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संदीप तिवारी की कविताएं

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संदीप तिवारी नौउम्र विद्यार्थी हैं। संयोग है कि मेरे ही निर्देशन में पीएच.डी. के लिए एनरोल्ड हैं। संदीप की कुछ कविताएं उनकी फेसबुक दीवार से ले रहा हूं। 
 
रेल


(1)
माँ बाप ने तो
केवल चलना सिखाया
जिसने दौड़ना सिखाया
वह तुम थी ....
रेल
भारतीय रेल....

(2)
जब मेरे मन में पहली बार
घर से भागने का विचार
कौंधा
तो सबसे पहले
तुम याद आई थी,
रेल..
भारतीय रेल
फ़िर जिस ने भागने से मना किया
समझाया और लौटाया भी,
वह तुम थी!
रेल
भारतीय रेल...

(3)
कुछ भी हो
इस देश में बहुतेरे लोग
मेरी तरह
कर्जदार हैं तुम्हारे,
वह तुम हो..
जो कभी तगादा नहीं करती!
रेल
भारतीय रेल...

(4)
कोई भी हो
बँधा तो रहता ही है,
जात पात में
ऊँच नीच में
पर तुम हो
केवल! तुम...
जो इस बंधन से मुक्त,उन्मुक्त हो,
रेल
भारतीय रेल...

(5)
ज़िन्दगी तो रोज ही
उतर जाती है पटरी से
पर एक तुम हो
जो गुजार देती हो अपना जीवन
पटरियों पर ही
रेल
भारतीय रेल...

***
यात्राएँ


1-
बिना पैसे की यात्राएँ
ज्यादा रोचक होती हैं
ठीक वैसे ही,
जैसे ज़िन्दगी !

2-
किताबें बोझ हो सकती हैं
मगर
यात्राएँ नहीं,
किताबों के पात्र
यात्राओं में
ज़्यादा सहज होते हैं..

3-
किसान की भाषा में कहूँ, तो
यात्राएँ,
खाद-पानी होती हैं,
बिना इनके
लहलहाना संभव नहीं।

4-
बिना कैमरे के भी
होती हैं
यात्राएँ,
गवाही के लिए
चाँद है, सूरज है
और तस्वीरें .......
उसे रास्ते दफना के
एल्बम बना देते हैं।

5-
किताबों में बहुत हद तक
झूठ हो सकता है,
मग़र यात्राएँ......
यात्राओं में ऐसा कुछ नहीं होता।
किताबों में भूत होते हैं
यात्राओं में नहीं होते,
कहीं नहीं-
सिर्फ़ डराते हैं..

6-
कुछ करें न करें..
पर आदमी को
सूखने नहीं देती हैं,
यात्राएँ..

7-
छोटी बड़ी नहीं होती,
सुरीली होतीं हैं
यात्राएँ...
सिर्फ़ यात्री पहचानते हैं,
इनके
सुर और ताल

***
गाँव, घर और शहर


याद न करना घर की रोटी
घर का दाना
शहर की दुनिया में जब आना
मत घबराना


बड़ी खोखली है यह दुनिया
थोड़ी चोचली है यह दुनिया
किसिम-किसिम के जीव यहाँ पर
इनसे बचकर आना-जाना
मत घबराना.....


शहर की दुनिया में जब आना
गली शहर की मुस्काती है
फ़िर अपने में उलझाती है
इस उलझन में फँस मत जाना
शहर में रुकना है मज़बूरी
गाँव पहुँचना बहुत ज़रूरी
गाँव लौटना मुश्किल है पर
मत घबराना...


समय-समय पर आना-जाना
चाहे जितना बढ़ो फलाने
स्याह पनीली आँखों से तो
मत टकराना
धीरे-धीरे बढ़ते जाना
कुछ भी करना,
हम कहते हैं घूँस न खाना
शहर की दुनिया में जब आना
मत घबराना.....


जब भी लौटा हूँ मैं घर से
अम्मा यही शिकायत करती
झोला टाँगे जब भी निकले
मुड़कर कुछ क्यों नहीं देखते
अब कैसे तुम्हें बताऊँ अम्मा
क्या-क्या तुम्हें सुनाऊँ अम्मा
तुमको रोता देख न पाऊँ
तू रोये तो मैं फट जाऊँ...
सच कहता हूँ सुन लो अम्मा...
यही वज़ह है सरपट आगे बढ़ जाता हूँ
नज़र चुराकर उस दुनिया से हट जाता हूँ
आँख पोंछते रोते-धोते थोड़ी देर तक
पगडंडी पर घबराता हूँ
किसी तरह फ़िर इस दुनिया से कट जाता हूँ

***

नये साल की कौन बधाई

नाम वही है. काम वही है,
वही सबेरा शाम वही है
साल बदलने से क्या होगा?
ताम वही सब, झाम वही सब,
अपने अल्लाह राम वही सब,
साल बदलने से क्या होगा ?

***
टिकट काटती लड़की


हल्की पतली नाक
और चमकती आँख
गेहुँआ रंग, घने बालों में
हल्का होंठ हिलाकर बोली
चलो बरेली चलो बरेली
बस के अंदर टिकट काटती
टिकट बाँटती लड़की....


गले में काला झोला टाँगे
हँस-हँस कर बढ़ती है आगे
बहुत आहिस्ता पूछ रही है
कहाँ चलोगे??


कान के ऊपर फँसा लिया है
उसने एक कलम
हँसकर शायद छिपा लिया है
अपना सारा ग़म
उसी कलम से लिखती जाती
बीच-बीच में राशि बकाया,
बहुत देर से समझ रहा हूँ
उसकी सरल छरहरी काया....

बस के अंदर कोई फ़िल्मी गीत बजा है
देखो कितना सही बजा है...
"तुम्हारे कदम चूमे ये दुनिया सारी
सदा खुश रहो तुम दुआ है हमारी।"


घूम के देखा अभी जो उसको,
टिकट बाँटकर
सीट पे बैठे
पता नहीं क्या सोच रही है
किसके आँसू पोंछ रही है.
कलम की टोपी नोच रही है..!




उपासना झा की कविताएं

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उपासना झा ने इधर अपनी कविताओं से एक मौलिक पहचान हिंदी-जगत में बनाई है। हिंदी के कुछ महत्वपूर्ण ब्लाग्स पर उनकी कविताएं पिछले कुछ समय से लगातार पढ़ी जा रही हैं। अनुनाद पर वे पहली बार छप रही हैं। इन कविताओं के प्रकाशन के साथ अनुनाद उन्हें लम्बी रचना-यात्रा के लिए शुभकामनाएं देता है।
--- 

प्रतीक्षा
 

संसार की सब सूनी आँखों से
भाप बनकर उड़ गए थे आँसू
धरती पर योंही इतना खारा पानी
आँसुओं के महासागर नहीं

 
जबकि जिए जाने को ज़रूरी थी नमी

पत्थरों की दरारों से कभी-कभी
कोई दरक उठ आना ज़रूरी था

 
जिन आँखों ने इंतज़ार पहन लिया हो
वे सीख जाती हैं अपनेआप
स्थिर रहना, शांत रहना, निर्लिप्त रहना

जिन स्त्रियों के प्रिय नहीं आते लौटकर
ना ही आ पाती है कोई ख़बर बरसों-बरस
उनके लिए सब मौसम बर्फ़ीले होते हैं
 

जब भी हिलने लगे तुम्हारा भरोसा प्रेम से
ऐसी किसी स्त्री से मिलना

संसार जिनका सब कुछ छीन चुका हो
नहीं छीन पाया हो उनके हिस्से का प्रेम
तुम बाँटना मत उन्हें उन स्त्रियों में
जिनके प्रिय परदेश चले गए
या सीमा की रक्षा में रत रहे
या बने आतंक के पैरोकार


एक दिन में, एक पूरे दिन में
धरती भी घूम जाती है अपनी धुरी पर
हर तीन महीने में मौसम बदल जाता है
हर छः महीने में छोटे-बड़े हो जाते हैं दिन-रात
तीन सौ पैसठ दिनों में बदल जाता है कैलेंडर
हर चौथे साल में फरवरी हो जाती है उनतीस की
पांच सालों में बदल जाता है दिल्ली का निजाम
हर छठे साल होगा अर्धकुंभ

इन स्त्रियों के दिन नहीं लौटते
इन स्त्रियों की क़िस्मत नहीं बदलती
इस बेढब दुनिया में बचा हुआ
प्रेम, विश्वास और जीवन
यही स्त्रियाँ हैं जो खड़ी रहती हैं
रोज़ घर के दालान में
किसी नहीं आने वाली चिट्ठी के इंतज़ार में

***

किस्सा-कोताह 
प्रेम का एक तर्जुमा हमने ये किया था
कि उसे मेरी उघड़ी हुई पीठ पर हाथ रखना पसंद था
और मुझे उसे सोते देखना
 

उसे देह के आदिम गीत का पाठ, पुनर्पाठ
कंठस्थ करना था
 

मुझे रुचते थे
उसके कंठ से जरा नीचे बने दो गह्वर
जहाँ छिप कर मैं सो सकती थी छह महीने लंबी नींद
 

दुनिया के इतिहास, भूगोल
सिमट आये थे बस उस घर की चौहद्दी में


प्रेम बना देता है मनुष्य को आधी नींद सोया पाखी
जहाँ उसकी भूख-प्यास-नींद-चाह
सब आधे में ही तृप्त रहती हैं।
 

उसे भाने लगा था मेरी तरह ही पानी और आकाश का रंग
बसंत का रंग मुझे भी अब ठीक लगने लगा था
हमने चुन लिया था एक बीच का रंग भी,
..उस रंग को देखकर अब भी काँप उठते हैं पैर
और सोचने लगता है मन
कि वो रास्ता किधर गया
जहाँ बैठकर पढ़ने लगा था वो मेरी पसन्द की किताबें
और मैं देखने लग गयी थी मार-धाड़, साइंस-फ़िक्शन
कुमार गंधर्व से लेकर नुसरत साब
अब बंटे हुए नहीं थे।
आदतें घुलमिल गयी थीं चाय में चीनी की तरह..


मुआ शायर कहता है कि दिल टूटने की चीज़ थी
मुझे यकीं है उसका दिल टूटा नहीं होगा कभी
नहीं तो दिलासा भी ऐसी नहीं लिखता
प्रेम बन गया था एक आदमख़ोर
दूर से खून सूँघ लेता था
और जब कोई शिकार न मिले तो
अपने ही दिल से भूख मिटा लेता था।
 

रूमी कहते हैं कि
दिल को टूटने दो, इतनी बार-इतनी बार
की खुल जाए,
उसे क्या मालूम कि इस खुलने में बिखरना भी बहुत होता है।
दर्द भले पहचाना हो घाव तो नया ही लगता है।


अब बस मसला है नींद का, जो चली गयी है किसी अनजान यात्रा पर
हँसी का जो कभी आये तो हैरान करती है
कि तमाम बातें भूलकर भी हँसना नहीं भूल सके।
होना यह था कि वह हीर सुनता मेरे साथ सुबह उठकर
जबकि आँख खुलते ही साथ उठता है
कनपटी से उठता दर्द।

*** 
 
रोना
 

1
रोना इसलिए भी ज़रूरी था
कि हर बार
हथियार नहीं उठ सकता था

रोना इसलिए भी ज़रूरी था
कि हर बार
क्रांति नहीं हो सकती थी


2
रोना सुनकर
निश्चिन्तिता उतर आई थी
प्रसव में तड़पती काया में

रोना सुनकर
चौका लीपती सद्यप्रसूता की
छातियों में उतर आया था दूध


3
रोना था साक्षी

संयोग-वियोग का
जीवन-मरण का
मान-अपमान का
दुःख-सुख का
ग्लानि-पश्चाताप का
करुणा-क्षमा का
व्यष्टि-समष्टि का
प्रारब्ध और अंत का


4
रोकर
नदी बनी पुण्यसलिला
आकाश बना दयानिधि
बादल बने अमृत
पृथ्वी बनी उर्वरा
वृक्षों पर उतरा नया जीवन
पुष्पों को मिले रंग


5
रोना भूलकर
बनते रहे पत्थर
मनुष्यों के हृदय
उनमें जमती रही कालिख
उपजती रही हिंसा
उठता रहा चीत्कार
काँपती रही सृष्टि


6
रोना

बनाये रखेगा स्निग्ध
देता रहेगा ढाढ़स
उपजायेगा साहस
बोयेगा अंकुर क्षमा का
इतिहास ने बचा लिया है
शवों के ढेर पर रोते राजाओं को


7
स्त्री को सुनाई कल्पित मिथकों में

वह कथा सबसे करुण है
जिसमें उसके रोने से
आँसू बनते थे मोती
उनकी माला
आजतक गूँथकर पहना रही है स्त्री
पुरुष 'नकली है'कह कर रहा
और मालाओं की इच्छा


8
रोना है

सबसे सुंदर विधा
अपने आँसुओं से धुलती है
अपनी ही आत्मा

रोना
इसलिए भी जरूरी था
कि मर जाने की इच्छा
टुकड़ो में जीती रहे।
***

तुम्हारे लिए
आँखों में काजल हो-न-हो
उनके नीचे काले घेरे बने रहते हैं
जिन्हें उल्टा चाँद तुम कह लेते हो
कभी किसी कोमल क्षण में,
और अपनी छोटी उंगली से फैला हुआ काजल
ठीक करते हुए बहाने से एक टीका
लगा देती हूँ तुम्हारे कान के जरा नीचे
और तुम जिस तरह मुस्कुराते हुए पूछते हो
'कुछ था क्या'
जवाब में सर हिलता है नहीं में
लेकिन छाती में उठती है जो अकुलाहट
उसे कौन से सुर में बताया जाए
तुम्हारे लिए मेरा प्रेम वर्णमाला का वह अक्षर है जो किसी को पढ़ना नहीं आता
एक शब्दकोश है
जिसकी लिपि लुप्तप्राय है
मैं लिखती हूँ तुम्हें कई चिट्ठियां उसी भाषा में; हर रोज़
और बीच चौराहे उसे टाँग आती हूँ
किसी इश्तेहार की तरह
तुम्हारा नाम लेने भर से
बहुत ख़राब मौसम बदल सकता है
रुमानियत में
और उस पाकिस्तानी मक़बूल शायर की तरह
मैं भी कह देना चाहती हूँ
'कोई तुम सा हो तो फिर नाम भी तुमसा रखे'
***

गाँव के प्रति
 

बची रहे पगडंडियां और उनसे गुजरती राह
बची रही मेरे गाँव में बहती गण्डक में धार
बने रहे घाट और लोग जोहते बाट
उन परदेसियों की जो
आते हैं सालों बाद
या न भी आयें
तो बची रही उम्मीद उनके लौट आने की
बचे रहे धान-दूब,
बची रहे हरीतिमा
बची रही सुबह के सूरज में लालिमा
सौंधी रहे धरा नीला रहे आकाश
टिमटिमाता रहे गाँव के ठाकुरबाड़ी का प्रकाश
बने रहे पञ्च बनी रहे धारणा
की न्याय अब भी मिलता है वहाँ
बची रहे चूल्हे में थोड़ी सी आंच
मकई की रोटी और खेसारी के साग
साल दर साल खाली होते मेरे गाँव में
बची रही अब भी खेती करने की ललक
बनी रही आस्था आषाढ़ के मेघ में
बना रहा बसा रहे मेरा ये गाँव

****

नवल अल सादवी : अनुवाद एवं प्रस्तुति - सुबोध शुक्ल / 1

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(सुबोध शुक्ल हिंदी के तेजस्वी युवा हैं। कुछ समय पहले उनके सम्पादन में पश्चिम के स्त्रीवादी चिंतन पर एक महत्वपूर्ण किताब गूंगे इतिहासों की सरहदों परआधार प्रकाशन से छपी है। पहलके लिए उत्तरआधुनिकता पर एक सिरीज़ वे इन दिनों लिख रहे हैं। इसी क्रम में पक्षधरने मिस्त्री चिंतक व लेखिका नवल अल सादवी की एक किताब पर उनके काम को अपने अंक में प्रमुखता से छापा है। पक्षधर वाले लम्बे आलेख को अनुनाद पत्रिका के प्रति आभार ज्ञापित करते हुए अपने पाठकों के लिए प्रस्तुत करने जा रहा है। हमारे बर्बर समाजों के इन हिंसक प्रसंगों पर हिंदी में मूल पाठ कम पढ़े गए हैं, इस तरह यह सुबोध के प्रति आभार ज्ञापित करने का भी समय है कि वे उन मूल पाठों तक हमारी पहुंच बना रहे हैं।) 

-अनुनाद

नवल अल सादवी,मिस्री स्त्री-लेखिका, चिन्तक और पेशे से चिकित्सक रही हैं. मुस्लिम समाज में स्त्रियों की दिशा और दशा को रेखांकित करने वाली अग्रणी महिला-विमर्शकारों में उनका नाम लिया जाता है. यह प्रस्तुति उनकी मानीखेज़ कृति The Hidden Face Of Eve : Women In the Arab World (1977)से है जिसमें वे अरब समाज में अनवरत समानांतर रूप से मौजूद साम्राज्यवादी शक्तियों और कट्टरपंथी ताकतों की आपसी मिलीभगत के अरबी औरतों पर पड़ने वाले प्रभावों को जांचती-परखती हैं साथ ही वे अरबी स्त्री के जैविक और सामाजिक संघर्षों के अंतर्विरोधों और अड़चनों का भी विश्लेषण करती हैं.]   



                                                         प्राक्कथन



चिकित्सा-क्षेत्र में ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में लम्बे समय से काम करते रहने, और दिन-ब-दिन मेरे घर की घंटियाँ बजाते, मेरी दहलीज़ पर आते-जाते स्त्री-पुरुषों के मनोवैज्ञानिक और यौन समस्याओं के बोझ से भरे चेहरों ने, मुझे यह किताब लिखने के लिए प्रेरित किया.

बहुत सारे लोग ऐसा सोचते हैं कि यह अध्ययन सिर्फ औरतों, उनके परिवारों, बच्चों और पतियों तथा उनके अपने निजी जीवन की भावनात्मक तथा यौन उलझनों से सम्बंधित है. स्त्रियों से जुड़े हुए परम्परागत अध्ययन सबसे नगण्य और तुच्छ विषय माने जाते हैं क्योंकि इन्हें बड़ी सीमित प्रकृति वाला, एक ख़ास समूह से सम्बंधित और बड़ी संकीर्ण संभावनाओं से भरी समस्याओं वाला माना जाता रहा है. क्या औरतों का संसार, परिवार और बच्चों तक ही सीमित नहीं मान लिया गया है? और कैसे यह छोटी सी दुनिया हमारे वक़्त के बड़े मानवीय और राजनीतिक मुद्दों से सामने खड़े हो सकने की हिम्मत कर सकती है जो आज़ादी, न्याय और समाजवाद के भविष्य से जुड़े हुए हैं और जो हमारे जूनून और विचारों को हिम्मत देते हैं; उन्हें आगे लाते हैं.

और फिर समाज में महिलाओं की दशा का गहराई से अध्ययन का कोई भी प्रयास, यदि उसे मात्र प्रजनन का साधन मानने के रवैये से मुक्त कर देखा जाएगा, तो मनुष्य जीवन से जुड़े तमाम मामलातों के वृहत्तर परिप्रेक्ष्य को लेकर आगे बढेगा. यह अध्ययन हमें राजनीति से सम्बंधित सामान्य चिंताओं की ओर ले जाएगा जोकि आज़ादी और सत्य के अनंत संघर्षों के साथ गुंथी होती है. 

चूंकि किसी भी देश की ‘उच्चतर’ राजनीति बहुत सारे छोटे-छोटे पत्थरों की निर्मिति होती है, साथ ही उन वृत्तांतों की भी जो जीवन के सामान्य ढांचों में घुले-मिले होते हैं. ये वृत्तांत व्यक्ति की निजी ज़रूरतें, समस्याएं और कामनाएं हैं. व्यक्तियों की निजी जिंदगियां और उनकी ज़रूरतें ही वे निर्देशात्मक और उत्प्रेरक शक्तियां हैं जो राजनीतिक इच्छा, नीतियों एवं देश की राजनीति की विवेचना में रूपांतरित होती हैं. इस निजी जीवन में ही यौनाचार की जटिलताएं, स्त्री-पुरुष सम्बन्ध और श्रम-विभाजन तथा उत्पादन के सम्बन्ध शामिल हैं. वे जो स्त्रियों की समस्याओं और यौनाचार को बात करने के लिए नाकाबिल मुद्दा मानते हैं, राजनीति के सिद्धांत को या तो समझते नहीं या उसकी उपेक्षा करते हैं. इस तथ्य से अधिक समय तक मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि स्त्रियों की हीन दशा, आपेक्षिक पिछड़ापन, समाज को भी पूरी तरह से एक अपरिहार्य पिछड़ेपन की ओर धकेलता है. इसी वजह से स्त्री-मुक्ति को, उत्पीड़न के सभी रूपों के खिलाफ संघर्ष, और साथ ही समाज के सभी शोषित वर्गों एवं समूहों की मुक्ति, जो निश्चित ही राजनीतिक और यौन भी है ही, का आभ्यंतरिक  हिस्सा माने जाने की ज़रुरत है.

कुछ ऐसे हैं जो अभी भी इस बात से इनकार करते हैं कि अरब औरतें हमारे क्षेत्र की सामाजिक प्रगति में पीछे हैं और इस सिलसिले में अपनी हो रही आलोचना से भी मुंह मोड़ लेते हैं. ऐसा रवैया, अपनी बुनियादी बेईमानी के अलावा, अरब देशों के विकास के रास्तों में बड़ी बाधा है. इस वजह को निर्मूल करने के लिए जिस निष्ठा की आवश्यकता है वह यह कि हम अपनी कमजोरियों को छिपाने के बजाय उन्हें उजागर करें. यह ज़रूरी है अगर हमें उन पर विजय पानी है.

विगत सालों में बहुत सारे गंभीर अध्ययन प्रकाशित हुए हैं जिन्होंने सामाजिक बुराइयों को बेनकाब करने में बड़ा योगदान दिया है. अगर अरब समाज सभी क्षेत्रों में अपना विकास चाहता है तो उसे इन्हें निदान के तौर पर अपनाना चाहिए- वह आर्थिक, राजनीतिक, मानवीय या नैतिक कोई भी हों. अरब विद्वानों के बहुत से अध्ययनों में मैं हलीम बराकत की किताब The River With No Embankmentsका ज़िक्र करना चाहूंगी.उन्होंने बताया कि कैसे १९४८ से १९६७ के बीच लड़े गए क्रमिक युद्धों के दौरान, इजरायलियों ने प्रवास को बौखला देने के लिए, पारंपरिक फिलिस्तीनी अरबों की ‘यौन संवेदनशीलता’ का फायदा उठाया. १९६७ के युद्ध में अरबियों के जौर्डन के पश्चिमी तट को छोड़कर जाने के लिए मजबूर कर देने वाले कारणों में से एक था- अपनी औरतों की इज्ज़त को बचाने की चाह. अब यह समझना आसान होगा की क्यों कुछ अरब चरमपंथी A’ard (इज्ज़त) शब्द को शब्दकोष में  Ard (ज़मीन) शब्द से बदले जाने की वकालत करते हैं.

इस तरह से हम निजी मामलों जैसे स्त्री-कौमार्य और ख़ास राजनीतिक घटनाओं जैसे अरब शरणार्थियों के विशाल समूह के प्रवास के अंतर्संबंध को विवेचित कर सकते हैं, जिसकी वजह से इजरायल अरबियों की जमीन पर कब्ज़ा कर सका. बहुत सारे उदाहरणों में से यह एक है जो बताता है कि लड़कियों और स्त्रियों की समस्याओं के अध्ययन के ज़रिये, समाज में यौन और नैतिक संबंधो के विभिन्न पहलुओं पर, उन सभी लोगों द्वारा  पर ध्यान दिया जाना चाहिए जो हमारे देश के भविष्य को लेकर वाजिब चिंता रखते हैं.

कुछ सालों में अरब देशों में मेरी कुछ किताबें प्रकाशित हुई हैं, जो इन सवालों से जूझती हैं. लेकिन इन सभी किताबों में Women And Sex वह किताब है जिसने वृहत्तर रूप में आम जीवन को बेहद प्रभावित किया. इसका पहला संस्करण बहुत तेजी से बिक गया पर बढ़ती हुई मांग के कारण आगामी संस्करणों की ज़रुरत महसूस होने लगी. जैसे ही यह आया मुझे लगा कि मैं ज्वालामुखी के कगार पर बैठी हुई हूँ और लगातार इसकी गर्जना को अपने पास आते सुन रही हूँ. दिन ब दिन चिट्ठियों की खेप, टेलीफोन की आवाज़, जवान और बुज़ुर्ग स्त्री-पुरुषों की आवाजाही धीरे-धीरे बढ़ने लगी. इनमें से सबसे ज़्यादा वे थे जो समस्याओं का निदान चाहते थे. इसके बाद कुछ थे जो निराश थे और मैत्रीपूर्ण माहौल में बतियाना चाहते थे, बहुत कम ही थे जो शरारती किस्म के और धमकाने वाले थे.

मैं दरवाज़े पर बार-बार बजने वाली घंटियों, डाक-पेटी में दिखती चिट्ठियों के बंडलों, फोन की घंटियों और मेरे कस्बाई छोटे से घर के हॉल में अथवा मेरे ऑफिस के फर्श पर चलते हिचक भरे क़दमों की आदी हो चली थी. यहाँ तक कि कुछ लोग तो पड़ोसी अरब मुल्कों से भी आने लगे थे.

आने वालों के लिए मेरे दरवाज़े, दिल और दिमाग सब खुले थे. पर जैसे-जैसे वक़्त बीतता गया मुझे लगने लगा कि यह एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है और तमाम अडचनों से भरी है. क्योंकि हमारे समाज में औरत और मर्दों की समस्याओं का कोई अंत नहीं है और तब तक कोई समाधान भी नहीं है जब तक एक पुख्ता और व्यापक प्रयास अपनी कमजोरियों को समझने और उनको जड़ समेत सामने लाने का नहीं किया जाएगा. वे जडें जो असल में राजनीतिक, सामाजिक,आर्थिक, यौनिक और इतिहासगत संरचनाओं में निहित हैं, जिस पर हमारी ज़िन्दगी खड़ी है. बहुत सारे पत्रों ने मुझसे इस ज़िम्मेदारी को लेने और इस पर आगे बढ़ने को कहा. मेरे लिए एक ही साथ यह चिंता और खुशी का विषय था. पहले की अपेक्षा मैं इस बात को लेकर और आश्वस्त हो चली थी कि हमारे समाज में औरतों और मर्दों की एक बड़ी संख्या ज्ञान की प्यास और विकास की भूख को संजोये है.

हालांकि, यह भी बड़ा स्वाभाविक था कि एक बहुत ही अल्पसंख्यक वर्ग मेरे इस काम से आतंकित और डरा हुआ था. कलम से लिखे गए शब्द नश्तर की तरह मांसपेशियों में घुसकर स्पंदनशील नसों और गहरी धंसी धमनियों को उभारकर कर सामने ले आते हैं. यह अँधेरे में रहने के आदी लोगों का भय था जो एकाएक रोशनी पड़ने से बौखला गए थे. कुछ चिट्ठियों में मुझे उन तमाम तथ्यों और सूचनाओं को प्रकाशित करने से मना किया गया जो मैंने सालों के धैर्य से अर्जित किये थे. उनकी बातें बिलकुल वैसी थीं जैसे एकाएक प्रकाश पड़ने से आँखों को हाथों से बंद करने का प्रयास किया जाय. और एक दूसरा अल्पसंख्यक वर्ग जो सत्ता और अधिकार संपन्न था उसने मुझे मिस्र के जन-स्वास्थ्य मंत्रालय के स्वास्थ्य-शिक्षा के निदेशक पद से हटाने का फैसला सुना दिया; साथ ही Health पत्रिका के अधिकार से भी जिसके बोर्ड ने मुझे प्रबंध सम्पादक के तौर पर चुना था.पर ऐसी घटनाओं ने भी, जो बेहद दर्दनाक थीं, मेरे प्रयासों को धीमा या मेरे उत्साह को हल्का नहीं किया. मेरी कलम तथ्यों और मामलों के खुलासे, निपटारे करती रही और जिस सच पर मुझे भरोसा था उसको रेखांकित भी.

क्योंकि मैं अच्छे तरह से जानती थी कि असल नुकसान Women And Sex के बारे में सच को छिपाने से होगा बजाय इसकी खोज या इसके बारे में बताने के. सत्य बहुत बार तयशुदा विचारों की जड़ शान्ति को हिलाता-झिंझोड़ता है; पर कई बार एक सटीक हलचल दिमाग को जगा सकती है और आँखें खोल सकती है यह देखने के लिए कि आस-पास क्या हो रहा है.

इसमें कोई शक नहीं कि अरब समाज की औरतों के बारे में लिखना और जबकि लेखक स्वयं एक स्त्री हो, बीहड़ और संवेदनशील क्षेत्र में पाने पाँव रखने जैसा है. यह कुछ-कुछ दिखाई पड़ने वाली और न दिखने वाली बारूदी सुरंगों के बीच अपना रास्ता बनाने जैसा काम है. लगभग हर कदम किसी पवित्रता से भरे और दिव्य तार को छेड़ सकता है जिसे छूने से मना किया गया है और ऐसी मान्यताएं को भी भी जिन पर कोई सवाल नहीं उठाये जा सकते क्योंकि वे धार्मिक और नैतिक स्थापत्य का हिस्सा हैं. और जब सवाल स्त्री के सम्बन्ध में हों और कोई हाथ उन्हें आज़ाद कराने के लिए आगे बढे तो यह मूल्य लोहे की छड़ों की तरह बाधा बन कर सामने आ जाते हैं.

आमतौर पर धर्म, सत्य के शोधकों और खोजियों के प्रयासों को कमतर करने या समाप्त कर डालने का एक हथियार है. मैंने इसे बहुत साफ़ तरीके से महसूस किया है कि धर्म आज के समय ज़्यादातर आर्थिक और राजनीतिक ताकतों का औज़ार बनाकर काम में लाया जा रहा है.  यह एक ऐसी संस्था है जो शासकों द्वारा शासन करने के लिए न्यायिक, प्रशासनिक और यहाँ तक कि मनोवैज्ञानिक तंत्र के रूप में स्त्री, बच्चों और गुलामों के दमन के द्वारा ऐतिहासिक रूप से पैदा पितृसत्तात्मक परिवार को बनाए और जारी रखने के लिए काम में लाई जाती है. अतः किसी भी समाज में धर्म को राजनीतिक व्यवस्था से और यौनाचार को राजनीति से अलगा कर नहीं देखा जा सकता.

समाज में सबसे अधिक संवेदनशील; राजनीति, धर्म और यौनाचार का त्रिक है. यह संवेदनशीलता अपने चरम पर ग्रामीण पृष्ठभूमि और संस्कृतियों वाले विकासशील देशों में पहुँचती है जहां सामंती रिश्ते प्रचंड रूप से प्रभावी होते हैं. यूरोप की औद्योगिक, तकनीकी और वैज्ञानिक प्रगति ने वहाँ की जन-संस्कृति को धर्म और यौनाचार के जीर्ण-शीर्ण मूल्यों और सामंतवाद के ताकतवर प्रभाव से आज़ादी दिलाने में बड़ा योगदान दिया है. यह प्रक्रिया चर्च के ख़िलाफ़ बड़े कठोर संघर्षों के ज़रिये संभव हो सकी. यह संघर्ष दो पारस्परिक विपरीत मान्यताओं का प्रतिफलन था- पूंजीवाद के बढ़ते प्रभाव और मध्यकालीन सामंती बोध का. और सभी सामजिक संघर्षों की तरह संस्कृतिकर्मी और बुद्धिजीवी ही इसका सबसे ज़्यादा शिकार हुए. उनमें से कुछ जिन्होंने चर्च की प्रभुता मानने से इनकार कर दिया उन्हें जिंदा जला डाला गया.Giordano Bruno जैसे पुरुष जिसने घोषणा की कि पृथ्वी आकाश में निरंतरता के साथ सूर्य का चक्कर लगा रही है या फिर मशहूर Joan of Arc. पर एक दिन आया जब संघर्ष समाप्त हुआ और नई पूंजीवादी ताकतों ने चर्च और धर्म-गुरुओं पर विजय हासिल की. यह मानवीय इतिहास का एक बड़ा मोड़ है जहां आर्थिक कारण सबसे ऊपर उठ गए यहाँ तक कि धर्म से भी ऊपर.

क्योंकि मनुष्य का जीवन और उसकी ज़रूरतें अर्थ पर निर्भर होती हैं, धर्म पर नहीं.समूचे मानव-इतिहास में धर्म के मानदंड और मान्यताएं अर्थ द्वारा ही बदले और संचालित किये गए हैं. किसी भी समाज में स्त्री का दमन, आर्थिक निर्मितियों का ही प्रतिफलन होता है जो भूमि-स्वामित्व, उत्तराधिकार और अभिभावकत्व के तंत्र तथा पितृसत्ता के रूप में अन्तर्निहित एक सामाजिक इकाई के तौर पर दिखता है. हालांकि मानव-इतिहास ने समय-समय पर यह सिद्ध किया है कि औरतों की हीन स्थिति और उत्पीडन का कारण सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था ही है फिर भी बहते सारे लेखक-विश्लेषक आज भी समस्या की जड़ धर्म ही मानते हैं. इसके पीछे एक वजह है, वह यह कि पश्चिमी स्रोत जब अरबी औरतों की स्थितियों की बात करते हैं तो यह जतलाने की कोशिश करते हैं कि अन्य धर्मों की तुलना में इस्लाम का रवैया उन्हें सताने वाला अधिक रहा है. यह विश्वास संभवतः इस्लाम से जुड़े पूर्वाग्रहों और अधूरी समझ के कारण बना है और साथ ही सामाजिक बदलावों में निभाई गई उसकी भूमिका के कारण भी. यह इस्लामी ज्ञान और व्यवस्था की नासमझी का परिणाम है साथ ही शासक-वर्ग के निहित आर्थिक स्वार्थों को ढंकने-मूंदने, जो नव-उपनिवेशवादी शक्तियों से गठजोड़ बनाते हैं, और असल तथ्यों को छिपाने के प्रयास से भी पैदा होता है.

कुछ देशों, जिसमें अरब मुल्क भी शामिल हैं और तीसरा विश्व भी, में बहुत सारे स्थानीय स्वार्थ, नव-उपनिवेशवादी ताकतों के साथ सहयोग बनाकर सावधानी से निरंतर चलते रहने वाले अभियनों में शामिल होते हैं जो धर्म की शिक्षाओं और उपदेशों से मनुष्य को भ्रमित, दिशाहीन बनाकर गलतबयानी करते रहते हैं. धर्म को झंडे की तरह लहराकर तमाम रास्तों पर उसका इस्तेमाल किया गया है- सऊदी अरब से ज़्यादा से ज़्यादा तेल निकालने के लिए, Mossadeq की सत्ता को उखाड़कर ईरान में तेल एकाधिपत्य वाली सरकार को पुनर्स्थापित करने के लिए, सुकर्णो को कैद कर इंडोनेशिया में बड़े पैमाने पर जन-संहार कराने के लिए, चिली में सल्वाडोर अलांद को बर्बाद कर सैन्य शासन स्थापित करने के लिए जहां तोपों, मशीनगनों, जेलों के साथ ही सड़कें गश्त लगाते फौजियों के बूटों की थाप से गूंजती रहती हैं. साथ ही  बांग्लादेश में मुजीब अब्दुल रहमान की हत्या में, लेबनान में भ्रातृ-ह्त्या के बाद महीनों चलने वाले युद्ध जो और कुछ नहीं बल्कि राष्ट्रवाद, जम्हूरियत और विकास की उभरती हुई ताकतों को ज़मींदोज़ कर देने का षडयंत्र था में भी धर्म ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. धर्म के नाम पर अरबी देशों में हज़ारों लोग भयावह मौतों को झेल चुके हैं और झेल रहे हैं. और मिस्र में धर्म की सरपरस्ती में रूढ़िवादी, कट्टरवादी और शोषणकारी ताकतें जनता को रोजी-रोटी और रोजमर्रा की आवश्यकता से वंचित करने के लिए आपस में गठजोड़ बनाती रही हैं. यह चंद लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए घोषणा करती हैं कि औरतों का स्थान घर में है और साथ ही हरम का एक आधुनिक ढांचा स्थापित करना चाहती हैं. यही वे ताकतें हैं जो औरतों के खतने की बर्बर पद्धति को प्रचलित किये हुए हैं जिसे कुछ अरब देशों में आज भी लडकियां झेल रही हैं. बड़े नपे-तुले और क्रूर अभियानों के ज़रिये भगनासा-विच्छेद और कभी-कभी समूल बाहरी यौनांगों की सफ़ाई को लड़कियों के ब्रेनवाश के साथ काम में लाया जाता है जिससे उनकी सोचने समझने की शक्ति को पंगु बना दिया जाता है. सदियों से ऐसा ही तंत्र निर्मित किया गया है जिसमें औरतों की अपने ऊपर हो रहे शोषण को देख सकने की और उनके कारणों को समझ सकने की काबिलीयत को मार डाला जाता है. ऐसी व्यवस्था स्त्री-दशा को इस तरह चिन्हित करती हैं जैसे उसका स्त्री होना नियंता के हाथों की तैयार एक नियति है और इसलिए वे मानव नस्ल में निम्न प्रजाति की हैं.   

धर्म पर कोई भी गंभीर अध्ययन यह साफ़ बता देगा कि अपनी मौलिकता में इस्लाम में स्त्रियों की अवस्था यहूदी और ईसाई धर्म को देखते हुए अधिक खराब नहीं है. वस्तुतः स्त्रियों का दमन यहूदी और ईसाई धर्म में अधिक चटक कर सामने आता है. परदा, इस्लाम के बहुत पहले यहूदियों की ही देन है. ओल्ड टेस्टामेंट में कहा गया कि Jehova की प्रार्थना करते समय स्त्रियाँ अपने मस्तक को ढंका करती थीं, जबकि पुरुष खुले मस्तक से प्रार्थना कर सकते थे क्योंकि वे ईश्वर की छवि से बने थे. यह विश्वास यहीं से पैदा हुआ कि औरतें अधूरी हैं, बिना मस्तक की देह हैं, एक देह जो पुरुष के साथ पूरी होती है जो उसका पति है क्योंकि मस्तक उसके ही पास है. यहीं से गैर-इस्लामी समाजों में सर्जिकल और मानसिक खतने के रूप में स्त्री के लिए शुचिता-पेटी (chastity Belt) की शुरुआत हुई- धातु का एक कवच पेट के निचले हिस्से में बाँध दिया जाता था. इनके अलावा और भी उत्पीड़न और दमन के रूप पितृसत्तात्मक परिवारों के अस्तित्व में आने के साथ प्रकाश में आते गए.

पितृसत्तात्मक परिवार, जो भूमि-अधिग्रहण, उत्तराधिकार, पैत्रिक सम्बन्ध स्त्री और गुलामों के दमन पर आधारित था के बहुत पहले मनुष्य स्त्री और पुरुष दोनों देवताओं की पूजा करता था. बहुत सारी पुरानी सभ्यताओं में, प्राचीन मिस्र भी जिसमें शामिल है, औरतों की समाज में विशेष स्थिति थी एवं देवियों का बहुत सारी जगहों पर शासन माना जाता था. पर जैसे ही नई आर्थिक व्यवस्था और पितृसत्ता ने मोर्चाबंदी की, पुरुष ईश्वरों ने एकेश्वरवादी धर्मों पर एकाधिकार कर लिया. देवियाँ गायब हो गईं और उपदेशकों और पुजारियों का पूरा काम पुरुषों के अधिकार-क्षेत्र में आ गया.

अरबी औरतों की आज़ादी तब तक संभव नहीं है जब तक दमन की जड़ों और उसके बढ़ते प्रभावों को ख़त्म नहीं किया जाता. असल मुक्ति सब तरह के शोषणों से ही मुक्ति है वह चाहे आर्थिक, यौनिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक हो. आर्थिक आज़ादी मात्र भी पर्याप्त नहीं है. एक समाजवादी व्यवस्था जहां स्त्री को पुरुषों के बराबर वेतन मिलता है ज़रूरी नहीं कि पूर्ण मुक्ति की और ले जाय. जब तक पितृसत्तात्मक परिवार हावी रहेंगे, स्त्री-पुरुष संबंधों के सफल  परिणाम  नहीं निकलने वाले.इसमें कोई शक नहीं कि आर्थिक-मुक्ति, स्त्री-मुक्ति की दिशा में एक बड़ा योगदान रखती है. पर इसे उत्पीड़न के अन्य रूपों के साथ भी जुड़ना चाहिए चाहे वह सामाजिक, नैतिक और सांस्कृतिक हो तभी स्त्री और पुरुष सही मायनों में मुक्त हो सकेंगे.

नवल अल सादवी
काहिरा
१९७७                
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अपाहिज आबादी                                             

१.   एक सवाल जिसका कोई जवाब नहीं

मैं छः साल की थी उस रात, जब एक बेहद सुकून से भरे माहौल में जागने और सोने की हालत के बीच कहीं अपने बिस्तर पर लेटी हुई थी. मासूम परियों की तरह, बचपन के गुलाबी सपने साथ में मंडरा रहे थे. इसी बीच मैंने अपने कम्बल के नीचे एक हलचल सी महसूस की. मेरे शरीर को टटोलता वह एक बड़ा सा हाथ था- ठंडा और रूखा, जैसे कुछ तलाश रहा हो. लगभग उसी समय एक दूसरा हाथ जो पहले वाले की ही तरह ठंडा, कठोर और उतना ही बड़ा था, ने मेरा मुंह भींच लिया ताकि मैं चिल्ला न सकूं.

 वे मुझे गुसलखाने की ओर ले गए. मुझे पता नहीं कि वहाँ और कितने लोग मौजूद थे, न मुझे उनके चेहरे दिख रहे थे न मैं यह कह सकती थी की वे मर्द हैं या औरतें. दुनिया मुझे एक अँधेरे कुहरे में लिपटी हुई महसूस दे रही थी जिसके कारण मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था या हो सकता है उन्होंने मेरी आँख पर किसी तरह का कपड़ा बाँध दिया था. जो मुझे याद है वो यह कि मैं बेहद डरी हुई थी और वहाँ बहुत सारे लोग जमा थे. और एक मजबूत चंगुल ने मेरी बाज़ुओं और जाँघों को जकड़ रखा था, ताकि मैं विरोध करने या यहाँ तक कि हिलने में भी असमर्थ हो जाऊं. अपने नग्न शरीर के नीचे मुझे गुसलखाने के फ़र्श का ठंडा अहसास अभी भी याद  है. अजनबी बोलियाँ, भिनभिनाहट के स्वर जब-तब, एक कर्कश धातु की आवाज़ के साथ, बीच में सुनाई पड़ रहे थे जो मुझे उस कसाई की दिला रहे थे जो अपने चाकू की धार, ईद के मौके पर भेड़ को जिबह करने के लिए तेज़ किया करता था[1]

मेरा खून मेरी धमनियों में जम सा गया था. ऐसा लग रहा था जैसे कुछ चोरों ने कमरे का दरवाज़ा तोड़ कर मुझे बिस्तर से ही उठा लिया था और वे मेरा गला काटने की तैयारी कर रहे थे जैसा हमेशा उन लड़कियों के साथ किया जाता था जो मेरी तरह बात न मानने वाली होती थीं- ऐसा मैंने अपनी पुराने गाँव वाली दादी की चाव से सुनाई जाने वाली कहानियों में सुन रखा था.
 

मैंने अपने कानों पर बहुत जोर लगाकर किसी धातु के रगड़ने की आवाज़ को पकड़ने की कोशिश की. जिस वक़्त यह आवाज़ रुकी मुझे लगा जैसे मेरे दिल ने धड़कना बंद कर दिया है. मैं कुछ देख नहीं पा रही थी और मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी सांस भी बंद हो गयी है. फिर भी मैंने महसूस किया कि जो चीज़ रगड़ की आवाज़ पैदा कर रही थी वह लगातार मेरे नज़दीक आती जा रही थी

हालांकि, जैसी मैंने उम्मीद की थी वो मेरे गले के पास नहीं आई बल्कि शरीर के किसी दूसरे हिस्से पर चली गयी- कहीं मेरे पेट के नीचे मेरी जाँघों के बीच दबी हुई कोई चीज़ तलाश रही थी. उसी वक़्त मैंने महसूस किया कि मेरी जांघें और नीचे के शरीर का हर हिस्सा जितना संभव हो सकता था फैला दिया गया है जिन्हें बेहद मजबूती से पकड़े रखा गया था. मुझे लगा कि कोई धारदार चाकू या ब्लेड मेरे गले की ओर बढ़ता हुआ  एकाएक मेरी जाँघों के बीच आ गया और वहाँ से मेरे शरीर के मांस का एक हिस्सा काट लिया.

मेरे मुंह को भींच रखा गया था उसके बावजूद मैं कराह कर बुरी तरह से चीखी क्योंकि यह दर्द सिर्फ दर्द न होकर बेहद तेज़ आंच की तरह था जो मेरे पूरे शरीर में दौड़ गया था. कुछ ही देर बाद मैंने अपने कूल्हे के चारों ओर खून ही खून लगा देखा.


मुझे पता नहीं था कि मेरे शरीर से उन्होंने क्या काट कर अलग किया था और मैंने जानने की कोशिश भी नहीं की. मैं सिर्फ़ रो रही थी और अपनी माँ को मदद के लिए पुकार रही थी. और ऐसे वक़्त पर जो सबसे धक्का लगने वाली बात थी वह यह थी कि जब मैंने चारों और देखा तो उन्हें अपने ही पास खड़े पाया. हाँ, यह वही थीं. मैं गलत नहीं थी. अपनी पूरी मौजूदगी के साथ उन अनजान लोगों के ठीक बीच में खड़ी हुई, उनके साथ बतियाती, मुस्कुराती जैसे अपनी बच्ची को जिबह करने वालों में वो खुद भागीदार रही हों.

वे वापस मुझे मेरे बिस्तर पर ले गए. मैंने उन्हें अपने से दो साल छोटी बहन को भी ठीक वैसे ही पकड़ते हुए देखा जैसे वे थोड़ी देर पहले मुझे पकड़े हुए थे. मैं अपनी पूरी ताकत के साथ चिल्लाई – नहीं ! नहीं !! मैं उनके कठोर हाथों के बीच में फंसा अपनी बहन का चेहरा देख सकती थी. यह मृत्यु का पीलापन था. उसकी बड़ी काली आँखें, मुझसे थोड़े वक़्त के लिए मिलीं, उस अँधेरे दर्द से भरी दृष्टि को मैं कभी नहीं भूल सकती. थोड़ी ही देर में वह उसी गुसलखाने  में ले जाई गयी जहां मुझे ले जाया गया था. थोड़ी देर के लिए मिली उस नज़र में जैसे हमने आपस में कहा हो ‘ हम जानते हैं कि यह सब क्या है? हम जानते हैं कि हमारी त्रासदी कहाँ मौजूद है? हम एक विशेष लिंग में पैदा हुई थीं- स्त्रीलिंग. हमारी नियति इस यातना को झेलने के लिए और हमारे शरीर के हिस्से को जड़, संवेदनहीन और क्रूर हाथों द्वारा काटकर फेंक दिए जाने के लिए पहले से ही तय कर दी गई है.’

मेरा परिवार कोई अशिक्षित मिस्री परिवार नहीं था. इसके उलट मेरे माँ-बाप उन दिनों के हालात को देखते हुए, एक अच्छी शिक्षा हासिल करने के मामले में पर्याप्त किस्मतवाले थे. मेरे पिता विश्वविद्यालय से स्नातक थे. और उस साल (1937) में दक्षिण काहिरा के डेल्टा क्षेत्र में Menoufia प्रांत के शिक्षा नियंत्रक के पद पर नियुक्त किये गए थे. मेरी माँ को उनके पिता ने फ्रांसीसी स्कूलों में पढ़ाया था जो सैन्यभर्ती के महानिदेशक हुआ करते थे. इसके बावजूद लड़कियों के खतने का रिवाज़ उन दिनों बहुत आम था और कोई भी लड़की इससे बच नहीं सकती थी- चाहे वह परिवार ग्रामीण हो या शहरी. जब कुछ दिनों बाद घर पर आराम कर, ठीक होकर मैं स्कूल लौटी तो मैंने अपने सहपाठियों/ मित्रों को अपने साथ हुए इस वाकये के बारे में बताया और यह जाना कि सभी लड़कियां बिना अपवाद समान अनुभव से गुज़र चुकी थीं. और वे किस सामाजिक वर्ग से आती थीं इसका कोई मतलब नहीं होता था (उच्च, मध्य अथवा निम्न-मध्यवर्ग)

ग्रामीण इलाकों में, गरीब किसान परिवारों के बीच सभी लड़कियों का खतना किया जाता है जो बाद में मुझे Kafr Tahla के अपने रिश्तेदारों से पता चला. यह रिवाज़ अभी भी गाँवों में बड़ा सामान्य है; यहाँ तक कि शहरों में रहने वाले परिवारों का बड़ा हिस्सा इसकी ज़रुरत पर भरोसा करता है. हालांकि, शिक्षा के प्रसार और अभिभावकों के बीच की समझदारी के भाव ने ऐसे माता-पिता की संख्याओं को बढ़ाया है जो अपनी लड़कियों के खतने से परहेज़ करते हैं.

खतने की याद एक बुरे सपने की तरह मेरा पीछा करती रही. मैं एक असुरक्षा के भाव से घिरी रहती थी जैसे भविष्य की ओर बढ़ते हर कदम पर कुछ ‘अनजाना’ सा मेरा इंतज़ार कर रहा है. मैं नहीं जानती थी कि मेरी मां, पिता, दादी और आसपास के लोगों द्वारा बहुत कुछ अनोखी और अपरिचित सी घटनाएं मेरे लिए इकट्ठी की जा रही हैं. समाज ने मुझे महसूस करा दिया था कि जिस दिन मैंने अपनी आँखें खोलीं मैं एक लड़की थी और जब भी कोई इस शब्द Bint (लड़की) का संबोधन करता तो त्यौरी और नाक-भौं चढ़ाकर ही करता.

तब भी जब मैं बड़ी हुई और एक चिकित्सक के रूप में 1955 में स्नातक हुई, मैं उस दहशतज़दा घटना को कभी भूल न सकी जिसने मेरे बचपन को हमेशा के लिए छीन लिया था, साथ ही जिसने मेरी जवानी के समय और शादीशुदा ज़िन्दगी में लम्बे अरसे तक अपनी यौनिकता की पूर्णता का आनंद लेने से तथा जीवन की समग्रता से वंचित रखा जोकि केवल चौतरफ़ा मनोवैज्ञानिक संतुलन से ही पाया जा सकता है. तमाम तरह के दु:स्वप्न सालों तक मेरा पीछा करते रहे विशेषकर उस दौर में जब मैं ग्रामीण इलाकों में चिकित्सक के रूप में काम कर रही थी. वहाँ मुझे आमतौर पर उन लड़कियों की देखभाल करनी होती थी जो खतने के बाद विपुल रक्तस्राव के कारण आपात उपचार केन्द्रों में लाई जाती थीं. उनमें से बहुत सारी सर्जरी के  अमानवीय और आदिम तरीकों के फलस्वरूप जो अपने आप में पर्याप्त बर्बर थे, अपनी ज़िन्दगी से हाथ धो बैठती थीं. कुछ थीं जो दीर्घकालीन और तीव्र संक्रमण से पीड़ित रहती थीं जिसे उन्हें अपनी बाकी बची ज़िन्दगी में झेलना था और उनमें से बहुत, अपने इन अनुभवों के कारण बाद में यौनगत और मानसिक विकृतियों का शिकार हो गयी थीं.

मेरे रोज़गार ने विभिन्न अरब देशों से आये मरीजों का परीक्षण किया. उनमें सूडानी औरतें भी थीं. मैं यह देखकर खौफ़ज़दा थी की सूडानी लड़की खतने की जिस प्रक्रिया से गुज़रती है वह मिस्री लड़कियों की प्रक्रिया से दस गुना क्रूर प्रक्रिया है. मिस्र में सिर्फ़ भगनासा को ही काटा जाता है वह भी पूर्णतया नहीं, लेकिन सूडान में सर्जरी के ज़रिये समूची बाहरी जननेंद्रिय को पूरी तरह से हटा दिया जाता है. वे पहले भगनासा को काटते हैं और फिर दोनों वृहद् भगोष्ठों और दोनों लघु भगोष्ठों को अलग कर देते हैं.बाद में घाव का उपचार किया जाता है. योनि का बाहरी मुख ही बचे हुए हिस्से के बतौर छोड़ दिया जाता है, बिना इस बात को जांचे कि सर्जरी के दौरान मुख को कुछ अतिरिक्त टांकों के साथ ज़्यादा ही छोटा कर दिया गया है. फलस्वरूप शादी की रात में छुरे या उस्तरे से बाकी मुख को चौड़ा करने के लिए एक या दोनों छोरों को काटा जाता है ताकि पुरुष अंग उसमें प्रवेश कर सके. और तो और जब सूडानी औरत का तलाक होता है तो फिर उसके योनि-मुख को छोटा किया जाता है, यह सुनिश्चित करने के लिए कि वह अब यौन-सम्बन्ध नहीं बना सकती है. और जब वह पुनः शादी करती है तो यही प्रक्रिया फिर से दुहराई जाती है.

गुस्से और विद्रोह का मेरा अहसास उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया जब मैंने इन औरतों को मुझे, एक सूडानी लड़की के साथ खतने में क्या-क्या होता है, बताते हुए सुना. मेरा गुस्सा तब कई गुना बढ़ गया जब १९६९ में सूडान की यात्रा के दौरान मुझे पता चला कि खतने की यह कुरीति अब भी बदस्तूर जारी है चाहे वह ग्रामीण इलाके हों या शहरी कस्बे.

मेरे चिकित्सकीय लालन-पालन और शिक्षा के बावजूद उन दिनों मैं यह समझ सकने में असहाय थी कि लड़कियों को इस बर्बर प्रक्रिया से क्यों गुज़ारा जाता है. लगातार मैं स्वयं से यह सवाल पूछती – क्यों ? क्यों ?? लेकिन कभी मुझे इस सवाल का जवाब नहीं मिलता जो उस दिन से मुझे लगातार मथ रहा था जिस दिन मेरा और मेरी बहन का खतना हुआ था. मैं इस सवाल का जवाब खोज पाने में नाकाम थी जो लगातार मेरे दिमाग में चक्कर लगा रहा था.

यह सवाल बहुतेरी दूसरी चीज़ों से भी जुड़ा हुआ महसूस होता था जो मुझे अक्सर उलझन में डाले रहते थे. जैसे खाने और घर से बाहर जाने की आज़ादी के मामले में क्यों वे मेरे भाई को तरजीह देते थे? इन सारे मामलों में उसके साथ मुझसे बेहतर सुलूक क्यों होता था? क्यों मेरा भाई खुल कर हंस सकता था जबकि मैं लोगों की आँखों में भी सीधे नहीं देख सकती थी? ऐसी दशा में जब किसी से मेरा सामना हो तो मुझे अपनी नज़रें नीची करनी होती थीं. जब मैं हंसती तो मुझसे आवाज़ को धीमा रखने की उम्मीद की जाती ताकि लोग मुझे शायद ही सुन सकें या फिर इससे बेहतर होता कि मैं बहुत धीरे से सकुचाते हुए मुस्कराकर चुप हो जाऊं. जब मैं खेलती  तो मेरे पांवों को बेतरतीबी से हिलाने की इजाज़त नहीं थी और उन्हें एक साथ एक-दूसरे से जुड़ा रहना था. पढ़ाई और स्कूल के साथ-साथ मेरा बुनियादी काम घर की सफाई और खाना बनाना था. जबकि लड़कों से पढ़ाई के अलावा और कोई उम्मीद नहीं की जाती है.

चूंकि मेरा परिवार पढ़ा-लिखा था और मेरे पिता स्वयं एक अध्यापक थे, इसलिए लड़के और लड़कियों के बीच का फ़र्क उस सीमा तक नहीं था जो आमतौर पर परिवारों में होता था. मुझे अपने रिश्ते की उन छोटी बहनों के लिए बहुत अफ़सोस होता था जब या तो ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े के लिए उनका स्कूल छुड़वाकर उन्हें किसी बूढ़े आदमी से ब्याह दिया जाता था या फिर जब उनके छोटे भाई सिर्फ इसलिए, क्योंकि लड़के होने के कारण वे अपनी बहनों पर अधिकार जमा सकते थे, उन्हें बेवजह पीटते और परेशान करते थे.   

मेरे भाई ने भी मुझ पर हुक्म चलाने की कोशिश की पर मेरे पिता एक उदार हृदय के व्यक्ति थे और उन्होंने पूरी कोशिश की कि लड़के और लड़कियों के बीच के फर्क के बगैर बच्चों के साथ व्यवहार हो. मेरी माँ का भी यही मानना था पर पर मैंने महसूस किया कि असल में ऐसा होता नहीं है.

जब-जब ऐसी असमानता हुआ करती मैं विरोध किया करती कभी-कभी हिंसक रूप से भी और और अपने माता-पिता से पूछती कि क्यों बावजूद इसके कि स्कूल में मैं उससे बेहतर कर रही हूँ मेरे भाई को विशेष अधिकार मिले हुए हैं जो मुझे नहीं दिए गए हैं. ‘ऐसा ही होता है’, मेरे माँ-बाप के पास हालांकि इसके सिवाय कोई उत्तर नहीं हुआ करता था; मैं बदले में पूछती, ‘ लेकिन ऐसा होता ही क्यों है?’ और फिर से वैसा ही एक तरह का जवाब मिलता, ‘ क्योंकि ऐसा ही है?’ और अगर मैं जिद पकड़ लेती तो इस सवाल को दुहराती रहती, तब अपना आपा खोने की हालत में पहुँचते हुए वे दोनों एक समान स्वर में कहते,’ क्योंकि वह लड़का है और तुम लड़की हो’.

शायद उनको लगता होगा कि मुझे चुप कराने के लिए या विश्वास दिलाने के लिए यह जवाब काफ़ी था, लेकिन इसके उलट यह जवाब मुझे और चिढ़ाता और अधिक जिद्दी होने के लिए उकसाता और मैं पूछती, ‘ लड़का और लड़की में क्या फर्क होता है’?

इस मौके पर हमारी दादी, जो हमारे घर अक्सर आती थीं, बातचीत को बीच में रोक देती थीं, जिसे वे हमेशा ‘ अच्छे आचरण का उल्लंघन’ कहती थीं, मुझे तेजी से फटकारतीं. ‘ मैंने जीवन में ऐसी लम्बी ज़बान वाली कोई लड़की नहीं देखी, हाँ, तुम अपने भाई की तरह नहीं हो. तुम्हारा भाई एक लड़का है, एक लड़का, सुना तुमने ! कितना अच्छा होता कि तुम उसकी तरह एक लड़का पैदा हुई होतीं.’

परिवार में कोई भी ऐसा नहीं था जो मेरे सवालों का भरोसे लायक जवाब दे सके. इसलिए सवाल बेचैनी के साथ मेरे ज़ेहन में घूमना जारी रहते और हर बार कुछ भी घटित होने पर आगे बढ़कर पहलकदमी करते जो इस बात को और मजबूत करता कि पुरुष के साथ हर वक़्त ऐसा सुलूक इसलिए किया जाता था कि वे उस वर्ग से आये हैं जिनके पास ताकत और अधिकार हैं.

जब मैंने स्कूल जाना शुरू किया तो ध्यान दिया कि अध्यापक कॉपी में मेरे पिता का नाम लिखते थे मेरी माँ का नहीं. ‘क्यों’, मैंने माँ से पूछा तो उसने फिर से वही जवाब दिया, ‘ऐसा ही होता है’ पिता ने हालांकि बताया कि बच्चों का नाम उनके पिता के नाम पर रखा जाता है और जब मैंने इसका कारण जानना चाहा तो उन्होंने उसी घिसे-पिटे जुमले को दुहरा दिया जो मैं अच्छी तरह जानती थी  कि ऐसा ही होता है. मैं अपने पूरे साहस को जगाकर पूछा ‘ऐसा क्यों होता है?’ और तब मैं अपने पिता के चेहरे को ध्यान से देखा. उन्हें सच में उसका जवाब पता नहीं था. बाद में मैंने उनसे दुबारा वह सवाल नहीं पूछा सिवाय तबके जब मेरी सच की खोज मुझे बहुत सारे सवालों की ओर ले गयी और मैंने बहुत से विषयों पर उनसे बात की जो मैं अपने रास्ते में खोज रही थी.

हालांकि, उस दिन के बाद से मैं समझ गयी थी कि मुझे अपने सवाल का जवाब खुद पाना होगा जिसका कोई जवाब नहीं देता था.उस दिन से मेरा रास्ता और लंबा हो गया जो इस किताब तक चला आया.
 


[1]ईद, मसलमानों में रमज़ान के महीने के बाद आने वाला चार दिनों का त्यौहार है. यह बहुत उमंग और उत्साह का अवसर माना जाता है. दूसरी ईद जिसे ईद एल अदा कहते हैं वह इस ईद के डेढ़ महीने बाद मनाई जाती है जिसे कुर्बानी का त्यौहार कहते हैं. जिसमें भेड़ या मेमने की कुर्बानी दी जाती है. यह अब्राहम की अपने बेटे के स्थान पर मेमने की कुर्बानी के उपलक्ष्य में मनाया जाता है. 
.......... क्रमश: 



   

नवल अल सादवी : अनुवाद एवं प्रस्तुति - सुबोध शुक्ल / 2

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नवल अल सादवी

स्त्री-संतति के प्रति यौन दुराचार

सभी बच्चे जो सामान्य और स्वस्थ पैदा होते हैं खुद को सम्पूर्ण मनुष्य के रूप में महसूसते हैं. पर, स्त्री संतान के साथ ऐसा नहीं है. जिस वक़्त से वह पैदा और कुछ बोल सकने में सक्षम होने को होती है, आस-पास की आँखों का भाव और उनका लहजा यह दर्शाने लगता है कि वह कुछ ‘अधूरी’ या फिर ‘कुछ कमी के साथ’ पैदा हुई है. पैदा होने के दिन से लेकर मौत के समय तक एक सवाल लगातार उसका पीछा करता है कि क्यों? उसके भाई को हमेशा तरजीह मिलती है इसके बावजूद कि वे बराबर हैं, यहाँ तक कि बहुत सारे मामलों में वह उससे बेहतर हो सकती है या फिर कम से कम कुछ पहलुओं में तो निश्चित ही ?

पहला आघात जो स्त्री-संतान महसूस करती है वह यह भाव है कि लोग उसके दुनिया में आने से खुश नहीं हैं, उसका स्वागत नहीं करते. कुछ परिवारों में और ख़ास तौर पर ग्रामीण इलाकों में यह ‘ठंडापन’ थोड़ा और आगे बढ़ सकता है और मातम तथा अवसाद के माहौल तक पहुँच जाता है; यहाँ तक कि माँ की सज़ा अपमान, मार-पीट या फिर तलाक तक पहुँच सकती है. जब मैं बच्ची थी तो मैंने अपनी एक चाची को गाल पर थप्पड़ खाते देखा क्योंकि उसने तीसरी बार लड़के के बजाय लड़की को जन्म दिया था. संयोगवश उनके पति को यह धमकी देते हुए भी सुना कि अगर उसने अगली बार लड़के के बजाय फिर लड़की जनी तो वह उसे तलाक दे देगा.[1]पिताको अपनी इस नवजात बच्ची से इस हद तक घृणा थी कि वह तब भी अपनी पत्नी को सताया करता था जब वह उसकी देखभाल करती थी या उसे दूध पिलाया करती थी. बच्ची अपनी ज़िन्दगी के चालीस दिन पूरा करने के पहले ही मर गई. मुझे नहीं पता कि उसे उपेक्षा ने मार डाला या फिर माँ ने ही गला दबाकर – ‘शांत रहो और शान्ति दो’ की हमारे मुल्क की कहन के आधार पर.

ग्रामीण इलाकों में शिशु मृत्यु-दर बहुत ऊंची है. कुल मिलाकर अरबी देशों में, रहन-सहन और शिक्षा के निम्न स्तर के परिणामस्वरुप यह अनुपात स्त्री-संतान के लिए, पुरुष-संतान से कहीं अधिक है. और अक्सर यह उपेक्षा के कारण होता है हालांकि यह स्थिति बेहतर आर्थिक और शैक्षणिक मानदंडों के फलस्वरूप बेहतर हो रही है[2]और स्त्री तथा पुरुषों के बीच शिशु मृत्यु- दर का अंतर गायब हो रहा है.

एक स्त्री-संतान अगर वह शहर में एक शिक्षित अरब परिवार में पैदा हुई है ज़्यादा से ज़्यादा मानवीय अहसासों और कम से कम निराशाजनक माहौल को पाती है. इसके बावजूद उस पल से जब वह घुटनों के बल चलना या अपने दो पैरों पर खड़ा होना शुरू करती है, उसे सिखाया जाने लगता है कि उसका यौन अंग ‘डर’ का सबब है और बड़ी सावधानी के साथ उसकी संभाल उसे करनी है; विशेषतः वह हिस्सा जिसे जीवन के बहुत बाद में वह योनिच्छद (Hymen) के नाम से जानने लगती है.

स्त्री-संतानें, इसीलिये एक ऐसे माहौल में पाली-पोसी जाती हैं जो उनके यौन-अंगों के प्रदर्शन और स्पर्श के आगाहों और डरों से जुड़ा है. जैसे ही किसी स्त्री-संतान का हाथ अपने यौन-अंग को टटोलने की मुद्रा में पहुंचता है जोकि सभी बच्चों के लिए बड़ा सामान्य और स्वाभाविक ज़रिया है अपने शरीर की जानकारी का, तुरंत माँ की निगरानी भरी अँगुलियों या हाथों के ज़रिये चपत या घूंसों के द्वारा उसे सबक सिखाया जाता है, कभी-कभी पिता के द्वारा भी. किसी भी बच्चे को अचानक कभी भी थप्पड़ जदा जा सकता है; पर ज़्यादा सावधान और तार्किक अभिभावक अविलम्ब चेतावनी या कड़े शब्दों में घुड़ककर इस काम को अंजाम दे सकते हैं.
अरब समाज में स्त्री-संतान को मिलने वाली शिक्षा, निरंतर चेतावनियों की श्रृंखला है उन चीज़ों के बारे में जिन्हें धर्म द्वारा हानिकारक, निषेधयोग्य, निंदनीय अथवा गैर-कानूनी माना जाता है. बच्चे को अपनी इच्छा को दबाने के लिए, खुद से जुड़ी हुई असल, मौलिक चाहनाओं और इच्छाओं से खाली करने के लिए और उस खालीपन को दूसरों की कामनाओं के अनुसार भरने के लिए सब कुछ करना पड़ता है. स्त्री-संतान की शिक्षा इसलिए, एक धीमे विध्वंस की प्रक्रिया में रूपांतरित हो जाती है- उसके व्यक्तित्व और मस्तिष्क के क्रमिक मरण के तौर पर जहां सिर्फ उसका बाहरी खोल चिपका रह जाता है. शरीर, हड्डियों, मांसपेशियों और खून का जीवन-रहित साँचा जो एक तनावपूर्ण  रबर की गुड़िया में दौड़ रहा है.

एक लड़की जिसका कोई व्यक्तित्व नहीं रह गया है. आज़ाद होकर सोचने की ताकत और दिमाग का इस्तेमाल भी वह नहीं कर सकती, वह वही करेगी जो दूसरे उससे करने के लिए कहेंगे. इसी तरह से वह उनके हाथों का खिलौना और उनके फैसलों का शिकार बनती जाती है.

फिर वे दूसरे कौन हैं जिनके बारे में हम बात कर रहे हैं? ये परिवार के या कभी-कभी परिवार से बाहर के पुरुष हैं जो जीवन के अलग-अलग मौकों पर उससे संबधित होते रहते हैं. ये पुरुष जो अलग-अलग उम्र के होते हैं और बच्चे से लेकर बूढ़े तक फैले होते हैं. सब अलग-अलग पृष्ठभूमियों से होते हैं. पर सबमें एक बात सामान्य होती है कि वे खुद उस समाज के शिकार होते हैं जो लिंगों को बांटता है, और यौनाचार को पाप तथा निंदनीय मानता है और जिसे सिर्फ आधिकारिक विवाह-अनुबंध के दायरे में ही मंजूरी मिली होती है. यौन संबंधों के इस अनुमतिपूर्ण मार्ग के अलावा समाज किशोरों और युवा पुरुषों को किसी भी रूप में यौनाचार से मना करता है सिवाय स्वप्न-दोष के. मिस्री माध्यमिक विद्यालयों में किशोरों को ‘ रिवाज़ और परम्पराएं’[3]नामक पाठ के अंतर्गत ऐसा शब्द दर शब्द पढ़ाया जाता है. यह भी वर्णित है कि हस्तमैथुन वर्जित है क्योंकि यह नुकसानदेह है और उतना ही खतरनाक है जितना किसी वेश्या से यौन सम्बन्ध बनाना.[4]इसलिए जवान पुरुषों के पास तब तक इंतज़ार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता जब तक अल्लाह और पैगम्बर के निर्देशानुसार शादी के लिए उनके पास पर्याप्त पैसे न इकट्ठे हो जाएँ.

राशि चाहे छोटी हो या बड़ी, काम-काज और शिक्षा में खर्च होते-होते, खासतौर पर शहर में, जवान पुरुष को सालों लग जाते हैं. इसलिए ग्रामीण इलाकों के मुकाबले शहरी युवक की  शादी की उम्र अनुपात में बढ़ जाती है. अधिक दौलतमंद वर्ग के बेटों और बेटियों की शादी बहुत जल्दी हो सकती है लेकिन ऐसा बड़ा कम होता है. दूसरों के लिए शिक्षा और रोज़गार के अलावा शादी में अटकाव वाला मामला – रहन-सहन की कीमत में ज़बरदस्त उछाल, घरों का बहुत मंहगा होना और हद से ज़्यादा किराया है. तो परिणामस्वरूप ऐसे जवान लड़कों की तादाद बढ़ती जाती है जो आर्थिक वजहों से शादी करने में अक्षम हो जाते हैं और लगातार बढ़ता हुआ अंतराल जहां एक ओर जैविक प्रौढ़ता और यौन आवश्यकताओं के बीच पैदा होता है वहीं आर्थिक सम्पन्नता और शादी के अवसर के बीच भी पैदा होता है. यह अंतराल औसतन, दस साल से कम की अवधि का नहीं होता. इसीलिये एक सवाल उठता है कि कैसे एक युवा अपनी स्वाभाविक यौन ज़रूरतों को इस अवधि के दौरान संतुष्ट करे, एक ऐसे समाज में जो हस्तमैथुन के ख़िलाफ़ है उसके शारीरिक और मानसिक रूप से हानिकारक होने के कारण और जो वेश्याओं के साथ, स्वास्थ्य के खतरे को देखते हुए, यौन संबंधों को बनाने की अनुमति भी नहीं देता. यौन रोगों के द्रुत प्रसार की वजह से वेश्यावृत्ति को बहुत सारे अरब देशों में प्रतिबंधित कर दिया गया है. इसके साथ ही वेश्या के साथ समय बिताने की कीमत भी बड़ी संख्या में जवान पुरुषों के लिए अब संभव नहीं रह गयी है. शादी के बाहर यौन-सम्बन्ध और समलैंगिकता दोनों पूरी तरह से समाज द्वारा प्रतिबंधित हैं.जवान पुरुष बिना किसी समाधान के असहाय छोड़ दिए गए हैं.

 तो ऐसे हालातों में, एक मात्र स्त्री, जो एक जवान लड़का या पुरुष आसानी से अपनी पहुँच में पा सकता है वह उसकी छोटी बहन है. बहुतेरे घरों में वह साथ लगे बिस्तर पर सो रही होती है या फिर एक ही बिस्तर पर एक किनारे . वह सो रही हो या जगी हो उसके हाथ उसे छूना शुरू करते हैं. किसी भी मामले में अधिक फर्क नहीं पड़ता वह जगी भी हो तो अपने बड़े भाई के खिलाफ़ उसकी हैसियत के कारण नहीं जा सकती जो रिवाजों और क़ानून के द्वारा उसे दी जाती हैं. अथवा परिवार के भय के कारण या फिर अपराध-बोध के बहुत गहरे जमे हुए अहसास की वजह से जो इस तथ्य से पैदा होता है कि वह भी उसके छूने से आनंद का अनुभव करती है या फिर बहुत छोटी होने के कारण जो यह समझने में असमर्थ है कि उसके साथ क्या हो रहा है?

बहुत सारी स्त्री-सन्ततियां ऐसी घटनाओं से जूझती रहती हैं. परिस्थितियों के अनुसार वे समान या अलग हो सकती हैं. इस मामले में पुरुष कोई  भी हो सकता है-  भाई, चचेरा भाई, चाचा, मामा,दादा यहाँ तक कि पिता.यदि परिवार का सदस्य नहीं तो घर का चौकीदार, संरक्षक, अध्यापक, पड़ोसी का लड़का या कोई भी दूसरा पुरुष.

इस किस्म के यौन हमले बिना किसी ताकत के इस्तेमाल के घटित होते हैं. यदि लड़की बढ़ती उम्र की है और विरोध करती है तो फिर हमलावर कोमलता और चालाकी के मिश्रण के ज़रिये अथवा शारीरिक ताकत के ज़रिये उस पर काबू पाता है. अधिकाँश मामलों में लड़की समर्पण कर देती है और किसी से भी शिकायत करने में डरती है. और अगर किसी तरह की कोई सज़ा मिलनी भी होती है तो वह लड़की पर आकर ही ख़त्म होती है. वह अकेली है जो अपनी इज्ज़त और कुंवारेपन को खोती है. पुरुष का कुछ नहीं बिगड़ता-खोता, जो कड़े से कड़ा दंड उसे मिल सकता है (अगर वह परिवार का सदस्य नहीं है तो) वह यह है कि वह लड़की से शादी कर उस पर अहसान कर दे.

बहुत लोग ऐसा सोचते हैं कि ऐसी घटनाएं इक्का-दुक्का हैं, गिनी-चुनी हैं. पर इस मामले की असलियत यह है कि यह सब कुछ बहुत आम है और छुपा रहता है- बच्ची के अस्तित्व की रहस्यात्मक खोह के भीतर. न वह किसी को बताने का दुस्साहस करती है कि उसके साथ क्या हुआ और न ही पुरुष कभी यह स्वीकार करता है कि उसने क्या किया.

बच्चों अथवा जवान लड़कियों के साथ घटने वाले ये सभी यौन दुराचरण, शैशव-स्मृति विस्मरण(infantile amnesia) की प्रक्रिया के द्वारा भुला दिए जाते हैं. मानवीय स्मृति के पास एक प्राकृतिक क्षमता होती है कि जो बात वह भूल जाना चाहे वह भूल सके, खासतौर पर तब जब वह दर्दनाक घटनाओं, क्षोभ और अपराध-बोध की भावना से सम्बंधित हो. यह उन तयशुदा घटनाओं का एक बड़ा सत्य है जो बचपन में घटित हुई होती हैं और जिसकी जानकारी किसी को भी नहीं है; पर यह विस्मरण बहुत सारे मामलों में कभी पूरा नहीं होता क्योंकि इसका कुछ हिस्सा अवचेतन में दबा रह रह जाता है और वह सतह पर किसी भी मानसिक और नैतिक संकटग्रस्तता के समय उभर के ऊपर आ सकता है.                                                  
                           
बीमार बुज़ुर्ग     

अनगिनत मामले जो मैंने अपनी क्लीनिक में देखे, उन्होंने मुझे अपने जीवन के एक बड़े हिस्से को,समाज के दोगले चेहरे को उजागर करने में समर्पित कर देने के लिए प्रेरित किया, जिसमें हम रहते हैं –एक समाज जो खुले में मूल्यों और नैतिकता के उपदेश देता है पर चोरी-छिपे बिलकुल भिन्न आचरण करता है.
एक चिकित्सक होने के नाते मेरा काम मरीज़ की परीक्षा करने के पहले, यदि बीमारी शारीरिक है तो उसे निर्वस्त्र करना था और यदि बीमारी मानसिक है तो उन मुखौटों को हटाना था जिसमें लोग अपना स्वत्व, अपनी आत्मा ढंके रहते हैं.  

दोनों स्थितियों में, जब शरीर नग्न होता है अथवा स्वत्व नकाबहीन तो सम्बंधित व्यक्ति, भयंकर यातना और भय के कब्ज़े में होता है. यही कारण है कि बहुत सारे लोग शारीरिक या मानसिक रूप से खुद को आवरणहीन करने से इनकार कर देते हैं और तेजी से बिस्तर की चादरों को खींचकर अपना शरीर ढंकने लगते हैं या फिर अपना सार्वजनिक मुखौटा व्यवस्थित करने लगते हैं; और यह सब करके वे लोगों को वह देखने से रोकने की कोशिश करते हैं जो असल में वे हैं और अपनी असलियत, निजता और स्व को अपने अचेतन की गहरी भूल-भुलैया से भरे खोह में छिपाए रहते हैं. क्योंकि सच कितना भी गहरा दफ़ना दिया जाय वो हमेशा जीवित रहता है. जब तक मनुष्य जीवित है और सांस ले रहा वह छिपा सच भी सांस ले रहा होता है. जैसे धरती के अन्दर गहरा दबा कीड़ा अचानक बाहर निकल आता है वैसे ही सत्य भी मनुष्य के दिमाग से उस वक़्त बाहर आ जाता है जब उस पर किसी भी किस्म की चौकसी या पहरा नहीं रह जाता. मनुष्य भले ही कितना भी सजग रहे वह ज़्यादातर बिना पहरे के ही होता है – गुस्से, वासना और डर के मौकों पर. ऐसे मौकों पर वे जल्दबाजी में अपने मुखौटे को पहनना भूल जाते हैं और समझदार आँखें आसानी से ताड़ लेती हैं कि अन्दर क्या-कुछ भरा पड़ा है.

खासतौर पर ऐसे समय में यह अधिक घटित होता है जब व्यक्ति बीमार होता है. क्योंकि तब वह मुखौटे को अपनी जगह पर बनाए रखने में अक्षम हो जाता है. यह गिर जाता है और शरीर तथा आत्मा नग्न हो जाती है. कपड़ों, मुखौटों, नकाब, शर्म छिपाने की आड़ के गिरने से आत्मा और शरीर की नग्नता, अब बीमारी के खतरे के बनिस्बत कहीं कम भयोत्पादक होती है, क्योंकि स्वास्थ्य और जीवन को किसी भी कीमत पर बचाया जाना चाहिए.

ऐसे मामलों में मुझे आज भी वह शरारती, गहरी आँखों वाली एक लम्बी सी लड़की याद आती है. वह बहुत सारी दिमागी और शारीरिक तकलीफों की शिकायत कर रही थी. मैं उसकी बीमारी के ब्यौरों में नहीं जाऊंगी लेकिन उसकी कहानी मेरी स्मृति में आज भी ताज़ा है. जाड़े की एक सर्द रात, मेरी बैठक में हीटर चल रहा था और जब हम शटर गिरा कर बैठे हुए थे, उसने मुझे बताया‘मुझे याद है कि मैं पांच साल की थी जब मेरी माँ मुझे अपने मायके साथ ले जाया करती थी. उनका परिवार एक बड़े से घर में Helislopolis(काहिरा) के नज़दीक Zeitoun  जिले में रहता था.मेरी माँ अपनी माँ और बहनों से हंसती बतियाती रहती थी जबकि मैं परिवार के बच्चों के साथ खेलती रहती थी. घर खुशदिल आवाजों से चहकता रहता था, जब तक कि दरवाज़े की घंटी नहीं बजती थी. यह मेरे नाना के आने की खबर होती थी. तुरंत ही सारी आवाज़ें दब जाती थीं. मेरी माँ बहुत धीमी आवाज़ में बात करने लगतीं और बच्चे सामने से गायब हो जाते. मेरी नानी दबे पाँव दादा के कमरे में जातीं जहां उन्हें नाना के कपड़े और जूते उतारने में मदद करनी होती थी, उनके सामने चुपचाप सर झुकाए हुए खड़े होकर.बाकी परिवार की तरह बड़े हों या बच्चे, मैं भी अपने नाना से डरती थी और कभी भी उनकी मौजूदगी में खेलती- हंसती नहीं थी. पर, दोपहर के खाने के बाद जब घर के और बुज़ुर्ग आराम कर रहे होते तब वह मुझे थोड़ी कम कठोर आवाज़ में बुलाते – ‘ आओ, बगीचे से कुछ फूल चुन लेते हैं.’ 
 
जब हम बगीचे के एक कोने में पहुँच जाते तो उनकी आवाज़ मेरी नानी की तरह कोमल हो जाती और वह मुझे अपने बगल में लकड़ी की बेंच पर बैठने के लिए कहते जिसके सामने गुलाबों की क्यारी थी. वह मुझे कुछ लाल और पीले फूल पकड़ा देते और जब मैं उन रंगों और पंखुड़ियों में डूब जाती तो वे मुझे अपनी गोद में बिठाकर दुलराने और गाने लगते जब तक कि मैं आँखें बंद कर सोने की हालत में न पहुँच जाऊं. लेकिन मैं कभी सोती नहीं थी क्योंकि मैं हर वक़्त उनके हाथ को महसूस कर सकती थी जो बड़े चुपके से मेरे कपड़ों के अन्दर रेंगता था और उनकी उंगली मेरे निक्कर के अंदरूनी हिस्सों में चली जाती.

मैं केवल पांच साल की थी लेकिन जाने कैसे मुझे यह पता था की नाना जो कर रहे हैं वह गलत और अनैतिक था. और अगर मेरी माँ को यह पता चला तो वह मुझ पर ही गुस्सा होंगी और फटकारेंगी. मैंने सोचा कि मुझे अपने नाना की गोद से उतर जाना चाहिए और अब जब वह मुझे बुलाएं तो उनके साथ बगीचे में आने से इनकार कर देना चाहिए.पर कुछ दूसरी बातें भी साथ में ही चल रही थीं. सिर्फ पांच साल का होने के बावजूद मुझे यह महसूस हुआ कि मैं अच्छी बची नहीं हूँ क्योंकि मैं नाना की गोद से उतरने के बजाय वहीं बैठी रही. और उससे भी अधिक ग्लानि इस बात की थी की उनके हाथों की हरकत से मुझे भी अच्छा लग रहा था. और इसी बीच  जब वह मेरी माँ को मेरा नाम पुकारते सुनते तो झट अपना हाथ वापस खींच लेते. मुझे हिलाते जैसे वह मुझे नींद से जगा रहे हों और कहते, ‘तुम्हारी माँ बुला रही है’. मैं अपनी आँखें ऐसे खोलती जैसे नींद से जगी हों और सपाट सा चेहरा लिए माँ की ओर भागती जो किसी पांच साल के बच्चे का नहीं हो सकता था. वह मुझसे पूछतीं, ‘कहाँ थीं तुम?’ और मैं बड़ी मासूमियत भरी आवाज़ में उन्हें कहती, ‘ बगीचे में नाना जी के साथ’.

यह जानकार कि मैं बगीचे में नाना के साथ हूँ वह बड़े सुकून  और सुरक्षा का अनुभव करतीं. वह हमेशा मुझे बगीचे में अकेले आने के लिए आगाह किया करतीं और ‘उस आदमी’ माली के बारे में अपनी चेतावनी को दोहराना कभी नहीं भूलती थीं जो चिकना सा लबादा पहने रहता था और फूलों पर पानी का छिड़काव किया करता था. ऐसे में मुझे केवल माली से ही नहीं बल्कि पाइप से निकलने वाली पानी की बूंदों से भी डर लगता था.फिर जब-जब नाना घर की सीढियां चढ़ते, अपने रुआब के साथ जिससे सब डरते थे, तस्बीह उनके हाथों में चलती रहती थी. मैं यह सोचने लगी थी कि नाना जो मुझे बगीचे में दुलराते-सहलाते हैं वो वह नाना नहीं हैं जो अपनी मेज पर बैठते हैं और जिनसे मैं डरती थी. कभी-कभी मुझे लगता था कि मेरे दो नाना हैं. 
 
सुबोध शुक्ल
जब मैं दस साल की हुई नाना गुज़र गए. मैं उनकी मौत से दुखी नहीं थी. इसके उलट एक अजब सी धुंधली खुशी का अहसास था और मैं बच्चों के साथ हंसती खेलती कूद-भाग रही थी. लेकिन माँ ने मुझे फटकार लगाई और यह कहकर घर में बंद कर दिया कि क्या तुम्हें पता नहीं की नाना नहीं रहे? ज़रा भी सलीका नहीं है तुम्हें?

मैं उनसे पूछने को हुई, क्या नाना को पता था कि सलीका किसे कहते हैं? पर यह पूछ सकने का मेरे पास साहस नहीं था सो मैं चुप रही और यह बात मेरे दिल में ही रही. यह पहला मौक़ा है डॉक्टर जब मैं किसी को अपनी आपबीती सूना रही हूँ.’

मैंने वह पूरा ब्यौरा नहीं दिया है जो उस महिला ने कई साल पहले उस रात मुझे बताया था. उसने तभी अपना दिल मेरे सामने खोला जब उसे यकीन हो गया कि मैं उसके बारे में कोई नैतिक निर्णय कायम नहीं करूंगी. बहुत सारी लड़कियां और औरतें जो मेरी क्लीनिक में आती थीं, अपने दिल के अन्दर छिपे हुए रहस्यों को उघाड़ने में बड़ी हिचक से भरी होती थीं. पर एक बार आत्मविश्वास और भरोसा कायम हो जाने पर वे कितनी ही दर्दनाक बातों को साझा करने लगती थीं जो वे सालों से ढोती आ रही थीं. 

[1] यह १९४२ की घटना है, मेरे गाँव Kafr Tahla की जो Kalioubia प्रांत में था.
[2] मिस्र के स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट, १९७१. १९५२ में हज़ार जन्म पर १२७ की शिशु मृत्यु-दर जो १९७७ में ११५ हो गयी.
[3] शिक्षा-मंत्रालय, तीसरे वर्ष के छात्रों के लिए मनोविज्ञान की पाठ्य-पुस्तक ( माध्यमिक स्तर, कला एवं साहित्य) लेखक डॉ. अब्दुल अज़ीज़ अल कूज़ी और डॉ. सैयद गौनेम, काहिरा १९७६.
[4] उपर्युक्त, अध्याय ११, पृष्ठ १२३-१७४ 

मनुष्यता का महान आख्यान : कमल जोशी/1

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कमल दा से तीन-चार मुलाक़ातें थीं पर परिचय बहुत पुराना था। साथ उनकी यायावरी के कई क़िस्से थे। वे अचानक चले गए। पुलिस ने प्रथम दृष्टया इस चले जाने को आत्मघात कहा है, जांच अभी चलेगी। उनका जाना और इस तरह जाना एक सदमा है। उनके लिएजाने कितनों का दिल फफक रहा है। उनसे किताबों के आवरण के लिए चित्र मांगता था, पता न था उनके बाद उनसे इस तरह चित्र मांगने होंगे।  

इन चित्रों को चार-पांच पोस्ट्स में यहां लगाऊंगा, ताकि कुछ और लोग उस नायाब दिल को देख पाएं, जो केवल कमल दा के पास था। वे फोटोग्राफर नहीं, विचारक थे। उनकी वैचारिकी का पता उनकी ये तस्वीरें बेहतर देती हैं। पढ़िए मनुष्यता के उस महान आख्यान को, जिसे कमल जोशी अपनी तस्वीरों में लिख गए हैं।

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स्त्रियां

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 ......अगली पोस्ट में जारी




राकेश रोहित की ग्यारह कविताएं

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राकेश रोहित हमारे समकाल के प्रमुख कवि के रूप में उभरे हैं। अनुनाद के वे पुराने साथी हैं, उनकी कविताएं कई बार अनुनाद ने छापी हैं। यहां आप पाएंगे कि राकेश रोहित की कविताओं के पास एक बहुत बड़ा कैनवास है, वे लगातार अनुपस्थित तथ्यों और दृश्यों को इस कैनवास पर सम्भव कर रहे हैं। इधर हिंदी कविता का हाल भी बहुधा यही हुआ है कि वह किसी न किसी स्टूडियो के झूटे दरवाज़े के पास खड़ी है। बंद स्टूडियो की दो-चार सीढियाँ चढ़कर ही वह स्वयं को बुलंद महसूस कर लेती है, ऐसे में राकेश रोहितजैसे कवि अपनी ही एक असमाप्त यात्रा पर निकलते हैं तो कविता के उल्लेखों में एक सुंदर दृश्य बनता है। 

अनुनाद ने रोकश रोहित से कविताओं के लिए अनुरोध किया था, जिसे उन्होंने पूरा किया। कवि को शुक्रिया और शुभकामनाएं। 
***
सागर किनारे : राकेश रोहित

उसकी तस्वीर

उसकी जितनी तस्वीरें हैं
उनमें वह स्टूडियो के झूठे दरवाजे के पास खड़ी है
जिसके उस पार रास्ता नहीं है
या फिर वह एक सजीले मेज पर कुहनी रखे
टिका रही है हथेली पर अपने चेहरे को
सोच की मुद्रा में।
पास में बंद स्टूडियो की दो- चार सीढियाँ हैं
एक में वह सीढियां चढ़कर
थोड़ा मुड़कर देख रही है
और समय फिर वहीं ठहरा हुआ है।
हर तस्वीर खिंचवाने के पीछे कितनी कवायदें होती थीं
उसने तय किया था वह एक दिन रोयेगी
अपनी इन सारी तस्वीरों के साथ
जबकि सिर्फ साफ दिखता है स्टूडियो का नाम
अब भी आंखें भरी- भरी लगती हैं
उन श्वेत- श्याम तस्वीरों में!
अपनी पुरानी तस्वीरें देखकर वह
खुद हैरान होती है
उसके पास नहीं है ऐसी तस्वीर
जिसमें उसके हाथ में फूल हो
और वह तितली के पीछे भाग रही हो!
पुरानी तस्वीरें देखते हुए
वह याद करती है अपनी पुरानी कविताएँ
जिसमें उसका अजाना बचपन छिपा है
कच्ची अमिया खाना उसे बहुत पसंद था
पर हाथ में पत्थर उठाये उसकी कोई तस्वीर नहीं है।
***  

परसों हम मिले थे
 
परसों हम मिले थे
याद है?
मैंने संजो रखी है वह मुलाकात!
आजकल मैं छोटी- छोटी चीज सहेजता रहता हूँ
जैसे कागज का वह टुकड़ा
जिस पर किसी का नंबर है पर नाम नहीं
जैसे पुरानी कलम का ढक्कन
खो गया है जिसका लिखने वाला सिरा
जैसे बस की रोज की टिकटें
उस एक दिन का छोड़ जब मैं खुद से नाराज था
जैसे अखबार के संग आये चमकीले पैम्फलेट
जैसे भीड़ भरी बस में
एक अनजान लड़की की खीज भरी मुस्कान!
जब कोई मेरे साथ नहीं होता
मैं उलटता- पलटता रहता हूँ इन चीजों को
जो मेरे पास है और जो मेरे मन में है
नौकरी मिलने पर भाई ने पहली बार चिट्ठी लिखी थी
पिता ने बताया था घर आ जाओ
शादी पक्की हो गयी है
माँ ने कहा था कोई दवाई काम नहीं करती
मशरूम वाली दवाई खा लूँ
दोस्त ने शहर आने की सूचना दी थी
और आया नहीं बता कर भी
बहुत सी स्मृतियाँ मैं अपने साथ समेट कर
भीड़ भरे शहर में अनमना घूमता रहता हूँ।
यह जो असबाब इकट्ठा कर रखा है मैंने
मन के अंदर और घर के उदास कोनों में
क्या एक दिन मैं इनको सजाकर तरतीब से
खोजूंगा अपनी जिंदगी का उलझा सिरा
और किसी गुम हँसी को अपने चेहरे पर सजा कर
गाने लगूंगा कोई अधूरा गीत!
कल मुझे अचानक वह नाम याद आया
जिससे दोस्त मुझे बुलाते थे
मुझे उनका इस तरह पुकारना कभी पसंद नहीं आया
पर मैंने उसे भी संजो लिया है
और कई बार खुद को पुकार कर देखता हूँ उस नाम से
क्या वह आवाज अब भी मुझ तक पहुंचती है!
अखबार के कई पीले पड़ गये टुकड़े
जिस पर छपे खबर की प्रासंगिकता भूल चुका हूँ मैं
अब भी रखे हैं मेरी पुरानी कॉपी में
और साहस कर भी उन्हें फेंक नहीं पाता
क्या था उन खबरों में जिसे मैं सहेजता आया इतने दिन
सोचता हूँ और गुजरता हूँ
स्मृति की अनजान गलियों में
किसी दिन वह जागता हुआ क्षण था
अब जिसकी याद भी बाकी नहीं है।
सहेजता हुआ कुछ अनजाना डर
मैं कुरेदता रहता हूँ
अनजान चेहरों में छुपा परिचय
संजोकर रखता हूँ कुछ अजनबी मुस्कराहटें
परसों हम मिले थे
याद है?
पर क्या हम कल भी मिले थे?
***
 
रंग कहाँ हैं
 
प्रिय!
रंग कहाँ हैं?
बस तुम्हारी आंखों में
जिसमें एक अधूरे स्वप्न की छाया है
और मेरी कविताओं में
जहाँ तुम्हें पुकारते कुछ शब्द हैं।
तुम्हारे लहराते दुपट्टे में
आसमान की सतरंगी छाया है
तुम्हारे होठों पर ठहरा हुआ है
सूरज की शोखी का रंग लाल
तुम्हारे मुस्कराहटों से धरती पर
थोड़ी पीली धूप फैली हुई है
तुम्हारी नजरों के देखे से
हरे रंग में रंगी हैं दिशाएं!
इनके अलावा
इन सबके अलावा रंग कहाँ हैं?
बस सारी उदासी को हटाकर जहाँ
मैंने प्यार का आख्यान लिखा है
वहाँ जिन्दगी में अब भी बचे हैं
रंग की निशानदेही करते कुछ शब्द
उनके अलावा
उन सबके अलावा रंग कहाँ हैं?
टूटने दो उस सितारे को
तुम तक जिसकी रोशनी नहीं पहुंचती
बस तुम्हारी हथेली में
एक शब्द प्रिय
झिलमिलाता रहने दो!
इस स्याह- सफेद दुनिया में
रंगों की तलाश करते मेरी कविता के शब्द
तुम्हारे सांसों की ऊष्मा से जरते हैं
जवां होते हैं!
एक दिन तुम्हारी आंखों में देखता हुआ मैं
देखता हूँ शाश्वत अग्नि से दहकती हुई धरती
एक दिन मैं देखता हूँ कविता
कैसे छुपी हुई थी तुम्हारे होठों के आस्वाद में
एक दिन हम तुम मिलकर लिखते हैं
धरती का धानी रंग
एक दिन बारिश में हरा हो जाता है
पत्तों का पीला रंग!
***
 
नमक के बारे में कविता और अपरिचय की कहानियाँ
 
वह मुझसे थोड़ा नमक चाहता था!
नमक! मैं चकित था
हाँ नमक! उसने कहा तो उसकी आँखों में नमी थी
जो शायद उसने बचा रखी थी
इसी दिन के लिए जब वह
एक अजनबी से सरे राह नमक मांगेगा!
पर नमक क्यों?
क्या भूखे हो तुम?
सुंदर, सजीले इस बाजार के दृश्य में
मैं कहाँ तलाश सकता था चुटकी भर नमक!
कुछ खाना है?
मैंने पूछा
यह सबसे सरल प्रस्ताव था मेरे लिए
पर उसने कहा, नहीं भूखा नहीं हूँ मैं
मैं भूल चुका हूँ जिंदगी का स्वाद
नहीं भूख नहीं, तुम्हारी आँखों में छाया
अपरिचय डराता है मुझे
मैं आज तुमसे लेकर थोड़ा नमक
कृतज्ञ होना चाहता हूँ एक अजनबी के प्रति!
पर क्यों
नमक ही क्यों चाहिए उसे?
मैं खुद से पूछता हूँ
और लगता है
जैसे अपने ही बेसबब सवाल से डर रहा हूँ
वे जो टूटी सड़क के कोने पर
मूंगफलियां बेच रहे हैं
क्या उनके पास होगा नमक!
मैं इस सृष्टि में विकल मन की तरह दौड़ रहा हूँ
नमक की तलाश में
मैं उस खोमचे वाले के सम्मुख अपना अपरिचय लिये
नतमस्तक खड़ा हूँ
क्या उसे पता है
मुझे चाहिए चुटकी भर नमक!
रोज हमारी जिंदगी का नमक कम हो रहा है
पर मैं रोज व्यग्र नहीं होता हूँ नमक की तलाश में
मैं अपनी याचना की दुविधा को
अपनी मुस्कराहट से ढकता हूँ
मैं चाहता हूँ नमक
जो थोड़ा कुछ बचा है
जतन कर लपेटी छोटी पुड़ियाओं में।
मैं चुटकी भर नमक
उस अजनबी के हाथ में रखकर
देखता हूँ उसकी आँखों की चमक
और नमक विहीन यह सृष्टि!
मैं उदास हूँ
मैं गले से चिपट कर रोना चाहता हूँ उसके
पर ठिठक कर पूछता हूँ
तुम बहुत दिनों से तलाश रहे थे नमक
कुछ खास बात है भाई इसमें?
हाँ खास है न!
वह कहता है
कुछ खास बात है इस नमक में
तभी तो, इस नमक की तलाश में
बेकल नदियाँ समंदर तक पहुँचती हैं
इसी नमक को खोकर मैं
मिलता हूँ तुमसे विह्वल रोज
और तुम तक नहीं पहुँचता!
***
 
मॉल में भय

वह देख कर सचमुच चकित हुआ

पैरों के नीचे जमीन नहीं थी, कांच था
और कांच के नीचे लोग थे!
यह नये युग का बाजार था
कांच से सजा हुआ
कांच की तरह
कि कोई छूते हुए भी डरे
और कांच के पीछे कुछ लोग थे बुत की तरह खड़े!
कोई देखता नहीं
यह कैसा है उल्लास का एकांत
है खड़ा कोने में वह
अस्थिर और अशांत!
सामने स्पष्ट लिखा हुआ
पर नहीं किसी को खबर है
सावधान आप पर
सीसीटीवी की नजर है!
बाहर निकलते हुए भी नजर करती है पीछा
यहाँ आपकी ईमानदारी की परीक्षा करता
एक दरवाजा लगा है!
आपसे है अनुरोध महाशय
आप इधर से आएं!
क्या खरीदा है, क्यों खरीदा है साफ- साफ बतलायें?
आप अच्छे ग्राहक हैं अगर आप बेआवाज निकल जायें!
*** 
पेड़ पर अधखाया फल
 
पेड़ पर अधखाया फल
पृथ्वी के गाल पर चुंबन का निशान है
यह प्रेम की अधसुनी आवाज है
यह सहसा मुड़ कर तुम्हारा देखना है।
यह तुम्हें पुकारते हुए
ठिठक गया मेरा मन है
यह कोई मधुर कथा सुनते हुए अचानक
तुम्हारे आंखों में ढलक आयी नींद है।
अधखाये फल से छुपाये नहीं छुपता है
प्यार का मीठा ताजा रंग
अधखाये फल से झरते हैं बीज
तो हरी होती है धरती की गोद
अधखाया फल अचानक हथेली पर गिरा
तो मैंने चाँद की तरह उसे समेट लिया
यह धरती पर सितारे बरसने की रात थी
मैंने हौले से चूम लिया उसे
जैसे उनींदे उठ कर तुम्हारा नींद भरा चेहरा।
**** 
 

प्रेम में हूँ इसलिए
 
मैं प्रेम में हूँ
इसलिए बेवकूफ हूँ।
मैं दुख में हूँ
इसलिए सिकुड़ा हुआ हूँ।
मैं जागता हूँ
तो रोता रहता हूँ
मैं नींद में हूँ
इसलिए डूबा हुआ हूँ।
तमाम फैले ज्ञानी जन
तैरते रहते हैं जल में
मैं कवि हूँ
इसलिए तल में हूँ।
*** 
 
शून्य के साथ
शून्य के साथ रखा अंक
सुन्दर लगने लगता है
जैसे पांच की जगह पचास!
जैसे अपने हृदय का शून्य
सौंपता हूँ तुम्हें
और महसूसता हूँ विराट की उपस्थिति!
अपना शून्य लेकर
भटकता रहता हूँ इस निर्जन वन में
तुमसे मिलता हूँ तो साकार हो जाता हूँ।
***  

मनुष्य को खा जाता है दुख
गेहूँ को घुन खा जाता है
और कभी-कभी पिस भी जाता है।
कीट खा जाते हैं हरी पत्तियाँ
और कभी मिल भी जाते हैं मिट्टी में।
सूखते पत्तों के संग
झर जाते हैं, जर जाते हैं
खाद हो जाते हैं।
मनुष्य को खा जाता है दुख
मनुष्य मर जाता है
दुख नहीं मरता
बस धीरे से देह बदल लेता है।
***  

नम अँधेरे में उम्मीद 
 
झर गया हूँ
पत्ते से कहता हूँ
पर टूटा तो नहीं हूँ!
टूट गया हूँ
पेड़ से कहता हूँ
पर उखड़ा तो नहीं हूँ!
उखड़ गया हूँ
जड़ से कहता हूँ
पर सूखा तो नहीं हूँ!
सूख गया हूँ
बीज से कहता हूँ
और चुप रहता हूँ!
इस नम अंधेरे में जन्मना है तुम्हें फिर
कहता है इस बार बीज।
***
 
रह जाता
धरती की तरह
             सह जाता
नदी की तरह
             बह जाता
चिड़िया की तरह
            कह जाता
तो दुख की तरह
            रह जाता
मैं भी
मन में और जीवन में!
***

अरुण देव की नई कविताएं

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अरुण देव हमारे वक़्त के दुश्चक्रों से लड़ने वाले कवि हैं। उनकी कविता देश के कठिन समय में संविधान की प्रस्तावना हमारे सामने रखती है। विक्षत मनुष्यता के लिए कलपती कविता, जिस ज़रूरी क्षोभ से भरी होनी चाहिए, उसका अनन्य उदाहरण अरुण देव की कविताएं हैं। कविता में राजनीतिक समझ का एक अचूक औज़ार उन्होंने अर्जित किया है, जिससे सीखा जा सकता है। वे छह वर्षों से हिंदी की महत्वपूर्ण ई-पत्रिका समालोचन का सम्पादन कर रहे हैं। महज सहित्यकार हो जाने के बरअक्स उन्होंने साहित्य और विचार का कार्यकर्ता हो रहना स्वीकार किया है। ज्ञानपीठ और राजकमल से उनके दो कविता संग्रह आए हैं। अनुनाद को अरुण देव की कविताओं का इंतज़ार रहता है। इन कविताओं के लिए अनुनाद अपने कवि को शुक्रिया कहता है।  
**** 

वे अभी व्यस्त हैं

जब गाँधी अहिंसा तराश रहे थे
आम्बेडकर गढ़ रहे थे मनुष्यता का विधान
भगत सिंह साहस, सच और स्वाध्याय से होते हुए
नास्तिकता तक चले आये थे
सुभाषचंद्र बोस ने खोज़ लिया था खून से आज़ादी का रिश्ता
नेहरु निर्मित कर रहे थे शिक्षा और विज्ञान का घर

फतवों की कटीली बाड़ के बीच
सैय्यद अहमद खान ने तामीर की ज्ञान की मीनारें

तब तुम क्या कर रहे थे ?

तुम व्यस्त थे हिंदुत्व गढ़ने में
लिखने में एक ऐसा इतिहास जहाँ नफरतों की एक बड़ी नदी थी
सिन्धु से भी बड़ी

तुम तलाश रहे थे एक गोली, एक हत्यारा और एक राष्ट्रीय शोक

सहिष्णुता की जगह कट्टरता
आधुनिकता की जगह मृत परम्पराएँ
चेतना की जगह जड़ता

तुम माहिर हो उन्माद रचने में

किसान, श्रमिक, युवा, स्त्री, वंचित जब भी तुमसे कुछ कहना चाहते
उधर से एक मशीनी आवाज़ आती
आप जिनसे सम्पर्क करना चाहते हैं वे अभी व्यस्त हैं?


इस देश की सबसे सार्थक कविता

याद हो कि न याद हो
भारत एक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य है

इसके समस्त नागरिकों को
सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक
न्याय, विचार, अभिव्यक्ति
विश्वास, धर्म, उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा, अवसर की समता प्राप्त है

समरसता, समानता, भ्रातृत्व की भावना बहे
धर्म, भाषा, जाति, वर्ग और क्षेत्र की सीमाएं बाधक न बनें

त्याग दी जाएँ ऐसी प्रथाएं और विचार
जो मनुष्यों में भेद करते हों
स्त्रियों के सम्मान और गरिमा के प्रतिकूल हों

गंगा जमुनी तहज़ीब की मजबूत रवायत के महत्व को समझा जाए
वे समृद्ध हों सार्थक बनें

वन, झील, नदी, जीवों के लिए भी इस भूभाग पर जगह रहे
वे इसके आदि नागरिक हैं
फले, फूले, निर्भीक विचरें

वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद, ज्ञानार्जन, प्रगति की भावना से हम बढ़ें
हिंसा से दूर रहें

हो सतत प्रयास
सभी क्षेत्रों में बेहतरी की ओर बढ़ने का

जिससे राष्ट्र बढ़ें
विश्व सजे

यह वही कविता है जिसे इस देश के नागरिकों ने मिलकर अपने खून से लिखा है
आज़ादी की कविता

यही है देशप्रेम और राष्ट्रभक्ति.


उत्तर – पैगम्बर  

१.
वह यह तो चाहेगा कि तुम नेक बनो
पर तुम्हारी वफ़ादारी उसने कभी नहीं मांगी
उसे आज्ञाकारी दास नहीं चाहिए थे

ये ज़ंजीरें तुम्हारी ख़ुद की हैं.

२.
तुम ख़ुशहाल रहो
आख़िरकार उसने तुम्हें बनाया जो है

पर तुम उसके कहर से न जाने क्यूँ डरते रहे
बचते रहे उसके श्राप से
वह तुम्हारे लिए विनाश और तबाहियाँ क्यों लाएगा
जबकि उसने तुम्हारे लिए सूरज चाँद तारे बनाये
सुकून भरी रातें और स्वाद भरे फल बिखरे दिए धरती पर

उसने सुन्दरता को पहचानने  के लिए रौशनी दी है तुम्हे.

३.
वह सर्वशक्तिमान है
वह तुम्हारे प्रसाद और बलि का मोहताज़ नहीं
उसे तुम्हारी कृतज्ञता भी नहीं चाहिए.

४.
उसे कुछ कहना होगा तो कह लेगा
उसे सब भाषाएँ आती हैं

वह आकाश के कागज़ पर कडकती बिजलियों से इबारत लिख सकता है

उसे किसी सन्देशवाहक की जरूरत नहीं
न कभी उसने भेजे

क्या उसने शेर को बताया उसका जंगल
चिड़िया को उसकी उड़ान
नदी को उसकी गति

क्या तुमने कभी खरगोश को प्रार्थना गाते सुना है
उसकी दौड़ ही प्रार्थना है.

५.
वह न्यायप्रिय ठहरा

और तुम उसके मानने वाले अपनी बहनों से ही नाइंसाफी करते हो
और फर्क करते हो उसकी संतानों में
काले गोरे नाटे लम्बे सब उसके ही साँचें ढले हैं

लोगों को उनके सद्गुणों  से पहचानों
उनके ज्ञान, विवेक और सहृदयता का सम्मान करो
श्रम की इज़्ज़त करना सीखो.

६.
वह तुम्हारा रखवाला है

बेवज़ह उसकी कृपा के लिए
झुके हुए बुदबुदाते रहते हो उसका नाम
वह बेख़बर  नहीं है तुमसे
उसकी कोई रीति नहीं
न ही उसका कहीं कोई घर है.

७.
वह सर्वव्यापी है
दिग्दिगन्त तक फैली है उसकी आभा
उसने तुम्हें विवेक दिया

वह कोई कातिब नहीं कि आखिरत में तुम्हारा हिसाब-किताब करेगा
न जन्म के पहले कुछ था न मृत्य के बाद कुछ है.

८.
तुम कैसे रहते हो
क्या पहनते हो
तुम्हें क्या खाना चाहिए

इसके लिए उसने कोई दिशा निर्देश नहीं दिए
नहीं तो वह तो तुम्हारी पीठ पर इन्हें उकेर देता

यह तुम खुद तय करो.

९.

जहाँ हो
वहीँ बना लो स्वर्ग

खिलो और फिर अपनी सन्ततियों में खिलते रहो
अपने कर्मों में महकते रहो
यही अमरता है.

१०.

और यह भी कि
यह धरती सिर्फ तुम्हारी नहीं है
आकाश, समुद्र और जमीन साझे के हैं
इस पर रहने वाले छोटे से छोटे कीट की भी यह उतनी ही है

एक असमय पड़ा पीला पत्ता  
कहीं किसी पेड़ के सूख जाने की तरफ इशारा करता है
और पेड़ों का काटा जाना जगलों की तबाही है
जहाँ से मिलती है तुम्हें हवा
और पहाड़ों के पीठ पर पानी से भरे बादल हैं
काले धुंए से पीला पड़ा प्रकाश तुम्हारे लिए विभीषका लाएगा
बचो खुद के पैदा किये कचरे से

मैंने तो तुम्हें साफ-सुथरी पृथ्वी दी थी
कल-कल करती नदी
और चमकती हवा


अगर कहीं कोई पीछे रह गया है तो रुक कर अपने में उसे शामिल कर लो.
         ***

प्रदीप अवस्थी की कविताएं

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अनुनाद जिन युवाओं में गहरी उम्मीद देखता है, प्रदीप अवस्थी उनमें से एक हैं। यह देख पाना भी सुखद है कि वे किसी भी अतिरेक और क्लीशे (Cliche) से अलग कविताएं सिरज रहे हैं। उनमें वह अनिवार्य धैर्य है, जिसके बल पर लम्बी यात्राओं पर निकला जा सकता है। यहां छप रही कविताएं इंद्रपस्थ भारती में पहले छप चुकी हैं। 

अनुनाद पर इससे पहले पाठकों ने उन्हें पढ़ा है, वे लिंक भी हम साझा कर रहे हैं - 
1. http://www.anunad.com/2015/06/blog-post_22.html
2. http://www.anunad.com/2016/04/blog-post_19.html
 
हमारे रहस्य सिर्फ़ हमारे होते हैं

पतंग लूटने जैसा आसान होना था जीवन
गिरकर लुढ़क जाने और घुटने छिल जाने जैसा होना था संघर्ष
घुटने से फटी पेंट को रफ़ू कराने जैसे समाधान

पर यह क्या होता गया

फ़रेब कहें या कमजोरियाँ
उनकी भेंट चढ़ते गए हम
खिड़की से बाहर गर्दन निकालो तो कसाई खड़ा था एक गंड़ासा लिए
खुशियों का हर त्यौहार हमारी बलि चढ़ाता था

अखबार पढ़ना छोड़ दिया मैंने
रोज़ सुबह दरवाज़े पर खून किसे पसंद है
फिर चाय के साथ उसे पीना भी

तुम कुछ भी कर सकते थे
मुझे ख़ुद पर हंसने से नहीं रोक सकते लेकिन.

हमारे रहस्य सिर्फ़ हमारे होते हैं

हम अपने रहस्यों के साथ अकेले छूट जाते हैं
बहुत अँधेरे में खोलते हैं उनका मूँह
डर कर वापस लौट आते हैं
हमारे रहस्य सिर्फ़ हमारे नहीं होते.
***

और कोई रास्ता सुझाओ

अचानक ख़याल आया मैं बाहर था जब कहीं
वे मुझे समझा रहे थे कि यह मौका है, पैसे अच्छे मिलेंगे
कुछ नहीं सूझा, मैं दौड़ता हुआ घर आया और
अल्मारी से निकालकर तोड़ दिया तीन साल से संभालकर रखा फ़ोटो-फ्रेम
कोई दुःख नहीं हुआ, ना कोई शान्ति मिली

बात प्रेम, प्रतिशोध या नफ़रत की नहीं थी
बस उस चीज़ के वहाँ रहने का महत्व ख़त्म हो गया था

ये उदासी इतनी लम्बी चली
कि कई घरों में बच्चे पैदा होकर हँसना और बोलना सीख गये
और हम कोशिश में रहे कि खिलखिलाएँगे देखना

मुस्कुराना सिर्फ़ फेसबुक और व्हाट्सएप की स्माइली तक सीमित रह गया था.

कितना कुछ छिपाकर जीना था उनसे जिन्हें सब कुछ बताना था
रोज़ उन तक जाना और चुपचाप लौट आना था
दीपिका पादुकोने की माँ अच्छी है, पर वे कितनों को बचा पाये
कोई आता था, रसोई से रोटियाँ चुरा ले जाता था माँ बनाती थी जब

मैंने खिड़की से छुपकर जोड़े हाथ कि माँ चुप कर
मैंने सड़कों पर गिराये आँसू कि लौट आ
मैंने ख़ुद से कहा कितनी बार कि मेरे बस का नहीं

अब एक थका हुआ दिमाग़ है
इसलिए मैं बात करते करते कहीं भटक गया हूँ, क्षमा करें

दुःख बाँटना मुझे असहाय बनाता है
और कोई रास्ता सुझाओ.
***

टालने से ठीक नहीं होती बीमारियाँ

बीमारी से कैसे मरते हैं लोग
यह जाना बीते कुछ वर्षों में  
टालता रहा जब अपना इलाज
छुपाता रहा घर से कि नहीं ! नहीं ! सब ठीक है
दोस्तों को देता रहा दिलासा कि हाँ जाऊँगा अब अस्पताल ही डॉक्टर को दिखाने

टालने से ठीक नहीं होती बीमारियाँ
बड़ी होकर सामने आती हैं
यूँ ही मरते हैं दुनिया भर में लोग


कम बोलने वाला कम देखने वाला नहीं होता
ज़्यादा देखने वाला ज़रूर हो सकता है

बहुत निर्धन है इंसानी भावों और तकलीफों को समझने के मामले में
हमारे लोग

आलसी मत कह दो किसी को यूँ ही
यदि वो नहीं जुटा पा रहा शक्ति बिस्तर से उठ भर पाने की
उसके शरीर में यक़ीनन कहीं कोई विकलांगता नहीं, आप दिमाग़ का नहीं सोचते लेकिन

उदास को अकेले छोड़ना ही पड़ेगा
पर उसे कोई दो ऐसा जो मिलता रहे कभी-कभी
चिड़चिड़े को मत कह दो चिड़चिड़ा
किसी के सामने मत करो उसकी कमज़ोरियों का ज़िक्र
हर दुःख को निकलते रहने दो आँखों से

जो रोना चाहे वो रो पाये चोट लगने पर
यह नेमत ना छीनी जाये किसी से

तीन वक़्त का खाना और शांत सुंदर नींद रोज़
इससे बड़ी कोई ज़रूरत नहीं इंसान के ठीक-ठाक जीने के लिये
खाने में रोटी और तरह-तरह की सब्जियाँ और दाल ज़रूर हो.
यह बात अनुभव से कहता हूँ.

दुःख में भले कोई साथ ना हो
सुख में हो.
***

एक दुश्मन है मेरा जो मुझमें बैठा है

घर से निकलना चाहिए दिन में एक बार तो कम से कम कहते सब
जाना कहाँ चाहिए कोई नहीं बताता
किसके साथ !

फटी जेब को सिलने का कोई नुस्खा काम नहीं आता

अकेले कमरे में इंतज़ार करता है वह जो है लेकिन उसकी उपस्थिति के बारे में बात नहीं की जा सकती. बताने चलो किसी को तो समझाना पड़ता. समझाने चलो तो क्या ? सब तो सही है

एक दुश्मन है मेरा जो मुझमें बैठा है

मैं जो कह रहा हूँ आपको वही समझना चाहिए जबकि यह शुरुआत है मेरे झूठ बोलने की

अब तक मैंने किसी स्त्री के बारे में बात नहीं की क्योंकि उजाले से जोड़ा जाना चाहिए उन्हें

कुछ रहस्य हमें बचा कर रखने चाहिए
वे हमें दो हिस्सों में चीरें रोज़ थोड़ा-थोड़ा भले ही

हम बिना तकलीफ़ के रोयें
जैसे बिना किसी बात के ख़ुश रहते हैं लोग

समय बीत जाने के बाद खोलेगा अपने राज़ स्वयं.
***

अपने लिये सबसे नकारा

इस बात का अर्थ छिटक कर कहीं गिर गया
मुझ तक बस शब्द पहुँचे

उसने मुझसे पूछा था मेरी याद आयेगी ?

शब्द टकरा कर लौट जाया करते थे
और मैं आईने पर सिर मारकर देखा करता था
कहीं कोई दीवार उग आयी है क्या सिर के इर्द-गिर्द

मुझे बस इतना याद है कि किसने कब कब मेरा कितना अपमान किया

जब तुम्हारे लिये मैं दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति था
अपने लिये सबसे नकारा ,
यही एक बात गोल-गोल घूमती रही मेरे दिमाग़ में जैसे घूम रहा है पंखा  

तुम मेरे लिये रोटियाँ ख़रीदती घर वालों से छुपाकर और एक मिठाई
मैं तुम्हें पैसों में तोलकर बताता अपनी औकात

उन्होंने मुझे घर बुलाकर गालियाँ दीं
मुझे गुस्से के बजाय तरस आया उनकी बेचारगी पर
पहले से ज़्यादा नफ़रत और चुप्पी लेकर लौटा मैं

क्या हमें पानी की याद आती है जबकि हम उसके बिना जी नहीं सकते

मुझे बस अपने प्यार के लायक होना था
यही एक काम बड़ा भारी पड़ा
फिर डॉक्टर ने सिखाया.
***


आदित्य शुक्ल

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आक्रोश को अपना यू.एस.पी. नहीं बनाना चाहिए.
-    - वीरेन डंगवाल

यह कथन वीरेन डंगवाल की स्मृति में पहल से आयी पंकज चतुर्वेदी की पुस्तक में दर्ज़ है। आदित्य शुक्ल की कविताएं पढ़ता हूं तो यह वाक्य याद आता है। आक्रोश यहां, अंडरकरेंट की तरह है, वह इन कविताओं का यू.एस.पी. नहीं है। ऐसा भी हुआ है कि आदित्य ने अपनी कविताओं पर कुछ कहने की जगह दिवंगत कवि-साथी प्रकाश को आत्मकथ्य में याद किया है। मेरा इस प्रसंग में ज़्यादा कुछ कहना इसकी सांद्रता को नष्ट करना होगा, इसलिए इन कविताओं और प्रकाश पर इस टिप्पणी के लिए मैं आदित्य को शुक्रिया भर कहूंगा।
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प्रकाश - आना से लौटना तक: आत्मन के नृत्य.

जीवन के प्रति एक उत्सुकता है। जीवन में एक उदासी है। उदासी में एक दृष्टि है। दृष्टि में एक कल्पना है। कल्पना में एक जीवन है। यही चक्र है।

*वह जीवित, मृत्यु नाम की जगह पर
बार-बार जाता था
और हर बार अपनी जगह पर
चुपचाप लौट आता था
उसके हाथ में एक खंजड़ी थी
वह गाता-बजाता जाता था
और वैसा ही वापस आता था

लेकिन आश्चर्य कि आत्मन्‌ कहता था
कि वह कभी कहीं गया ही नहीं!

आत्मन ने अपना भविष्य देख लिया था। या यूं कहें कि उसने अपना एक भविष्य तैयार कर लिया था। उसका जीवन संछिप्त था। उसने संछिप्त को अपना लिया था। वह संछिप्त में उतना ही सुखी था जितना कि जीवन ने उसे दुःख दिया था। उसके हाथ में एक खँजड़ी थी। उसे वह गाता बजाता था। वह जीवन को समूचा जी लेना चाहता था पर यह कहता नहीं था। उसने संछिप्त से जीवन में जीवन पूरा जी लिया। वह अपने जीने की जगह पर पूरा केंद्रित था। उसने जीवन को समझ लिया। उसने जीवन की गुत्थी अपने लिए खोल दी और उसमें कूद पड़ा। वहां बहुत अन्धकार था। वह उसमें विलीन हो गया। वहां से उसकी प्रतिध्वनि आती रही। उसने मानवता के एक छोटे से समूह को जीवन के बारे में प्रेरणा देने के लिए अपना जीवन कुर्बान कर दिया। उसने दुःख को पकाकर सुन्दर कर दिया। उसके यहां दुःख में निराशा की एक अंतर्धारा थी लेकिन वह उसे प्रकट नहीं होने देता। बड़ी चालाकी से वह उसे छिपा ले जाता और चुपचाप सब देखता सुनता और गुनता। वह बहुत कुछ कहना चाहता था, उसकी उत्सुकता उससे बहुत कुछ खोज लेने और कहने के बारे में कहती थी लेकिन वह विवश था। वह जानता था इस दुनिया में कहने का कोई मोल नहीं। वह उदास मन से कहने को इच्छा पर ही रुका हुआ था। वह करुणा की दृष्टि से इस विश्व को देखता था और मन ही मन पहेलियों को सुलझाता रहता था।

*आत्मन्‌ खाता था और रो पड़ता था
वस्तुतः वह ख़ुद, ख़ुद से खाया जाता था
वह हैरत से ख़ुद को खाया जाता देखता था
उसकी आँख फटी रह जाती थी
कि वह रोज़-रोज़ थोड़ा कम होता जाता था !
उसको एक उपाय सूझता था
वह रो-रोकर आँसुओं से
ख़ुद को थोड़ा अधिक कर लेना चाहता था
पर रोते-रोते एक दिन
वह नहीं की गुफ़ा में चला गया!

भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार के लिए अनुसंशित कवि प्रकाश की कविता-श्रृंखला 'आत्मन के गाए कुछ गीत'हिंदी कविता की थाती हैं। कवि प्रकाश हिंदी की उपलब्धि हैं। आज उनके बहाने मैं एक लगभग अप्रासंगिक हो चुके मुद्दे को उठा रहा हूँ - कविता की रोमांटिक शैली। अशोक बाजपेयी और उनके बाद के तमाम कवियों पर यह आरोप लगता रहता है कि उन्होंने अपनी ही शैली के कवियों को बढ़ावा दिया। हो सकता है यह आरोप सच हो पर हमें उससे क्या। कवियों और कविताओं की अपनी तय नियति होती है। हम उसे चुपचाप स्वीकार कर रहे हैं। इस क्रम में इस अल्पायु प्राप्त विलक्षण कवि की बात की जानी जरूरी है। प्रकाश एक द्रष्टा कवि हैं। उनमें करुणा फूट-फूट कर भरी है। वे विश्व को देखते हैं, अपने प्रति हुए अत्याचारों को देखते हैं और सिर्फ करुणा के शब्द कहते हैं। कहीं कोई बनावट नहीं, कहीं कोई धोखा नहीं, कहीं कोई शिकायत नहीं। हलांकि यह विदित है कि उनकी मृत्यु हिंदी साहित्य में कितनी दुखद घटना है। यह हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य है। लेकिन उनकी मृत्यु के लिए सिर्फ हिंदी साहित्य को दोष देना भी अनुचित है। यह एक समूचे समाज की असफलता है। यह हमारे देश-काल की विद्रूपता है।

कवि प्रकाश ने कहन की नई शैली भले ही विकसित न की हो लेकिन वे जिस परम्परा के तहत लिखते हैं, उसी में एक नए धरातल की पड़ताल करते हैं, यह अलग बात है कि उनका अनुसंधान पूरा नहीं हो सका। 'आत्मन के गाए कुछ गीत'श्रृंखला की कविताएं देखिए- करुणा के गहनतम धरातल पर उतरकर वे समूचे विश्व की मानवता की विद्रूपता रचते हैं। उनकी इन कविताओं में अनावश्यक महत्वकांक्षा नहीं है। वे विद्रूपता को देखते हैं और उसे रिकॉर्ड करते हैं और एक कवि इससे अधिक कर क्या सकता है। उनके यहां तो संतो जैसी असंपृक्तता है। आखिर बिचारा मनुष्य करे तो क्या? सत्तासीन मनुष्य विनाश करता है और निर्बल मनुष्य रोता है, यही मानव सभ्यता की नियति है।

*आत्मन्‌ अपनी छड़ी फेंक देता था
अस्त-व्यस्त कपड़ों को भूल
बेतरतीब नाचता था

भीड़ खड़ी पूछती थी-- हुआ क्या ?
आत्मन्‌ कहता था-- देखो और जानो!

आज जबकि भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार के संदर्भ में हिंदी साहित्य में अनावश्यक बवेला मचा हुआ है, अपने इस अग्रज कवि को याद करते हुए नमन करने की जरूरत है। इस कवि को हमेशा याद रखने की जरूरत है। इस कवि की कविताओं को पढ़ने और गुनने की जरूरत है। हम कितनी जल्दी एक से आगे बढ़कर दूसरे पर पहुँच जाते हैं जबकि एक का भी सम्पूर्ण निरक्षण ही न हुआ हो?!

*सभी कविताएं कवि प्रकाश की कविता श्रृंखला 'आत्मन के गाए कुछ गीत से'।
**********

आदित्य शुक्ल की कविताएं
 
ुझे,ये चींटियाँ.


अंधेरे की एक कोई दीवार
चौकोर,

चार तीखे कोनों वाली
और ये चींटियां
बारिश रिसी दीवारों पर।

ये चींटियां,
अंधेरा तोड़ तोड़ ले आती हैं
उनमें अपने घर बनाती
गहरे, बहुत गहरे सुराख कर
दो दुनिया के रास्ते तय कर लेतीं
ये चींटियां छोटी छोटी।

मुझे ये
मेरे चारों तरफ घेर लेतीं
किसी रात के उजाले में
रखे होते जहां अंधेरे अनाज के टुकड़े,
मुझे ये चींटियां मरी हुई लाश समझकर
कभी कभी मुझ पर उजाले उगल देतीं।

मुझे ये चींटियां
कभी कभी
महीने-साल का राशन दे जातीं,

अंधेरी जमीन को खोद
कहीं उस पार
अगली बारिश तक के लिए चलीं जातीं।
***

मेरे गाँव की क़ब्र.
मेरे गांव में एक भी क़ब्र नहीं है,
मेरे गांव में एक भी क़ब्र नहीं है
लेकिन खूब खुली-खुली जगहें हैं,
घास है,
ईंट/पत्थर/सीमेंट/कामगार हैं।
लोग-बाग मरते भी हैं बहुधा
मेरे गांव,
फूल के बागीचे हैं।
मेरे अपने बागीचे,
मेरे अपने फूल के पौधे।
काश, मेरी अपनी एक क़ब्र भी होती
खुले आसमान के नीचे,
कहीं भी,
जिसपर अंकित होता मेरा परिचय, मेरे शब्द,
मेरे स्वप्न,
मेरी असफलताएँ;

एक-एक कर,
अपने सारे ये फूल मैं उस क़ब्र पर चढ़ा आता,
यूं,
फूलों का बोझ मेरे सर से उतर जाता।
***

बस स्टैंड पर

बस-स्टैंड पर लोग-बाग बातें कर रहे हैं
और हो रही है बारिश.
हवाएं उड़ा लाईं हैं कुछ हरे पत्ते
कागज के टुकड़े
जो ठिठक गए हैं आकर पोल के पायताने जमे पानी में

लोग-बाग बाते कर रहें हैं
उनकी बातों में हैं तमाम बातें
बस की अब नहीं है उन्हें कोई चिंता
बस आएगी अपने नियत समय पर
बादल गरजेंगे
बारिश होगी
रास्ते में लग जाएगा जाम
पोल के पायताने जमा रहेगा पानी.
दूर रेडियो पर बजती रहेगी जानी-पहचानी धुन
बादल गरजते रहेंगे.

लोग-बाग बातें करते रहेंगे
बस-स्टैंड एक दृश्य बनकर लटक जाएगा सड़क किनारे.
लोगों की बातों में इन बातों का नहीं होगा कोई जिक्र
नहीं होगा कोई जिक्र कि कैसे कौन हवाएं उन्हें यहां लाकर ठिठका देती हैं
और फिर यकायक उड़ा भी ले जातीं हैं
वे तो जानते तक नहीं
अपना रुकना, ठहरना, दृश्य बन जाना

बस के आने तक होगा दृश्य
टूट जाएगा फिर
लोग हंसते-मुस्कुराते इधर उधर चले जाएंगे
अपनी अपनी छतरियां खोले
फिर कहीं और ठिठक जाने के लिए.
***

नींद ही है कि सच है

अधखुली आँखों से नींद टपकता,
बिस्तर रेशमी होता जाता है। तुम्हे आधा देखते और आधा छूते मैं पूछता हूँ
देखो तो सुबह हो आई है क्या, यह झुटपुटा सा क्यों है, सूरज लाल है क्या क्षितिज पर देखो तो।
मानसून की पहली बारिश है, हो रही। सड़कें भीग गयी है। कोई दो प्रेमी इस मिट्टी के रस्ते से गुजरे हैं
बारिश हो रही है। आँखों से टपकती है नींद बिस्तर रेशमी होता जाता है तुम कहती हो
चलो कहीं चले चलते है।
दूर।
तो क्या तुम मेरे साथ गाँव चलोगी, वहां हम खेतों में काम करेंगे और गन्ने और मक्के उगाएंगे
गाँव के लोगों ने कामचोरी में आकर ऐसी खेती करनी बन्द कर दी है या शायद वे उम्मीद करते करते ऊब गए हैं अब कुछ और नहीं, अब ईश्वर ही उनका एकमात्र सहारा है। वे अब मंदिरों और प्रार्थनाओं में अधिक मान्यताएं रखने लगे है। बजाए इसके कि वे खेती करते।
गाँव चलोगी क्या
या अगर मन बदल जाए तो मैं तुम्हारे साथ गाँव को जाने के लिए बैठे ट्रक पर से अचानक उतरकर कहूँ
कि नहीं, नहीं। चलो पहाड़ों पर चलते हैं जहाँ हमें कोई भी जानता नहीं। तो फिर भी तुम चलोगी क्या?
तुम मौन हो स्वप्न में मौन हो। पर तुम्हारी आँखें खुली हैं। पूरी की पूरी। तुम्हारी आँखों में दृश्य चल रहा होगा। दृश्य हमें मौन कर देते हैं फिर तुम कहती हो:
हाँ, चलो न। चलो कहीं भी। कहीं से उतर कर कहीं भी चले चलेंगे। मैं थोडा बहुत जितना भी जीना चाहती हूं वो बस तुम्हारे साथ। अगर हम पहाड़ों पर चले तो वहां एक स्कूल चलाएंगे। अब मुझे कभी-कभी बच्चों को पढ़ाने का मन करता है।
यह कहकर अकस्मात् तुम्हारी आँखों से नींद टपकती है बिस्तर किसी विशाल समुद्र में तब्दील हो जाता है।
मानसून की पहली बारिश है अलसुबह, अखबार बेचने वाला पुराने रेनकोट में आधा भीगते और चिल्लाते हुए कहीं से आ रहा है और कहीं को ओर चला गया। अखबारों में पता नहीं कैसी-कैसी ख़बरें हैं। कोई अच्छी खबर होती तो वह मेरे घर की बालकनी में भी अखबार फेंक जाता या पिछले महीने का बकाया मांगने आ जाता जब मैं या तुम अधखुली नींद में एक घण्टे बाद आने को कह देते।
नींद ऐसी टपकती है कि सब कुछ रेशम हो जाता है शहतूत के पौधे पर लगे फल मीठे हो जाते हैं और हम तोड़ते बीनते खाते जाते हैं। नींद टपकती आँखों के सामने न जाने किस फूल के पौधे पर तितलियाँ मंडरा रही हैं तितलियाँ ही हैं कि न जाने कुछ और और स्वप्न में नींद का ऐसा खुमार है कि तितलियाँ जान पड़ती हैं वे।
***

किसी अदृश्य में तुम.

एक अदृश्य में तुम्हारी
प्रतिछाया मिली
एक अदृश्य के साथ
शहर के हर रेस्तरां में गया
हर अनबैठे कुर्सियों पर बैठने
हर अनकही बात बताने के लिए
हर अनखाया व्यंजन खाने के लिए।

सारा अनहुआ, हुआ हो गया।
पृथ्वी पर कोई जगह नहीं बची
जहाँ हमारे पदचिन्ह न हों।
सारा अनकिया घटित हुआ
- जिस अदृश्य में तुम्हारी प्रतिछाया थी।
*** 

एक अदद बंदूक की जरूरत.

मैं इतना अच्छा आदमी हूँ कि सनक गया हूं
अँधेरे में मुझे आता देख एक साठ साला औरत अपने आँचल सम्भालती है
ये शर्म की बात उससे अधिक मेरे लिए
मैं अपने सौ से भी ज़्यादा टुकड़े कर सकता हूं
मेरे मस्तक में कीड़ों का साम्राज्य उग आया है
उनकी टांगें मेरे सिर पर छोटे छोटे सिंग जैसे बढ़ रहे हैं
आप मुझे कुछ भी ऑफर कर सकते हैं
बीड़ी, गांजा या बन्दूक।
***


ब्रज श्रीवास्तव की कविताएं

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प्रार्थना

बच्चे स्कूल में इस समय
कतार में खड़े हो गए हैं
गा रहे हैं प्रार्थना


जो बच्चे इस वक्त स्कूल में नहीं हैं
जरूर
किसी होटल पर धो रहे होंगे प्लेट
या मालिक की दुत्कार सुन रहे होंगे


मुमकिन है कि पास के स्कूल में चल रही
प्रार्थना की आवाज भी सुन रहे हों वे
उनको हो गयी होगी आदत
घंटी और प्रार्थना की आवाज सुनते हुए ही
चाय का गिलास देना
होटल के ग्राहकों को.


ग्राहक भी बस उपभोक्ता की तरह ही है.
जैसे कि बच्चों के माता पिता
केवल जनक हैं उनके
बाजा़र और पूंजी के शिकार हैं ये दोनों


प्रार्थनाएं लगातार गाई जा रही हैं कई जगहों पर
लगातार मंत्र गूंज रहे हैं
सबके भले के लिए प्रार्थना कर रहे हैं
कुछ भले ही लोग

बुरे लोग पहले तो
शब्दों के ही प्राण हर लेते हैं
और अपने भलेपन के नकली पौधे पर
सींचते  रहते हैं पानी


बुरे लोगों ने प्रार्थना नहीं सुनी
शब्दों में छिपे महान अर्थों को
धता बता दिया है उन्होंने
बच्चों की मासूमियत को उनकी क्रूरता ने
दबोच लिया है


स्वर और शब्द कलपते रह जाते हैं.
वातावरण में उदास संगीत बजता रह जाता है

बचपन की ही तरह
प्रार्थना की भी हत्या हो जाती है.


यह जो प्रार्थना आप सुन रहे हैं
इसमें जान नहीं बची है.
अलबत्ता बच्चों में जीवन ही नहीं
उम्मीद और उत्साह भी बचा है.

*** 
 
पत्थर मारो

उसकी मदद करते हुए मैं
ख़ुश रहा
तुम नाखुश हो जाओ


उससे गुफ्तगू की मैंने
मुझे बुरा कहो
मुझे कोस लो


उसके हक़ में आवाज उठायी
तुम शत्रु हो जाओ मेरे


उसके बारे में सोचता ही रहा
तुम मुझसे घृणा करो.


मैं उसके साथ चला
मुझे पत्थर मारो


उससे दूर हुआ आख़िर मैं
अब जश्न करो.

*** 
 
बगीचे में वृद्ध

शाम हो गई है और
वृद्ध जन
लिफ्ट से उतरकर
मल्टीफ्लेटस
के अहाते में बने बगीचे में.
बैठ गए हैं.


वे अलग अलग प्रांतों से हैं
अपनी अपनी बोलियों में बोलते हुए
बहुत मज़ेदार लग रहे हैं.


देखते हैं चारों ओर, तने ऊँचे भवन
वाहनों की चिल्लपों के बीच
अपने - अपने कस्बों की
याद कर रहे हैं


जबकि जिंदगी भर के तजु़र्बे
मुंह पर ही रखे हैं उनके
पर फ्लेट की कैद में
उनसे बतियाने को कोई नहीं है


बेटा और बहू तो
बुरी तरह व्यस्त हैं नौकरी में
इन फ्लेटों में रिश्ते नहीं
मशीनें रहती हैं


बस ये वृद्ध ही हैं यहाँ
जिन्होंने संबंधों का जीवन जिया है 
अपने ज़माने में

आहें भरते हैं ये अक्सर
अपने संवादों में
और अपने कस्बों में लौटने के सपने देखते हैं.

***

हताशा

आज फिर आना पड़ा हताशा
तुम्हैं
मुझे बहलाने के लिए


मेरे भरोसों के पांव में
चुभ गये हैं काँटे
धोखे, विहँस रहे हैं
साजिश की कामयाबी का जशन मनाते हुए वे लोग
आज ज्यादा ही पी रहे हैं.


आज फिर मेरे दावे
बिखर गए हैं जो
मैंने किये थे हमेशा ही कविता में
उनको लेकर.


कितनी चीजों से मिलकर बनी आशा
जब ओझल हो गई है
हताशा ही है
जो मेरा साथ दे रही है.

*** 

कर्फ्यू के बाद

सड़कें खुशी से झूम रही हैं
दरवाजे और खिड़कियों ने कहा सबसे स्वागत है
कर्फ्यू के बाद शहर में.


कैद से हुए पांव और वाहन
चलने लगे हैं
खुली हवा को तसल्ली हुई कि
उसका उपयोग होने लग गया
जले हुए मकानों ने कहा
अब अपने रिश्तों को न जलाना
हथियारों ने कहा
हम तो अब खुदकुशी करें तो बेहतर

परसों ही सब कुछ ऐसा था
जैसा आज है खुलापन
 

मगर अब सबके मन में कुछ बातें हैं
कुछ सवाल हैं
कुछ पछतावे और धिक्कार है कि
इक ज़रा सी बात को हम जैसे किसी ने
बर्दाश्त नहीं किया
और मजबूर किया सारी बस्ती को
कि वो बर्दाश्त करे  कर्फ्यू की कैद.

***
मोबाइल नंबर 9425034312


अंतिम दिन की अनुभूति - चन्द्रकांत देवताले

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एक टीस, एक लहर.... जो अभी उठनी शुरू हुई है...और ऊंची उठती जाएगी.... यह कविता अनुप्रिया देवताले ने शेयर की है।
वीडियो परिकल्पना रुचिता तिवारी की है, सहयोग युवा कवि अमित श्रीवास्तव का।

रेखा चमोली की कविताएं

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रेखा चमोली उन नई कवियों में हैं, जिन्हें हम इस यक़ीन के साथ पढ़ते हैं कि वे हमारे सामाजिक जीवन के संघर्षों और विद्रूपों को हमारे आगे कुछ और खोलेंगे। रेखा चमोली पर हमारा यक़ीन हर बार सही साबित होता है। 'चाकू को फूल में और फूलों को चाकू में बदल देने वाले'जादूगर के इस उत्थान-काल में हम उनकी नई कविताएं पाठकों को ठीक उसी यक़ीन के साथ सौंप रहे हैं। इन कविताओं के लिए अनुनाद कवि को शुक्रिया कहता है। 



जादूगर खेल दिखाता है                                                                 
जादूगर खेल दिखाता है
अपने कोट की जेब से निकालता है एक सूर्ख फूल
और बदल देता है उसे पलक झपकते ही नुकीले चाकू में
तुम्हें लगता है जादूगर चाकू को फिर से फूल में बदल देगा
पर वो ऐसा नहीं करता
वो अब तक न जाने कितने फूलों को चाकुओं में बदल चुका है।

जादूगर पूछता है कौन सी मिठाई खाओगे ?
वो एक खाली डिब्बा तुम्हारी ओर बढाता है
तुमसे तुम्हारी जेब का आखिरी बचा सिक्का उसमें डालने को कहता है
और हवा में कहीं मिठाई की तस्वीर बनाता है
तुम्हारी जीभ के लार से भरने तक के समय के बीच
मिठाई कहीं गुम हो जाती है
तुम लार को भीतर घूटते हो
कुछ पूछने को गला खंखारते हो
तब तक नया खेल शुरू हो जाता है।

जादूगर कहता है
मान लो तुम्हारा पड़ोसी तुम्हें मारने को आए तो तुम क्या करोगे ?
तुम कहते हो , तुम्हारा पड़ोसी एक दयालू आदमी है
जादूगर कहता है ,मान लो
तुम कहते हो , आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ
जादूगर कहता है, मान लो मानने में क्या जाता है?
तुम पल भर के लिए मानने को राजी होते हो
तुम्हारे मानते ही वह तुम्हारे हाथ में हथियार देकर कहता है
इससे पहले कि वो तुम्हें मारे ,तुम उसे मार डालो
जादूगर तुम्हारे डर से अपने लिए हथियार खरीदता है।

जादूगर कहता है
वो दिन रात तुम्हारी चिन्ता में जलता है
वो पल पल तुम्हारे भले की सोचता है
वो तुम्हें तथाकथित उन कलाओं के बारे में बताता है
जिनसे कई सौ साल पहले तुम्हारे पूर्वजों ने राज किया था
वो उन कलाओं को फिर से तुम्हें सिखा देने का दावा करता है
वो बडे-बडे पंडाल लगाता है
लाउडस्पीकर पर गला फाड फाडकर चिल्लाता है
भरी दोपहरी तुम्हें तुम्हारे घरों से बुलाकर
स्वर्ग और नरक का भेद बताता है
तुम्हारे बच्चों के सिरों के ऊपर पैर रखकर भाषण देता है
तुम अपने बच्चों के कंकालों की चरमराहट सुनते ही
उन्हें सहारा देने को दौड लगाते हो
गुस्से और नफरत से जादूगर की ओर देखते हो
तुम जादुगर से पूछना चाहते हो उसने ऐसा क्यों किया
इस बीच जादूगर अदृश्य हो जाता है

उसे दूसरी जगह अपना खेल शुरू करने की देर हो रही होती है।
***

अच्छे बच्चे

अच्छे बच्चे सवाल नहीं पूछते
वे अपनी चीजें व्यवस्थित रखते हैं
अपने कपड़े और बाल खराब नहीं होने देते
कोई इनसे मारपीट कर दे तो चुपचाप रोते हैं
किसी बड़े के डांटने पर नाराज नहीं होते
पुकारे जाने पर तुरंत जबाब देते हैं
बुलाने पर अपना खेल छोड़ दौड़ कर आते हैं
हमें जरूरत होती है बहुत सारे अच्छे बच्चों की
इसीलिए हमने बहुत सारे स्कूल खोल लिए हैं।
***

प्रेम में डूबा मन सबसे अधिक दयालू होता है

प्रेम में डूबा आदमी जोर से नहीं बोलता किसी से
झल्लाता नहीं बात बात पर
चहकता महकता है
बेवजह मुस्काता है
उसका पौरूष किसी को डराता नहीं
चट्टानों पर भी राह बनाता है
बंजर पर भी अन्न उगाता है
उसका स्पर्श फूलों सा कोमल होता है
उसकी आवाज बच्चों की आवाज सी मीठी होती है

प्रेम में डूबी स्त्री
पृथ्वी से भी अधिक धैर्यशाली होती है
उसके हौंसलों के आगे सागर भी हार मानता है
उसके चेहरे का नमक समय के साथ फीका नहीं पडता
उसके शरीर की फुर्ती कई बार बाघिन को भी मात दे देती है
वो अपने रोजमर्रा के जीवन से उपजे दुखों को
ज्यादा मुंह नहीं लगाती ,तुरंत फटकार देती है
अपनी छोटी से छोटी खुशी को
अपने भीतर रोप देती है
प्रेम फिर फिर उपजता है उसके भीतर

प्रेम में डूबे स्त्री -पुरुष
कभी निराश नहीं होते
कितनी भी अंधेरी हो रात
सुबह की उम्मीद को मिटने नहीं देते
इन्हें साथ साथ चलने पर भरोसा होता है
ये पतझड़ में भी सौन्दर्य देखते हैं
इन्हें घंटो बांधे रखती है नदी की आवाज
ये बेमतलब भीगना चाहते हैं बारिश में
बच्चों की तरह सवाल पूछते हैं
अभावों में भी ढूंढ ही लेते हैं कोई न कोई साधन
ये जीवन को काटने पर नहीं
साथ साथ जीने में विश्वास रखते हैं
कुछ लोगों का यह भी मानना है कि
अगर कोई बचा पाया ये धरती
तो वे प्रेम में डूबे स्त्री -पुरूष ही होंगे।
***

विद्या माता की कसम

सुनो मेरी जान
जब तुम ब्राउन गोगल्स लगाए
फर्राटे से स्कूटी पर निकलती हो
इधर-उधर खडे लोगों के दिलों से आह निकलती है
नयी-नयी गाड़ी चलाना सीख
हाईवे पर चक्कर लगाती हो
ओ मेरी मां ,कह कोई आदमी आवाज लगाता है
इन आहों और आवाजों को सुन
तुम्हारी आंखें और कान और सजग हो जाते हैं

दुकानदार के गलत हिसाब से मिले ज्यादा रूपए
वापस लौटाती हो
वो मैडम जी कह खींसे निपोरता है
तुम दुबारा उसकी दुकान पर महीनों नहीं जाती हो

तुम्हें परवाह नहीं होती कैसी दिख रही हो तुम
बिंदास चलती हो मस्त हथिनी की तरह
रास्ते के कुत्तों की भौं भौं पर मन ही मन मुस्काती हो
ये जानकर भी कि कई जोड़ी आंखें तनी हैं तुम पर
बीच रास्ते किसी बात पर जोर का ठहाका लगाती हो

फूल सी नाजुक हो
पर लडने-भिड़ने में महारत है तुम्हें
कहीं भी कुछ भी गलत होता देख
डरते तो हम किसी के बाप से भी नहीं कह अड़ जाती हो

कभी घंटों-दिनों रहती हो चुप
अखबार फेंक देती हो तोड़-मरोड़
टी वी का स्विच गुस्से से करती हो ऑफ
पूछने पर कुछ नहीं कह टालती हो
जाने किन-किन बातों से बेचैन रहती हो
फिर खुद ही इकठ्ठी करती हो अपनी उम्मीदें
नयी कोई योजना बनाती हो
फैलाती हो उजियारे रंग अपने आसपास
अपनी निराशा को पछोड-पछोड कर धो डालती हो

विद्या मॉं की कसम मेरी जान
तुम मेरा दिल लूट ले जाती हो।
*** 
डरे हुए लोग

डरे हुए लोग किसी एक तरफ नहीं होते
वे थोड़ा थोड़ा सबकी तरफ होते हैं
बात तो आप ठीक कह रहे हैं पर क्या करें ?
दुनियादारी भी देखनी होती है कहकर
हर एक को साथ लिए होते हैं
ये वर्तमान में जीने के बजाए अतीत का गुणगान करते हैं
भविष्य में मिलने वाले लाभों पर चर्चा करते हैं
इन्हें मनुष्यों से ज्यादा भरोसा देवताओं पर होता है
ये नाक की सीध में आते जाते हैं
और किसी भी पचड़े में नहीं पड़ते
इनका पेट और बिस्तर सुरक्षित रहे बस
इनका कोई मत या विचार नहीं होता
इनका मुख और कान सिर्फ फायदा बोलता और सुनता है
ये उठते -सोते समय दिशा का और गंदगी करते समय
अपनी चारदीवारी का ध्यान रखते हैं
ये कभी कभी इतना डर जाते हैं कि इनके पेड़ों पर लगे फल
पेड़ों पर ही सड़ जाते हैं पर किसी के साथ बंटते नहीं
ये पडोसी के बेटे को गली में छिपकर सिगरेट पीता देख डांटते नहीं
बचकर निकलते हैं और किसी तीसरे के साथ बैठकर
संस्कारों पर बात करते हैं
डरे हुए लोग अपने डर को दूसरों पर थोपते हुए चलते हैं
जिससे अपनी एक बडी बिरादरी बना सकें
और डरने को सार्वजनिक मान्यता दिला सकें।
*** 
शराबी पिता

वे पिता जो हर शाम शराब पीकर घर आते हैं
कभी नहीं जान पाते
अपने बच्चों के स्कूल या दोस्तों की बातें
क्लास में आज क्या हुआ ? शाबासी मिली या डांट
कैसे खेलते हुए मुड़ गया पैर और लंगड़ाकर आना हुआ घर

उनकी बेटी कभी बता नहीं पाती उनको
एक शाम कैसे डरते-डरते घर लौटी वह
रास्ते भर लगा कोई पीछे है उसके
मुड़ कर देखने का भी न हुआ साहस

दीवार पर लगी बच्चों की बनाई नयी पेंटिग
आइसक्रीम खाने की छोटी सी खुशी
रात को गैस का चूल्हा साफ करने की बारी पर हुयी नोंक झोंक
कुछ भी पता नहीं चलता उन्हें

वे कभी नहीं जान पाते
दोपहर बाद चलने वाली हवाओं से किस कदर भर जाती है घर में धूल
देर शाम उनकी छत से कितना सुंदर दिखता है आसमान
क्यों लोगों को बच्चों का खेलना ही लगता है शोर
जब बच्चों को होती है घर आने में देर
उनकी मां कहां-कहां जाकर ढूंढती है उन्हें ?

वे नहीं जान पाते बच्चे उनसे ज्यादा चाचा या मामा का साथ पसंद करते हैं
उन्हें देख निचुड जाता है पत्नी के चेहरे का पानी
बच्चों को बताते हुए कि सब ठीक हो जाएगा जल्दी ही
खुश रहने का दिखावा करते हुए कितनी बेचारी लगती है वह

अचानक किसी दिन किसी के ध्यान दिलाने पर वे पाते हैं
उनके कंधे तक आने लगा है बेटा
बेटी को लोग परखने वाली नजरों से देखने लगे हैं
वे कहते हैं समय कितनी जल्दी गया
वे पत्नी की तरफ देखते हैं
वो अचानक उन्हें बूढ़ी लगने लगती है
वे शिकायत करते हैं ,उनके कहने सुनने में नहीं हैं बच्चे
घर में नहीं है उनकी कोई अहमियत 

अपनी उम्र का अधिकांश हिस्सा समझाए जाते हुए ,डांट खाते हुए,
दुत्कारे जाते या दूसरों के सामने आने से कतराते हुए ये पिता
जब किसी दिन गुस्से से झल्ला कर कहते हैं
मेरी मर्जी मैं जैसे चाहे जियूं
मैंने क्या बिगाडा है किसी का ,
तो नहीं जान पाते इस बीच कितना कुछ खत्म हो गया होता है
इस बीच वे कितने कम हो गए होते हैं।
*** 
रेखा चमोली
निकट ऋषिराम शिक्षण संस्थान
जोशियाडा , उत्तरकाशी 249193
उत्तराखण्ड


सिराज ए दिल : जौनपुर - अमित श्रीवास्तव

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हर मनुष्य के जीवन में कोई एक शहर-क़स्बा-गांव सूर्य या फिर दीपक की तरह होता है, वह छूट जाता है पर जीवन भर हर दिन यह सूर्य चमकता है और हर रात यह दिया धुंआता-जलता है। हिंदी के कवियों में ऐसे अलग-अलग शहर हमें लिखे मिलते हैं, हर मनुष्य इन्हें लिख नहीं पाता, कवि लिख लेते हैं। वीरेन डंगवाल के यहां इलाहाबाद लिखा मिलता है, केदारनाथ सिंह और ज्ञानेन्द्रपति के यहां बनारस लिखा मिलता है, चन्द्रकांत देवताले के यहां इंदौर-उज्जैन लिखे मिलते हैं, राजेश जोशी के यहां भोपाल ….. यह एक लम्बी सूची है। मुझे अभी कुछ दिन पहले मुझे युवा कवि अमित श्रीवास्तव के यहां उनका सिराज ए दिल जौनपुर लिखा मिला है। कवियों के भीतर जगहों के जगमगाने और दिए की तरह जलने का यह एक आत्मीय प्रसंग है, इसमें नास्टेल्जिया तो है पर समकाल के प्रसंगों तक ख़ूब खिंचा-तना हुआ। अमित शायद इस कविता पर अभी और काम करें पर इसका पहला प्रारूप मैं पाठकों के सामने रखना चाहता हूं।



सिराज-ए-दिल जौनपुर
वक्त ने सब अक्स मेरे छीनकर
मुझमें इक शहर-ए-नवा रहने दिया

एक सपना देखता हूँ मैं
पत्थरों की छाल पर लगाकर हथेली
बटोरता हूँ पानी
अभी-अभी रोपे पौधे पर उड़ेल देता हूँ
मैं लेट जाता हूँ बगल उसके
मेरी साँसों से धीरे-धीरे हिल रहा है पौधा

एक छोटी बूँद
एक छोटी सी पत्ती पर अटक गई है
मैं अक्स ढूंढ़ता हूँ उस बूँद में अपना
बनता है बिगड़ जाता है
थिर नहीं है बूँद 

हवाएं बेशऊर लगती हैं
अपनी बाहों का घेरा डाल देता हूँ पौध पर
पौधा मुस्कुराता है
मेरी बाहों की नाप से बाहर आ जाता है
मेरे देखते-देखते मुझमें
मेरा शहर उग आता है  
1

अपनी आज़ादख्याली का गुलाम है ये शहर। इसे समझना नहीं बरतना पड़ता है। इसके हर सिरे पर किसी दूसरे शहर की गांठें लगी हैं। इसे खोलकर फैलाना आसान नहीं है। अगरचे खुलता भी है तो भीतर को और एकदम से अपने में बैठ जाता है।
     एक मुहल्ला सा है ये| अपने सबसे करीबी मुहल्ले के जैसा आत्ममुग्ध नहीं मगर आत्मग्रस्त| दूसरे किसी मुहल्ले से असम्पृक्त दिखता है| अपने चेहरे को दूसरे सा पाकर बेचैन नहीं होता| नहीं धोता अपना चेहरा बार-बार| इसके आईने पर कोई खरोंच नहीं| सफ़ेद, काली, हरी, केसरिया, बसंती और और धूसर| इसके चेहरे पर कई परतें हैं| पहचान के रस्तों पर गुफाएं हैं अनगिनत| ये छिप जाता है अक्सर इनमें कहीं घुसकर|
    ये खुद से भागता है|  

2

अपने बीते हुए कल से भी उतना ही लापरवाह है जितना आने वाले कल से। कहन की इक  रवायत से कहें तो आज को जीता है। इस जीत में ही एक बड़ी हार है।

3

चुक गए कल को बाज दफ़ा चुभलाते हुए कुछ गुठलियां अटकती हैं। उन्हें रेशा रेशा चूसता है ये शहर फिर अपनी ही गोद में उलट देता है। खाद पानी और मिट्टी से दूर गुठलियां सम्भावनाओं की सूखती नमी के साथ अकड़ती जाती हैं।

4

यहां विश्वास की इक मीनार है जो आश्वस्ति की चूनर तले आराम से सोती है। मीनार ने चूनर को अभी अभी चूमा है। चूनर गुलाबी हो चली है। उधड़ते रंगो के धूसर हो रहे आसमान पर हमेशा एक कलगी की मुस्कान चिपकी रह जाती है।
     तादाम्य भरोसे का एक सुर है यहाँ जो अक्सर सम पर थमता है| ये अकथ, अव्यक्त प्रेम की पीड़ा है| दुःख नहीं देती| यहाँ लाल दरवाजों पर कमल खिलता है| ढलवां संस्कृति को थामता है कोई त्रिकोण| किसी संगमरमरी दरगाह के ठीक पीछे हाँथ बांधे सूरज उगता है|  
                      
5

स्वाद के ताज़े चश्मे से पुराने सौंधे भाप की गर्माहट एकम एक होती है यहाँ। पुराना यहाँ बासी नहीं होता महज़ उदासीन हो जाता है|
     भाषा की आंच में तपकर बतकही कविता बन जाती है और कविता जीवन की तमीज़| जीवन की तमीज़ आलम की बीवी को जहान की माँ समझने की समझ देती है| ठंडी पड़ गई है शब्दों की ऊष्मा| इक किवाड़ सी भिड़ा दी गई है कि औंधे पड़े हैं बातों के सब उजियारे| सब बिखरा तो नहीं पर कुछ टूटा ज़रूर है| कुछ है कि शेख़ ने आलम को विदा कहा है|

6

उदास पपड़ियों में अपनी हदों से और और अंदर सिमटता पानी कहानियों की सतरें बहाता जाता है। यों तो तमाम समय है याँ सब के पास मगर किसी दयार को फुरसत नहीं उन्हें गुनने की। एक दिन इकाई में होगा पानी।
     दक्षिण, पूरब फिर उत्तर को बहता त्रिविधमुख पानी गंग-जमुन को साथ लिए बहता है दो भागों में काटता है शहर को बीचोबीच से मगर बांटता नहीं|  

7

पत्थरों की तराश से बाहर सरगम के जो आशियाने थे वो रात किसी बुजुर्ग की खांसियों में बलगम से उठते हैं, उतर जाते हैं किसी परित्यक्त दीवार के कोने।  
पत्थरों की तराश के भीतर जो सरगम की बसासत थी कभी कभी गजरे में दम तोड़ देती है । कि अब कानों में कोई धैवत नहीं गन्धार नहीं।
     फागुन की बासंती चुनर और खांटी बलवईया के अलाप दोनों एक साथ बांधकर सरका दिए गए किसी परित्यक्त अँधेरे कोने में| वो गठरी नहीं, सुनो ध्यान से, किसी कमली कालिदास की सिसकियाँ बेसुध होने को हैं| छुओ उसे, आओ छूकर देखो, राग दीपक की तान से जलते सीने को अब भी यहीं मल्हार की शीतल नमी मिलती है| 

8

दो तरफा है इधर की गरीब उल वतनी। यहां को आया हुआ यहाँ अक्सर नहीं आता। यहाँ से जाने वाला अक्सरहां यहीं रह जाता है थोड़ा थोड़ा। इसमें थोड़ा थोड़ा लखनौ है थोड़ा सा बनाअस ज़रा सा इल्लाहाबाद और रत्ती भर फइजाबाद। वां हर जगह बहुत सिकुड़ा हुआ सा ये शहर ए गुमशुदा भी है।
     वो जो ‘घर चलें’ कहने पर बीच बाजार चौंक कर देखता है तुम्हारा बूढ़ा बाप, वो जो अभी दुकानदार से मकई के दानों के चमकते पैकेट को हाथ में लिए हतप्रद टुकुर-टुकुर देखता था मॉल
में, वो जो मूली के छुटपन को कांपते पंजे से नाप मुस्कुराता है, वो जो अब भी अतर कहता है, सलेटी सड़कों के किनारे ढूंढ़ता है चमेली के फूल कुछ और नहीं वो इन शहरों में अपना शहर ढूंढ़ता है, अपना आंगन वाला घर ढूंढ़ता है| 

     है न, बड़े शहरों की चमक बढ़ाने में कितने सारे छोटे शहर बदरंग होते जाते हैं।  
                     
9

ये उतराई कैसी है? माथे से पसीने की बूँद के साथ नहीं आया ये। किताबों के रजत कीट ने पहले रोटी खींच ली फिर मन रंजन और फिर सामासिकता। निचुड़ी हुई हरियाली में कुछ दर्द ठूँठ की तरह उगे हैं। उनमें घरेलू चूल्हों में जलने भर की आग नहीं है।
     ये दर्द सभी दारुल इल्म की गिरती दीवारों से लगकर अपनी अद्धकथा में हमारी विफलता की तफ़सील लिखते हैं|    

10

फूलों का पसीना शीशों की जद से बाहर हुआ। कुछ खुशबूदार उँगलियाँ अब क्या करती होंगी। उनके जानिब से फाहों के तईं छुपाए गए अहसास कान की ओट ढूंढते हैं। वो नर्म रेशम में लिपटे गुलाब कुर्ते की जेबों और गुलाबी हथेलियों से जाने कब के छिटक चुके हैं। 
                     
11

अब ये शापित शहर है। यहाँ लोग ठहरने के लिए नहीं आते उजड़ने आते हैं। नई दुकानों की रेशमी रंगीन झालरों पर पुराने पतिंगे लहरते हैं। सड़कों पर ज़ुबान की तरह रपट जाते हैं उतराए गाँवों के अहसास। अधखुले बाल्टे से धूप की तरह कुनमुनाई छलक जाती है यहां होने भर की उदासी।
     गाँव को कस्बा कस्बे को शहर बनाने के अपराध मानचित्र के हाशियों पर दर्ज हैं। अपराधियों के नाम नहीं है, शक्लें नहीं हैं, संख्याएं नहीं हैं। उनकी सामूहिकता रह गई है बस।

                       
12

अपने होने के निशान बतकही के ओढ़काए दरवाजों में खोजती सी एक गुफा है। हाथी को दबाए शेर के नीचे समतल पुलों के पास से जो दिल्ली को निकलती है। अघोषित समझौतों में गुपचुप वही कलकत्ते को हाथ देने की चेष्टा भी करती है| इस तरह अपने दोनों मुखों पर विद्रोह और दोस्ती की काली उजली रोशनी के ठीक बीचोबीच इस गज-शार्दूल से लगकर ये गुफा षणयंत्र और याराने की फुसफुसाहट में दफ़्न है।     

13

अजब उदासीन रहता है ये शहर| ये नींदों में नहीं आता| ये ख़्वाबों में पीछा नहीं करता| एक ठहरी हुई सी दोपहर दूर किसी टिकड़ी से धुंवे सा उठता हुआ जाने कौन दिसा से घूमकर आँख के कोरों में छज्जे पर उदास बैठे अकेले बच्चे सा टिक जाता है|
     एक बुझे हुए स्वाद सा चिपका रह जाता है तालू से ये शहर| इसका होना जीवन का मीठा होना नहीं है| इसके होने से कोई खटास नहीं पड़ती| 
     झनझनाता नहीं ये शहर| किसी अंदरूनी पीड़ा सा नसों में बूँद-बूँद रिसता है| बदन छिलता नहीं सील जाता है| 


14

इक्कीस दिनों के चमकते सूरज से नहीं ये शहर-ए-अनवर पीढ़ियों दर पीढ़ियों अपनी मद्धिम दूधिया रोशनी से रास्ता दिखाता है| चकाचौंध उजाले में नहीं दिखता ये| इसे देखने को रात का सुकून चाहिए| रात गुज़ार कर ही यां शाह और शेर बनते हैं| जिसे जल्दी है वो बाज़ार में सबकुछ हारकर चला जाता है| जीत और हार की, गर्व और शर्म की, सफ़ेद और काले के बीच लिखी दास्तानों में ये शहर धीरे-धीरे सांस लेता है|
     झट से आगे बढ़कर हाथ थामने वाली बेतकल्लुफ़ी से महरूम ये शहर बाजू में आकर चुपचाप बैठ जाता है| अपने आप नहीं उतरता ज़हन में| इसे पढ़ना पड़ता है|


15
माना तुझसा हो नहीं पाया मगर
मुझको मुझसा ही कहाँ रहने दिया
    
     अपनी पगड़ी में छुपाकर मैं ये कुछ सवाल भेजता हूँ
     ओ मेरी रंगरेजन
     तुम ज़रूर कुछ जवाब भेज देना 

मैं इस शहर में नहीं हूं। मुझमें कभी- कभी शहर की आवाजाही है। मैं लिखता हूँ प्रेम एक कागज़ पर और अदृश्य अपनी पगड़ी पर खोंस देता हूँ। इस तरह मैं भेजता हूँ अपनी व्यग्रताएं और एक टूटे हुए शहर के बेहद करीब आ जाता हूँ। इतना करीब कि दिखना बन्द हो जाता है शहर।


मैं अपने चेहरे पर
इसके कुछ निशान टटोलता हूँ
अपनी आवाज़ में इसकी लचक
ठहर कर देखता हूँ अपनी चाल
और पराएपन पर शर्मिंदा हो जाता हूँ


एक चुटकी नमक
मसलकर देखता हूँ दो उंगलियों के बीच
सूंघता हूँ
मुझे अपनी सी बास आती है

मैं चौंककर उधेड़ देता हूँ अपनी बुनावट
मुझे एक बहता हुआ शहर मिलता है
रुक कर चलता हुआ
ठहरा हुआ अपने नाम की पुकार पर
कभी खुद तक लौट आने की रवानी में 
चलता हुआ 


घुटनों से लगकर झूलता हूँ झूला
छड़ी के एक सिरे को पकड़ घूम आता हूँ सूरज तारे चाँद
शहर के अदृश्य तोरणद्वार पर खड़ा पूछता हूँ ‘मे आई कम इन’
आकर बैठ जाता हूँ कछुए का हाथ थामे दुछ्त्ती पर
ढूंढ़ता रोटी और चीनी के कौर
बंद मुट्ठी के पहाड़ों पर महीनों सा बार-बार आता हूँ

बालों की सफेदी पर हाथ फिराकर
सुलझाना चाहता हूँ किसी बुजुर्ग के हाथों की झुर्रियां
मेरे घुटने में दर्द सा उठता है शब्द का पानी
मैं पपीते के कटे पेड़ सा ढह जाता हूँ

ये शहर मुझे थपकियाँ देता है
मेरे गालों पर शाबाशी की ताल
एक धौल जमाता है ये शहर मेरी पीठ पर
कहीं, किसी तरफ कोई इशारा नहीं करता
उलाहना नहीं देता
हक़ नहीं जमाता
किसी एक तरफ़ा प्रेम की तरह ये शहर मुझे
बस छूकर चला जाता है

मैं जब भी इसे सोचता हूँ
पूछता हूँ बहुत से सवाल
घूमकर वापस आ जाते हैं आत्महंता सब सवाल मेरे
मैं खुद में लौटकर शर्मिंदा हो जाता हूँ 
क्यों मगर ये सांस चलती रहती है 





और अंत में अर्जियां
यूं तो हर शहर में एक पुराना शहर होता है मगर उस ओर को जाने वाली गलियाँ बताती हैं कि शहर में यों नयापन कितना है| इन गलियों से भाषा, तहजीब और समकालीनता की दो तरफा आवाजाही नए शहर के नएपन को बनाए रखती है| अगर इन गलियों में दीवारें उग आती हैं तो समझिये नया शहर अभी और नए शहरों का मातम मनाएगा|
     अब तो आजा कि अब रात भी हो गई...


                   


टॉड मार्शल की एक कविता और लेख का अंश : चयन, अनुवाद एवं प्रस्तुति - यादवेन्द्र

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टॉड मार्शल  की कविता
 
कोर्ट ........ वादी के साथ लम्बे रिश्ते का संज्ञान लेती है
और पूरी नेकनीयती के साथ विश्वास  करती है
कि दोनों पक्ष उदारता और विवेक दिखाते हुए  इस रिश्ते की गरिमा
अक्षुण्ण  रखेंगे।  

हवा को ऊँगली दिखा कर 
सेब के फूलों को निर्ममता के साथ 
बिखरा देने के लिए 
दोष मत दो। 

फूल लहक लहक कर  कामना करें  
कि आखिरी घड़ी आने पर 
जब वे विदा हों उससे पहले 
सबकी दुआएँ उनके आँचल में समा जाये। 
***
मूल कविता 
The court acknowledges the petitioner’s long involvement with
_________’s life and sincerely hopes that the parties involved
will have the generosity and wisdom to honor that relationship.
 
Do not blame the wind
that scatters apple blossoms
ruthlessly. Allow that flowers
desire farewell blessings
before their time has come.
***  
राष्ट्रपति बनने से पहले चुनावी गर्मागर्मी में  ट्रंप ने अश्वेत और लैटिनो आबादी के खिलाफ़ बहुत विष वमन किया और अब भी कर रहे हैं -  इसका ताज़ा उदाहरण अभी अभी (सितम्बर 2017 )में अलाबामा में देखने को आया जब उन्होंने गोरे अमेरिकियों को उँगली उठा उठा कर "आप जैसे लोग",अश्वेत आबादी को "वे लोग"कह कर सम्बोधित किया और कॉलिन कीपरनिक जैसे अश्वेत खिलाड़ियों को "सन ऑफ़ द बिच"तक कहा जो रंगभेदी भेदभाव का विरोध करते हुए राष्ट्रगान के समय जमीन पर घुटने तक कर झुके रहते हैं।"सन ऑफ़ ए बिच"के जवाब में कॉलिन कीपरनिक की माँ टेरेसा ने जवाबी ट्वीट किया :"यह जुमला मुझे एक गर्वीला बिच साबित करता है ..."   इतना ही नहीं उन्होंने प्रोफेशनल  टीमों के मालिकों का आह्वान किया कि वे ऐसे देशद्रोही खिलाड़ियों को तत्काल बाहर का रास्ता दिखा दें। इसके प्रतिकार में सैकड़ों खिलाड़ियों ने घुटने टेक कर यह संदेश दिया कि कॉलिन कीपरनिक अकेले नहीं हैं बल्कि श्वेत अश्वेत अमेरिकियों का बड़ा समुदाय उनके साथ है।

न सिर्फ़ खिलाड़ियों ने बल्कि समाज के विभिन्न तबकों के अनेक अग्रणी लोगों ने राष्ट्रपति के इस बर्ताव की भर्त्सना की....पर अमेरिका के प्रख्यात कवि और वाशिंगटन स्टेट के राजकवि (पोएट लॉरियेट) टॉड मार्शल ने एक बेवाक लेख लिख कर राष्ट्रपति के आचरण पर अपना रोष प्रकट किया है...इस लेख के संपादित अंश यहाँ प्रस्तुत हैं।

भारतीय सन्दर्भ इस से कुछ अलग नहीं हैं...निरंकुश सत्ता का दम्भ बड़े निर्लज्ज ढंग से विभाजनकारी और साम्प्रदायिक विमर्श को न सिर्फ़ बढ़ावा दे रहा है बल्कि सड़कों पर इसका वीभत्स प्रदर्शन भी कर रहा है।हमारे बड़े कवि लेखक क्यों चुप हैं?





"पिछले हफ़्ते राष्ट्रपति ने अन्याय का प्रतिकार करने के लिए शांतिपूर्वक अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी का प्रयोग करने वाले लोगों के लिए भद्दे रोष का प्रदर्शन किया....वहीं दूसरी तरफ़ निओ नाज़ी हिंसा और हत्या के प्रति गोलमोल बातें और बचाव के तरह तरह के तर्क गढ़ने का उदाहरण भी सामने है।यह किसी भी तरह से नॉर्मल बर्ताव नहीं है।
राष्ट्रपति ने स्त्रियों के बारे में भद्दे कुत्सित और आपत्तिजनक ढंग से बातें कहीं - इतना ही नहीं, अपनी वाणी से और क्रियाकलाप से -  नारीद्वेषी और हिंसा की संस्कृति को बढ़ावा देने का काम किया।हम इसे नॉर्मल बर्ताव कत्तई नहीं मान सकते।
राष्ट्र्पति अफ्रीकी अमेरिकी लोगों के साथ दुर्व्यवहार करने को स्वीकार्य मानते हैं...हम इसको नॉर्मल बर्ताव नहीं मान सकते।

राष्ट्रपति निरंतर अपनी बातों से डर और घबराहट का वातावरण पैदा कर रहे हैं। बेहद आक्रामक शब्दों का प्रयोग कर डराने धमकाने का काम कर रहे हैं वह भी उन बातों पर जिनके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता - जैसे न्यूक्लियर युद्ध की संभावना। न्यूक्लियर बमबारी कोई मामूली बात नहीं है। 
राष्ट्रपति शब्दों का अवमूल्यन करते हैं ,सच्चाई का दुरूपयोग करते हैं और शब्दों के अंदर से उनके अर्थ चूस लेते हैं। होलोकॉस्ट विशेषज्ञ तिमोथी स्नाइडर मुझे याद दिलाते हैं कि जबतक दोनों पक्ष साझा शब्दावली पर सहमत नहीं होंगे साझा सच्चाई का कोई मतलब ही नहीं , यह निर्मित ही नहीं हो सकती। और बगैर साझा सच्चाई के कोई भी लोकतंत्र जीवित नहीं रह सकता फलना फूलना तो दूर। 
भाषा की साझा समझ विकसित किये बिना हम ईमानदारी और खुलेपन  के साथ नस्लवाद और सामाजिक न्याय हो या आर्थिक असमानता हो , स्वास्थ्य संबंधी नीति निर्धारण हो या इस देश में भेदभाव और दमन का इतिहास हो , या अमेरिकी अवाम के किसी हिस्से के प्रति दुर्भावना पूर्ण बर्ताव हो  किसी पर  कोई संवाद नहीं कर सकते। राष्ट्रपति ने अपने कार्यकाल के शुरूआती महीनों में निरंतर एक के बाद एक रैलियाँ कर के अपने अविवेकी दम्भ को संतुष्ट करने के लिए समाज को भड़का भड़का कर विभाजित करने का काम किया है ... आग में घी डाल कर एक दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करने का काम किया है। वह अपने लिए तालियाँ  बजवाने और राष्ट्रवादी जहर घोलने में मशगूल हैं जबकि अनेक महत्वपूर्ण और जरुरी काम करने को पड़े हैं - यहाँ तक कि सरकार चलाने के लिए सामान्य तौर पर जितने लोग चाहियें उनकी नियुक्तियाँ भी रुकी पड़ी हैं। भाषा के अश्लील दुरुपयोग और धुर फ़ासिस्ट रैलियाँ - इनमें से कोई भी नॉर्मल बात नहीं है।राष्ट्रपति ने देश में आक्रोश और अलगाव की संस्कृति पैदा की है ....हाँ, यह बिल्कुल सच है।हाँलाकि जिन ना इंसाफ़ियों का मैंने ऊपर जिक्र किया है उनमें से कुछ ऐसे भी हैं जो हमारे ऐतिहासिक सफ़र के साथ साथ गहरे रूप में जुड़े रहे हैं और मेरा मानना है कि हम बतौर समाज उनकी तरफ़ गौर करने लगे हैं,उनके बारे में खुले तौर पर चर्चा और बहस करने लगे हैं...और ऐसी कोशिशें सामने आने लगी हैं जिनमें अतीत के विभाजन और अन्यायों से पैदा हुई पीड़ा को कम किया जा सके,पीड़ितों के जख्मों पर मरहम लगाया जा सके।ऐसे संवादों को स्थगित कर देना,दूसरों के लिए सहानुभूति दिखाने और साझा समझ और भाषा विकसित करने के तमाम प्रयासों पर विराम लगा देना - ऐसे चालचलन और बर्ताव को नॉर्मल कहना मुनासिब नहीं होगा - न यह नॉर्मल है न ही होना चाहिए...बल्कि इसको नस्लवाद,सेक्सिज्म और देश और दुनिया के सबसे दुर्बल और असुरक्षित वर्गों के प्रति हिंसा की  घिनौनी आग भड़काने की कार्रवाई के रूप में देखा जाना चाहिए।
क्या इन हालातों को देखते हुए हमसब को दोनों घुटनों के बल झुक जाना चाहिए और सम्पूर्ण समाज की सामर्थ्य,मदद और मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करनी चाहिए - चाहे वे फुटबॉल खिलाड़ी हों चाहे कारखाना मजदूर...राजनीतिक कार्यकर्ता या कवि - यह सबको याद रखना जरूरी है कि नॉर्मल क्या है,सम्मानजनक क्या है,नैतिक क्या है...हम क्या बन सकते हैं,हमें क्या बनना चाहिए।"

अरुण शीतांश की कविताएं

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बहुत दिनों बाद अनुनाद पर एक साथ इतनी कविताएं लग रही हैं। यह उपहार हमें मिला है हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि अरुण शीतांश की ओर से। अरुण ऐसी कविताअों के कवि हैं, जिनकी आधारभूमि पर खड़े होकर एक कवि गर्व से कह सकता है कि 'उस जनपद का कवि हूं'। अनुनाद पर अरुण शीतांश पहली बार छप रहे हैं, दस वर्ष से इस यात्रा में रहते हुए भी वाक्य में 'पहली बार'आना हमारी इतने वर्षों की कोताही भी है। अरुण जी का अनुनाद पर स्वागत और कविताओं के लिए शुक्रिया।
 
बाबूजी 

किसी विज्ञापन के लिए नहीं आया था यहां
धकेल दिया गया था गले में हड्डी लटकाकर
विष्णुपुरा से आरा
महज संयोज नहीं था
भगा दिया गया था मैं

बाबूजी
आपकी याद बहुत आती है
जब एक कंधे पर मैं बैठता था
और दूसरे कंधे पर कुदाल
रखे हुए केश को सहलाते हुए चला जाता था
खेंतों की मेड़ पर गेहूं की बालियां लेती थीं हिलोरें
थके हारे चेहरे पर तनिक भी नहीं था तनाव

नईकी चाची चट पट खाना निकाल जमीन को पोतते हुए
आंचल से सहला देती थी गाल
आज आप पांच लड़कों पांच पोतों और दो पोतियों के बीच
अकेले हैं
पता नहीं आब आप क्यों नहीं जाते खेत
क्यों नहीं जाते बाबा की फुलवारी
फिर ढहे हुए मकान में रहना चाहते हैं
और गांव जाने पर काजू-किशमिश खिलाना चाहते हैं
आप अब नहीं खिलाते बिस्कुट
जुल्म बाबा की दुकानवाली
जो दस बार गोदाम में गोदाम में या बीस बार बोयाम में हाथ डालकर
एक दाना दालमोट निकालते जैसे जादू
सुना है उस जादूगर की जमीन बिक गई
अनके लड़के धनबाद में बस गए
वहां आटा चक्की चलाते हैं
बाबूजी आपकी याद बहुत आती है
मधुश्रंवा मलमास मेला की मिठाई
और परासी बाजार का शोभा साव का कपड़ा
आपके झूलन भारती दोस्त
सब याद आते हैं

सिर्फ याद नहीं आती है
अपने बचपन की मुस्कान....
***


साइकिल 

घर में  साइकिल है 
पहले दुकानदार रखा था
आज मेरे पास है 
पैसे वैसे की बात छोङ दीजिए 

साइकिल है मेरे पास 
रोज़ साफ करता हूँ 
उसपर हाथ बराबर रखता हूँ 

सुबहोशाम निहारता हूँ 

साइकिल को धोता हूँ 
चलाता नहीं हूँ 

रोज़ उसपर बैग टंगे रहते थे

बाजार से लौटती थी
तो घर लौट आता था
अब नहीं जाती
एक सब्जी भी लाने

टिफ़िन के रस नहीं लगते चक्के में 
वह चुपचाप खङी है 

उसे गाँव नहीं जाना
हवा से चलती
और उङती साइकिल   हवा से ही बातें करती रही

साइकिल  की पिछले सीट पर एक कागज की खङखङाहट सुनाई दी
उसमें लिखा था- पापा !इस साइकिल को बचाकर रखना
किसी को देना नहीं। 

 साइकिल को बारह बजे रात को भी देखता हूँ 
कल डब सैम्पू से नहलाऊँगा
तो साइकिल कम बेटी ज्यादा याद आयेगी 
इसलिए आज फिर देखकर आता हूँ- आपके पास।

थोङी देर हो चुकी है 
एक खिलौना को रखने में 
वह खिलौना नही जीवन है

जीवन की साइकिल है ..l
***

रास्ता 

रास्ते में सब जातें हैं 
पांव मेरे लड़खड़ाते हैं
किसान रास्ता नहीं नापता
नेता रास्ते पर दाँव लगाते हैं

पत्नी रास्ता देखती है 
प्रेमिका रास्ते पर आँख बिछा देती है

माँ
रोज़ रास्ता देखती है
पिता पैसे का राह देखतें हैं 

बेटा रास्ता में खेलता है 
बेटी रास्ते भर रोती रहती है

मित्र रास्ते में काट फेंकतें हैं 
मुझे और रास्ते को ..

दुनिया 
बिन रास्ते की हो गई है 

कोई बताए नया रास्ता सही सही 
जहाँ भूलकर मिल जाए सभी.
***

पकड़ौवा  बिआह 
              
पहले भी पेड़ों की शादियाँ होती थी 
पहले भी लोग रोते थे
जैसे आज रोते हैं

अब लड़कियाँ ससुराल जाते कम रोती हैं
बाप ज्यादा रोतें हैं 
माँ मित्र संगी साथी सब रोते हैं 

बिआह में गीत गाए जाते थे
गाली के गीत थे
सब गीत भूल गई बहने

एक बिआह से दूसरे बिआह में जाते थे
क्या लू क्या बारिश क्या ठंढक सब ताक पर रख बारात कर आते थे 
न होटल  न बोतल 
प्रश्न परिक्षाओं की तरह पूछे जाते थे
ढेले में सो जाना 
और लौंडे नचनिया को देख रात कट जाती थी

तब उस समय एक महान कवि भिखारी ठाकुर की पार्टी थी 
गाँव जवार टूट पड़ता था देखने
इस बीच अपनी लड़की के लायक लड़के को जबरन उठाकर घर ले जाते लोग और अपनी लड़की के साथ एक रुम में बंद कर देते 
दूसरे दिन उसी बारात के साथ दो दुल्हे और दो दुल्हन को भेज देते

वह भी समय था गाँवों का

आज पुरा समय गाँव शहर की तरह हो रहा है
बदल रहा है
जो मुंम्बई में  साबून मिलता है वह गाँव में उपलब्ध है
केवल विकास नहीं है

न जाने कितनी पकड़ौवा शादी हुई
एक मेरे गाँव में भी हुई जब मैं छ: साल का था
उनका नाम राधेश्याम दूबे था 
अब वे पटना में हैं गाँव छोड़कर

अब चिटिंयो या चूटों की तरह झूण्ड में नहीं जाते बारात
लेकिन अब भी भोजपुर में चलती हैं
आँगन से शामियाने तक गोलियाँ तड़ तड़ तड़ ...
जैसे कोई विधायक या सांसद की जीत पर चलती हैं 

हम देशजवासी मनुष्यवासी कम हो रहें हैं
बावजूद आज भी सूरज लाल उगा है
कल भी उगेगा...
***

जिनके लिए

समय को बांधो 
और फेंक दो सूर्य पर

समय का क्या करेंगे हम

समय में इतने प्रधानमंत्री 
राष्ट्रपति न्यायधीश बन रहे हैं 

हत्याएँ समय में हो रहीं हैं

समन्दर में समय को फेंको

वृद्ध
समय में बहुत कम बचे हैं

प्रेमिका समय से भाग रही है
पर्वत उठाओ और समय को ढक दो 
तीन तह नीचे 

समय में आग लगी हुई है
कवि सरकार से खुश नहीं हैं

इस समय दिल से कह रहा हूँ
हर समय को मुस्कान में बदल दो
हर जगह 
और हर नागरिक के आँखों में झाँकों
देश खाली मिल रहा है हर समय....
***

बहन

बहनों के बहाने छला गया हूँ 

कोई बात नहीं

बहन का प्रेम पत्र कैसा होता
होती तो!

कितने लड़के मरते उस पर!!

प्यारी थी बहुत
दुऩिया से ज्यादा

पृथ्वी पर तीन माह रुकी
मुझे छोड़ गई 
निपट अकेला 

बनावटी बहनें धोखा दे रही हैं
इतिहास सूखे का बना रहा है
खोखा लेकर कहाँ फेंकूँ

चाँद देख रहा है
हवा में  प्यार है
जीवन में धार है

पेंड के पौधे की तरह जन्मी
और दुख से टूट गई

वह आँखों से खपरैल  घर देखती रही
ढेंकी जाँता सिलवट -लोढा रेहट कूड़ी
लाठी खूरपी कूदाल बैल हेंगा हल 
गाय का दूध भैस का पाड़ा -पाडी़
दादी की किवाड़ी

वह धीरे धीरे ओझल होती गई-
आजतक! 
और जिंदा बने रहने की ताकत 
मेरे अन्दर बनाती गई.

वह दुलारी थी बाबा की
और न्यारी थी

होती
तो सबकुछ होता 
बची नहीं
जिससे कुछ होता 

बहन!
वह दुनिया नहीं रही
जिस दुनिया में तू आई गई ..
***

१८ हजार साल की बात 

वह पृथ्वी की कोख से निकली
और फैल गई 
खेतों में बगानों में चाँदनी रातों में 
वह फैलती गई और इतनी फैली की सारे लोगों के आँसू से 
पौधे पटते गए खिलते गए फूल

वह सुगंध लौंग इलाइची तेजपत्तों और थोड़ी कस्तूरी की तरह 

यह खेल नहीं था 
बेल की गंध सा सराबोर था
और इतना तीव्र गंध की 
भूख मर गई
जैसे बंजारे खेत में उसकी हँसी

कई बेहोश हुए
कई बीमार
कई गिरी सरकार
कई ने भिड़ाई तलवार
वह जंग जितती गई

पर क्या कहूँ पास जाने पर हल्का हो जा रहा हूँ
दूर रहने पर आँखें भारी

यह समय 
यह काल
यह पल
यह क्षण 
सब मिलकर रो क्यों रहें हैं

यह गलत बात है

उसे खुश रहने दो शहजादी की तरह
जिसकी पल्लू में अतिरिक्त सलवटें किसी ने देखी नहीं 

मैंने गुस्सा नहीं किया
नहीं दिखाया प्रेम 
वह न जाने कब आ गई
मेरे अन्दर वह भी एक 
पुरुष के माध्यम से
जिसने प्यार से बिछा दी थी
चटाई 

अब उसे सोने दो चैन से
उधार की नींद नहीं चाहिए उसे
वह आथाह गहरे सागर में जा समाई है 

कोई तिनका का दबाब न दे
उसे
हमें इंतजार है लौट आने की 
जहाँ गौरैया गीत गायेगी 
कबूतर फर्र फर्र उड़ेगें
बंदर कूदेगे धड़ाम

लो ! वो बोलीं 
शीतांश
शीतांश..
***

मेका

चढ़ो और चढो़ 
उड़ जाओ आसमान में 
यह शोभनीय है चाँद सितारों-सा

वैज्ञानिक एक दिन खोज करेंगे इस अदा पर
कैसे चढ़े पेड़ के शाखा पर

एक दिन उत्तर भारत की बकरियाँ सोचेंगी कि
हम भी पैदा हुए थे भारत में 

भारत में आग लगी हुई है
यह पेड़ यह मेका यह आसमान यह दृश्य कैसे बच गया तिरुपति के रास्ते 
खगोलवेत्ता निहारेगे

एक साथ भारत में कई तस्वीरें बदल रहीं हैं
एक साथ कई नारे लग रहें हैं
एक साथ कई हत्याएँ हो रही हैं
एक साथ बच जा रहें हैं हम 

समय का संगत करते हुए 
हमने कई कई क्षेत्रों में कई कई बार सोचा कि
दुनिया बदल रही है
राजनीति बदल रही है
सोच बदल रही है 

यह मेका क्यों नहीं बदल रहें हैं 
क्या एक दिन इनकी भी हत्या होगी
क्या यह भी घास के शौकीन हो जाऐगे

हमने सोचना छोड़ दिया है .

हम देश प्रेमी है
देश पर सोचेगे
मेका पर माथा कौन खपायेगा ?
पेड़ पर चढ़े
या घास खायें !

दुनिया बदल रही है जरुर

दुनिया बच रही है 
मेका से....
***

लोटा

धुँए से कुचला हुआ 
आदमी उठ नहीं पाता

हवा की मार से 
कराह उठता है आदमी

आग का जलना ही काफी है

प्रेम की लगन
दरद देती बेहोश हो उठता है आदमी

देश का मारा कहाँ जाएगा

मिट्टी की कोख बहुत प्यारी होती है
हर तरह के रंग मिलते हैं वहाँ

सवाल है कोई भूखा कैसे रह सकता है
शरीर और पेट से

मेरे जैसा व्यक्ति कब्र से उठ आएगा
और माँ से लोटा का लोटा माँगकर
भर पेट
जल 
ढकेल जाएगा

मेरा समय मुझमें अट रहा है
मन डंट रहा है....
***

शुद्धता की खोज में 

आना जाना लगा रहता है  
जाना आना भी

मनुष्यता का खोल उतार दी है
सबने
मानवता का चोल फेक दिया है
सबने

हमने इक इंच पवित्र मिट्टी खोजा पटना में 
नहीं मिला
कहा सबने

सबने सामूहिक गान की

खाई कसम 
सबने

कुछ कवि के जो पैर पड़े थे जहाँ जहाँ 
वहाँ शुद्धता बची थी 

यह बात गिलहरी के पँजों को देखकर पता चला

आना जाना लगा रहता 
आरा-पटना
पटना- आरा 

दोस्तो !
हाथ बढ़ाओ ...
***


अग्नि पुराण

जंगल की आग 
अग्नि पुराण से ज्यादा पुराण है 
आग ही नहीं होती तो अग्नि पुराण कहाँ होता
न कोई बिल्डिंग या मकान होता 
मार्कण्डेय पुराण बाचते है तो हवन में अग्नि होती है
श्रीमद् भागवत पुराण नहीं होता 
समस्त देवताओं के काल से निकलकर बाराह पुराण कविता मे नहीं रची जा सकती 
पत्थरों पर पुराण लिख दिया जाए
पत्थर की टकराहट ही पुराण की अग्नि है 

नेट लहक दहक जाए
नेट के गुगल सर्च पर पुराण  मिल सकतें हैं 
अंतत: पुराण को नेट मे आग लगने से कौन रोक सकता है
भले वो सईबर क्राईम मे तब्दिल हो केस

पुराण पुराना जरुर है
अग्नि से पुरान नहीं है
पुराण ....
***

चोंप 

पारिस्थितिकी संतुलन के लिए हर घर मे 
एक बागीचा चाहिए
पेडो़ं में फल हो 
छोटे पौधों मे फूल 

रोज़ नई घटना की तरह 
बना रहे सुंदर पर्यावरण

जंगल की तरह घेरे में पक्षियों के कलरव 
घोड़ों का टॉप सुनाई दे
ठक ठक ठक ठक
शुद्ध हवा में 

कोई माउस लैपटॉप न हो और मोबाईल
बस
संवाद हो निश्चल हँसी के साथ भरपूर

आम का पेड़  खूब हो 
जिस पर बैठकर ठोर से मारे मनभोग आम पर 
एक दिन गिरे तो चोंप कम हो 
धोकर खा जाँए सही सही 
मुँह में चोंप का दाग हो कोई बात नहीं 

हर भारतीय को नसीब कहाँ 
बाल्टी में भरकर खा लें भरपेट आम

कुत्ता बेचारा खा नहीं सकता देखता है कातर नज़र से
बच्चे हुं हां करते ओ ओ ओ 
आ आ आ आ आ
दौड़ते भागतें भैंस गाय के साथ चिलचिलाती धूप में 
माँए गाली देती 
अरे अरे ! खा ले खा ले लू लग जइहें 

महुआ को पसारती 
सुखाती भांड़ी में रख आई
नयका चाउर के भात का माड़ कुत्ता खाता 
चपर चपर चपर 

चमकती बिजली की तरह टाल का खेत
कौंधती धमकती आँच लहकती सी देह 
तप्त पसीने से सराबोर 
पेंड़ की छाँव हीं काम आया 
गमछी बिछाकर ..
दू बात सबसे करके 
सानी पानी गोबर डांगर सब निफिकीर 
पीते हुए पनामा सिगरेट

जो पनामा नहर को याद दिलाती है किसानो को 

कल पेड़ और खेत के गीत गाए जाऐगें
रोपे जाऐगे फ़सल 
रात भर भरे जाऐगें 
खेत ....
***    

पांगना

गाछ कल ही लगाया था
समुद्र में नहीं 
नदी में नहीं
तालाब में नहीं 
पोखर में नहीं
बस यूँ ही लगा दिया था

मनुष्य के लिए
कब गांछ ने पृथ्वी के सहारे कंठ गिला कर लिया 
पूरी दुनिया को पता नहीं चला

उस जानवर को पता चला जब सुकोमल पौधे को खा गया

समन्दर से 
नदी से 
पोखर से 
तालाब से
आकर 
खाकर कब डकार गया

पता नहीं चला

मनुष्य 
जानवर से छोटा हो गया है 
मनुष्य खून और उत्तेजना से लैस रहना चाहता है

यह सब देख सून 
एक बच्चा हँस रहा है
         
(समन्दर के यात्रियों के लिए )
***

खण्डहर

रात में रंगरेज रंग रहा है कपड़ा

रौशनी है
रौशनी का पीलापन कौन रंग रहा है रंगरेज

कमरे में अचानक अँधेरा 
अँधेरा कौन रंग रहा रंगरेज

आवाज जोर से निकली 
बचा लो कबीर!
मुँह से थूक निकल आया
थूक का रंग किसने कब रंगा रंगरेज

मेज पर फूल और फल देख रहा हूँ
फूल और फल को किसने रंगा रंगरेज ....
***

कवि- परिचय

अरुण शीतांश
जन्म  ०२.११.१९७२अरवल जिला के विष्णुपुरा गाँव में 
शिक्षा -एम ए ( भूगोल व हिन्दी)एम. लिब. साईंस, एल एल बी पीएच-डी 

कविता संग्रह  
1 ) एक ऐसी दुनिया की तलाश में (वाणी प्रकाशन दिल्ली)
2 )  हर मिनट एक घटना है (बोधि प्रकाशन जयपुर)
3 ) पत्थरबाज़  शीघ्र प्रकाश्य

आलोचना

1)  शब्द साक्षी हैं (यश पब्लिकेशन दिल्ली)

संपादन

1) पंचदीप (बोधि प्रकाशन )
2) युवा कविता का जनतंत्र (साहित्य संस्थान  गाजियाबाद )
3) बादल का वस्त्र (प्रगति प्रकाशन, सोनपत)
4) विकल्प है कविता (प्रगति प्रकाशन, सोनपत)

सम्मान
       * शिवपूजन सहाय सम्मान 
       * युवा शिखर साहित्य सम्मान                                             

पत्रिका
     *देशज नामक पत्रिका का संपादन 

संप्रति 
शिक्षण संस्थान में कार्यरत

संपर्क : मणि भवन, संकट मोचन नगर, आरा भोजपुर, ८०२३०१
मो ०९४३१६८५५८९



लाल्टू की पांच कविताएं

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हमारे वक़्त के महत्वपूर्ण कवि लाल्टू की कविताएं हमें मिली हैं। समाज और राजनीति के संकटों के आगे सदैव मुखर खड़े रहने वाले कवियों में लाल्टू अग्रणी हैं। इन कविताओं के लिए उनका शुक्रिया।



1
तुम जहाँ भी रहते हो
सबसे लंबा कद दिखना चाहते हो
रोशनी के सामने खड़े हो मुड़कर अपना साया देखते हो
घबराहट में मुस्कराते हो कि
तुम्हारा साया दीवारों तक फैला है
मैं जानती हूँ
कि तुम घबराए हुए हो
सबकी नज़रें बचाकर समेट लेती हूँ
तुम्हारे साए को अपने अंदर।
*** 
2
रात को सिर्फ मर्द बाहर निकलते हैं
आपको जल्दी घर चले जाना चाहिए
वह कहता है जब मैं पिछली सीट में बैठी

पर्स से आईना निकाल गालों और बालों को
सँवारती हूँ; सोचती हूँ कि आज फ़ोन पर कैसे फूहड़
आदमी से पाला पड़ा था जो बीमा का विज्ञापन सुनकर

कह रहा था कि मेरी आवाज़ मीठी है, मैं
बात करती जाऊँ। ऑटो चलाते हुए वह बोलता रहता है
कि गंदे लोग हैं सड़कों पर घूम रहे

और पूछता है कि मेरी शादी हुई कि नहीं
एकबार झटका सा लगता है मुझे, हँस उठती हूँ
ठीक जब कहीं तूफान सा उठता लगता है

या कि ऑटो ही झटके के साथ घूमता है
नहीं, कहकर सोचती हूँ जिससे शादी करने की सोची
थी, जो गलबँहियों से बहुत दूर तक जाकर

नशे में कहता था कि जाना, तेरे बिन क्या जीना
यहाँ तक कि मंदिर में शादी तक करने की सोची थी
फिर सब कुछ जैसे किसी और कायनात की कहानी

बन गई। अचानक लफ्ज़ खो जाते हैं और मैं
कहती हूँ कि आराम से चलाओ भैया और वह बड़बड़ाता है
ट्राफिक को गाली देता है। रोशनी और अँधेरे के दरमियान

सड़क दिखती है मत्त बलखाती हुई गाड़ियों के बीच
बच-बच कर पीछे भागती हुई। रात को तो सिर्फ मर्द
बाहर निकलते हैं, कुछ तो जवाब

होता ही है, गुस्सा नहीं आता मुझे
आराम से ही कहती हूँ कोई कहानी
कि अँधेरा सूरज की रोशनी में भी है।
*** 
3
तुमने कहा कि
मैं परेशान न होऊँ, सब ठीक हो जाएगा

मैंने समझा कि तुम पेड़ हो
तुम्हारी डालों, तुम्हारे तने से बतियाती रही
तुम्हें गलबँहियों में लेना चाहा
और तुम बहुत चौड़े लगे
मैंने समझा कि तुम आस्माँ हो
तुम्हारे बादलों से बतियाती रही
सब ठीक हो जाएगा, ठीक हो जाएगा
कहकर ही तो मैंने छलाँग लगाई थी
सपाट धरती पर जब गिरी तो कुछ भी ठीक नहीं था
तुम धरती नहीं थे

मैं कहाँ थी मुझे नहीं पता था
तुम बहुत पहले खो गए थे
मेरे चेहरे पर अनगिनत पत्थरों से लगे चोट थे

मैं चाहती थी कि मेरा हर पोर दर्द से चीख उठे
पर उन घावों को छुआ तो कोई एहसास न था
अपने साथ दर्द का एहसास लिए पत्थर
कहीं अंदर धँस चुके थे; तुम तब भी कह रहे थे
कि मैं परेशान न होऊँ, सब ठीक हो जाएगा

कहीं खयालों की दौड़ में
रुक कर उकड़ूँ बैठी मैं उल्टी कर रही थी
हवा मुझे सहला रही थी; मेरे गालों को छूते हुए मेरी साँसें
उठ रही थीं गिर रही थीं
मेरे अंदर कोई कह रहा था
साँस लेती रहो, फिलहाल साँस लेती रहो।
*** 
4
मैंने भी पी
जीभ पर से फिसलता
तरल गरल सीने को चीरता बहा
ग्लास खाली हुआ और मैंने और डालने को
बोतल की ओर हाथ बढ़ाया तो तुमने
एकबारगी मुझे देखा
क्या तुम मुझे रोकना चाहते थे
या कह रहे थे कि ले लो और थोड़ी सी
मुझे समझ नहीं आया
सवाल में उलझी हुई काँपते हाथों
फिर से जाम होंठों तक लाते ही
मुझे एहसास हुआ, जलन बढ़ रही थी
मैंने बर्फ के दो टुकड़े और डाले
उठकर खिड़कियों तक गई
सारी खिड़कियाँ खुली थीं
और जलन कहीं खिड़कियों से बाहर चल निकली थी
तुम वहीं थे
किसी से बतियाते
या कि टी वी पर कुछ देख रहे थे
मैं चाह रही थी कि और पिऊँ
तब तक जलन का एहसास जिऊँ

जब तक तुम मेरे सीने में बने छेदों से
गुजरते हुए कायनात के दूसरे छोर पर पहुँच  न जाओ।
*** 
5

तुमने कहा कि मैं बहुत होशियार हूँ
मेरी समझ, काबिलियत पर तुम फिदा थे
मेरी आँखों के सामने खुशी के बादल बरस पड़े
गालों पर खारा स्वाद-सा था तो अचरज हुआ
बरस रहे थे अश्क कि
तुमने मेरा लिखा देखा एक बार
और हँस कर डेस्क के एक कोने पर रख दिया

बाद में भूले-से अंदाज़ में तुमने समझाया कि
कैसे मैं ज़रा लाउड लिखती हूँ
कि जो निज है उसे विस्तार देने में मुझे अभी काम करना है
कि उदासीन होना ज़रूरी होता है अच्छा लिखने के लिए
कि दूरी रखनी पड़ती है

बादल अब भी मेरे गालों को छू रहे थे
कितनी दूरी ठीक होगी मैंने सोचा
और उन्हें उँगलियों में थामते हुए दूर किया

हाथ भर। खारापन मिटता ही नहीं था
या कि कुछ था जो दूर होता ही नहीं था। 
***

तापस शुक्ल की दो कविताएं

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कविता में जब नई आवाज़ें शामिल होती हैं तो यह उन आवाज़ाें के औपचारिक स्वागत से ज़्यादा कविता के मौजूदा स्वरूप को खंगालने का मौका होता है। अर्जित या उधारी के मुहावरों के बीच स्थापित चेहरों के बरअक्स एक मौलिक अनगढ़ता की चमक अचानक मिल जाती है, फिर उस चमक के पीछे की रोशनी दिखाई देती है, जिसे प्रेरणा कह सकते हैं। पता नहीं इस पर कितना काम गंभीरता से किया गया है पर हमें सोचना चाहिए कि कविता में कवि की उम्र कितना बोलती है, कितना उसे बोलना चाहिए? 

तापस शुक्ल हिंदी के चर्चित रंगमंडल रूपवाणी के सक्रिय सदस्य हैं। रंगकर्मी के रूप में उनकी पहचान बन रही है। हिंदी कविता परम्परा की कुछ बड़ी कविताओं के मंचन उन्होंने जिए हैं। उनकी दो कविताएं कई दिनों से मेरे पास हैं, जिन्हें मैंने बार-बार पढ़ा है और सोचा है कि यह नौउम्र रंगकर्मी-कवि अपने समय की कविता में कितना ख़लल और दख़ल संभव कर रहा है। प्रतिक्रियाओं के लिए ये कविताएं पाठकों को सौंप रहा हूं। 

आज तापस का जन्मदिन भी है, उन्हें ख़ूब मुबारकबाद और अनुनाद पर उनका स्वागत। 

 
मौत 

रोने की आवाज़ भर गयी है कमरे में ज़रा खिड़कियाँ खोल दो !
किसी से उम्मीद मत रखो ज़्यादा 
हड्डियों को कंपकपाने का मौका तो दो 
नही तो ध्वस्त हो जायेंगी वे 
अपनी त्वचा को कर दो किसी और के हवाले
अपनी आँखों को बंद कर लो हमेशा के लिए 
अपने कानों को अब मत लगाओ दीवारों पर
अपना बोलना थोड़ा कम कर दो 
ज़्यादा सोचो भी मत , सपने देखना तो एकदम बन्द कर दो , हँसना तो एक रोग है एक नशा है इसे भी छोड़ना है दोस्त.
 प्रेम करना छोड़ दो ! हाथ जोड़ कर विनती है प्रेम करना छोड़ दो ! वो कौन है उससे कहो कि वो तुम्हें छोड़ दे ! 
यक़ीन करो मेरा तुमको मौत अच्छी आएगी !

डायरी 
अजीब क़िस्म की दिखने वाली डायरियां और कॉपियां पढ़ने को आकर्षित करती है ।
बिना पूछे किसी डायरी को  चुपके से पढ़ना अपराध है , फिर भी ख़ुद को रोकना मुश्किल हो जाता है
आलमारी में दबी डायरियाँ ढूढ़ने पर मिलती नहीं
और अचानक किसी घर वाले के हाथ लग जाती हैं
डायरी में लिखित जो कुछ होता है वो सोखता है मन
हीरे की तरह चमकने वाली आंखें उस वक़्त पत्थर में तब्दील हो जाती है .
डायरी जो कई हिस्सों में अलग-अलग जगहों पर है
मैं किसी भी डायरी में कहीं भी नहीं लिखा जा रहा हूँ .
फट्टे पन्नों की ख़ुशबू तैरती है लंबी अवधि तक .
सुंदर लिखा-जोखा जो है
उसपे ढाई अक्षर के शब्द बार-बार भटकते रहते हैं.
1995 की शाम अधजगी आंखें न जाने कहाँ और न जाने किसको ढूंढ रहीं।
डायरियाँ सोचती हैं की कब दोबारा उनका इस्तेमाल होगा ।

उत्तम वाग्गेयकार कुमार गंधर्व : रवि जोशी

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                         पंडित  शाङ्ग॔देव द्वारा वर्णित उत्तम वाग्गेयकार के रूप में
                                              पंडित कुमार गन्धर्व का स्थान ”


१३ वीं शताब्दी में  पं शाङ्ग॔देव  द्वारा रचित संगीत रत्नाकर ग्रंथ, भारतीय संगीत के इतिहास को जानने- समझाने  की एक महत्त्वपूर्ण एतिहासिक कड़ी है। प्रसिद्ध इतिहासकार श्री उमेश जोशी के अनुसार, “पं शाङ्ग॔देव  का समय १२१० से १२४७ ई० के मध्य का माना जाता है। यह देवगिरी (दौलताबाद) के यादववंशीय राजा के दरबारी संगीतज्ञ थे”।
संगीत रत्नाकर ग्रंथ को कर्नाटकी एवं हिन्दुस्तानी संगीत के विद्वान संगीत का आधार ग्रंथ मानते आए है। पं शाङ्ग॔देव कृत संगीत रत्नाकर में नाद, श्रुति, स्वर, ग्राम,मूर्च्छना, जाति इत्यादि का विवेचन भलीं प्रकार दिया गया है। संगीत रत्नाकर में गायन, वादन तथा नृत्य तीनों का वृहद् वर्णन किया गया है। संगीत रत्नाकर में ७ अध्याय हैं यहीं कारण है की इसे “सप्ताध्यायी” भी कहा जाता है।
संगीत रत्नाकर के सात अध्याय इस प्रकार हैं –
(1) स्वराध्याय  (2) रागाविवेकाध्याय  (3) प्रकीर्णाध्याय  (4) प्रबंधाध्याय
(5) तालाध्याय  (6) वाद्याध्याय  (7) नर्तनाध्याय
संगीतरत्नाकर के तीसरे अध्याय अर्थात प्रकीर्णाध्याय में वाग्गेयकार के लक्षण, गीत के गुण दोष, गायक वादक  के गुण दोष तथा स्थायी इत्यादि का वर्णन प्राप्त होता है। “वाक्” “गेय” “कार” इन तीनों रूपों  के सामंजस्य से वाग्गेयकार दिग्दर्शित होता है। “वाक्” का अर्थ है वाणी, वाक्य, कथन इत्यादि । “गेय” के अर्थ में गीत अथवा गए जाने वाला काव्य तथा ताल शब्द के नियमों के साथ शब्दोच्चार करना इत्यादि भाव लिए जा सकते हैं । अंत में “कार” शब्द कर्ता का अर्थ प्रकट करता है । इस प्रकार पद रचना तथा स्वर रचना को आकार देने वाला वाग्गेयकार कहलाता है । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि वाक् अर्थात् भाषा साहित्य तथा गेय अर्थात् स्वर विशेष इन दोनों पक्षों में सिद्ध रचनाकार को शास्त्रों में वाग्गेयकार की संज्ञा दी गयी है । वाक् को “मातु” तथा गेय को “धातु” कहते है । जो वाक् और गेय दोनों की रचना करता वह वाग्गेयकार कहलाता है ।
संगीत रत्नाकर में वाग्गेयकार की परिभाषा इस प्रकार उल्लेखित है –
“ वाङ्मातुरुच्यते गेयं धातुरित्यभिधीयते ।
  वाचं गेयं च कुरुते यः स वाग्गेयकारकः” (1)
अर्थात जो वाक् अर्थात मातु और गेय अर्थात धातु का कर्ता है अर्थात जो पद्य – रचना और स्वर रचना का ज्ञाता है वह वाग्गेयकार है । इस प्रकार उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि  वाग्गेयकार कोधातुएवंमातुअर्थात् पद रचना व स्वर रचना का ज्ञान होना नितांत आवश्यक है ।
संगीत रत्नाकर में वाग्गेयकार के तीन वर्गों का उल्लेख किया गया है – (1) उत्तम वाग्गेयकार, (2) माध्यम वाग्गेयकार (3) अधम वाग्गेयकार ।
संगीत रत्नाकर में उत्तम वाग्गेयकार के लक्षण इस प्रकार वर्णित किए गए हैं –

“शब्दानुशासनज्ञानमभिधानप्रवीणता ।   छन्दः प्रभेदवेदित्वमलंकारेषु कौशलम् (२)
रसाभावपरिज्ञानं  देशस्थितिषु चातुरी । अशेषभाषाविज्ञानं कलाशात्रेशु कौशलं  (३)
तूर्यत्रितययुयु  ह्रद्यशारीरशालीता ।           लयतालकलाज्ञानं विवेकोऽनेकाकुषु (४)
प्रभूतप्रतिभोद् भेदभाक्त्वं सुभगगेयता । देशीरागेष्वभीज्ञत्वं  वाक्पतुत्वं सभाजये (५)
रागद्वेषपरित्यागःसाद्र॔त्वमुचितज्ञता । अनुच्छिष्टोक्तिनिर्बन्धो नूतनधातुविनिर्मितिः (६)
परचित्त्परिज्ञानं प्रबंधेषु प्रगल्भता ।               द्रुतगीतविनिर्माणं पदांतरविदग्धता  (७)
त्रिस्थानगमकप्रैढ़िर्विविधालाप्तिनैपुण्म् ।   अवधानं गुणैर्रे भिर्वरो वाग्गेयकारकः  (८)

भावार्थ : उत्तम वाग्गेयकार में निम्नलिखित गुण होने चाहिए

1- शब्दानुशासनज्ञान : व्याकरणशास्त्रज्ञान ।
2- अभिधानप्रवीणता :अमरकोषादि ग्रंथों का ज्ञान ।
3- छंद:प्रभेदवेदित्व : सभी प्रकार के छंदों का ज्ञान ।
4- अलंकारकौशल :साहित्यशास्त्र में वर्णित उपमादिक सभी अलंकारों का ज्ञान ।
5- रसभावपरिज्ञान :उसी शास्त्र में वर्णित किए हुए श्रृंगारिक रसों तथा विभावादिक भावों का
उत्तम ज्ञान ।
6- देशस्थितिज्ञान :विभिन्न प्रदेशों के रीति रिवाजों का ज्ञान ।
7- अशेषभाषाज्ञान :देश की सभी भाषाओं का ज्ञान ।
8- कलाशास्त्रकौशल :संगीतादि शास्त्रों में प्रवीणता ।
9- तूर्यत्रितयचातुर्य :गीत, वाद्य, तथा नृत्य तीनों विधाओं में चातुर्य ।
10- ह्रद्यशारीरशालीता :ह्रद्य अर्थात् मनोहर शरीर जिसे प्राप्त हुआ हो, अर्थात् अधिक श्रम न
करते हुए जिसे राग की अभिव्यक्ति ( प्रदर्शन ) सरलता से करनी आती है उसे उत्तम शरीर
प्राप्त हुआ है ऐसा कहा जाता है ।शरीरयह पारिभाषिक शब्द है ।
11- लयतालकलाज्ञान :लय, ताल, तथा तालाध्याय में वर्णित कलाओं का ज्ञान ।
12- अनेककाकुज्ञान :भिन्नभिन्न स्वर भेदों का ज्ञान ।काकुयह भी पारिभाषिक शब्द
है ।
13- प्रभूतप्रतिभोद् भेदभाक्त्व :अलौकिक बुद्धि ( नएनए प्रकार जिसे सूझते है, ऐसी प्रज्ञा
अथवा बुद्धि )
14- सुभगगेयता:सुखद गायन करने की शक्ति ।
15- देशीरागज्ञान:देशी रागों का ज्ञान ।
16- वाक् पटुत्व:सभा में विजय पाने योग्य वाक् चातुर्य ।
17- रागद्वेषपरित्याग :रागद्वेष का आभाव ।
18- साद्र॔त्व :सरसता ।
19- उचितज्ञता :किस स्थान पर क्या उचित होगा, इसका ज्ञान ।
20- अनुच्छिष्टोक्तिनिर्बन्ध :स्वतन्त्र रचना करने की क्षमता ।
21- नूतनधातुविनिर्मितिज्ञान :नईनई स्वररचना करने का ज्ञान ।
22- परचित्तपरिज्ञान :दूसरों के मन का भाव जानने की शक्ति ।
23- प्रबंधप्रगल्भता :प्रबंधों का उत्तम ज्ञान ।
24- द्रुतगीतविनिर्माण :शीघ्र कविता करनें की क्षमता ।
25- पदांतरविदग्धता :भिन्नभिन्न गीतों की छाया का अनुकरण करने का सामर्थ्य ।
26- त्रिस्थानगमकप्रैढ़िर्विविधालाप्तिनैपुण:तीनों सप्तकों में गमक लेने की शक्ति ।
27- आलप्तिनैपुण :रागालप्ति तथा रूपकालप्ति का ज्ञान ।
28- अवधान :चित्त की एकाग्रता ।

पं शाङ्ग॔देव के मतानुसार उपरोक्त समस्त गुण जिसमें विद्यमान हों, उसे उत्तम वाग्गेयकार कहते हैं , इसी प्रकार मध्यम एवं अधम वाग्गेयकार का वर्णन संगीत रत्नाकर में निम्नवत् है :

विदधानोऽधिकं धातुं मातुंमदस्तु मधयमः ।
धातुमातुविदप्रौढ़ः प्रबंधेष्वपि मध्यमः॥
रम्यमातुविनिर्माताऽप्यधमो मंदधातुकृत् ॥
अर्थात् जो धातु को विशेष रूप से धारण करता हुआ मातु में मंद हो वह मध्यम कोटि का वाग्गेयकार है तथा जोधातुएवंमातुदोनों का जानकार हो परन्तु विविध प्रकार के प्रबंधों की रचना में अप्रौढ़ हो वह भी मधयम श्रेणी के वाग्गेयकार की श्रेणी में आता है ।
इसी प्रकार मनोहारीमातुका निर्माता होने पर भी मंदधातुकी रचना करने वाला अधम श्रेणी का वाग्गेयकार है ।
पं शाङ्ग॔देव द्वारा वर्णित उत्तम वाग्गेयकार के गुण मध्य काल में प्रचलित प्रबंध गान विधा से सम्बंधित
थे । मध्य काल से लेकर आधुनिक काल तक भारतीय शास्त्रीय संगीत में अनेकानेक परिवर्तन हुए जिसके फलस्वरूप आधुनिक काल के किसी भी वाग्गेयकार के समस्त 28 गुणों का होना बहुत कठिन जान पड़ता है ।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में वाग्गेयकारों की एक समृद्ध परंपरा रही है । इसी परंपरा में एक नाम पं कुमार गंधर्व का भी है जिन्होंने अपनी मोहक रचनाओं से भारतीय शास्त्रीय संगीत की अमूल्य निधि में अधिकाधिक वृद्धि की । एक कलाकार के रूप में पं कुमार गंधर्व का स्थान शीर्षस्थ गायकों की श्रेणी में आता है । पं कुमार गंधर्व एक सफ़ल कलाकार तो थे ही साथ ही साथ उनके भीतर नवीन रचना करने की भी अद्भुत क्षमता थी । वे एक उत्कृष्ट रचनाकार भी थे अर्थात वे एक उत्तम श्रेणी के वाग्गेयकार भी थे ।

मई 1956 में पं कुमार गन्धर्व  की स्वरचित बंदिशों का संकलन “अनूपरागविलास” प्रकाशित हुआ जिसमें नए व पुराने रागों की कुल 136 बंदिशों का संग्रह है । कालांतर में जुलाई 1993 को अनूपरागाविलास के दूसरे भाग का भी प्रकाशन हुआ जिसमें नए व पुराने रागों में कुल 111 बंदिशों का संकलन है । अपनी रचनाओं में कुमार जी ने “शोक” उपनाम का प्रयोग किया है । कुमार जी के संकलन के विषय में श्री वामन हरी देशपांडे अपनी पुस्तक “ रसास्वाद ” में लिखते है “ पंडित भातखंडे आदि संग्राहकों ने इतना प्रचंड कार्य किया है फिर भी उनके ग्रंथों में पहले के संगीतज्ञों द्वारा बांधी गयी असली बंदिशें कितनी है , स्वराकारों द्वारा रची गई स्वरावली की सच्चाई पं भातखंडे तक पहुँचते-पहुँचते किस मात्रा में बची रही बंदिशों के पाठ में कितने अपभ्रंश घुस आए है , आदि महत्वपूर्ण प्रश्न अनिर्णीत ही रह जाते है । मतलब यह कि सौ दो सौ वर्षों में उस ज़माने की नवनिर्मित बंदिशों के स्वरूप में आमूलाग्र परिवर्तन हो गया ऎसी भी सम्भावनाएँ हैं । कुमार जी के प्रस्तुत संग्रह के बारे में इस प्रकार के किसी भी संदेह की गुंजाइश नहीं है । उनका सारा सृजन उनका है । उसे लिपिबद्ध उन्होंने स्वयं किया है और स्वरावलीयाँ भी उन्हीं की उपज है , इसलिए उसमें भ्रष्टाचार की सम्भावनाएँ है ही नहीं , वह बिलकुल तारोताज़ा है ” ।

उत्तम वाग्गेयकार के रूप में पंडित कुमार गन्धर्व की समीक्षा निम्नलिखित मुख्य बिन्दुओं के आधार पर की जा सकती है :
सर्वप्रथम पं शाङ्ग॔देव द्वारा वर्णित वाग्गेयकार के प्रथम चार गुणों यथा – शब्दानुशासनज्ञान,अभिधानप्रवीणता, छंद:प्रभेदवेदित्व, तथा अलंकारकौशलका कुमार जी को पूर्ण ज्ञान था । ये वह गुण हैं जिनके आभाव में कोई भी रचनाकार उत्तम रचना नहीं कर सकता । इस प्रकार कहा जा सकता है कि कुमार जी का “ धातु ” पक्ष बहुत सबल था 

अशेषभाषाज्ञान :बाल्यावस्था से विभिन्न परिवेशों में रहने के फलस्वरूप पं कुमार गन्धर्व अनेक भाषाओँ के संसर्ग में आए । अपने गुरु प्रोफ़. देवधर जी के पास मुंबई आने के पश्चात अपनी मातृभाषा कन्नड़ के अतिरिक्त मराठी भाषा से भी वे परिचित हुए . देवास आने के बाद श्री चिंचालकर आदि मित्रों के सहयोग से हिंदी भाषा का भी समुचित ज्ञान कुमार जी को प्राप्त हुआ . श्री राहुल बारपुते तथा श्री श्याम परमार जैसे मित्रों के माध्यम से “मालवी” के रूप में एक नयी बोली से उनका परिचय हुआ .मालवी को समझने की प्रिक्रिया में इन मित्रों ने अवधी, ब्रजभाषा, तथा खड़ी बोली से भी कुमार जी को अवगत करा दिया . इस प्रकार कहा जा सकता है कि अपनी मातृभाषा कन्नड़ के अतिरिक्त मराठी, हिंदी, अवधी, ब्रजभाषा, तथा खड़ी बोली से तो कुमार जी परिचित थे ही, साथ ही साथ स्वयं के पास पुरानी बंदिशों का विपुल संग्रह होने के फलस्वरूप पंजाबी, राजस्थानी,तथा उर्दू भाषा के ज्ञान से भी वे अछूते नहीं रहे . उदाहरणस्वरूप पंजाबी भाषा में उनकी यह रचना पं कुमार गन्धर्व के अशेषभाषाज्ञान को दर्शाती है –

राग मुल्तानी, ताल त्रिताल, लय द्रुत
                          स्थाई
मियां तुसी वेखले दुनियांदा  अजब तमासा देखा ॥
                         अंतरा
समझ समझ कर मन में रसिया  जा दिन पी पूछेंगे पूछेंगे लेखा ॥

वाक् पटुत्व :पं कुमार गन्धर्व भारतीय शास्त्रीय संगीत में सर्वाधिक विवादास्पक संगीतकार के रूप में जाने जाते रहे । आपके नए-नए प्रयोगों ने सदैव आलोचकों का ध्यान आपकी ओर खींचा । परन्तु आपने  अपने प्रयोगों की तर्कसंगत व्याख्या कर आलोचोकों को मौन कर दिया । इस संबंध में वसन्त पोतदार अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि “ वे ( पं कुमार गन्धर्व ) कहते पुराने राग, प्राचीन शास्त्र एकदम उत्तम था, निर्दोष था । फिर आधुनिक गवैयों ने उसे क्यूँ बिगाड़ दिया ? उसमें दोष पैदा कर उसे भ्रष्ट क्यूँ किया ? जिस तरह मैने प्रत्येक राग का विशुद्ध मूल खोजने का प्रयास किया है, उस पर पुनर्विचार किया है, वैसा और किसी नें क्यूँ नही किया ? आज इन सब गायकों से जवाब तलब करने वाला कोई नहीं है, पर कल करेंगे । तब उनकी मुश्किल हो जायेगी यार” !  
या फिर कहते “ पिछले पचपन सालों से मैं बिलासखनी तोड़ी गा रहा हूँ वह भी मेरे साथ बड़ता ही गया ना । वह भी तो पचपन साल का हुआ । सीनियर हुआ उसका अदब भी तो मुझें रखना ही चाहिए” ।

रसभावपरिज्ञान :कुमार जी को रागों के रस एवं भावों का उत्तम ज्ञान था । इनकी बन्दिशों की पुस्तक अनूपरागविलास भाग एक तथा दो में हमें विभिन्न रसों एवं भावों से युक्त रचनाएँ देखने को मिलती है । आपने श्रृंगार, भक्ति, तथा वात्सल्य रस का बहुत सुन्दर प्रयोग अपनी रचनाओं में किया है । उदाहरण्स्वरूप राग कल्याण में निबद्ध यह बन्दिश माँ सरस्वती के प्रति इनकी निष्ठा तथा भक्ति भाव को दर्शाती है ।


राग कल्याण, ताल एकताल, लय मध्य
                   स्थाई
             देवो दान मोहे
      माँगत सुर भीख, दास तेहारो ॥
                  अंतरा
     तोरे बिन ग्यान दे कौन मो सो
    नेक नजर मो पर, आस तिहारो ॥

 सुभगेयता :आपकी रचनाएँ अत्यंत सरल एवं चित्ताकर्षक है । आपने “ शोक ” उपनाम से अनेक विलम्बित एवं द्रुत, खयालों, तरानों तथा ठुमरियों की रचना की है । आपकी बन्दिशें अपनी नवीन विषयवस्तु व सरल स्वरसंरचनाओं के कारण कलाकारों तथा संगीत के विद्यार्थियों दोनों को ही आकर्षित करती है ।

प्रबन्धप्रगल्भता :पं कुमार गन्धर्व को आधुनिक काल में प्रचलित सभी गीत विधाओं जैसे – ध्रुपद, धमार, ख़याल, ठुमरी, टप्पा व तराना का उत्तम ज्ञान था । यद्यपि आपकी कृति अनूपरागविलास में ध्रुपद व धमार की कोइ भी रचना देखने को नहीं मिलती परन्तु आपने गुरुमुख से अनेकानेक ध्रुपद व धमार की शिक्षा प्राप्त करी । आपके पास अनेक दुर्लभ टप्पों का संग्रह था जिन्हें आपने ग्वालियर घराने के प्रमुख गायक पं राजाभय्या पूँछवाले से सीखा था । आपके द्वारा प्रस्तुत  “ ठुमरी, टप्पा, तराना ” नामक कार्यक्रम आधुनिक प्रबंधों के संबंध में आपके वृहद ज्ञान की ओर संकेत करता है ।

उचितज्ञता :आपको राग के भाव और उसकी प्रकृति का पूर्णज्ञान था । अमुक राग का क्या भाव है, इसी के अनुसार आपने अपनी बंदिशों में शब्दों का चयन किया है । उदारणार्थ राग बिलासखानी तोड़ी जिसकी प्रकृति कारुणिक है, उसमें आपने निम्नलिखित बंदिश बाँधकर राग के भाव तथा शब्दों के साथ उचित व्यवहार किया है । -
                         राग बिलासखानी तोड़ी ( त्रिताल मध्यलय
                                                  स्थाई
                                 नयन में जल भर आए देखन तोहे
                                 काहे पिया नहीं देत दरस मोहे ।
                                                 अंतरा
                                   शोक मन छाए, याद तरसाए
                                  कैसे धरुँ धीर, देवो दरस मोहे ॥

अनुच्छिष्टोक्तिनिर्बन्ध           पंडित कुमार गंधर्व के भीतर शीघ्र रचना करने की अद्भुत क्षमता थी ।
नूतनधातुविनिर्मितिज्ञान       उनकी रचनाओं में प्रयुक्त काव्य तथा स्वरप्रयोग सर्वथा नए व ताज़े हैं ।
द्रुतगीतविनिर्माण                कुमार जी को भिन्न-भिन्न घटनाएँ  शीघ्र कविता करने को प्रेरित करती प्रभूतप्रतिभोद् भेदभाक्त्व    थीं आप एक स्वतंत्र रचनाकार थे । स्वंय शब्द रचना तथा स्वंय स्वररचना किया करते थे । आपके द्वारा प्रस्तुत विभिन्न विषयगत कार्यक्रम जैसे ( ठुमरी, टप्पा, तराना ) गीत वर्षा, गीत हेमन्त, गीत वसंत, मालवा की लोकधुनें, त्रिवेणी, तुलसी एक दर्शन, इत्यादि आपकी कल्पनाशील बुद्धि का ही परिणाम है ।
अपने पौत्र की बाल लीलाओं से तंग आकर, राग श्री में तत्काल रचित यह रचना उत्तम वागेयकार संबंधी उपरोक्त गुणों को दर्शाती है –

राग श्री, त्रिताल, द्रुत लय
            स्थाई
करन दे रे कछु लला रे
व वो परा जा रे, लेले लेवो रे ॥
            अंतरा
अंतरा - ईको उठाले आकर कोई
ये उधम करे, लेले लेवो रे ॥                                     
                                                                                                                                                                                                       लयतालकलाज्ञान      किसी भी उत्तम वाग्गेयकार को उत्कृष्ट रचना करने के लिए लय व ताल का ज्ञान
अनेककाकुज्ञान             होना आवश्यक होता है । कुमार जी की लय व ताल के भेदों  से
त्रिस्थानगमकप्रैढ़ि         पूर्णतया परिचित थे, आपने  विभिन्न तालों में अपनी बंदिशों को बाँधा
                                   है । कुमार जी को “काकु” का पूर्ण ज्ञान था . आप अपने गायन में भी “काकु” का बहुत उपयोग करते थे । यहीं कारण है कि आपकी रचनायें अत्यंत भावप्रधान है । पं कुमार गंधर्व एक सिद्धस्त कलाकार थे । मन्द्र, मध्य, व तार तीनों सप्तकों पर आपका समान अधिकार था । तीनों ही सप्तकों में आपकी आवाज़ बिना किसी कष्ट के गमक लेने में सक्षम थी ।
लय व ताल के महत्व को कुमार जी ने  बन्दिश के माध्यम से इस प्रकार समझाया है -

राग भीमपलासी, ताल एकताल, लय विलम्बित
          स्थाई
नाद सो जानूरे सुरगानी
महाकठन ये बिस्तार धरम है ॥
          अंतरा
अंतरा - सुरत देखाए जब ये नाद-लय
करो रे आघात सह लो
तब ताल सुर बन सार, धरम है ॥

अर्थात – नाद अथवा शब्द का सच्चा आनन्द उसे ही प्राप्त हो सकता है जिसे सच्चे स्वर का ज्ञान मिला है सच्चे स्वर के साथ राग का विस्तार करना बहुत कठिन कार्य है । जब नाद और स्वर एकाकार हो जाते है उसी क्षण वहाँ पर आघात कर उस आघात को अपने भीतर सहन करना पड़ता है तभी ताल, सुर सभी  एकाकार हो पाते है । 

रागद्वेषपरित्याग   पं कुमार गंधर्व अत्यंत सरल स्वभाव के व्यक्ति थे । आपके मन में किसी भी कलाकार
सार्द्रत्व               के प्रति रागद्वेष की भावना नहीं थी । अपने समकालीन कलाकारों तथा वाग्गेयकारों अवधान               के साथ आपके बहुत आत्मीय संबंध थे । समकालीन दिग्गज कलाकारों विशेष रूप
                           से पं भीमसेन जोशी जी के साथ कुमार जी की बहुत घनिष्ठता थी ।  इस संबंध में वसन्त पोतदार अपनी पुस्तक में लिखतें है – “ दोनों की मातृभाषा कानड़ी उम्र में सिर्फ़ दो साल का फ़ासला । दोनों के संबंध स्नेहपूर्ण । दोनों एक ही सम्मेलन में गानेवाले हों तो “ हम एक दूसरे के तानपुरे मिला देते थे । इति भीमसेन ------हमारा नित्य का मेलजोल तो नहीं था पर मिलने का एक भी मौका हम नहीं गँवाते थे । एक बार जालंधर से मोटर द्वारा पूना लौटते वक्त मैं देवास गया । साथ था ग़ुलाम रसूल ( तबलची ) शाम होने को थी । उसे बहुत आनंद हुआ । फ़ौरन उसने मुझे गाने के लिए बैठाया । मैनें घन्टाभर मारवा गाया । हम दोनों ही थें । ऐसा मारवा गाया कि वह बहुत खुश हुआ । उसने टेप भी किया है, आप सुनिए कभी । फिर हमने एक साथ गाया । बहुत प्रेम था मुझ पर मेरे खिलाफ़ किसी को बोलने नहीं देता था”।
पंडित राँतंजनकर एवं पंडित जगन्नाथ बुआ पुरोहित जैसे सिद्धहस्त वाग्गेयकार अपनी बंदिशें कुमार जी के पास भेजते थे तथा कुमार जी बहुत सम्मानपूर्वक उन रचनाओं को अपने कार्यक्रमों में प्रस्तुत किया करते थे । आपके देवास स्थित घर पर समय-समय पर विभिन्न कलाकारों का आना-जाना लगा रहता था  .

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पंडित कुमार गंधर्व के भीतर पं शाङ्ग॔देव द्वारा वर्णित उत्तम वाग्गेयकार के अधिकाधिक गुणों का समन्वय था । वे एक महान कलाकार होने के साथ-साथ एक उच्चकोटि के वाग्गेयकार भी थे । कुमार जी की अनेकों ऐसी बंदिशें है जिन्हें युवा पीढ़ी के गायक आज भी अपने गायन में सम्मिलित करते है । पं कुमार गंधर्व की बंदिशों की विविधता पर प्रकाश डालते हुए  उनकी पुस्तक अनूपरागविलास की भूमिका में श्री वामन हरि देशपांडे लिखते है – “अलग-अलग घराने के गायकों को इस संग्रह में ऐसी बंदिशें मिलेंगी कि उन्हें लगेगा कि गोया ये बंदिशें ख़ास हमारे लिए ही बनाई गई है। मिसाल के लिए राग कामोद में “ऐसन कैसन” बंदिश ग्वालियर घराने वालों को अपने घराने की प्रतीत होगी तो किराना गायकों को लगेगा कि बसन्त में निबद्ध “सपने में मिलती” उन्हीं के लिए है ।
इसी प्रकार जयपुर गायकों को जँचेगा कि गौरी बसन्त की बंदिश “आज पेरीले” ख़ास तौर पर उनके लिए ही है । मतलब यह कि इस संग्रह में, विभिन्न घराने के गायक विशेषकर हमारे लिए ही की गई अनेक बंदिशें पायेंगे”।

 
सन्दर्भ ग्रन्थ :
1-     क्रमिक पुस्तक मालिका भाग (4)  1999, प्रकाशक संगीत कार्यालय हाथरस उत्तर प्रदेश
2-     कुमार गन्धर्व 1993 अनूप राग विलास भाग प्रथम तथा द्वितीय , मौज  प्रिंटिंग ब्यूरो मुंबई
3-     कोल्हापुरे पंढरीनाथ 2004, गानयोगी कुमार गन्धर्व , राजहंस प्रकाशन पुणे
4-     देशपांडे वामान हरि , रसास्वाद , 1975, मध्यप्रदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी
5-     पोतदार वसंत 2004 कुमार गन्धर्व , मेधा बुक्स नई दिल्ली
6-     वाजपेयी अशोक 1995, कुमार गन्धर्व , राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
  



-रवि जोशी
संगीत विभाग, डी एस बी परिसर
कुमाऊं विश्वविद्यालय
नैनीताल

 










गैरसैंण - अमित श्रीवास्तव की नई कविता

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गैरसैंण एक शब्द है...


पानी की बची हुई बूंद को छाल की शिराओं में सँजोकर हरा होना सीखा था
इसने खिलना सीखा था
अब जब नाखून के पोर लाल हो उठे थे
किसने देखा कि इसके हाथों में निचुड़े हुए बुरांश के फूल हैं

हथेली की गर्म सांस से चिपके
फूल, किसी आश्वासन के संलग्नक बन जाते हैं अपनी उतराई में
कुछ हवा के साथ बहते दूर किसी चमकीले शहर के पैरों पर गिरते हैं
कुछ बीमार पत्तों से उतर जाते हैं बेस्वाद
इसकी आंखों में उतर आता है
पत्थरों का गहरा सलेटीपन

किसने देखा कि इसके हाथों में दरातियाँ हैं
चेहरे पर वक्त की बेशर्म  लिखावट
इसने गर्म दस्तानों से बाहर कर लिए हैं हाथ
दस्ताने फट चुके हैं
हाथ कट चुके हैं
चेहरे पर अबूझ सांवलापन है अब

किसने देखा कि इसने खीजकर खोल दीं अपनी हथेलियां
इसके हाथों में दूसरों के थमाए पर्चे थे
पर्चों पर लिखी थीं अद्भुद कविताएं मगर
कविताओं की वक्र पीठ पर खुदा हुआ नाम इसका नहीं था

बंजर वायदे से उठ जाता है दिन
धूसर आपत्तियों सा रात ढल जाता है 
खाली तकती रह जाती हैं छः की छः सुबहें भरोसे की बिसात पर
किसने देखा कि चौसर के ठीक बीच में गिरे पासे सा ये और
इससे खेलने वाले समान दूरियों पर हैं
देखने वालों के
जीतने वाले हारे हुए दीखते हैं
इस लिए हैरान हैं हारे हुए लोग

किसने देखा कि माथे पर तमाम सलवटें
इसके होने और न होने के बीच द्वंद सी उठतीं
एक बवंडर उठाने को अभिशप्त पसीने की बूंदों के साथ नीचे गिरकर
सपाट रह जाती हैं

किसने देखा कि इसके ढले हुए कन्धों पर
एक ही गांठ में नत्थी हैं
कुछ मुस्कुराटें
कुछ कराहें
और एक सोची समझी उदासीनता

अब तक तो इसे खिल जाना चाहिए था
अब तक तो इसे चुना जाना चाहिए था
अब तक तो इसे बिछ जाना चाहिए था रेशमी रूमालों में
अब तक तो रूखे-मलमली काली गिरहों में इसे बिंध जाना चाहिए था चौफुंला की थाप सा
या इसे भी पंक्ति को ही दिया जाना चाहिए था
किसने देखा कि अब तक तो इसे मिल जाना चाहिए था कोई न कोई रंग

भाषा कोष में उर्दू के क़रीब
किसी उथले मैदान के गर्भ में 
कुछ मठ बनाए जाएंगे
टूटेंगे कुछ गढ़
कुछ ज़मीनों पर चढ़ेंगे आसमानी रंग
इसके खाली पेट को उलटकर ओढ़ लिया जाएगा कई बेशर्म पीठों पर
बदले जाएंगे नाम वारिसान के
इसकी छातियों पर दगे होंगे चकत्ते
सफेद नीले और ख़ाकी
रस निकलने तक
इसके होने को चुभलाया जाएगा
अब तो शायद थूकने से पहले ही ये देखा जाएगा कि इसके नाखून के पोर लाल हो उठे थे
और ये कि

...
गैरसैंण एक शब्द है राज कोष का !

वर्तमान सन्दर्भ में उत्तरभारतीय तालों का व्यावहारिक स्वरूप: एकअध्ययन

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वर्तमान सन्दर्भ में उत्तर भारतीय तालों का व्यावहारिक स्वरूप: एकअध्ययन

श्रीमती ललिता, शोधार्थिनी, संगीत विभाग, कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल
डा०रेखा साह, असिस्टेन्ट प्रोफेसर, संगीत विभाग, कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल

संगीत प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ प्रदत्त कला है। संगीत का स्वरूप प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है, जिनका अनुभव जीवमात्र के द्वारा निरन्तर किया जाता है। प्रकृति संगीत की जननी है, परन्तु संगीत में स्वर तथा लय इसके आधार स्तम्भ है जिनके बिना संगीत का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। प्रकृति की रचनाओं मेंस्वर तथा लय का स्वरूप परिलक्षित होता है, जैसे : कोयल के कूकने का स्वर, नदियों की निर्झर ध्वनि, पक्षियों का चहकना, अन्तरिक्ष में ग्रह एवं नक्षत्रों की समान गति, मनुष्य की ह्र्दयगति, धमनियों में रक्तप्रवाह आदि,यह सब प्रकृति के द्वारा प्रदान की हुई गति है, जिसको मनुष्य ने जाना व पहचाना तथा प्रकृति की गति व ध्वनि को स्वर तथा लय का नाम दिया, इन्ही के आधार पर संगीत की रचना की जाती है। संगीत में समय के असीमित काल को निश्चित समय में बांधने के लिये ताल की परिकल्पना की गई जो कि मानव के अंक ज्ञान के पश्चात ही संभव हो पाया।
"ताल"संगीत रचना का आधारतत्व है, मात्राओं की निश्चित आवृति को ताल का स्वरूप दिया गयासंगीत के मूल तत्व स्वर तथा लय है परन्तु आधार ताल ही है। ताल पर ही संगीत को स्थापित किया जाता है, यदि गायन, वादन तथा नृत्य से ताल को निकाल दिया जाये तो संगीत, प्राण शुन्य शरीर की भांति हो जायेगा। संगीत में स्वर सीमित हो सकते है, परन्तु ताल की कोई सीमा नही है। ताल गति का निश्चित क्रम संगीत को रसानुभूति तथा स्थायित्व प्रदान करता है।
पाण्डे, शुधांशु (२०१३) संगीत रत्नाकर के अनुसार:
                                                तालस्तलप्रतिष्ठाय मितिधातोर्धत्रिस्मृत:
                                                गीतं वाद्यं तथा नृत्ययतस्ताले प्रतिष्ठितम॥

अर्थात: प्रतिष्ठा अर्थवालीतलधातु मेंधञप्रत्यय लगाने पर ताल शब्द बनता है, गीत, वाद्य और नृत्य इसमें सम्मिलित होते है, यहां पर प्रतिष्ठा का अर्थ व्यवस्थित करना, एक सूत्र में बांधना तथा आधार प्रदान से है, अर्थात गीत, वाद्य एवं नृत्य के विभिन्न तत्वों को व्यवस्थित या आधार प्रदान करने वाला ताल ही है।
राताजन्कर, एस. एन. (१९४०)
 वैदिक काल में ताल की परिकल्पना की गई, महान ऋषियों ने वेदों का संकलन सूक्तिबद्ध किया, उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित प्रणाली ह्र्स्व, दीर्घ एवं प्लुत उच्चारणो द्वारा वेदों की संगीत प्रणाली विकसित हुई जो आगे चलकर छंदोबद्ध हुए और पिंगलशास्त्र का निर्माण हुआ| दर्शनकाव्य आदि समस्त शास्त्र छंदबद्ध बनाये गये जिससे वे स्वर ताल और लय में गाये जा सके और सुगमता से कंठस्थ किये जा सके।
श्रीवास्तव, गिरीशचन्द्र (२००६)
निश्चित ही तालों की युक्ति छन्दों द्वारा ही प्राप्त की गई क्योंकि छन्दों के समानताल में भी समान वर्ण, मात्रा, लय, गति यति और चरण सम्बन्धी नियमों का पालन किया जाता है।
मिश्र, छोटेलाल (२००६)  
ताल पद्धति से तात्पर्य यह हैकि ताल व्याख्या, ताल गठन के नियम, ताल खण्ड, निश्चित पटाक्षर, सशब्द निशब्द क्रिया, ताल प्रस्तुति, ताल विस्तार आदि का विवेचन। नाटयशास्त्र में ताल की परिभाषा इस प्रकार की गयीहै"कलापात और लय से युक्त जो काल विभा गया परिणात्मक प्रमाण जो घनवर्ग में आता है ताल कहलाता है"। साधारण व्यवहार के काष्ठानिमेश या पल के परिमाण को ताल प्रसंग में कला नही कहा जाता।५ निमेशकाल को मात्रा कहते हैतथा एक मात्रा से, अथवा मात्राओं के योग से बनेगा न समय को कला कहा है।मात्राओं के तीन स्वरुप बताये हैं, लघू, गूरु, और प्लुत। लय के तीन प्रकार बताये है, द्रुत, मध्य, तथा विलम्बित। प्राचीनकाल में ताल लक्षणों के अनुसार मात्राकाल ही पात के द्योतक थे, प्रबन्ध या छन्दगायन होता था जिनगी तों में (गीतकों में) कहां कहां घात हो उस आधार पर धात का काल निश्चित किया जाता था और उसी अनुसार तालवादन होता था| "प्राचीनकाल के पूर्व में पंचमार्गी तालों का प्रचार था जिनका उल्लेख भरत ने नाटयशास्त्र में किया है। इन तालों का स्वरूप इस प्रकार है:

चचत्पुट:                                                                          Š                                              = मात्रा८
                                                                          ता           

चाचपुट:                                                                                                                        =मात्रा६
                                                             ता                         ता                           

षटपितापुत्रक                          Š                                                                    Š              = मात्रा१२
                                                             ता                         ता                         ता

सम्पक्वेष्टाक                              Š                                                     Š                              = मात्रा१२
                                                ता                         ता                         वा

उदघट                                                                                                                            = मात्रा६
                                                नि                        

प्राचीनकाल में मार्गी तालों के साथ देशी तालों की भी परिकल्पना की गई व असंख्य देशी तालों का निर्माण किया गया। सर्वप्रथमदेशी शब्दका उल्लेख मतंग मुनि नेवृहद्देशीमें किया है परन्तु तालाध्याय लुप्त होने के कारण देशी ताल का विवरण प्राप्त नही होता। शारंग्देव ने संगीत रत्नाकर में १२० तालों का विवरण प्रस्तुत किया है।नन्दिकेश्वर द्वारा रचित ग्रन्थ भरतार्वण में कुल ११२ तालों का वर्णन है, जिनको कि अंगों द्वारा प्रदर्शित किया गया है। इन तालों में प्रथम पांच तालें मार्गीताल है तथा अन्य १०७ तालें देशी तालें है। इसमें सबसे कम मात्रा की ताल एकताला ही है जो कि आधे मात्रा की है एवं सबसे अधिक मात्रा की ताल सिंहनन्दन है जो कि ३२ मात्रा की है। इसी ग्रन्थ में ६ मात्रा, ८ मात्रा, ७ मात्रा, ९ मात्रा, १० मात्रा, १२ मात्रा, १४मात्रा आदि तालों का वर्णन भी प्राप्त होता है।

प्राचीन ग्रन्थों में समान मात्रा की विभिन्न तालों का विवरण भी प्राप्त होता है जैसे- आठ मात्रा की मार्गीताल चत्चप्पुटम तथा देशीताल, श्रीरंगताल, मण्ढताल, जयमंगलताल, नान्दीताल, प्रतिमढयताल, वर्णताल आदि। जिनका प्रयोग सम्भवत: भिन्न-भिन्न प्रकार की संगीत रचनाओं के लिए होता होगा। गर्ग, प्रभुलाल (१९४०) प्राचीनकाल में असंख्य देशीतालों की रचना की गई परन्तु कुछ ही तालों का प्रयोग संगीत में किया जाता था इस विषय मेंदूल्हाखाँजी ने स्वरसागर में लिखा है
                                                "पंचहजार नौ सौ कई, ताल कहावत नाम।
                                                इनमें ते सोलह लिए, इन से चलता काम॥"

भारतीय संगीत से भारतीय संस्कृति की पहचान होती है, प्राचीनकाल में तथा पूर्वमध्यकाल में मार्गी तथा देशी संगीत पद्धति प्रचार में थी, परन्तु उत्तरमध्यकाल में उत्तर पर मुस्लिम आक्रमण के पश्चात भारतीय संगीत के प्रारम्भिक स्वरूप पर अत्यन्त प्रभाव पडा तथा मुस्लिम शासकों की रुचि तथा उनके संगीत की विशेषतायें भारतीय संगीत में सम्मिलित होकर नवीन रुप में परिलक्षित हुई। भारतीय संगीत में ध्रुपद धमार का स्थान ख्याल गायकी ने ले लिया व अन्य संगीत शैलियाँ जैसे : टप्पा, ठुमरी, दादरा आदि श्रंगारिक शैलियों का प्रचार बढने लगा। मुगलों के प्रभाव के कारण भारतीय संगीत की दो पद्धतियों का निर्माण हुआ। उत्तरभारतीय संगीत पद्धति व दक्षिणी संगीत पद्धति, दक्षिणीभारतीय संगीत में प्राचीन भारतीय संगीत की सैद्धान्तिक गरिमा की रक्षा की गई है जबकि उत्तरभारतीय संगीत में ऐतिहासिक उत्थान-पतन के कारण संगीत का स्वरूप परिवर्तित हो गया।
कुदेशिया, शोभा (२०१२) आधुनिक काल दक्षिण भारतीय सप्त मुख्य तालों के प्रचार व विकास का ऐतिहासिक काल कहा जा सकता है। सोलहवीं शताब्दी में पितामह के रुप में विख्यात पुरन्दरदास नेअलंकार, गीत तथा कीर्तन आदि के साथ इन सप्तसुलादि तालों का प्रयोग किया एवं प्रचार में लाये। तदोपरान्त मद्रांचल, रामदास, क्षैत्रेयारामदासस्वामी आदि संगीतज्ञों ने अपनी रचनाओं द्वारा इन तालों को अत्यन्त समृद्धशाली बनाया, शीघ्र ही ऐसी स्थिति आयी कि प्राचीन तालों का लोप होकर इनका बहुलता से दक्षिणी संगीत में प्रयोग होने लगा। यह पद्धति"सप्तसूल्लादि"नाम से जानी गयी। प्राचीन तथा मध्यकालीन तालों में से इन सातों तालों का चुनकर इनका विकास हुआ तथा जाति भेद के आधार पर क्रमश: ३५ एवं १७५ तालों की रचना हुई |

वर्तमान दक्षिणी तालपद्धति का मुख्य आधार अंगजाति तथा सात तालें है। दक्षिणी सप्तताल- ध्रुव, मठ, रुपक, झम्प, त्रिपुट, अठ, तथा एक तालों को प्राचीन पद्धति के समान अणुद्रुत, द्रुत, लघु, गुरु, प्लुत तथा काकपद छ: अंगों के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है तथा जाति चतुरश्र, त्रयश्र, खण्डमिश्र और संकीर्ण के भेद के आधार पर 7X5=35 की रचना की जाती है।

उत्तरभारत में मुगल प्रभाव के कारण उत्तरीसंगीत प्राचीन संगीतपद्धति को संजोकर नही रख पाया, तथा उत्तरभारतीय संगीत में अनेक परिवर्तन आये। मध्यकाल में ध्रुपद तथा धमार गायकी का प्रचार था और पखावज का खूब प्रयोग किया जाता था, मुस्लिम आक्रमण और शासन के पश्चात भारतीय संस्कृति तथा कलाओं पर यवन संस्कृति का प्रभाव पडना प्रारम्भ हो गया, अकबर युग में ध्रुपद की चार बाणियां प्रचार में थी। मुगल शासक मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार में अनेक व्यवसायी कलाकार थे, जिनमें से कुछ पखावजी तथा कुछ तबलावादक थे, तथा उस समय तबला तथा पखावज की घरानों की नींव पडने लगी। ध्रुपद तथा धमार शैली का प्रभाव कम होने के कारण और ख्याल गायकी का अधिक चलन होने के कारण पखावज का स्थान तबले ने ले लिया, इसके अलावा अन्य श्रंगार शैलियाँ ठुमरी, दादरा, टप्पा आदि प्रचार में आने लगी जिनका आधार तबला ही था और तबला बदलती जनरूचि के अनुसार सर्वश्रेष्ठ अवनद्धवाद्य बन गया।
बदलती मान्यताओं, जनरूचि एवं पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण ताल प्रयोग तथा ताल स्वरूपों में भी अनेक परिवर्तन परिलक्षित होते है। प्राचीनकाल में निर्मित अधिक संख्या वाली क्लिष्ट तालें तथा उनके साथ रचित रचनायें लगभग समाप्त हो  चुकी है। क्लिष्ट तालों का स्थान अब सहज तालों ने ले लिया इनका निर्माण विभिन्न संगीत शैलियों के साथ संगत करने के लिये किया गया। संगीत में विभिन्न विधायें(गायन, वादन, नृत्य) तथा संगीत की विभिन्न शैलियाँ शास्त्रीय संगीत, उपशास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत, तथा लोकसंगीत में ताल के प्रयोग की विशिष्ट भूमिकाहै, शास्त्रीय संगीत की विधाओं में प्रयोग होने वाली तालों का प्रयोग उपशास्त्रीय संगीत, सुगमसंगीत, तथा लोकसंगीत में नही किया जाता है जैसे : ख्याल गायकी में प्रयोग होने वाली तालें तीनताल, झपताल, एकताल आदि का प्रयोग ख्यालगायकी एवं शास्त्रीय संगीत वादन तक ही सीमित रहता है। उपशास्त्रीय संगीत में प्रयोग होने वाली तालें दीपचन्दी, झपताल, पंजाबी, दादरा आदि तालों का प्रयोग ठुमरी, दादरा तक ही सीमित है, एवं लोकसंगीत हेतु विभिन्न प्रदेशों में लोक संगीत की आवश्यकतानुसार तालों का प्रयोग किया जाता हैतथा ध्रुपद-धमार शैली के साथ पखावज पर बजनेवाली चारताल, सुलताल, तथा तीव्रताल आदि का प्रयोग किया जाता है।

प्रत्येक तालरचना का उद्देश्य विभिन्न विधाओं के साथ संगत करना सार्थक सिद्ध होता है; विलम्बित ख्याल के साथ संगत हेतु एकताल, तिलवाडा, झूमरा तथा आडाचार आदि तालों को ही निश्चित किया गया, इन तालों में धागेतिरकिट जैसे बोलों का प्रयोग किया जाता है क्योंकि धागेतिरकिट को जितना चाहे उतना विलम्बित किया जा सकता है, जैसे धाऽगेऽतिऽरऽकिऽटऽ |इन तालों का प्रयोग विलम्बित लय में सरलता से किया जा सकता है।
इसी प्रकार छोटा ख्याल में अधिकतर मध्यलय तथा द्रुतलय में तीनताल, रुपकताल तथा झपताल तालें प्रयुक्त तथा उपयुक्त सिद्ध हुई जिनमें तबलावादक अपने कौशल प्रयोग से ठेके का भराव, तिहाई, मुखडे, मोहरेरेले, कायदे आदि रचनाओं का प्रदर्शन सौन्दर्यानुभूति हेतु करता है। इसी प्रकार ठुमरी, टप्पा आदि श्रंगारिक शैलियों के लिए दीपचन्दी, रुपक, कहरवा, दादरा आदि श्रंगारिक तालों का प्रयोग किया जाता है, जिनमें श्रंगाररस की उत्पत्ति होती है।

प्राचीनकाल में तालरचना केवल ताल के दस प्राण काल, मार्गक्रिया, ग्रह, अंग, जाति, कला, लय, यति, तथा प्रस्तार के आधार पर की जाती थी, परन्तु आधुनिककाल में उत्तरी संगीत में ताल प्राण के मूलस्वरूप में परिवर्तन हुआ। तालरचना के लिए नये सिद्धान्त निश्चित कर दिये गये जैसे:
. मात्राओं की संख्या
. ताल के अंग या विभाग
. ताल की जाति
. ताल क्रिया का स्थान
. ताल में बोलों का चयन

वर्तमान में तालों का प्रयोग तबले पर विभिन्न बन्दिशों कायदों का उलट-पलट कर प्रस्तार किया जाता है। विभिन्न गतिभेद अथवा लयकारियों के द्वारा चमत्कारिक प्रदर्शन किया जाता है|

कला हमेशा सामाजिक परिवर्तन से प्रभावित होती रहती है, वर्तमान तालव्यवहार में परिवर्तन भी सामाजिक वातावरण, जनरुचि के आधार पर परिलक्षित हुआ है। वर्तमान में ताल व्यवहारिक स्वरूप संगत, तन्त्रवाद्यों के साथ, नृत्य के साथ, वाद्यवृन्द, तालवाद्य कचहरी, जुगलबन्दी, फ़िल्मी संगीत तथा सुगम संगीत आदि के साथ प्रयोग किया जाता है

गायन वादन तथा नृत्य के साथ संगत:
अवनद्धवाद्यों का प्रयोग मुख्यरुप से गायन तथा अन्य संगीत शैलियों के साथ संगत हेतु किया जाता हैसंगतिशब्द का मुख्य अर्थ अनुसरण करना होता है, संगतकार का मुख्यकार्य गायन, वादन तथा नृत्य में लय तथा ताल को नियन्त्रित करते हुए संगत करना होता है। वादक, गायक या नर्तक कलाकार को रचनात्मक सांगीतिक सहयोग देता है, कई बार संगतकार गायक के दोषो को उजागर नही होने देते हैं। वर्तमान में वादक कलाकार ठेके को नये रुप में सौन्दर्यपूर्ण रचनात्मकता उत्पन्न करने में सक्षम है। शास्त्रीय संगीत में ध्रुपद तथा धमार के साथ पखावज वादन की प्रथा थी, परन्तु वर्तमान में पखावज के स्थान पर तबले के साथ ध्रुपदधमार गाया जाता है, आज पखावज की तालें चारताल, सुलताल जो ध्रुपद तथा धमार जैसी गम्भीर शैलियां है, इनका तबले पर खूब प्रयोग किया जाता है।
तंत्रवाद्यों के साथ संगत:
कुदेशिया, शोभा (२०१२)  

तालव्यवहार का स्वरूप वादन के साथ संगत हेतु भी दिखाई पडता है, जिनमें विशेषत: तंत्रवाद्य होते है जो स्वर प्रधान होते है इनके साथ संगत हेतु तबले पर ताल तथा लय प्रदर्शन किया जाता है। "तन्त्रवाद्यों में ध्वनि सूक्ष्मखण्डों में उत्पन्न होने के कारण छंद और लयकारी के वादन की सुविधा रहती है, इसलिये उनमें जो रचनायें बजायी जाती है, उन्हेंगतकहा जाता है, उनकी वादन शैली को तंत्रकारी या गतकारी के नाम से सम्बोधित किया जाता है।"गतें दो प्रकार की होती है: . मसीतखानी गत जो प्राय: विलम्बित त्रिताल में होती है तथा २. रजाखानी गत जो मध्य या द्रुत त्रिताल में निबद्ध होती है। अन्यतालों में विलम्बित लय में बजायी जाने वाली गतों को क्रमश: ’मध्यलय की गततथाद्रुतलय की गतकहा जाता है, मिजराब प्रहार से बजाये जानेवाले वाद्यों की वादनशैली में छंद और लय का अधिक महत्व होने से उनकी संगति में स्वतंत्र तबलावादन में प्रयोग किये जाने वाले उठान, पेशकार, कायदा, रेला, तिहाई , मुखडा, गत, टुकडा, रौ आदि रचनाओं को किसी सीमा तक प्रयोग करने का अवसर मिल जाता है। वादक तबले के इन संरचनाओं के आधार पर समुचित बोल संयोजना द्वारा संगति करता है। तंत्रवाद्यों में झालावादन के साथ तबला-वादक कोठे के और रेलो की तैयारी प्रदर्शित करने का अवसर रहता है। घर्षण या फ़ूंक के द्वारा बजाये जानेवाले वाद्यों की ध्वनि में स्थिरता अधिक होने से वह कंठध्वनि से कुछ साम्य रखता है, इसीलिए इन वाद्यों में गायकी अंग की शैली का प्रयोग किया जाता है। इन वाद्यों के साथ गायन शैलियों की भांति ही संगति की जाती है।
जौहरी, रिमा (२०११)  

नृत्य की संगति गायन एवं वादन दोनों से ही भिन्न एवं कठिन होती है, नृत्य के साथ संगत सर्वाधिक बुद्धि चातुर्य व परिपक्वता से पूर्ण कार्य होता है, इस विद्या की संगत में वादक को आरम्भ से ही अत्यन्त तैयारी एवं सूझबूझ के साथ कलात्मक क्षमता का परिचय देना होता है। कत्थक नृत्य के साथ संगति में तबलावादक को नर्तक के पैरो द्वारा निकाले गये बोलों को उतनी ही मात्रा व उसी वजन के अनुरुप तबले पर निकालना होता है।
उदाहरण के लिए नृत्यकार का बोल
                                "तत     तत          थेई          तिगधा    दिंग         दिग         "थेई"
है तो इसी वजन को ध्यान में रखकर
                                "ति                       ता            धाधातिरकिट         धा"
तबले पर बजाया जायेगा।
श्रीवास्तव, गिरीशचन्द्र (२००६)  
इसी प्रकार चारताल में निषद्ध गणेश जी की स्तुति दी जा रही है जिसका संक्षिप्त अर्थ इस प्रकार है - सुन्दर कानवाले, ज्ञान के देवता का नाम गणपति है जिनका बडा सा पेट और एक दांत है। इन रचना में पौने दौगुन (बिआऽ) की लय का अधिक प्रयोग हुआ है:
                                श्रवणसुनदरनाऽमगणपति    ज्ञाऽन      नाऽथग   जाऽन     नमधेटे
                                धाऽन                      धिकिट                    धाधिता                   धिऽनगतिरकिट,  
                                लऽबो                      दरएक                    दऽन्त                      धा, तिरकिट,          लऽम्बो    दरएक
                                दऽन्त                      धा, तिरकिट           लऽम्बो                    दरएक                    दऽन्त।    धा

वृन्दवादन या वाद्यवृन्द
श्रीवास्तव, गिरिशचन्द्र (२००६)
 "वाद्यवृन्द और वृन्दवादन दोनो समानार्थक है। आज भी भारत की साधारण जनता वाद्यवृन्द से अधिक विदेशी शब्द आरक्रेस्ट्रा से परिचित है। साधारण अर्थ में विभिन्न वाद्यों या ध्वनियों के सुमधुर संयुक्तवादन को वाद्य-वृन्द कहते है। स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद वृन्दवादन के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण कार्य किया गया। आकाशवाणी दिल्ली केन्द्र में भारत सरकार की ओर से वृन्दवादन की एक यूनिट का निर्माण किया गया, जिसमें सुप्रसिद्ध सितारवादक प०रविशंकर, बांसुरीवादक स्व.श्री पन्नालाल घोष तथा जयराममणिअय्यर आदि प्रकाण्ड विद्वानो ने अपना सहयोग दिया और उच्चस्तर की वृन्दरचनाएं तैयार की आकाशवाणी के वृन्दवादन की टोलियाँ समय-समय पर विभिन्न केन्द्रों पर अपना प्रदर्शन करती रहतीहै।"

आज वृन्दवादन या वाद्यवृन्द का प्रसार धीमी गति से हो रहा है इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी हो सकता है कि प्रत्येक वाद्य का वादक को एक साथ निश्चित समय पर अभ्यास करना पडता है, अत्यधिक व्यस्त जीवनशैली तथा समय के अभाव के कारण कलाकार अभ्यास नही कर पाते।

स्वतंन्त्रवादन:
जैसा कि नाम से ही ज्ञात होता है, स्वतंन्त्र रुप से किया गया वादन, स्वतंन्त्र वादन होता है। तालवादक अपनी इच्छानुसार तालव्यवहार करने हेतु पूर्णरुप से स्वतंन्त्र होता है, एकलवादन प्रस्तुत करते समय कुछ तबलावादकजैसे : लखनऊ घराना के कलाकार पहले बन्दिश की पढन्त करते हैं, तदुपरान्त बन्दिशों को तबले पर उसका वादन प्रस्तुत करते है जिससे श्रोतागण भी आनन्दित होते हैं। विद्वानो द्वारा स्वतंत्र या एकलवादन प्रस्तुत करने की विधि तैयार की गई है जिसके अनुसार वादक को वादन प्रस्तुत करना होता है। प्रत्येक घराने की अपनी विशेषता है उसी के अनुसार तालवादक ताल का चयन करता है साथ ही यह भी निश्चित करता है कि किस घराने की शैली में तालव्यवहार करना है जैसे : बनारस घराने के कलाकार वादक उठान से स्वतंन्त्र वादन प्रस्तुत करते है जबकि फ़र्रुखाबाद घराने में चाल तथा चलन विशेष रुप से बजाया जाता है। मध्यकाल में घराना पद्धति का जन्म हुआ। घराना पद्धित के तबलावादक अपने घराने का बखूबी प्रस्तुत करते थे, आजादी के कई वर्ष बाद तक भी घरानेदार वादक वादनशैली का प्रदर्शन करते थे परन्तु अब घरानों का लोप हो जाने के कारण भारतीय वादन पद्धतियों में अनेक परिवर्तन हुये। आज तबलावादक सभी घरानों की विशेषताओं को अपने वादन के द्वारा प्रदर्शित करता है। सर्वप्रथम तबलावादक ताल चुनाव के पश्चात हारमोनियम के साथ अपना वादन प्रदर्शित करते है, स्वतन्त्र वादन में उठान, पेशकारा, कायदा, रेला, गत, टुकडा, परन, चक्करदार, तिहाई आदि तालविषयक बन्दिशों को प्रस्तुत किया जाता है। पखावज वादन मेंरेला, पडार, तिहाई आदि का वादन किया जाता है।
तालवाद्य कचहरी:
जौहरी, रीमा (२०११) 
तबला, पखावज, ढोलक, नाल, नक्कारा, तासा, घटम आदि लय- ताल वाद्यों का एक निश्चित ताल और लय में क्रम से अथवा एकसाथ वादन करना तालवाद्य कचहरी कहलाता है। ऐसे प्रदर्शन में अनेक लय- तालवाद्यों पर विभिन्न लयकारियों में काम बहुत मनोरंजक होता है।

तालवाद्य कचहरी में सभी वाद्य उत्तरभारतीय होते है तालवाद्य कचहरी में तालवादन पेशकारा या उठान से प्रारम्भ किया जाता है फ़िर बाकी वादक बारी-बारी से मिलती जुलती रचनाओं का वादन करते है संगीत गोष्ठियों में इस प्रकार के आयोजन देखने को मिल जाते है।
जुगलबन्द युगलबन्द:
जौहरी रीमा(२०११) 
इन दोनों शब्दों का भावार्थ और शब्दार्थ एक ही है। जुगलबन्दी उर्दू भाषा और युगलबन्दी हिन्दी भाषा का शब्द है। फ़ारसी के शब्द जुकत का अर्थ है जोडा या दो। इसी से उर्दू में जुगलबन्दी शब्द बना, इसका अर्थ दो या जोडा है। इस प्रकार के कार्यक्रम में दो गायक, वादक या नृत्यकार पूर्वनिश्चित किसी एक ताल में या एक राग में अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करते है, जैसे प०रविशंकर और उस्ताद अली अकबर खां की सितार व सरोद की जुगलबन्दी या प०राजन साजन मिश्र की गायन में या उस्ताद अल्लारखा खाँ व जाकिर हुसैन की तबले में"जुगलबन्दी" |
संगीत में जनरुचि के आधार पर अनेक परिवर्तनों में से एक परिवर्तन ताल भी है। वर्तमान में तालव्यवहार केवल प्रत्यक्ष रुप से इलैक्ट्रोनिक वाद्यों के माध्यम से भी प्रदर्शित किया जा सकता है तथा इसका प्रचलन तथा प्रयोग बढता जा रहा है, जैसे: मैट्रोनोम, तालमाल, सुनादमाला |
मैट्रोनोम:
श्रीवास्तव, गिरीशचन्द्र (२००६) घडी के आधार पर बने इस यन्त्र का अविष्कार"एमेर्स्टडम"के वैज्ञानिक"तिकिल"ने किया तथा सुधारवियेनाके"जान मैजिल ने सन १८१६ में किया"यह यन्त्र घडी के आधार पर बना है जो एक निश्चित गति घटायी और बढायी जा सकती है। कुछ सुधरे हुए यन्त्र में लय के साथ-साथ ताल का भी आभास मिलता है। जिसमें एक निश्चित मात्रा संख्या के उपरान्त एक घंटी की ध्वनि भी सुनायी पडती है। यह सर्वविदित है कि संगीत स्वर और लय पर आधारित है और एक सफ़ल संगीतज्ञ बनने के लिये ये दोनो गुण अपेक्षित है प्राय: विद्यार्थी अभ्यास करते समय अपनी निश्चित लय भूल जाता है और लय से इधर-उधर भटक जाता है। प्रत्येक समय मार्गदर्शक या शिक्षक का उपलब्ध होना सम्भव नही है अत: ऐसे समय में मैटोनोम का प्रयोग उपयोगी सिद्ध होता है|
तालमाला:
इस यन्त्र की आकृति एक रेडियो के समान होती है जिसमें विभिन्न तालों के ठेके बजते रहते हैं जिसमें आवश्यकतानुसार ठेकों की गति को विलम्बित, मध्य या द्रुत की जा सकती है अभ्यर्थियों के लिये यह यन्त्र अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो रहा है तालमाला के साथ गायन, वादन तथा नर्तन तीनों प्रकार से अभ्यास किया जा सकता है।
सुनादमाला: (हारमोनियम)
सुनादमालाको इलैक्ट्रोनिक लहरा भी कहा जाता है, यह यन्त्र रागों तथा तालों से जुडे लयात्मक धुने प्रस्तुत करता है इसकी ध्वनि हारमोनियम की ध्वनि के समान ही सुनायी पडती है इस यन्त्र में लय, सुर तथा ध्वनि की गति को भी
नियन्त्रितकियाजासकताहै।सामान्यत:इस प्रकार के वाद्यों का प्रयोग केवल विद्यार्थी वर्ग तथा फ़िल्मी व सुगम संगीत मे ही उपयोगी पाया गया है शास्त्रीय संगीत में इस प्रकार के वाद्यों को अधिक महत्व नही मिलता है।
भारतीय संगीत के तालव्यवहार में अनेक परिवर्तन हुए जिसमें से एक विशेष परिवर्तन ताल का ठेका के रुप में दिखाई पडता है, संगीतशास्त्रीयों ने प्रत्येक ताल की पहचान करने के लिए ठेका निश्चित किया जो किसी भी ताल का पर्याय माना जाता है। डा० लालमणि मिश्र जी लिखते है"मध्यकाल से मृदंग वादन की पद्धति में जो सबसे बडा अन्तर हुआ, वह है उसमें ताल विशेष का ठेका वादन। प्राचीनकाल में ताल का ठेका बजाने की प्रथान ही थी। ताल के ठेका का वादन करने की जिस प्रथा का सूत्रपात मृदंग से हुआ उसको तबले ने पुष्पित तथा पल्लवित्त किया। विद्धानों ने तबला साहित्य की समृद्धि के लिए मृदंग ढोलक, नक्कारा आदि से बोल लिये और उन्हे तबला के योग्य बना लिया।"
प्राचीनकाल से आजतक वादन के पाटाक्षरों में भी अनेक परिवर्तन हुए वर्तमान में तबलावादन गीत या गत की प्रकृति तथा वजन के अनुसार बोल निश्चित कर नवीन ठेका का निर्माण कर संगत करता है।
मिश्र, लालमणि (२०११)प्राचीनबोल:
                                . मटकत                घिघघट्घेघघोटट     मंधि         घंघन        घिघि।
                                                . घड      गुटु           गुटुमघे     दो            घिंघ          दुघि          दुघेंघि।
                                                . किंकाकिटुभेदकितां             किंकेकितांद             तसितां      गुटुग।
                                                . मद्धि    कुट          घेघेमत्थिद्धिघ            खुखुणंघे   घोट्त्थिमट।आदि

मध्यकालीनबोल:
                                                . ननगिड।गिडदगि॥
                                                . ननग्डिदि
                                                . नखुंनखुं
                                                . खचटकिट
                                                . घिकटघिकट
                                                . थोगिणि।थोथांगि॥
                                                . थिरकिथों॥
                                                . नगिझेंनगिझें॥आदि

वर्तमान मृदंग के बोल:
                                                धुमकिट   धुमकिट   तकिटत   , किट
                                                धुमकिट   धुमकिट   तकिटत   का, किट
                                                धुमकिट   तकधुम    किटतक  गदिगन
                                                धा            देत           देत           धुमकिट   तक       धुम
                                                किटतक  गदिगन    धा            देत           देत
                                                धुमकिट   तकधुम    किटतक  गदिगन

वर्तमान तबला के बोल:
                                                धगिनधा   ऽगधग     धिनाऽध   गिनधग    धेनेगेने
                                                धातिरकिट्ध             गिनधग    तिनकिन।
                                                तगिन       ता            ऽगतग     तिनाऽतगिनतक       धिनगिन
                                                धातिरकिरध             गिनधग    धिनगिन॥
उपर्युक्त बोलों के अक्षरों के सामान्य अन्तर परिलक्षित होता है जो विशेषकाल कासूचक है। जिस प्रकार बोलचाल की भाषा में परिवर्तन होता रहा है। यद्यपि उतनी मात्रा में नही, मृदंग के इन पाटाक्षरों में भी लगभग उसी प्रकार का परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है. भारतीय संगीत में जनरुचि, सांगीतिक वातावरण तथा आवश्यकतानुसार विभिन्न समपदी तालों का निर्माण तथा प्रयोग निश्चित किया गया जैसे : तिलवाडा ताल १६ मात्रा, तीन ताल १६ मात्रा, आडाचार १४ मात्रा, झपताल १०मात्रा, कहरवाताल ८ मात्रा, दादरा ताल ६ मात्रा, एकताल १२ मात्रा आदि। प्राचीनकाल में प्रचलित तालों का प्रयोग अत्यधिक क्लिष्ता के कारण समाप्त हो गया अत: नवीन तालों का प्रचलन बढ गया। आज सममात्रिक तालों का ही नही अपितु विषममात्रिक तालों का प्रयोग स्वतन्त्रवादन तथा संगत हेतु किया जाने लगा है। प्राचीन भारतीय संगीत में ताल के मुख्यतत्व जिनको ताल के दस प्राण कहा जाता था ताल पद्धति में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्तथा परन्तु वर्तमान में ताल प्राणों का अधिक महत्व नही रह गया है। आजकल तालव्यवहार में क्रिया का प्रयोग केवल दो रुपों में किया जाता है सशब्द क्रिया, निशब्द क्रिया। क्रिया के अन्य प्रकारों का प्रयोग पूर्णत: लुप्त हो चुका है। अंगो के स्थान पर विभाग का प्रयोग किया जाता है, ताल विभाग में मात्रा संख्या के आधार पर ताल की जाति निश्चित की जाती है जैसे: तीनताल चतुरश्रजाति तथा दादराताल त्रयश्रजाति की है इसके अलावा ताल प्रस्तार का स्वरूप ही बदल गया है आज तबलावादक बन्दिशो को उलटपलट कर ताल का विस्तार करता है।
प्राचीनकाल में लय को विलम्बित, मध्य तथा द्रुत तीनो रुपों में प्रयोग किया जाता था। और वह आज भी प्रचलित है परन्तु आज लयकारियों का प्रयोग ठाह, दुगुन, तिगुन, चौगुन, अठगुन, आड, कुआड, बिआड आदि का प्रयोग वादन में रसोत्पादन तथा सौन्दर्यनुभूति हेतु किया जाता है। आज तालवादक ताल को आकर्षक बनाने के लिये बांये तबले को दबाकर या ढीलाकर के ध्वनि उत्पन्न करता है, जिसे दांबगांस कहा जाता है अधिकतर धागे बजाने में दांबगांस का प्रयोग किया जाता है। ठेके का स्वरूप अधिक आकर्षक बनाने के लिए ठेके का भराव कर बजाया जाता है,जिससे ताल में सौन्दर्य उत्पन्न होता है।
उत्तरभारतीय संगीत में प्राचीनकाल से वर्तमान तक अनेक परिवर्तन परिलक्षित हुए है अत: परिवर्तन का मूल आधार सामाजिक जनरुचि है। सामाजिक अभिरुचि के कारण ताल का व्यवहारिक स्वरुप स्थापित किया गया। ताल के द्वारा सामान्यजन को आकर्षित करने का कार्य किया गया है। आज तालव्यवहार सिर्फ़ संगीतशास्त्रीयों को ही नही सामान्य श्रोताओं को भी आनन्दित करता है।

सन्दर्भग्रन्थ:
·         कुदेशिया, शोभा, प्राचीनताल के परिपेक्ष में वर्तमान तबलावादन, राधा पब्लिकेशन्स, नईदिल्ली, २०१२, पृ०स०१२६, १२७, २४१.
·         गर्ग, प्रभुलाल, ताल की विशेषता(सम्पादकीय), संगीत ताल अंक, संगीत कार्यालय, हाथरस, १९४०, पृ०स०१०.
·       जौहरी, रीमा, वर्तमान परिपेक्ष में भारतीय ताल: स्वरुप एवं प्रयोग (शोधप्रबन्ध), दयालबाग एजुकेशनल इन्स्टीटयूट (डीम्ड विश्वविद्यालय), दयालबाग,  आगरा, पृ०स०१२८, १७२, १७३.
·         पाण्डे, सुधांशु,  ताल प्राण, सांस्कृतिक दर्पण, लखनऊ, २०१३, पृ०स०२.
·         मिश्र, छोटेलाल, ताल प्रबन्ध, कनिष्क पब्लिशर्स एवं डिस्ट्रीब्युटर्स, २००६, पृ०स०१११, १०८
·         मिश्र, लालमणिभारतीयसंगीतवाद्य, भारतीयज्ञानपीठ, नईदिल्ली, २०११, पृ०स०२१०, २११
·         राताजन्कर, एस. एन. हिन्दुस्तानी संगीत में ताल विचार, संगीत ताल अंक, संगीत कार्यालय, हाथरस, १९४०
·         श्रीवास्तव, गिरीशचन्द्र, ताल परिचय, भाग-, रुबी प्रकाशन, इलाहाबाद, २००६, पृ०स०९५, १२७,१४०,१४१


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