्याय करता है तो हमको गुस्सा आता है।निजी परेशानियों और मुश्किलों-तकलीफों से निजी स्तर पर सब दुखी होते हैं।यह भावस्थिति है यहाँ मनुष्य भाव नहीं।मनुष्य भाव वह तब बनता है जब हम सबके दुख में दुखी होते हैं और यह प्रयास भी करते हैं कि कोई दुखी न रहे।हमारे स्वाधीनता सेनानियों ने ऐसा किया और अपने स्तर पर मनुष्य भाव का सर्वोच्च प्रदर्शन किया।ऐसे ही छोटे छोटे स्तरों पर भी लोग करते हैं किन्तु दूसरों को पीड़ित करके जो लोग सरप्लस धन से दान धर्म का पाखंड करते हैं उसमें ऊपर से हमको मनुष्य भाव लगता है किन्तु सच में वह होता नहीं।एक कपटपूर्वक किया गया छल ही होता है।

कविता में हम सचाई के साथ सौन्दर्य की रचना करते हैं।जब भी हम सचाई को दिखाने का प्रयास करेंगे, तभी साधनावस्था वाला सौन्दर्य रचा जा सकेगा।इसमें ही हमको पता चलेगा कि परोक्षतः ही सही,हम स्वयं भी कहीं न कहीं उस उत्पीड़क और उत्पीड़न की प्रक्रिया में शामिल हैं ,जिसका प्रत्यक्षतः हम कविता में विरोध कर रहे हैं।मुक्तिबोध ने अपनी कविताओं में ज्यादातर इसी विषय को अपनी कविता की अन्तर्वस्तु बनाया है।इस वजह से भी उनकी कविता हमको दुर्बोध लगती है क्योंकि वे लीक से हटकर चलते हैं। हर युग में कविता की एक लीक बन जाती है।पिछलग्गू कवि ऐसी ही युग लीकों पर चला करते हैं।लीक छोड़कर चलने वाले को उपेक्षा और प्रहार सहने ही पड़ते हैं इसीलिए तो कहा गया.... लीक लीक गाड़ी चलै,लीकै चलै कपूत। लीक छाँडि तीनों चलैं , शायर सिंह सपूत।लेकिन यह बात हर शायर पर लागू नहीं होती क्योंकि अभी तक का अनुभव यह कहता है कि अधिकांश शायर युगलीक पर ही चलने वाले होते हैं।

महेश चंद्र पुनेठा-मुक्त छंद कविता के सन्दर्भ में जानना चाहूँगा कि वह कौनसा तत्व है जो उसे गद्य से अलगाता है, बहुत सारे पाठक कहते हैं कि इसमें तुक-ताल-छंद तो कुछ भी नहीं हैं. बस इतना है कि उसे छोटी -बड़ी पंक्तियों में लिख भर दिया है.क्या किसी अनुच्छेद को छोटी-बड़ी पंक्तियों में लिख दिया जाय तो उसे कविता कहा जा सकता है? अपनी बात को छोटी-बड़ी पंक्तियों में लिख देने को कविता मान लेने की मानसिकता के चलते ही हर लिखने वाला आज खुद को कवि कहने लगा है.यही हाल तुकांतता को कविता मानने वालों का है. वास्तव में वह कौनसा तत्व है जो किसी रचना को कविता बनाता है?

जीवन सिंह- पहले इस बात पर सोचने की जरूरत है कि ऐसी कौन सी परिस्थतियां थीं जिनकी वजह से दुनिया की लगभग सभी भाषाओं की कविताओं में मुक्त छंद को लाना पड़ा।यह जनता की मुक्ति से जुड़ा हुआ सवाल है।इसको वे ही समझ और सराह सकते हैं जो कविता के साथ-साथ जीवन के विकास क्रम और उसके इतिहास को भी जानते हैं और जिन्होंने जिन्दगी के दर्पण में कविता को देखा है।कविता का सारा सौन्दर्य विधान जीवन का सौन्दर्य विधान है।जीवन में जब लगातार मुक्ति के प्रयास चल रहे हों तब साहित्य उनसे कैसे बच सकता है।आपने देखा है कि पिछली दो शताब्दियों में ही सभी जीवन क्षेत्रों में ज्ञान-विज्ञान का कैसा और कितना विस्फोट हुआ है।यह न होता तो दुनिया में आज सभी जगह राजतंत्र या कबीलाई तंत्र ही होता।जहां की जनता में आधुनिक ग्यान विग्यान की पँहुच नहीं बन पाई है या ताकत से इस प्रक्रिया को रोककर रखा गया है,वहाँ आज भी कबीलाई या सामंती अँधेरा मौजूद है।हमारा भिन्नताओं वाला और पुरातनपंथिता का अभ्यस्त देश ,लोकतंत्र आ जाने के बावजूद पुरातन रूढ़िवाद से जूझ रहा है।नए ज्ञान-विज्ञान को आज भी लोग विदेशी आयातित ज्ञान कहते और मानते हैं। ऐसे में भाव,संवेदना के साथ आधुनिक ग्यान और विचार प्रक्रिया को पुराने बँधे हुए रूपाकारों में व्यक्त कर पाना जब संभव नहीं रह गया तो मुक्त छंद जैसा नया काव्य रूप आया।जब हमारी जिन्दगी का रूप विन्यास बदल रहा है तो कविता का क्यों नहीं बदलेगा।हमारी बोली भाषा, वेशभूषा, घर आवास, भोजन और रीति रिवाजों पर आधुनिकता का गहरा असर हुआ है तब कविता कैसे पुरानी रह सकती है।यदि पुरानी रहेगी तो नई बातें आने से रह जायेंगी।सागर में विस्तार और गहराई न हो तो उसमें देश की सारी नदियों का पानी कैसे समा सकता है। यही बात कविता के साथ भी है।डबरे में जितना पानी समा सकता है उतना ही उसका महत्व है।

कविता में पुराने छंद चाहे न आ रहे हों किन्तु समझदार कवियों में उन छंदों की लय आज भी बची हुई है।निराला, नागार्जुन ,त्रिलोचन,मुक्तिबोध सभी की कविता में लय मौजूद है।इन्होंने तो आधुनिक छंदों में भी कविताएं की हैं और नए छंदों का सृजन भी किया है।साथ ही मुक्त छंद में कविताएं लिखी जा रही हैं।अज्ञेय,रघुवीर सहाय ,सर्वेश्वर ,धूमिल ,कुमारेन्द्र,कुमार विकल ,मानबहादुर सिंह ,विजेन्द्र ,केदारनाथ सिंह,राजेश जोशी, अरुण कमल ,नरेश सक्सेना, कात्यायनी ,नीलेश रघुवंशी आदि सभी के मुक्त छंदों में लय का पूरा समायोजन मौजूद है। इनके अलावा और अनेक नाम छूट गये हैं जिनमें मुक्त छंद की लय मौजूद है। ध्यान रखें मुक्त छंद की लय।हाँ,आज कई ऐसे कवि भी हैं जो मुक्त छंद की बजाय छंद मुक्त कविता लिख रहे हैं। सारा गड़बड़घोटाला उन लोगों ने ज्यादा किया है जो भारतीय और हिन्दी काव्य परम्परा को जाने, समझे बिना सीधे कविता के मैदान में उतर गये हैं।मुझे तो गद्य कविता जैसी दिखने वाली विष्णु खरे की कविता में भी नवोन्मेष और जीवन के मर्म तक पँहुचने की गति जैसी संरचना में लय नजर आती हैं।आप सब पिछली पीढ़ी से सीखकर कविता में लय को बचा रहे हैं।जो अपनी निकटस्थ काव्य परम्परा तक को नहीं जानते, वे ही सारा गड़बड़झाला कर रहे हैं।जिन्होंने अपनी बोलियों के लोकगीतों को थोड़ा भी जान लिया है और उनको अपने मानस में बिठा लिया है वे मुक्त छंद की लय से बाहर नहीं हैं। दूसरे कविता अनेक रूपों में रची जाती है।हर युग में अच्छी और खराब दोनों तरह की कविताएं कही गई हैं।आज भी हिंदी कविता में गीत,गजल,दोहों में उस भावबोध को पूरी लय के साथ ला रहे हैं जो मुक्त छंद की कविता में आने से रह गई है।आप जानते हैं नवगीतकारों और जनगीतकारों में एक जमाने में रमेश रंजक ने हलचल पैदा कर दी थी।गजल में जैसे दुष्यंत कुमार, अदम गौंडवी को कैसे भूला जा सकता है।नवगीतकारों में माहेश्वर तिवारी, राम सेंगर आदि ने गीतों के माध्यम से लोकयथार्थ की नई जमीन को तोड़ा है।नचिकेता नवगीत और जनगीत दोनों के एक समर्पित योद्धा रहे हैं।हिंदी में गीतकाव्य की एक सुदृढ़ परम्परा रही है।यह सब भी हमारी काव्य परम्परा का हिस्सा है।

कविता को कविता बनाने वाला कोई एक तत्व नहीं होता।पुराना समय होता तो मैं कह देता कि रस ही काव्य की आत्मा है।यदि मैं अलंकार से कविता को जाँचता तो कह देता कि कविता को अलंकार से पहचानो क्योंकि अलंकार ही काव्य की आत्मा है।इसी तरह किसी ने ध्वनि, किसी ने वक्रोक्ति और किसी ने इन सभी के औचित्य को कविता कहा:कविता क्या है?इस सवाल का सटीक उत्तर आज तक नहीं मिला है।कविता दरअसल अपने समय के जीवन के जटिल यथार्थ की ऐसी रूपाकार अभिव्यक्ति है जो अनेक रूपों में अनेक तरह से मुक्ति का मार्ग इस तरह से बनाती है कि पढ़ने और सुनने वाले को सुलाए नहीं वरन उसे जगाकर एक ऐसे मनुष्य में बदलने की सामर्थ्य रखती हो ,जो सम्पूर्ण मानवता का नागरिक बन जाए।

महेश चंद्र पुनेठा-आप अच्छी कविता,श्रेष्ठ कविता,बड़ी कविता और महान कविता जैसे पदबंधों का अक्सर प्रयोग करते रहे हैं . इनमें क्या कोई अंतर है ? जबकि ऊपर से देखने पर एक दूसरे के पर्याय ही लगते हैं।

जीवन सिंह- इस तरह का विभाजन टी एस इलियट ने किया है गुड पोएट्री एण्ड ग्रेट पोएट्री। दरअसल जैसा कि सभी को पता है कि कविता एक तरह की नहीं होती।सामान्य और एक ढर्रे में बँधी कविताएं भी हर युग में लिखी जाती हैं इनमें से ही अच्छी और महान कविता का जन्म होता है। अच्छी और महान कविता में भी अन्तर होता है।मसलन हमारे यहाँ भक्ति काल की कविता महानता के सभी स्तरों तक पँहुचती है उसमें कई कवि हैं जो कविता को महानता के स्तर तक ले जाने का काम करते हैं। ...... कबीर, जायसी,सूर ,तुलसी, मीरा, रहीम आदि ने यह काम किया है।इसके बाद आधुनिक काल ही है जिसमें कविता के सभी स्तरों के उदाहरण मिलते हैं।कुछ कवि ऐसे होते हैं जो जीवन की अधिरचना में ही ज्यादा विचरण करते हैं उसके आधारभूत सवालों तक उनकी दृष्टि नहीं पँहुच पाती। महानता आधार और अधिरचना के रिश्ते का सही तौर पर निर्वाह किए बिना नहीं आती।कविता के विभाव का काम करने वालों में मनुष्य से लगाकर सम्पूर्ण प्रकृति कीट,पतंग आदि कुछ भी हो सकता है लेकिन उसकी बुनियादी बातें अलग होती हैं।मसलन उपन्यासकार-कहानीकार तो सैकड़ों की संख्या में हैं पर प्रेमचंद का सानी दूसरा नहीं।इसकी वजह वे जिन्दगी के आधारभूत सवालों को लेकर चलते हैं,जिन पर चल पाना आसान नहीं होता।मैदान पर चलने वाले तो बहुत होते हैं पर साँसों की शक्ति का पता पहाड़ों की चढ़ाई से चलता है।

महान रचना वहीं है,जहाँ से जीवन व समाज की महानता पैदा होती है।जीवन की महानता और कविता की महानता में खास फर्क नहीं है ।एक जीवन व्यवहार के स्तर पर है तो दूसरी शब्द रचना के स्तर पर।इसलिए अपने लक्ष्य को पाने के लिए रचनाकारों को भी खतरे उठाने पड़े हैं अभिव्यक्ति के खतरे, सत्ता के प्रतिरोध करने के खतरे जिससे सही ,सच्ची और बुनियादी बात रची जा सके।इसके लिए सुख-सुविधा, यशध्कीर्ति आदि का लोभ त्याग कर जीवन संग्राम में उतरना पड़ता है।जो ऐसा नहीं कर पाते वे महान रचना से दूर रह जाते हैं।जहाँ तक अच्छी रचना का सवाल है उसे अनेक प्रतिभाशाली रचनाकार वैसे भी कर लेते हैं।रीतिकाल में अनेक प्रतिभाशाली और बेहतरीन रचनाकार हैं लेकिन महान नहीं।महानता सूरज की तरह होती है जो हर युग में प्रकाश देने की क्षमता रखती है।

नई कविता के समय के दो बड़े कवि अज्ञेय और मुक्तिबोध को ही लें तो जीवन के बुनियादी सवालों को जिस स्तर पर मुक्तिबोध उठाते हैं अग्येय नहीं उठा पाते।अज्ञेय निस्सन्देह अच्छे कवि हैं लेकिन उनकी कविता आधार से ज्यादा अधिरचना के सवालों में ही मशगूल रहती है।

महेश चंद्र पुनेठा-आपने भक्तिकालीन कवियों की कविता को महान कविता की श्रेणी में रखा है. दलित और स्त्री विमर्श के इस दौर में कबीर की स्त्रीविषयक कविताओं और तुलसी की जाति-लिंग सम्बन्धी अवधारानाओं को दृष्टि में रखते हुए क्या उन्हें आज भी महान कविता की श्रेणी में रखना उचित होगा?लोकतान्त्रिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ये कवि कितने प्रासंगिक कहे जा सकते

जीवन सिंह- महानताओं का आधार ऐतिहासिक होता है और कालबद्ध भी।वह समय के अनुसार पुनर्व्याख्यायित तो अवश्य होता है जिससे उसके स्वस्थ और प्रासंगिक को स्वीकार कर अप्रासंगिक को छोड़ते हुए आगे के लिए सीखा जा सके।संसार में पूर्णता नहीं होती,सब कुछ विकास के क्रम में रहता है ।इस यात्रा के अगले पडावों में पुराने के सु को अपनाकर कु को छोड़ देने की जरूरत होती है।वर्तमान को ही देख लीजिए, दलित जीवन की त्रासदियों,अमानवीयताओं और यातनाओं पर जितनी. प्रामाणिकता और तात्विक रूप में दलित लेखक लिख पाए हैं उतना सार्थक और सटीक सहानुभूति वाले लेखक नहीं ।दलित रचनाकार प्रो तुलसी राम की दो खंडों में प्रकाशित आत्मकथा--मुर्दहिया और मणिकर्णिका का उल्लेख यहाँ दुबारा करना चाहूँगा,रौंगटे खड़े कर देने वाले अनुभव हैं।प्रेमचंद जैसे महान लेखक ने दलित जीवन की पीड़ाओं और त्रासदियों पर सबसे अधिक और प्रभावी लेखन किया है किंतु जो बातें तुलसी राम के यहाँ हैं उनकी जानकारी प्रेमचंद को भी नहीं थी।प्रेमचंद ने दलितों पर सहानुभूति के आधार पर लिखा जबकि तुलसी राम स्वानुभूतियों के आधार पर लिखते हैं।यही बात स्त्री लेखन के लिए भी सही है।स्त्रियों में फिर भी दो वर्ग हैं उच्च वर्ग की स्त्री का अनुभव संसार वह नहीं है जो निम्न मेहनतकश स्त्री का है फिर भी स्त्री जीवन की कुछ समानताएं ऐसी हैं जो पितृसत्ता की चक्की में समान रूप से पिसती रही हैं। इन पर पुरुष लेखक उतनी प्रामाणिकता और भावनाओं की गहराई के स्तर तक पँहुच पाने में उतने सफल नहीं रहे, जितनी स्वयं भुक्तभोगी स्त्रियाँ रही हैं।
जहाँ तक लोकतांत्रिक और वैज्ञानिक दृष्टि का सवाल है। यह माँग वैसी ही है जैसे अशोक और 

अकबर महान से कोई लोकतांत्रिक होने और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की माँग करे। महानताएं समय सापेक्ष होती हैं। प्रकृति की तरह तटस्थ और निरपेक्ष नहीं। जब मानव यात्रा विज्ञान और लोकतंत्र के आधुनिक पड़ाव तक पँहुची ही नहीं थी तब कबीर और तुलसी से इसकी माँग करना हमारे इतिहासबोध की कमी ही नहीं, इनके प्रति हमारी ज्यादती भी होगी।

महेश चंद्र पुनेठा-क्या यह माना जा सकता है कि कबीर और तुलसी की लोकप्रियता का कारण उनके काव्य की अंतर्वस्तु का धार्मिक और आध्यात्मिक होना है?

जीवन सिंह- नहीं, यह बात बिल्कुल नहीं है।इनकी बेमिसाल साहित्यिक उत्कृष्टता,अपने समय के जीवन की वास्तविकताओं की इनकी समझदारी और उदात्तता की वजह ही हैं जो इनको महान कवियों की श्रेणी का कवि बनाती हैं।यह अलग बात है कि धार्मिक समाज भी इनका अपने तरीके से उपयोग करता है।ऐसा यद्यपि विरल होता है कि एक साहित्यिक रचना लोकजीवन का धर्म भी बन जाय। हमारा समाज आज तक कभी एकरूप और एकस्तरीय समाज नहीं रहा है।अभिजात वर्ग का साहित्य हमेशा से अलग रहा है।उसको समझने के लिए जब तक साहित्य की शास्त्रीय परम्पराओं और उसके प्रवाह की थोड़ी बहुत समझ पाठक को नहीं होगी तो वह उसको न समझ पायगा और न ही उससे अपनत्व स्थापित करेगा।वैसे भी जब से हमारा समाज वर्ण व्यवस्था और बाद में जाति व्यवस्था में विभाजित हुआ, तब से पढ़ने -लिखने का काम एक विशेष वर्ण और जाति का काम बन गया, तब से हमारे यहाँ शिक्षा जैसे परिवर्तनकारी में तरह तरह के अवरोधक लगा दिए गए ।यहाँ तक कि समाज के पचास प्रतिशत स्त्री वर्ग तक को शिक्षा से दूर कर दिया गया।इससे ग्यान-विग्यान के विकास और फैलाव में तीव्र गतिरोध पैदा हुआ।ऐसे में साहित्य भी विभाजित हुआ ।लोक ने अपने लिए अलग साहित्य रचा, जो लोकसाहित्य कहलाया ।अभिजन वर्ग ने अपना अलग रचा।क्योंकि दोनों का अनुभव संसार अलग रहा था।स्त्रियों ने अपने लिए अलग साहित्य रच लिया।यह विभाजन यहाँ तक हुआ कि मध्यजातियों ,दलितों और आदिवासियों ने अपना साहित्य सबसे अलग रचा।

हमारे यहाँ मध्यकाल से इस्लाम मतावलम्बी एक समुदाय रहता है और दूसरे गैरइ्स्लामिक मतावलम्बी भी साथ साथ रहते हैं।इस्लाम मतावलम्बी समुदाय मेव कहलाता है और उसकी बोली मेवाती कहलाती है जो हिंदी की अनेक बोलियों में एक है।इस बोली में इस समुदाय ने अपने जीवनानुभवों और समझ के आधार पर अपना लोकसाहित्य अलग से रच रखा है जिसमें गीत,बात,दूहा-बिरहड़ा और गाथा साहित्य मौजूद है।

हमारे यहाँ एक समय रहा है जब घर्म को साहित्य का भी धर्म बना दिया गया ।एक तो धर्म का तात्विक दार्शनिक रूप अलग से विकसित हुआ, उसका भावात्मक अनुभूतिपरक दूसरा रूप साहित्य के माध्यम से विकसित हुआ।इस वजह से भक्ति काल का साहित्य धर्म और साहित्य के भेद को मिटा देता है लेकिन वह साहित्य के मामले में भी उच्च स्तरीय एवं उच्च कोटि का साहित्य है।उसकी भाषा लोक की भाषा होने की वजह से वह लोक में इतना लोकप्रिय हुआ कि वह सबका साहित्य बन गया।

वैसे उसका दूसरा बड़ा सच यही है कि वह हमारे जीवन का साहित्य है।धर्म चूंकि जीवन का हिस्सा रहा है इसलिए उसकी अभिव्यक्ति भी उसके माध्यम से हुई किन्तु वह धार्मिक साहित्य नहीं है।है वह मूलतः साहित्य ही,हमारे जीवन की वास्तविकताओं को व्यक्त करने वाला साहित्य।मसलन जायसी सरीखे कवियों ने सूफी सिद्धांतों को अपना कर जीवन में प्रेमानुभूति के महत्व और उसकी भूमिका का प्रतिपादन किया।उनका प्रयोजन प्रेम है न कि सूफी सिद्धांत ।ऐसे ही कबीर, सूर ,तुलसी, मीरा , रहीम आदि का साहित्य है।वह मनुष्य जीवन का साहित्य है।इनकी लोकप्रियता की वजह इनके द्वारा किया गया लोकजीवन व उसकी आकांक्षाओं का चित्रण रहा है।
 
महेश चंद्र पुनेठा-क्या आपको लगता है कि रामचरितमानस एक धार्मिक ग्रन्थ नहीं होता तो घर-घर इतना अधिक पढ़ा और सम्मानित होता?

जीवन सिंह- इस बारे में मेरा यह मानना है कि पहले वह कविता ही है लेकिन उसका अनुभूति पक्ष और चरित्र कथा कुछ इस तरह की बन गयीं है कि वह धर्म और धर्म-व्यवसायी दोनों के काम आने लगी।हमारे देश में आप जानते हैं कि कथावाचकों की एक लम्बी और सुदृढ़ परम्परा रही है।इस सम्बंध में पहला बड़ा और राष्ट्रीय स्तर का नाम है बरेली के राधेश्याम कथावाचक का।वे रामचरितमानस को आधार बनाकर सस्वर संगीतमय और ओजस्वी मनोरंजक धर्म निर्वाह करने वाली कथा सामान्य जन के सामने कहते थे,जिसका सम्मोहक प्रभाव जन-मानस पर होता था।कदाचित इस प्रभाव का आकलन करते हुए गीताप्रेस गोरखपुर ने इस ग्रन्थ को पुराण परम्परा में रखते हुए घर-मन्दिरों में लोकप्रिय बना दिया और धार्मिक साहित्य के साथ इसको इतने सस्ते मूल्य पर प्रकाशित किया कि यह घर घर की भक्तिभाव वाली एक धार्मिक कृति बन गयीं।वैसे भी भारत की भाषाओं का सर्वेक्षण करते हुए जार्ज ग्रियर्सन को इसकी प्रति किसी मन्दिर में ही मिली थी।हिंदी में साहित्य बोध का संस्कार लम्बे समय तक रीतिवादी रहा है इस वजह से भी भक्ति को जीवन में रसानुभूति की मान्यता से दूर रखा गया।

हमारे यहाँ आलोचना-विवेक विलम्ब से विकसित हुआ।जो हुआ उस पर रीतिवादी-सामंतवादी संस्कार हावी रहे।इस वजह से भक्त कवियों का सही साहित्यिक मूल्यांकन देरी से हुआ और ये धर्म की वस्तु बने रहे।लेकिन जब जीवन दृष्टि में बदलाव आया और वह आधुनिक हुआ, तब समझ में आया कि इनमें भक्ति और धार्मिक भावभूमि के अलावा और बहुत कुछ ऐसा है जो जीवन के विभिन्न पहलुओं और साहित्यिक दृष्टि से भी अत्यंत उच्च कोटि का है।तब स्वाधीनता आन्दोलन के दिनों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल सरीखे आलोचक ने इस युग की कविता के साथ लगभग एक हजार साल की हिन्दी रचनाशीलता को जब आधुनिक जीवन विवेक से परखा तथा इसका वस्तुगत आकलन किया ,तब हमारी साहित्यिक दृष्टि में बहुत बड़ा बदलाव हुआ।प्रगतिशील आन्दोलन ने भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा की ,जिससे रामचरितमानस को नए प्रतिमानों के आधार पर द्वन्द्वात्मक नजरिए से देखा गया।इस मामले में रामचरितमानस की लोकप्रियता अपने स्थान पर आज भी अक्षुण्ण है। वह धार्मिक भी है और साहित्यिक भी। पहली बात तो यह कि तब यह केवल धार्मिक ग्रंथ ही होता।यह चूंकि साहित्यशास्त्रीय कसौटी पर रचा गया एक अद्भुत ग्रंथ है इसलिए इसका बहुविध उपयोग हुआ है।रामलीला जैसे लोकनाट्य रूप ने भी इसको लोकप्रिय बनाया है। इस ग्रंथ को घर घर में लाने का काम इसके सस्ते संसकरणों ने भी किया और हमारे लोकजीवन की उन परिस्थितियों ने भी जो व्यक्ति को हमेशा बड़े दुखों और त्रासदियों के सागर में डुबोकर रखे हुए हैं।कुछ लोग इसके माध्यम से जिंदगी को सुधारने का लालच भी दिखाते रहे हैं।तो ये अनेक पहलू हैं जो इसे लोकप्रिय बनाते हैं।तब इसको कथावाचक ही लोकप्रिय बना देते क्योंकि इसकी लोकभाषा में और लोकानुभवों में वह आन्तरिक ऊर्जा मौजूद है जो इसे लोकप्रिय बना देती।
 
महेश चंद्र पुनेठा-क्या आपको लगता है कि आम पाठक इसका काव्यशास्त्रीय ढंग से आस्वाद लेता है?

जीवन सिंह- किसी भी साहित्यिक रचना के आस्वादन की कुछ सामान्य शर्तें होती हैं,जिसे हम साहित्यिक संस्कार या अभिरुचि कह सकते हैं।इसके बिना उसका एक कला कृति के स्तर पर आस्वादन संभव नहीं है।ऐसा भक्ति भाव के स्तर पर ग्रहण की गई सभी रचनाओं के साथ होता है। यही कारण रहा है कि भक्ति भाव से ग्रहण किया गया साहित्य उसका ऐतिहासिक यथार्थ परक आस्वादन नहीं कर पाता।साहित्य का अध्यापन करने वाले अनेक शिक्षक आज भी ऐसे हैं जो इनका केवल भक्ति परक पाठ ही करते हैं।अन्य पक्षों को वे इन पर आरोपित मानते हैं।दरअसल अध्यापक ने अपना संस्कार कहाँ बदला है।इसलिए इनके धार्मिक और भक्ति परक पाठ ही अधिक प्रभावी रहे हैं।जहाँ बदलाव आ गया है वहाँ इनके नए पाठ आ गये हैं।प्रगतिशील-जनवादी दृष्टिकोण ने बदलाव का बहुत बड़ा काम किया है किंतु वह लोक स्तरों तक व्यापक नहीं बन पाया है।वह कुछ साहित्यकारों की दुनिया में सिमटकर रह गया है।यह बहुत बड़ा काम है।और इसके लिए व्यापक स्तर पर दृष्टिकोण में बदलाव की आवश्यकता है।

महेश चंद्र पुनेठा-आपका मानना है कि सधे जीवन के कवि बड़ी कविता नहीं लिख सकते हैं.जिन्होंने जीवन साधा है उनकी कविता कभी बड़ी नहीं हो सकती है. इसका मतलब क्या यह माना जाय कि कविता रचने के लिए काव्य-कौशल की अपेक्षा जीवनानुभव अधिक जरूरी हैं और एक मध्यवर्गीय कवि बड़ी कविता नहीं रच सकता है?

जीवन सिंह- जीवनानुभव ही तो किसी बड़ी रचना का आधार होते हैं।अनुभव ही तो हैं जो अनुभूति और संवेदना में बदलते हैं।कबीर के पास उनके समय में जो जीवनानुभव थे,वैसे दूसरों के पास कहाँ हैं? लेकिन रचना केशल अनुभवों से ही संभव नहीं है वह संस्कार और बुनियादी मेधा भी होना जरूरी है जो अनुभवों को रचना में बदल सकें।इसके लिए उस ग्यान की आवश्यकता भी है जो किसी कृति को अद्यतन जीवन,समय और उसके विवेक से जोड़ता है।लेकिन बुनियाद जीवनानुभव ही होते हैं। कोई न कोई अनुभव तो हरेक व्यक्ति के पास होता है उसे वह व्यक्त कर सकता है और सृजन की प्रतिभा है तो अपने सीमित अनुभवों को सृजनात्मक रूप प्रदान कर सकता है।यही वजह रही कि जीवनानुभवों के अनुसार साहित्य में भी वर्गीय श्रेणियाँ बन जाती हैं। सामान्यतया मध्यवर्ग ही होता है जो इस तलह का रचना कम करता है किन्तु बड़ी रचना के लिए उसे अपनी वर्गीय सीमा का अतिक्रमण करके सम्पूर्ण और जटिल जीवन यथार्थ को समझना जरूरी होता है और लगातार जड़ीभूत होती सौंदर्याभिरुचि का परिवर्तन एवं परिष्कार करना आवश्यक होता है अन्यथा जड़ होने का खतरा बना रहता है। वही मध्यवर्गीय कवि बड़ी रचना कर पाया है जिसने अपने अनुभवों की सीमाओं से आगे जाकर अपना वर्ग विस्तार कर लिया है। जैसे मुक्तिबोध ने करके दिखला दिया।कथा साहित्य में यह काम प्रेमचंद ने करके दिखलाया।

महेश चंद्र पुनेठा-बड़ी कविता लिखने के लिए एक कवि के लिए आप किस तरह की तैयारी जरूरी मानते हैं? कविता तो अनुभूति का मसला है,उसके लिए अध्ययन की क्या जरूरत है ? क्या अध्ययन कवि की मौलिकता को प्रभावित नहीं करता है?

जीवन सिंह- जैसे व्यक्ति जिंदगी के अन्य क्षेत्रों में महत्ता के लिए साधनारत रहता है इसीलिए आचार्यों ने कविया रचना कर्म को साधना का दर्जा दिया है। साधना करना भी पूरा काम है आधा अधूरा नहीं या बैठे ठाले लोगों का मनोरंजन कर्म नहीं है। किसी भी जीवन क्षेत्र में बड़ा होना आसान नहीं।रीति काव्य इसीलिये तो महानता की कोटि तक नहीं पहँुच पाया कि कवि में काव्य प्रतिभा होते हुए भी वहाँ जीवन की साधना बहुत कमजोर है। भक्ति काल में कवियों ने बहुत बड़ी जीवन साधना की है किसी भी तरह की सत्ता के लोभ लालच को पूरी तरह छोड़कर साहित्य कर्म किया है। आधुनिक काल में प्रेमचंद, निराला,नागार्जुन,मुक्तिबोध इसके उदाहरण मौजूद हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने एक जगह पर कहा है कि जिनका हृदय बहुत संकुचित या निम्न कोटि का होता है,कविता उनसे बहुत दूर की वस्तु होती है,कवि वे भले ही समझे जाते हों।

कवि का यह संकोच उसकी निरंतर जीवन साधना करने से दूर होता है सिर्फ घर में बैठकर साधना करने से नहीं।जीवन के जितने बड़े और गहन थपेड़ों का अनुभव कवि को होगा ,उतना ही बड़ा उसका साहित्य कर्म होता जायगा। अध्ययन या ज्ञान की साधना कम महत्त्व नहीं रखती। आधुनिक समय का आधार ही ज्ञान है,जिसे हम नवजागरण कहते हैं।ज्ञान और विज्ञान न होते तो दुनिया आधुनिक नहीं होती। साहित्य कर्म जितना जीवन साधना है उतना ही उसे समझने के लिए ग्यान साधना भी है।

जैसे-जैसे ज्ञान-विज्ञान बढ़ते और विकसित होते जायेंगे, वैसे वैसे कविता या साहित्य कर्म भी नया स्वरूप ग्रहण करता जायगा।यह नया जीवन यथार्थ ही था जिसको कविता के माध्यम से प्रस्तुत करने के लिए कवियों ने मुक्त छंद को अपनाया अन्यथा नए छंद. की क्या जरूरत थी ?अनुभूति तो पुराने छंदों में व्यक्त हो सकती थी।इसका सीधा सा मतलब यह है कि समय के अनुसार विचार और भावधारा भी बदलती है।इसे नए समय की ज्ञान साधना के बिना समझ पाना संभव नहीं है।यदि सही दिशा में जाने के लिए अध्ययन सहायक होता है तो मौलिकता खत्म नहीं होती।कवि की मौलिकता का संबंध उसके अनुभव संसार से रहता है ।वह जितना गहरा और व्यापक होगा ,उतनी ही उसकी मौलिकता का स्वरूप भी व्यापक होता जायगा।वैसे अनुभव का रिश्ता भी ज्ञान से होता है जीवन का जितना ज्यादा अनुभव होता है ज्ञान का फैलाव भी उतना ही होता जाता है।कबीर ने तो अपने अनुभवों से ही सब कुछ जान लिया था। दूसरी तरफ तुलसी हैं जिनके यहाँ जीवन साधना की तरह ज्ञान साधना भी है लेकिन कई बार पारम्परिक शास्त्रीय ज्ञान भी कवि को एक नए किस्म के बंधन में बाँध देता है।जैसे तुलसी की कई धारणाओं में वह दिखाई देता है।इसी तरह से हर व्यक्ति के अनुभवों की सीमा भी होती है।मसलन स्त्रियों के मामले में कबीर के साथ हुआ।
 
महेश चंद्र पुनेठा-आपने ठीक कहा कि नए जीवन यथार्थ को कविता के माध्यम से प्रस्तुत करने के लिए कवियों ने मुक्त छंद को अपनाया पर क्या यह मुक्त छंद कविता की लोकप्रियता की कमी का कारण नहीं बनता जा रहा है. कविता की अति गद्यात्मकता ने क्या पाठकों को उससे दूर नहीं कर दिया है? या आपको पाठकों की दूरी का कोई और कारण लगता है?

जीवन सिंह- दरअसल , हम छंदों में रची गई जिन पुरानी कविताओं की लोकप्रियता की बातें अक्सर करते रहते हैं वह वास्तविकता कम,मिथक ज्यादा है।कविता के रूप में लोकप्रिय होना अलग बात होती है,जिस समाज में कविता लोकप्रिय हो ,उस समाज की उदारता और नैतिकता का स्तर बहुत ऊँचा होना चाहिए।उस समाज से संकीर्णताओं और तरह तरह के अंधविश्वासों और रूढ़यों का अंत होना चाहिए लेकिन हमारे यहाँ तो सब कुछ उलटा पुलटा चल रहा है।रामचरितमानस की लोकप्रियता का उदाहरण ही यहाँ रखता हूँ जो लोकप्रियता का एक माणक ग्रंथ है।साहित्यिक दृष्टि से देखें तो उसका सबसे बड़ा संदेश त्याग का है और एक शैतान की व्यवस्था से. संघर्ष का ।राम उस सोने की बनाई लंका की एक जनविरोधी व्यवस्था से लड़ते हैं और खुद पारिवारिक सत्ता के लिए संघर्ष से बचते हैं।यह इस कृति का साहित्यिक संदेश है लेकिन कितने पाठक हैं जो इस संदेश से प्रभावित होते हैं।यदि रामचरितमानस की लोकप्रियता का कोई साहित्यिक प्रभाव समाज पर होता तो उसकी सामाजिक -नैतिक संरचना आज दूसरी ही होनी चाहिए थी ।लेकिन समाज तो इसका ठीक उलट है ।लोभ-लालच और स्वार्थों के लिए कितना भयावह संघर्ष आज समाज में चल रहा है ,आप जानते हैं।तह तो मैंने सबसे अधिक लोकप्रिय कृति की बात की है।मैं आपसे सवाल करता हूँ कि हिंदी पढ़ाने वालों में ही साहित्य के प्रति कितना लगाव है यदि यह उनकी रोजी-रोटी न हो तो।तो जिसे आप लोकप्रियता कह रहे हैं वह एक मिथक ज्यादा है। हाँ,कुछ अन्य कारणों से, जो साहित्येतर ज्यादा हैं एक तबके का साहित्य लोकप्रिय अवश्य है ।ऐसा हर युग में होता है।

हमें यदि सच में कविता से लगाव होता तो घर घर में कविता की पुस्तकें और हर घर में एक कक्ष निजी पुस्तकालय के लिए होता।कितने लोग हैं जो घर का नक्शा बनवाते समय आर्किटेट से एक छोटा सा किताब घर बनाने का प्रावधान रखने के लिए कहते हैं।क्या कविता से प्रेम बिना किसी तरह की अभिरुचि दिखाये बिना संभव है।कितने श्रोता हैं जो कविता पाठ जैसी गोष्ठियों में आते हैं।कितने लोग हैं जो आज का गंभीर कथा साहित्य --उपन्यास, कहानी आदि पढ़ते हैं।कथा साहित्य तो मुक्त छंद में नहीं है फिर भी आपके आसपास समाज में कितने लोग हैं जो साहित्य के गंभीर पाठक हैं।क्या यह सच नहीं है कि हमारे यहाँ साहित्य बड़े सामाजिक स्तर पर साहित्य कभी जिन्दगी की प्राथमिकताओं में रहा ही नहीं ।समाज का निम्न मेहनतकश वर्ग तो रोटी--रोजी पाने की परेशानियों में ही सारा जीवन गुजार देता है।मध्य वर्ग के पास अवकाश भी रहता है और खर्चने को धन भी।किन्तु इस वर्ग के कितने लोग हैं जो अपनी जिन्दगी के केन्द्र में नहीं तो कम से कम हाशिये पर ही रखते हैं।एक बहुत छोटा सा समुदाय है जो साहित्य सृजन और उसका पठन पाठन करता है।इसमें भी एक ऐसा वर्ग है जो विशुद्ध मनोरंजनधर्मी कविता को कविता मानता है जिसे गंभीर साहित्य का कुछ भी अता- पता नहीं होता । इसलिए कविता और उसकी लोकप्रियता का सवाल है इस धारणा में मिथक की मात्रा बहुत अधिक है।यह बात सही है कि गीत शैली में गाकर सुनी-सुनाई जाने वाली कविता और गजल की प्रियता मुक्त छंद में लिखी जा रही कविता से अधिक है।लेकिन उस तरह की कविताओं में क्या वह और अधिक जटिल एवं खुरदुरा ऊबड़खाबड़ यथार्थ आ पाता है,यह सवाल अपनी जगह पर बना रहता है।मुक्तिबोध ने मुक्त छंद में जो दिया है क्या वह छंदबद्ध कविता में आ पाना संभव था।
 इसलिए मेरा मानना यह है कि एक विविध रुचि वाले समाज के लिए कविता की विविध विधाओं में साहित्य सृजन हो ,जो बड़े स्तर पर तरह तरह से साहित्यिक संस्कार का निर्माण करें, जिससे कविता ,समाज की प्राथमिकताओं में अपना स्थान बना सके।जिस रोज यह होगा, मुक्त छंद की कविता में भी पाठकों का मन रमने लगेगा। इसलिए गीत,गजल जैसी विधाओं को भी गंभीरता से लेने की जरूरत है क्योंकि ये साहित्य के संस्कार और उसकी जमीन बनाने का काम करते हैं।


संपर्क- डाॅ0जीवन सिंह 1/14अरावली बिहार, अलवर-301001 (राजस्थान)
महेश चंद्र पुनेठा शिव कालोनी न्यू पियाना पो0डिग्री कालेज जिला-पिथौरागढ़ 262502


स्त्री-कविता का सामाजिक स्वर और शुभा की कविताएँ - आशुतोष कुमार

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आलोकधन्वा  की  कविता “भागी  हुई  लड़कियां” १९८८ में छपी . यह  घटना  हिंदी कविता के इतिहास  में  एक मील का   पत्थर है . इसके  बाद  ही  हिंदी में  पितृसत्ता  को  सीधे  निशाने  पर  लेनी  वाली  स्त्रीवादी कविताओं  का  सिलसिला  शुरू  होता  है . कात्यायनी  की  ‘हॉकी  खेलती  लड़कियां’  , गगन  गिल  की  ‘एक  दिन  लौटेगी लड़की’ , सविता  सिंह की “मैं  किसकी  औरत  हूँ’, अनीता  वर्मा की  “ चेहरा” , अनामिका की  “प्रथम स्राव” और  अनिता  भारती  की  “जहांगीरपुरी की  औरतें”  जैसी  विविध  रंगों  की  बहुत-सी कविताएँ  इस  सिलसिले  में शामिल  हैं. तेजी  ग्रोवर  , नीलेश  रघुवंशी , निर्मला  गर्ग , लीना  मल्होत्रा राव ,   वंदना  ग्रोवर , शुभम श्री समेत  अनेक  कवयित्रियों  ने  इसे  आगे  बढाया है . फिर  भी इस  बात  से  शायद  ही  कोई  इंकार करे कि आलोकधन्वा  की  इस प्रसिद्ध कविता ने  हिंदी  की  स्त्रीवादी  कविता  के  लिए  जमीन और  माहौल  बनाने  में महत्वपूर्ण  भूमिका  निभाई . अगले  साल  आई उनकी   कविता “ब्रूनो की  बेटियाँ”  ने इस माहौल को और  जीवंत कर  दिया . 

आलोकधन्वा की  इन  कविताओं  को  छोड़  दें  तो हिंदी  में  महादेवी  वर्मा  के  बाद पितृसत्ता क्ले  प्रतिरोध की स्त्री  को  सम्बोधित करती कोई  बड़ी  कविता  दिखाई  नहीं  देती . हिंदी  कविता  के  उर्वर  दौर  में  स्त्री-कविता  का  इतना  अकाल  क्यों  है ? “भागी  हुई  लड़कियां” मध्यवर्गीय घरों  में मौजूद पितृसत्ता के उन बद्धमूल ‘कुलीन’  संस्कारों  पर   चोट  करती हैं , जिन्हें आमतौर पर दबा कर , ढंक  कर ,  रखा  जाता  है . मगर  जब कोई लडकी  घर  से  भाग  खडी  होती  है तब  ये   जंजीरें साफ़  दिखाई  देने  लगती  हैं. 

यह  कविता  सर्वश्रेष्ठ  उदाहरण है  कि एक  पुरुष  स्त्री  को कितनी  सहानुभूति दे  सकता  है  और  उसके  साथ  कितनी  समानुभूति  महसूस  कर  सकता  है . लेकिन  यह  उस  सीमा  का  उदाहरण  भी  है  , जिसके  आगे  पुरुष  शायद नहीं  जा  सकता .

“......तुम
जो
पत्नियों को अलग रखते हो
वेश्याओं से
और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो
पत्नियों से
कितना आतंकित होते हो
जब स्त्री बेखौफ भटकती है
ढूंढती हुई अपना व्यक्तित्व
एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों
और प्रेमिकाओं में ! ...”

पत्नी , प्रेमिका , वेश्या - पुरुषप्रसंग  में  स्त्री  की  यही  तीन  भूमिकाएं  समाज  ने  तय  की  हैं . इन  तीनों  को ठुकराकर  आलोकधन्वा  की  स्त्री अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व   हासिल  करने  के  लिए  भटकती  है , लेकिन  उसके  पास  इन्ही तीन  भूमिकाओं  को  एक  में  मिला  देने  से  अधिक  रचनात्मक कोई  और  उपाय  नहीं  है .   कवि  उत्पीड़ित  स्त्री  को  मुक्त तो  देखना   चाहता  है , लेकिन  उसके  पास  मुक्त-स्त्री की  कोई  स्वतंत्र कल्पना नहीं  है .

स्त्रीवादी  कविता इस  नई मुक्त-स्त्री  की परिकल्पना के  साथ  शुरू होती  है . चाहे  कात्यायनी की   हॉकी खेलती  लड़कियां  हों या जहांगीरपुरी की मजदूरी  के  लिए  आती-जाती औरतें, उन्हें अपने  वजूद  को  परिभाषित  के  लिए  किसी  पुरुष –सन्दर्भ की न  जरूरत  है , न प्रतीक्षा . सविता  सिंह  की  औरत रेखांकित  करती  है  कि  वह  किसी  मर्द की  औरत  नहीं  है . पुरुष  प्रधान  समाज  द्वारा  निर्धारित रिश्तों से अलग एक  ‘मनुष्य’  और  एक ‘स्वतंत्र  व्यक्ति’  के  रूप  में खुद को पाने  के  उत्कट इच्छा यानी  आत्म-रेखांकन  इस  नई  स्त्री की  सबसे  पहली  पहचान है . 

शुभा  की  कविता “प्रेम  की  इच्छा” इस  दोनों आकांक्षाओं   को  सबसे साफ़  दर्ज़  करती  है . ऐसा  इसलिए कि इस  कविता  में  लड़की प्रथम  पुरुष  में  बात  करती  है . अन्य  पुरुष  में  नहीं  . वह कहीं  आती-जाती या  खेलती-कूदती  लडकियों को  दूर  से  देख  कर उनकी आज़ादी  का a जश्न  नहीं  मनाती . वह  ख़ुद  अपनी  आजादी की  घोषणा  करती  है .

“... मैं  चाहती  हूँ
नोटिस  लिया  जाए 
इस  बात  का 
कि  मैं  यहाँ  हूँ , इस  धरती  पर
एक  साधारण  लडकी
जिसमें  खलबला  रही  है
एक असाधारण  लड़की
पक्षी  की  तरह  डैने फैलाए ..”

वह  अपनी  असाधारणता के प्रति  सजग है  , लेकिन  साधारणता को  गंवा  नहीं  देना  चाहती . परिवार , समाज , राज्य  और  बाज़ार  स्त्री  पर  असाधारण  होने  का  दबाव  डालते  हैं. स्त्री  अगर  विश्व-सुन्दरी या  ओलम्पिक –विजेता  हो  तो उसका मोल  बढ़  जाता  है . एक  साधारण  लड़की  का  कोई  मोल  नहीं  है . लड़का  जनम  लेते  ही  अनमोल मान  लिया  जाता  है. एक  साधारण  लडकी  के  रूप  में  खुद  को  पहचानना स्त्री  के  आत्म-रेखांकन  की  पहली  सीढ़ी  है .

साधारण  होते  हुए  भी  हर  व्यक्ति असाधारण  होता  है  , क्योंकि  कोई  किसी और  की जगह  नहीं  ले  सकता . इस  साधारण असाधारणता पर  जोर  देना एक  अपने  स्वतंत्र और  व्यक्तित्व का  दावा करना  है .  एक  स्वतंत्र व्यक्ति  के रूप  में  ही स्त्री मनुष्यता के  इतिहास  की समूची  विरासत  पर  अपना  दावा  ठोंक  सकती  है और  अपने “मनुष्य” होने की  घोषणा  कर  सकती  है . स्वामित्व की  भावना  के  साथ  नहीं  , बल्कि  मनुष्य  होने  की  तकलीफों  और  कुर्बानियों  में  भागीदार होने की  तैयारी  के साथ !

“..  क्या  किसी  मनुष्य  ने
ठीक  यही कोण  बनाया था ,
सूरज  के  मुकाबले ,
जो  मैं  बना  रही  हूँ

पृथ्वी  बहुत  परिचित  लगती  है  आज
पूर्वजों  के पदचाप  से
गूँज  रही  हैं  शिलाएं
और  घने  ऊंचे  पेड़
यह  धरती  आज  लगती  है 
सचमुच  मातृभूमि

भला  मनुष्य  बनने  की 
इच्छा  जग  रही  है  मुझमें
जो  ले  जाएगी  मुझे मेरे  दुखों 
और मेरी कुर्बानियों  तक “

***********************************
समकालीन  स्त्रीवादी  कविता के  अनेक  प्रवृत्तियाँ   हैं . इनमें से चार  की शिनाख्त  आसानी  से  की  जा  सकती  है . इसे  वर्गीकरण  या  श्रेणीकरण का प्रयत्न    समझा  जाए . यह  केवल  शुभा की  रचनाप्रक्रिया  को  समझने की  सुविधा  के  लिए  सुझाया  जा  रहा  है . इन्हें  स्त्री  कविता  के चार  स्वरों  की  तरह  देखना चाहिए .

पहला स्वर आंदोलनकारी स्त्री-कविता  का  है , जिसे  कात्यायनी और  शुभमश्री की कविता  में  आसानी  से  देखा जा  सकता  है . स्त्री  यहाँ   आमतौर  पर  समूची  स्त्री-जाति  की प्रतिनिधि  बनकर  आती  है . वह  इस  ‘पौरुषपूर्ण समय’  में  अपनी जेंडर-अस्मिता  के  लिए  संघर्ष कर  रही  है .

दूसरा  स्वर गगन गिल , सविता  सिंह और अनीता वर्मा  के यहाँ देखा  जा  सकता  है . यह  स्त्री    अपनी  स्त्री-अस्मिता  के प्रति  सचेत  है , पुरुषवादी  समाज  में  अपनी  अवस्थिति की  जटिलता और  उसके  खतरों को  समझती  है , और  अपने  निजी  वज़ूद  की  रक्षा  के  लिए संघर्षरत है . यहाँ पर्सनल  ही  पोलिटिकल है. इसे  स्त्री  कविता  का निजी  स्वर  कह  सकते  हैं . इन कविताओं  में  आकांक्षा , स्वप्न , आखेट और कहीं-कहीं अवसाद  की  गहरी  छायाएं डूबती-उतराती मिलती हैं. कविता  को  शुरुआती  आवेग  किसी व्यक्तिगत  दुख की गहरी  अनुभूति से  मिलता  है . फिर  वह  क्रमशः उसके  सामाजिक आशय  , मानवीय  सारतत्व और  कभी –कभी  आध्यात्मिक संकेतों की ओर  बढने  की कोशिश  करती  है .

तीसरे  स्वर  को स्त्री  कविता  का  सामाजिक  स्वर  कह  सकते  हैं. यह  स्त्री अपनी  स्त्री-अस्मिता के  प्रति  सचेत है , अपनी  निजता  के  प्रति  सम्वेदनशील  है , लेकिन उसका  सामाजिक दायित्वबोध भी उतना  ही  मुखर  है . उसके  लिए  पोलिटिकल ही  पर्सनल है . इन  कविताओं  में  जेंडर  के अलावा  दीगर राजनीतिक-सामाजिक प्रश्नों  से टकराने का  बराबर  उत्साह  दिखता  है , जेंडर के  परिप्रेक्ष्य में  ढील  दिए  बगैर.  यह अक्सर  सामाजिक त्रासदी के  किसी  साक्षात्कार से शुरू  होती  है और क्रमशः उसकी  व्यक्तिगत अनुगूंजों  को सुनने  की  कोशिश  करती  है   अनामिका , शुभा ,निर्मला  गर्ग ,  संध्या  नवोदिता और  लीना  मल्होत्रा  राव आदि  की  कविताएँ इस  सन्दर्भ  में  याद  की  जा  सकती  हैं .

चौथा  स्वर  इसी  तीसरे  स्वर  का विस्तार है . यह  स्त्री  कविता  का  दलित  स्वर  है , जिसका  प्रतिनिधित्व रजनी  तिलक  , अनिता  वर्मा और  रजनी  अनुरागी आदि  की  कविताओं  में  देखा  जा  सकता  है . यहाँ  जेंडर  के  साथ  जाति-उत्पीड़न  का  सवाल प्रमुखता  से  जुड़  जाता  है .

शुभा  की कविताई में तीसरा स्वर  प्रमुख  है , लेकिन जो  चीज   इसे  सबसे ख़ास  बनाती  है वह है  उनकी राजनीतिक चेतना  और इतिहासबोध .   राजनीतिक  चेतना शक्ति-सम्बन्धों  की  चेतना है , जिसका  स्वरूप  कभी-कभी  गैरराजनीतिक  भी  हो  सकता  है .  शक्ति-सम्बन्धों का बदलता  हुआ   गतिविज्ञान  क्रांति से  लेकर   प्रेम  तक को  प्रभावित  करता  है .  शुभा  की  कविता  में  विशुद्ध  प्रेम  जैसी  कोई  चीज  नहीं है . न सनातन  सत्य  जैसी  कोई  बात  है . उनकी  कविता  इतिहास  की  बदलती  हुई  चाल  और  उसके  पीछे की  राजनीति को  ध्यान  से  देखती –परखती  रहती  है. इसलिए  अनुभव  में  निहित  ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि को  आसानी  से  उद्घाटित  कर  पाती  है . झोलझाल , धुंधलापन , दुविधा , रहस्य और  अनिश्चय यहाँ  कम  से  कम  मिलेगा , लेकिन  कविता  की अर्थ-समृद्धि और  सांकेतिकता की कमी  नहीं  मिलेगी .

तीसरे  स्वर  की कविताओं  की   रचना-प्रक्रिया पर  लौटें . हमने  निवेदन  किया  था  कि  यहाँ  पोलिटिकल ही  पर्सनल है , इसलिए  कविता प्रायः  किसी  सामाजिक  त्रासदी के साक्षात्कार  से  शुरू होती  है और  क्रमशः उसके  व्यक्तिगत   आशयों तक  पहुँचती  है . यह  इतिहास  को  अपनी  रगों  में  महसूस  करने  जैसी  बात  है . इतिहास  की धड़कनों  को  अपनी  धड़कनों  में सुनने जैसी  बात . “हमारे समय  में” इस  रचना - प्रक्रिया को देखा  जा सकता  है .

“हम महसूस करते रहते हैं
एक दूसरे की असहायता
हमारे समय में यही है
जनतंत्र का स्वरूप

कई तरह की स्वाधीनता
है हमारे पास

एक सूनी जगह है
जहाँ हम अपनी असहमति
व्यक्त कर सकते हैं
या जंगल की ओर निकल सकते हैं

आत्महत्या करते हुए हम
एक नोट भी छोड़ सकते हैं
या एक नरबलि पर चलते
उत्सव में नाक तक डूब सकते हैं

हम उन शब्दों में
एक दूसरे को तसल्ली दे सकते हैं
जिन शब्दों को
हमारा यकीन छोड़ गया है.”

जनतंत्र  और  स्वाधीनता आधुनिकता  को  परिभाषित  करने  वाली  अवधारणाएं  हैं. आधुनिक  युग  में  साधारण  जन  को  शक्तिसम्पन्न करने  वाली धारणाएं  हैं . लेकिन ठीक  अपने समय  में हम  इन्हें  व्यर्थ  और  विफल  होता  देख  रहे  हैं. दुनिया  के  अलग  अलग  हिस्सों  में  नब्बे  की  बाद जनतंत्र  विरोधी फासीवादी  शक्तियों का  उभार हुआ  है , जबकि  सोवियत  संघ  के  पतन  के बाद  यह घोषणा की  गई  थी कि यह जनतंत्र  के  अंतिम विजय  का  युग  है . भारत में  हम  चुनावों  को  आते  जाते  देखते  रहे  हैं. इसे  दुनिया  की  सफल  लोकतांत्रिक  व्यवस्थाओं  में  गिना  जाता  है . लेकिन आमजन  का  अनुभव यही  है  कि हर  चुनाव एक  और बड़ी  निराशा  देकर  जाता  है . लोकतंत्र  में  “असहायता”  के  अनेक  रूप  हैं . एक तो  यह  कि लोकतंत्र में  बदलाव  की कुंजी  जनता  के  हाथ  में  होती  है . वह वोट  के जरिए  राजनीतिक  बदलाव  सम्भव  करने  का  संतोष पा  लेती  है  , इसलिए  उसका  सम्मिलित  असंतोष  कभी  भी  क्रांतिकारी विस्फोट नहीं  बन  पाता. लेकिन ऊपरी  तौर  पर  चीजें  जितनी  बदलती  दिखाई  देती  हैं  , उतनी  ही ज्यों  की  त्यों  बनी  रहती  हैं.   दूसरे  जीते-जागते  मनुष्य की  पहचान  एक  वोट  में  बदल  जाती  है . मनुष्य  अपना  प्रतिनिधि    रहकर  समूह , समाज  , समुदाय , धर्म या  जाति  का  यानी  किसी    किसी  वोटबैंक  का प्रतिनिधि बना  दिया  जाता  है .

कविता  असहायता के  इस  अनुभव  से  जनम  लेती  है और स्वाधीनता  की  उस  विडम्बना में  घटित  होती  है  , जिसमें  हर  असहमति  और  अधिक  सूनेपन  या अकेलेपन तक  ले जाती  है. असहमति  लोकतंत्र  की  जान  है . अगर  वह  जान  के जोखिम  में  बदल  जाए तो  लोकतंत्र  की इससे  बड़ी  विडम्बना  क्या होगी ? असहायता  की  चरमसीमा  पर  पहुँच  कर  सिर्फ  आत्महत्या करने  और  अंतिम  नोट  लिखने  की  स्वाधीनता  बची  रह  पाती  है  . यह कोई  कविकल्पना  नहीं  , हक़ीकत  है . इसे  हम रोज  हज़ारों किसानों  और  नौजवानों  के साथ  घटित  होता  देखते  हैं. इस  तरह  लोकतंत्र  सामूहिक  हत्याओं  के एक  विराट  उत्सव  में  बदल  जाता  है  , जिसमें  शरीक  होना प्रत्येक  नागरिक  की विवशता  हो  जाती  है . इस शरीक  होने  में कोई  विकल्प  नहीं  होता  . साँस  लेने  की  कोई  जगह  नहीं  होती . शहीद   होने  और   समर्पण  करने  के बीच कोई रास्ता  नहीं  होता . यहाँ  आकर  इस लोकतंत्र  में  निहित क्रूरता  और असहायता का अनुभव एक    निजी  यातना  में  बदलने लगता  है .इस  यातना में  साथ  होते  हुए  भी एक  दूसरे  को  तसल्ली  देने का  कोई  उपाय   नहीं  रह  जाता  , क्योंकि  भरोसेमंद शब्द  पहले  ही  बेमानी  हो  चुके  होते हैं. यह भयानक  घुटन रोजमर्रे  की ज़िन्दगी का एक  ऐसा  अनुभव  है  , जिससे कोई  बचा हुआ  नहीं  है . लेकिन  शुभा  की  कविता  से  गुजरते  हुए  हम इस निजी घुटन    के सामाजिक  और  राजनीतिक स्रोतों  तक  पहुँच  जाते  हैं . यह  पहुंचना  यातना  के निजी  दायरे  को  तोड़  देता  है और  कविता  मुक्ति  की  एक  बड़ी  सामाजिक  रणनीति   का हिस्सा  बन  जाती  है .

दुख  है  . दुख  का  कारण  है . ऐसा  बुद्ध  ने  कहा  था . उनके  लेखे व्यक्ति  का  अज्ञान ही  दुख  का  असली  कारण  है  . लेकिन  शुभा  की कविता  कहती  है  कि  हर  दुख  राजनीतिक  है . इसलिए  व्यक्तिगत  ज्ञान , धीरज और  साहस  इसे  मिटाने  के  लिए  काफ़ी  नहीं  है . उनकी  चर्चित  कविता ‘अतिमानवीय  दुख’ में निजी  गुस्से  और  आंसुओं  से  इस  दुख  को  उठाया  नहीं  जा  सकता . कविता , विचार , संगठन  और  ऐतिहासिक  शक्तियों  के बूते इसे  उठाने  की  कोशिश  की  जाती  है . कम्युनिस्ट  पार्टियां  इसे उठाने  की  कोशिश  करते  बिखरती  जाती  हैं. यह  भारत  में  कम्युनिस्ट  आन्दोलन के  बिखराव की स्वीकृति है और इस  परिणति  के  लिए  जिम्मेदार  उनके भटकाव  की  ओर एक  इशारा  भी . अगर  कविता  इस  निराशा  के  साथ  खत्म हो  जाती या  फिर  कोई  झूठी उम्मीद  जगा  कर तब  शायद यह  एक राजनीतिक  कविता न  होती. अंतर्दृष्टि  से  खाली  आलोचना  मध्यवर्गीय अवसाद  की  अभिव्यक्ति  तो  हो  सकती  है , प्रगतिशील राजनीतिक चेतना नहीं  . शुभा  की ताकत  यही  है कि  उनकी  कविताओं  में  भविष्य  का संकेत  मौजूद  रहता  है . ध्यान से  देखने  पर  दुख  के  घटाटोप  के  भीतर  से वह  दिशा  दिखाई  दे  जा  सकती है , जिधर सकारात्मक  परिवर्तन  की  सम्भावना  मौजूद हो .

“...इसे उठाने के लिए
कुछ और चाहिये
इन सबके साथ
उठाने का कोई नया ढब..”

अब  उठाने  का  नया  ढब  चाहिए . यानी परिवर्तनकामी शक्तियों  को  अपनी  समूची  रणनीति  और  कार्यनीति  पर  पुनर्विचार  करने  की  जरूरत  है !

नब्बे के बाद हिंदी कविता में प्रेम कोई निरापद विषय नहीं रह गया है . स्त्री-कविता के हस्तक्षेप लैंगिक असमानता से ग्रस्त समाज में प्रेम की हक़ीकत खुलने लगती है . लैंगिक विभाजन वर्गीय विभाजन से कहीं अधिक पुराना और मूलगामी है . स्त्री- पुरुष का रिश्ता दास स्वामी की रिश्ते में इस हद तक संरचित हो चुका है कि यह प्रेम को तनावग्रस्त कर देने से कुछ अधिक करता है . शमशेर की कविता टूटी हुई, बिखरी हुईहिंदी की सर्वश्रेष्ठ कविताओं में इसलिए शुमार की जाती है कि यहाँ प्रेम के भीतर के तनाव , टूटन और बिखराव दिखाई देते हैं. यहं कम से कम एक ऐसा पुरुष है जो ईमानदारी से प्रेम की शक्ति-संरचना के दबाव में प्रेम के भीतर होने वाली टूटफूट को दर्ज करता है . पितृसत्ता के अंतर्गत एक सच्चे और संवेदनशील पुरुष को भी यह टूटा-फूटा प्यार हीमिल सकता है .यह एक  हादसा  तो  है  ही , लेकिन पुरुष  के  लिए  यही इस  हादसे  की  आख़िरी हद  है .आख़िर  वह  इस  समाज  का स्वामी  है  .   स्त्री  दास  है  , इसलिए  उसका  अनुभव कुछ  और  है  . उसके  लिए तो  प्रेम एक  खूबसूरत  धोखा या  मीठे  ज़हर  के  सिवा  और  कुछ  हो  ही  नहीं  सकता . पुरुष  के वर्चस्व को  बनाए  रखने   के  निमित्त स्त्री  का  समर्पित  सहयोग  पाने का  उपाय  , ताकि  , जहां  तक  हो  सके , बलप्रयोग    करना  पड़े !  प्रेम  का  यह  स्त्री-दमनकारी रूप किन्ही  ख़ास  वर्गों  या  जमातों  तक सीमित  नहीं  है . सबसे  उदार  और  प्रगतिशील  पुरुष  भी इससे  मुक्त  नहीं  हो  सकते .  यह  उनके  चुनाव  का  मामला  नहीं  है .  सामाजिक संरचना  की  परिणति  है . जब  तक  पुरुष  का प्रभुत्व   कायम  है  , स्त्री  के  लिए  पुरुष  का प्रेम दास  के  प्रति  स्वामी  के  प्रेम  से गुणात्मक  रूप  से  भिन्न  हो  ही  नहीं  सकता . लालसा  हो  या  करुणा , स्त्री  की  लिए  पुरुष का  कोई  भी   भाव ‘उपभोग’  की  दायरे  को  पार  नहीं  कर  सकता  . स्वामी सेविका  पर  कोड़े  बरसाए  या  उसे  फूलों  से सहलाए , दोनों   उपभोग  के ही  दो  अलग  अलग  तरीके    हैं.

स्त्री-पुरुष  के बीच स्वामित्व का  रिश्ता केवल  सांस्कृतिक  और  राजनीतिक  कारणों  से  नहीं  है . इसका  ठोस  आर्थिक  आधार है . यह  उस आदिम  लैंगिक  श्रमविभाजन का परिणाम है , जिसकी  ईज़ाद  स्त्री  पर  पुरुष का वर्चस्व  बनाए  रखने  के  लिए  की  गई  थी. श्रमविभाजन  का  वह  रूप अब  भी कायम  है , इसीलिए  स्वामित्व  भी कायम है . इस  रिश्ते  को  बदलना इस  श्रम-विभाजन  को  बदले  बिना  नामुमकिन  है . “मित्रों  की  दुनिया “  में  प्रेम  के इस समूचे  यथार्थ  को देखा  जा  सकता  है .

“....   मेरी खुदाई के निशान बंज़र ज़मीन पर कम मेरे हाथों पर ज़्यादा पड़ते थे
मैं पानी देती थी उनके खेतों में

वे अपनी फसल लेकर मण्डी में जाते थे
मैं क्या लेकर जाती मण्डी में पानी के साथ मेरी मेहनत ख़र्च हो चुकी होती थी...”

पुरुष-वर्चस्व  की बुनियादी  संरचना  भले  ही हज़ारों  वर्षों से  बहुत    बदली  हो , इसका  स्वरूप  और इससे  उपजने  वाली  हिंसा आर्थिक-राजनीतिक  ढाँचे  के  बदलने  के साथ  बदल  जाती  है . शुभा की  कविता  का  इतिहासबोध  इसे  बारीकी  से  देखता  है . हमारे  अपने  समय  में स्त्री  के  खिलाफ़ हिंसा  में तेज बढ़ोत्तरी  हुई  जान  पडती  है  .इस   बढ़ोत्तरी  के पीछे एक  बड़ा  कारण स्त्री  की  बढती हुई  चुनौती है  , जो  घर  से बाहर  तक  पुरुष को मिल  रही  है  . पुरुषों  के  एकाधिकार  वाले  बहुत  से इलाकों  में   स्त्रियों  ने घुसपैठ  कर ली  है . कहीं  कहीं  वे सत्ता केन्दों   पर  भी  काबिज  होने  लगी  हैं . शिक्षित  बारोजगार स्त्री घर  के कामकाज  में भी सहयोग मांगने  और  लेने  लगी  है . पुरुष  इस  तेज  बदलाव  के लिए  न तो मानसिक  रूप से  तैयार  है  , न  प्रशिक्षित  है . वह  कुंठित  और  भयभीत  है  . यह  बढ़ती  हुई  सामूहिक कुंठा गैंगरेप  की  बढती  हुई  वारदातों के  पीछे  एक  कारण  हो  सकता  है . ‘गैंगरेप ‘  कविता  में यौनहिंसा  का  यह  सारा  समकालीन  समाजशास्त्र अपनी  समूची  जटिलता  के  साथ  मौजूद  है . लेकिन कविता  कुछ  और  है  . यह  कुछ  और  न होता  तो  कविता एक  सामाजिक  दस्तावेज़ हो  कर  रह  जाती . यह  कुछ  और  है भयोत्कंठित हिंस्र  पुरुष  की तुलना  में  उसे  चुनौती  दे  रही स्त्री  को   एक  उच्चतर और  शुभ्रतर प्राणी-प्रजाति  के  रूप  में  परिकल्पित  करना . ‘ गैंगरेप ‘ कविता  का  अंत इसी  कुछ  और  पर  होता  है .

“...योनि, गर्भाशय अण्डाशय, स्तन, दूध की ग्रंथियों 
और विवेक सम्मत शरीर के साथ
गुणात्मक रूप से अलग मनुष्य
जब नागरिक समाज में प्रवेश करता है
तो वह एक चुनौती है

लिंग की आकृति पर मुग्ध
विवेकहीन लिंगधारी सामूहिक रूप में अपना
डगमगाता वर्चस्व जमाना चाहता  है.”

‘लिंगधारी’ आदमखोर  हो  चुके  इस  कुंठित पुरुष-प्राणी  को कविता  द्वारा  दिया गया नाम  है . यह  एक  नाम  अकेले  इस कविता  को  सार्थक करने  की  क्षमता  रखता  है . लिंगधारी  वह  व्यक्ति  प्रतीत  होता  है  , जिसकी  सम्पूर्ण  चेतना  लिंग  में  समाहित  है . लिंग  ही उसकी सम्पूर्ण  अस्मिता  है , लिंग  ही  महत्वाकांक्षा .

यह  लिंगधारी  आदमखोर  मासूम  बच्चियों के साथ बलात्कार  कर  सकता  है . गैंगरेप  में  शामिल  हो  सकता  है . लेकिन इस  प्रत्यक्ष हिंसा  में शामिल  हुए बिना  भी आदमखोर  बना  रह  सकता  है . स्त्री  को  सम्पूर्ण  मनुष्य  के  रूप  में  देखने की  जगह  उसे  अवयवों के   एक समुच्चय   के रूप  में  देखनेवाला हर  एक  लिंगधारी उतना  ही  बड़ा  आदमखोर  है .
“आदमखोर” कविता  का  पहला  अंश  यों  है .

“.. एक  स्त्री  बात  करने  की  कोशिश  कर  रही  है
तुम  उसका  चेहरा  अलग  कर  देते  हो  धड़  से
तुम  उसकी  छातियाँ  अलग  कर  देते  हो
तुम  उसकी जांघें  अलग  कर  देते  हो

एकांत  में  करते  हो आहार 
आदमखोर तुम  इसे  हिंसा  नहीं  मानते ....”
स्त्री  के  खिलाफ़  पुरुष की  हिंसा  इस  से  भी  अधिक सूक्ष्म और छलनामय  हो  सकती  है .
वह  करुणा  का  भेष बना  कर  भी    सकती  है . रेप  की  विस्तृत  कहानियाँ  छापने वाले  अखबार , उनके नाट्य-रूपांतरित दृश्य  दिखानेवाले  टीवीचैनल , उन  पर बननेवाली  सुपरहिट फीचर  फ़िल्में  अपनी  करुणा  जताने और  दर्शकों  की  करुणा  जगाने के  लिए  अक्सर  किसी लुटी-पिटी  , शर्मसार , रोटी-बिलखती  लड़की की  तस्वीरें  दिखाते  हैं .रेप  करनेवाले  शर्मसार  या बेशर्म  लिंगधारी  नहीं  दिखाए  जाते . दिखाने  पर  दर्शक  का  आक्रोश  जाग सकता  है . लेकिन  रेप  के  खिलाफ़  आक्रोश  नहीं  जगाना , सर्वाइवर को  शर्मसार  करना  है  . फिर  उसकी  तस्वीरें दिखा कर  हर  लडकी  को खुद   ‘भावी  शिकार’  के रूप  में  देखने  और  शर्मसार  होने  के  लिए मजबूर  करना  है .  उत्पीड़ित  अपमानित  लड़की की  यह छवि  लिंगधारी  की करुणा का  सहज  उपादान  बन  जाती  है , क्योंकि यह  उसे  आश्वस्त  करती  है . बताती  है  कि  उसका  लिंग सुरक्षित  है . उस  लिंग की  घातक  क्षमता  सुरक्षित  है . उसका  वर्चस्व  सुरक्षित  है . करुणा  इस  आदमखोर लिंग  को  कवच  प्रदान  करती  है .
‘गौरवमयी  संस्कृति’ कविता  की  अंतिम पंक्ति  यों  है –

“स्त्रियों के  आंसू   हमें  उसी  तरह  प्रिय  हैं
जैसे  अपनी  वीरता  और  अपना  पौरुष “

शुभा  की  कविता  में  आदमखोर  लिंगधारी  की  शिनाख्त पुरुष  मात्र  को  हिंस्र  प्राणी के  रूप  में  प्रदर्शित  करने  के  लिए  नहीं  है . अगर  ऐसा  होता तो  दोस्त , प्रेमी , साथी  और  पिता  के  रूप  में  पुरुषों  को  इतनी  शिद्दत  और  उम्मीद  से  याद    किया  जाता . आदमखोर  है  वह पुरुष-सत्ता , जो स्त्री के  साथ  साथ  पुरुष  को  भी  अपना शिकार  बना  रही  है . “पिताओं  के  बारे  में’’ कविता  में  आए  पिता  लोग  लगभग  माताओं  की तरह  ही  असहाय  और  वेध्य  हैं . ऐसे  ही  “हमेशा  रहने वाले” कविता  के  प्रेमी  लड़के  हैं, जो  खदेड़े  जा  रहे  हैं  , अपमानित  किए  जा  रहे  हैं , पारिवारिक हत्याओं  के  शिकार  हो  रहे  हैं , आत्महत्या  की  तरफ  धकेले  जा  रहे  हैं  , लेकिन प्रेम  करना  नहीं  छोड़ते . जीवन  और मृत्यु  में  प्रेमी  लड़कियों के साथ खड़े होते  हैं. शुभा  की  कविता  कहीं  एक स्वर  में  पुरुष-निंदा नहीं करती .
शुभा  की  सामाजिक  चेतना देख  लेती  है  कि जहां  जेंडर  और  वर्ग  की  सत्ताओं  का गंठबंधन होता  है और  वय  की प्रौढ़ता  भी  उससे  जुड़  जाती  हैं , वहाँ  खतरा सबसे  अधिक  होता  है , उम्मीद  सब  से  कम .

“सवर्ण प्रौढ़ प्रतिष्ठित पुरुषों के बीच
मानवीय सार पर बात करना ऐसा ही है
जैसे मुजरा करना
इससे कहीं अच्छा है
जंगल में रहना पत्तियाँ खाना
और गिरगिटों से बातें करना।“

वहीं “मैं  हूँ  एक  स्त्री” कविता  में वह एकलव्य  और  शम्बूक  से  ईर्ष्या करती नज़र  आती  है , क्योंकि  स्त्री को   तो एकांत-साधना करने तक  का अधिकार  प्राप्त नहीं  है . अपना  अंगूठा  काट  कर  किसी द्रोणाचार्य  को  देदेने  का  हक़ भी  उसे हासिल  नहीं  है  , क्योंकि  उसके अंगूठे  पर  भी पति  का अधिकार  है !
***
( हिंदी की महत्वपूर्ण पत्रिका 'पक्षधर'के नए अंक में छपे इस लेख को श्री आशुतोष कुमार ने हमें उपलब्ध कराया, इसके लिए अनुनाद उनका आभारी है।)

वीरू सोनकर की नई कविताएं

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वीरू सोनकर की कविताएं पहले भी अनुनाद पर पाठकों ने पढ़ीं हैं और उन कविताओं पर मेरी टिप्पणी भी। इस बीच उनके कथन में कुछ फ़र्क़ आया है, कुछ और आयाम उनके कवि-व्यक्तित्व में जुड़े हैं। उन्होंने सोशल मीडिया पर बेवजह की बहसों से कुछ दूरी बनाते हुए जनप्रतिबद्धता और एक गाढ़ी होती जाती वैचारिक समझ की ओर क़दम बढ़ाए हैं। वे कुछ बड़े कविता आयोजनों में शामिल हुए हैं, कविता के भीतर और बाहर कुछ ज़रूरी यात्राएं उन्होंने की हैं - इन यात्राओं के सकारात्मक प्रभाव उनकी कविताओं पर पड़ें, वे हर शोर और हर छिछलेपन से दूर रहें, ऐसी मेरी कामना है। 



१-
घुसपैठिया

हर अँधेरे का अपना रहस्य है
हर गहराई की अपनी भव्यता

अतीत उँगलियों की पोर पर बैठा स्पर्श है
टटोलना स्मृतियों से संवाद है

तस्वीरें मुझसे एकालाप करती हैं
मैं उनकी खो गयी आत्माओं के प्रेम में हूँ

बहुत गहरे जा कर बैठना,
धरती से मेरी सबसे क्रूर असहमति है
मेरा एकल चिंतन उजाले के पक्ष में
सबसे ईमानदार मतदान है

मेरा चेहरा दुखो का जीवित इतिहास है
और आँखे भविष्य की खुली बैलेन्स शीट

दूर खड़ा,
सबसे प्रिय एक भविष्य हँसता है
मैं उसके प्रेम में थोड़ा और उदास हो जाता हूँ

मेरा हँस देना दुःख की सबसे निर्मम हत्या है
और सहज होना मेरी सबसे प्राचीन उपस्थिति

भविष्य मेरे कंधे पर हाथ रखता है
मैं उसके भरोसे में खो गया सबसे मासूम योद्धा हूँ

मैं अँधेरे में बैठी सबसे चमकदार प्रार्थना हूँ
मेरा पहला उठा हुआ पैर उजाले का उदघोष हैं
मेरे हाथ से बेहतर दुनिया का कोई औजार नहीं
मेरी आवाज से बड़ा कोई नारा नहीं
मेरे हक़ से बड़ी कोई जिद नहीं

मेरी आँखों की चमक दुनिया की हर आंख में बराबर बाट दो
मैं अंततः तुम्हारे घर से ही बरामद होऊंगा
मैं तुम्हारी जेब में पड़ी सबसे आखिरी पूंजी हूँ

मेरे हाथ चूम लो, यही तुम्हारे हाथ हैं
मेरे पैर, तुम्हारे हिस्से की यात्रा में हैं
मेरा चेहरा ध्यान से देखो
इसके हर हिस्से से तुम्हारी पहचान फूट रही है
मैं कोई और नहीं
तुम्हारे एकांत में घुस आया
भविष्य का सबसे बड़ा घुसपैठिया हूँ

२-
एक और प्रेम के लिए

मैं इतना कृतज्ञ था
कि मैंने उदासी को एक जश्न की तरह जिया

इतना क्रूर हुआ कि अपनी पीठ पर चाबुक लकीरों से अपने पहले प्रेम की पाठ-भाषा रची

मैं इतने दुःख में हुआ कि सुख के हरे उपहारों को हताशा के पीले पत्तो सा चबाया

इतना विद्वान हुआ कि मुक्ति की चाह में सब कुछ विस्मृति के हवाले किया

मैं इतना बड़ा कायर हुआ कि चाहता था सातो महाद्वीप के आगे तक हो मेरा पलायन

इतना बेवकूफ कि फिर से तैयार हुआ
एक और प्रेम के लिए

३-
[ मैं हूँ तो सही ]

हाँ, मैं हूँ
अपनी विचित्रता के आकुल पाठ में
बनती-बिखरती लय में

मुझे मर जाना चाहिए था
अपने बचे रहने की अतिसूक्ष्म संभावना की टकटकी में
पर मैं हूँ
अधिकता में बहुत थोड़ा सा बचा हुआ
तंत्र में विद्रोह सा
सन्नाटे में जरुरी शोर सा!

पहाड़ का दुःख जहाँ घाटियों में रिसता है
नदी की पगडण्डी पर
घिस रहे एक कमजोर किनारे सा,
अवांछनीयता में छूट गयी बहुत थोड़ी सी अनिवार्यता सा
नृत्य में जो लयविहीन है
आकाश में तल न बन पाने के दुःख से धरती में बिधा हुआ
संवादों में किसी गैरजरूरी उल्लेख सा
विलाप में बिना बताए चले आए आलाप सा
अपने ही अस्तित्व पर चौकता
और फिर मिल जाता
एक जानी-पहचानी भीड़ में, सबसे अनजान हिस्सा बन कर

अपने पहचान चिन्हों को जेब में छुपाए
मैं हूँ तो सही.
कातर दृष्टि से देखता, पहचानो से भरी एक विराट पृथ्वी को
जहाँ पहचान-विहीनता से मर जाना
एक अभिशाप है

स्मृति के पंजों से खुद को निकालता
और हारता
उस वर्तमान से
जिसके हर आश्वासन से स्मृति झांकती है
चिढ़ चुके भविष्य को फुसलाता
स्वप्न में एक काव्य बुनता
जागता तो उसके चीथड़े गद्य में बटोरता
मैं हूँ तो सही.

न होने की तमाम नजदीकी शुभेच्छाओं में भी
मैं बिल्ली की उठ खड़ी हुई सतर्क पूँछ हूँ
बाघ की दहाड़ में छुपा हुआ कोई आदिम डर हूँ
कमजोर के भीतर चल रहे ताकतवर के विध्वंस की स्वप्निल परिणति में
मैं हूँ तो सही.

एक सभ्रांत बहस में घुस आए किसी आपत्तिजनक वाक्य सा
- आश्वस्ति को छू कर गुजरते
किसी अपराधी संशय सा!

४-
[ दोनों हाथ ]

मै इतने सकून में था
कि घुस जाने दिया चींटियों को अपने पैरों की नसों में
एक दिन को माना पिछले दिन का पुनर्जन्म, जहाँ गलतियां पुण्य में बदली जा सकती थी
और हर रात को मृत्यु का पूर्वाभ्यास!
अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण है उस रात के बाद सुबह मेरा जाग जाना!

रात-दिन के इस खेल में इतना सकून था कि मैंने दोनों हाथों से अपना मौन लुटाया!

घावों को यूँ रखा खुला
कि वायु उनका चेहरा चूम सके
मानो वह युद्ध में कट मरे अपराजित योद्धा हैं

मैं इतना गुस्से से भरा था कि एक पूरा दिन बड़े सकून से अपने जबड़ो में चबाया.
मैं इतना अधिक आशा से भरा था
कि चुपचाप देखता रहा
एक व्यग्र कवि को,
जो अपने पक्ष से धीरे-धीरे हट रहा था
धीरे-धीरे जो एक समूची पृथ्वी के पक्ष में जा रहा था

मैं अपने सकून की वृक्ष-छाया में
आलोचनाओ के प्रतिउत्तर में ओढ़ा हुआ मौन हूँ
जिज्ञासाओं के पहाड़ की तरह उगा हुआ एक ढीठ
शिनाख्तो का सबसे बड़ा सेंधमार, जिसकी हर सुरंग खुद में खुल रही थी

बावजूद इसके, मैं इतने सकून में था
कि आकाश मेरे लिए बहुत धीमे पक रही एक प्रार्थना है
जिसे एक दिन अचानक मेरे हाथों में गिर पड़ना है

मैं उम्र की व्यग्रता में मृत्यु के सकून का पहला पाठ हूँ
मुझे देर तक पढो
मेरे दोनों हाथ भरे हैं!

५-
चुम्बन

धूप का सबसे सुंदर चुम्बन है
कपास के होंठो पर सिमट बैठी सफेदी

कपास के होंठो पर खिल गया एक सफ़ेद बादल
उसके प्रेम की पहली खबर है

कपास का विरह-गीत है
धूप की गुनगुनी स्मृति से भरा
हर त्वचा का चुम्बन!

६-
जन्म

मैं अपनी स्मृतियों का जाग्रत अवतार हूँ
स्मृतियों के कुँए से बाहर निकल कर आया
यथार्थ का सबसे नवीन संस्करण!

ठीक उसी जगह पर,
जहाँ मेरी और तुम्हारी स्मृतियों के संसर्ग से
एक वर्तमान ने जन्म लिया है

***

७-
तुम्हारे लिए ( तीन कविताएं )

१-

मैं आकाश में भूमि हो जाने की संभावना हूँ
मैं कहीं नहीं जाऊँगा
मरूँगा भी नहीं

यही कहीं इसी धरती पर
तुम्हारी आँखों में
आकाश हो जाने की संभावना सा
चमकता रहूँगा

२-

तुम मुझ तक आओ
रेंगते हुए
घास के गुच्छो की तरह
मैं तुम तक आऊँ
जैसे हवा पर चल कर आती है नमी

हम मिल कर
उस खनिज की अनिवार्य नियति में बदल जाएँ
जिसकी धार
हमारी स्वांस-भट्ठी में दहक रही है

३-

मैं तुम्हे चूमना चाहता हूँ
ताकी तुम एक देह में बदल जाओ

गोद में उठा कर एक तेज़ चक्कर लगाना
तुम्हे एक सुविधाजनक भार में बदल देगा

तुम्हारी आँखों में झाँकना
एक समानांतर पृथ्वी को रच देना है

जानता हूँ यह सब एक कल्पना है
पर तुम सुनते रहना

मेरा कहना, तुम्हारा सुनना
तमाम आशंकाओं का विस्थापन है

प्रेम की बची हुई संभावनाओं का ईश्वर हो जाना है
मेरा चूमना
और तुम्हारा देह में बदल जाना!
***

८-
नदी: पाँच कविताएं

१-

नदी गर्भ से है
और उगल रही है वह नग्न स्त्रियां
स्त्रियां भी गर्भ से हैं
और मछलियां उनका प्रसव परिणाम
नदी की दह में बैठ गया एक पुरुष
नदी को एक पक्का सुरक्षित मकान जान कर
पुरुष मछलियों को खा रहा है
और मुग्ध हो रहा है उन स्त्रियों पर

किसी आश्चर्य सी एक नाल उगती है नदी के पेट में
और बांध देती है पुरुष के पेट में एक गाँठ
उस गांठ को पुरुष, स्त्रियां और मछलियाँ घृणा से देख रहे हैं

नदी किसी जर्जर ईमारत सा ढहती है
और पानी पानी हो जाती है

२-

नदी एक चीख में बदल रही है
और किनारे उसका गला दबोचे दो निर्मम हाथ
हाथ कसते ही जा रहे है
और बढ़ता ही जा रहा है नदी का दुःख!

मछलियाँ नदी की गूँगी बहने है
जिनके आँसू नदी का क्षार बढ़ा रहे है
और घटा रहे है
निर्मम किनारों का जड़त्व!

एक दिन मछलियाँ जीत जाएँगी
और नदी की चीख पृथ्वी के चेहरे पर किसी हँसी सी फ़ैल जायेगी

३-

जंगल नदी के आलिंगन में लिपटा अतृप्त प्रेमी है
प्रेम-पाश में बेसुध नदी
सर पटकती है
पर जंगल अपनी बाहें ढीली नहीं करता
नदी तुनक कर थोड़ा आगे भागती है
और जंगल,
किसी चीरे सा बढ़ता जाता है

कि रास्ते में एक बांध आता है

फिर नदी और जंगल किसी कहानी में बदल जाते है

४-

नदी की हजार बाहें हैं
पकडे हुए पृथ्वी की पीठ को
कि उछल न जाये अपनी चंचलता में नदी आकाश की ओर

पृथ्वी की पीठ मिटटी की एक इतिहास यात्रा है
जिसके कई पन्ने कुछ नदियों को किसी अफवाह सा दर्ज किये हैं
अक्सर भयानक गर्मियों में
जब ये पन्ने फड़फड़ा उठते हैं

किसी पृथ्वी की पीठ
एक मुरझाए हुए चेहरे में बदल जाती है

इतिहास फिर उसके बाद बदलता है

५-

नदी पाँव पाँव चलती है आकाश को देखते हुए
और आकाश झाँकता है
घर में बंद किसी बच्चे की खिड़की से,

नदी रोड पर जा रही है
नदी की आँखे नीली है

आकाश उसके नीलेपन से चिढ कर बार बार उसे पानी से धोता है
आकाश और सफेद हुआ जाता है
नदी और भी नीली पड़ती है

पृथ्वी गोल घूमना बंद नहीं करती कुछ इस चाह में
कि किसी दिन दोनों में कोई छिटक कर नीचे आएगा
या कोई ऊपर उछल जायेगा

पृथ्वी शरारती है
इन बिछड़े प्रेमियों की इतिहास कहानियां
अपने पेट में दबाए
वह चुपचाप हँसती है
***

संपर्क- 7275302077
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