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माधवी : पौराणिक कथा के बहाने स्त्री देह पर सत्ता और ताकत की राजनीति का भंडाफोड़ - सुजाता

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भीष्म साहनी के नाटकों में शायद माधवीही है जिसकी चर्चा सबसे कम हुई है बावजूद इसके कि वह पौराणिक कथा पर आधारित होते हुए भी एक फेमिनिस्ट नाटक है। प्रस्तुत आलेख ‘माधवी’ का पुनर्पाठ फेमिनिस्ट दृष्टि से करने और उसकी प्रासंगिकता को रेखांकित करने का प्रयास करता है। एक बेहद नाटकीय और सम्भावनाओं से भरे इस कथानक में न सिर्फ स्त्री के शोषण और समाज मे उसके दोयम दर्जे के लिए उत्तरदायी कारणों को समझा जा सकता है बल्कि यह देह व ताकत की राजनीति को भी उघाड़ कर रख देता है।

कथावस्तु

नाटक की कथावस्तु का आधार है महाभारत मे आया ययाति की पुत्री माधवी का प्रसंग जिसे ययाति द्वारा विश्वामित्र के शिष्य़ गालव को दान कर दिया जाता है ताकि वह अपनी गुरुदक्षिणा चुका सके और दानवीर ययाति को अपयश न मिले। गालवजिसका घमण्ड तोड़ने के लिए  विश्वामित्र एक असम्भव शर्त रखते हैं कि वह 800 अश्वमेधी घोडे ले आए, भटकता हुआ, असफल और निराशआत्महत्या करने पहुंचता है तो विष्णु  उसे बचाने के लिए गरुड़ को ब्राह्मण बनाकर भेजते हैं। गरुड़ गालव को समझाता है कि वानप्रस्थ ले चुके ययाति इतने दानवीर हैं कि हर हाल में तुम्हारी मदद करेंगे। ऐसे में जबकि पूरे  आर्यावर्त मे किसी एक राजा के पास  800 श्यामकर्णी अश्वमेधी घोड़े मिलना मुश्किल था, अपनी दानवीरता और महानता पर आंच न आने देने के लिए ययाति अपनी इकलौती कन्या माधवी को ही दान कर देते हैं। माधवी को यह वरदान प्राप्त है कि उसकी कोख से पैदा होने वाला पुत्र चक्रवर्ती सम्राट होगा । उससे भी बड़ी बात यह है कि संतान जन्म के बाद माधवी फिर से अनुष्ठान करके कुमारी हो सकती है और अपने रूप यौवन को प्राप्त कर सकती है। यह पुत्र जन्म की गारंटी और चिरयौवना बने रहने का वरदान माधवी के मूल्य का आंकलन करने का पैमाना है।व ह तीन राजाओं के रनिवास में रहती है, उन्हे पुत्र और यौन सुख भी देती है तथा बदले में गालव को श्यामकर्णी अश्वमेधी घोड़े मिलते हैं।  अंत में विश्वामित्र भी उसे अपने आश्रम मे स्वीकार करते हैं क्योंकि बचे हुए 200 घोड़े विश्वामित्र के पास ही हैं और माधवी उनके लिए विश्वामित्र को स्वयं को सौंपती है। इस प्रकार गालव गुरुदक्षिणा से मुक्त होकर दीक्षान्त समारोह में सम्मानित होता है। ययाति की दानवीरता की प्रशंसा होती है और ऐसी कठिन परीक्षा अपने शिष्य के सामने प्रस्तुत करने के लिए विश्वामित्र की भी। लेकिन माधवी अंत में अपने लिए पिता द्वारा रचाए स्वयम्वर से पूर्व अनुष्ठान करके फिर से कौमार्य नहीं प्राप्त करती।

पितृसत्ता,स्त्री और महानता के प्रपंच

स्वयं भीष्म साहनी के शब्दों में पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री की अवहेलना और शोषण की कहानीहै माधवीलेकिन मज़ेदार यह है कि लेखक ने आज के अतीतमें यह स्वीकार किया कि माधवी की कथा में अनंत सम्भवनाएँ थीं और इसे और अधिक धैर्य से लिखा जाना चाहिए था।1 यह सत्य है कि एक पितृसत्तात्मक और धर्मान्ध समाज में जीते हुए स्त्री की अवहेलना और शोषण की कथा लिखना बेहद धैर्य के साथ ही सम्भव है। यह भीष्म जी की सम्वेदनशीलता ही थी कि त्रिलोचन शास्त्री से माधवी की कथा सुनते ही वे व्यग्र हो उठे इसे लिखने के लिए और यह अनायास नहीं था कि हीरो वरशिप की आदी रही संस्कृति वाले देश में दानवीर ययाति , गुरु विश्वामित्र और एक लगभग  असम्भव गुरु दक्षिणा देने वाले शिष्य गालव जैसे तीन पुरुष पात्रों के होते हुए नाटक के केन्द्र में माधवी आ गई। भले ही भीष्म जी फेमिनिस्ट दृष्टिकोण से प्रभावित नहीं थे  लेकिन वे माधवी के जीवन से जुड़ी विडम्बनाओं को समस्त स्त्री जाति के वर्तमान हालात के साथ जोड़कर शोषण की परम्परा को उसकी निरंतरता मे देख पा रहे थे।2 आलोच्य नाटक स्त्री देह और पितृसत्तात्मक व्यवस्था मे स्त्री के शोषण की कई परतें एक साथ खोलता है। 1984 मे लिखा गया था माधवी और अपने एक साक्षात्कर मे भीष्म साहनी ने स्वीकारा है कि इसे लिखते हुए कोई फेमिनिस्ट विचार उनके मन में नहीं रहालेकिन सत्य का शोध लेखक अक्सर लिखने की प्रक्रिया में ही करता है। इस नाटक को लिखने की प्रक्रिया में ही भीष्म साहनी को एहसास हुआ कि नाटक की मुख्य पात्र माधवी है और उसी के पक्ष से कथा कही जानी ज़रूरी है। 80 के दशक तक स्त्री विमर्श  और शोषण  के अंतिम उपनिवेश के रूप मे स्त्री देह को पहचान लिए जाने से लेखक कितना परिचित था यह कहना मुश्किल है लेकिन इतना तय है कि माधवी की कथा कहते हुए भीष्म साहनी ने हिन्दी साहित्य में स्त्रीवादी देह विमर्श में एक महत्वपूर्ण शुरुआत की। माधवी का कंटेंट इतना सीधा नहीं है कि उसे स्त्री शोषण की कथा कहकर विराम लिया जा सके।

पितृसत्ता के षडयंत्र के तहत प्रेममातृत्व और त्याग जैसी भावनाओं के साथ प्रशिक्षित की गई और कोख व योनि के कारण टूल बनकर अपनी ही देह से निर्वासित हुई स्त्री जाति की प्रतिनिधि पात्र है माधवी। माधवी और गालव के प्रेम की बात महाभारत मूल कथा में नहीं है जिसे भीष्म जी नाटक में ले आए हैं और बजा ले आए है क्योंकि स्त्री की गुलामी दरअस्ल इस बात मे बाकी गुलामियों की तुलना में अलग है कि वह ऐसा गुलाम है जिससे भावनात्मक गुलामी की भी अपेक्षा की जाती है।3 अपने मालिक को प्रेम करते हुए वह गुलामी करे ऐसी अपेक्षा स्त्री से हमेशा ही रखी गई। पितृसत्ता को वैध और चिरंतन बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि स्त्री यह सोचे कि जो करती है वह प्यार के लिए करती है और यही उसका कर्तव्य है। माधवी कई बार संकेत करती है कि वह गालव से प्रेम के कारण आत्मोत्सर्ग करती है , उसे गालव का साथ चाहिए वैसा ही बिला-शर्त जैसा वह देती है उसका साथ। वह गालव की मुक्ति में अपनी मुक्ति की बीहड़ कंटकपूर्ण राह खोजती है। वह कहती है मुस्कुराकर – “तुम ऋण मुक्त होने के लिए यह सब प्रयास कर रहे हो नऔर मैं?” मानो अबोध हो गालवपूछता है –“क्या?”  तो माधवी आग्रह से कहती है मैं तुम्हें प्राप्त कर पाने के लिए...चलोगालव4  अत्यंत व्याकुल होकर वह अपने पिता के वचन की मर्यादा रखने , गालव को सहायता करने के लिए खुद को  आग मे झोंकती है तो यह उस स्त्री की बनावट में निहित है।5 वह सिर्फ कर्तव्य के लिए निर्लिप्त भाव से यह सब कर ही नही सकती थी। वह प्रेम करने लगती है गालव से और मन ही मन सोचती है पहले प्रसव में कि गालव से मेरा पुत्र उत्पन्न होता यदि तो भी क्या मैं ऐसे ही रोती चिल्लाती6 और उसका मन शांत हो जाता है। प्रेम , भावनाएँ , मातृत्व और कोख ये मिलकर स्त्री के लिए ऐसा एकांत कोना रचते हैं कि स्त्री ताउम्र इनके भंवर से निकल नही पाती। अपनी ही देह से निष्कासित होकर जीना और चयन के अवसरों का अभाव उसकी नियति बना दिए गए। तीसरी बार तो माधवी अपने सद्य जन्मे शिशु का मुख भी नहीं देखती और बाहर चली आती है।

 यहाँ मानसिक गुलामी और देह की गुलामी की वह कहानी शुरु होती है जो देह व ताकत  की राजनीति की बिसात पर बिछती खुलती है तो एक कौंध की तरह समझ आनी शुरू होती है।

कुलच्छनी कोख और अभिशप्त योनि

पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री से उम्मीद की ही गई है कि वह पुत्र प्राप्ति के प्रयासों में लगातार गर्भधारण करती रहे और फिर भी शय्या पर पति के लिए कामिनी बने रहे। महाराज ययाति की पुत्री माधवी को मिला यह वरदान कि वह चक्रवर्ती सम्राट को जन्म देगी और जन्म के पश्चात एक अनुष्ठान द्वारा चिर कुमारी हो सकेगीसंकेत करता है कि स्त्री की देह पितृसत्तात्मक व्यवस्था में एक टूल मात्र है। पितृसत्ता की भलाई के लिए यह स्त्री का कोख और योनि में रिड्यूस कर दिया जाना है। ऋगवेद पुत्र प्राप्ति की कामनाओं से भरा पड़ा है और रामदेव की पुत्रजीवक दवा तक की मानव सभ्यता की यात्रा ताकत और सत्ता की इसी बादशाहत को बनाए रखने की दुर्दमनीय इच्छा दिखाई पड़ती है। तीनों राजा, हर्यश्च , दिवोदास और ऊशीनगर नरेश पुत्र के लाभ और विशेषरूप से दिवोदास काम- क्रीडाओं के लिए भी लालायित होकर गालव का प्रस्ताव तुरंत स्वीकार कर लेते हैं। दिवोदास के चरित्र को भीष्म जी ने जानबूझ कर यह हास्यास्पद और कामुक रंग दिया है। वह पूछ्ता है कि सत्रह पुत्रियों के बाद हमें पुत्र तो प्राप्त होगा न7 और आगाह  भी करता है कि यदि ऐसा न हुआ तो वह माधवी और गालव को काल कोठरी मे डाल देगा। दिवोदास को पुत्र की जितनी  चिंता है उतनी उससे तनिक भी कम काम क्रीड़ा की नहीं। स्त्रियाँ शृंगार तो बहुत करती हैं लेकिन काम क्रीड़ा बिलकुल नही जानतीं8 वह कहता है - इस भेस में तुम कैसे हमें रिझाओगी? नहा धोकर अच्छे से शृंगार करके आओ। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में जैसी कुलच्छनी कोख है वैसी ही अभिशप्त योनि भी।9  स्त्री-पुरुष सम्बन्ध में यह यह एक इतनी विचित्र बात है कि काम क्रीड़ा में भी दोनो के बीच गैर-बराबरी का सम्बन्ध , नौकर-मालिक का सम्बन्ध बरकरार रहता है। दिवोदास को देखते असम्भव ही है कि कोई स्त्री खुशी से उसके साथ समागम करना पसन्द करे लेकिन सम्भोग में स्त्री की इच्छा’’ का सवाल उठाना ही पितृसता से बगावत करना है। रति आनन्द स्त्री के लिए नहीं है। उसे केवल रिझाना है , आनन्द की वस्तु मात्र होना है।10 सहवास सुख में वह एक सक्रिय भागीदार है यह कल्पना भी दूर दूर तक सम्भव नहीं। दिवोदास की कई पत्नियाँ अंत: पुर मे पड़ीहुई हैं और ऐसा ही करती आई हैं। उनकी दशा देख माधवी विचलित होती है। और माधवी के पास तो कोई विकल्प है ही नही।

स्त्री हमेशा अन्यहै। यह अन्यता पुरुष के संदर्भ में व्याख्यायित होती है। वह पुरुष से भिन्न है इसलिए उसकी निष्ठा पर पुरुष को हमेशा शक है, उसकी भावनाओं पर हमेशा सन्देह है, और उसके शारीरिक मानसिक  स्वास्थ्य से उसे कोई मतलब नहीं है बस इतना कि वह उसके मकसद मे सहायक बनती रहे। माधवी की नीयत पर गालव निरंतर सन्देह करता है। स्त्री की यह अन्यताधीरे धीरे उसे स्वयं  से भी एलियनेट करती है। माधवी का राजाओं के पुत्र को जन्म देना और फिर भी चिरयौवना रहना ययाति , गालव, तीनो राजाओं और यहाँ तक कि विश्वामित्र के लिए भी एकदम सहज बात है लेकिन जीवन में बहुत कुछ है जिसे ‘अन डू’ नहीं किया जा सकता । बच्चों को जन्म देना और जन्मते ही उनसे अलग हो जाना एक माँ के लिए जितना बड़ा मानसिक कष्ट है उतना ही शारीरिक भी है। मन जिस देह में निवास करता है उन दोनो की अलग अलग सत्ता मानना एक मनुष्य़ को आत्मनिर्वासन की पीड़ा से भर देता है। यह उसके आत्मविश्वास और आत्मगौरव को कुचलने जैसा है, काबू में रखने के लिए स्त्री के साथ अक्सर किया यही गया है कि उसे ‘परसनहुड’ से वंचित किया गया। उसके व्यक्तित्व को पल्लवित होने नही दिया गया। यही माधवी को भी उसकी देह को उसके अपने अस्तित्व  से अजनबी करता है। यहाँ आकर स्त्री मात्र एक टूल,एक औजार में तब्दील होती है जिसकी अपनी इच्छा के कोई मानी नही, जिसे किसी को भी दान दिया जा सकता हो, जिसका अपनी देह और उसकी इच्छाओं पर भी अपना अधिकार न हो,जिसे किसी के भी साथ सह्वास के लिए बाध्य किया जा सकता हो। अपने ही पिता , गालव , अश्वमेशी घोडे देने वाले तीनो राजाओं और अंतत: विश्वामित्र द्वारा भी माधवी को वस्तु ही समझा जाता है। इस देह -विमर्श की कितनी लानत-मलामत  की जाए पर सच है कि स्त्री का शरीर उपनिवेश है। सत्ता , ताकत ,राजनीति और अर्थतंत्र इसका इस्तेमाल करते हैं। इसी से मुक्ति देह की मुक्ति है।

मातृत्व को चुनना या न चुनना स्त्री का अपना अधिकार होना चाहिए । सेकेंड वेव फेमिनिज़्म आवर बॉडीज़ अवर सेल्व के प्रति सचेत था। स्त्रीवाद के दूसरे चरण का यह आन्दोलन स्त्री के गर्भपात के फैसले को या गर्भ को पालने के फैसले को सम्मान से देखे जाने की बात करता रहा। यह अपनी कोख को पितृसता का टूल बनने देने के खिलाफ एक महत्वपूर्ण जंग थी। स्त्री की आज़ादी में मातृत्व आड़े आता है इसलिए स्त्रियाँ माँ बनना ही नही चाहेंगी अगर उन्हे यह अधिकार दे दिया गया तो’ –ऐसी आशंकाएँ दरअस्ल स्त्री के व्यक्ति होने स्वतंत्र अस्मिता होने पर ही एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगाती हैं। ‘चुनाव’ स्त्री के लिए या कहना चाहिए कि हाशिए की अन्य अस्मिताओं के लिए भी एक भ्रामक शब्द है। यदि चुन सकने की ही स्थिति होती ही तो स्त्री कभी अपने लिए एक कष्टदायकदाग-धब्बों और मानसिक क्लेश युक्त मासिक धर्म का ही चुनाव न करती। लेकिन यह उसकी कोख थी और यह उसका शरीर जिसपर उस का अपना कोई इखित्यार न था। अपने सोचते समझते उसे मर्दवाद के हाथों का खिलौना बनते नहीं देखा जा सकता। कमाल की बात यह है कि गर्भाशय एक ऐसा अंग है जो अपने होने की याद तभी  दिलाता है जब वह असुविधा का कारण बनता है। 11  माधवी खुशी-खुशी गालब से प्रेम में यह स्वीकार करती है कि वह राजाओं को पुत्र देगी और बदले मे वे राजा गालव को अश्वमेधी घोडे देंगे । लेकिन जिस पल वह अपने पहले दुधमुँहे बच्चे को छोडती है उस वक़्त वह वही माधवी नहीं रह गई होती है। एक प्रसवसिर्फ एक प्रसव एक स्त्री को ट्रांसफॉर्म कर देता है। उसका मन वह नहीं रहता भले ही वह अनुष्ठान कर ले और कौमार्य व सौन्दर्य भी पुन प्राप्त कर ले। माधवी तो इससे बार-बार गुज़रती है। हर प्रसव के बाद संतान से बिछड़ना पड़ता है उसे। माधवी कहती है गालव से स्वतंत्र? कैसी स्वतंत्रता गालव ? उन दीवारों के पीछे मेरा नन्हा बालक मुँह खोले मेरा स्तन ढूंढ रहा है, और तुम कहते हो, मैं स्वतंत्र हूँ ? गालव, क्या सचमुच तुम मुझे स्वतंत्र समझते हो? जो माँ अपने बच्चे को छाती से लगा पाए, वही स्वतंत्र होती है।” 12

कमाल की बात यह है कि गालव को ऋषि बनाने के लिए उसकी योजना में निमित्त बनकर अपने यौवन , अपने मन , अपने मातृत्व  का बलिदान करते हुए भी वह कमज़ोर कहलाती है। गालव माधवी के आत्मसमान पर चोट पहुंचाने के लिए यह मनोवैज्ञानिक पैंतरा भी इस्तेमाल करता है कि इसीलिए शायद स्त्रियाँ किसी बड़े काम का दायित्व वहन नही कर सकतीं13

यह एक स्त्री की अस्मिता के साथ मर्दवाद का खेला गया एक षडयंत्र ही है कि पुरुष वेश में सभी कर्तव्यपरायण राक्षस 14 सम्मान और यश प्राप्त करते हैं और माधवी जिसके व्यक्तित्व और सम्वेदनाओं की बलि देकर गालव , ययाति और विश्वामित्र महान बनते हैं उसे ही दुर्बल करार दिया जाता है। माधवी पहले वाली माधवी नही रह जाती । यह पल एक हाशिए की अस्मिता के लिए अपनी सीमांतीयता के बोध का पल है। अपनी असली औकात के समझ आने का पल। टूटने का पल । टूटकर फिर उठने समंजन करने या विद्रोह कर देने का पल। गालव कहता है माधवी तुम तो ऐसे व्यंग्य मे बात नही करती थीं। माधवी को फिर से सुनाई देता है बच्चे का रोना । गालव कहता है यह वहम है माधवी। माधवी उत्तर देती है नही गालव ...मैं अपने आने वाले बच्चे का रोना सुन रही हूँ।15 ऊशीनगर के राजा को पुत्र लाभ होने के बाद माधवी कहीं चली जाती है। गालव को लगता है वह थक हारकर उसे बीच न मंझधार मे छोड़कर चली गई है। आखिर स्त्री चंचल होती है और उसे पुरुष के अंकुश की ज़रूरत हैव्यंग्य करता है सूत्रसधार!  कितना शांत लेकिन कितना बेशर्ममार्मिक और बेहद नाटकीय पल था वह कि अंत में माधवी विश्वामित्र के दरवाज़े पर खडी होती है। मर्दवाद के मुख पर तमाचा यह कि विश्वामित्र उसे अपनी कुटिया के भीतर ले लेते हैं। भले ही वे कहते हैं मैं गालव का घमण्ड चूर करने चला था तुमने मेरा ही अहंकार चूर कर दिया। अहंकार चूर होने के बाद भी विश्वामित्र माधवी से पुत्र प्राप्त करते हैं। इससे न गुरु पर आंच आती है , न मर्यादा पर न कर्तव्य पर। यदि गालव , विश्वामित्र और ययाति ये तीनों कर्तव्यपरायण और मर्यादा पुरुष हैं तो निश्चित ही कर्तव्य परायणता और मर्यादा पालन का अर्थ होता होगा -स्त्री विरोधी होना। स्त्री को पतित किए बिना महानता हासिल न की जा सकती हो जिस व्यवस्था में वह निश्चय ही एक गैर बराबरी और शोषण की परम्परा वाला समाज ही हो सकता है।

 स्त्री के वस्तुकरण के सभी लक्षण पूरे नाटक की कथा मे अंतस्यूत दिखाई देते है। राजा हर्यश्च के दरबार में ज्योतिषी माधवी के अंग प्रत्यंग का निरीक्षण इसी प्रकार करता है जैसे बाज़ार से मोल ली जाती वस्तु का किया जाता है। उसके नितम्ब , वक्ष ,जीभतालु , हथेलियाँ सभी को दरबार के बीच ज्योतिषी गहन निरीक्षण करता है और महाराज को आश्वस्त करता है –“...ज्योतिष ग्रंथों में इन सभी लक्षणों से युक्त युवती चक्रवर्ती राजा को जन्म देने वाली होगी। 16 अंत तक स्वयं को वस्तु बना दिए जाने को आत्मसात कर चुकी माधवी अपने मुख से स्वीकार करती है विश्वामित्र के सम्मुख – “महाराज मैं उसी भांति आपका आज्ञापालन करूंगी जिस भांति अन्य तीन राजाओं के रनिवास में करती रही हूँ। मैं विशिष्ट लक्षणों वाली हूँ महाराज, आपको भी मुझसे पुत्र लाभ होगा। मुझे ग्रहण करके आपको पश्चाताप नहीं होगा महाराज। सभी राजा  मुझसे प्रसन्न थे। ...मै आपकी परिचारिका बनकर रहूंगी , जिस रूप में रखेंगे रहूंगी17 यह नाटक का सर्वाधिक करुण स्थल है। मनुस्मृति पर चलने वाले मर्दवादी समाज के ग्रैंड डिज़ायन में एक टूल बनी माधवी अपना आखिरी बलिदान पूर्ण करती है।

 आत्मनिर्वासन और विद्रोह

यह आत्मनिर्वासन जो अकेलापन देता है वह स्त्री के लिए जानबूझ कर निर्मित किया है। जब भी वह खुद के लिए तय मानकों से हटकर चलने की कोशिश करती है तभी अस्वीकार्य,असह्य हो जाती है। 'हीरोइज़्मतो पुरुष में ही हो सकता है न।  स्त्री हीरो बनने की कोशिश करेगी तो या कम से कम हीरो को हीरो बनाने का क्रेडिट भी लेने की कोशिश करेगी तो उसकी नियति सीता की सी होगी  या माधवी की सी। इसके बाद की कथा तीनों कर्तव्यपरायण  राक्षसों की सफलता और माधवी की गुमनामी ,अकेलापन और पीड़ा की नियति पर खत्म होती है। महाराज ययाति स्वयंवर रचाते हैं। एक फेक स्वयंवर । यह स्वयंवर एक भ्रम  है। अपने अपराध बोध से मुक्ति पाने का आसान आसान तरीका नहीं क्योंकि अपराध बोध की तो कहीं ध्वनि भी सुनाई नही देता। ।ययाति से कुछ गलत कहाँ हुआ। यह स्वयंवर भी अपनी महानता सिद्ध करने का एक अवसर सिद्ध होता है। मज़े  की बात है कि नाटककार सफलतापूर्वक  इस विडम्बना को उभार पाया है कि माधवी के चार पुरुषों से समागम चार संतानों को जन्मते ही छोड देने और पुन पुन अपने आपको धोखा देने के लिए चिर कौमार्य का अनुष्ठान करते रहकर एक निमित्त बनते रहने के बाद चयनका अर्थ ही क्या रह जायता है? कुछ नहीं ! बेशक यौवन पाया जा सकता हो अनुष्ठान करके लेकिन क्या वाकई सब कुछ जो उस शरीर और मन पर गुज़रा उसे विस्मृत किया जा सकता है कभी ? गर्भाशय पर पुत्र- संतान जन्म की चार बार लिखी कहानियाँ , अनिच्छा से किए गए सम्भोग , प्रत्येक बार सद्य-जन्मा संतान से बिछुड़ना ...क्या यह सब माधवी की स्मृतियों से मिटाया जा सकता था? क्या हमारे जीवन मे भोगा हुआ हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा नही हो जाता

गालव के आग्रह के बावजूद माधवी द्वारा अंत मे अनुष्ठान करने से मना कर दिया जाना और फिर गालव का उससे विवाह करने से मना कर देना इस नाटक का अत्यंत महत्त्वपूर्ण
 मोड़ है । यहाँ आकर वह न केवल स्त्री मात्र की उस वेदना से जुडती है जो विवाह और मातृत्व मे अपने जीवन के सबसे स्वर्णिम पल खो देती है,जो छिजते शरीर के साथ सबके शुभ और  कल्याण की कामना करती है और फिर भी अंत में दुर्बल व कमज़ोर कही जाती है बल्कि इस नकार में उसका विद्रोह छिपा है जो एक स्त्री के भीतर सब कुछ हार कर मिली हिम्मत में से जन्म लेता है। स्वयंवर मे आए राजा यही सोच कर आये थे कि माधवी चिर युवा रहेगी। स्वयं गालव यही सोचता है और उसे धक्का लगता है यह देखकर कि जिस कामिनी माधवी को भोगने के वह सपने सजा रहा है वह उसी के लिए निमित्त बनकर अपने जर्जर हो गए शरीर के साथ स्वयं को स्वीकारे जाने की शर्त रखेगी। वह जिसने सदा ही दूसरों की इच्छा से, बिना किसी शर्त अपनी देह का इस्तेमाल हो जाने दिया वह अंत में अपने विचार पर इस तरह दृढ होगी|। यह माधवी की शांत ललकार थी उस पुरुष के लिए जिसे उसने प्रेम किया जिसके लिए उसने अनेक कष्ट सहे वस्तु हो जाना भी स्वीकार कर लिया।  “मुझे देख कर ठिठक क्यों गए गालव।  मैं अब पहले जैसी माधवी तो नही हो सकती हूँ न” 18 आप उसे वस्तु समझते रहे झाड़ा पोंछा इस्तेमाल किया  तेल डाला मरम्मत की फिर और वैसी की वैसी । उसकी देह ढल चुकी है, चेहरे का लावण्य़ फीका पड चुका है, मुँह पर झाँइयाँ हैं, आंखों के नीचे अन्धेरे साए उतर आए हैं। अधेड उम्र की अनाकर्षक स्त्री लगने लगी है माधवी।19

वह अब अनुष्ठान नही करेगी। वह कर्तव्यपरायणता का प्रपंच समझ चुकी। वह पितृसत्ता के हाथों अपना इस्तेमाल किया जाते रहना समझ चुकी जिसे पिता वस्तु स्वरूप दान मे दे दे और जिसे राजा पुत्र प्राप्ति की गारंटी के साथ अपने रनिवास मे पनाह दें और जिसके अनुष्ठान कर वापस सुन्दरी न बनने पर  गालव ठुकरा दे। वह प्रेम के प्रपंच से निकल आई है। वह पूछती है गालव से तुम किस माधवी के लिए छटपटाते रहते थेमैं तुम्हारे लिए केवल निमित्त मात्र थी। जब तुम मेरे सामने अनुनय-विनय कर रहे थे तब भी तुम झूठ बोल रहे थे। तुमने केवल एक व्यक्ति से प्रेम किया है और वह है अपने आप से। पर मैं तुम्हे पहचानते हुए भी न पहचान पाई। मैं सारा वक़्त यही समझती रही कि गालव सच्ची साधना और निष्ठावाला व्यक्ति है। तुम भी गुरुजनों जैसे ही निकलेगालव...। कटु मुस्कान के साथ कहती है तुम सचमुच एक दिन ऋषि गालव बनोगे। ” 20 वह मर्यादा पालन के फरेब को समझ चुकी है।  

गालव की तारीफ होती है
, विश्वामित्र की कठिन परीक्षा की दाद दी जाती है , ययाति के दानवीर होने की वाहवाही होती है ...माधवी पर एक शब्द नहीं कहा जाता उस सभा में।  लेकिन नाटककार की सफलता यह है कि कुछ अपनी ओर से न कहते हुए भी उसने माधवी को नायकत्व प्रदान किया है।
यदि इतिहास को छूना एक दुष्कर कार्य है तो उसी तरह पौराणिक कथाओं को भी लेकिन भीष्म साहनी ने माधवी को सफलता से निभाया है। नाटक में सूत्रधार के ज़रिए कथा कहलाते हुए भीष्म जी ने अद्भुत ढंग से दृश्यों का संयोजन व पात्रों का चरित्र गढा है।सूत्रधार के द्वारा अनावश्यक विस्तार से बचते हुए नाटक में एक चुस्ती आती है और सूत्रधार दृश्यारम्भ में जो लम्बे सम्वाद कहता है उनकी व्यंजना बेहद प्रभावी ठहरती है। दूसरे अंक के पहले दृश्य के आरम्भ में माधवी के लापता हो जाने की घटना की सूचना देते हुए वह अपने कथन में कहता है- पुरुष को भगवान ने धीर-गम्भीर बनाया हैपर स्त्री के स्वभाव में चंचलता होती है। इसीलिए कहा गया है कि नारे की चंचलता पर पुरुष का अंकुश सदा बने रह्ना चाहिए। इसमें अंतत: स्त्री का ही लाभ है।21 और इस नाटक में स्त्री यानि माधवी को कैसा लाभ होता है पाठक-दर्शक स्वयम जान लेते हैं। दृष्यों मे व्यंग्य नाटककार जानबूझ कर ले आए हैं। दिवोदास के चरित्र में जो छिछलापन व कामुकता है और सोच में लालची सामंत बैठा है वह उसके डेढ हड्डी शरीर के साथ मिलकर एक घृणा उपजाता है। ज्योतिषी द्वारा राजा हर्यश्च के यहाँ माधवी के निरीक्षण के दृष्य की नाटकीयता और विश्वामित्र के यहाँ माधवी का पहुंचना अत्यंत मार्मिक व प्रभावी स्थल हैं। माधवी के सम्वाद बेहद तीक्ष्ण हैं। सभी पात्रों के परस्पर कथोपकथन और सूत्रधार के कथनों के कारण सामाजिक को अपना पक्ष तय करने मे कतई मुश्किल नहीं होती। माधवी तंज़ करते हुए एक स्थान पर कहती है- गालव , तुम एक दिन अवश्य ऋषि गालव बनोगेयह पुरुष की महानता के पीछे उसका स्वार्थ व उसके लिए स्त्री का इस्तेमाल किए जाने की मंशा पर चोट करता है और ऐसे ही बच्चे के रोने को वहम बताने पर गालव से कहती है- ‘मैं आने वाले बच्चे का रोना सुन रही हूँ। नाटक रंगमंचीयता के लिहाज़ से निर्देशक को छूट लेने और अपनी रचनात्मकता के उपयोग के भरपूर  अवसर देता है। कुल मिलाकर कहा जा सकता हैं कि अपने कथानक की कसावटसम्वादों की सांकेतिकता व व्यंजकतानाटकीयता व अद्भुत सम्प्रेषणीयता के साथ ‘माधवी’ भीष्म साहनी का एक बेहद सशक्त नाटक है।

संदर्भ:
   1.       आज के अतीत, भीष्म साहनी, पृ.239, राजकमल प्रकाशन,2004
    2.       मेरे साक्षात्कार, भीष्म साहनी, पृ.86, किताबघर प्रकाशन, 2007
 3.The masters of women wanted more than simple obedience, and they turned the whole force of education to get what they wanted. All women are brought up from their earliest years to believe that their ideal of character is the very opposite to that of men: not self-will and government by self-control, but submission and accepting control by someone else. All the moralities tell them that it is their duty, and all the current ideas about feelings tell them that it is their nature, to live for others—to set aside their own wishes and interests and have no life but in their affections. And by ‘their affections’ are meant the only ones they are allowed to have—those to the men with whom they are connected, or to the children who constitute an additional and unbreakable tie between them and a man  ”
दि सब्जेक्शन ऑफ विमेन,जॉन स्टुअर्ट मिल,पृष्ठ – 9 http://www.earlymoderntexts.com/assets/pdfs/mill1869.pdf  
4.       माधवी, भीष्म साहनी, पृ.70, राजकलम प्रकाशन, 2008
5  5.“one is not born but rather becomes a woman” page. 330  Chapter-3 Lived Experience, Childhood , The second sex, Simone de Beauvoir, Vintage Books , New York
   6.       माधवी, भीष्म साहनी , पृ. 69, राजकमल प्रकाशन,2008
   7.       वही , पृ.76
   8.       वही, पृ. 72,74
   9.       विद्रोही स्त्री,जर्मेन ग्रियर , पृ.47 , राजकमल प्रकाशन
   10.   वही
   11.   वही
   12.   माधवी, भीष्म साहनी , पृ. 64, राजकमल प्रकाशन,2008
   13.   वही, पृ.65
   14.   माधवी और कर्तव्यपरायण दानव, जावेद अख्तर खाँआलोचना, जनवरी-मार्च 1985
   15.   माधवी, भीष्म साहनी , पृ. 67, राजकमल प्रकाशन,2008
   16.   वही, पृ.39
   17.   वही, पृ.99
   18.   वही, पृ.111
   19.   वही, पृ.110
   20.   वही, पृ.117
   21.   वही, पृ.91
  अनहद पर प्रकाशित  




मुसाफ़िर बैठा की कविताएं

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अनुनाद को कविताएं सौंपने के लिए मैं कवि को शुक्रिया कहता हूं।
***
1.   

     मां का अछोर आंचल

मां की जननी नजरों में
कभी वयस्क बुद्धि नहीं होता बेटा
मां के प्यार में इतनी ठहरी-बौनी
रह जाती है बेटे की उम्र कि
अपने साठसाला पुत्र को भी मां
घर से विदा करने के वक्त
लगा देती है दिठौना
लेती है बलइयां
ताकि उसे किसी की नजर न लगे
टोकरी भर हिदायतें
थमा जाती है उसे ऐसे
मानो कोई दुधपीता बच्चा हो अभी वह

कहती है ऐसी ऐसी बात कि
अन्यथा वो हंसी करने लायक बात होती
कि बेटे सावधानी से
गाड़ीघोड़े में चढ़ना उतरना
बरतना सड़क पार करने में अतिरिक्त सावधानी
आगे पीछे दायें बायें मुड़ देख कर
हो लेना इत्मीनान
खूब मेरे लाल
ताकि छू न पाए
किसी अशुभ अचाहे का
कोई कोना रेशा भी तुझे

मां की आंखों से
गर दूर जाता हो बेटा
तो आंख भर देखकर भी
नहीं भरता उसका ममता स्नात मन
और बेटे से एक पल की दूरी
उसे सौ योजन समान लगने लगती है
और ममता की सघन आंच लिए
आंखें बिछी रहती हैं उसकी लगातार
अपने जिगर के टुकड़े द्वारा तय की राहों में
बिना कोई खरोंच लगे वापस उसे पाने तक

अपने अनुभवों की
मानो सारी उम्र उलीच
झूठसच बुराभला अकर्तव्यकर्तव्य का
पूरा पाठ पढ़ा
कालिदास ही बना देना चाहती है मां
अपनी आंखों से ओझल होते
पुत्र को उसी वक्त
जबकि दुनिया से
खूब दो चार हो चुका होता है वह तब तक

नाती पोते के वैभव से
हरियर पुत्र को भी
मां की यह हिदायत होती है आयद
कि परदेस जाते हो बेटा तो
दो बातों का गठरी में बांधकर रखना खयाल
जी और जुबान पर
हमेशा लगाए रखना लगाम
कि इन्हीं दो बातों का
टंटा है सारे दुनियाजहान में
यही मुंह खिलाता है पान
यही मुंह लात

मां हो जाए
लाख बूढ़ी जर्जरकाय कार्यअक्षम
बेटे की खातिर वह
बर्तन छुए बिना नहीं रह सकती
नहीं पा सकता पुत्र
नवविवाहिता पत्नी से भी
दाल औ कढ़ी बरी में
वह अन्तस् की छौंक व महक
जो मां की जननी हाथों की
छुअन में होती है

मां चाहती है कि
उसके बेटे का दामन भरा रहे सदा
खुशियों के अघट घट से
और उसके दुख दर्द की बलइयां लें
खुद नीलकंठ बन वह
बेटे के सुख सुकून की निगहबानी कर
अपना हिय सतत जुराती रहे

बाकी सारे प्यार में कुछ न कुछ मांग है
मां के निर्बंध प्यार में सिर्फ दान ही दान है।
***

     मौतों से उपजी मौत

वह था इतना अकिंचन क्षुधा आकुल
कि काफी हद तक मर गई थीं
भूख की वेदनाएं उसकी
और अन्न से ज्यादा भूख से ही
अचाहा अपनापा हो गया था उसका

उसकी मज्जाहीन देह पर थे
इतने क्षीण जीर्ण-शीर्ण वस्त्र
कि उसके गुप्त अंग का भी
उनसे ढकना था नाकाफी
और मर गई थी संवेदना-तंतुएं उसकी
शर्म हया की

अंग अंग हो चले थे उसके
इतने शिथिल असक्त
मानो उसमें न हो कोई
प्राण स्पंदन बाकी

आसरा की जगह
धिक्कार दुत्कार पाई थी उसने
जमाने से इस कदर दर दर भटक
कि तमाम नसें सूख गई थीं उसके
आत्मसम्मान की आत्मवजूद की
और तमाम हो गई थीं तब तक
उसकी इच्छाएं तृष्णाएं सारी

अंततः
जब एक दिन
एक भव्य मंदिर की देहरी से लगी
भूख व्याकुल-भिक्षुओं की याचक पांत में
निश्चेत लेटे उसने
अपनी निस्तेज देह छोड़ी
तो उसकी देह से लगी
सारी मौतों को आसन्न मौतों को जैसे
एक अर्थ मिला एक मान मिला।
***

     मेरी देह बीमार मानस का गेह है 

मेरी देह बीमार मानस का गेह है!

मैं कहीं घूम भर आने का हामी नहीं
यहाँ तक कि अपनी जन्मभूमि बंगराहा
घर के पास ही स्थित
कथित सीता की जन्मस्थली सीतामढ़ी भी
(थोथी वंदना श्रद्धा नहीं होती
सम्यक् कर्म की दरकार है)
मैं विकलांग-श्रद्धा में विश्वास नहीं रखता

मेरे दोनों हाथ सलामत हैं साबुत हैं
मगर ये बेजान-से हैं
जड़ हैं इस कदर कि उठते नहीं कभी
किसी ईश-मसीह की वंदना तक में

माना
ये कमबख़्त हाथ एक नास्तिक के हैं
फिर भी क्या फ़र्क पड़ता है
भक्तजनों के बीच
झूठे-छद्म संकेत तो भर सकते थे ये
वंदना की संकेत-मुद्रा में उठकर !

मेरे आँख-कान विकलांग-से हो चले हैं
इस विकलांग विचार के दौर में
मेरी श्रवण-शक्ति का चिर लोप हो गया है शायद
मेरे कान और मेरी आँखें
गोपन गोलबंदियों-विमर्शों का
न चाहकर भी
आयोजन-प्रायोजन विलोकने को विवश हैं
क्या हमारा साहित्य हमारी संस्कृति
और फिर यह समूचा समाज ही
ऐसे ही गुह्य-गोपन संवादों से अँटा पड़ा नहीं है!
किसी के पास कई-कई अल्फाज़ हैं
और चेहरे भी
(चोली दामन का साथ!)
जिससे हासिल की जा सके
शब्दों की निरी बाजीगरी करने की
कला में महारत

होगा दिल उसके पास और दिमाग भी
और और बहुत कुछ उसमें
गढ़ने की ख़ातिर
महज खुदगर्ज़ी अपनापा

साहित्य के सोहन दरख़्तों के बीच
उग आया यह कैक्टस
चुभने-खरोंचने का अपना जातिगत भाव-स्वभाव
कैसे छोड़ सकता है भला!

इन चेहरों की चमक और चहक की मात्रा
इनके भीतर कुल जमा खोखलेपन का समानुपातिक है

बेशक
अच्छे-बुरे की पहचान रखना
सबके बस का रोग नहीं
पर कुछ में यह काबिलियत है!
(ये क्योंकर मानने लगे
कि परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम्ही
अच्छे-बुरे का मानदंड है)

मैं नहीं जानता
अच्छे-बुरे की पहचान रखने के ये उद्घोषक
खुद कितने पानी में हैं !
***

4     अछूत का इनार
1
जब धनुखी हलवाई का इनार था
केवल टोले में और
सिर्फ और सिर्फ इनार था
पीने के पानी का इकलौता स्रोत
तो दादी उसी इनार से
पानी लाया करती थी
और धोबी घर की बाकी औरतें भी
और घरों की जनानियां भी
पानी भरती थीं वहां
पर धोबनियों से सुविधाजनक छूत
बरता करती थीं
ये गैर धोबी गैर दलित शूद्र स्त्रियां
जबकि खुद भी अस्पृश्य जात थीं ये
सवर्णों के चैखटे में

2
अलबत्ता उनके बदन पर
जो धवल साड़ी लिपटी होती थीं
उनमें धोबीघर से धुलकर भी
रत्तीभर छूत नहीं चिपकती थी

3
पर इन गैर सवर्ण स्पृश्यों की
बाल्टी की उगहन के साथ
नहीं गिर सकती थी
धोबनियों की बाल्टी की डोर
साथ भरे पानी को
छूत जो लग जाती
जाने कैसे
संग साथ रहे पानी का
अलग अलग डोर से
बंधकर खिंच आने पर
जात स्वभाव बदल जाता था

4
यह इनार ऐसा वैसा नहीं था
दलित आत्मसम्मान आत्माभिमान का
एक अछूता रूपक बन गया था यह
अभावों से ताजिन्दगी जंग लड़ती
आई दादी के अहं को
गहरे छुआ था कहीं
बस इत्ती सी बात ने
इसी सब बात ने
इनार की जगत पर हमारे दादा का नाम
नागा बैठा खुदवाया और
खुद रह गयीं नेपथ्य में
कि औरत होकर अपना नाम
सरेआम कैसे करतीं दादी
कि कितनी परंपराएं अकेले तोड़तीं दादी

5
दादा को अपनी भरी जवानी में खो देने वाली
दादा के संग साथ के बहुतेरे सपनों को
दूर तलक न सहला पाने वाली दादी ने
धोबी घाट पर घंटों
अपने पसीने बहा बहा कर
कपड़ा धोने के पुश्तैनी धंधे से
(जो कि जीवनयापन का एकमात्र
पारिवारिक कामचलाऊ जरिया था)
कुछ कुछ करके पाई पाई जोड़कर
बड़े जतन से अलग कर रखा था
अपने दरवाजे पर
एक इनार बनवाने की खातिर
और इस पेटकाट धन से
लगवाया था अपना ईंटभट्ठा
क्योंकि बाजू के गांव के सोनफी मिसिर ने
अपनी चिमनी से ईंट देने से
साफ इंकार कर दिया था
ताकि एक अछूत का
आत्मसम्मान समृद्ध न हो सके कभी
और हत सम्मान करने की
सामंती परंपरा बनी रहे अक्षुण्ण

7
अभी दादी की परिपक्व उम्र में पहुंची मां
कहा करतीं हैं कि
दादी के इनार की बरकत के कल्पित किस्से
इस कदर फैले गांव जवार में
कि इस पानी के
रोगहर प्रताप के लाभ लोभ में
गांव के दूर दराज टोले
यहां तक कि
आस परोस के गांव कस्बों से भी
खिंचे चले आते थे लोगबाग
घेघा रोग चर्मरोग और
और बहुत सी उदर व्याधियों का
सहज चामत्कारिक इलाज पाने को

8
संभव है
वह आज की तरह का
सर्वभक्षी मीडिया संक्रामक युग होता
तो दादी के इस प्रतापी इनार के
सच और दादी के यश से बेसी
जनकल्पित गढ़त किस्से ही
अंधप्रसाद भोगियों के दिल दिमाग पर
खूब खूब मादकतापूर्वक
दिनों तक राज करते होते

9
सोचता हूं बरबस यह
कि इस इनार से
अपने उद्घाटक हाथों से
पूरे समाज की गवाही-बीच
जब भरा होगा पहली दफा
दादी ने सर्जक उत्साह से पानी
और चखा होगा उसका विजयोन्मादी स्वाद
तो कितना अनिर्वचनीय सुख तोष मिला होगा
दादी की जिह्वा की उन स्वादग्रंथियों को
जो बारंबार जले थे
धनुखी हलवाई के इनार का
पी मजबूर पानी
और अब आत्मसम्मान खुदवजूद की
मिठास के परिपाक की कैसी महक
तुरत तुरत मिल रही होगी इसमें दादी को

10
इस अनूठे इनार के पानी का स्वाद
उस वक्त कितना गुनित फलित हो गया होगा
जब शूद्र हलवाइयों का सवर्णी अहं
दादी के अछूत पानी का
पहला घूंट निगलते ही
भरभरा कर गिर गया होगा
अब इस इनार के
रोगहर प्रताप की बाबत जब
पुरा-मन हलवाइयों को
अपना अहं इनार छोड़
दादी के अछूत इनार में
दलितों के संग संग
अपनी बाल्टी की डोर
उतारनी खींचनी पड़ती होगी
तो इससे बंधकर आए जल का आस्वाद
कितना अलग अलग होता होगा
दादी जैसों के लिए
और उन पानी पानी हुए
हलवाइयों के लिए 

11
चापाकल के इस जमाने में
अब अवशेष भर रह गया है इनार
दादी के इस आत्मरक्षक इनार का भी
न कोई रहा पूछनहार देखनहार
कब से सूखा पेट इसका
भर गया है अब
अनुपयोगी खर पतवार झाड़न बुहारन से
कुछ भी रहा नहीं अब शेष
दादा दादी की काया समेत
निःशेष है तो बस
इनार की जगत पर खुदा दादा का नाम
और उसके जरिए याद आता
दादी का पूंजीभूत क्रांतिदर्शी यश काम।
***
 
     राजेन्द्र यादव, राम और रावण

घटना:
साहित्यिक राजेन्द्र यादव ने
सांस्कृतिक मुहावरे में लपेट
हनुमान को रावण की लंका में
घुस आया एक आतंकवादी बताया

गृहीत धर्म अर्थ:
और प्रकारांतर से राम को
आतंकी सरगना

फौरी प्रतिक्रिया:
राम! राम !
साहित्यिकों का
बुद्धिजीवियों का
ऐसा धृष्ट! कर्म धत्कर्म!!

प्रतिक्रिया विशेषः
हे महावीर राम (भक्त) !
उन्हें बख्शना (मत) !
***

      जनेऊ-तोड़ लेखक

लेखक महोदय बामन हैं
और हो गये हैं बहत्तर के
विप्र कुल में जन्म लेने में
कोई कुसूर नहीं है उनका
वे खुद कहते हैं और हम भी

लेखक ने अपने विप्रपना को
इस बड़ी उम्र में आकर परिपक्व वय में पहुंचकर
धोने की एक बड़ी कर्रवाई की है
तोड़ दिया है अपने जनेऊ को
और पोंछ डाला है अपने द्विजपन को
अपने लेखे
कहिये कि जग के लेखे
बल्कि जग के लेखे ही

बावजूद
लोग उन्हें
मान बख़्शते हैं सतत विप्र का ही
सतत घटती इस घटना में भी
उनका क्या रोल
वे किसको किसको कहाँ कहाँ
अपने जनेऊ तोड़ लेने का
वास्ता देते फिरे

हर एक्सक्ल्यूसिव सवर्ण मंच पर
बदस्तूर अब भी मिल रहा है उन्हें बुलावा
और उनके जनेऊ-तोड़
डी-कास्ट होने के करतब को
रखते हैं ठेंगे पर सब अपने पराये
सवर्ण-मान पर ही रखकर
उन्हें हर हमेशा

वे गुरेज करें भी तो करें
कैसे
क्यों
मिलते अधिमान को

इन मानों से
जनेऊ तोड़ना आसान है
क्योंकि यह टूटता है बाहर बाहर ही
भले ही रहता हो सात बसनों के अन्दर

गो
बाहर बाहर टूटकर भी
उसके टूटने का बाहर कोई असर आये ही
कतई जरूरी नहीं
असर के लिए
पुरअसर पाने के लिए
धागा के साथ बहुत कुछ तोड़ा जाना जरूरी है

पर्वत पुरुष दशरथ मांझी के बाइस बरस सा लगाना
किसी बड़ी कार्रवाई के साथ होने के लिए जरूरी है

जनेऊ द्विजत्व है
दो मनुष्य होना है
एक माता उदर से
दूसरे खुद को अलग से जन्मा
मान लेने से
जन्म-दर्प का दर्पण है यह
और यह सतत घटित होती एक कार्रवाई है
चाहे यह आपके मन से घटे अथवा मन के विरुद्ध

बताया पूछा लेखक से
जनेऊ तोड़ा ठीक किया
इसके अलावा अपनी जात-जनेऊ का
क्या क्या तोड़ा आपने
 
लेखक अभी याद करने में लगा है!
***

     शुद्धता का नया पाठ

वह विकलांग है
शुद्धताच्युत वाक्य!
वह दिव्यांग है
भगवाशुद्ध वाक्य!
***

8   शोर की जुबान और मौन का शोर

जो गरजता है हरदम
बरसता है बात बेबात बेजगह
हिन्दू और हिंदी स्वाभिमान की दुकान लगाते हुए
वाइब्रेंट, इनक्रेडिबल जैसे स्वाभिमान-सोख
विलायती शब्दों पर रहता है
पूरी दयनीयता से निर्भर
स्वदेश में निर्माण की सीख देते
जब वह अंग्रेजी में करता है
मेक इन इण्डिया का ऐलान
तो यकीन मानिए
उसका हिसाबी स्वदेश प्रेम भी
खुद उसे चिकोटी काट कर
मसखरी करता होगा

और जब वह
चाय बेचने और हिंदी सीखने के
गढ़ता है फूहड़ फुसुक इतिहास अपना
गर्जन तर्जन करते बरजोर
तो असली इतिहास भी कितना कूढ़ता होगा

ज्यों करता है वह मन की बात
विषैली जिह्वा के अपनी नर्म प्रयोग से
तो जिह्वा भी हैरान रहती होगी
अपनी स्वादग्रंथियों के बदले मिज़ाज़ पर
इस आदमी से डर
विष जज्ब कर लेने के इकरार पर 

मार जाता है काठ उनके
छप्पन इंच सीने को
जब बाइस बरसा पटेल जैसे खिच्चे और
भागवत जैसे भग्नबुद्धि वृद्धकाय से
आरक्षण का उठता है मामला
और साधना पड़ता है उसे बेसाख्ता
नंगा होकर मौन
तब सीने और जुबान की जुगलबंदी उसकी
हो जाती है साफ़ विस्मयकारी और अबूझ।
***

    वीर्य और विचित्रताओं पर कुछ बात

डाला जाता है वीर्य
और उग आता है उससे
पौधा, जीव जन्तु
वीर्य के स्वभावानुसार
वैसे उगना बिना वीर्य के भी संभव होता है
और अनेरे वीर्य से भी
मगर कहना मुझे इन विचित्रताओं पर नहीं है
कहना यह है कि की-पैड पर दाबता हूँ "k'
और उग आता है ', अंग्रेजी का k और हिंदी के का की
का अर्द्धदर्जन विकल्प हमारी खातिर
जैसे एक वीर्य ही
छह अलग अलग स्वभाव के अंकुरण को
सिरजने का रखता हो सामर्थ्य
है न कमाल की सृष्टि है यह
विचित्र जैसी!
***
         
     मुम्बइया छठ और बाल ठाकरे

पहला छठ
बिन बाल ठाकरे आया
मुम्बइया जी
अजी वाह जी
खरा नास्तिक इस एम बैठा की
गर मान बिहारी मुम्बइया तू
मांग ले अपनी छठी मइया से
गल जाए सब
स्व-भाव मराठी विगलित
सब ही अकड़े मराठियों की
अबकी जी....
     ***

          ब्रह्मेश्वर मुखिया
(कुख्यात सवर्ण जातीय गिरोह, रणवीर सेना सरगना)

अपराध का चेहरा यह
उर्फ ऐसे ताज़े चेहरे की बात कीजिये तो
यह ब्रह्मेश्वर मुखिया या और
किसी का भी हो सकता है
जिसे देख समझना मुश्किल
सहज शांत चेहरा गुरु-गंभीर बहुधा
जो कुछ इस चेहरे को समझ लो आप
पर इस सौम्य चेहरे को असल चेहरे से जोड़ना
महज चेहरा देख बड़ा मुश्किल काम
चेहरों से लगे सारे मुहावरों के
अच्छे बुरे अर्थ आप
इस मुखिया के चेहरों को नाप गह सकते हैं
गर माप सको आप!
बोली-बानी धीर-गंभीर मगर असहज उकसाऊ सवालों के संयत जवाब
प्रतिप्रशन भी यदा कदा लाजवाब
कि मैं क्या बाईस बाईस नरसंहारों का
सरगना नियोजक
और तीन सौ के नजदीक निरीह सिरों का क़त्ल करने वाला
हो सकूंगा मेरे माई-बाप
जो एक मक्खी तक मार न सका अबतक
ऐलान किया नहीं कि किसी अतिवादी संगठन का
रणवीर सेना का मुखिया तुखिया है वह
रहा करता वकालत सकल किसानों मजदूरों के हितचिन्तक होने की
किसी जाति विशेष से राग द्वेष रखने का
नहीं किया सार्वजनिक स्वीकार या कि ऐलान
अपनी हत्या पाने के दिन तक भी
जबकि जीवन का मूल ध्येय और एजेंडा ही रहा
भू, भू-भूपति और भू-जाति समेत द्विजत्व रक्षा का
कि जैसे, दलितों वंचितों के प्रति पैदा होते ही
पाल लिया था डाह और नफरतों का अथाह हाहाकारी सामंती विकार
चतुर सुजान सयाना इतना कि
लाख आतंक मचा रख छोड़ा उसने
पंचलखिया इनाम टांक डाले उसके सर चाहे शासन सरकार ने
कोई लख नही सका उसका चेहरा तबतक
जबतक चढ़ा नहीं वह पुलिस के हत्थे
और पकड़ा गया भी वह तब जाकर
उसी पुलिस की मदद ली शासन ने जो कभी
लाख लिया था उसका चेहरा रख नज़र सतर्क
कुछ मीडियाघराने ने तो
गजब की मुखिया भक्ति दिखाई
उसकी हत्या की खबर बाँचते
मानो उसकी शहीदी मनाई
मुखिया जी कहकर पुकारा और
इस अपराधी के लिए आप, वे, उनके
जैसे सम्मानबोधक शब्द खरचे
मुखिया अब खुद नहीं है जिंदा
जिंदा कहावत है मगर वह
आज गब्बर की कथा सुना बच्चों को
डराने की नहीं जरूरत कम से कम बिहार में
गहें नए समय में मुहावरे नए डराने के
बच्चे क्या सयानों का भी मुंह सुखाइए
बस, उन्हें मुखिया की इस रणवीरसेनाई
कोई ऊहात्मक दास्तान सुनाइये!
***
 
     ऊ वंशवाद हाँ ई वाला ना

'ललुआ'का बेटा राजनीति में जाय
वंशवाद जी, घोर कलयुग हाय हाय
!
'पंडिज्जी'गावस्कर औ’ तेंदुलकर का बेटा
बजरिए अगड़म बगड़म तीन तेरह कर्तव्यम्
बेईमानी की योग्यता से नहाय चुभलाय
तब भी योग्य कहलाये न्याय से आये

ऊ वंशवाद हाँ ई वाला ना, ना जी ना !
***

1   ब्राह्मणवाद की विष-नाभि की थाह में

मैं गह्वर में उतरना चाहता हूँ
ब्राह्मणवाद की गहराई नापने
पाना चाहता हूँ उसकी विष-नाभि का पता
और तोड़ना चाहता हूँ
उसकी घृणा के आँत के मनु-दाँत
तुम साथ हो तो सुझाओ मुझे
लक्ष्य संधान के सर्वोत्तम उपाय
बताओ क्या क्या हो
प्रत्याक्रमण में सुरक्षा के सरंजाम
लखाओ मुझे वह दृष्टि कि
गुप्त-सुप्त ब्रह्म-बिछुओं की शिनाख्त कर सकूँ
मेरा हाथ पूरते कोई मुझे अनंत डोर दो
जिसके नाप सकूँ नाथ सकूँ
इस शैतान की आँत को
बाँधो मेरी अंटी में अक्षय रेडीमेड खाना दाना
दो ऐसी तेज शफ्फाफ रौशनी वाली टॉर्च मुझे
तहकीकात काल के अंत निभा सके जो
मेरे अनथक अनंत हौसले का अविकल साथ!
***


     थर्मामीटर

कहते हो-
बदल रहा है गाँव।
तो बतलाओ तो-
गाँवों में बदला कितना वर्ण-दबंग?
कौन सामंत?
कौन बलवंत?

सेहत पाया
पा हरियाया
कौन हाशिया?
कौन हलंत?
***
 
मुसाफ़िर बैठा
जन्म - 05 जून 1968 [शैक्षणिक प्रमाण-पत्रों में दर्ज; यकीनी बिलकुल नहीं]
शिक्षादि-*हिंदी साहित्य से ‘हिंदी दलित आत्मकथाओं में अभिव्यक्त क्रूर यथार्थ का संसार’ विषय में पटना विश्वविद्यालय से पीएच-डी
*हिंदी साहित्य, अंग्रेज़ी साहित्य, लोक प्रशासन विषयों में स्नातकोत्तर
*पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा
*अनुवाद (हिंदी-अंग्रेज़ी) में स्नातकोत्तर डिप्लोमा
*सिविल इंजीनियरी में त्रिवर्षीय डिप्लोमा
*उर्दू में डिप्लोमा
नौकरी- फ़िलहाल, बिहार सरकार की एक स्वायत्तशासी संस्था के प्रकाशन विभाग में। पूर्व में कोई छह सरकारी नौकरियां कीं और ठुकराई।
प्रकाशित रचना आदि -
*प्रकाशित काव्य पुस्तक - 'बीमार मानस का गेह'
*कविता, हाइकू, कहानी, लघुकथा, आलेख/निबन्ध, आलोचना, पुस्तक समीक्षा विधाओं में रचनाएं (पत्र पत्रिकाओं में) प्रकाशित।
*आद्री एवं दीपयतन नामक संस्थाओं की कार्यशालाओं में भाग लेकर नवसाक्षरों के लिए एवं अन्य विषयों पर पुस्तिका लेखन।
*पटना दूरदर्शन एवं आकाशवाणी से कविता, आलेख (वार्ता) एवं कहानी प्रसारित। पटना दूरदर्शन पर साहित्यिक, वैचारिक कार्यक्रमों-बहसों में भी शिरकत।
*डा ए के विश्वास (पूर्व नौकरशाह, ias, vc) की अंग्रेजी वैचारिक पुस्तक 'अंडरस्टैंडिंग बिहार'का हिंदी अनुवाद (प्रकाश्य)
*कुछ कविता, कहानी, आलेख की पुस्तक-पांडुलिपियाँ प्रकाशक की बाट जोह रही!
*प्रतियोगिता दर्पण पत्रिका द्वारा आयोजित "21 वीं सदी के सपने"शीर्षक अखिल भारतीय निबन्ध प्रतियोगिता में सन 2001 में एवं कादम्बनी पत्रिका के एक विचार-लेखन प्रतियोगिता में प्रथम स्थान/पुरस्कार प्राप्त।
*बिहार सरकार के राष्ट्रभाषा परिषद का नवोदित साहित्य सम्मान।
भारतीय दलित साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा डा अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान।
संपर्क : बसंती निवास, प्रेम भवन के पीछे, दुर्गा आश्रम गली, शेखपुरा, पटना (बिहार) – 800014
इमेल : musafirpatna@gmail.com
मोबाइल : 9835045947
स्थायी पता : ग्राम एवं डाकघर – बंगराहा, थाना & प्रखंड – बाजपट्टी, जिला – सीतामढ़ी (बिहार)

अपर्णा कडसकर की कविताएं : अनुवाद - स्वरांगी साने

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स्वरांगी साने के अनुवाद में मराठी कविताओं की यह दूसरी प्रस्तुति है। कवि और अनुवादक का आभार।
***
अपर्णा कडसकर, इस नाम की एक अलग छटा है। उसे जितनी बार पढ़ा है, हर बार चौंकाया है…उसकी कविताएँ बहुत कुछ कहती हैं। कई चीज़ों के बारे में बहुत सशक्त तरीके से कहतीहैं।उसका विमर्श उस तरह का स्त्री विमर्श नहीं है और केवल स्त्री विमर्श नहीं है…उसका विमर्श उसके वलय से जुड़ा है, जिसमें कई चीज़ें समाहित हैं।


ज़ुबान


शारीरिक संबंध बनाने से
मना कर दिया था उस महिला ने
सुना है                           
इस वजह से
उन लोगों ने
उसकी ज़ुबान काट डाली थी
फ़िर दर्ज हुआ अपराध
पुलिस ने बाकायदा की जाँच
कचहरी में मुकदमा भी चला
पर कोई सबूत न होने से
न्यायाधीश ने
सबको बाइज़्ज़त बरी कर दिया
तब बहुत बरपा हंगामा प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में।
किसी ने कहा                                  
पुलिस ने उसकी कटी ज़ुबान को सबूत ही नहीं माना
उन्हें लगा होगा, ज़ुबान और वह भी स्त्री की उसकी क्या कीमत!
कोई बोल पड़ा
गवाह था ही नहीं कोई जो देखता उसकी ज़ुबान कटते हुए
(वैसे भी कौनखुली आँखें रखता है
वे तो बाद में खुलती हैं।)
किसी ने कहा
सवाल-जवाब हुए
तब वह कुछ बोली ही नहीं
और किसी भी सवाल का कोई जवाब नहीं दिया उसने
ख़ुद को जाने क्या समझती थी

किसी ने कहा,
वह अपराधियों के नाम नहीं बता सकती थी
तो कम से कम लिख ही देती
पर लगता है अंगुली कट जाएगी
इस डर से वह मुट्ठी बाँधे बैठी रही थी पूरे समय
बेअक़्ल, डरपोक कहीं की!
फिर पता चला
मेडिकल रिपोर्ट पढ़कर
न्यायाधीश ने दिया था निर्णय
उनका कहना था यह मुकदमा ही झूठा था
ज़ुबान काटना संभव ही नहीं था
क्योंकि
चिकित्सा जाँच में पाया गया था
कि उस महिला को ज़ुबान थी ही नहीं ।
***

ज़ुबान


शारीरिक संबंध बनाने से
मना किया
कहते हैं इसलिए उन लोगों ने
उसकी ज़ुबान काट डाली।

औरतो सावधान रहो, समझीं !
हाथ हिलाकर निषेध किया तो हाथ नहीं रहेंगे
गर्दन मनाही में हिलाई तो गला तक काट डालेंगे वे।
बुरी से बुरी स्थिति के लिए हमें तैयार रहना होगा
बहनो
किसी के बारे में कुछ कह नहीं सकते
तुम्हें ही तय करना होगा कि
कैसे दें नकार
पर पहले तो यह तय करना होगा
कि नकार देना भी है या नहीं?
और उसके एवज में क्या खोना है
क्योंकि
महिला जब इंकार करती है
तो उसका पूरा शरीर इंकार करता है
उसका रोम-रोम
उसकी जागृति,
उसका हृदय,
मन, बुद्धि और आत्मा भी कर देती है इंकार।     
***

ज़ुबान


ज़ुबान काट डाली उसकी
क्योंकि उसने
शारीरिक संबंध रखने से मना कर दिया था
क्या उसे पता नहीं था
महिलाओं के लिए ज़ुबान
केवल खाना निगलने के लिए है
और पुरुषों के सारे अपराध निगलकर
हमेशा के लिए अपने पेट में दबाए रखने के लिए होती है ज़ुबान
***

ज़ुबान

मुझे बहुत चिंता होने लगी है
उसने शारीरिक संबंध बनाने से मना कर दिया
इसलिए उन्होंने उसकी ज़ुबान काट डाली न, तबसे।
छि: ! छि: ! अब उसकी चिंता करने से क्या होगा?
चिंता तो पहले ही की जानी चाहिए थी उसकी
कम से कम उसे तो अपनी ज़ुबान की चिंता करनी थी
मुझे तो किसी और बात को लेकर चिंता है
उस कटी ज़ुबान का क्या हुआ?
कहाँ है वह ज़ुबान?
अरे नहीं,
मुझे ज़ुबान की भी चिंता नहीं
मेरी बात ठीक से सुन तो लीजिए
मुझे डर है
कि
मान लो वह ज़ुबान
किसी मासूम बच्ची के हाथ लग गई हो ग़लती से
और उसने उसे
ख़ुद की ज़ुबान पर चस्पा करलिया तो…
उस ज़ुबान का ख़ात्मा करना ही होगा, सबसे पहले।
***
 
ज़ुबान


काट डाली नराधमों ने उसकी ज़ुबान
नहीं, नहीं उन्हें उसकी ज़ुबान नहीं चाहिए थी
उन्हें चाहिए था उसका पूरा शरीर
पर उसने दिया नकार
अरे, उसमें इतना हो-हल्ला मचाने की क्या बात
उसमें सदमे में आने जैसा क्या है भला
महिलाओं की ज़ुबान वैसे भी
किसी भी उम्र में
कहीं भी, कभी भी काट दी जाती है
कभी जन्म लेने से पहले
तो कभी जन्मते ही उसके साथ मार डाली जाती है उसकी ज़ुबान
बचपन में
लड़कपन में
युवावस्था में
बड़ी उम्र की हो जाने पर
कभी लालच देकर
कभी मुँह बंद कर
कभी डर दिखा कर
बंद कर दी जाती है उसकी ज़ुबान।
शादी के बाद कई बार बेहोश कर दी जाती है ज़ुबान
कभी ज़ुबान जला दी जाती है
कभी खुद ही फाँसी पर झूल जाती है
तो कभी पी लेती है ज़हर।
ऐसा कुछ नहीं हुआ तो
तड़प-तड़प कर मरती है घर-संसार में
मरना ही बदा होता है आख़िरकार ज़ुबान के लिए
ज़ुबान अभी कटी क्या, और बाद में कटी क्या?
उसकी ज़ुबान की आगे भी क्या गारंटी कि वह बचती ही?
***
 
ज़ुबान


माना कि उसने
शारीरिक संबंध बनाने से मना कर दिया
और उन्होंने उसकी ज़ुबान काट डाली
आदि इत्यादि
लेकिन
मेरे सामने कुछ मूलभूत वैज्ञानिक सवाल खड़े हैं
मतलब
युगों युगों से महिलाओं की ज़ुबानें काटी जा रही हैं
उनकी ज़ुबान का कोई उपयोग नहीं
तो डार्विन के सिद्धांत के अनुसार
महिलाओं की ज़ुबान नष्ट कैसे नहीं हुई?

या
छिपकली की पूँछ जैसे कटने पर
छटपटाती रहती है
उसी तरह महिला की ज़ुबान भी कटने पर तड़पती है क्या?
और
इतनी तमाम महिलाओं की ज़ुबानें काट डाली जाती हैं
घर में,ऑफ़िस में
रास्ते पर, स्कूल में
मैदान में, काम पर
लिफ्ट में, टूटी इमारत में
निर्माणाधीन इमारत में,कभी खंडहर में
बगीचे में, पहाड़ पर, जंगल में, गाड़ी में, अस्पताल में
फिल्मों में
फिर वे सारी ज़ुबानें दिखती क्यों नहीं
यहाँ-वहाँ गिरी हुई?
निश्चित ही वे तुरंत नष्ट हो जाती होंगी
वायुमंडल में विलीन हो जाती होंगी
तंदूर में जलकर
पानी में घुलकर
भूमि में समाकर
मतलब महिलाओं की ज़ुबान
बायो-डिग्रेडेबल होनी चाहिए
और
होना चाहिए इस पर भी शोध
कि एक बार कट गई तो दुबारा दूसरी ज़ुबान उगाई जा सकती है क्या?
और
इस पर भी होनी चाहिए खोज
कि किसी एक की ज़ुबान काटने पर
बाकी कई महिलाओं की ज़ुबानें अपने आप
निढाल कैसे हो जाती हैं!
***
अपर्णा कडसकर
जन्म             -  २ अप्रैल १९६८
 
शिक्षा          -  यांत्रिक अभियंता (पदविका)
हिंदी/ मराठी/ उर्दू में लेखन
कवि बलदेव निर्मोही की हिंदी कविताओं का मराठी में ‘समांतर रेखा’ नाम से अनुवाद
कवयित्री माधवी वैद्य की मराठी कविताओं का सय्यद आसिफ के साथ मिलकर उर्दू में भाषांतर ‘पलाश गुल’ नाम से
संस्था हिंदी आंदोलन, माझी गजल, उर्दू साहित्य परिषद पुणे की सदस्य
वाइल्ड सोसाइटी फॉर कॉन्सर्वेशन ऑफवाइल्ड लाइफ एंड फॉरेस्ट की कार्यकर्ता

मचान खाली है - अनिरुद्ध उमट

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बहुत समय कवि-कथाकार अनिरुद्ध उमट से सम्पर्क हो पाया है। उमट ख़ामोशी से काम करने वाले लेखक हैं। यहां छप रहे गद्य के लिए अनुनाद उनका आभारी है। 

 
1

मचान पर जो बैठा है वह शिकार की पतीक्षा में नहीं बल्कि उस क्षण की प्रतीक्षा में है जब उसका शिकार कर लिया जाएगा।

वह जाने कब से वहाँ सांस रोके बैठा रहता है।  वह किसी का  छल से शिकार करने नहीं बैठता।  इस मचान पर उससे पहले भी कई लोग बैठे हैऔर अचूक निशाने और अपार धीरज के चलते वांछित शिकार कर ही गए हैं।
पर यह जो बैठा है उसके पास कोई हथियार नहीं है कोई बचाव का साधन नहीं है, उसके पास सिर्फ अपना आप है जिसे उसने मचान पर बैठा दिया है।  आंधी, बारिश, सर्दी, गर्मी जैसे यहाँ अपना असर खो देते हैं।

एक लेखक अपनी मेज पर इसी तरह बैठ सकता है।

अपने भीतर की हलचलों, स्वप्नों, भय,कुंठा से सना किसी के आगमन की प्रतीक्षा [या भय ] में-----किसी आहट को सूंघता वह बार-बार खुद को टटोलता है कि कहीं किसी तरह की चूक उसे उस क्षण से वंचित न कर दे।

उसकी भाषा एक पतली गली की तरह उसे अपने में पुकारती है।  उस पुकार से बंधा वह बंद दरवाजों, खिड़कियों की गली में प्रवेश कर जाता है।  जब वह सामने देखता है तब दरवाजे, खिड़कियाँ बंद नजर आते हैं पर जैसे जैसे वह आगे बढ़ता है उसकी पीठ देखती है कि दरवाजों, खिड़कियों ने खुद को खोल दिया है।  बंद दरवाजे, खिड़कियाँ उसे आगे खींचते हैं पर उसकी पीठ पर खुले दरवाजों, खिड़कियों का भार बढ़ता जाता है।

किसी क्षण शाम होते-होते वह गली के  किसी मोड़ पर मुंह के बल गिरा पाया जाता है।
उसकी पीठ पर गली भर के दरवाजों, खिड़कियों का ढेर होता है जिस पर एक चिड़िया फुदकती है।
मुंह के बल गिरा वह सांस भी नहीं ले सकता क्योंकि ऐसा करने पर वह चिड़िया भय से उड़ सकती है।

मेरा प्रिय लेखक इसी तरह उस चिड़िया के बने रहने में सांस को कसे रहता है।

मैं जब उसके सामने बैठता हूँ तब वह संकोच और संशय से अपनी नजर उन कागजों पर बैठा देता है जो कुछ कोरे हैं कुछ भरे हैं।  वह चाहता है उसकी नजर उन कागजों पर उसी तरह रह पाए जिस तरह गली में मुंह के बल पड़े व्यक्ति की पीठ पर दरवाजों, खिड़कियों के ढेर पर बैठी चिड़िया रह पा रही है। चिड़िया तो अपने मन से उड़ भी सकती है किन्तु मेरी नजर उन कागजों के ढेर पर एक बार पड़ने के बाद उड़ नहीं सकती।

अजीब सा दृश्य होता है तब, कभी वे कागज उसे खाते हैं, कभी वह कागजों को खाने लगती है।

अरसे बाद ये भी पता नहीं चलता कि कौन किसको खा रहा है।

2
वह उठता है और खिड़की से बाहर देखता है किन्तु खिड़की से बाहर उसे वही मेज और उस पर झुका कोई दिखाई देता है।  वहां भी कोई उसकी मेज के सामने बैठा है।

3
प्रिय लेखक का एकांत अपने पाठक से किसी गूंगे गान या प्रलाप या विलाप की तरह बार-बार कहता है कि वह कुछ देर के लिए उसे अकेला छोड़ दे।  अभी वह तुम से भी अधिक खाली और खोखला है।

उसकी किताबें किसी दुस्वप्न की तरह उसे हर क्षण उसके व अपने अधूरे होने का अहसास कराती ----चिडचिडी सी ------उसे चींधती रहती है।

हर दिन वह अपनी उम्र में देखता है भाषा उससे जिस लहजे में शिकायत करती है वह मरने से कम नहीं। जिसे बरसों तक इसी तरह मचान पर बैठ-बैठ उसने अपने अपने को तिल-तिल देते हुए, खुद का भक्षण कराते हुए अपनी आत्मा में मंडराने का अवसर पाया वह भाषा ही एक उम्र बाद अपने अधूरेपन के उलाहने से उसे बींधते रहती है।

मेरा प्रिय लेखक भाषा के उलाहने से बिंधा अपनी नजर में अभियुक्त सा अँधेरे में खुद से छिपता हुआ कुछ लिखता है।
उसकी लगभग समस्त चाह्नाएं सूख चुकी है।
उसकी लगभग समस्त आग बुझ चुकी है।
उसकी लगभग समस्त राख उड़ चुकी है।

अपने ऐसे अकेले प्रिय लेखक के लिए पाठक क्या करे ?

4
एक गली खुलती है जिसमें हर घर के दरवाजे, खिड़कियाँ खुले हैं।  पाठक दोपहर  की तपती धूप में एक घर में प्रवेश करता है किन्तु दूसरे  घर से निकलता है।
कहीं कोई छाया या साया नहीं।  कोई आवाज का सूखा पत्ता नहीं।  वह दिन भर इसी तरह भटकता रहता है।

एक बच्चा उसे दूर से यूं देखता है जैसे वह घरों में भटक नहीं रहा बल्कि किसी किताब को पढ़ता किसी दृश्य में स्थिर हो सूखे पत्ते सा फड़फड़ा रहा है।

वह बच्चा दौड़ कर आता है और उसके कान में कुछ बुदबुदाता है।

बच्चा देखता है उसका कहा गया किसी के कान में पथरा गया है।  वह रुआंसा-सा उलटे पाँव गली से बाहर भागता है।
गली से बाहर भागता वह किसी किताब से बाहर भागता दिखाई देता है।

भाषा उस दिखने में खुद को मरते देखती है।

5
मेरे घर में ढेरों किताबें थीं लेकिन मेरी पहुँच से परे।
मेरे घर में बहुत सी किताबों की गंध में मेरे पिता की आवाज थी।

किसी दिन उन्होंने सारी किताबो को छत पर धूप में बिछा दिया।  धूप सेकती उन किताबों के उस दृश्य को देखता एक दिन मैं देख रहा था कि दीमकों ने उन्हें कुतर डाला है।  उनकी रेत में पिता की भीगी आँखे थीं जिन्हें मैं जीवन भर फिर भूल नहीं पाया।
एक दिन जब भरी दोपहर मेरे पिता खुली आँखों इस दुनिया से चले गए तब से मैं इस चिंता में जाने क्या-क्या जतन करता रहा कि वे अपनी उदास आँखें मूँद लें।

भाषा और पिता ने अपने मरने की आवाज भी नहीं होने दी।

6
प्रिय लेखक के एकांत की गुहार अरसे बाद मेरे गले से फूटने लगी।
मैंने ईश्वर से कहा मेरा पाठक कोई न हो कम से कम इतना रहम कर दो।
ईश्वर ने बेरहमी से मेरा कहा अनसुना कर दिया।

अपने कंधे पर जल से भरा घड़ा लिए मैं जाने कहाँ खुद को जाते देखता हूँ।

मेरी मेज पर एक भी सूखा कागज नहीं बचा है।

मेरे कमरे में रखे घड़े का  सूखापन बताता है कि उसमें जल भरे जन्मों हो गए हैं।  मेरे कमरे में दीवारों पर लगे फ्रेम में कोई तस्वीर नहीं।  केलेंडरों में कोई तारीख नहीं।

फिर भी एक भय जो मरा नहीं देर रात बिना दस्तक दिए वह पाठक की शक्ल में मेरी मेज के उस तरफ आ बैठता है।
वह कहता कुछ नहीं। अपलक मुझे देखता रहता है।  उसके पास एक झोला होता है जिसमें जाने कितने मुखौटे होते हैं। वह कुछ देर बाद एक-एक कर वे  मुखौटे मेरी मेज पर रखता रहता है।  मेरी मेज पर उन मुखौटों का ढेर लग जाता है।  अब हम एक-दूसरे को नहीं देख पा रहे थे।  उस ढेर पर हमारा न देख पाना गुमसुम सा बैठा था।
उस तरफ वाले को खबर न हो मैं इस तरह से उठता और दूसरे  कमरे में चला जाता जहां मेरे न लिख पाने के सारे पिछले दिन इधर-उधर बिखरे पड़े रहते हैं।
उधर उस तरफ बैठा भी उसी तरह उठता और मुझे खबर न हो उस तरह मेरे पीछे आ खड़ा होता।
उसका खड़ा होना मेरी पीठ पर लद जाता।  और मैं उस बोझ से मुंह के बल गिर जाता।

7
कोई सुबह है ।  नहीं है।  कोई वीरान दोपहर है।  नहीं है।  कोई बोझिल शाम है।  नहीं है।  कोई मारक रात है।  नहीं है। नहीं होने में कुछ होने का भीगा सा कंपन है।  वह एक-एक परत उतर रहा है।
लेखक और पाठक एक-दूसरे के पूरक नहीं।
दोनों में से कोई एक रहेगा।  एक है कोई जो दूसरे की चाहत से सना है वह उसे मार देगा।  वह जानता है जीवित रह कर वह उसका नहीं हो पायेगा।
एक कहेगा यह सैरगाह नहीं है।
दूसरा कहेगा यह मरघट है।
एक कहेगा यह मैं नहीं हूँ।
दूसरा कहेगा वह मैं नहीं हूँ

कोई छाया का गुट्ठल  है।

8
प्रिय लेखक के तपते ललाट पर किसी की तपती हथेली है।
कोई कहेगा तुम लिख लो।
वह कहेगा तुम मुझे लिखने मत दो।

9
जब किताबों को बहुत पढ़ा जाता है तब वे अनपढ़ी रह जाती है।  कुछ को लेखक कभी नहीं चाहता कि पढ़ा जाए वही बार बार पढी जाती है।

10
हर बार प्रिय लेखक पाठक को अपना-सा होने का वहम देता है।  कोई पाठक लेखक को अपना प्रिय होने का वहम नहीं दे सकता।

11
कोई देह मात्र रह जाता है इधर से उधर धकियाता।  ठेलता।

12
भाषा बरसों में कभी किसी दुर्लभ-मारक क्षण इस दृश्य को पीती है।  उसकी अतृप्ति जन्मो की सी लगती है।  जिसे पीया जा रहा है वह बरसों का अभागा लगता है।

13
किसी घर को मुखोटों का अंधड़ अपने में लील लेता है।
सुबह वहाँ कुछ नहीं पाया जाता।

14
उस कुछ नहीं की जगह पर कुछ न होने का विस्मरण पसरा होता है।

नहीं कोई कथा नहीं।

15
किसी को कोई, किसी का हाथ थामे, कंधे पर हाथ रखे ले जाता-सा दीखता है।

16
मचान खाली है।
***

गीता गैरोला की कविताएं

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कई दिन बीते, मैं ढहे हुए नेट की रफ़्तार खोज रहा हूं। कुछ दिन पहले वि.वि. में ईमेल देखे तो पाया कि वहां गीता गैरोला की कई कविताएं हैं। वे हमारी गीता दी हैं, महिलाओं के हक़ के लिए लम्बी लड़ाइयां उन्होंने लड़ी हैं। मैं समाज में उनके काम को पिछले बीस बरस से जानता हूं। 2008 में पहली बार मिला, जानने का ये सिलसिला मुलाक़ात में भी बदला। गीता गैरोला का एक कविता संग्रह 'नूपीलान की मायरा पायबी'अंतिका प्रकाशन से छपा और चर्चा में रहा है। कुछ समय पहले संस्मरण की एक किताब 'मल्यो की डार'समयसाक्ष्य प्रकाशन से आयी है।

अनुनाद इन सभी कविताओं को एक साथ छापते हुए कवि को शुक्रिया कहता है। 


***
1.

जिन्दगी की हदें हैं  मौत
आंसू की हदें हंसी
खुशी की हदें गम है
और पंछी की हदें आसमान
सागर की हदें किनारे हैं
चीखें खामोशी की हद हैं
दिन की हदें रात है
और रातों की हदें दिन

2.
यहां प्रेम करने की मनाही है
फिर भी सब प्रेम में पड़ जाते हैं

3.
इस घर के दरवाजे अदृश्य हैं
ना वो बंद हैं ना खुले हैं
अदृश्य रहना व उनकी असली पहचान है
यहां हर कोई बेखौफ कमरें में जा सकता है
और टकराकर बाहर आ सकता है
बाहर कर सकता है
अनदेखे दरवाजों की पीछे घुप्प अंधेरा है
और छन-छन कर रोशनी भी आती है
ये अदृश्यता की हद है।

4.
चलो सपने बुनें
बदलाव के सपने
आंखों में पुतलियां घूमने के सपने
रूक कर ठहराव के सपने
मजबूत नींव वाली दीवारों के सपने
सफेद कबूतरों के उड़ान के सपने
वक्त की उम्मीदों के सपने
दीवारें टूटने के सपने
चलों सपने बुने।

5.
तू रोज-रोज क्या फटके री
दो बार फटकूं
अपने होने की गाली
अपना मन सहेजूं
चार बार फटकूं सपनों के छिलके
छिलके सहेजूं री
अनकहे लफ्जो की पीर फटकूं
अपना दिन फटकूं री
बार-बार फटकूं देह की निचोड़
तन फटकूं तो मन सहेजूं
वर्जित प्यार का फल सहेजूं
मन का राग सहेजूं री

आदि से अनन्त फटकू
बीजों के गीत सहेजूं री

6.

ये रास्ता ना छोटा है
ना ही अंतहीन है
इसमें जो चलेगा, वहीं जिंदा रहेगा
इस रास्ते के बीचों बीच बने दरबार के
जी हजूरे दरबारी आत्म मुग्ध हैं
दरबार की नींव
सप्त नदीयों के रेत से पूरी गई है
चिरजीवीं होने के अहसास से फूले
दरबारियांें की कुर्सियां/ कलदारों ने तराशी है
ये वक्त के गठजोड़ हैं
ये सियासतों के साथ विरासतों
का खेल है

7.
परछाइयों के स्याह अन्धेरे दौर में
बस जुगनू से चमकते हैं।
ढलते वक्त की नोकों पर
 मोम की तरह जमीं
इनकी खामोश यात्राएं
सन्नाटों को थपथपा रही हैं
आवाजों का वक्त ठिठका अभी है
रास्तों की तलाश जारी है
त्रतुओं के सपनों की आंच
सप्त नदियों की रेत के नीचे
पानियों को समेट रही है।

8.
समय की धार कुन्द है
और राजनीति की धार तेज
आसमान का रंग गहरा सलेटी है
इन गहरी परछाइयों के बीच
तन्त्र दहक रहा है
लोक की रूह
दिन रात के महीन वितांन से तने अम्बर से
ग्रहों की तरह लटक रही है
डरावने चेहरें मिट्टी
के नीचे दबी
दूब की नसों को खोद रहे है
इतिहास की बस्तियां मौन हैं
उनकी  प्रार्थनाएं कसमसा रही हैं
बैचेनियां बहुत निडर हैं
ये सरकते वक्त के साथ
आने वाले वक्त की
 करवटें बदलने की आहट है।

9.
कमरों के ओनों कोनों में
हर सिगांर की महक विचर रही है
आसमान की सीमा पर
 सांझ के बादलों से छनकर आती
चांदनी का बिछौना पसरा है
कुछ भूले बिसरे से नरम सुख
जन्म-मृत्यु की गहन
स्याह गुफाओं की आॅक में
चाँदनी भरकर पी रहें हैं
चांद अपनी परिधि के विस्तार में
नीलकंठ को बांधे है
वर्ज़ित प्रेम के स्वप्न
प्रसव पीड़ा में कराह रहे हैं
दीवारों के कान चैड़े हो गये
फिर भी असीम, गतिमान, अदृश्य चाहतें
प्रेम राग की पीड़ाओं का उत्सव मना रही है

10.
ओ सखी, मैं तेरे घने पेड़ों की छांह में
नन्हें अंकुर की तरह पलना चाहती हूँ
तुझसे गलभइयां भरने के लिए
तेरी धूल-मिट्टी में लोटना चाहती हूं
अपने हिस्से की बारिश का पानी
तेरी जड़ों को पिलाना चाहती हूँ
तेरे पहाड़ तो झपकियां ले रहे हैं
नीला अम्बर तुझ पर औंधा पड़ा है
ओह! तेरी बेबसी पल-पल क्षरित हो रही है
भेड़ों के झुंड के बीच वन-वन डोलती
जौंल्या मुरूली की धुन
तुझे बजानी होगी।

11.
सागर की उत्ताल तरंगें
अकूत पानी को चन्द्रमा की देन हैं
तरंगों के पार
जहां सागर आसमान से मिलता है
सुबह-शाम नारंगी सूरज
शिशुओं की तरह अठखेलियां करता है
धरती प्रसव पीड़ा के बाद मुस्कराती है
सागर के छोर पर तैरते नारंगी गोले का रंग
धरती को अपनी बाँहों में भर लेता है
और सांझ को रूपहला चांद
तभी पानी के साथ, धरती को
 चांदी से लीप देता है
मैं वजू़ करती हूंँ
और सागर के दोनों रंग
मेरी नमाज को
प्रेम और द्वन्द के रेशों में पिरोकर
थपकियां देते हैं।

12.
तुम्हारा प्रेम गाहे-बगाहे चला आता है
कभी यूं ही
राह चलते तुम्हारी अंगुलियों की टकराहट से
यूं ही याद दिलाता हैं
अब कोई गलन नहीं होती
प्रेम की अभिव्यक्तियों से
कोई प्रतीक्षा भी नहीं रहती
मैं अपने ही ताने-बानों में मस्त हूंँ
तुम्हारा प्रेम
मेरे तानों-बानों में कोई दखल नहीं देता
मेरे मन की आकाश-गंगा अब पिघलती नहीं इस प्रेम से
चुप्पी सी बहती है
आकाश में पंछी गाते हैं
भूला बिसरा सा प्रेम का राग
समय के किनारों पर उग आई है झिझक
समय के वेग में उड़ गया है प्रेम कपूर सा
प्रेम जुगनू सा चमकता है अब
मरा नहीं है, मौजूद है यहीं कहीं
अब मुझे प्रेम का चखना मत देना
मैं रोजे से हूंँ
और मेरे सपने बे-गुनाह है
मेरी गुनाह से तौबा है

13.
टोंस जो नदी है
उसकी दो सखियां रूपिन-सुपिन
पानी की निरन्तरता को बनाए हुए हैं
जमुना में मिला है
जमुना के पानी में बहता तिलाड़ी का खून
जमुना और टांेस तिलाड़ी में बहे खून के
इतिहास की गवाह है
टोंस के उद्गम की गवाही
मोनाल देती है
पर तुम क्यों दुबला गयी हो?
रूपिन-सुपिन तो अभी हरी है
उसकी मिट्टी बहते पानी के साथ
इतिहास ढो रही है
इतिहासों का कभी उपसंहार नहीं होता
ये तुम्हारे अपने वक्त हैं
तुम्हारी फसलें उगनी बाकी हैं
जमुना में क्रान्ति बह रही है
लोहे के दरवाजों से टकराती
तुम्हारी टकराहट
बर्दाश्त से बाहर कब होगी।

14.
लो खिला बुरांश
धरती पर काँच सी जमी
 बर्फ के पिघलते ही
ऊंचे पहाड़ों की गहनतम
हरियाली के बीच
खुद के काटे जाने से बेखबर
सुवाओं के मन को रंगता
बसंत के आने की आहट से भरा
ठिठुरते पेड़ों के दरमियान
जंगल की सर्दीली खामोश उदासी को झटककर
लो खिला बुरांश

15.

मां खरीद रही है साड़ी-गहनें
और जाने कौन-कौन सी चीजें
नमी लिए आंखों से मुस्कुराती है मां
चंदन की चौकी पर
पूरती है गणेश का चौक
और कच्ची हल्दी के
महकतें उबटन में मिलाती है
उदास खिल-खिलाहट
मां पूजा के दिए के पास बने एपण में
अपने मन की रेत से
लिखती है बार-बार
आज मैं निर्धन हुई
झरती आंखों की सीली-सी हंसी से मां चुनती है
सेहरे की कलियां
मन ही मन मंत्रों सी दोहराती है
मैं तुम्हें प्यार करती हूं
बस तुम ही मेरा विश्राम स्थल हो।

16.
 उसे छूने के लिए
 हाथ बढ़ाया ही था कि
वो सर्र से सरक गई भीड़ में कही
वहीं हाँ वही तो है
ओह! उसकी वासन्ती दहकती
आभा नीली झक्क आंखें
जिन्दगी की बस्ती में गुम गई हैं
उसकी सहेलीपने वाले वो
सभी दिन जिंदा है अभी भी
वो खिलन्दड़े दिन
एक घन्टा पहले स्कूल में
पहुँच कर चारों सखियां
उगते सूरज के गीत गाती थी
स्कूल की ऊंची दीवार से
लगे हर सिंगार के पेड़ों के नीचे
रात भर झरे
फूलों को बीन कर
अपनी छलछलाती हंसी में पिरो कर/ ब्रह्म मूहूर्त
के अगले पहर
राग भैरवी गाती थी
दीवार के दूसरी तरफ
अपने गाये राग भैरवी और
हर सिगांर की महक से
झुण्ड में जुड़े पक्षियों के वृन्दगान से
अपनी उम्र की टहनी पर बैठे
सपनों की बातें करते थे
बस अभी तो थोड़ा ही सरका है वक्त का पाखी
तुम्हारी वासन्ती दहकती आभा ने
कैसे दम तोड़ दिया
हर सिगांर की महक
और झुण्डों वाले
पाखियों का वृन्दगान
सपनों के आकाशों में अभी तक कुलाचें भर रहा है
नीली आंखों की गहराई में
अंकुरित हर सिगांर की महक दबी है कहीं
 वक्त ही तो सरका है
जीवन अभी बाकी है
हर सिगांर भी है
और रातें उतनी ही गीली है
जुगनू अपने पंखों से छू कर
हर सिंगार को आज भी गिराते हैं
गीली रातों में झरे
हर सिंगार को फिर से
पिरो कर
एक उदद पल रोक लो।

17.
वही रास्ते वही हरियायें पहाड़ों की कतारें
दिन कुछ उदास अनमने से
बारिश की बौछारों से भीगे- भीगे
सरक रहे हैं धीरे-धीरे
सर्पीली काली सड़कों पर दौड़ती हैं
इक्की दुक्की बसें गदेरे का
काँच सा पानी थम-थम के बह रहा है
धुएँ से काली पड़ी टीन की छतों वाले
ढाबे में धुएं की एक लकीर
निरन्तर बह रही है
चाय की चुस्कियां लेने बैठे हम राज जात्री।
थकी हुई पिण्डलियों को सहलाते हैं
चौपड़ों के पीछे वाली पहाड़ी में
 अटका है दूज का चाँद
जिंदगी कुछ अटकी  कुछ भटकी सी
सरकती जा रही है
पर एक पल ठहरे हैं
चौपड़ों के उसी ढाबे में।

18.
इस वक्त जब उम्र
गुजरती जा रही है
प्रेम चुपचाप गहरा रहा है।
मृत्यु पाखी के सफेद नरम
परों के साथ
लीसे की तरह पिघल रहा है प्रेम
वक्त के धागे रोशनियों की
चादर बुन रहे हैं
चांद की खिलखिलाती किरणें
सरकते वक्त कि पन्नों पर
प्रेमराग लिख रही है
गुनगनाती हवायें इबादत में
वक्त के पंछी को रोक रही हैं
सूरज अपनी सुनहरी स्याही से
समूची कायनात में
सुबह लिख रहा है
ये सही वक्त है
जब प्रेम जिंदगी से
पीड़ाओं को फटक रहा है
जिंदगी वनफशा सी महक रही है।

19.
आसमान के बींचो बीच
पैर रोप दिये हैं
हथेली से जकड़ी है, सूरज के रथ की तीलियां
उंगलियों को ठोंक दिया है
धरती की परिधि पर पाताल लोक तक
 मेरी हथेलियों के चारों तरफ
अपनी हथेलियों से
धूप के घेरों को रोक कर
सांझ की छाया फैला दो
अपने हाथों की ओक में
अम्बर का अंश भर कर
गोधूलि के तारे को
प्यार की गीत सुनाओं
और ख्वाबों के विरूद्ध
पनपाए षडयन्त्रों को
सपनों की आंच देकर
विस्तार दे दो।

20.
भूगोल के किसी कोने पर
जहां सीमाओं का अंत होता है
बसती है एक ढाणी
नागोदर फकीर की ढाणी
ढाणी के आखिरी
किनारे से हो जाती है
दूसरी सीमायें शुरू
एक काली सर्पीली सड़क
 एक सीमा के अन्त
और दूसरी सीमा की शुरूआत करती है
हालांकि वो सड़क का आखिरी सिरा
जहां सीमा का अंत है
वहीं से उनकी सीमा का प्रारम्भ होता है।
ये ठीक दो विरोधी बातें हैं
पर है एकदम यथार्थ
सड़क के किनारे बसी
कच्ची रेतीली मिट्टी से बनी
ढाणियों के आकाश में
अक्सर गोला-बारूद की राख
उड़ा करती है
उसे सीमा के अन्त होने वाले
वो राख दाणी के ऊपर ही उड़ती है।
हरी  वार्दियां और बन्दूकों से भरी गाडियां
काली सर्पीली सड़क पर
सीमा के अन्त तक
 हमेशा दौड़ा करती हैं
रेतीले समन्दर में उगी
खेजड़ी के पेड़ों वाली
नागोदर फकीर की ढाणी
डर, भूख और प्यास के आतंक
से घिरी रहती हैं
वर्दी और गोलियां
दाणी की सरहदों के वासी हैं
सरहदों की दोनों सीमायें
ढा़णी के वाशिन्दों की
 पीड़ाओं से मुक्त हैं
उन खेतों के आकाश में
 दोनों सरहदों की
गोलियां का शंखनाद गूंजता रहता है
इस पार से उस पार तक
आकाश में दाणी की अपनी कोई
कन्दील नहीं जलती,
सरहदें उनके विरूद्ध
लगातार फुसफुसाती हैं
ये फुसफुसाहट दोनों ओर की राजधानियों तक जाती है
दाणी के वासी इससे अनजाने रखे जाते हैं।
रेतीले सैलाबों की आंधियों में
बहती आवाजों के सवाल
रकावत की देहरियों पर
सिसकते रहते हैं
नागोदर  फकीर की ढाणी
के वशंज दोनों तरफ
अपने खोए रिश्ते ढूंढते रहते हैं
उनकी आवाजें हमेशा रेत में दबा दी जाती हैं
रेत में दबी जितनी आवाजों के
 कत्ल किए गए हैं
मौजूद रहते हैं हमेशा उनके अवशेष
रहस्य भरी खामोश सरगोशियां
फिजा में हर समय मौजूद रहती हैं
रेतीले सन्नाटों से भरी
सरहदें मुल्कों को बांटती है
पर लोगों को जोड़ती है
वो आहटों को समेटती हैं।

21.
कोई किसी का
दरवाजा नहीं होता
सब अपना रास्ता
बनते हैं
और हां
औरतें आकाश बेल
नहीं होती

22.
चलो कुछ बातें करें
इधर की बातें उधर की बातें
फिज़ूल-सी बातें
आसान-सी बातें
वक्त काटने के लिए
बिना हबड़-तबड़ के
बिना हिसाब लगाए
खुद को छिपाते हुए
बस सांसों को चलाते रहने के लिए
कुछ कहने की
कुछ भी ना कहने की
चलो कोई बातें करें

23.
मैं निकली डेरा छोड़
मैं प्रेम में हूँ
मेरे समय का नहीं है कोई छोर
मैं प्रेम में हूँ
मैं चली अनहद की ओर
मैं प्रेम में हूँ
मैंने ओढ़ी फकीरी दस ओर
मैं प्रेम में हूँ
मैं निकली पिंजरे तोड़
मैं प्रेम में हूँ।

24.
नीलाएं अंबर में छितराई हैं
बादलों की रूई चंदा मामा वाली
 नानी कातेगी सूत बादलों की रूई से
बनाएगी चांद के लिए ढीला सा झंगोला
सूरज के लिए झिर्री वाला ओढ़ना
और तारों के लिए नन्हे- नन्हे कनटोप
कन टोपों के नीचे से
झिप- झिपाई आँखों से
तारे धरती को निहारेगें
वक्त के उलझे धागे को सुलझा कर
आसमान में बनाएगी
एक छोटा सा झरोखा
सूरज के सुनहरे तार,
चांद की रूपहली ओढ़नी
और तारों की झिम-झिम
 नानी के बनाए झरोखे से
छन-छन कर धरती को लीप देगी।

25.
मैंने एक सपना देखा
परिवर्तन का सपना
आँखों की पुतलियां
सपने से चरपरा रही है
पुतलियों की चरपराहर
तोड़ रही है
महलों की ईंट-ईंट
ईटों की खचपचाहते से ही
नींव हिलने लगी है
मेरे सपनों से
निकलकर, उड़ने लगे सफेद कबूतर
मेरे उम्मीदों के कबूतर वक्त से मेरा विद्रोह हैं।


26.
घर बनाती, चिनती
घरों के सपने देखती हैं औरतें
उम्र के चूक जाने के बाद बने
इसी घर में रहती औरतों की कहानियां
घर की नींव में दब जाती है।

27.
खिड़कियों की एक-एक दरार के साथ
दरवाजों के सारे बंद खुलें हैं
खिड़कियों की दरारों से
झाँकती रोशनी की लकीरें
और दरवाजों की दरारों से आती
 पूस की सुरसुरी हवा
गवाही देती है यहां मैं हूँ
यहां मेरी नींदें जागती है
और दिन कविता लिखते हैं
दरारों से छनती धूप की लकीरें
मेरी ख्वाहिशों में खाद डालती हैं
मैं इस घर की नींव में
अपना इतिहास ढूढँती हूँ
दरवाजे और खिड़कियां मेरे हाशिये बनाती है
और पैरों की सरहदंे तप करती है,
मेरा वक्त हाशियां और सरहदों से निर्लिप्त
बसंत की प्रतीक्षा में है।

28.
जब वक्त अच्छा बीत रहा हो
आसमानी रंगते खिड़की दरवाजों से
ढिढोली करती घुसी चली आती है।
काली घनेरी रात में चमकता है
जादुई चांद
तनहाई के रहस्यमई अंधरे कोने
जुगनू से चमकते हैं, गुलमोहर
मेरे हिस्से की तपती जमीन में
चटक चादर बिछातें हैं।
मेरा मौन  बीथोवेन. की सिम्फनी सा थिरकता है

29.
ठिठके बादलों के झुरमुट
के पार उड़ती
हवाओं के धागों को।
बिजली के कणों के साथ
जिंदगी में पिरोना है।

30.
पहाड़ मेरे लिए
सिर्फ पहाड़ नहीं है
चिलकती लू में ठन्डक देने वाला।
या सिर्फ घूमने
और चंद दिन बिताने की जगह
पहाड़ मेरे लिए पिता है।
सिर सहलाने वाला नरम हाथ
और पीठ टिकाने का आधार
वो मुझे कभी खाली
हाथ नहीं लौटाता
वो सहलाता है मन्द-मन्द मुझे
और मेरे ताप वाले दिनों को
हौले से गुजर जाने को रास्ता देता है
पहाड़ अपने बदलते मौसमों
में मेरे लिए लिखता है
प्रेम पत्र
और जीवन मेें उगते रेगिस्तान
को विश्वास से भर देता है।
पहाड़ मुझे अंत के विरूद्ध
अनन्त की लय से जोड़ता है।
पहाड़ केवल पहाड़ नहीं होता
वो मुझे कभी खाली हाथ नहीं रहने देता।
पहाड़ मेरे लिए जिंदगी की तरफ झांकता
आकाश दीप है।
पहाड़ मेरा मायका है और मायके का मतलब
केवल बेटियां ही जानती है।

31.
शाम धुंधली है
बादल चहलकदमी पर है
दिन की देह
शाम की गोद में दुबकी है
पक्षी बसेरे की उड़ान पर हैं
पगडंडी की छोर पर खड़ा
बूढ़ा पीपल का पेड़
सदियों से एक दुनिया को समेटे है
गाँव की बस्तियों की
चहल-पहल में
मौन छिपा है
उदास धुएं की लकीरें
आसमानों के अनन्त विस्तार में
सोने जा रही है
धुंधलाई शाम दोपहरी के
पैंरों के निशानों को सहलाती है
रात की काली बिल्ली
भोर की प्रतीक्षा में है।

32.
वे इतिहास, भूगोल और शब्दों से भरे
पूरे- मकान  मालिक हैं
घोड़े की चालाक दुलत्तियाँ
भी उन्हीं के पास है
हमारे पास बस दुलत्तियों को पहचानने
की परख है
और उन्हें मुखौटे लगा कर
अभिनय करना खूब भी आता है
पर वो नहीं जानते
बहुत निर्मम होती है
हवा और पानी की
इकट्ठी मार।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                      

33.
आदम और हव्वा ने
जो फल खाया
उसके बीज से उगे पेड़
विशाल हो गए हैं
औंरतें पेंड़ के फूलों को बालों में गूंथ देती हैं
वे फलों की चोरी करती हैं
उन सबने पेड़ की टहनियों से छतें बना ली हैं।
और वर्नित पत्तों से अल्पना पूरती हैं।
वे फलों को खाती है
चुपके से बीज रोप देती हैं।
और पौधे उगने की
प्रतीक्षा करती हैं।

34.
हरसिगांर की महक पसरी है
कमरों के ओनो कोनो में
धरती के ओर छोर में
सांझ के बादलों से छन कर चांदनी बिछौना
बिछाये है
कुछ भूले बिसरे से नरम सुख
जन्म मृत्यु की गहन
दुरूह गुफाओं की ओक
में चांदनी भर कर पी रहे हैं
चांद अपनी परिधि के पिंजरे में
नील कंठ को बांधे है
ऋतुओं के स्वप्न वर्जित  प्रेम
की प्रसव पीड़ा में कराह रहे हैं
दीवारों के कान चैड़े हो गए
सीमाओं से असीमता के बीच
खिचें अदृश्य धागे
प्रेम राग की चाह में
पीड़ाओं का उत्सव मना रहे हैं।

35.
मैं दुनिया की उन तमाम औरतों की कथा लिखना चाहती हूँ।
जो बेबस है, लाचार है, भूखी है, नंगी है।
जो शिकंजों में जकड़ी है
जिन्होंने शिकंजों की अपनी सीमाएं बना लिया हैं।
मैं उन शिकंजों के नापना चाहती हूँ
जिनके अन्दर रिश्तों के रेशों में उलझी
वो अपना छप्पर बुनती हैं।
मैं दुनिया की उन सारी औंरतों की
गूँगी आवाजों की बगावत को
क्राँति की लय में गूँथ देना चाहती हूँ
उन सारी औरतों का
इतिहास लिखना चाहती हूँ
जो अनेक खाँचों में बंटी
अपनी अदम्य जीवन शक्ति से
धरती के अन्तिम छोर तक
अपनी जन्म कथा लिखने को बैचेन है
तिनका-तिनका बिखरी उनकी सांझी
संवेदनाओं को सफेद कबूतरों की नस्लों में
बदल देना चाहती हूँ।
उन तमाम औरतों की सांझी चेतना को
आदिम षड़यन्त्र के
सनातन रहस्य लोक के
विरूद्ध खड़ा करना चाहती हूँ

36-
पहाड़ जब तक रहेंगें
तब तक रहूँगी मैं
जब तक रहूँगी मैं
तब तक रहेंगे पहाड़
पहाड़ में रहते हैं पेड़, पौधे, पशु, पक्षी
मिट्टी पत्थर आद पानी, आग और प्रेम
मुझमें रहता है खून, हड्डियां
राख, पानी, नफरत और पे्रम
हम दोनों एक हैं
पर हमें
एक दूसरे के विरूद्ध कर
दिया गया है
मैं पहाड़ को जलाती हूँ
काटती हूँ
खोदती हूँ
और पहाड़ मुझे
पहाड़ फिर-फिर उग आते हैं
और मैं भी बार-बार जन्म लेती हूँ
जब तक रहेगा काटने, कटते जाने का रिवाज
पहाड़ और मैं
एक दूसरे के सामने खड़े रहेगें।
ना पहाड़ खत्म होगें
और ना ही मैं
इस खुले हुए युद्ध क्षेत्र में
हम दोनों एक दूसरे को
जिन्दा रखने का युद्ध
एक साथ लडे़गें।

37. 
कौन कहता है
मुझे कविता लिखनी नहीं आती
जब मैं घर के ओने-कोने
में पोछा लगा रही होती हूँ
पोछे से धूल साफ करते ही फर्श पर
कविता की पंक्तियां बिखर जाती हंै।
जब मैं आंगन को
रगड़ -रगड़ कर धोती हूँ
झाडू की हर सींक के साथ
मेरे मन में छिपी ढेरों कहानियां
 शब्द-शब्द  आंगन में बिछ जाती हैं
जब मैं रोटी बेलती हूँ
बेलन की हर गोलाई के साथ
धरती से आकाश की गोलाई नाप देती हूँ
जब मैं बर्तन मांजती हूँ
जूने की हर रगड़ के साथ
जीवन की रागनियां बजती रहती है
जब मैं छाती उघाड़ कर अपने बच्चे को दूध पिलाती हूँ
ब्रह्माण्ड की अनन्त गतियों को सहलाती हूँ
गर्भावस्था के दौरान जब मैं
अपने शिशु को गर्भनाल से अपना
खून पिला कर पाल रही होती हूँ
तो मेरे चेहरे का वात्सल्य
आसमान पर संगीत लिख रहा होता है
मैं आदि लोरियां बना रही होती हूँ
जब मैं कपड़े धो रही होती हूँ।
और पानी में छाल-छाल कर
निचोड़ रही होती हूँ
तो जीवन के सारे दुख छटक रही होती हूँ।
झाडू, जूना, थपकी, पौछा,
करछी, बेलन, पतीली, कढ़ाही
ये सब मेरे रचना संसार
की निधियां हैं
कोई नहीं मानता पर
इस सृष्टि चक्र में समस्त
रचनाओं की रचनाकार मैं हूँ।
***







नवनीत पांडेय की दो कविताएं

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आप क्या जानो!

मैंने मजदूरों पर कविता लिखी
सोचा 
अपने घर चल रहे कमठाणे पर
बरसो पुराने परिचित
ईंटे ढो रहे मजदूर
चिनाई कर रहे कारीगर
जिन्हें मालूम था मैं कवि हूं
और जो बात बात में कहते थे
बाबू जी! आप को कुछ नहीं पता
आप तो कविता लिखो!
जा के सुनाऊं

मुझे सब पता है...
तुम लोग दिन भर काम में पचते हो
दो पैसे कमाते हो
दो रोटी जितना जुगाड़ के बाद
सारे पैसे दारु के ठेके पर उड़ा देते हो

वे हंसे- यही लिखा है कविता में?
यही दिखता है फिल्मो में!
पर क्यूं होता है ऎसा
कभी किसी ने जानने की कोशिश नहीं की

हमारी कहानियां, कविताएं 
आप लोग बहुत लिखते हैं दिखाते हैं
आप क्या जानो!
दिन भर पचने के बाद 
हाड़ मांस के इस शरीर को 
अगले दिन पचने के लिए
किस किस भट्टी में कैसे तपाते हैं
आप लोग तो सिर्फ दारु देखते, दिखाते हैं
आज तक किसी ने 
हमारी ज़िंदगी जीने की कोशिश नहीं

मैं कोई उत्तर नहीं दे पाया
अपनी लिखी कविता बिना सुनाए
उल्टे पांव लौट आया....
***


किसका समय...
 
यह किसका समय है
इस बारे में कोई मतैक्य नहीं
जिससे भी पूछो, बात करो
अपना राग अलापता है
भक्त कहते हैं 
हमारा समय है
कारोबारी-दलाल कहते हैं 
हमारा समय है
नेता, मंत्री, व्यवस्था कहती है
पूछना क्या है 
हमारा समय तो 
हर समय रहता है
किसान कहते हैं 
हमारा नहीं
केवल कुछ पहुंचे हुए 
किसानो का है
मजदूरों से बात करते हैं तो
वे उदास हो जाते हैं
समय हमारा तो कभी था ही नहीं
समय तो यूनियन के नेताओं का है
लिखने- पढ़नेवालो के हाथ भी
समय कभी आया हो, याद नहीं
सिर्फ धर्म, हत्यारे, दंगाई और बाहुबली
और मीडिया वाले कॉलर ऊंचा कर
फड़फड़ाते हैं
समय तो हमेशा ही हमारी मुठ्ठी में था
है, और रहेगा.....
***

शैलेश मटियानी के उपन्यासों में वैयक्तिक जीवन मूल्य - मीरा चौरसिया

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‘‘शैलेश मटियानी के उपन्यासों में वैयक्तिक जीवन मूल्य‘‘
               
                वर्तमान समय में व्यक्ति नितांत अकेला होता जा रहा है। परिवार में नहीं भीड़ में भी वह स्वंय को अकेला ही पाता है, अकेलापन उसकी अनिवार्य नियति बनती जा रही है। इसी कारण वह न समाज से जुड़ पा रहा है और न न किसी व्यक्ति से।
                आधुनिकताजन्य भौतिक जीवन दृष्टि के कारण व्यक्ति में केवल निराशा और भटकाव ही देखने को मिलता है। वह नितांत स्वार्थी होता जा रहा है। आज व्यक्ति केवल वहीं जुड़ना चाहता है जहाँ से उसे लाभ प्राप्त हो। वर्तमान समय पर व्यक्ति कदम-कदम पर नयी-नयी समस्याओं से जूझता और टूटता दिखाई पड़ रहा है। धर्म, ईमान, सदाचार सभी कुछ बिक रहा है। आज व्यक्ति का हाल यह है कि कोई मूल्यों के टूटने पर दुःखी हैं तो कोई इन्हें तोड़कर।
                आजादी पश्चात् हमारे देश में हर क्षेत्र में विकास तो हुआ है या कहा जा सकता है कि देश में खूब तरक्की की है। लेकिन तरक्की के साथ-साथ व्यक्ति धीरे-धीरे अपनी मानवता को भी खोता जा रहा है। पैसे का भूत व्यक्ति के सिर पर इस कदर हावी होता जा रहा है कि वह सिर्फ अधिक से अधिक धनवान बनना चाहता है। भले ही उसके लिये उसे किसी के घर में डाका डालना पडे़ या खून करना पड़े, इस बात की उसे कोई परवाह नहीं है कि पैसा कमाने के लिये वह पशुत्व स्तर तक नीचे गिरता जा रहा है।
                ‘उत्तरकांडउपन्यास में तारी मास्टर कहते है
                ‘‘एक जमाना था, पूरे अल्मोड़ा जिले में जिसमें पिथौरागढ़ भी शामिल हुआ करता था। दस पांच साल में जोरू, जमीन, जायदाद के झगड़े में किसी के मारे गये होने की खबर सुनाई पड़ती थी। आज एकाध खून खराबा इस बिता भर भंैसियाछाना में आम बात हो गयी है‘‘
                पैसा कमाना बुरी बात नहीं है लेकिन नाजायज तरीकों से धन कमाना उचित नहीं कहा जा सकता है, अपने आदर्शों को ताक पर रखकर व्यक्ति भले ही खूब धन कमा ले, लेकिन समाज के लिये वह कभी प्रेरणा स्रोत या मिसाल नहीं बन पाता। समाज में तो वे ही व्यक्ति प्रतिष्ठा पाते हैं जो सच्चाई, ईमानदारी, त्याग की भावना से ओत-प्रोत होते हैं, अपने सद्चरित्र से वे संसार को आलोकित करते हैं।
                यह आदर्शउत्तरकांडउपन्यास में स्थापित हुआ है।
                ‘उत्तरकांडउपन्यास से पुरूषोत्तम सेठ तरह-तरह से नाजायज धंधों से धन एकत्रित कर धनवान बन गया है। उसकी दूसरी पत्नी के दोनों बेटे भी अपने बाप के नक्शे कदम पर चलकर पतन की ओर अग्रसर हो चुके हैं, जबकि पहली पत्नी का बेटा अपनी अच्छाइयों के कारण पूरे गांव में प्रशंसा का पात्र बना हुआ हैं, अपने कर्मों के बल पर मानव उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है।‘‘
                त्याग की भावना ही व्यक्ति को मनुष्यता के ऊंचे शिखर पर आसीन करवाती है। भारतीय समाज में औरत में यह त्याग की भावना अधिक देखी गयी है। घर परिवार की खुशी के लिये औरत बढ़े से बढ़ा त्याग करने के लिये तत्पर रहती है। भले ही त्याग करने में उसकी उपेक्षा क्यों न हो।
                ‘उत्तरकांडउपन्यास में पुरूषोत्तर सेठ अपनी पत्नी के त्याग के समक्ष नतमस्तक हो उठते है। जिसने दो बेटे और दो दो बेटियों के रहते स्वंय का शरीर छीजने पर पति को दूसरी पत्नी ले आने के लिये प्रेरित किया, ताकि पति को पत्नी की कमी महसूस न हो, दूसरी पत्नी के बेटे पर भी उसने अपने बच्चों से अधिक ममता न्यौछावर की‘‘
                वर्तमान समय में व्यक्ति किस तरह अपनी मानवता को खोकर हैवान बनता जा रहा है। इसेउत्तरकांडउपन्यास में देखा जा सकता है। शहर जाते हुये प्रेमराम की बुलेट से दबकर एक कुत्ते के पिल्ले की मौत हो जाती है, लेकिन फिर भी उसे तनिक भी पश्चाताप नहीं होता वह अपनी पत्नी से कहता है।
                ‘‘हर काम के उसूल होने वाले ठहरे, डियर! ड्राइवरी का उसूल ये ठहरा कि अगर कुत्ता रास्ते में आ जाये, तो उसे बचाने के चक्कर में गाड़ी को इधर-उधर निकालने की कोशिश हर्गिस मत करो‘‘
                जानवर मरता है तो मरे, लेकिन व्यक्ति के उसूल न टूटे, अपने मनोरंजन के लिए कैसे व्यक्ति जानवर के प्राण ले लेता है, इस कटु यथार्थ को उपन्यास में दर्शाया गया है।
                आदर्श अध्यापक कैसे छात्रों के लिये प्रेरणा स्त्रोत बना जाते हैं इसेनागवल्लरीउपन्यास में देखा जा सकता है। जिस प्रकार अंधकार में दीपक की लौ प्रकाश फैला देती है, वैसे ही आदर्श गुरू का मार्गदर्शन छात्र के जीवन को आलोकित करता रहता हैं, ‘नागवल्लरीउपन्यास में आदर्शवादी कृष्ण मास्टर को पग-पग पर अपने गुरूओं की स्मृति हो आती है, जिनके दिखाये रास्ते पर चलकर ही कृष्ण मास्टर स्वंय भी बच्चों के आदर्श अध्यापक बन पाये हैं। अपने गुरू द्वारा छात्रों के विषय में कहीं मूल्यवान बातों के सम्बन्ध में कृष्ण मास्टर मथुरादत्त भट्ट जी से कहते हैं।
                ‘‘मुझे जोशी गुरूजी की यह बात भी बहुत मूल्यवान लगती है कि ज्ञान का बीज विद्यार्थियों में, जैसे किसान समर्पण भाव से बीज बोता हैं, बोते ही जाओ, किसमें उगेगा, किसमें नहीं यह चिन्ता छोड़ो, उगता है तो परमात्मा को श्रेय दो, नहीं उगता है तो अपने को दोष दो, जैसे पुत्र के प्रति पिता, वैसे ही छात्रों के प्रति अध्यापक जिम्मेदार होता है‘‘
                अध्यापक को पूर्ण निष्ठा और लगन के साथ अपने कर्त्तव्य की पूर्ति करनी चाहिये, उसका व्यवहार सभी छात्रों के साथ एक समान होना चाहिये। छात्र यदि अपने कर्म के प्रति लापरवाही बरतता है तो इसका दोष उसे नहीं दिया जा सकता, इसके लिये कहीं न कहीं अध्यापक ही दोषी होता है।‘‘
                ‘‘नागवल्लरीउपन्यास में कृष्ण मास्टर अपने छात्र-नारायण से कहते हैं‘‘सच्चाई और अच्छाई के संघर्ष में सहना होता है। उन सारी तकलीफों को जो इनको समाज में बरतने से सामने आती है। जो लोग तकलीफों और मुसीबतों के डरकर सच्चाई और अच्छाई बरतना छोड़ देते हैं, सच्चाई उन्हें ऐस ही छोड़कर चली जाती है। जैसे जमीन पर गिरे पेड की पक्षी छोड़ देते हैं।’’
                वर्तमान समय में व्यक्ति की स्वार्थपरता उस पर इस कदर हावी होती जा रही है कि वह सिर्फ  अपने ही स्वार्थों की पूर्ति के नये-नये तरीके खोजने में लगता रहता है। अपनी उदरपूर्ति तो पशु भी कर लेता है। लेकिन दूसरों के लिये व्यक्ति ही सोच सकता है। इस संबंध मेंनागवल्लरीउपन्यास में कृष्ण मास्टर कहते है-
                ‘‘सबसे बड़ी चीज होती है अपने भीतर इस अहसास का जागना कि हमें जीवन में कुछ करना हैं, कुछ ऐसा, जो दूसरों के काम आये, पहले तो बहुत से लोग धन भी इसी भावना से जोड़ते थे, अब ज्ञान भी सिर्फ अपने लिये रखना चाहते हैं- सिर्फ अपने इस्तेमाल के लिये‘‘
                कोई अगर कहे कि सारा समाज ही भ्रष्टाचार में डूबा हैं, हम स्वंय को कैसे बचा सकते है, तो इसे सिर्फ हास्यापद ही माना जायेगा, क्योंकि यदि व्यक्ति चाहे तो अपने आदर्शों पर अडिग रहा सकता है।
                ‘नागवल्लरीउपन्यास में मथुरादास भट्ट जी के कहने पर कि -
                ‘‘कोई आदर्श रखकर चलना भी चाहे तो अधिक दूर तक निभने की गुंजाइश कहा है?
कृष्ण मास्टर कहते हैं-
‘‘हम अपने विषाद को कम करने के लिये भले ही कहे कि अब वह पुराना वक्त कहां, मगर आदमी तो आखिर आदमी है ----
‘‘नागवल्लरी उपन्यास में नारायण को अपने प्रेरणास्रोत अध्यापक कृष्ण मास्टर की स्मृति हो आयी। जिन्होंने अपने अमृत वचनों से सदैव नारायण को नेक इंसान बनने के लिये प्रोत्साहित किया है।
                ‘‘आस्था हर परिस्थिति में शरीर में रक्त की तरह बहती है। आस्था से ही आदमी तुच्छता में से उबरकर बड़ा बनता है, यह सबक उसके कानों में कृष्णा मास्टर ने ही तो डाला है।
हमारे समाज में धीरे-धीरे इतनी विकृतियाँ आ रही हैं। कि व्यक्ति अपनी इंसानियत खोता जा रहा है, ऐसे व्यक्ति विरले ही देखने को मिलते हैं, जिसमें इंसानियत देखी जा सकती हैं, वर्तमान समय की इस स्थ्तिि की यथार्थता पर छोटे-छोटे पक्षी उपन्यास में रिक्शेवाला प्रकाश डालते हुए कहा रहा है कि -
                ‘‘यह बात वैसे बहुत पुरानी सी पड़ गयी है सरकार! आज का तो वक्त ही ऐसा आ गया है कि जितना इंसान बदी करने मेें नहीं झिझकाता, उससे ज्यादा नेकी को सिर्फ बताते हुए ही डरता है‘‘
                समाज में जहाँ एक ओर स्वार्थी, लोभग्रस्त व्यक्ति होते है, वहीं दूसरी ओर परोपकारी निःस्वार्थी लोगों की भी कमी नहीं है, जो अन्जाने में भी किसी का बुरा न हीं करना चाहते।छोटे-छोटे पक्षीउपन्यास में सतीश से सामान्य परिचय होने के बावजूद मुल्कराज दम्पत्ति, घर से भागकर प्रेम विवाह करने दिल्ली आये, सतीश और दीक्षा के साथ आत्मीयतापूर्ण व्यवहार करने के साथ ही उन्हें आश्रय के भी देते है।
                ‘‘अब यह सोचकर ही डर लगता है कि कहीं बाहर ही न निकली होती, या देखकर भी चले जाने देती, तो कितना बड़ा पाप हो गया होता, वापस लौटते हुये सिर्फ इतना ही नहीं होता कि तुम लोग ज्यादा परेशान और ज्यादा दुःखी होते दुःख और मुसीबत से ज्यादा आदमी को इस बात का अहसास तोड़ता है कि उसकी तकलीफों से दूसरों का कोई वास्ता नहीं है।‘‘
                जिस व्यक्ति को ममता नहीं मिलती या जो ममता प्राप्त करने से वंचित रह जाता हैं उस व्यक्ति में निश्चित ही कहीं न कहीं पाश्विक वृत्तियां आ जाती है। ममता मूल्य के महत्व के सबंध मेंभागे हुये लोगउपन्यास विघ्नेश्वर बाबा कहता है-
                ‘‘मनुष्य जाति को मर्यादित और पाश्विक वृत्तियां को अनुशासित कर सकने वाली अगर कोई शक्ति है तो यह सिर्फ ममता है‘‘ संघर्ष मनुष्य जीवन की एक अनिवार्यता है बिना संधर्ष के व्यक्ति कभी कुछ नहीं पा सकता है। इसलिये व्यक्ति को संघर्ष से घबराना या मुंह नहीं मोड़ना चाहिये, यह आदर्शबोरीबली से बोरी बंदर तकउपन्यास में देखा जा सकता है। वीरेन्द्र ठाकुर सोचता है-
                ‘‘हर फूल महकना चाहता है-- हर इंसान जीना चाहता है -- हर जिन्दगी मुस्कुराना महकना चाहती है-- फूल की महक कांटो की चाहरदीवारी लांघने पर उपलब्ध होती है-- प्यार की महक जीवन में गतिरोधों की चाहरदीवारी लांधने पर ही मिलनी संभव है-- कांटो से परे फूल का, संघर्ष से परे जीवन का कोई मूल्य शाश्वत नहीं है‘‘
                निष्कर्ष रूप में कहां जा सकता है कि मटियानी जी ने अपने उपन्यासों, कहानियों व अन्य साहित्य में यथार्थ को प्रतिष्ठित करने का सफल प्रयास किया है। समाज में वैयक्तिक मूल्यों की जो स्थिति उनके समय में रही है। उसी को उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर अपने साहित्य में उभारा है। परम्परागत भारतीय मूल्यों के विघटन के साथ ही शाश्वत मूल्यों के हास की स्थिति भी मटियानी साहित्य में देखने को मिलती है। भौतिक समृद्धि के लिये लालपित व्यक्ति धीरे-धीरे अच्छे बुरे का विचार ही खोता जा रहा है। मूल्य परिवर्तन तथा मूल्य विघटन की जो स्थिति समाज में कायम है उसका यथार्थ चित्रण मटियानी जी ने अपने साहित्य में किया है, व्यक्ति अपने आदर्शो के कारण ही महान बनता है, कोई महात्माओं का उदाहरण देकर आदर्शवादी व्यक्ति बनने के लिये भी साहित्य के जरिये मटियानी जी ने पाठकों को प्रोत्साहित किया है, वैयक्तिक मूल्यों की रक्षा के लिये ही अपने हितों का बलिदान करने वालें लोगों का जिक्र भी मटियानी जी ने अपने साहित्य में किया है। परिस्थितियों के बीच पिसते विवश मानव की पीड़ा को साहित्य के माध्यम से जनसाधरण तक पहुंचाना ही मटियानी जी का प्रमुख उदेद्श्य रहा है।

                                                                                                                मीरा चौरसिया
                                                                                                                 प्रवक्ता हिन्दी
                                                                                                   चमन लाल महाविद्यालय, हरिद्वार
                                                                                                            मो0- 8864821223

मेरी ओलिवर की कविताएं : चयन एवं अनुवाद - यादवेन्द्र

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935 में जन्मी मेरी ओलिवरअमेरिका की लोकप्रिय कवि हैं - न्यूयॉर्क टाइम्स ने उन्हें अमेरिका की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली कवि माना है। मुख्य तौर पर मेरी ओलिवर को प्रकृति का चितेरा माना जाता है - अनेक समीक्षक इसको उनकी शक्ति मानते हैं पर स्त्रीवादी उनकी रचनाओं की आलोचना भी करते हैं। अमेरिका के सम्मानित नेशनल बुक पुरस्कार और पुलित्ज़र पुरस्कार सहित अनेक सम्मान उनकी रचनाओं के लिए प्रदान किये गए हैं। उनके तीस के करीब कविता संकलन और कुछ निबंध संग्रह  प्रकाशित हैं। 

मेरी ओलिवर को कुत्तों से बहुत लगाव है और उन्होंने उनको विषय बना कर  अनेक चर्चित कवितायें लिखी हैं। वे कहती भी हैं :"कुत्ते स्वयं किसी कविता की तरह होते हैं ... वे न सिर्फ़ हमारे प्रति समर्पित होते हैं बल्कि भीगी रातों को , चन्द्रमा को और घास में बसी हुई खरगोश की गंध को भी समर्पित होते हैं .... यहाँ तक कि खुद के यहाँ वहाँ उछलते बदन के प्रति भी।"  2013 में पेंगुइन से प्रकाशित "डॉग सॉंग्स"कुत्तों के साथ उनके गहरे भावनात्मक रिश्तों को परिभाषित करने वाला बेहद लोकप्रिय संकलन हैं। 

यहाँ उनकी ऐसी ही कुछ कवितायें प्रस्तुत हैं  (यादवेन्द्र) : 



कुत्तों को ख़ुशी से उछलता कूदता देख कर हमारी भी ख़ुशी बढ़ जाती है .... यह कोई  अनदेखा कर देने वाली मामूली बात नहीं है। और सिर्फ़ यही एक बात नहीं है जिसके कारण हम अपने जीवन में शामिल ....  या सड़क पर जीवन बसर कर रहे .... या कि आने वाले दिनों में जन्म लेने वाले कुत्तों को सम्मान दें या प्यार करें - कल्पना करें हमारी दुनिया में यदि संगीत ,नदी  या हरी मुलायम दूब न हों तो कैसा लगेगा? इस दुनिया से सारे कुत्ते नष्ट हो जाएँ तो हमारा जीवन कैसा होगा?  
*********
कोई कुत्ता आपको नहीं बतायेगा कि दुनिया भर में सूँघ सूँघ कर वह क्या जानता समझता है ... पर उसको  ऐसा करते देख कर आपको यह पक्के तौर पर समझ आ जाता है कि आप लगभग नासमझ हैं। 
**********
स्कूल 

तुम छोटे से जंगली प्राणी हो 
जिसको कभी स्कूल में दाखिल नहीं कराया गया 
मैं कहती हूँ बैठो - और तुम हो कि उछल पड़ते हो 
मैं कहती हूँ यहाँ आओ 
और तुम रेत में कुलाँचे भरते हुए भाग जाते हो 
मरी हुई मछली को उछाल उछाल के खेलने लगते हो 
और अपनी गर्दन में भर लेते हो उसकी सड़ैली गंध .... 
यह गर्मी का मौसम है
एक नन्हें से कुत्ते के पास आखिर ऐसे कितने मौसम होते हैं ?  

दौड़ो पर्सी दौड़ो 
हमारा स्कूल यही है ..... 
************

कुत्ते कितने मोहक 

तुम्हें कैसा लग रहा है ,पर्सी ?
रेत पर बैठे हुए मैं चाँद को उगते निहारने आयी हूँ 
आज पूरा पूरा खिला है चाँद 
इसी लिए हमदोनों आज इसे देखने निकले हैं।

और चाँद निकलता है इतना खूबसूरत 
कि मैं ख़ुशी से बेकाबू होकर थरथराने लगती हूँ
टाइम और स्थान के बारे में विचारने लगती हूँ 
इनके सन्दर्भ में अपने आपको परखती हूँ  
स्वर्ग के विस्तार में रत्ती भर भी नहीं .... 

हम बैठ जाते हैं ,फिर सोचती हूँ 
कितनी खुशनसीब हूँ कि निहारने को मिली 
चाँद की मुकम्मल खूबसूरती 
और ऐसी दुनिया जिसे प्यार करने को मिले
वह भला क्यों न हो जाए मालामाल .... 

इधर पर्सी है कि झुकता जाता है मेरे ऊपर 
नज़रें लगातार टिकाये हुए मेरे चेहरे पर
उसको लगता है मैं उतनी ही अनूठी अजूबी हूँ   
जैसे है आसमान में खिला हुआ चंद्रमा  ........ 
 *******************
रात में नन्हें कुत्ते की बतकही 
                              
वह अपने गाल सटाता है मेरे गाल से 
और निकालता है हल्की पर अर्थपूर्ण आवाज़ 
और जब मैं जागती हूँ 
या जागने को होती हूँ 
वह उल्ट पुलट जाता है 
चारों पंजे हवा में ऊपर 
और आँखें काली जोश से भरी हुई (उत्कट)...... 
"बोलो , मुझे करती हो प्यार", वह बोलता है 
"एक बार फिर से बोलो"  
इस से ज्यादा प्यारी बात और कुछ हो सकती है ?
एक नहीं दो नहीं 
बार बार वह पूछता ही रहता है मुझसे 
और मुझे जवाब देना पड़ता है ....    
****************
हर कुत्ते की एक ही कहानी 

मेरा बिस्तर ... बिलकुल निजी मेरा है 
और यह है भी पूरा पूरा मेरी कद काठी के हिसाब का 
कई बार मैं सोना पसंद करता हूँ अकेला  
सपने लिए हुए अपनी आँखों में। 

पर ये सपने कई बार काले हिंसक और डरावने होते हैं 
और बीच रात मैं जग जाता  हूँ .. थर थर कांपने लगता  हूँ 
ऐसा क्यों होता है कारण भी पता नहीं चलता 
और आँखों से नींद एकदम से उड़ जाती है 
घंटों का फिसलना मालूम नहीं पड़ता। 

जब ऐसा होता है मैं बिस्तर पर उछल कर चढ़ जाता हूँ 
देखता हूँ तुम्हारे चेहरे पर चमक रही है चाँदनी 
मुझे समझने में देर नहीं लगती कि 
सुबह अब होने ही वाली है ....

हर किसी को लगता है 
मिल जाए कोई महफूज़ जगह। 

इमैजिंड कम्यूनिटीज़ - बेनेडिक्ट ऐन्डर्सन : अनुवाद - अनुराधा सिंह

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राष्ट्रवाद राष्ट्रीय उन्माद का रूप धारण करे इससे पहले इस अवधारणा की उत्पत्ति के सांस्कृतिक आधार और इतिहास पर दृष्टिपात करना आवश्यक है
  

इमैजिंड कम्यूनिटीज़ - बेनेडिक्ट ऐन्डर्सन
(राष्ट्रवाद की परिकल्पना की उत्पत्ति के प्राचीन सांस्कृतिक आधार और कारण)

1॰ परिचय

आज हम अचानक, बिना किसी चेतावनी के मार्क्सवाद और मार्क्सवादी आंदोलन के इतिहास में एक आधारभूत परिवर्तन की कगार पर आ खड़े हुए हैं और इसके सबसे स्पष्ट संकेत वियतनामकंबोडिया और चीन के बीच हुए हालिया संघर्षों के रूप में देखने को मिलते हैं। ये सभी युद्ध विश्व इतिहास में दो कारणों से महत्व रखते हैं पहला कि इस प्रकृति के युद्ध पहली बार उन शक्तियों के बीच हुए जिनकी निर्विवाद स्वायत्ततास्वतन्त्रता और राजनयिक मान्यता को साधारणतया चुनौती नहीं दी जा सकती थी। दूसरे,इनमें से एक भी युद्धरत राष्ट्र ने किसी स्थापित मार्क्सवादी विचारधारा के तहत (कुछ छिछले तर्कों के सिवाय) इस जघन्य रक्तपात के औचित्य की व्याख्या करने का उत्तरदायित्व नहीं लिया। एक बारगी चीन-सोवियत सीमा विवाद (1969), सोवियत संघ का जर्मनी में सैन्य-हस्तक्षेप (1953), हंगरी (1956), चेकोस्लोवाकिया (1968) और अफगानिस्तान (1980) जैसे मामलों की प्रासंगिकता को येन केन प्रकारेण ‘सामाजिक-साम्राज्यवाद’ और ‘समाजवाद संरक्षण’ जैसी शब्दावली के माध्यम से उचित सिद्ध किया जा सकता है लेकिन भारत चीन युद्ध के दौरान जो कुछ घटा उसे किसी भी मार्क्सवादी विचारधारा के तहत न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता।    

दिसंबर 1978 में वियतनाम द्वारा कंबोडिया पर आक्रमण और जनवरी 1979 में क़ाबिज़ हो जाने की घटनाएँ पहली बार बड़े पैमाने पर एक बड़ी मार्क्सवादी शासन व्यवस्था की दूसरे के खिलाफ खुल कर छेड़ी गयी जंग का प्रतीक थीं। उसी फरवरी में चीन ने वियतनाम पर आक्रमण करके इस क्रम की अगली पुख्ता मिसाल प्रस्तुत कर दी। कहीं भी आपसी सौहार्द्र और शांति का माहौल नहीं दिखता। अब अधिक से अधिक इतना ही दावा किया जा सकता है कि यदि अंतर्राष्ट्रीय हिंसा भड़की तो सदी के अंत तक केवल दो ही बड़ी मार्क्सवादी शक्तियाँ एक दूसरे का साथ दे रही होंगी – चीन और सोवियत संघ। हम भविष्य को आंक नहीं सकते। हो सकता है कल यूगोस्लाविया और अल्बानिया ही आपस में भिड़ जाएँ। पूर्वी यूरोप के वे देश जो अब अपने सैन्य कैंपों से रेड आर्मी का निष्कासन चाहते हैं उन्हें यह बिलकुल नहीं भूलना चाहिए कि वर्ष 1945 से अब तक इसी रेड आर्मी की कृपा से उस भूभाग के कितने ही मार्क्सवादी राज्यों में संभावित संघर्ष टले है ।

 'द पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना', 'द सोशलिस्ट रिपब्लिक ऑफ वियतनामआदि नाम यही नज़ीर प्रस्तुत करते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हुईं सभी बड़ी क्रांतियाँ किन्हीं न किन्हीं राष्ट्रीय अवधारणाओं और परिभाषाओं में आबद्ध हैं। और ऐसा करके ये मार्क्सवादी महाशक्तियाँ और उनके महान आंदोलन न केवल क्षेत्रीय व सामाजिक सीमाओं में सिमट गए हैं वरन उनकी अवनति पूर्वक्रांतिकाल में हो गयी है। सोवियत संघ ने भी ऐसी ही त्रुटियाँ करके अपनी उस विशिष्ट छवि को हानि पहुंचाई है जिसके अंतर्गत वह यूनाइटेड किंगडम ऑफ ब्रिटेन  और उत्तरी आयरलैंड के बाद इकलौता ऐसा राज्य है जो अपने नाम में राष्ट्रीयता का उल्लेख नहीं करता है। उसने यह सिद्ध कर दिया है कि वह न केवल उन्हीं घिसी पिटी पूर्वराष्ट्रवादी और वंशवादी परंपराओं का गंभीर पोषक है बल्कि इक्कीसवीं सदी की अंतर्राष्ट्रवादी शासन व्यवस्था का अनुगामी भी है।  

एरिक होब्स्बौम ने सही ही कहा है कि "मार्क्सवादी आंदोलन और उन्हें संचालित करने वाले राज्य न केवल अपने बाह्य स्वरूप में बल्कि आंतरिक संरचना में भी पूरी तरह राष्ट्रवादी हैं और यह प्रवृत्ति जारी रहेगी ।"संयुक्त राष्ट्र संघ हर वर्ष नए सदस्यों की भर्ती करता जा रहा है। जैसे ही लगता है कि उसके प्रयासों से पुराने छोटे छोटे राज्यों का विलय एक बड़े राष्ट्र में हो गया हैयह नया राष्ट्र अपनी सीमाओं के भीतर सिर उठाते उपराष्ट्रवाद के असंतोष से घिर जाता है। ये समेकित राष्ट्र एक दिन पुनः सम्पूर्ण स्वायत्त राष्ट्र बनने का सपना देखते रहते हैं। हकीकत यही है कि राष्ट्रवाद के युग की समाप्तिकी भविष्यवाणी कहीं दूर दूर तक सच होती नहीं दिख रही है। बल्किआज तो राष्ट्रवाद सार्वभौमिक राजनैतिक पटल का सबसे वैध सिद्धान्त प्रतिपादित हो रहा है ।

राष्ट्रवाद की अवधारणा के स्पष्टतया तथ्यात्मक होने पर भी उसकी व्याख्या विवाद का मुद्दा रही है। राष्ट्रराष्ट्रीयताराष्ट्रवाद आदि शब्द सरलता से परिभाषित नहीं किए जा सकते। राष्ट्रवाद ने आधुनिक विश्व पर जितना विषम और व्यापक प्रभाव डाला है उसकी तुलना में राष्ट्रवाद के प्रचलित सिद्धान्त और परिभाषाएँ नगण्य हैं। ह्यू सीटन वॉटसन राष्ट्रवाद पर अंग्रेज़ी भाषा के अब तक के सबसे सफल,सर्वग्राही लेखकउदार इतिहासशास्त्री  और समाज विज्ञान की महान परंपरा के उत्तराधिकारीकिंचित खिन्नतापूर्वक कहते हैं, "मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचता हूँ कि 'राष्ट्रकी कोई वैज्ञानिक परिभाषा नहीं निर्धारित की जा सकती। बावजूद इसके राष्ट्रवाद हमेशा से अस्तित्व में था और है।प्रसिद्ध पुस्तक 'द ब्रेक अप ऑफ ब्रिटेनके लेखक, सुविख्यात मार्क्सवादी,इतिहासविद और समाजविज्ञानी टॉम नेयर्न निर्भीकतापूर्वक कहते हैं, 'राष्ट्रवाद का सिद्धान्त मार्क्सवाद की सबसे बड़ी असफलता का प्रमाण है', लेकिन इस प्रकार की साहसपूर्ण स्वीकरोक्ति भी भ्रामक हो सकती है, इससे यह मतलब निकलता है कि इस विषय में अब तक कार्यान्वित सैद्धान्तिक स्पष्टता की समस्त खोज व्यर्थ व सारहीन रही। संभवतः इसकी यह व्याख्या अधिक उपयुक्त है कि मार्क्सवाद के समक्ष राष्ट्रवाद की अवधारणा एक असुखद विसंगति ही है और यही कारण है कि इसका डट कर सामना करने की बजाय इसे दरकिनार किया जाता रहा है। मार्क्स 1848 के नियमन में इसी संप्रत्यय के चलते बुर्जुआ शब्द की व्याख्या करने में असफल रहे हैंवे कहते हैं, "हर देश के सर्वहारा को सबसे पहले अपने ही बुर्जुआ वर्ग के साथ हो रही समस्याओं का समाधान करना चाहिए।एक सदी से अधिक समय से प्रयुक्त शब्दावली 'राष्ट्रीय बुर्जुआका इससे अच्छा प्रतिपादन हम और कहीं नहीं देख सकते। बाद में भी कभी उनकी तरफ से इस विषय में गंभीरतापूर्वक यह स्पष्टीकरण प्रस्तुत करने के प्रयास नहीं हुए कि विश्व भर में उत्पादनसंबंधी आधार पर निर्धारित विशेषण 'बुर्जुआ या पूंजीपतिको अचानक देश या राष्ट्र की सीमाओं के आधार पर कैसे परिभाषित किया जा सकता है ?

मेरी इस पुस्तक को राष्ट्रवाद- एक विसंगतिअवधारणा की संतोषजनक विवेचना और प्रयोगात्मक सुझाव के तौर पर देखा जा सकता है। मेरे विचार से इस विषय पर दोनोंमार्क्सवादी और उदारवादी सिद्धान्त अनुपयोगी और व्यर्थ सिद्ध हो चुके हैंऔर ये इस अवधारणा को बचाए रखने के प्रयास मात्र हैं। यह भी सच है कि इन तथ्यों और सिद्धांतों के पुनरानवेषण की अविलंब आवश्यकता है। इस विषय में मेरा समापक विचार यही है कि राष्ट्रीयता या राष्ट्रवाद  (शाब्दिक अभिप्राय भी निकाला जा सकता है) किसी राष्ट्र के सांस्कृतिक कार्य-कौशल से अधिक कुछ नहीं । इसे भली भांति समझने के लिए हमें यह खोज करनी पड़ेगी कि इस शब्द का ऐतिहासिक दस्तावेजों में समावेश सर्वप्रथम कब हुआकैसे समय के साथ इस अवधारणा का विस्तार और विकास हुआ और क्यों और कैसे इसके पक्ष में इतनी सार्वभौमिक और गहन संवेगात्मक स्वीकार्यता उठ खड़ी हुई । मुझे लगता है कि राष्ट्रवादकी संकल्पना की उत्पत्ति अठारहवीं शताब्दी के अंत में विभिन्न जटिल ऐतिहासिक शक्तियों के संकरण और निचोड़ से हुई थीलेकिन एक बार स्थापित हो जाने के बाद यह अत्यंत  लचीली और प्रसारणीय हो गयी। राष्ट्रवाद के सिद्धांतों को आसानी से दूसरे देशसंस्कृति व काल में  आरोपित किया जा सकता थाये किसी भी क्षेत्र के राजनैतिक या सैद्धान्तिक वातावरण में आसानी से समायोजित हो सकते थे। आगे मैं यह विवेचना करने का प्रयास भी करूंगा कि कैसे महज एक सांस्कृतिक कार्यकौशल ने इस वृहद स्तर पर जनता का गहरा लगाव अर्जित कर लिया। 

राष्ट्रवाद की अवधारणा और परिभाषाएँ

उल्लिखित बिन्दुओं पर विचार करने से पहले आवश्यक है कि राष्ट्रवाद की मूलभूत अवधारणा और एक व्यावहारिक परिभाषा स्थापित करने पर विचार कर लिया जाए। राष्ट्रवाद के सिद्धान्त रचयिता तीन प्रकार के अंतर्निहित विरोधाभासों से यदि कुपित नहीं तो व्यथित अवश्य हुए हैं : 1. एक इतिहासकार के नज़रिये से राष्ट्रों की वस्तुनिष्ठ आधुनिकता बनाम एक राष्ट्रवादी की दृष्टि में राष्ट्रों की व्यक्तिनिष्ठ पुरातनता 2. राष्ट्रवाद की एक सामाजिक सांस्कृतिक अवधारणा की तरह औपचारिक सार्वभौमिकता (कि आधुनिक समय में हर व्यक्ति की एक स्पष्ट राष्ट्रीयता हो सकती है, होनी चाहिए और होती भी है) बनाम इसकी यथार्थपरक घोषणाओं या प्रकटीकरण की निर्वैकल्पिक व्यवस्था और गुण धर्म। उदाहरण के तौर पर ग्रीक राष्ट्रीयता सुई जेनेरिस (विशिष्ट और अनूठी) है । 3. राष्ट्रवाद की प्रचंड राजनैतिक शक्ति और उसकी तुलना में उसका बौद्धिक दारिद्र्य जिसे दूसरे शब्दों में अज्ञान कहा जा सकता है। दूसरे वादों की तरह राष्ट्रवाद में हौब्सटौकवीलमार्क्सवैबर्स जैसे विचारकों की उत्पत्ति नहीं हुई है। यही ‘रिक्तता’ सर्वदेशीय और बहुभाषी विचारकों की संख्या वृद्धि का कारण बनती है । जैसा कि गरट्रूड स्टाइन ने ‘फेस ऑफ ओकलैंडमें भी कहा है, ‘देअर इस नो देअर देअर(किसी व्यक्ति,विचार या वाद में संस्कृति, आत्मा,जीवन और पहचान का अभाव ) अर्थात उनमें किसी भी प्रकार की बौद्धिकता या विचारशीलता का अभाव है । इसी अभाव के चलते टॉम नेयर्न जैसे राष्ट्रवाद के सहानुभूतिपूर्ण अनुयायी भी यह कहने पर बाध्य हो जाते हैं कि, “राष्ट्रवाद आधुनिक प्रगतिशील इतिहास की रुग्णता है इसकी तुलना उस मानसिक विक्षिप्तता से की जा सकती है जो व्यक्ति की सोचने समझने की शक्ति को अपरिहार्य रूप से दुर्बल कर देती हैऔर धीरे-धीरे व्यक्ति मतिभ्रम का शिकार हो जाता है। यह स्थिति मुख्यतः उस धर्मसंकट से जन्म लेती है जो आज समूचे विश्व में लोगों द्वारा स्वयं को निरुपाय समझने से उत्पन्न हो गयी है (इसकी तुलना आप इन्फैन्टिलिस्म- समाज के मानसिक व बौद्धिक विकास में अवरोध से कर सकते हैं)और इस बीमारी का फिलहाल कोई इलाज नहीं दिखता।“

सबसे बड़ी समस्या यह है की राष्ट्रवाद को लोग आवश्यकता से अधिक महत्व दे रहे हैं। क्या ही अच्छा हो कि हम इसे लोगों की आयु और लिंग के समान अध्ययन और विवेचना का एक कारक भर मानें राष्ट्रवाद को फासीवाद या उदारवाद जैसी किसी विचारधारा से जोड़ने से बेहतर है इसे सामाजिक व्यवहार या धर्म जैसा ही एक तत्व माना जाएऔर आवश्यकता से अधिक महत्व नहीं दिया जाए ।

तो ऊपर दिये गए विश्लेषण के आधार पर मैं राष्ट्रवाद की मानव विज्ञान संबंधी यह परिभाषा देना चाहूँगा कि यह एक काल्पनिक राजनैतिक समुदाय भर है और काल्पनिक तौर पर ही यह आरम्भ से सीमित और स्वायत्त दोनों रहा है।“

काल्पनिक इसलिए क्योंकि छोटे से छोटे राष्ट्र के सदस्य भी कभी वास्तविक रूप से एक दूसरे को देख या एक जान नहीं पाते हैं जबकि मानसिक रूप से उनमें से हर एक व्यक्ति राष्ट्रीय एक्य की भावना रखता है। राष्ट्रवाद राष्ट्रों की आत्म चेतना का जागृत होना नहीं है बल्कि यह तो उनका आविष्कार वहाँ करता (गढ़ता) है जहां वे हैं ही नहीं। गेलनर की इस परिभाषा में त्रुटि यही है कि वे यह कहते हुए बहुत चिंतातुर हो जाते हैं कि राष्ट्रवाद झूठे बहाने गढ़ कर स्वांग रचता है”, गेलनर अविष्कार शब्द का प्रयोग ‘धोखेबाज़ी’ और ‘मनगढ़ंत कल्पना’ के लिए करते हैं जबकि दरअसल वह अन्वेषण और सृजनात्मकता को दर्शाने वाला शब्द है। विश्व में सच्चे और यथार्थवादी धरातल पर बने कुछ मौलिक समुदाय भी हैं जिन्हें भूलवश राष्ट्रवाद का ही अंग समझ लिया जाता है। आदिकालीन छोटे छोटे गांवोंजहां लोग एक दूसरे को भली प्रकार जानते हैंसे बड़े सभी समुदाय काल्पनिक ही हैं। इन समुदायों का वर्गीकरण होना चाहिए लेकिन कृत्रिमता के आधार पर नहीं बल्कि इस आधार पर कि उनके निर्माण के समय उनकी क्या परिकल्पना की गयी थी। जावा के ग्रामीण यह मानते हैं कि वे असंख्य अपरिचित लोगों से भी जुड़े हुए हैं लेकिन यह उनके समाज के लिए विशेष तौर पर की गयी परिकल्पना थी। वे अपने सामाजिक सम्बन्धों और लेन देन में असीमित रूप से विस्तृत और लचीले हैं । अभी हाल तक जावा की भाषा में ‘समाज’ के लिए कोई पृथक शब्द नहीं दिया गया था। आज हम मध्ययुगीन फ्रांस के ‘एरिस्ट्रोक्रेसी’ (कुलीन वर्ग) को वर्ग कह सकते हैं लेकिन तब यह एक वर्ग विशेष नहीं थावर्ग की यह संकल्पना आधुनिक युग की देन है । 

राष्ट्र की कल्पना संकुचित या सीमित इसलिए है क्योंकि ऐसे बड़े-बड़े राष्ट्र जिनके नागरिकों की संख्या कई करोड़ है वे भी लचीली ही सही ऐसी पूर्वनिर्धारित भौगोलिक और राजनैतिक सीमाओं से बंधे हैं, जिनके परे एक दूसरे राष्ट्र की सीमा आरंभ हो जाती है। कोई भी राष्ट्र मानवता का सहसीमावर्ती नहीं होना चाहता। विश्व का सबसे कृपालु राष्ट्र भी इस बात की इजाज़त नहीं देगा कि किसी एक संभव तरीके से एक खास अवधि के लिए ही सही मानव जाति के सभी लोग उसकी राष्ट्रीयता का अंग बन जाएँ। क्या ईसाई धर्म के सभी अनुयायी एक ही ईसाई राष्ट्र की नागरिकता ले सकते हैं ?

राष्ट्र को स्वायत्त इसलिए भी माना जाता है क्योंकि इस परिकल्पना का आविर्भाव उस युग में हुआ जब ज्ञान और क्रांतिकारी आंदोलन दैवीय रूप से पदप्रतिष्ठित क्रमिक वंशवादी शासन व्यवस्था का विरोध कर रहे थे। यह अवधारणा आधुनिक इतिहास के उस चरण में परिपक्व हुई है जबकि हर वह निष्ठावान व्यक्ति, जो किसी न किसी प्रचलित धर्म का अनुयायी थाइन धर्मों में कर्मकांडों की अधिकता, उनके सात्विक दावों और क्षेत्र अधिग्रहण नीतियों के बार बार बदलते रूपों को देख घबरा उठा था। एक स्वायत्त राष्ट्र की परिकल्पना ही इस समस्या का एक मात्र समाधान और आश्वासन भी थी।

राष्ट्र को एक विशिष्ट समुदाय के तौर पर भी परिभाषित किया जा सकता है। तमाम असमानता और शोषण के बावजूद राष्ट्र को एक गहरी, समस्तरीय भाईचारे की भावना के साथ जोड़ा जा सकता है। अंततः यह वह बंधुत्व की भावना है जो इसे पिछली दो सदियों से करोड़ों लोगों के लिए संभव बना रही है और स्थायित्व प्रदान कर रही है। यह वही प्रेरणा है जो लोगों को दूसरों को मार डालने से अधिक एक फंतासी पर मर मिटने के लिए उद्वेलित करती है। 

राष्ट्रवाद के नाम पर होने वाली मौतें हमें राष्ट्रवाद से जुड़ी एक और विकराल समस्या से रूबरू करातीं हैं। इतिहास के एक छोटे से हिस्से (मुश्किल से दो शताब्दियों की समयावधि) में ऐसा क्या रहस्य है जो इतने प्रकांड रूप से इतने प्राणों के बलिदान का कारण बना। मुझे विश्वास है कि इस प्रश्न का समाधान हमें राष्ट्रवाद के सांस्कृतिक आधार के अध्ययन से मिल सकता है ।

2॰ सांस्कृतिक आधार

आधुनिक राष्ट्रवादी संस्कृति के सबसे हैरतअंगेज़ प्रतीक हैं अज्ञात सैनिकों की समाधियाँ और मकबरे । लोग इन स्मारकों को इसलिए भी सार्वजनिक सम्मान देते हैं क्योंकि या तो ये बिलकुल खाली छोड़ दिये गए हैं या ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर उस समय के किन्हीं और सैनिकों के नाम उन कब्रों पर लिख दिये गए हैं और असल में कोई नहीं जानता कि उनके अंदर कौन सो रहा है। कल्पना ही की जा सकती है कि अगर लोग उनके बारे में जान जाएँ जिन्होंने न सिर्फ उन मरे हुए अज्ञात सैनिकों के नाम ईज़ाद किए बल्कि खाली कब्रों में असली लगती अस्थियाँ भी डाल दीं तो क्या हो । लेकिन यह सब करना व्यर्थ है क्योंकि भले ही देखने में ये मकबरे असली लगते नश्वर शरीरों या अजर अमर आत्माओं के प्रतीक हों यथार्थ में ये  मनगढ़ंत और राष्ट्रवादी काल्पनिकता के अतिरेक भर हैं। (संभवतः इसीलिए लगभग हर देश में ऐसे अनगिनत सैन्य मकबरे हैं जहां दफन सैनिकों की राष्ट्रीयता संदेहजनक है और कभी स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं समझी गयी क्योंकि वे सैनिक जर्मनी, अमरीका या अर्जेंटाइना कहीं के भी नागरिक हो सकते हैं।)

इन स्मारकों की सांस्कृतिक महत्ता एक और बात से सिद्ध हो जाती है। ज़रा कल्पना कर के देखेंयदि किसी मकबरे को किसी अज्ञात मार्क्सवादी नेता या पराजित उदरवादी नेता का मकबरा बताया जा रहा है तो क्या यह उनकी मूर्खता नहीं है क्योंकि मार्क्सवाद और उदारवाद दोनों में ही मृत्यु और अनश्वरता जैसी अतिवादी अवधारणाओं को महत्व नहीं दिया जाता जब कि राष्ट्रवाद में देते हैं। राष्ट्रवादी फंतासी धार्मिक कल्पनाओं से गहरा संबंध रखतीं हैं ।

जैसे मनुष्य की मृत्यु पूर्वनिर्धारित नहीं होती है उसकी नश्वरता भी अनिवार्य है। मानव जीवन इस प्रकार की अनिवार्यताओं और संयोगों से भरा पड़ा है। हमें हमारी आनुवांशिक विरासतजीवन काललिंगशारीरिक क्षमताओंमातृभाषा इत्यादि की आकस्मिकताओं और अनिवार्यताओं के बारे में पूरी जानकारी रहती है। पारंपरिक धार्मिक वैश्विक मत की यह विशेषता रही है कि वे मानव को एक प्रजाति की भांतिविश्व व्यवस्था के अभिन्न अंग की भांति और आकस्मिकता से परिपूर्ण देखते हैं । ईसाईबौद्ध और इस्लाम धर्मों के कई हज़ार वर्षों से चले आ रहे असाधारण अस्तित्व और महत्ता ने यह सिद्ध कर दिया है कि उन्होंने बड़े ही कल्पनाशील तरीके से लोगों को दुख-दर्दरोगोंवृद्धावस्था और आपदाओं से बचने के सरल रास्ते सुझा दिये थे। धर्म के पास मनुष्य की हर समस्या का उत्तर है जैसे- मैं जन्मांध क्यों हूँ ? मेरे सबसे अच्छे मित्र को पक्षाघात क्यों हुआमेरी बेटी मंदबुद्धि क्यों हुईइसके विपरीत मार्क्सवाद जैसे विकासवादी और प्रगतिशील मतों की सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि वे इस तरह के सवालों का जवाब एक विचलित मौन से देते हैं। धर्म तो आत्मा की अनश्वरता जैसे अस्पष्ट विषय पर भी सलाह दे सकता हैयह विचारधारा मृत्यु तक को आत्मा की अमरता के परिप्रेक्ष्य (कर्मपुराने पाप इत्यादि ) में पारिभाषित कर सकती है। देखा जाए तो धर्म अपने आप को न केवल मृत और अजन्मे जीवन के बीच की कड़ी सिद्ध करता हैबल्कि पुनर्जन्म के रहस्यों को भी मान्यता देता है। अपने बच्चे के गर्भाधान और जन्म के साथ एक विशेष जुड़ाव महसूस करने के लिए आपको जीवन की भंगुरता और आकस्मिकता को आत्मा की निरंतरता के परिप्रेक्ष्य में समझना बहुत ज़रूरी है । (पुनश्च : विकासवादी और प्रगतिशील विचारधाराओं की बहुत हानि जीवन की निरंतरता की सोच से घोर शत्रुता रखने के कारण भी हुई है)

मैंने एक निरपेक्ष मनःस्थिति में किए गए इस अवलोकन का उल्लेख यहाँ इसलिए भी करना ज़रूरी समझा क्योंकि 18वीं सदी के आरंभ ने न केवल राष्ट्रवाद के उदय की घोषणा की वरन धार्मिक विचार प्रणालियों के अस्त की सूचना भी दे दी थी। लेकिन ज्ञान, चेतना और राष्ट्रवादी -तार्किकता की यह शताब्दी अपने साथ बहुत सा आधुनिक अंधकार और अज्ञान भी लेकर आयी थी धार्मिकता का ज्वार उतर जाने पर कष्ट और विपत्तियों ने अपने साथ जो आस्थाएँ जोड़ लीं थीं उनका समापन नहीं हुआ। काल्पनिक स्वर्ग की कल्पना तो छिन्न भिन्न हुयी किन्तु मृत्यु की आकस्मिकता और भय कम नहीं हुए। मोक्ष के विचार की व्यर्थता सिद्ध हो जाने पर भी आत्मा की निरन्तरता जैसे विचार की प्रासंगिकता तनिक भी कम नहीं हुई। बस यह हुआ कि इसी नश्वरता को अमरता में और आकस्मिकता को परम अर्थ में बदलने के लिए एक धर्म निरपेक्ष मार्ग ढूंढ़ निकाला गया। हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि राष्ट्रवादी विचारों से कहीं अधिक तो इन धार्मिक व सामाजिक विचारों ने राष्ट्रवाद के विकास में योगदान दिया है। अगर राष्ट्रवादी राज्य यह मानते हैं कि वे एक साथ नूतन और पुरातन दोनों हो सकते हैंतो जिन राष्ट्रों को वे अपनी राजनैतिक अभिव्यक्ति का प्रतीक मानते हैं भला क्यों नहीं वे एक अतिप्राचीन इतिहास और अनंत भविष्य के बीच झूलते रहेंगे। यही राष्ट्रवादिता का तिलिस्म है जो अनिश्चय को नियति में पारिभाषित कर देता है। डेब्रे के साथ हम भी कह सकते हैं कि,“मेरा फ्रांसीसी होना एक संयोग हो सकता है लेकिन फ्रांस सार्वकालिक और अविनाशी है।

यहाँ मेरी मंशा यह धारणा स्थापित करने की कतई नहीं है कि अठारहवीं शताब्दी में राष्ट्रवाद का आविर्भाव धार्मिक विश्वासों के क्षय के कारण ही हुआ या अब इस धार्मिक क्षय का विस्तृत विश्लेषण नहीं किया जाना चाहिए। मैं यह दर्शाने का प्रयास भी नहीं कर रहा हूँ कि राष्ट्रवाद ने ऐतिहासिक रूप से  धर्म को पछाड़ दिया था बल्कि मेरा तात्पर्य तो यह है कि राष्ट्रवाद को पूरी तरह से समझने के लिए हमें न केवल राष्ट्रवाद से सम्बद्ध और उस पर आरोपित की गयी राजनैतिक विचारधाराओं को बल्कि उससे जुड़ी उन पूर्वकालिक वृहत सांस्कृतिक व्यवस्थाओं को भी सुनियोजित विधि से समझना पड़ेगा- जिनके कारण राष्ट्रवाद अस्तित्व में आया।

इस उद्देश्य से हम दो सांस्कृतिक प्रणालियों का अध्ययन कर सकते हैंधार्मिक समुदाय और वंशवादी राज्य व्यवस्था। इन दोनों के उत्थान के समय में इन्हें उसी प्रकार का अतिमहत्व दिया गया था जैसा कि आज राष्ट्रवाद को दिया जा रहा है। उन तथ्योंजिन्होने इन्हें युक्तिसंगत होने की अर्हता प्रदान कीकी विवेचना तो आवश्यक है ही साथ ही साथ बाद में हुए उनके विघटन के कारणों की चर्चा भी आवश्यक है।

धार्मिक समुदाय

विश्व के प्रमुख धर्मों के व्यापक क्षेत्रीय विस्तार (इस्लाम का मोरक्को से सुलू आर्किपलेगो तकबौद्ध धर्म का श्रीलंका से कोरिया प्रायद्वीप तक ईसाइयत का पैरागुए से जापान तकसे बड़ा करिश्मा आज कोई नहीं हुआ है। महान धार्मिक संस्कृतियों ने (जिनमें कन्फ़्यूशीवाद को भी शामिल कर लेना चाहिए) विस्तृत समुदायों के निगमन की धारणा को जन्म दिया है। ईसाई जगत, इस्लामिक समुदाय और मध्य साम्राज्य जिसे आज हम चीन के रूप में जानते हैं ने अपने आपको संसार का केंद्र बिन्दु ही समझा और उनका ऐसा सोचा जाना केवल इसलिए संभव हुआ क्योंकि उनके पास अपनी दैवीय भाषाएँ और लिपियाँ थीं। एक उदाहरण से इसे समझने का प्रयास करते हैं जब मगिनदानाओ मक्का में बर्बर से मिले तो दोनों ही एक दूसरे की भाषा न समझ पाने की वजह से मौखिक रूप से बात चीत नहीं कर पायेलेकिन उन्होने संकेतों या प्रतीकों के सहारे आपसी संवाद क़ायम कियाक्योंकि उनके धर्मग्रंथ प्राचीन अरबी लिपि मे लिखे थे। इसका अर्थ यह है कि प्राचीन अरबी लिपि भी चीनी लिपि की तरह प्रतीकों में आबद्ध की जाती थी न कि ध्वनियों मेंऔर उन सभी का मुख्य उद्देश्य एक विशाल समुदाय विशेष का निर्माण करना था।

आधुनिक काल्पनिक समुदायों और दैवीय भाषाओं के माध्यम से जुड़ी प्राचीन सभ्यताओं में एक आधारभूत अंतर है। उन संस्कृतियों को अपनी दैवीय भाषाओं की श्रेष्ठता पर इतना विश्वास था कि वे अपने समुदाय की सदस्यता  या स्वीकार्यता बाहरी व्यक्तियों या समूहों को सरलता से नहीं देते थे। यह सांकेतिक भाषाएँ इतनी समर्थ और पूर्ण थीं कि अतीत में कई काल्पनिक और महान समुदाय इनके माध्यम से ही आपस में जुड़े रहे। इनकी जो विशेषता आधुनिक यूरोपीय समुदाय को विस्मित करती है वह है इन भाषाओं कीइन चिन्हों की वस्तुनिष्ठता। लैटिनअरबी या चीनी भाषा के शब्दचित्र वास्तविक और व्यावहारिक थे, काल्पनिक या बेसिर पैर के चिन्ह नहीं ।  इसीलिए न केवल इन्हें एक नितांत अपरिचित विशाल जनसमुदाय सीख और पढ़ पाया बल्कि इनके माध्यम से प्रचंड आस्थाएं और विश्वास विकसित हुए। हम सभी प्राचीन ग्रन्थों में प्रयुक्त दैवीय भाषाओं और स्थानीय बोलियों की स्वीकार्यता की तुलना में चले आ रहे विवादों से लंबे समय से परिचित रहे हैं। अभी कुछ समय पहले तक कुरान को अनुवाद करने की इजाज़त नहीं दी गयी थीक्योंकि अल्लाह के द्वारा बताया गया सत्य केवल निर्विकल्प और अपरिवर्तनीय प्राचीन अरबी भाषा में ही अभिगम्य था । जहां एक भाषा के आधार पर इस प्रकार का प्रथक्करण हो वहाँ सभी भाषाओं को एक सा महत्व देना या सभी भाषाओं के शब्द व अभिव्यक्तियाँ परस्परिक विनिमय की योग्यता रखते हैं ऐसा विचार रखना ही अकल्पनीय रहा होगा। सात्विक प्रणाली की यह आलोचना भी की जा सकती है कि यह केवल एक विशेषाधिकार प्राप्त दैवीय भाषा के द्वारा ही ग्राह्य थी। लैटिनअरबी या चीनी आदि सात्विक भाषाएँ धार्मिक स्वीकार्यता का आवश्यक मापदंड थीं, और सात्विक भाषाएँ  होने के नाते ये ऐसी प्रेरणा से रंजित थीं जो राष्ट्रवाद के लिए सर्वथा अपरिचित थी। यह लालसा थी रूपान्तरण कीरूपान्तरण मात्र धर्मपरिवर्तन ही नहीं था बल्कि एक प्रकार का अपरसायनिक परिवर्तन था जिसके तहत बर्बर और नास्तिक विश्व नागरिक मध्य साम्राज्य (चीन)’, कट्टर मुस्लिम या सभ्य ईसाई कहे जाने लगे। सम्पूर्ण मानव प्रजाति ही धार्मिक ग्राह्यता के लिए लचीली हो गयी। यह इस रूपान्तरण की ही सामर्थ्य थी कि एक अंग्रेज़ ‘पोपकहलाया और एक मांचू ‘स्वर्ग का पुत्र 

भले ही ये धार्मिक भाषाएँ ईसाई समुदाय जैसे विशाल समूहों के निर्माण का प्रमुख माध्यम रही हों इन समुदायों के विस्तार और संभाव्यता को केवल इन भाषाओं की उपलब्धता की कसौटी पर ही नहीं कसा जा सकता है क्योंकि मात्र मुट्ठी भर अनुयायी ही इन्हें पढ़ और समझ सकते थे जबकि इन धर्मों में आस्था रखने वाले ऐसे असंख्य लोग थेजो इन लिपियों को पढ़-लिख नहीं सकते थे। इस बिन्दु की पूरी व्याख्या के लिए हमें उन लिपियों के ज्ञाता,प्रकांड विद्वानों और तत्कालीन समाज से उनके सम्बन्ध का अध्ययन करना होगा। इन्हें मात्र एक अध्यात्मवादी तकनीकी तंत्र भर समझ लेना भूल होगी। ये भाषाएँ गूढ़ और दुर्बोध तो थीं पर उस तरह से गूढ़ और दुर्बोध नहीं जैसे वकालत या अर्थशास्त्र की भाषा होती है, व्यावसायिक शब्दजाल से आपूर्ण और सामाजिक व्यावहारिकता से कोसों दूर। ये धार्मिक भाषाविद उसी ब्रह्मांडीय श्रेणीक्रम में एक महत्वपूर्ण रणनैतिक स्थान रखते हैं जिसमें सर्वोच्च स्थान ईश्वर का होता है। ऐसे में जब कि इन समुदायों का आधारभूत स्वरूप ही समस्तरीय और सीमोन्मुख न होकर केंद्राभिमुख और श्रेणीक्रमिक होता है तो वहाँ पोप आदि धार्मिक विद्वानों का अतिशय महत्व समझना कठिन नहीं है । पोप के पद की हतप्रभ कर देने वाली असीमित सत्ता को आप इस प्रकार समझ सकते हैं कि चर्च की सत्ता और उत्थान के दिनों में इस द्विभाषी विद्वान (पोप) को स्वर्ग और पृथ्वी के बीच संवाद क़ायम करने वाला परमशक्तिशाली व्यक्ति माना जाता था।

धार्मिक आधार पर खड़े हुए इन समुदायों की पूरी शानो शौकत और वैभव के बावजूद उत्तरमध्ययुग के पश्चात उनकी स्वाभाविक चमक दमक और ऐश्वर्य मंद पड़ने लगे। उनके इस पतन के प्रमुख कारणों में से मैं केवल दो का ही यहाँ उल्लेख करना चाहूँगा जो इन समुदायों की विलक्षण दैवीय प्रकृति से सीधे सीधे संबन्धित हैं।

पहलायूरोप के बाहर के भूभागों की खोज का प्रभाव जिसने यद्यपि अकेले नहीं किन्तु प्रधानतः  यूरोप के न केवल सांस्कृतिक और भौगोलिक क्षितिज का विस्तार किया बल्कि मानव जीवन अपने कितने विविध रूपों में पृथ्वी पर उपस्थित है इस सोच को भी विकसित किया। मध्ययुग के कई प्रकार के अंधविश्वास और पूर्वाग्रह नष्ट भ्रष्ट हो गए।

दूसरादैवीय भाषाओं का स्वतः क्रमिक ह्रास। मध्यकालीन यूरोप के विषय में ब्लौच लिखते हैं, “लैटिन शिक्षा का एकमात्र  माध्यम नहीं थीयह वह एकमात्र भाषा थी जिसे पढ़ाया जा रहा था।यह दूसरा एकमात्रशब्द भाषा की दैवीयता और अपरिहार्यता को दर्शाता था। कोई अन्य भाषा पढ़ाये जाने योग्य ही नहीं समझी जाती थी। लेकिन सोलहवीं शताब्दी आते आते यह सब तेज़ी से बदलने लगा। इस विषय में प्रिंट पूंजीवाद की भूमिका आगे वर्णित की जाएगी। हमें प्रिंट माध्यम के विकास का पैमाना और गति नहीं भूलनी चाहिए। फेब्वर और मार्टिन यह अंदाज़ा लगते हैं कि सन 1500 से पहले छपी कुल किताबों में से 77% लैटिन भाषा में थीं (लेकिन इसका मतलब यह भी है कि तब तक 23% पुस्तकें आम बोलचाल या मातृभाषा में छप चुकी थीं)। फ्रांस में 1501 में छपे 88 पुस्तकीय संस्करणों में से 80 लैटिन में थे लेकिन सन 1575 के बाद अधिकांश किताबें फ्रेंच भाषा में छपने लगीं थीं। प्रतिसुधार के दौर में लैटिन ने वापसी का एक क्षीण प्रयास अवश्य किया लेकिन शीघ्र ही लैटिन भाषा के एकछत्र प्राधान्य का सूर्य अस्त हो गया। केवल लोकप्रियता के दृष्टिकोण से ही नहीं बहुत तेज़ी से बदलते बौद्धिक परिदृश्य में भी कुछ ही समय बाद लैटिन विद्वानों और लेखकों की भाषा भी नहीं रह गयी। हौब्स (1588-1678) सत्रहवीं शताब्दी में प्रायद्वीप का एक सुविख्यात लेखक माना जाता था क्योंकि वह सात्विक (लैटिन) भाषा में लिखता था। जबकि शेक्सपियर (1564-1616) जो मातृभाषा अंग्रेज़ी में लिखते थे उस क्षेत्र में अपनी कोई पहचान नहीं बना सके थे। और अगर दो सौ साल बाद अंग्रेज़ी एक वृहद औपनैवेशिक साम्राज्य की प्रधान भाषा न बन गयी होती तो आज भी शेक्सपियर उसी गुमनामी में खोये रहते। इन दोनों महानुभावों के लगभग समकालीन डेकार्ट (1596-1650) और पास्कल (1623-1662) का अधिकतर लेखन लैटिन भाषा में था जबकि वोल्टेयर (1694-1778) का सभी कार्य वर्णाकुलर (स्थानीय भाषा) में था। 1640 के बाद जब लैटिन भाषा में पुस्तकें छपनी लगभग बंद हो गईं और आम भाषा में अधिक से अधिक लेखन होने लगा तो लैटिन भाषा का प्रकाशन एक विशाल अंतर्राष्ट्रीय उपक्रम बनने से वंचित रह गया। दूसरे शब्दों में कहें तो लैटिन भाषा के पतन से वैश्विक परिदृश्य में बड़े भारी परिवर्तन और उथल पुथल हुए। वे धार्मिक समुदाय जो दैवीय भाषा लैटिन के माध्यम से एक दूसरे से जुड़े हुए थेछिन्न- भिन्नविघटित और विभाजित  हो गए। 

वंशवादी राज्य

आज के युग में तोवंशवादी परंपरा की एकमात्र राजनैतिक व्यवस्था की तरह कल्पना भी कठिन है , क्योंकि इसका अन्य सभी आधुनिक राजनैतिक प्रणालियों से आड़ा या तिर्यक संबंध रहा है। राजशाही अपने आसपास की सभी वस्तुओं को उच्च सत्ता केंद्र से नियंत्रित करती है। इसकी वैधता एक दिव्यता से उत्पन्न होती हैजनता से नहींक्योंकि उनके लिए अंततः वह प्रजा है नागरिक नहीं । राज्य निर्विवाद रूप से अपने इंच- इंच क्षेत्र में वैध रूप से स्वायत्त है। तब राज्य केंद्र द्वारा पारिभाषित थे, उनकी सीमाएं छिद्रयुक्त व अस्पष्ट थीं और राज्यों की स्वायत्तता अगोचर रूप से एक दूसरे में संविलीन होती थी। इसीलिए पूर्व आधुनिक काल के साम्राज्यों तथा राजतंत्रों की शासन व्यवस्था की यह असंभाव्यता आश्चर्यचकित करती है कि उन्होंने बड़ी सहजता के साथ एक अत्यंत विषमरूप तथा छितरी हुई जनसंख्या पर शासन कर लिया। इन प्राचीन राजतांत्रिक राज्यों का विस्तार केवल युद्धों के माध्यम से ही नहीं वरन स्त्री पुरुष यौनिक सम्बन्धों के माध्यम से भी होता था। वे प्रथाएँ आजकल प्रचलित यौनिक प्रथाओं से बहुत भिन्न थीं। शीर्षता के सामान्य नियमों के अंतर्गत ये वंशवादी विवाह अत्यंत भिन्न प्रकार की जनसंख्या को एक ही सत्ता के अधीन ले आते थे। इन क्षेत्रों में बहुपत्नीवाद धार्मिक रूप से मान्य था फिर भी राज्य के संगठन के लिए त्रिस्तरीय उपपत्नीत्व या रखैल प्रथा व्यवस्था का आवश्यक अंग थी। देखा जाए तो राजसी वंशावलि की प्रतिष्ठा बनाए रखने में दिव्यता के अतिरिक्त वर्णसंकरता (नस्लों की मिलावट) का बड़ा योगदान था। इस प्रकार की मिलावट व्यक्ति और वंश की ऊँची हैसियत के प्रतीक थे। यही कारण है कि इंग्लैंड में 11वीं शताब्दी से अब तक किसी शुद्ध अंग्रेज़ी वंश का राज नहीं रहा है। बौरबोन जो फ्रांस और स्पेन दोनों के ही शासक और राजपरिवार थे कहाँ के मूल नागरिक माने जाएंगे?संक्षेप में कहा जाए तो आज के नागरिकता नामक राष्ट्रवादी प्रत्यय का उन दिनों कुछ विशेष अस्तित्व और महत्व नहीं था। सत्रहवीं शताब्दी में पश्चिमी यूरोप में धर्म पर आधारित राजशाही की शाश्वत वैधता का ह्रास होने लगा। सन 1649 में आधुनिक विश्व की पहली उल्लेखनीय क्रांति में चार्ल्स स्टुअर्ट का सिर कलम कर दिया गया। वहीं 1650 में यूरोप के कुछ महत्वपूर्ण राज्यों में शासकों के बजाय जनप्रतिनिधि राज-काज सम्हालते दिखाई दिये। इस सबके बावजूद पोप और ऐडीसन के काल तक उन्होंने सिंहासन पर अपना आधिपत्य नहीं छोड़ा। एने स्टुअर्ट अब भी शाही स्पर्श द्वारा रोगियों की चिकित्सा का दावा कर रहे थे। इस पुरातन शासन व्यवस्था के बिलकुल खत्म हो जाने के बहुत बाद तक बोरर्बोनलुईस पंद्रह और सोलह प्रबुद्ध फ़्रांस में इसी प्रकार लोगों की दैवीय चिकित्सा सम्पन्न कर रहे थे। लेकिन 1789 के बाद इन सबको विवशतः वैधता के सिद्धान्त का औचित्य स्पष्ट करना पड़ाऔर इस पूरी प्रक्रिया में राजतंत्र एक अर्ध-मानकीकृत तंत्र और प्रतिमान बन कर रह गया। सुदूर सिआम राज्य के राम पंचम ने अपने पुत्रों और भतीजों को विश्व प्रतिमानों की पेचीदगियाँ सिखाने के लिए उन्हें सेंट पीत्स्बर्गलंदन और बर्लिन के दरबारों में भेजा। अब समय आ गया था कि शासन करने के लिए एक शासक के बतौर अपनी योग्यता और वैधता सिद्ध की जाए। 1887 में राम पंचम ने कानूनी ज्येष्ठाधिकार के आधार पर उत्तराधिकार के प्रयोजनीय सिद्धान्त की स्थापना और घोषणा कीइस प्रकार उसने सिआम को तत्कालीन यूरोप के सभ्य और प्रबुद्ध राजतंत्रों की कतार में ला खड़ा किया। लेकिन इसी नयी शासन प्रणाली ने सिआम के सिंहासन पर एक ऐसे विचित्र समलैंगिक व्यक्ति को ला बैठाया जिसे इससे पहले की चयन व्यवस्था में एक शासक के तौर पर कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता था।  हालाँकि राम सष्ठम के बतौर हुए उसके राज्याभिषेक समारोह में उपस्थित रहकर इंग्लैंड, रूसडेन्मार्कग्रीस और जापान आदि देशों ने उसके चयन और राज्याधिरोहण के निर्णय को अंतरराजतांत्रिक सहमति दे दी थी।

1914 तक विश्व के राजनैतिक परिदृश्य में वंशवादी राज्यों ने बहुलता हासिल कर ली थी। लेकिन चूँकि ये प्राचीन व्यवस्थाएँ कालविरूद्ध होती जा रहीं थींबहुत से राजतंत्र खामोशी से राष्ट्रवाद की तरफ बढ़ रहे थे।    

कालिक आशंकायें

यह अदूरदर्शिता ही कहलाएगी यदि हम राष्ट्रों के अमूर्त समुदायों को मात्र धार्मिक व्यवस्था और वंशवादी शासन प्रणाली के और विकसित रूप या विकल्प भर मान लें। धार्मिक समुदायों, भाषाओं और वंशावलियों के पतन के साथ दुनिया के अनुभवों और तरीकों में एक आधारभूत परिवर्तन शनै शनै आ रहा थाऔर इसी एक तथ्य ने राष्ट्रवाद की अवधारणा को सबसे अधिक पुष्ट किया।  

इस तथ्य को पूरी तरह समझने के लिए हमें धार्मिक समुदायों से संबन्धित दृश्य सामग्री को ध्यान पूर्वक देखना होगा। उनमें से कुछ हैं मध्यकालीन गिरजाघरों की चित्रकारी की हुई काँच की खिड़कियाँ या इटली के तत्कालीन चित्रकारों की प्रसिद्ध कलाकृतियाँ । सबसे अधिक भ्रामक जानकारी जो इन कलाकृतियों से मिलती है वह यह है कि इन दैवीय चरित्रों की वेश भूषा का आधुनिक युगीन वेषभूषा से  बहुत साम्य है। ईसा मसीह की कहानी के पात्रों के चेहरेवेश भूषा और शारीरिक संरचना तक आधुनिक युगीन दिखा दिये गए हैं। आज ये बातें हमें असंगत लग रही हैं लेकिन एक मध्ययुगीन धार्मिक अस्थावान को ये सब स्वाभाविक दिखता था। हम एक ऐसी दुनिया से सम्बद्ध हैं जहां फंतासी और कल्पना के दृश्य और श्रव्य माध्यमों को अतिवादी रूप में प्रस्तुत किया गया है। ईसाइयत ने अपना वैश्विक महत्व अनेक प्रकार के विशिष्ट प्रतीकों और ब्यौरों के जरिये अर्जित किया हैऐसी नक्काशीवैसी खिड़कीऐसे धर्मोपदेशवह कथायह नैतिक ज्ञानवह पुरावशेष इत्यादि इत्यादि। विशेष तौर पर अनपढ़ जनता में धर्म प्रचार करने  के लिए आकर्षक व प्रभावशाली दृश्य और श्रव्य साधनों का बहुत योगदान रहा है। एक अतिसाधारण मानवपादरीजिसकी योग्यताओं के अलावा उसके पूर्वजों के अच्छे बुरे इतिहास और दुर्बलताओं का आम लोगों को पूरी तरह ज्ञान था,को आश्चर्यजनक ढंग से ईश्वर और उसके उपासकों के बीच की एकमात्र कड़ी घोषित कर दिया गया। दैवीय- सार्वभौमिक और सांसारिक वास्तविकताओं का यह विरोधाभासयह तुलना,इस बात को सिद्ध करते हैं कि भले ही ईसाई धर्म की प्रभुता का कितना भी विस्तार हो गया हो वे अपनी पहचान बिलकुल आम प्रजा के साथ बनाना चाहते थेअपना तादात्म्य स्थापित रखना चाहते थे। मध्ययुगीन ईसाई विचारधारा समय को एक अंतहीन कारक और प्रभाव श्रंखला के तौर पर नहीं देखती है न ही वह अतीत और वर्तमान में किसी प्रकार के अकस्मात एवं आमूल व्यवधान स्वीकार करती है। ब्लौच के अनुसार, “वे लोग ईसामसीह के निकटवर्ती पुनरागमन की प्रतीक्षा में स्वयं को समय के अंतिम छोर पर खड़ा मानते हैं। वे जैसे ही धार्मिक जीवन की ओर अग्रसर होते हैं मानव जाति  के लंबे व सम्पन्न भविष्य की आशा व कल्पना से उनका विश्वास हट जाता है।उनकी समकालीनता का विचार हमारी समझ से सर्वथा भिन्न है। बेंजामिन के अनुसार ईसाई आस्थावान समय को ‘मसीहाई समय’ के परिप्रेक्ष्य में ही देख पाते हैंजिसमें अतीत और भविष्य समकालिक प्रवृत्ति के होते हैं और वर्तमान तात्क्षणिक स्वभाव का। जब घटनाओं को और काल को इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो ‘इस बीच’ या ‘इस दौरान’ जैसे शब्दों का कोई सापेक्षिक अर्थ नहीं रह जाता है।

समकालिकता के बारे में हमारे अपने विचार बहुत समय से निर्माणाधीन हैं। इसकी उत्पत्ति निश्चित तौर पर अधिक निरपेक्ष वैज्ञानिक विषयों से सम्बद्ध हैलेकिन यह इतना महत्वपूर्ण कारक है कि इसका अध्ययन किए बिना हम राष्ट्रवाद को पूरी तरह से समझ नहीं पाएंगे। मध्यकाल के समय के साथ समकालिकता को ही बेंजामिन ने ‘सजातीय रिक्त काल’ कहा है। समकालिकता को घड़ियों व कैलेंडर की सहायता से मापा जाता है यह समस्तरीय होती हैइसे आत्मसंतोष या संवेगों द्वारा नहीं बल्कि अस्थायी संयोगो के माध्यम से याद रखा जाता है। यदि हम जानना चाहते हैं कि राष्ट्र नाम के अमूर्त समुदाय की उत्पत्ति के लिए इस प्रकार के रूपान्तरण की क्या आवश्यकता पड़ी तो पहले हमें इस फंतासी या विचार के उन दो स्वरूपों की आधारभूत संरचना को जानना पड़ेगा जिनका यूरोप में पहली बार अठारहवीं शताब्दी में आगमन हुआवे थे , उपन्यास और अखबार। इन दोनों ने राष्ट्र की अवधारणा को प्रस्तुत करने के तकनीकी साधन मुहैया किए। यदि हम पुराने जमाने के उपन्यासों के ढांचे को याद करें तो पाएंगे कि (केवल बालज़ाक की श्रेष्ठ कृतियों को ही नहीं बल्कि सस्ते साधारण उपन्यासों की संरचना को भी) तो पाएंगे कि ये उपन्यास स्पष्ट रूप से ‘सजातीय रिक्त काल’ की प्रस्तुति के बढ़िया माध्यम हैं। इसके कई पात्र एक दूसरे के अस्तित्व से अनभिज्ञ हैं, केवल लेखक और पाठक (ईश्वर की तरह) उनके विषय में पूरी जानकारी रख रहे हैं।

जब एक सामाजिक जीव कैलंडर की तारीखों के अनुसार अपने दिन व्यतीत करता है तो ‘सजातीय रिक्त समय’ की अवधारणा अस्तित्व में आ जाती है जो कि राष्ट्र की अवधारणा के सादृश्य और अनुरूप है। इसे ऐसे भी सोचा जा सकता है कि एक मूर्त समुदाय इतिहास में ऊपर या नीचे की ओर व्यवस्थित रूप से एक साथ बढ़ रहा है। अमरीका का एक नागरिक अपने पूरे जीवनकाल में अधिक से अधिक कुछेक हज़ार लोगों को छोड़ कर वहाँ के करोड़ों अन्य नागरिकों से कभी नहीं मिलता। उसे इस बात का कोई अनुमान नहीं है कि वे सब किसी एक क्षण विशेष में क्या करने की सोच रहे हैं या क्या करने जा रहे हैं। लेकिन उसे उनकी पूर्णतः अविचल,अनाम,अज्ञात समकालीन गतिविधियों का पूरा अनुमान है। वे एक दूसरे के विषय में नहीं जानते हैं अतः उनका पारस्परिक संबंध एक उपन्यास के पात्रों की तरह ही काल्पनिक है और इसी प्रकार राष्ट्र की अवधारणा भी।

कई उपन्यासों के कथानक और अखबार की खबरों को पढ़कर यह  निष्कर्ष निकलता हैं कि काल्पनिक संपर्क परोक्ष रूप से सम्बद्ध स्त्रोतों से जन्म लेता है। उदाहरण के तौर पर, एक बहुत ही सामान्य सा समय से संबन्धित आंकड़ा लेते है जिसमें एक अखबार के शीर्ष पर छपी हुई तारीख- सबसे महत्वपूर्ण सूचनाइसी व्यवस्थितअग्रगामी ‘समजातीय रिक्त काल’ की ओर इंगित करती है। अखबार इस प्रकार की समजातीय क्रिया का एक सटीक उदाहरण हैं, जहाँ एक निश्चित कालखंड में संसार एक ही समाचार पढ़ते हुए एक ही गति से आगे बढ़ रहा है। इस बीच अखबार की उस खबर का कोई पात्र यदि मर जाए या कोई स्थान किसी आपदा से नष्ट हो जाए तो पाठक अगली खबर पढे बिना इसके विषय में जान नहीं पाएंगे। उनके लिए वह पात्र और वह स्थान अपरिवर्तित रूप में सदैव अखबार के उस समाचार का हिस्सा ही बने रहेंगे।

अखबारों को आप ‘वन डे बेस्ट सेलर्स’ भी कह सकते हैं। समाचारपत्र को पढ़ना बड़े पैमाने पर आयोजित किए गए एक समारोह जैसा ही होता है। लगभग एक ही समय में वृहत स्तर पर किया गया समकालिक उपभोग। हमें पता रहता है कि किसी अखबार का पूर्वनिर्धारित सुबह का या सांध्य कालीन संस्करण मुख्यतः इतने बजे से इतने बजे के बीच उसी दिन पढ़ा जाता है। हेगेल के अनुसार समाचारपत्र सुबह की प्रार्थनाओं की वैकल्पिक क्रिया हैजिसे एकांत में मस्तिष्क की परतों के भीतर सम्पन्न किया जाता है। यहाँ विरोधाभास यह है कि प्रार्थनाएँ समूहों में की जातीं हैं फिर भी हम एकसमय में एक छोटे समूह के बारे में ही जान पाते हैं जबकि समाचारपत्र एकांत में पढे जाते हुए भी,फिर भी हम यह जानते हैं कि ठीक इसी दिन इसी वक़्त हमारे जैसे करोड़ों लोगजिनकी पहचान का हमें ज़रा भी भान नहीं है फिर भी जिनके अस्तित्व पर हमें पूरा विश्वास है यही गतिविधि कर रहे होंगे। और यही क्रिया प्रतिदिन एक निश्चित अंतराल पर कैलेंडर के अनुसार दोहराई जाती है। एक ऐतिहासिक रूप से नियंत्रितधर्म निरपेक्षकाल्पनिक समुदाय का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है। अखबार का पाठक हर दिन कई जान पहचान के या अपने जैसे लोगों को वही अखबार पढ़ते देख कर आश्वासित हो जाता है कि यह काल्पनिक संसार उसके दैनिक जीवन में गहराई से आरोपित है। घटनाएँ वास्तविक परिदृश्य में इस खामोशी और निरंतरता से धीरे धीरे रिसते हुए प्रवेश करतीं हैंकि वे अज्ञातता में भी एक समुदाय की उपस्थिती का अद्भुत विश्वास रच देतीं हैं और यही आधुनिक राष्ट्रों के अस्तित्व की  सच्ची बानगी है ।

इस पूरे आलेख को संक्षेप में दोहराया जाए तो राष्ट्रवाद की परिकल्पना की संभावना की ऐतिहासिक रूप से शुरुआत तब हुई जबऔर जहां तीन आधारभूतप्राचीन सांस्कृतिक धारणाओं ने मनुष्य के मस्तिष्क को अपनी स्वयंसिद्ध जकड़ से मुक्त किया। पहली धारणा यह थी कि एक विशिष्ट लिपि ने लोगों को सात्विक या दैवीय सत्य तक पहुँचने का विशेषाधिकार दे दिया हैइन भाषाओं को उसी दैवीय सत्य का एक अंग माना जाता था। इन भाषाओं ने एक बड़े भूभाग के लोगों को धार्मिक भ्रातृत्व की भावना जैसे ईसाइयतइस्लाम और मध्य साम्राज्यवाद से बांधे रखा ।

दूसरा विश्वास यह था कि समाज स्वाभाविक रूप से उच्च सत्ता केन्द्रों अर्थात राजतंत्र के आस पास व्यवस्थित हैये शासक सामान्य मनुष्यों जैसे नहीं थे और इन्हें अपनी प्रजा पर शासन करने के लिए कुछ विशिष्ट और दैवीय शक्तियाँ ईश्वरप्रदत्त थीं । मनुष्य की स्वामिभक्ति स्वाभाविक तौर पर सत्ताभिमुख और केंद्राभिमुख होती हैक्योंकि दैवीय लिपि की तरह शासक भी प्रजा के अस्तित्व और स्वीकार्यता का आवश्यक और अंतर्निहित अंग है।

तीसरा कारक जो समाप्त हुआ वह सामयिक प्रकृति का था जिसमें ब्रह्मांड विज्ञान और इतिहास मिले जुले थे। संसार का आरंभ व मानव की सामयिक आधार पर एकरूपता। संयुक्त रूप से इन तीनों विचारों ने मनुष्य में मात्र सामुदायिक भावना और विचार का विकास ही नहीं किया था बल्कि जीवन की रोज़मर्रा की आपदाओं से निबटने की सामर्थ्य भी प्रदान की थीजिनमें मृत्युहानि और दासता प्रमुख थे ।

पहले पश्चिमी यूरोप में फिर विश्व के दूसरे स्थानों पर मानव जीवन में आर्थिक परिवर्तनों के चलते परस्पर सम्बद्ध इन तीनों निश्चिंतताओं का धीरे धीरे ह्रास होने लगा। अविष्कारों ने और तेज़ी से विकसित होते संचार माध्यमों ने ब्रह्मांड विज्ञान और इतिहास के बीच एक गहरी खाई खोद दी। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि भ्रातृत्व की भावना को पुनर्जागृत करने  के लिए और सत्ता और समय को सार्थक तरीके से जोड़ने के नए तरीकों की खोज जारी थी। इस खोज को, इस आवश्यकता को सबसे अधिक अर्थवान बनायासबसे अधिक गति प्रदान की प्रिंट पूंजीवाद ने। जिसने तेजी से विकास करते लोगों को गंभीरतापूर्वक स्वयं के बारे में सोचने योग्य बनाया और स्वयं को दूसरों से जोड़ने योग्य भी । 

3. राष्ट्रीय चेतना का आविर्भाव

प्रिंटिंग के एक उपभोक्तावादी सुविधा के रूप में विकसित होते ही समकालिकता के विचारों की एक नयी पीढ़ी का उदय हुआ । हम अंततः उस बिन्दु पर हैं जहां  क्षैतिज-निरपेक्ष,आड़े (ट्रांसवर्स) – कालकी अवधारणा संभव हुई। इस अवधारणा के विकास में उन विविध एवं जटिल कारकों का समावेश हुआ जिनके आधार पर पूंजीवाद की प्रधानता को और बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।

वर्ष 1500 तक तकरीबन 2 करोड़ किताबें छप चुकीं थीं। यह इस बात का स्पष्ट संकेत था कि बेंजामिन द्वारा प्रतिपादित यांत्रिक पुनरुत्पादन युगकी शुरुआत हो चुकी थी। यदि प्राचीन पाण्डुलिपिबद्ध ज्ञान दुर्लभ और रहस्यमय था तो छपे हुए ज्ञान की विशेषता पुनरुत्पादन और प्रसारण में निहित थी । अगर हम फ़ेब्वर और मार्टिन की यह बात मान कर चलें कि सन 1600 तक दो करोड़ पुस्तकों की छपाई हो चुकी थी तो हमें फ्रांसिस बेकन के इस कथन का अर्थ समझ में आ जाएगा कि प्रिंटिंग ने विश्व की स्थिति और प्रतीति दोनों बदल कर रख दिये

पूंजीवाद के अंतर्गत बाज़ारों की आतुर खोज की नब्ज़ को इसी प्राचीनतम पूंजीवादी उद्यम यानि छपाई ने ही सबसे पहले और सबसे अच्छी तरह पकड़ा था। शुरुआती व्यवसायियों ने पूरे यूरोप में छापाखाने खोल दिये। इस प्रकार प्रकाशनगृहों के प्रारंभिक अंततराष्ट्रीय उपक्रमों का उदय हुआ जिन्होंने राष्ट्रीय-सीमाओंकी अवधारणा को लगभग नकार सा दिया। और चूंकि सन 1500 से 1550 तक की अवधि यूरोप की असाधारण संपन्नता की अवधि मानी जाती है,छपाई के धंधे ने भी अपने हिस्से का व्यापारिक उत्कर्ष पा लिया। किसी भी और समय की तुलना में पूंजीवाद प्रधान इस काल में यह छपाई उद्योग एक बहुत समृद्ध व शक्तिशाली उद्यम के रूप में विकसित हुआ। युग की प्रकृति के अनुसार पुस्तक विक्रेता किताबें बेचकर मुनाफा कमाने पर ही केन्द्रित थे और इसीलिए उन्होंने ऐसे लेखन को छापना ही श्रेयस्कर माना जो लोकप्रिय था तथा जिसके तात्कालिक खरीदार अधिक थे ।

यूरोप ही इनका शुरुआती बाज़ार था,जो अब भी वृहद रूप से लैटिन पाठकों से आच्छादित था। इस बाज़ार को पूर्णतः संतृप्त होने में तकरीबन 150 वर्ष और लग गए। धार्मिक पुस्तकों की भाषा होने के साथ साथ लैटिन भाषा की व्यावसायिक सफलता में गिरावट का एक और निर्धारक तत्व इसके पाठकों का द्विभाषी होना भी था। यह बहुत कम लोगों की मातृभाषा थी,और उससे भी कम लोगों की बोलचाल या सोचने विचारने की भाषा थी। सोलहवीं शताब्दी के यूरोप में अपनी मातृभाषा के साथ लैटिन का ज्ञान रखने वाले द्विभाषी लोगों की तादाद मुट्ठी भर ही रह गयी,लगभग उसी अनुपात में जिसमें आज यह दुनिया भर की जनसंख्या के सानुपातिक हैं। आगे आने वाली शताब्दियों में सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयता के आगमन की स्पष्ट आहट के बावजूद  –आबादी का एक बड़ा हिस्सा एक-भाषा-भाषी ही रहा। पूंजीवादी प्रकाशकों की यह सोच तथा योजना थी कि लैटिन पाठकों के संभ्रांत बाज़ार के चुक जाने के बाद एक-भाषा-भाषी पाठकों के वृहद बाज़ार पर पूरा ध्यान केन्द्रित किया जा सकता है,और ऐसा ही हुआ। बीच में प्रतिसुधार विचारधारा ने लैटिन भाषा की लोकप्रियता की पुनर्स्थापना के जोरदार तात्कालिक प्रयास किए लेकिन सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक यह आंदोलन ठंडा पड़  गया और कैथोलिक पुस्तकालय पुस्तकों और उत्साह से लगभग रिक्त हो गए। इसी बीच आर्थिक गिरावट के चलते समूचे यूरोप में प्रकाशकों ने साधारण बोलचाल की स्थानीय भाषाओं में छपी पुस्तकों के अधिकाधिक सस्ते संस्करण बाज़ार में उतार दिये।

स्थानीय भाषाओं के क्रांतिकारी हमले के अलावा पूंजीवाद को और अधिक बढ़ावा तीन बाह्य लेकिन अपेक्षाकृत अप्रासंगिक कारकों से मिला जिनमें से दो तो प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय चेतना के अभ्युदय में भी सहभागिता रखते हैं। पहला और लगभग महत्वहीन कारक था लैटिन भाषा की प्रकृति में स्वाभाविक परिवर्तन। धन्य थे वे महानुभाव जिन्होंने न केवल ईसा पूर्वकालीन प्राचीन साहित्य को पुनर्जीवित किया बल्कि उन्हें प्रकाशकों को मुहैया भी कराया। पूरे यूरोप के बौद्धिक जगत में इस प्राचीन साहित्य की परिष्कृत शैलीगत उपलब्धि के प्रति आकर्षण व लगाव उत्पन्न हो गया। लेकिन जो लैटिन वे अब लिख रहे थे वह पहले की तुलना में अधिक परिष्कृत थी,और इसी कारण यह दैनिक बोलचाल व धार्मिक व्यवहार से दूर होती चली गयी। इसने धीरे धीरे एक गूढ़ रूप धारण कर लिया जो मध्यकाल में गिरिजाघरों में प्रयुक्त सहजगम्य लैटिन से तुलनात्मक रूप से बहुत भिन्न थी। प्राचीन लैटिन अपनी विषयवस्तु या शैली के कारण नहीं बल्कि कठिन लिप्य रूप में उपलब्ध होने के कारण गूढ़ और अगम्य मानी जाती थी। यह एक जटिल लेखन माध्यम के रूप में देखी जाती थी। लेकिन अब यह अपनी विषयवस्तु और अंतर्निहित भाषा विन्यास के कारण गूढ़ और जटिल हो गयी थी।

दूसरा कारक था सुधार का प्रभाव,जिसके विकास में भी प्रिंट पूंजीवाद का बहुत बड़ा योगदान रहा है। प्रिंटिंग के चलन और बहुलता में आने से पहले रोम अपनी गुप्त व आंतरिक संचार व्यवस्था के चलते अपने विरोधियों से सभी युद्ध जीतता था। जब 1517 में जर्मनी में मार्टिन लूथर ने कैथोलिक चर्चों के लालच व भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाई और अपनी शिकायतों की एक सूची विटेन्बर्ग के गिरिजाघर के दरवाजे पर चस्पाँ कर दी तो प्रिंटिंग के माध्यम से वे 15 दिनों के भीतर देश के कोने कोने में पहुँच गयीं। सन 1500 से 1520 के बीच जर्मनी में जितनी पुस्तकें प्रकाशित हुईं अगले दो दशकों में उससे तीन गुना अधिक पुस्तकों का प्रकाशन हुआ,एक आश्चर्यजनक परिवर्तन ,निस्संदेह,जिसके जनक मार्टिन लूथर थे। उस समय (1518 और 1522 के बीच) की लगभग एक तिहाई जर्मन भाषा की पुस्तकें मार्टिन लूथर की उपलब्धियों का दर्पण हैं ,जिनमें से तकरीबन 430 तो उसके द्वारा किए गए बाइबल के जर्मन भाषा में अनुवाद के संस्करण थे। पहली बार हमारा परिचय इतने बड़े पाठकवर्ग और वृहद्व्यापी,लोकप्रिय साहित्य से हुआ है।इस प्रकार मार्टिन लूथर इतिहास में प्रथम बेस्ट सेलर लेखक हुए,दूसरे शब्दों में,पहले ऐसे लेखक जिनके नाम से ही किताबें बिक जातीं थी।

जल्दी ही यूरोप के दूसरे देशों में लूथर के अनुगामी उत्पन्न हो गए,और उन्होने धार्मिक पाखंड के खिलाफ बड़े पैमाने पर शाब्दिक व साहित्यिक युद्ध छेड़ दिया,जो अगली शताब्दी में भी जारी रहा।

बौद्धिकता के इस युद्ध में प्रोटेस्टेंट मूलतः आक्रामक भूमिका में रहे क्योंकि वे पूंजीवाद के द्वारा विकसित किए गए स्थानीय भाषाओं के प्रकाशन बाज़ार का पूर्ण रूपेण दोहन करना चाहते थे। जबकि प्रतिसुधारवादी लैटिन भाषा के ढहते गढ़ की रक्षा करना चाहते थे। वेटिकन की इंडेक्स लिबरोरम प्रोहिबिटोरम’,इस विचारधारा की सबसे बड़ी प्रतीक चिन्ह थी – जिसका कोई प्रोटेस्टेंट समकक्ष नहीं हो पाया। 1535 में फ्रैंकोइस प्रथम द्वारा किसी भी पुस्तक के प्रकाशन पर लगाए गए प्रतिबंध से इस अवरोध की मानसिकता को और भी बेहतर तरीके से समझा जा सकता है- अवज्ञा का दंड फांसी थी। उसके राज्य की पूर्वी सीमा पर प्रोटेस्टेंट रियासतों का जमावड़ा और उनके द्वारा वृहत पैमाने पर प्रतिरोधी पुस्तक सामग्री की तस्करी इस प्रकार के प्रतिरोधों और उनकी अप्रवर्तनीयता का प्रमुख कारण था। यदि जेनेवा की तत्कालीन स्थिति पर विचार किया जाए तो 1533 और 1540 के बीच केवल 42 संस्करणों का प्रकाशन हुआ जबकि 1550 और 1564 के दौरान 527 संस्करण प्रकाशित हुए,जिसे पूरा करने के लिए कम से कम 40 छापाखाने दिन रात काम में लगे रहे थे ।

प्रोटेस्‍टेंटमत और प्रिंट पूंजीवाद के गठबंधन ने सस्ते और लोकप्रिय साहित्य का लाभ न केवल एक नए प्रकार के विशाल पाठकवर्ग को तैयार करने के लिए बल्कि उनको राजनैतिक- धार्मिक स्वार्थ के लिए लामबंद करने के लिए भी उठाया – इनमें मुख्यतः व्यापारी और महिलाएं थे, जिन्हें लैटिन भाषा का ज्ञान या तो बहुत कम या न के बराबर था। इन सुनियोजित गतिविधियों से मात्र चर्च ही प्रभावित नहीं हुए,उसी भूकंप ने यूरोप में डच गणतन्त्र तथा ईसाई प्यूरिटन राष्ट्रमंडल के पहले गैर राजवंशीय,गैर शहरी राज्यों को जन्म दिया, (फ्रैंकोइस प्रथम के आतंकित होने के पीछे धार्मिक के साथ साथ राजनैतिक कारण भी अवश्य रहे थे)।

तीसरा प्रमुख कारण था सत्ता के केन्द्रीयकरण हेतु भावी निरंकुश शासकों द्वारा स्थानीय भाषाओं का धीमा,भौगोलिक रूप से असमान लेकिन निरंतर प्रसारण। यह बात ध्यान रखने योग्य है कि  मध्यकालीन पश्चिमी यूरोप में किसी भी राजनैतिक व्यवस्था में लैटिन विश्वविद्यालय की प्रासंगिकता नहीं रही। जबकि साम्राज्यवादी चीन में मंदारिन और चित्रात्मक चीनी लिपि दोनों की बहुत अनुदेशात्मक भूमिका रही थी। जिसके फलस्वरूप पश्चिमी यूरोप के राजनैतिक विघटन के समय कोई भी स्वायत्त शक्ति ऐसी नहीं थी जो न केवल लैटिन भाषा पर अपना पूर्ण स्वामित्व जता सके बल्कि उसे अपने राज्य की आधिकारिक भाषा घोषित कर सके,और इस प्रकार लैटिन भाषा का धार्मिक वर्चस्व कभी भी उसकी राजनैतिक सत्ता में रूपांतरित न हो सका ।

सरल प्रशासनिक भाषाओं का उद्भव सोलहवीं शताब्दी में अस्तित्व में आए छपाई उद्योग और धार्मिक उथल पुथल से पहले हो चुका था,और इसी कारण हम उन्हें भी काल्पनिक धार्मिक समुदायों के पराभव का स्वतंत्र और प्रभावी कारण मान सकते हैं। लेकिन यह भी परिलक्षित किया गया है कि इस प्रकार की व्यावहारिक भाषाओं के प्रचलन में आने के बाद भी किसी नवीन बौद्धिक विचारधारा का उदय नहीं हुआ । प्राचीन यूरोप की उत्तर पश्चिमी सीमा पर स्थित इंग्लैंड का उदाहरण इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। वर्ष 1066 में नोमानों की इंग्लैंड पर हुई विजय से पहले वहाँ की दरबारी,साहित्यिक व प्रशासनिक भाषा एंग्लो सैक्सन थी। तत्पश्चात तकरीबन 150  वर्षों तक सभी शाही दस्तावेज़ लैटिन भाषा में लिखे गए। उसके बाद ई॰ 1200 और 1350 के मध्य इस शासकीय लैटिन भाषा का स्थान नोमान फ्रेंच ने ले लिया। इसी बीच विदेशी शासक वर्ग द्वारा व्यवहृत नोमान फ्रेंच भाषा और प्रजा में प्रचलित एंग्लो सैक्सन के सम्मिश्रण से अंग्रेज़ी भाषा की उत्पत्ति हुई। इस सम्मिश्रण की वजह से ही सन 1362 के बाद से यह नयी भाषा (अंग्रेज़ी) न केवल दरबारी भाषा बन गयी बल्कि संसद की स्थापना में भी इसकी बड़ी भूमिका रही थी। 1382 में वायक्लिफ़ द्वारा बाइबिल की सरलीकृत पाण्डुलिपि आ गयी। इन सभी वाकयात में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह राजकीय भाषाओं का क्रमिक विकास और रूपान्तरण था न कि राष्ट्रीय भाषाओं का, और यह केवल इंग्लैंड या वेल्स  का मामला नहीं था बल्कि आयरलैंड स्कॉटलैंड और फ्रांस में भी इसी प्रकार के क्रमिक भाषाई परिवर्तन देखने को मिल रहे थे। निश्चित तौर पर जनता का एक बहुत बड़ा प्रतिशत लैटिन,नोमान फ्रेंच या प्राचीन अंग्रेज़ी भाषाओं का ज्ञान नहीं रखता था और अंग्रेज़ी के राजनैतिक राज्याभिषेक के एक शताब्दी बाद तक यथास्थिति बनी रही।

पेरिस में सेन नदी के किनारे भी इसी प्रकार का एक आंदोलन थोड़ी धीमी गति से उपस्थित था। ब्लौच तनिक तिक्तता से ही कहते हैं, "भाषाई तौर पर फ्रेंच,जो अब तक लैटिन का विकृत रूप भर मानी जाती थी,को साहित्यिक प्रतिष्ठा पाने में कई सदियाँ लग गईं।"और इसे न्यायालय की आधिकारिक भाषा सन 1539 में फ्रैंकोइस प्रथम के समय में घोषित किया जा सका। दूसरे साम्राज्यों में लैटिन भाषा कुछ और समय तक अस्तित्व में रही। कुछेक में सरल विदेशी अपभ्रंश भाषाओं ने आधिकारिक स्थान ग्रहण कर लिया,जैसे रोमानोव दरबार में फ्रेंच और जर्मन भाषाएँ बहुलता से प्रयोग की जातीं थीं ।

इन सभी दृष्टांतों के अनुसार, एक भाषा का किसी राज्य की आधिकारिक भाषा के रूप में स्थापित होना एक मंथर,क्रमिक,प्राकृतिक,व्यवहारमूलक और अव्यवस्थित प्रक्रिया रही है। जबकि उन्नीसवीं शताब्दी में उग्र भाषाई राष्ट्रवाद के तहत निर्धारित की गयीं सुचिन्तित भाषा नीतियों में यह प्रक्रिया इस क्रमिकता और स्वाभाविकता के साथ देखने को नहीं मिलती है। एक मूलभूत अंतर यह भी देखा गया कि प्रशासकीय भाषाएँ मात्र आंतरिक आधिकारिक कार्यों की सुगमता के लिए प्रयोग की जातीं रहीं उन्हें कभी आम जनता की भाषा बनाने के प्रयास नहीं किए गए। यही नहीं,स्थानीय बोलचाल की भाषाओं के शासकीय भाषा के रूप में हुए उठान ने, न केवल उन्हें लैटिन भाषा का प्रतिद्वंदी बना दिया था (जैसे पेरिस में फ्रेंच और लंदन में अंग्रेज़ी) बल्कि इसी क्रम में वे ईसाई धर्म सत्ता के ह्रास का कारण भी बनीं।  

जमीनी तौर पर, लैटिन भाषा के पदच्युत होने और ईसाई धर्म के सत्ताहीन होने के पीछे लैटिन भाषा की सीमित पहुँच, सक्रिय सुधार आंदोलन, और आधिकारिक भाषाओं के अनियंत्रित विकास जैसे कारकों का नकारात्मक प्रभाव भी रहा था। इन तीनों या इनमें से एक भी कारक की अनुपस्थिति में ये महत्वपूर्ण ऐतिहासिक परिवर्तन संभव नहीं थे। सकारात्मक दृष्टिकोण से नए समुदायों और संगठनों के जन्म के पीछे उत्पादन और उत्पादक सम्बन्धों की व्यवस्था (पूंजीवाद), सम्प्रेषण की तकनीक (प्रिंटिंग),और मनुष्य की भाषाई विविधता में त्वरित परिवर्तन में परस्पर अनपेक्षित एवं विस्फोटक सम्बन्धों का महती योगदान रहा है।

अस्थायित्व या भ्ंगुरता मानव जीवन का एक अभिन्न अंग है, यही कारण है कि पूंजीवाद के बहुत शक्तिशाली मत बनकर उभरने के बावजूद उसने मृत्यु और भाषा जैसे नश्वर तत्वों पर विजय हासिल नहीं कर पायी। कुछ भाषाएँ समय के साथ मर सकती हैं या उनका सफाया हो सकता है लेकिन मनुष्य का भाषाई एकीकरण फिर भी संभव नहीं है। पूंजीवाद और विशेष तौर पर प्रिंट पूंजीवाद द्वारा एक-भाषा-भाषी समुदाय का निर्माण किए जाने से पहले की यह सार्वभौमिक भाषागत अगम्यता कुछ विशेष ऐतिहासिक महत्व नहीं रखती है ।

अस्थायित्व को भाषाई विविधता की अनिवार्य शर्त के तौर पर याद रखना आवश्यक है,लेकिन इसकी तुलना या साम्य राष्ट्रवाद के अंतर्गत क्षेत्रीय सीमाओं में आबद्ध भाषाओं के अस्थायित्व व परिवर्तन के विचार से नहीं किया जा सकता। सारभूत व शक्तिशाली कारक तो परिवर्तनशीलता,तकनीकी और पूंजीवाद ही रहे हैं। प्रिंटिंग के आविष्कार व प्रचलन से पहले यूरोप में बोलचाल की भाषाओं के इतने विविध रूप प्रचलित थे कि यदि प्रकाशकों ने अलग अलग सभी बोलियों में पुस्तकें छापने का इरादा किया होता तो यह बस छोटे मोटे स्तर का पूंजीवाद बन कर ही रह जाता। लेकिन भाषा के इन विविध रूपों को आपस में मिला कर छापे जाने योग्य भाषाओं का निर्माण किया गया,इन नयी बोलियों के एकीकरण और पुनर्गठन में भाषा के ऐच्छिक ध्वनिचिन्हों ने महत्वपूर्ण भूमिका निबाही (ये चिन्ह जितने अधिक चित्राक्षर रूप में थे उतना ही उनके पुनर्गठन का क्षेत्र विस्तृत होता गया)  इन स्थानीय बोलियों के विकास में सबसे बड़ा योगदान पूंजीवाद का है जिसने यांत्रिक पुनरुत्पादन के जरिये व्याकरण तथा भाषा विज्ञान की सीमाओं के अंदर रह कर भी बाज़ार के माध्यम से इन प्रिंट भाषाओं का अभूतपूर्व प्रसार किया । 

इन प्रिंट भाषाओं ने तीन प्रमुख तरीकों से राष्ट्रीय चेतना के प्रत्यय की नींव रखी। पहला और सबसे महत्वपूर्ण तरीका था, सम्प्रेषण और विनिमय के उद्देश्य से क्लिष्ट लैटिन व साधारण स्थानीय भाषाओं के बीच का एक सुसंगठित, सुगम्य माध्यम विकसित करना। पहले अंग्रेज़ी,फ्रेंच और स्पैनिश आदि भाषाएँ जानने वाले जो व्यक्ति आपस में विचार विनिमय नहीं कर पाते थे वे भी अब प्रिंट और कागज़ के माध्यम से एक दूसरे के भावों को जानने समझने लगे। इसी प्रक्रिया में वे उस भाषा को जानने वाले अपने जैसे सैकड़ों हजारों बल्कि यूं कहें कि लाखों लोगों को समझने लगे। इसका दूसरा पक्ष यह भी था कि इस प्रक्रिया में वे केवल उन सैकड़ों हजारों और लाखों लोगों के मनोभाव ही समझ पाते थे जो समान प्रिंट माध्यम को लिख पढ़ सकते थे। इन्हीं सहपाठकों ने,जो आपस में छपे हुए शब्दों के माध्यम से जुड़े हुए थे, अपनी विशिष्ट,निरपेक्ष अदृश्य दृश्यता के माध्यम से एक काल्पनिक राष्ट्रीय समुदाय की नींव रख दी ।

दूसरा,प्रिंट पूंजीवाद ने भाषा को स्थिरता व स्थायित्व दिया जो राष्ट्रीयता की व्यक्तिनिष्ठ विचारधारा के केंद्र में स्थित प्राचीन गौरव की भावना को बनाए रखने के लिए बहुत आवश्यक था। जैसा कि फेब्वर और मार्टिन हमें याद दिलाते हैं कि छपी हुई पुस्तकें कालिक और स्थानिक रूप से असीमित पुनरुत्पादन के योग्य स्थायी संपत्ति के रूप में अवतरित हुईं। इनमें मठों की हस्तलिखित पाण्डुलिपियों जैसी व्यक्तिवादिता और अचेतन रूप से नवीनीकरण करते रहने की वृत्ति नहीं पायी जाती थी। इसीलिए हम जितनी स्पष्ट असमानता बारहवीं और पंद्रहवीं शताब्दी की फ्रेंच भाषा में देखते हैं,छपाई के प्रचलन के बाद सोलहवीं शताब्दी की फ्रेंच में परिवर्तन का वह वेग नहीं पाते हैं। सत्रहवीं शताब्दी तक तो अधिकांश यूरोपीय भाषाएँ अपना आज का आधुनिक स्वरूप धारण कर चुकीं थीं । दूसरे शब्दों में कहा जाए तो पिछली तीन शताब्दियों से भाषा के उसी स्थायी रूप में सुधार और नाममात्र के बदलाव आते जा रहे हैं, किसी प्रकार के आधारभूत परिवर्तन नहीं हुए हैं। हम सत्रहवीं शताब्दी के लेखकों के शब्दों को भी अच्छी तरह समझ सकते हैं जबकि सत्रहवीं शताब्दी के लेखकों द्वारा बारहवीं शताब्दी की भाषा को उसी प्रकार समझा जाना संभव नहीं रहा होगा ।

तीसरा,प्रिंट पूंजीवाद ने सत्ता की ऐसी भाषा को जन्म दिया जो पूर्ववर्ती प्रशासनिक भाषाओं से बहुत भिन्न है। कुछ स्थानीय बोलियाँ संरचना और प्रतीति में प्रिंट भाषाओं से बहुत समानता और सामीप्य रखतीं हैं और उनके अंतिम व परिष्कृत रूप पर भी अपना प्रभाव बनाए रखतीं हैं। उनकी ही अभागी बहनें अर्थात वे भाषाएँ जिनके अपने भाषाई प्रिंट संस्करण नहीं बन सके तुलनात्मक रूप से वह प्रतिष्ठा और पद  नहीं पा सकीं ।

चूंकि उत्तर पश्चिमी जर्मन भाषा एक बड़े समुदाय द्वारा बोली जाती थी और प्रिंट जर्मन भाषा की तुलना में हीन होते हुए भी संरचना के स्तर पर उससे बहुत मेल खाती थी निकृष्ट जर्मनका ओहदा पा गयी,जबकि बोहेमी लोगों द्वारा प्रयुक्त चेक भाषा भिन्न संरचना के कारण वह दर्जा नहीं पा सकी। इसी क्रम में उत्कृष्ट जर्मन,शाही अंग्रेज़ी और केंद्रीय थाई भाषा कालांतर में सांस्कृतिक ऊंचाइयों को छूने लगीं । इन्हीं सब कारणों से बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यूरोप के कुछ उपराष्ट्रों ने अपने उपराष्ट्रवाद से ऊपर उठने के लिए और अपनी भाषा को वांछनीय प्रतिष्ठा दिलवाने के लिए प्रिंट व रेडियो प्रसारण का सहारा लिया।

शुरुआत में इन भाषाओं का राजनैतिक सम्मान बहुत पूर्वनियोजित व ऐच्छिक नहीं बल्कि पूंजीवाद,तकनीकी और भाषाई विविधता के विस्फोटक संयोजन द्वारा संचालित रहा लेकिन एक बार इन्होंने  वह महत्ता हासिल कर ली तो ये औपचारिक रूप से अनुकरणीय व आदर्श हो गईं। थाई सरकार अपने अल्पसंख्यक पहाड़ी जनजातीय समुदाय को बाहरी ईसाई मिशनरी द्वारा उनकी स्थानीय भाषा में प्रतिलिखित सामग्री या साहित्य उपलब्ध कराने या प्रकाशित करने का विरोध तो करती है परंतु उनके उसी भाषा में बातचीत करने से वह पूर्णतः अप्रभावित है। टर्की भाषा बोलने वाले देशों जैसे टर्की,ईरान,ईराक और यूएसएसआर आदि का उदाहरण इस विषय में बहुत महत्वपूर्ण है। अरबी हिज़्जों में लिखी और बोली जाने वाली इस भाषा,जिसे दुनिया के एक बड़े हिस्से में प्रयोग किया और समझा जाता था,को जान बूझ कर इन क्षेत्रों से नष्ट कर दिया गया। टर्की गणतन्त्र के पहले राष्ट्रपति अतातुर्क ने टर्की की इस्लामिक छवि से निजात पाने के लिए टर्की की बजाय लैटिन भाषा को जबरन लागू कर दिया (रोमनाइज़ेशन) । सोवियत संघ ने भी इसी नक़्शे क़दम पर चलते हुए पहले अपनी मुस्लिम विरोधी और अरबी लिपि विरोधी नीतियों के कारण लैटिन भाषा का प्रयोग आरंभ किया,और उसके बाद 1930 में स्टालिन ने राष्ट्र का रूसीकरण करने के लिए स्लाव (सिरिलिक) वर्णमाला अनिवार्य कर दी ।

इस आख्यान के द्वारा हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि पूंजीवाद,प्रिंट तकनीकी,भाषा की त्वरित परिवर्तनशीलता और नश्वरता के सम्मिलन ने एक नूतन ढब के काल्पनिक समुदाय को जन्म दिया,यदि शाब्दिक अर्थ लागू करें तो इस अवधारणा ने आधुनिक राष्ट्रवाद के स्वागत की पूरी तैयारी कर ली थी। इन समुदायों का विस्तार और क्षमता स्वाभाविक तौर पर बहुत सीमित थे और इनका तत्कालीन राजनैतिक सीमाओं से बहुत स्थायी संबंध नहीं था (जो अब वंशवादी विस्तारवाद के स्मृति शेष रह गए थे)।

आज जबकि सभी आधुनिक,स्वयं परिकल्पित और राष्ट्रीय राज्यों की अपनी राष्ट्रीय प्रिंट भाषाहै,कई राष्ट्रों की संयुक्त रूप से एक ही राष्ट्रभाषा है,और कुछ औरों की जनसंख्या का एक छोटा सा भाग ही इन राष्ट्रीय भाषाओं को लिखित और मौखिक रूप से प्रयोग करता है। अमरीका के कुछ राष्ट्रीय राज्य और ऐतिहासिक एंग्लो सैक्सन भाषा जानने वाले समुदाय पहली विशिष्ट श्रेणी में आते हैं जबकि अफ्रीका के कुछ भूतपूर्व औपनिवेशिक राज्य दूसरी श्रेणी में गिने जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो मात्र एक नियत प्रिंट भाषा की उपलब्धता से ही विविध समकालीन राज्यों में राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया समस्तरीय व समकक्ष नहीं हो जाती है। प्रिंट भाषा,राष्ट्रीय चेतना और राष्ट्रीय राज्यों की अवधारणाओं में इस प्रकार की अनियमितता व असंबद्धता को समझने के लिए हमें सन 1776 और 1838 के बीच पश्चिमी गोलार्ध में बहुलता से उग आए नई राजनैतिक शक्तियों के एक बड़े समूह का अध्ययन करना होगा क्योंकि ये सभी अपने आपको स्वायत्त राष्ट्र पारिभाषित करते हैं (केवल ब्राज़ील ही गणतन्त्र कहलाता है),और ये न केवल अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर प्रकट होने वाले अपनी तरह के पहले राष्ट्र हैं बल्कि इस बात की मिसाल भी हैं कि इस तरह के राज्यों को वैश्विक परिदृश्य में अपने आपको कैसे प्रस्तुत करना चाहिए।                                                                    
 (पाखी,अप्रैल 2016 राष्ट्रवाद पर एकाग्रअंक में प्रकाशित)

अनुवादक परिचय 
अनुराधा सिंह  
पाखी, कथाक्रम, वागर्थ,मंतव्य,कृतिओर तथा अन्य प्रमुख पत्रिकाओं और ब्लाग्स में प्रकाशित एवं प्रकाशनाधीन। 
पूर्व में संस्थापक एवं प्रमुख सलाहकार 'क्वांटम कॉन्सेप्ट्स एंड सॉल्यूशंस कंसल्टेंसी' बेंगलुरु।
संप्रति:  मुंबई में प्रबंधन कक्षाओं में बिजनेस कम्युनिकेशन का अध्यापन, हिमाचल प्रदेश के एचआइवी पॉज़िटिव स्वयंसेवकों की आपबीती पर आधारित श्रंखला 'ज़िंदगी ज़िंदाबाद'का लेखन ।
पता –  बी 1504 , ओबेरॉय स्प्लेंडर, जोगेश्वरी ईस्ट मुंबई ।     
 ईमेलanuradhadei@yahoo.co.in
 मोबाइल : 9930096966 


इरोम शर्मिला/ के.सच्चिदानंदन : अनुवाद - यादवेन्द्र

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करीब दस वर्ष तक मणिपुर में सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार देने वाले आर्म्ड फोर्सेज़ (स्पेशल पावर्स) ऐक्ट को हटाये जाने की माँग करते हुए भूख हड़ताल करती आ रही इरोम शर्मीला ने आज अपना अनशन समाप्त कर दिया। उनपर किसी आतंकी कार्य का नहीं बल्कि अपना जीवन समाप्त कर लेने की कोशिश करने का आरोप है और आज भी जज ने उनसे इस अपराध को स्वीकार कर माफ़ी माँगने को कहा पर शर्मीला ने सख्ती से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा कि वे आंदोलन का रास्ता नहीं छोड़ेंगी पर आंदोलन के वैकल्पिक रूपों - विधान सभा के चुनाव लड़ना उनमें से एक रास्ता है - के साथ आगे बढ़ेंगी। बार उनके प्रेम और विवाह की बातों को उछालने वालों को जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि प्रेम उनका नितांत निजी और कुदरती मामला है। 
इरोम शर्मीला स्वयम एक सशक्त कवि हैं - उनको केंद्र में रख कर मलयालम के मूर्धन्य कवि के सच्चिदानंदन की लिखी इस महत्वपूर्ण कविता के अंश यहाँ प्रस्तुत हैं :
- यादवेन्द्र

तुम 
     - के सच्चिदानंदन   

मेरा शरीर 
मेरा झंडा है शोक में आधा झुका हुआ 
मेरा पानी आता है 
आगामी कल की नदियों से 
और मेरी रोटी 
पकती है हवा की रसोई में। 
मेरे दिमाग के अंदर घुसा हुआ है 
एक बुलेट
किसी अनदेखे तोते जैसा हरा है उसका रंग। 
मेरा नाम 
मेरी प्राचीन भाषा का अंतिम अक्षर है 
हर पहेली के सही जवाब उसमें हैं 
हर मुहावरे का नैतिक पाठ उसमें समाहित है 
हर जादुई मंत्र के देवता का उसमें वास है
हर भविष्यवाणी का अपशकुन उसमें है। 
***
मैं न भी रही तो क्या 
काबिज़ रहेगी मेरी उम्मीद:
पर्वतों से निकल कर बिखरते शब्दों को 
नली ठूँस कर खिलाने की दरकार नहीं होगी 
न ही जंगलों से निकल कर फैलती कविता को 
कुचल सकेगा कोई बूट 
फ़ौलाद से निर्मित वर्णमाला के सीने में 
क्या मजाल कि घोंप दे कोई संगीन ...
बैंगनी रंग का उड़हुल :
मेरा मणिपुर दिल 
मौसम कोई भी हो हरदम खिला रहता है।  
*** 
(kractivist.wordpress.com/2012/11/11/manipurs-irom-sharmila-our-irom-sharmila-sundayreading-poems/पर उपलब्ध कविता के सम्पादित अंश)
चित्र : मुसरत रियाज़ी / http://pashupatisasana.blogspot.in/2011/11/irom-sharmilas-eleven-year-fast.htmlसे साभार 

जम्मू कश्मीर में हिन्दी कविता और युवा कवि : एक अवलोकन - कमल जीत चौधरी / 01

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युवा कवि कमल जीत चौधरी से अनुनाद का आग्रह था कि जम्मू-कश्मीर की कविता की पड़ताल करें। उन्होंने एक लम्बा लेख उपलब्ध कराया है, जिसके लिए अनुनाद कमल जीत का आभारी है।  इस लेख को एक साथ प्रस्तुत किया जाना मुमकिन नहीं है, इसलिए इसे तीन हिस्सों में छापने की योजना है। आज यह पहला हिस्सा।



अग्रज उदय प्रकाश की एक कविता मुझे बहुत प्रिय है . इसे आलेख पढ़ने के बाद भी ध्यान में रखा जाए -

आदमी मरने के बाद कुछ नहीं बोलता
आदमी मरने के बाद कुछ नहीं सोचता
कुछ न बोलने और कुछ न सोचने से
आदमी मर जाता है .


इधर के परिदृश्य में संवाद और असहमति के लिए जगह कम हुई .  हम एक दूसरे को जानना नहीं चाहते . दूसरे का दुःख हमें सालता नहीं . उसके सुख से हम दुखी होते हैं . जनतंत्र एक एक हाई टेक जाल बन गया है . कविता चूहे की तरह यह जाल कुतरने की सामर्थ्य रखती है . ऐसे में कविता की भूमिका पर बात की जानी चाहिए . मैं किसी को बड़ा या छोटा होने का प्रमाणपत्र देने की पात्रता या अधिकार नहीं रखता . मैं यहाँ कवियों की सूची नहीं बनाऊंगा .यह भ्रामक होगा और इसके अपने खतरे हैं . इस आलेख का उधेश्य जम्मू कश्मीर प्रान्त में पिछले कुछ सालों में उभरी काव्य प्रवृत्तियों से परिचय करवाना है . लिखने की जिम्मेवारी समझता हूँ . प्रवृत्तियाँ गिनाते हुए मेरा नाम या काव्य पंक्तियाँ आयें तो  इसका सरलीकरण न किया जाए . वैसे
मैं इससे बचूंगा .

हिन्दी कविता में एक स्थापित मुख्यधारा है .  मुख्यधारा से मेरा आशय इससे अलग कुछ और है . आम आदमी का साथ देती और एक प्रतिपक्ष रचने वाली हिन्दी कविता मेरी दृष्टि में मुख्यधारा है . मानवीय मूल्यों वाली इस कविता की शर्त कोई भूगोलिक हदबंदी नहीं होनी चाहिए . जिसमें रहने की अनिवार्य शर्त गुणवत्ता और ईमानदारी  है . दिल्ली के बाहर भी दिल्लियाँ हैं . इसे प्रवृत्ति की तरह देखा जाए . इस तरह सीमांतों में भी अच्छी कविता के साथ जो एक साहित्यिक सत्ता रहती है. जो एक तेज चमक होती है . इससे अछूता रहकर लिखना आसान काम नहीं है .

'यह तो घर है प्रेम का खाला का घर नाहिं ,
सीस उतारी हत्थी रखे फिर पैठे घर माहिं . – कबीर

यह बात जम्मू कश्मीर की कविता पर भी लागू होती है . यहाँ भी सत्ता , पद प्रतिष्ठान और पुरस्कार लेखकों की परीक्षा लेते हैं . इस परीक्षा में कम ही लेखक सफल होते आए हैं .

युवा कवि एक भ्रामक शब्द है . प्रगतिशील होना ही युवा होना है . प्रगतिशील कविता छाया में सन ग्लासेस नहीं पहनती . प्रेम करना खूब जानती है . यह रात को रात और दिन को दिन कहना जानती है . इस शर्त के साथ हिन्दी के पास चन्द्रकांत देवताले , वीरेन डंगवाल, नरेश सक्सेना , मंगलेश डबराल , हरीश चन्द्र पाण्डेय , देवी प्रसाद मिश्र , बिष्णु नागर , अरुण कमल , राजेश जोशी , आलोकधन्वा , हुकुम ठाकुर , ज्ञानेन्द्रपति , विष्णु खरे , कुमार अम्बुज आदि चिर युवा कवि हैं . जम्मू कश्मीर में महाराज कृष्ण संतोषी , निर्मल विनोद अग्निशेखर , अशोक कुमार , रमेश मेहता , श्याम बिहारी , पवन खजुरिया , राजेश्वर भाखड़ी , शकुन्त दीपमाला , डॉ० राजकुमार शर्मा , डॉ० चंचल डोगरा , मनोज शर्मा , श्याम बिहारी आदि अग्रज कवियों को इस कसौटी पर परखना चाहिए . यह सभी कवि पचपन की उम्र पार कर चुके हैं . इस आलेख में प्रदेश में लिखी जा रही नयी सदी की कविता मेरी प्राथमिकता में रहेगी .

पिछली सदी का अंतिम दशक दक्षिणपंथी ताकतों के उभरने का है . जो आज घिनोनी राजनीति द्वारा संचित पोषित होकर अख़लाक आदि के कत्ल पर फल फूल रही हैं .इसने आम हिन्दू मुस्लिम की दुनिया को पहले से भी बुरा बना दिया है . 1990 में  कश्मीरी पण्डितों के विस्थापन और 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस को
राजनेताओं ने खुलकर भोगा . हिन्दू - मुस्लिम तुष्टिकरण शुरू हुआ . जोअबाध गति से जारी है . अफसोस यह है कि निम्न मध्यवर्ग धर्म का झुनझुना बजा रहा है . लोग  इसकी तलवार के आशिक हो गए हैं . मसलोनी और हिटलर के वंशज दुनिया को एक यातनाघर में बदल देने का उपक्रम कर रहे हैं . निजताखत्म हो गई है . हम एक नम्बर बन गए हैं . किसी भी समय हैंग या हैक  किए जा सकते हैं . हम फासीवाद के बदले हुए रूप को प्रगति समझने की भूल कर रहे हैं . ऐसे भयावह समय में सच्चा कवि , कलाकार और एक्टिविस्ट संघर्षों में लिप्त है . वह इन ताकतों के खिलाफ लिख , बोल कर लड़ रहा है.  वह समझता हैकि दुनिया को सुन्दर बनाने का सपना मेहनतकशों के साथ होकर ही पूरा हो सकता है . अरुण कमल कहते हैं कि कविता अंतिम मोर्चा है जहां से मनुष्यता के लिए लड़ाई जारी रखी जा सकती है . असली कविता अभी भी चूकी नहीं है . यह बात जम्मू कश्मीर की कविता पर भी लागू होती है .

रीतिकालीन कवि दत्त को जम्मू कश्मीर का पहला हिन्दी कवि माना जाता है .लम्बे अन्तराल के बाद उनकी वीर रस परम्परा से अलग एक नया नया मोड़ आया . पण्डित नीलकंठ , जिंदा कौल , पृथ्वीनाथ पुष्प आदि ने रहस्यवाद , श्रृंगार, प्रकृति चित्रण जैसी काव्य प्रवृत्तियों से कविता को आगे बढ़ाया.

1960 के बाद डॉ० ओम प्रकाश गुप्त , देशबंधु डोगरा नूतन , डॉ० ओम गोस्वामी ,पद्मा सचदेव जैसे कवि सामने आते  हैं . गुप्त को छोड़कर अन्य डोगरी में लिखने लगे . साठ से सत्तर के बीच नयी कविता के भाव बोध और शिल्प को पकड़ने का प्रयास  हुआ .  इस बीच  निर्मल विनोद और सुतीक्ष्ण कुमार आनंदम जैसेकवि छायावादी प्रवृत्तियों को जगह देते हैं . आगे चलकर डॉ० गुप्त , रमेश मेहता और सुभाष भारद्वाज की कविताओं में कमाधिक छायावादी  , प्रयोगवादी और प्रगतिवादी प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं . अग्रज कवि अशोक कुमार अपने पहले कविता संग्रह की भूमिका में लिखते हैं - 'जम्मू कश्मीर में हिन्दी कविता को छायावाद के चंगुल से छुड़ाने की दिशा में सबसे पहला प्रयास प्रोफेसर सुभाष भारद्वाज ने किया . '१ . वे इसे ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं. यह 1980 की बात है . अशोक कुमार के संग्रह 'डूबे हुए सूरज की तलाश 'में भी नयी काव्य प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं . इसमें वे प्रयोग आग्रही हैं . इन्हीं दिनों ज्योतिश्वर पथिक भी इन्हीं प्रवृत्तियों के साथ लिख रहे थे . रमेश मेहता के 'खुले कमरे बंद द्वार ' [ 1972] , और 'तिनकातिनका घोंसला ' [1987 ] कविता संग्रह प्रकाशित हुए . वे अज्ञेय से इस कद्र प्रभावित रहे कि बरसों तक अज्ञेय व्याख्यान श्रृंखला करवाते रहे . पिछली सदी तक अधिकतर कवियों ने निराला , केदारनाथ अग्रवाल , त्रिलोचन , शमशेर बहादुर सिंह , मुक्तिबोध , बाबा नागार्जुन , धूमिल आदि की परम्परासे मात्र हिट एंड रन वाला सम्बन्ध रखा . दरअसल हिट एंड रन इनका वर्गबोध रहा .

उन्नीस सौ नब्बे के बाद एक बड़ा बदलाव आता है . कश्मीर से पण्डितों काविस्थापन हुआ . धार्मिक कट्टरता ने पण्डितों से उनके घर छीन लिए . यह एक बड़ी ट्रेजडी थी . कविता के लिए इसे टर्निंग पॉइंट कहते हुए मुझे जरा भी ख़ुशी नहीं हो रही . घर और अपनी मिट्टी छोड़ने के दर्द को भुलाया नहीं जासकता .  विस्थापन ने कुछ यादगार कविताएँ दी . जिहाद और जीनोसाइड के खिलाफ खूब लिखा गया . देश विदेश ने इस कविता और उनके दुःख को अपना समझा . इसी दौरान महाराज कृष्ण संतोषी के 'बर्फ पर नंगे पाँव ' , 'यह समय कविता का नहीं 'और डॉ० अग्निशेखर के 'किसी भी समय 'और 'मुझसे छीन ली गयी मेरीनदी 'नामक संग्रह आए . इनका मूल स्वर विस्थापन का दर्द और स्मृतियाँ हैं. 'पुल पर गाय 'शीर्षक कविता की पंक्तियाँ देखें –

छींकती है जब भी मेरी माँ
यहाँ विस्थापन में 
उसे याद कर रही होती है गाय  ...

यहाँ एक टीस है . विस्थापित कवियों में अपनी मिट्टी और पूर्वजों के प्रति गहरा प्रेम और प्रतिबद्धता है . अग्निशेखर लिखते हैं –

मैं लड़ता रहूँगा पिता
स्मृतिलोप के खिलाफ ...
पिता , मैं साँस साँस जी रहा हूँ
गाँव अपना
तुम स्वीकार करो तर्पण .

विस्थापन की कविताएँ लल्लद्यद की नाव सी हैं .  ऐसी कविताएँ  विश्व कविता में एक स्थान रखती हैं . स्मृतियाँ इस कविता की ख़ास विशेषता रही है . डॉ ० अग्निशेखर , महाराज कृष्ण संतोषी , क्षमा कौल की कविताएँ खासकर देखी जा सकती हैं . इनसे अलग सन्दर्भों में जम्मू की मूल कविता में भी पिता , माँ, दोस्तों और कुछ छूटी हुई जगहों की स्मृतियाँ हैं .

1992 में एक बार फिर धार्मिक कट्टरता ने लोकतंत्र की विश्वसनीयता पर सवालखड़े किए . बाबरी मस्जिद को तोड़ा गया . करोड़ों लोगों की भावनाओं का राजनीतिकरण हुआ . आज तक हो रहा है . एक दुखी आदमी दूसरे दुखी आदमी की पीड़ा को अधिक समझ सकता है . जाने क्यों हरे दुखों वाले विस्थापित अग्रज
कवि बाबरी मस्जिद विध्वंस पर चुप रहे . वैसे किसी घटना पर नहीं लिखना कविकी अपनी आज़ादी है . मेरा निजी मत है कि जम्मू कश्मीर के सन्दर्भ में इसे नहीं उकेरने को सिर्फ कवि की आज़ादी के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए .

विस्थापितों की कविताएँ अपने दुःख में मुग्ध हैं . इतनी कि अपने शरणदाताजम्मू के साथ होने वाले राजनीतिक भेदभाव को रेखांकित करने के दायित्व को भूल गई . वैसे जम्मू के मूल कवियों ने भी इस पर न के बराबर लिखा है . जम्मू और कश्मीर दो अलग अलग खित्ते हैं . इनके बीच संघर्ष और द्वन्द है .कुछ कविताएँ इस ओर ध्यान दिलाती हैं . काव्यांश देखें –

यह अलग बात है
पुराण कथाएँ सत्य हो रही हैं
स्वर्ग चतुर्दिक झण्डे गाढ़ रहा है
धरती हार रही है .    {  'बच्चे बड़े हो रहे हैं ' - कमल जीत चौधरी  }

देश में यह वह समय है जब आम पर चिनार उग आए हैं .
{  'सत्यापन ' - कमल जीत चौधरी  }

ऐसी कविताएँ अपवाद हैं . पर ध्यान रहे यह अपवाद की कविताएँ नहीं हैं . इसी तरह से आम कश्मीरी की पीढ़ा को व्यक्त करने वाले निदा नवाज़ भी अपवाद हैं . पर उनका साहित्य भी अपवाद का साहित्य नहीं है . जनता कहीं की भी हो कवि को उसका प्रतिनिधि होना चाहिए . प्रतिनिधि का अर्थ सिर्फ उसकोअभिव्यक्त करने में नहीं है . जनता को स्वार्थान्ध राजनीति या कट्टर ताकतों के चंगुल से छुड़ाकर रास्ता दिखाना भी कवि का दायित्व है . साहित्य का एक अर्थ 'जैसा हो सकता है 'भी है . मतलब कि इसमें होने या नवनिर्माण की सम्भावना छिपी होती है . साहित्य की इस शक्ति को समझ कर आगे के रास्ते तय हों .

विस्थापित कवि जम्मू के हक़ में खड़े नहीं होते . इसे वे सांप - बिच्छुओं की धरती लिखते हैं  . एकाध जगह तवी नदी डॉ० अग्निशेखर की संवेदना ज़रूर पाती है . जबकि जम्मू के मनोज शर्मा , कल्याण , कुलविंदर मीत आदि की कविताओं में कश्मीरी शरणार्थियों की पीड़ा व्यक्त हुई . आज भी कुमार कृष्ण , योगितायादव आदि की कविताओं में चिनार की संवेदनाएँ  व्यक्त हो रही हैं . यह नैतिकता की बात है . कश्मीर में रह रहे निदा नवाज़ की दो चार कविताओं में विस्थापित जगह पाते हैं  . कश्मीरी पण्डितों की कविताओं में वहां रह गए मुस्लिम न के बराबर जगह पाते हैं . महावीर प्रसाद द्विवेदी अपने एकनिबन्ध में साहित्य को इतिहास से अधिक प्रामाणिक मानते हैं . यहाँ क्या माना जाए . क्या यह कभी इतने करीब नहीं रहे ? क्या यह कभी सहपाठी या साथी नहीं रहे ? इन्हें एक दूसरे की याद कभी नहीं आती ? क्यों ? यह कविता सेपरे एक राजनीतिक सवाल भी है . राष्ट्रीय पटल पर डॉ० अग्निशेखर और महाराज कृष्ण संतोषी बड़े नाम हैं . उनके हाथों जम्मू की कविता हेतु किसी बड़े संपादन या आयोजन की अपेक्षा की जा सकती थी ? यह बात जम्मू के वरिष्ठ कवियों से पूछी जा सकती है . सवाल यह भी है कि विस्थापित कवियों का कोईउत्तराधिकारी कवि क्यों नहीं है . क्या इनकी नयी पीढ़ी हिन्दी भाषा और कविता से आगे निकल चुकी है . 'फिरन में छुपाए तिरंगा 'संग्रह के बाद महाराज कृष्ण भरत कहीं दिखाई नहीं देते . वे अग्निशेखर और संतोषी के बाद की पीढ़ी के कवि रूप में सामने आए थे . फिलहाल  विस्थापन की पीढ़ा और पुनर्वास की इच्छा को व्यक्त करने वाला कोई उत्तराधिकारी कवि नहीं है . यह एक सपना मरने जैसा है . सवाल अपनी जगह हैं पर मेरी संवेदनाएं आम विस्थापितों के साथ हैं . आखिर घर तो उन्होंने छोड़े हैं –

हम थे
कभी नदी पुत्र
पर आज हम
इतिहास की कीचड़ हो गए हैं .  [ महाराज कृष्ण संतोषी की कविता कीचड़ से ]

सन 1971 में छम्ब और पाक से विस्थापित हुए लोग भी हैं . उनकी कभी चर्चा नहीं हुई . उनकी आबादी भी लाखों में है . जम्मू के छम्ब विस्थापन की उपेक्षा और कश्मीर विस्थापन के वैश्वीकरण को पकड़ने का प्रयास नहीं हुआ है विस्थापन में एक चालाक आदमी सत्ता सुख भोगता है . कृष्णपुर मनवाल होया मुट्ठी कैंप , आम आदमी तम्बू में मरता है .  सैंतालिस के पाक रिफ्यूजी भी एक समस्या है . जो साहित्य में ही नहीं इस देश में भी अपनी जगह नही पा सके हैं . जम्मू कश्मीर में एक जगह लद्दाख भी है . रियासत के कवियों की संवेदना इसे प्राप्त नहीं हुई . इसे हिन्दी कविता में भी न के बराबर जगह मिली है . ऐसी अछूती जगहों की ओर ध्यान देना होगा . धार्मिक कट्टरता और धर्म का राजनीतिकरण  , भूमि अतिक्रमण  , प्रकृति का दोहन , मज़दूरों , किसानों , दलितों और पहाड़ी लोगों का जीवन संघर्ष यहाँ पर्याप्त रूप सेअभिव्यक्त नहीं हुआ है  . यह  जम्मू की कविता की सीमा रही . आज इस सीमा का अतिक्रमण हो रहा है .

पिछले दिनों हिन्दी कवि नरेश सक्सेना से बात हो रही थी . उन्होंने कहा कि किताब नहीं कविता लक्ष्य में होनी चाहिए . इससे सहमत होना होगा . कविता लक्ष्य में होने का अर्थ संघर्ष और सुन्दर दुनिया का सपना लक्ष्य में होना है . इधर युवा रंगकर्मी राजकुमार बहरूपिया के लिखने का पता चला . वे लिखकर छुपा लेते हैं . क्यों ? 'वे कहते हैं कि इतना अच्छा लिखा जा चुका है कि क्या लिखा जाए . यह ठीक है कि खराब लेखन को पेड़ काटने से जोड़कर देखा जा सकता है . पर यहाँ अभी वह स्थिति नहीं आई है कि न लिखने के
कारण ढूँढने पड़ें . यहाँ तो हाल फिलहाल ही  बहुल रूप में चली आ रहीएकपक्षीयता , एकरसता और एकालाप टूटा है . युवा कविता में सवाल प्रमुख हो रहे हैं . अब अधिकतर कवियों में भाव और विचार का अच्छा सन्तुलन है . इनके पास नयी जीवन दृष्टि , राजनीतिक स्वर , मौलिक और टकटके बिम्ब हैं . आगेके सफ़र में इन्हें परम्परा , मुहावरे और भाषा शैली को लेकर सचेत होने की आवश्यकता है .

जम्मू के सन्दर्भ में बताता चलूँ कि कविताएँ छपने के लिए बाहर न भेजना यहाँ की वृत्ति और सीमा है.पिछली सदी तक यहाँ के कवियों और बाहर के संपादकों के एक दूसरे के लिए पूर्वाग्रह भी रहे . जिसके भी कारण जम्मू की कविता बाहर कम पहचानी गई . यहाँ यह भी कहा जाता है कि कोई छपने यापुरस्कृत होने से कवि नहीं हो जाता . इस पर इतना ही कहूँगा कि न छपने यापुरस्कृत होने से भी कोई कवि नहीं हो जाता .  वैसे यूँ हिन्दी में ऐसे कवियों की कमी नहीं जिनकी कोई किताब तो नहीं , पर उन्हें पढ़ने लिखने वाले इसलिए जानते हैं क्योंकि उनका लेखन सोशल नेटवर्किंग और पत्र पत्रिकाओंमें उपलब्ध होता रहता है . सोशल नेटवर्किंग पर उपलब्ध लेखन हिन्दी के लिए आश्वस्तिपरक है . इसने नए पाठक बनाए हैं . मेरा अटल विश्वास है कि कवि नहीं पाठक पैदा किए जा सकते हैं . इस बात को समझकर यहाँ के कवियों को ऐसे
मंचों का प्रयोग अधिकाधिक करना चाहिए . लिखकर अलमारी में बंद कर लेना या जम्मू के मंचों को ही संसार समझना भारी भूल होगी . 
 
1990 से लेकर 2005 तक विस्थापन की कविता प्रमुख रही . एक तरह से पूरे परिदृश्य को हाईजेक करके इस कविता ने एकाधिकार बनाए रखा . खासकर अंतिम दशक में जो भी दूसरा लिखा गया उसका महत्त्व किसी को नहीं दिखा . उसकी प्रवृत्तियाँ गौण हो गई . जबकि इन सालों में विस्थापन से इतर भी लिखा गया

नयी सदी में अरुण बजाज कृत  'सच तो अब भी यही है ' [ 2002 ] और  कल्याणकृत 'समय के धागे ' [ 2003 ] , ने नयी भाव भूमि के कारण ध्यान खींचा . कल्याण ने खासकर लोक के श्रम सौन्दर्य और आर्थिक विषमता को अभिव्यक्त किया . हिन्दी कवि विजेंद्र ने उनके लोक सौन्दर्य को एकाध जगह रेखांकितकिया . सहजता इनकी पहचान रही है . इधर वे अपने स्वभाविक मुहावरे से कुछ दूर हुए हैं . मेरा मानना है कि कविताएँ मसाला फिल्मों की तर्ज पर नहीं लिखी जानी चाहिए . अग्रज  कवि मनोज शर्मा कृत  'बीता लौटता है ' [ 2005 ] नामक संग्रह ने सामूहिक सपनों को नए आयाम दिए . इस बीच मनोज और कुछसाथियों ने ज़मीन पर भी काम किया . पहले से लिख रहे कुंवर शक्ति सिंह ,कल्याण आदि ने इसी ज़मीन पर उड़ान भरी . मनोज शर्मा द्वारा लिखे जा रहे 'फ़िलहाल'नामक साप्ताहिक स्तम्भ , संस्कृति मंच जम्मू के कार्यक्रम और नित्य शाम की बैठकों ने यहाँ की कविता को नई दिशा दी . बताता चलूँ कि वेभले पंजाब के रहने वाले हैं , पर डेढ़ दशक से अधिक समय तक उनका कार्य क्षेत्र जम्मू रहा है . उन्हें यहाँ का ही गिना जाता है . अशोक कुमार द्वारा संकलित जम्मू के प्रतिनिधि काव्य संग्रह 'तवी जहां सेगुज़रती है ' [ 2010 ] का संज्ञान डॉ० नामवर सिंह ने लिया . इसकी भूमिका में अरुण कमल ने जोर देकर इस युवा कविता के राजनीतिक स्वर को रेखांकित किया . मुंबई से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका सृजन सन्दर्भ के मनोजशर्मा द्वारा सम्पादित अप्रैल - जून 2010 के जम्मू विशेषांक ने यहाँ कीयुवा अभिव्यक्ति को राष्ट्रीय मंच दिया . लेखक व धरती के सम्पादक शैलेन्द्र चौहान द्वारा अभिव्यक्ति के अंक 37 जुलाई 2011  में जम्मू केपांच कवियों की विशेष प्रस्तुति भी एक खाका खींचती है . इस स्तम्भ मेंउन्होंने कुमार कृष्ण शर्मा , अमिता मेहता , डॉ० शाश्विता , कमल जीत चौधरी , शेख मोहम्मद कल्याण की कविताओं पर छोटी - २ टिप्पणियाँ लिखी . इस बीच महाराज कृष्ण संतोषी का 'वितस्ता का तीसरा किनारा ' [2005] ,अग्निशेखर का 'जवाहर टनल ' [ 2008 ] नामक संग्रह आते हैं . इनमें विस्थापन और स्मृतियाँ के साथ साथ राजनीतिक चेतना को देखा जा सकती है . डॉ० अरुणा शर्मा का  'पृथ्वियाँ '[ 2008 ] , श्याम बिहारी का 'मैंसमुद्र ही हो सकता था .' [ 2008 ]  , कुलविन्दर मीत का 'नदी रोशनी की ' [ 2008 ] नामक संग्रह प्रकाशित हुए . इनमें क्रमश: समर्पण , व्यष्टिपरकता व राजनीतिक और क्रांति का स्वर दिखाई देता है . इसी बीच अनिला सिंह चाढ़क का कविता संग्रह 'नंगे पाँव ज़िन्दगी 'रिश्तों की संवेदना लेकर आया .जम्मू की हिन्दी कविता में लगभग 2006-07 में कुमार कृष्ण शर्मा , योगिता यादव आदि युवाओं के रूप में नया स्वर गूंजता है . प्रतिनिधि रूप में यह नए सपनों को लेकर लिखी जा रही कविता का सामने आना था . कहानीकार के रूप
में तो योगिता ज्ञानपीठ के युवा पुरस्कार से सम्मानित होकर खूब जानी हीजा रही हैं  . वे कवि रूप में भी प्रभावित करती हैं . कुमार कृष्ण अपनी बेबाक राजनीतिक कविताओं से जम्मू के साहित्यिक परिदृश्य को नए आयाम दे रहे हैं .

पिछले दो सालों में यहाँ कुछ महत्वपूर्ण कविता संग्रह आए हैं - मनोजशर्मा का 'एक ऐसे समय में ' [ २०१५ ] , निदा नवाज़ का 'बर्फ और आग ' [२०१५ ] , अशोक कुमार का 'कस्स गुमां ' [ २०१४ ] , डॉ० राजकुमार का 'खून का रंग तो है ' [ २०१४ ]  महाराज कृष्ण संतोषी का 'आत्मा की निगरानी में' [२०१५] और कमल जीत चौधरी का 'हिन्दी का नमक ' [ २०१६ ] .इन पर एक नज़र –

मनोज शर्मा एक महत्वपूर्ण कवि हैं . इनका शब्द संस्कार जनान्दोलनों के सामूहिक  सपनों से  पैदा हुआ है . यही कारण है कि वे किसी तरह के झुण्ड का झंडा लेकर नहीं चलते . भीड़ में एकांत के लिए लड़ते  हैं  . मनोज शर्मा गँवई चाल के कवि हैं . इनकी कविताई अंगूठों से धरती मापती है . जीवनसंघर्ष को प्रेरित करती इनकी कविताएँ हथियार नहीं आदमी का विवेक बनती है. ग्रामीणबोध से भरी इनकी भाषा पंजाबीयत की सरदारी  ठोकती  नज़र आती है . 'ऐसे समय में 'प्रेम , स्त्री संवेदना और निराशा में डूबे आदमी की अभिव्यक्ति है . पहले संग्रह की अपेक्षा वे यहाँ कम राजनीतिक हैं , पर प्रखर उतने हीहैं . समीक्षकों की सालाना सूचियों से परे रहकर भी यह हिन्दी कामहत्वपूर्ण संग्रह है .

'बर्फ और आग 'कश्मीर के जीवन अनुभव का संग्रह है . यहाँ पक्ष नहीं पीड़ा को प्रामाणिक देखना होगा . पीड़ा ही कवि का पक्ष है . जबकि यहाँ अन्य कवियों से भी  स्पष्ट राजनीतिक पक्ष की अपेक्षा है . जिससे कवि बचते रहे हैं . बचना हल नहीं है . कश्मीर के इतिहास को समझना होगा . पूर्वाग्रह छोड़ने होंगे . यहाँ दशकों से आम आदमी का अंगूठा और छाती इस्तेमाल हो रहे हैं . आम आदमी के हनन होतेमानवाधिकारों पर खुलकर बात होनी चाहिए . सत्ताओं की पोल खोलनी होगी ...निदा नवाज़ पिछली सदी के अंतिम दशक में अपने पहले कविता संग्रह 'अक्षर अक्षर रक्त भरा ' [ 1997 ] से सामने आते हैं . जब पण्डितों के विस्थापन के बाद वहां हिन्दी का कोई नामलेवा नहीं रहा . निदा ने भाषा और अपने परिवेश के प्रति एक जिम्मेवारी समझते हुए हिन्दी में लिखना शुरू किया . वे इसका श्रेय भी लेते हैं . अगर वे उर्दू में लिखते तो खूब जाने तो जाते पर निश्चित ही उनके लिए दिक्कतें बढ़ जाती .  जब कश्मीर में [ पूरे देशमें भी ] सड़कों और ऐतिहासिक जगहों के नाम बदले जाने के उपक्रम हो रहे हैं . जब तालिबानी फतवों को जारी किया जा रहा है . जब राजनीति सिर्फ राज करने का पर्याय बन गई है . तब वे वोट और जेहाद से उपजी पीड़ा को अपनी कविताओं में जगह देते हैं .  इनकी कविता कश्मीर की बंद गलियों , चौराहों औरसड़कों की कविता है . जहाँ खून , चप्पलें , पोस्टर , नकाब , झण्डे और बन्दे आठवें रंग से पुते हैं . इस रंग की चालाकी का गिरेबां वे पकड़ नहीं पाते . वे क्रेकडाउन, हड़ताल , कर्फ्यू , आँसूगैस , गोली , पत्थर , ज़ख्म, फैले खून , उड़ते पँख , बिखरी चप्पलों , नकाब के दृश्य दिखाते हैं . इनके बिंबों , प्रतीकों और उपमाओं में  दोहराव के आक्षेप लगाए जा सकते हैं . मौलिक गढ़ने के चक्कर में वे कविताई से दूर जाते हैं . कहीं कहींपर सम्प्रेषणीयता भंग होती है . निदा से इससे आगे की कविताई की उम्मीद है . कविता जितनी भी जीवन के लिए हो पर उसे अपनी कला में कविता ही होना चाहिए . अभी उन्हें भाषा और शब्द चयन को लेकर काम करना होगा . इस पर भी वे बहुत ज़रूरी कवि हैं . आखिर वे कश्मीर के कवि हैं . प्रतिरोध के कविहैं .

(सुदीर्घ लेख का यह पहला हिस्सा है, आगे दो हिस्से और आने हैं)

जम्मू कश्मीर में हिन्दी कविता और युवा कवि : एक अवलोकन - कमल जीत चौधरी / 02

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अशोक कुमार कम लिखते हैं . छपते लगभग नहीं हैं . तीन दशकों बाद 2014 मेंउनका दूसरा संग्रह 'कस्सगुमां 'आया है . इसमें कुछ अच्छी कविताएँ हैं . वे विचार की अपेक्षा भाव को महत्व देते हैं . इनका कहन सरल है . शीर्षक कविता के अतिरिक्त वे ज्यादातर कविताओं में सहजता से बात कह जाते हैं  .इनकी कविताओं में मध्यवर्गीय समझ देखी जा सकती है . राजनीतिक चेतना भी इसी सीमा के साथ आती है . वे जम्मू वि०वि० के हिन्दी विभाग द्वारा संस्थापित व संचालित संस्था  'युहिले 'की वैचारिक सीमा में प्रतिबद्ध रहे हैं . यह इनकी  पहचान और सीमा है . दोस्त शीर्षक औरमृत्युबोध पर लिखी इनकी कविताएँ ख़ास ध्यान खींचती हैं . एक उदाहरण देखें -

क्या इस तरह चला जाता है आदमी
जैसे टंकी भरने पर
फालतू पानी बह कर चला जाता है ...

हिमाचल मूल के डॉ० राजकुमार भी साढ़े तीन दशकों से जम्मू में हैं . उन्हेंजम्मू का वरिष्ठ कवि , कहानीकार और समीक्षक माना जाता है . अपने नए कविता संग्रह में उनका स्वर बदला है . वे लिखते हैं –

कैसी सदी है
डर
आदमी
से बड़ा है  
खड़े हो रहे रौंगटे
साहस बौना पड़ा है ...

यहाँ जन का दुःख दर्द और  निराशा भी है . राजनेताओं के प्रति खीझ औरआक्रोश  का स्वर है . उनके साथ एक आशा भी है –

फिर भी गनीमत है  
अगली सुबह
सूरज निकल आता है .

महाराज कृष्ण संतोषी हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि हैं . उनके अभी आए संग्रह 'आत्मा की निगरानी 'में उन्होंने अपनी सीमा का अतिक्रमण किया है . इस पर हिन्दी जगत में बात हो रही है . इसमें प्रतिरोध , आत्मस्वीकार , सच्चाई और मानवीय कमजोरियां कलात्मक ढंग से अभिव्यक्त हुई हैं . प्रतिरोधका एक उदारहण देखें –

इस दुनिया में
जहाँ  हर कोई
अपना गुब्बारा फुलाने की
प्रतिस्पर्धा में व्यस्त है
मैं चाहता हूँ
होना
एक छोटी सी पिन ...

आत्मस्वीकार का एक उदहारण देखें –

अभी भी जिन्दा है मेरे भीतर
गुरिल्ला छापामार
बेहतर दुनिया के लिए लड़ने को तैयार
पर एक कायर से
उसकी दोस्ती है
जो उसे यही समझाता रहता है
दूसरों के लिए लड़ोगे
तो मारे जाओगे
सच कहता हूँ
यही है मेरे जीवन की व्यथा
सपना देखा उस गुरिल्ला ने
जीवन जिया इस कायर ने .

इनका यह कविता संग्रह सिर्फ विस्थापन के लिए ही नहीं जाना जाएगा .

'हिन्दी का नमक'कमल जीत चौधरी यानी मेरा अनुनाद सम्मान से समानित पहला कविता संग्रह है . इस संग्रह के साथ ही उनकी जिम्मेवारी बढ़ गई है . इसकी चर्चा यदि हुई तो कोई और करेगा।

इन संग्रहों के अतिरिक्त 2014 में संजीव भसीन का 'कब सुबह होगी 'और सतीश विमल का  '  काल सूर्य 'नामक संग्रह आए . संजीव भसीन की कविताई में जन सरोकारों के होने का प्रयास है . 'लड़कियाँ 'शीर्षक से लिखी अपनीकविताओं से उन्होंने अपनी ख़ास पहचान बनाई है . भाषा में अंग्रेजी शब्दोंके प्रयोग के लिए भी वे जाने और क्रिटिसाइज़ किए जाते हैं . 'भेड़िये 'शीर्षक कविता में वे शोषकों को सर्वव्यापक बताते हैं . दृष्टि सम्पन्नता और भावों की स्वाभाविकता के लिए उनसे और प्रयास की अपेक्षा की जा सकती हैसतीश विमल कविता में अन्तर्मुखी हैं . वे उसी को कविता मानते हैं ,जिसके रेफरेंस न ढूँढने पड़ें . राजनीतिक स्वर वाली कविताएँ उन्हें प्रभावित नहीं करती . वे बिल्कुल गैर राजनीतिक  कविताएँ लिखते हैं. वे कहते हैं कि इतनी तो राजनीति है यहाँ पर कुछ तो इससे अछूता रहे . इनकीकविताएँ भारतीय दर्शन और सांस्कृति सोपानों पर तो ले जाती हैं , पर वहां बाहरी जीवन  के ज़रूरी सवाल नहीं मिलते . वे अच्छे मगर आम पाठक के कवि नहीं हैं . वे रेडियो स्टेशन में काम करते हैं . अपनी धुन में वे कश्मीरमें रहकर लिख रहे हैं . यही उनकी पहचान है .

इधर हिन्दी में छन्दबद्ध कविता लगभग खत्म हो गई . रियासत में कुछ कवि अभीभी अच्छी छन्दबद्ध कविता लिख रहे हैं . निर्मल विनोद वरिष्ठ कवि हैं . चार दशकों की उनकी काव्य यात्रा छन्दबद्ध कविता की धरोहर है . वे प्रकृति के सशक्त भावों वाले कवि हैं . गीत , दोहे और मुक्तछंद में कविताएँ लिखरहे हैं .  इनका 1996 में प्रकाशित हुआ नवगीत संग्रह 'टूटते क्षितिज के साए 'में बिल्कुल अभी पढ़ा . इनके यहाँ वैचारिक सीमा है  . इसी में रहकर वे  भूख , गरीबी , टूटते आदमी और मूल्यों की बात करते हैं . 'तेल के लिए धन कविता 'की यह पंक्तियाँ देखें -

माटी के दीपों में तेल के लिए न धन
देश है स्वतन्त्र किन्तु घुटता है कुंठित मन
कैद में अँधेरे के उत्स हैं प्रकाश के
खड़े घिरे घेरे में हम किसी विनाश में .

कपिल अनिरुद्ध भी छन्दबद्ध कविता लिखते हैं . लय गेयात्मकता औरसंगीतात्मकता उनकी विशेषता है . वे अच्छी गज़ल भी कहते हैं . वे अध्यात्म , दर्शन और भारतीय संस्कृति के कायल हैं . अभी कोई संग्रह नहीं आया है . सुनील कुमार का 'प्रेम पवन की पहली थपकी ' [ 2004 ] एक रोमानियत लेकरआया था  . उस रुमान से वे आगे नहीं बढ़ पाए . इनके यहाँ वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है . इधर उन्होंने कुछ गज़लें कहीं हैं. उनका एक शेरदेखिये -

आग लिखता या आग सा लिखता
जल रहा शहर था मैं क्या लिखता .

जम्मू के कवि सुधीर महाजन का अभी कोई संग्रह नहीं आया है . वे अच्छे कविमाने जाते हैं . इनकी कविताओं में बाज़ार की विसंगतियां  और बदलते हुए जीवन मूल्यों की अभिव्यक्ति हुई है .  वे मिनरल वाटर से लेकर ओबिचरी तक में आदमी को देखते हैं . वे गहरा दर्शन नहीं आधुनिक मानव का फलसफाजिजीविषा के साथ व्यक्त करते हैं . वे किसी विशेष विचारधारा के नहीं हैं. इनकी  'सिगरेट की आत्मकथा ' , 'दृष्टिकोण '  'आत्मग्लानी 'और 'सार 'कविता को इस रूप में देखा जा सकता है . माँ पर इनकी कुछ सुन्दरकविताएँ हैं . उनका आत्मस्वीकार देखें -

 
यूँ तो 
मेरे घर के पीछे 
पगडण्डी भी है
किन्तु कभी कभार ही पहुँच पाती है
कविता मेरे घर तक ....

इसी में आगे उनका विश्वास देखने लायक है -

घर छोड़ कर कहीं जा भी नहीं सकता
 कविता कभी भी मुझ तक पहुँच सकती है
कभी भी ...

जम्मू और कश्मीर को अलग अलग बांट कर अपनी -२ राजनीति चमकाई जाती है . यहऔर भी घातक है जब मतदाता भी जनप्रतिनिधियों को नहीं अपने -२ धर्म को प्राथमिकता दें . यहाँ अब ऐसा होने लगा है . जबकि कश्मीर समस्या को देखतेहुए तीनों खित्तों में परस्पर विश्वासबहाली और संवाद ज़रूरी है . जो किहोने नहीं दिया जाता . ऐसे समय में कुमार कृष्ण जैसा कवि आश्वस्त करता है.  उनका अभी कोई संग्रह नहीं आया है .  'उसका जिक्र 'नामक कविता में वे दोनों खितों के बीच की खाई  पर पुल बांधने का काम करते हैं. वे धार्मिककट्टरता पर प्रहार करते हैं . 'जीने के सौ विकल्प 'में अंधीराष्ट्रभक्ति जैसे मुद्दे को मार्मिक तरीके से व्यक्त किया है . उनकी 'आई० डी०  कार्ड 'एक व्यक्ति पहचान के संघर्ष की कविता है . 'मैं अर्जुन
हूँ 'के माध्यम से पथ भटक चुके अपने गुरू के विरोध में खड़ा होने का साहस रखते हैं . वे अति आधुनिक भावबोध के कवि हैं . 'मुन्नी बदनाम हुई 'जैसी कविताओं में उन्होंने मौलिक बिंबों का इस्तेमाल किया है . इनकी ताकत राजनीतिक चेतना , प्रतिरोध और  गहरी संवेदनशीलता  है . जबकि सपाटबयानी ,गद्यात्मकता और संवाद शैली इनकी विशेषता और सीमा दोनों हैं .

आज फासीवादी शक्तियों से खतरा है . पूँजीवादी ताकतें साम्प्रदायिकझुण्ड इसकी सहयोगी शक्तियां हैं . कुछ कवि साम्प्रदायिक और कट्टर ताकतों का पर्दाफाश कर रहे हैं . देश हित में ऐसे खतरों को उकेरा जाना ज़रूरी हैजम्मू कश्मीर की कविता में जनपक्षधरता और प्रबल राजनीतिक स्वर है . यहसंवाद पैदा करने की क्षमता रखती है .  जम्मू कश्मीर के युवा कवि ने किसी पारम्परिक प्रभाव में आकर प्रतिरोध की संस्कृति को नहीं रचा है . वह जानता है कि कविता का मूल उधेश्य क्या है . प्रतिरोध का यह अभी उभरा तेवरआने वाले दिनों में हिन्दी में ख़ास जगह रखेगा .

सच्ची कला जीवन के पक्ष में खड़ी रहती है . किसी भी समय जीवन के पक्ष में बात करना आसान नहीं है . इस बात को कितनी ख़ूबसूरती से संतोषी अपनी एककविता में कहते हैं -

जाल बुनना एक कला है
मकड़ी ने तितली से कहा 
तितली ने सुना
सोचा   
फिर कहा
कला से मिलती है मृत्यु  
और उड़ गई .

अभिव्यक्ति के खतरों से चिर युवा पूर्वज कवि मुक्तिबोध ने बहुत पहले सेआगाह कर दिया था . यहाँ की कविता जोखिम उठा रही है . युवा कवियों में बोल्ड राजनैतिक स्टैंड देखे जा सकते हैं . कविता लिखने के खतरे हैं . सत्ता गोली से नहीं कविता से होकर आए विचार से डरती है . अभिव्यक्ति केखतरे उठाते रहना चाहिए . एक्सपेरिमेंट करते रहना चाहिए . सत्ता से टकराते हुए हक़ , न्याय , मानवधिकारों और आम आदमी की भावनाओं को व्यक्त करती कविता सबको सुनानी चाहिए . यह भी हो सकता है कि राजा का सैनिक गोली चलाने की जगह अचानक वाह कह उठे .  ताली बजाकर इसका स्वागत करे . जी हाँ !! यहहो सकता है . कविता की यही ताकत है . देखें शक्ति सिंह के इस कवितांश पर आपकी क्या प्रतिक्रिया रहती है -
 
सरहद पर बीड़ियां बदलते
दो किसानों की खातिर  
फ़ैज़ की ग़ज़लों लाहौर की गलियों की ख़ातिर
अगर मै कह भी दूं- 
पाकिस्तान ज़िंदाबाद
तो लोगों को क्यों लगे कि मैने  
भारत को कोई गाली दी है .

शक्ति सिंह की कविताओं में विद्रोह की भावना है . वे कहीं कहीं बहुत लाउडहैं . ग्रहयुद्ध का आह्वान करते हैं . इसी तरह का स्वर कल्याण , कुमार कृष्ण और कुलबिंदर मीत के संग्रह में मिलता है . पिछले आठ साल से मीत का कुछ भी लिखा हुआ सामने नहीं है . वे विदेश चले गए हैं . 'बादलों में आग'कविता में कल्याण लिखते हैं -

आओ तुम भी आओ 
वक्त आ गया है कि
हवा का रुख पहचान  
बादलों में आग भर दें ..

प्रेम के बिना कैसा सपना , कैसा विद्रोह  . जम्मू की युवा कविता मेंसिर्फ प्रतिरोध , क्रांति और राजनीतिक स्वर ही नहीं है . बल्कि यहाँ प्रेम भी पूरी शिद्धत और गहराई से उतरा है .  एक से बढ़कर एक प्रेमकविताएँ यहाँ मिल जाएँगी . नवोदित कवियों की प्रेम कविताओं में भी  के राजनीतिक चेतना है . यह सुखद है .

इधर पहाड़ी के युवा कवि अंतरनीरव ने भी हिन्दी में कुछ राजनीतिक कविताएँलिखी हैं . इनमे व्यंग्य का पुट है . राजनीतिक हुए बिना कोई सच्चा कवि नहीं हो  सकता . कबीर , ब्रोत्लेत ब्रेख्त, लोर्का , नाजिम हिकमत , फैज़ अहमद फैज़ , गोरख पाण्डेय , धूमिल  , अवतार सिंह पाश, बाबा नागार्जुन आदिआज सबसे ज्यादा इसलिए याद आते हैं क्योंकि आज जनतांत्रिक , और मानवीय मूल्यों को खतरा है . श्रीकांत शर्मा जी के शब्दों में न बचने की चाह रखने वाला ही कुछ रच सकता है . कोई ऐसा ही कवि पूछेगा या लिखेगा कि
एक सौ तीन देशों में अमेरिका के सात सौ आठ सैनिक शिविर क्यों हैं ? लोकतंत्र में लोक कहाँ है ? स्त्री , दलित , किसान , मजदूर का क्या हाल हैं ? घोड़ा और छाती क्यों इस्तेमाल हो रहे हैं ? कश्मीर , पूर्वभारत,
नक्सलवादी क्षेत्रों में कब तक घिनोनी राजनीतिक  चालें खेली जाएँगी ? धरती का लोह छड़ों से बलात्कार कौन कर रहा है देश का खनिज कहाँ जा रहा है  साम्प्रदायिकता की जड़ें  कहाँ हैं ? दस - दस देशों की नागरिकताएँ किसके पास हैं ? अपने ही देश में नागरिकता से लोग वंचित क्यों हैं  ?सवाल और भी हैं . इनसे जूझे बिना कोई भी कवि/लेखक बड़ा भले हो जाए पर सच्चा कवि / लेखक नहीं हो सकता . ऐसे सवालों से जम्मू के युवा कवि और कविताएँ टकरा रही हैं . जम्मू कश्मीर में अपने अपने सच हैं . मनोज शर्माकी लोक नायक मियां डिडो को सम्पर्पित कविता में जबरदस्त व्यंजना है .अंतिम पंक्तियाँ देखें -

और राजा तो
कट जाने पर एकदम बनवा लेते होंगे
नया पतंग
पर , उनसे पेंच कौन लड़ाता होगा .

यह कविता सवाल में चेतावनी दे रही है . सत्ता से टकराने वाले पैदा होतेरहेंगे . विस्थापित अग्रज कवि श्याम बिहारी का भी एक सवाल है -

अक्सर मेरे दांतों में 
फँस जाता है कोई दाना  
न चबता है न निकलता है
जैसे ... वीरप्पन 
जैसे ... काबुली जहाज़ 
जैसे ... कश्मीर
मेरे मुँह में यह दांत किसके हैं .

एक सवाल ऐसा भी  -

शहीद होने के जज्बे से
कहीं अच्छा होता है  
यह जान लेना कि
किसके लिए और क्यों शहीद हुआ जाए .   [ कृष्ण कुमार शर्मा ]

जम्मू कश्मीर की युवा कविता जनतांत्रिक मूल्यों की पहचान करती है . जनतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्ष करते हुए यह सत्ता का कालर भी पकड़ लेती है . आज देशभक्ति और देशद्रोह के प्रमाणपत्र बांटे जा रहे हैं  . एक बड़े वर्ग को रिजेक्ट किया जा रहा  है .  घृणा की यह वृत्ति घातक है . मीडियाकी भूमिका इसमें सबसे अधिक घिनोनी है . राष्ट्रीयता के झंडेवाद में सबसे अधिक हनन राष्ट्रीयता का ही हुआ है . राष्ट्रवाद का परचम फहराने वाले यह बताएँ कि राष्ट्रभाषा का क्या हाल है ? मोर कहाँ नाच रहा है ? जंगल कहाँगए ? कमल कहाँ पर खिले ? तालाब किसने भर दिए हैं ? वाघ कहाँ जा रहे हैं ? हाकी से कौन खेल रहा है . ऐसा क्यों है कि केवल राष्ट्रगीत अथवा राष्ट्रध्वज के लिए शोर मचाया जाता है . राष्ट्रीय पर्व मज़ाक बनकर रह गए हैं . यहाँ की कलम ऐसे ज़रूरी विषयों को छू रही है .

कविता में कटाक्ष और अच्छा व्यंग्य जनता की कविता को ताकत देता है . यहाँइधर राजनीतिक स्वर वाली कविता में गढ़े हुए ईश्वर , साम्राज्यवादी अमेरिका के अतिरिक्त दिल्ली पर जबरदस्त व्यंग्य मिलते हैं . अधिकतर व्यंग्य कविताएँ प्रतीकात्मक हैं . इनमें व्यंग्य  एक बिट / चुटीले अंदाज़ में आताहै .  यहाँ की कविता हर तरह की सत्ता का प्रतिपक्ष रचती है . यह मठाधीश आलोचकों और कवियों को भी कठघरे में खड़ा करती है .  व्यंग्यकार कवि माने जाने वाले पवन खजुरिया लिखते हैं -

सुबह वे गाँधीवादी होते हैं
रात को क्लब में रोमियो बने होते हैं .
**
 
धँसी हुई आँखें 
ढोती परम्परा 
पिचके हुए गाल  
बजाते ताल /
चरमराती हड्डियाँ  
जैसे 
होली और बैसाखी का  
डांडिया
बिल्ला लगा है -
वीर भोग्या वसुन्धरा .
 
इनके यहाँ जनपक्ष वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है . कहीं कहीं वे प्रभावितकरते हैं पर आमतोर पर उनका व्यंग्य सतही होकर हास्य और मनोरंजन बन जाता है .

लेखक का कार्यक्षेत्र , परिवेश और व्यक्तित्व उसके लेखन में दिखना एकअतिरिक्त विशेषता है . इससे विश्वसनीयता बढ़ती है . जम्मू के कुछ कवियों के लेखन में इनका कार्यक्षेत्र झलकता है . कुछ कवियों की कविताओं में उनकी आजीविका का कार्यक्षेत्र नहीं भी दीखता . इसे दो तरह से देखा जानाचाहिए . एक तो यह कि कविता ही उनका कार्यक्षेत्र है [ जो कि कम है ] . दूसरा यह कि कवि अपने पेशे और कविता का घालमेल नहीं करते हैं [ यह कला है ] . कार्यक्षेत्र भले न दिखे पर अपने लोक , परिवेश , भूगोल और बोली के प्रभाव से जम्मू कश्मीर की कविता पहचानी जा सकती है .

भाषाएँ किसी भी समाज की पहचान होती हैं .  ये संस्कृति की सरंक्षक होतीहैं . जन भाषाओं  के प्रति दायित्व निभाये जाने चाहिए . आज अंग्रेजी भाषा सत्ता की सरंक्षक बनकर खड़ी है . यह वर्ग भेद भाव को बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभा रही है . आर्थिक प्रगति और अंग्रेजी के बीच कोई सम्बन्ध नहींहै . रोजगार संसाधनों के उचित उपयोग से पैदा होता है न कि किसी भाषा विशेष से . स्विटज़लैंड , नीदरलैंड , जर्मनी , जापान , स्वीडन , स्पेन , दक्षिण कोरिया , कनाडा , इटली , ग्रीस , अमेरिका , ब्रिटेन , इस्रायल आदि समृद्ध देश शिक्षा और सरकारी कामों के लिए देसी भाषा को प्राथमिकता देतेहैं . जबकि अंगोला , यूगांडा , तंजानिया , माली , नाइजीरिया आदि उपनिवेश रह चुके अति गरीब देश औपनिवेशिक भाषा में अपने सरकारी काम काज करते हैं . आम भारतीय ने भी औपनिवेशिक भाषा अंग्रेजी को तरक्की का पर्याय मान लिया है . इसके पीछे हीन भावना भी है . यहाँ अंग्रेजी बोलने वाले को बुद्धिमानऔर पढ़ा लिखा समझा जाता है . किसी के पास इतना अवकाश नहीं कि इतना समझ सके कि  शोध , ज्ञान , विज्ञान और विचारों का भाषा से कितनाभर सम्बन्ध होता है . ऐसे में कवि / लेखकों का दायित्व है कि वे शोषकों की पोल खोलें . कोलोनियल एजेंडे के सामने डटी यह पंक्तियाँ देखें -

मिठास के व्यापारी
मेरी जीभ
तुम्हारा उपनिवेश नहीं हो सकती
यह हिन्दी का नमक चाटती है .   [  कमल जीत चौधरी ]

कुमार कृष्ण शर्मा इन दिनों अंग्रेजी के पत्रकार हो गए हैं , पर वेमजबूती से हिंदी के पक्ष में खड़े हैं . इसका एक उदाहरण देखें -

वह अंग्रेजी बोलता है  
मैं नहीं डरता
वह अंग्रेजी खाता पीता है  
मैं नही डरता
मैं डर जाता हूँ
जब वह हिन्दी के हाथी पर
अंग्रेजी का महावत चाहता है .

देशी भाषाओं की पैरवी करता हुआ भी यह कहूँगा कि जिस अंग्रेजी में आम आदमीका पक्ष हो , जो सत्ता की पोल खोले , जिसमें सवाल उठ रहे हों , उससे कोई विरोध नहीं . मेरे लिए भाषा नहीं अधिकाधिक समता ज़रूरी है . इधर के सालों में शिक्षा के अंग्रेजीकरण , बाजारीकरण और निजीकरण ने आम आदमी कीदिक्कतें बढ़ाई हैं . बच्चों के खेल छीनकर प्ले वे स्कूल आ गए हैं . सरकारी स्कूल बंद हो रहे हैं . रियासत में शिक्षा व्यवस्था का बुरा हाल है . इस समस्या पर कुछ अच्छी कविताएँ मिल जाएँगी .

यह रोक लिए जाने का समय है . किसको कहाँ रोक लिया जाएगा कुछ पता नहीं .विश्व बन्धुत्व और वासुदेव कुटुम्बकम के बीच बीज़े को तरसते लोग हैं . आदमी का फिर भी कभी लग जाता है पर जानवरों के लिए सारे रास्ते रोक दिए गए हैं . जम्मू कश्मीर की कविताओं में भारत पाक सीमावर्ती लोक दिखाई देता है. यह कविता नक्शे की सीमा  पार कर जाती है .

डॉ० अग्निशेखर लिखते हैं कि सिर्फ दीवारों पर लिख देने से भारत कश्मीर सेकन्याकुमारी तक एक नहीं हो जाता . अखण्डता दिखाने भर को रह गई है . तरह तरह के इज्म हम पर हावी हो रहे हैं .  जाति और धर्म शोषकों का सबसे अचूक हथियार हैं . 
 
ब्राह्मण प्रतिनिधि सभा की रैली  
राजपूत सम्मलेन
दलित महासभा 
महाजन समाज की कॉन्फ्रेंस 
मुस्लिम जमात की बैठक ...
शहर का मुख्य चौराहा   
इन सभी बैनरों से भरा पड़ा है -
इन्हीं बैनरों की छाँव तले
दूध और निम्बू  
तरबूज और चाकू  
एक साथ बिक रहे हैं . [ कुमार कृष्ण शर्मा ]

सत्ता विभिन्न माध्यमों से अन्धविश्वास और धार्मिक उन्माद फैला रही है .पूरी दुनिया में वैज्ञानिक और तार्किक जीवन का प्रचार प्रसार करने वाले कत्ल किए जा रहे हैं  . नरेन्द्र दाभोलकर , अभिजित रॉय आदि इसका उदहारण हैं  . ब्राह्मणवाद की बली चढ़े रोहित बेमुला की त्रासदी को भी सभी जानतेही हैं . ऐसे हो चले परिदृश्य में जम्मू कश्मीर की हिन्दी कविता से और अपेक्षा की जा सकती है .

पिछले दस सालों में डेढ़ लाख किसानों ने आत्महत्या की है .  अभी भी इस देशको कृषिप्रधान ही कहा जाता है . यह शर्मनाक है . बीस करोड़ लोगों के पास घर नहीं है . धर्मस्थान बढ़ते जा रहे हैं . प्रदेश को भी मंदिरों का शहर कहा जाता है . मजदूरों को हर सुबह साम्बा , बड़ी ब्रह्मणा गंग्याल आदिजगहों पर दिनभर के लिए बिकने को तैयार खड़ा देखा जा सकता है . अफ़सोस कि सभी को दिहाड़ी नहीं मिलती . इसी तरह से आए दिन हड़ताल और बंद से जनजीवन प्रभावित होता है . बंद पर यहाँ कुछ अच्छी कविताएँ मिल जाएँगी . एक बानगीदेखें -

शहर में बंद है ...
वे गुब्बारे रामदीन नहीं बेच पाया  
भरे थे जो उसने
उस फूँक से  
जिसने सामने दिखती उसकी पसलियों में /
रबर - सा - खिंचाव ला दिया था . ' [ कल्याण के समय के धागे कविता संग्रह से  ]

....... शेष तीसरे हिस्से में

जम्मू कश्मीर में हिन्दी कविता और युवा कवि : एक अवलोकन - कमल जीत चौधरी / 03

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मजदूरों के जीवन स्तर के बारे में कोई नहीं सोचता . ऐसे में कवियों  का दायित्वबोध क्या है ? किसान और मज़दूर पर छिटपुट कविताएँ ज़रूर मिलती हैं . किसान या मज़दूर दिवस पर इनके श्रम सौन्दर्य को रेखांकित करने वाली कविताएँ पर्याप्त नहीं  हैं . कवियों को इसके लिए डीक्लास भी होना होगा . एक समय जम्मू में कविता पोस्टर जैसी परम्परा भी चली थी . कुछ कवि नुक्कड़में हिस्सा लेते थे . लोक मंच जम्मू कश्मीर जैसे सांस्कृतिक संगठन इसके लिए कुछ ज़मीनी काम कर सकते हैं . वर्गबोध कविताई के लिए बहुत महत्वपूर्ण है .

बर्जनिया वूल्फ ने लिखा है कि 'स्त्री को लिखने के लिए एक कमरा चाहिए'. इस कमरे को स्त्री अभी भी पा नहीं सकी . औरत जन्मजात कवि होती है . अपने कवि को पन्ने पर उतारना उसके लिए कभी भी किसी भी समय में आसान नहीं रहा . वह लिख रही है . इसी में उसका विद्रोह है . राष्ट्रीय स्तर पर शैलजा पाठक , अपर्णा मनोज , अंजू शर्मा , वंदना देव शुक्ला , मृदुलाशुक्ला , बाबुशा कोहली , रश्मि भारद्वाज , सुलोचना वर्मा , सोनी पाण्डेय आदि परिदृश्य पर हैं . इनके समकक्ष  योगिता यादव , अमिता मेहता , अरुणा शर्मा , डॉ० शाश्विता आदि को रखकर देखा जा सकता है . यहाँ का स्त्री स्वर
मुख्यधारा के फैशनेबल स्त्री विमर्श से परे एक मौलिक और मुखर भावजगत केगवाक्ष खोलता है .

डॉ० चंचल डोगरा के मनोवैज्ञानिक और प्राकृतिक धरातल की परम्परा को आगे ले जाने काम  डॉ० अरुणा शर्मा ने किया . उनकी कविताएँ पृथ्वी की कविताएँ हैं. जम्मू कश्मीर में उन्होंने स्त्री लेखन को नई भाव भूमि दी . इनके यहाँ चली आ रही कुछ चीजें टूटी हैं . उनके लेखन पर उन्ही की कलम से कहूँगा -

'चींटियों को नहीं मालूम
अपने पीछे क्या छोडती जा रही हैं ...'

योगिता यादव स्त्री परिवेश को समृद्ध कर रही हैं . वे बहुत अच्छी कवि भीहै . हंस , नया ज्ञानोदय आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित इनकी कविताओं पर पर्याप्त चर्चा हुई है . दस्तक समूह में प्रसिद्द संपादक आलोचक निरंजन श्रोत्रिय जी ने इनकी कविताओं को रेखाचित्र के समान कहा है . इधर उनकेनेतृत्व में स्त्री सृजन की मासिक बैठकों ने शहर में स्त्री लेखन के लिए नया माहौल बनाया है . योगिता की कविताओं में प्रेम , समर्पण , पितृ सत्ता प्रतिरोध , स्मृतियाँ , बदलाव का सपना , और आह्वान जगह पाता है . उनकी कविताओं का स्पेस देखें -

मैं मुक्त हूँ 
हाँ, मैं हूँ मुक्त 
न करना मुझे 
छंदों में बाँधने के असफल प्रयास ...
***
मैं सींचूंगी तब तक 
जब तक तुम
वटवृक्ष से 
छतनार नहीं हो जाते ...
***
तुम्हारे सब घाव
धूप की परछाई की मानिंद
मेरे आगे आगे चलते हैं .
***
 
डॉ० शाश्विता की कविताएँ स्त्री अंतर्मन की परतें खोलती हैं . इनका कोईसंग्रह अभी नही आया है . तलाश की कविताएँ हैं . इनके यहाँ छायावादी प्रवृत्तियाँ हैं . यहाँ सामाजिक सरोकार आत्मीय भाषा में जगह पाते हैं . 'सहवेदना 'नामक कविता में अपनी सहायिका के प्रति इनकी संवेदना सलामयोग्य हैवे व्यष्टि से समष्टि की तरफ जाती हैं . जब वे लिखती हैं -

घोर सघन अँधेरा
परत - परत गिरह खोलता है .
***
फिर एक दिन
मैं माफ़ कर देती हूँ उसे
और मुक्त हो जाती हूँ .
***
मैंने वो सब सुना
जो उसने कभी नहीं कहा
मैंने वो सब छुआ
जो भी उसने छुपाया
***
..........तो उनकी संवेदना गहरे तक छूती है .

किरण कंचन का एक कविता संग्रह आया है . उन्हें अभी किताब न लाकर और लिखनाचाहिए था . इनकी कविताएँ भाव और शैली में अभी बहुत कच्ची हैं . पर एक स्त्री मन यहाँ भी बतियाता नज़र आता है . एक बानगी देखें -

दुनिया के माहौल में रहना
घी बनकर , लौ में जलकर
प्रकाश फैलाना ...

अमिता मेहता कोमल भावों को व्यक्त करने वाली कवि हैं. किसी प्रकार काचमत्कार या अतिरिक्त प्रयास उनके शिल्प और कंटेंट में नहीं दीखता . उनकी 'संदूक 'कविता अगली पीढ़ी को विश्वास की चाभी थमा जाती है . 'आग के फूलों की डाली 'जैसा बिम्ब उनकी मौलिकता को दर्शाता है . देखें -

वह अक्सर मुझे मिलता है
और लाता है मेरे लिए
आग के फूलों वाली डाली .
 
वे इंतज़ार नामक कविता में गुलाब को नयी दृष्टि से देखती है  . इनका भीकोई संग्रह अभी नहीं आया है . सोनिया उपाध्याय अपनी क्षणिकाओं से जीवन केखट्टे मिट्ठे भाव और अनुभव व्यक्त करती हैं . इनके अतिरिक्त नीरू शर्मा , शारदा साहनी , विजया ठाकुर आदि पुरानी कवयित्रियाँ डोगरी के साथ साथ हिन्दी में भी लिख रही हैं .

पुरुषों की कविताओं में भी स्त्री संवेदना और सवाल दिखाई देते हैं.इनके यहाँ औरत प्रेमिका , दोस्त , बेटी  और माँ के रूप में सम्बोधित होती है. स्त्री संवेदना पर कल्याण की कुछ सुन्दर कविताएँ हैं . बेटी शीर्षक कविता बहुत मार्मिक है. कुमार कृष्ण और शक्ति सिंह ने प्रेमी रूप मेंस्त्री संसार को छुआ है . नरेश कुमार की कविताओं में माँ की छाँव दिखती है. अशोक कुमार लंगड़ी चलने के नियम वाले खेल शटापु के माध्यम से लड़कियों के जीवन संघर्ष को बखूबी अभिव्यक्त करते हैं . मनोज शर्मा की 'बार गर्ल काम पर जा रही है 'और 'स्त्री विलाप कर रही है 'जैसी कविताएँ स्त्रीसंवेदना की दृष्टि से हिन्दी कविता में अलग स्थान रखती हैं . एक बानगीदेखें -

लिखूं यदि यूँ कि 
स्त्री विलाप कर रही है
तो ऐसा लिखते ही सूख जाए पैन की स्याही
जिस कैमरे ने खींची हो ऐसी तस्वीर  
उसके लैंस में पड़ जाए तरेड़ ...
*** 

नरेश कुमार खजुरिया , अदिति शर्मा  , अरविन्द शर्मा , शिवानी आनन्द ,भगवती देवी , ऐशा बलोगोत्रा , मुद्दसिर अहमद , शालू देवी प्रजापति आदि नवोदित या उम्र के छोटे कवि भी परिदृश्य पर हैं . इनमें शिवानी आनन्द सबसे अधिक लिख रही हैं . इन सभी नामों पर बहुत कहना अभी जल्दी होगी . उम्मीद है कि आने वाले पाँच सात सालों में इनमें से एक दो नाम जम्मू कीहिन्दी कविता को समृद्ध करेंगे . इनके यहाँ निजता , कल्पना , रूमानियत , प्रेम , प्रतिरोध , श्रम सौन्दर्य , गाँव की संवेदना , सामाजिक चिंताएँ दिखाई देती है . शालू के रूप में इस युवतर स्वर की बानगी देखें -

माँ ने जिन किताबों को बेच
फेरी वाले से
दो प्यालियाँ खरीदी थीं
मैं उनमें कभी चाय नहीं पीती ...
***
मैं सड़क किनारे
उग आई कंटीली झाड़ी हूँ -
तुम मुझे गले लगाती हुई धूल .

वे कम से भी कम लिखती हैं . साहित्यिक कार्यक्रमों से दूर रहती हैं .शीराज़ा  , खुलते किवाड़ , अमर उजाला आदि में छपी हैं . इधर इनकी कविताएँ 'बया 'के ताजा अंक में आई हैं . जिन पर चर्चा हो रही है.

माहौल बड़ी चीज है . माहौल का अर्थ कदापि यह नहीं कि मौसम अच्छा हो जाए तोदो चार  कार्यक्रम कर लिए जाएँ . कवि विष्णु नागर लिखते हैं - 'सबसे अच्छी कविता बुरे वक्त में पहचानी जाती है . 'बुरे वक्त के साहित्यिक प्रयास सलाम योग्य होते हैं . बाकी 31 मार्च वाले प्रयास नहीं कहे जा सकते . साहित्य सीढ़ी नहीं है . अगर है तो यह ऊपर नहीं जाती . नीचेउतरती है .  जम्मू में समृद्ध साहित्यिक माहौल है . राष्ट्र भाषा प्रचार समिति , युवा हिन्दी लेखक संघ , हिन्दी साहित्य मण्डल आदि संस्थाएँ अनुदान प्राप्त करके पर्याप्त कार्य कर रही हैं . 'लोक मंच जम्मू कश्मीर
'सांस्कृतिक व साहित्यिक संगठन है . यह गाँवों में जाकर कार्य कर रहा है. कुमार कृष्ण शर्मा के साहित्यिक ब्लॉग 'खुलते किवाड़ 'जैसा प्रयास भी स्वागत योग्य है . समय की मांग है कि कोई राष्ट्रीय स्तर की अच्छी साहित्यिक पत्रिका भी यहाँ से निकले . आज तक यहाँ की कोई भी पत्रिकाहिन्दी साहित्य जगत में अपनी खास पहचान नहीं बना पाई . कला अकादमी कीशीराज़ा की भी अपनी सीमा रही है . वैसे इन दिनों हिन्दी कार्यक्रमों को लेकर जे०& के० कला अकादमी पहले से सक्रिय हुई है.

यह हाशियों की कविता है . आज इन हाशियों की कविता को रेखांकित भी किया जारहा है . कवि आलोचक और संपादक शिरीष कुमार मौर्य लिखते हैं - 'हिन्दी में सीमांतों की कविता जिस तरह से विकसित हो रही है , यह घटना आने वाले वक्त में कविता का एक बड़ा प्रस्थान बिन्दु साबित होने वाली है . '  यहदृष्टिसम्पन्न वक्तव्य है . आज दिल्ली , इलाहाबाद , भोपाल , पटना आदि कावर्चस्व या एकाधिकार टूट गया है . सीमांतों की कविता ने हिन्दी कविता को विस्तार दिया है . इस पर बात किए बिना हिन्दी कविता पर पूरी बात नहीं हो सकती .कुल मिला कर कहा जाये तो यह कविता जीवन के पक्ष में खड़ी है . लम्बे संघर्ष के बाद जम्मू की कविता पहचान के संकट से उभरी है . व्यष्टिपरक और छायावादी प्रवृत्तियाँ पीछे छूटी हैं . अब सिर्फ विस्थापन ही पहचान नहींरह गई है . आज युवा कवि शोषक शक्तियों के विरोध में खड़े हो रहे हैं . सामूहिक सपनों ने जोरदार दस्तक दी है . इसमें सभी के दुःख - तकलीफें और संघर्ष शामिल हैं . आने वाले दिनों में यहाँ की कविता और गहरे में उतरेगी. हाशियों से अधिकाधिक संवाद बनाएगी . संवाद ही प्रतिनिधि हो सकता है -

मुझे लगता है 
दुनिया में 
कहीं भी जब दो आदमी  
मेज़ के आमने - सामने बैठे 
चाय पी रहे होते हैं 
तो वहां आ जाते हैं तथागत
और आस पास की हवा को 
मैत्री में बदल देते हैं .        -  [ महाराजकृष्ण संतोषी ]

अंत में ,
दोस्तो !! सत्ता के समकक्ष सत्ता खड़ी करना किसी समस्या का हल नहीं . आओसमता और सहभाव के लिए संघर्ष करें . इंकलाब जिंदाबाद !!
**** 

कमल जीत चौधरी ,
काली बड़ी ,, साम्बा , जे०&के० { 184121 }
दूरभाष - 9419274403
ई मेल -
kamal.j.choudhary@gmail.com

अमित श्रीवास्तव की दो कविताएं

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नाला झरना एक समान
उगना सड़ना एक समान
हंसना डरना एक समान
गण्डा चिमटा एक समान
जीना-मरना एक शब्द है
सीधा-उल्टा एक समान

लाल लंगोटा
गटई घोंटा
बोल मेरे केंचुए कित्ती मिट्टी
इत्ती मिट्टी

कविता को चुल्लू भर मिट्टी नसीब हुई|
***


अमित श्रीवास्तव की कविताओं ने अपने अब तक के सफ़र में कोई छूंछी चमक पैदा नहीं की है। वे मद्धम लौ में एकाग्र जलती कविताओं के कवि हैं। अमित की कविताओं की भाषा बोलचाल के लहज़े में आवाजाही करती रही है और उसमें हमारे ही जीवन के तलघरों की गूंज है। न बिम्बों का अतिरिक्त लदान, न प्रतीकों का अन्यथा बोझ। संतोष की बात है कि अपने रचाव में किसी अग्रज का अनुकरण करने के बजाए ये कविताएं अपने ही शिल्प से लड़ती हैं। इन कविताओं से बहस की जा सकती है, इन पर सवाल उठाए जा सकते हैं। इनमें जो निर्मोह है, वही हमारे लिए उत्सुकता का विषय है।
-अनुनाद
 
एक सरकारी नौकर का मोनोलॉग
(मैं अपनी आख़िरी हिचकी पहले ले लूं तो)

कोई एक बात कह दूं
मुसलसल चुप्पियों के बीच
कोई चीख लम्बी
एक कराह सी छोटी
कोई हल्की सी जुम्बिश होठों की
गंगाजल तो सारा बह गया लेकिन
तुम्हारे अनगिनत मन्त्रों के बीच

उस सूराख़ से बस इक दफ़ा
हटा लूं उंगलियाँ अपनी
और बहने दूं सारा मवाद 
खीज सारी, गालियाँ
दर्द, चोटें, आत्म हत्या की आदतें
पसीने में दबाया खून सारा
खून खून खून सारा

खोलकर कंठ की गाँठ को
रख दूँ परे
कि समूचा जिस्म ही नीला हो उठे

तुमने तो दीवार ही दीवार दी है छत नहीं
तोड़कर सारे पुलों को बना ली हैं सीढ़ियाँ तुमने
समझ की सब लयकारियाँ ढेर होतीं यहीं पुलों पर
बंधे तस्मों की नियंत्रित चाल से  

फांदकर दीवार कोई फर्श बना लूं
बस एक दफ़ा मैं सूंघ आऊँ बालियों में स्पर्श सुख
उसके माथे की शिकन को खोलकर  
फाड़कर अपनी किनारी
अपने हिस्से का ये सूरज बाँध दूँ

आख़िरी दम साध लूं
एक धुन सुनूँ मैं
सांस पर संत्रास की
एक गीत गाऊँ भरपूर हंसी का
खुशी के आवेग में झूम जाऊं
इस तरह फंदे पे झूलूँ कि
किसी की हिचकियों में
अपनी उसी आख़िरी हिचकी सा
गुंथ जाऊं

अब नहीं बस अब नहीं
अब नहीं होगा ये मुझसे
कि किसी के दर्द पर डाल दूँ ये नमक सारा
फिर किसी प्याले में डालूँ गटक लूं सारे सवाल
इतिहास के कंधों पे रख दूँ सब जवाबी
मौत पर उनकी हंसू मैं ठठाकर
जिनके लिए कंधों के पीछे एक चाँद टांका था कभी 

डिस्क्लेमर
(यह कविता किसी दिशा में नहीं जाती इस गाड़ी पर चढ़ने वाले लोग अपने उतरने की व्यवस्था स्वयं कर लें)

ये अलहदा काम नहीं पर करें कैसे
हम आजाद हैं
चुनने को कि मरें तो ससुरा मरें कैसे

दो टांगो के बीच घुसाकर
नाक झुकाकर कान उठाकर
सर लगाकर पीछे को
गहरी सांस छोड़ दें
गुत्थम-गुत्था दोनों टाँगे
दोनों बाजू गोड़ दें
अकाल मृत्यु आसन करने से पहले भक्तगण
जीने की सभी आशाएं छोड़ दें

कृपया पहली ताक़ीद पर ध्यान दें बार-बार-बार बताया गया कि इस कविता में कोई ऑफर नहीं चल रहा, कहा न, कोई नहीं, इतना भर भी नहीं जितना कि जीने के लिए जीवन

शाम मरियल सी धुवें में
पिटी-पिटाई, टेढ़ी-मेढ़ी
एक लकीर सी
उठती गिरती उजबक चलती
शोर-शोर में प्राइम टाइम के
धड़ाम से गिरती  

सुबह निकलती डूब डूब के
झाडू उछाल देती   
हर दूजे रविवार की चमच्च
बिस्किट निकाल लेती
टूटी-डूबी चाय में
चल बे चल उठ चल बे
कसी जीन है गाय में
पिलेट में धर दो हुंवा हमरी राय में 

जी नहीं, फाइव टू फाइव टू फाइव हमारा टोल फ्री नहीं है, किसी का नहीं है, दिमाग़ न खाएं, अपना सर बचाएं 

तू इसक करता है तो कर मियाँ
पर हिंया नईं
चल फूट रस्ता नाप
मेरे बाप
इधर गोली-शोली आग-वाग
पत्थर बाजी है भरपूर
अम्न का रस्ता इतिहास में घुसता
लंबा चलता
चलता जाता
कहीं नहीं आता कभी नहीं आता

तुझे पेड़ पे चढ़ना आया कि नईं
पानी में सांस लेना
आँख खोल कर सोना
एक क्लिक पर हंसना
एक इशारे पर रोना धोना
तुझे कबर गढ़ना आया कि नईं
अपने मरने की दावत खाना   

जी हाँ लॉजिंग कॉम्प्लीमेंटरी बस अपनी आई डी ले आओ, फूड बिल तो देना ही पड़ेगा जी  

रोटी खायेगा मर साले
सर उठाएगा मर साले
रोली, चन्दन, टीका बस
फ़तवा सोंटा लोटा बस
अब इत्ता तो कर साले
जीना चाहता है तो मर साले

कविता को आख़िरी हिचकी आई है दोस्तों संभाल लेना
चाहो तो अपना अक्स निकाल लेना
थूक लगाकर ज़रा सुखाकर
अपने पिंजरे के बाहर टटका देना
तुम बाशिंदे गुफाओं के
बिल में रहना
पर बाहर नेमप्लेट भी लटका देना

हमारे कस्टमर केयर रिप्रेज़ेन्टेटिव से बात करने के लिए डायल करें नौ या दस या चौवालिस या टू ज़ीरो वन सिक्स या फाइव फोर थ्री या टू फोर फाइव, फर्क नहीं पड़ता, लाइन बिज़ी है तो सुनें ये सिम्फनी
 
नाला झरना एक समान
उगना सड़ना एक समान
हंसना डरना एक समान
गण्डा चिमटा एक समान
जीना-मरना एक शब्द है
सीधा-उल्टा एक समान

लाल लंगोटा
गटई घोंटा
बोल मेरे केंचुए कित्ती मिट्टी
इत्ती मिट्टी

कविता को चुल्लू भर मिट्टी नसीब हुई|


सुनने के संदर्भ - मंगलेश डबराल

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अचानक कवि मंगलेश डबराल की फेसबुक वॉल पर यह निबन्ध किसी उपहार की तरह मिला। बहुत पहले संगीत की ओर बुज़र्ग मित्र अरुणोदय बनर्जी ने खींचा था और कुछ ऐसी जानकारी शास्9ीय संगीत के बारे में दीं, जो मन पर किसी जादू की तरह चढ़ गईं। बाद में मंगलेश जी ने अपने घर पर कुछ रागों की दुर्लभ रिकार्डिंग एक सीडी में दीं। शास्त्रीय संगीत जो पहले मेरे लिए कुमार गंधर्व के भजन सुनने तक सीमित था, मुझ पर एक समूची दुनिया की तरह खुला। तब से ये हर मर्ज़ की दवा है, मेरे दु:ख-सुख का सबसे क़रीबी साथी है। इस निबन्ध को कवि से चुराकर अनुनाद पर लगा रहा हूं।  साथ में कवि की यह पुरानी तस्वीर, जो मेरे लिए ठीक उसी संगीत की तरह है। मुझमें संगीत सुनने और समझने की जो भी कच्ची-पक्की समझ है, उसके लिए अरुणोदय बनर्जी और मंगलेश डबराल का हमेशा आभारी रहूंगा।
**** 

लालटेन के उजाले में पिता जर्मन रीड वाले सुरीले हारमोनियम पर दुर्गा, मालकौंस, सारंग, पीलू, पहाड़ी, और सुदूर जौनपुर-जौनसार की बोली के मीठे गीतों के स्वर निकालते थे. मालकौंस और दुर्गा शायद उनके प्रिय राग थे. दुर्गा की वह क्लासिक, पाठ्यक्रम में पढ़ाई जानेवाली बंदिश—‘सखी मोरी रूम झूम, बादल गरजे बरसे...वे डूबकर गाते. पहाड़ में पांच स्वर वाले रागों का चलन ज्यादा है और उनकी लय पहाड़ की प्रकृति से भी बहुत मेल खाती है. पिता के रागों के स्वर हारमोनियम से महीन रेशमी बादलों की तरह उठते और घर के नीम उजाले में तैरने लगते. बाहर घना अँधेरा रहता, काली हवा में जुगनू चमकते और पिता अंतरे की पंक्तियाँ गाते हुए घर को संगीतमय बनाते : रेन अंधेरी कारी बिजुरी चमके मैं कैसे जाऊं पिया पास.मैं पिता के सामने इस तरह बैठा रहता जैसे एलपी रेकॉर्डों पर हिज मास्टर्स वाइस का कुत्ता ग्रामोफ़ोन के सामने बैठा होता है. पिता जब जौनपुर-जौनसार अंचल का द्रुत नृत्य- लय वाला मिठास और विलक्षण बिम्बों से भरा विरहगीत गाते, पूरा घर इकट्ठा हो जाता. मां, बहनें और पास-पड़ोस के कई लोग इर्द-गिर्द जुटते और तल्लीन होकर सुनते :

आजणी बजली बाजणी बजली मृदंग बजलो कि भेरी
ऊंची डाड्यों तुम निसि ह्वेजा बडसु देखण दे ले मेरी
हे मेरा हलका ले रूमैल बदसु देखण दे ले मेरी

राडिन भाजि तीतरी दुर्वाली धरे ले ध्यो
फट जा कुयेडी ले डांडा की मैतुडा मेरु देखण ले द्यो
हे मेरा दूध का ले गिलास मैतुडा मेरु देखण ले द्यो

कौरों जसी दुरजोधन पांडों जसी भ्यूं
तब जालि बालि सैसर जब गललु डाड्यों कु ह्यूं

(आजे-बाजे बजेंगे या मृदंग बजेगा या भेरी बजेगी/ओ ऊंचे जंगलो, तुम कुछ झुक जाओ और मुझे अपना गाँव देखने दो. ओ मेरे हल्के रूमाल, मुझे अपना गाँव देखने दो. राडी नामक जगह से एक मादा तीतर उडी और दुर्वाली नामक जगह में रुक गयी/ ओ जंगलों के कुहरे, तुम कुछ छंट जाओ और मुझे अपना मायका देखने दो. ओ मेरे दूध के गिलास, मुझे अपना मायका देखने दो. कौरवों में कोई हो तो दुर्योधन जैसा हो और पांडवों में भीम जैसा हो/ यह लडकी ससुराल तब जायेगी जब जंगलों की बर्फ पिघल जायेगी.)

पिता का हारमोनियम बेहद मीठा था. जर्मन रीड वाला, जैसा कि अच्छे खान-पान, रहन-सहन, कविता और गायन-वादन के शौक़ीन पिता खुद कहते थे. वह कलकत्ते की किसी कंपनी का बना था और काफी बजाये जाने की वजह से उसकी काले रंग की लकड़ी की कुंजियाँ घिस गयी थीं. पिता उसे राधेश्याम कथावाचक के वीर अभिमन्यु’, ‘विल्वमंगल’, ‘प्रहलादऔर सत्य हरिश्चंद्रजैसे नाटकों में बहुत बार बजा चुके थे. इन नाटकों का निर्देशन, उनकी वेशभूषा, मंचसज्जा वे खुद ही करते थे. हमारे घर के एक पास एक बड़े से आँगन में प्रस्तुत किये जानेवाले इन नाटकों को देखने आस-पास के गांवों से भी लोग आते. पिता ने टिहरी गढ़वाल के लोक कवि- गायक और प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट कार्यकर्ता गुणानंद पथिक से संगीत की शिक्षा ली थी जो रामलीलाओं में तो बजाते ही थे, अब एक विशाल बाँध के पानी में डूब चुके ऐतिहासिक टिहरी शहर के बस अड्डे पर अक्सर अपने वाद्य पर क्रांति के गीत प्रस्तुत करते थे. वे ज़्यादातर प्रचलित लोकगीतों की धुनों पर अपने जन-जागरण के गीतों को ढालते थे ताकि वे जल्दी लोगों की ज़बान पर चढ़ सकें. हारमोनियम उनके गले से लटका होता, झोले में स्वरचित और स्वयं-प्रकाशित गीतों की पुस्तिकाएं रहतीं जिन्हें बहुत से बस यात्री खरीद कर ले जाते. पथिक-जी की आजीविका का यही साधन था. याद आता है, उनका एक गीत लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हुआ था: गरीबू का घर मां कंडाली की स्याणी/ अमीरू का घर मां हलवा छ रतिब्याणी/ यो बात लिखी लेणी यो गीत सुनि जा’. (‘गरीब के घर में खाने के लिए बिच्छूघास भी नहीं है, लेकिन अमीरों के घर में रात-दिन हलवा मौजूद है. इस सचाई को लिख लो, इस गीत को सुन लो’). 

कुछ वर्ष बाद जब मैं दिल्ली आया तो लगा, एक राग से बहुत दूर छिटक गया हूँ. जब मेरे गाँव का आखिरी पेड़ मुझसे ओझल हुआ, तभी से मेरे भीतर उस राग के अभाव ने घर कर लिया. जैसे यही राग था जो जीवन को चला रहां था, उसे एक गहरी गूँज से भरे हुए था. दिल्ली में मैंने दुर्गा की खोज की. विनायक राव पटवर्धन और मल्लिकार्जुन मंसूर के गाये दुर्गा के कैसेट लिये और भीमसेन जोशी की वह मधुर बंदिश जो मेरे सुने हुए दुर्गा से कुछ अलग थी: विलंबित में रस कान तूऔर द्रुत में चतुर सुघरा बालमवा’. फिर वर्षों बाद कुमार गन्धर्व का दुर्गा सुना: अमोना रे.दिल्ली से मैं जब कभीऔर बहुत कमघर जाता, पिता से हारमोनियम पर दुर्गा सुनाने के लिए कहता, हालाँकि पिता का जीवन तब तक कहीं रुक चुका था, अपने अकेले बेटे की घर से लगभग विमुखता के कारण वे हताश थे और अपने तईं हारमोनियम बजाना बंद कर चुके थे. एक ज़माने में हारमोनियम बजाना उनका लगभग रोज़ का काम था. लेकिन अब उन्होंने हारमोनियम को उसके बक्से के भीतर इस तरह रख दिया था जैसे उसे कहीं गाड दिया हो, अपनी निगाह से छिपा लिया हो. दुर्गा पांच स्वरोंस रे म प धका एक सरल-उत्फुल्ल राग है और उसमें बहुत उपज की गुंजाइश नहीं होती, लेकिन भीमसेन जोशी उन बहुत कम गायकों में से हैं जिन्होंने गज़ब की लयकारी और जटिल तानों के साथ उसे देर तक गाया है. कुछ वक़्त बाद, सन १९९९ में मैंने भीमसेन जोशी का दुर्गा सुनने के अनुभव पर एक कविता लिखी, जिसमें मेरे बचपन के राग की स्मृति भी थी:

तभी सुनाई दिया मुझे राग दुर्गा
सभ्यता के अवशेष की तरह तैरता हुआ
मैं बढ़ा उसकी ओर
उसका आरोह घास की तरह उठता जाता था
अवरोह बहता आता था पानी की तरह.

दुर्गा एक सभ्यता की तरह था, पानी, पेड़, घास, नदी, पत्थर, चिड़िया जैसी बुनियादी चीज़ की तरह, जिसके अवशेष ही अब बचे रह गये हैं.
 
सन १९७२ में दिल्ली में पहली बार अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले का आयोजन हुआ थाएशिया ७२. प्रगति मैदान, हंसध्वनि और शाकुंतलम थियेटर उसी समय बने थे. एक शाम हंसध्वनि में पंडित भीमसेन जोशी का गायन था. मैं उन दिनों साप्ताहिकहिंदी पेट्रियटमें नया-नया पत्रकार बना था. मेरे साथ मेरे मित्र त्रिनेत्र जोशी थे. लेकिन हमारे पास कोई प्रवेशपत्र नहीं था लिहाजा हमें दरवाज़े पर रोक दिया गया. हमने गुजारिश की कि हम लोग पंडितजी के प्रशंसक हैं और बहुत दूर हरियाणा से सिर्फ उन्हें सुनने की इच्छा से आये हैं. गेट पर खड़े पहरेदार ने हमारा हुलिया देखा, हमारी हवाई चप्पलों और धूल-सने पैरों पर निगाह डाली और हमें अन्दर जाने दिया. हॉल के भीतर भीमसेन जोशी आलाप शुरू कर चुके थे और मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था क्योंकि वे वही शुद्ध कल्याण गा रहे थे जिसे मैंने कुछ ही दिन पहले एक बंगाली प्राध्यापक के घर रेकॉर्ड प्लेयर पर सुना था. वह एलपी रेकॉर्ड हाल ही में जारी हुआ था जिसके दूसरी तरफ सुबह का राग ललित था. इसके साथ ही मालकौंस और मारू बिहाग का भी एक रिकॉर्ड निकला था और दोनों अद्भुत प्रस्तुतियां थीं. शुद्ध कल्याण की विलंबित बंदिश थी: तुम बिन कौन खबरिया ले’. उन दिनों भीमसेन जोशी अपनी कला के उत्कर्ष को छू रहे थे, उनकी आवाज़ एक साथ सुरीली और दमदार, मुलायम और वज़नी, पृथ्वी को छूती हुई और दिगन्त में उड़ती हुई थी और इस आवाज़ में शुद्ध कल्याण जैसे सम्मोहक राग को सुनना ऐसा अनुभव था जिसके लिए कोई एक विशेषण खोजना कठिन था. लेकिन मेरी बगल में बैठे एक पगडीधारी सज्जन के पास विशेषणों की कोई कमी नहीं थी. वे कुछ पिये हुए थे, खासे ऊब रहे थे., मुंह बिचका रहे थे और गायक को कोस रहे थे. भीमसेन जोशी गाते समय तब बहुत नाटकीय मुद्राएँ बनाते थे, ऊपर-नीचे, दायें-बायें इस क़दर सर और हाथ हिलाते और चेहरा विकृत करते थे कि देखकर गायन कुछ बेमज़ा होने लगता था. मैं उनकी ओर देखे बगैर सुनता रहा और बगलगीर बौड़म श्रोता को भी झेलता रहा. लेकिन करीब आधा घंटे के बड़े ख़याल के बाद जब भीमसेन जोशी ने द्रुत में छोटा ख़याल –‘रस भीनी भीनी आ तेरो’—गाना शुरू किया तो पगड़ीधारी श्रोता खूब झूमने और वाह-वाहकरने लगे. यह एक अद्भुत परिवर्तन था और भीमसेन जोशी के जादुई गायन की ताक़त थी कि उसने करीब आठ-दस मिनट में एक अनाडी-असहिष्णु आदमी को रसिक में परिवर्तित कर दिया था. भीमसेन जोशी ने किराना घराने के राग-भण्डार में से शुद्ध और यमन कल्याण, कल्याण, मालकौंस, भीमपलास, मारू विहाग, जयजयवंती, विहाग, वृन्दावनी सारंग, मुल्तानी, मियां की मल्हार, मियां की तोड़ी, देशकार, भैरवी आदि कई रागों की इतनी गहरी साधना की थी और उन्हें इतना लाघवपूर्ण और चमत्कारिक बना दिया था कि उन्हें सुनकर सख्तजान लोग भी सम्मोहित हो उठते थे. एक बातचीत में भीमसेन जोशी ने संगीत-साधना की ऐसी अवस्था का ज़िक्र किया था जब यमन जैसा एक राग सिर्फ गायन नहीं रहता, बल्कि समूची सृष्टि को अलंकृत करने लगता है. उनके भण्डार में पूरी कायनात को रंजित-अलंकृत करनेवाले कई राग थे. अपने व्यक्तित्व में वे साधारण दिखते थे और ग्रीन रूम में तो लगता नहीं था कि इतना बड़ा कोई कलाकार बैठा हुआ है, लेकिन जैसे ही मंच पर जाते, अचानक कोई कायाकल्प होता और वे एक लोकोत्तर उपस्थिति में बदल जाते. कभी-कभी यह दिक्क़त ज़रूर लगती थी कि उनके स्वरों के साथ कुछ कोलाहल भी लिपटा हुआ है और वे उस तन्मयता को नहीं छू पा रहे हैं जहाँ गायक और संगीत के बीच किसी की उपस्थिति नहीं होती. लेकिन बाद के वर्षों में उनका गायन काफी निरिद्विग्न और सौम्य हो गया था.

भीमसेन जोशी को सुनने के बाद लगता था, शुद्ध कल्याण से ज्यादा मधुर राग कोई नहीं है. शुद्ध मेलोडी. माधुर्य का एक समुद्री ज्वार, जो गोया किसी चंद्रमा को छूने के लिए बेक़रार था. भीमसेन जोशी की तानों और बोलतानों में हमेशा एक बांकपन रहता था जो लहरें उठाता और राग के व्यक्तित्व और रूप-रंग को तरह-तरह से प्रदर्शित करता. शुद्ध कल्याण को राग संगीत का समुद्र कहा जाता है और उसके स्वरों को दूसरे रागों को जोड़कर जितने मिश्र राग बने हैं उतने किसी और राग में संभव नहीं हुए. यमन कल्याण, नंद कल्याण, पूरिया कल्याण, हेम कल्याण, श्याम कल्याण, गोरख कल्याण, जैत कल्याण, शिव कल्याण. सावनी कल्याण, आदि. उसका दायरा इतना विस्तृत है कि उस्ताद अमीर खां उसे मंद्र सप्तक की महान बंदिश करम करो किरपाल दयालमें गाते हैं तो फिल्म गायिका लता मंगेशकर रसिक बलमा दिल क्यों लगाया तोसेके उच्च-स्वर में उसे प्रस्तुत करती हैं और इनके बीच सैकड़ों दूसरे गायक-वादक उसके वैभव के विविध स्वरूपों को जगाते रहते हैं. आश्चर्यजनक यह है कि एक संगीतकार का शुद्ध कल्याण दूसरे संगीतकार से बहुत नहीं मिलता. कोई भी गायक उस एक ही तरह से नहीं गा सकता. यह राग भी अपने आप में निराकार-सा है क्योकि उसके आरोह में भोपाली के पांच स्वरस रे म प ध-- और अवरोह में यमन के सातों स्वर लगते है यानी वह सम्पूर्ण थाट होने के बावजूद दूसरे रागों से मिलकर बना है और उनमें घुल-मिलकर नयी मेलोडी को जन्म देता रहता है. एक मायावी राग, जिसे कोई भी संगीतकार पूर्णता और अंतिम ऊंचाई तक नहीं पंहुचा सकता. शुद्ध कल्याण हर गायक को विफल करने वाला राग है.

मधुर और कर्णप्रिय गायन में कुमार गन्धर्व भी लाजवाब थे. वे जब भी दिल्ली आते, गन्धर्व महाविद्यालय में उनका कार्यक्रम होता जहाँ मेरे मित्र गोविन्द बहुगुणा, जो तब गाँधी स्मारक निधि में काम करते थे, और पत्रकार प्रभाष जोशी (जो कुमारजी के मित्र थे और बाद में जनसत्ताके संस्थापक-संपादक बने) मुझे ले जाते. कभी-कभी कवि-मित्र लीलाधर जगूड़ी भी साथ में होते. कुमारजी का कबीर-सूर-मीरा के पदों का अति-चर्चित चयन त्रिवेणीएक बार करीब ढाई घंटे तक सुना. कुछ वर्ष बाद इस संगीत सभा की रिकॉर्डिंग मुझे समाजवादी विचारक मधु लिमये की मार्फ़त प्राप्त हुई जिसकी प्रतियां बनाकर कई दोस्तों को भेंट कीं. कुमार गन्धर्व की कुछ विलंबित प्रस्तुतियां ज़रूर कुछ एकरस लगती थीं, खास तौर से जटिल या ज्यादा बढ़त वाले रागों में वे सपाट हो जाते थे, लेकिन मध्य लय और द्रुत की बंदिशें सिर्फ विभोर नहीं करती थीं, बल्कि बहुत रचनात्मक और अनसुने रूपों में ढली हुईं थीं. मालकौंस, शुद्ध सारंग, मदमाद सारंग, भूप, चैती भूप, नन्द, गौरी वसंत, बहार, और उनका स्वरचित, मर्मस्पर्शी राग मालवती, जिसकी द्रुत बंदिशमंगल दिन आज बना घर आयोपहली बार भोपाल में कवि अशोक वाजपेयी के घर रिकॉर्ड पर सुनकर आँखें भीग गयी थीं. कुछ वर्ष बाद मालवती का विलंबित ख़याल भी सुनने को मिला: जा रे चला जा रे बदरा.भोपाल के दिनों में कुमार-जी से देवास में उनके घर दिन भर रह कर एक लम्बी और सामूहिक बातचीत भी की जो मध्य प्रदेश कला परिषद् के आयोजन कुमार गन्धर्व प्रसंगके समय पूर्वग्रहके विशेषांक में प्रकाशित हुई. कुमार-जी अपने घर देवास में मसनद पर बैठते और बायें तबले को हाथ की टेक की तरह इस्तेमाल करते थे. तबले का यह उपयोग देखना मेरे लिए एक नयी बात थी हालांकि इससे पहले मैंने आईटीसी के संगीत सम्मेलनों में तबले पर बैठी कोयल का आकर्षक रेखांकन देखा था. कुमारजी घरानों के मूर्तिभंजक, शास्त्रीयता को लोक संगीत से जोड़ने वाले नवाचारी संगीतकार के रूप में प्रसिद्द थे, उनका एक कल्टबन चुका था और खास तौर सेत्रिवेणीसुनकर महसूस होता था कि कबीर, सूर और मीरा की रचनाओं को इतने अद्भुत ढंग से, उनके अर्थों का विस्तार करते हुए कोई और नहीं गा सकता. गायन के बीच में जब वे मौन होते तो दोनों ओर पूरी तरह मिले हुए उनके तानपुरे भी गाते हुए लगते. वे कहते भी थे कि मैं तानपुरों को स्वरों के लिए कैनवस की तरह इस्तेमाल करता हूँ.’ ‘त्रिवेणीमें उनके गाये हुए कबीर, सूर और मीरा के पद विह्वल करने वाले थे और कबीर की गहरे विराग और अध्यात्म की रचनाओं में वे अतुलनीय लगते थे. मुझे कबीर यह पद खास तौर से प्रिय था जिसे आज भी जब सुनता हूँ तो आँखें नम हो जाती हैं और भीतर कहीं एक रुलाई सी उठती है:

नैहरवा हमका न भावे
सांई की नगरी परम अति सुन्दर जहां कोई आय न जावे
चाँद -सूरज जहाँ पवन न पानी को सन्देश पंहुचावे
दरद यहू सांई को सुनावे
आगे चलूँ तो पंथ नहीं सूझे पीछे दोष लगावे
केहि विध ससुर जाऊं मोरी सजनी विषय रस नाच नचावे
बिन सतगुरु अपनो नहीं कोई अपनो नहीं कोई जो यह राह दिखावे
कहत कबीर सुनो भाई साधो सुपिने में साजन आवे
सुपिनो यहू सांई को सुनावे.

बाद में जब अमीर खां का शुद्ध कल्याण सुना तो महसूस हुआ कि यह राग समुद्र नहीं, एक आकाश, सृष्टि और एक अनंत है, जहाँ स्वर भीमसेन जोशी के गायन की लहरों की तरह नहीं उठते, बल्कि परिंदों की तरह उड़ते जाते हैं, कहीं विलीन होते हुए लगते हैं और गायक के सम पर आते ही लौट आते हैं. अमीर खां का गायन बहुत गंभीर, दार्शनिक किस्म का और अमूर्तनों से भरा हुआ था, लेकिन यह उनकी कला की ऊंचाई थी कि हम उन अमूर्तनों को मूर्त रूप में, एक भौतिकता मेंदेखसकते थे, उनके स्वर आलापचारी के समय पहले ज़मीन पर फैलते-पसरते और फिर उड़ान भरते दिखते. भीमसेन जोशी के कल्याण में गहरी रंजकता, अलंकारिता और विपुलता थी तो अमीर खां का कल्याण अनुचिंतनात्मकमेडीटेटिवआवेग, निरालंकरण और न्यूनतामिनिमलिज्म-- से भरपूर था. अमीर खां की बहुत ज्यादा व्यावसायिक रेकॉर्डिंग उपलब्ध नहीं थीं (उनकी संख्या बाद में बढ़ी, जब अमीर खां के बढ़ते महत्व के कारण कई निजी संग्रह बाज़ार में आये), लेकिन मैंने अपने परिचितों की मदद से आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों भोपाल, इंदौर, लखनऊ, दिल्ली, कलकत्ता में उपलब्ध रेकॉर्डिंग हासिल कीं और कुछ अमीर खां के शिष्यों सिंहबंधु सुरिंदर सिंह- तेजपाल सिंह, स्व. महेंद्र शर्मा, गाँधी शांति प्रतिष्ठान के राजीव वोरा और कवि कुंवर नारायण के सौजन्य से प्राप्त हुईं. कुंवरजी के घर पर उनकी गायी हुई हंसध्वनिइतनी विलक्षण थी कि अमीर खां के प्रिय शिष्य पंडित अमरनाथ के शिष्य महेंद्र शर्मा समेत कई लोगों ने वह मुझसे माँगी. सन १९७४ में एक कार दुर्घटना में असमय निधन से कुछ पहले अमीर खां ने भोपाल के मध्य प्रदेश कला परिषद् में बागेश्री कान्हड़ा और जनसम्मोहिनी आदि का बेजोड़ गायन किया था. उसकी रेकॉर्डिंग भी मुझे मिली. निजी संग्रहों की ऐसी लम्बी रेकॉर्डिंग मिलना कारूं का खज़ाना हाथ लगने की तरह था. दरबारी, मालकौंस, चंद्रकौंस, हंसध्वनि, शुद्ध कल्याण, नन्द कल्याण, हेम कल्याण, पूरिया कल्याण, यमन कल्याण, अडाना, हंसध्वनि, दरबारी, बागेश्री, बागेश्री कान्हड़ा, रागेश्री, चारुकेशी, जोग, वसन्त मुखारी, शाहाना, सुहा, आभोगी, पूरिया, विहाग, मारवा, कलावती, केदार, वसंत, मेघ, मियां की मल्हार, रामदासी मल्हार, रामप्रिय मेल, बहार, जनसम्मोहिनी, मियाँ की तोड़ी, गूजरी तोड़ी, बिलासखानी तोड़ी,नत भैरव, भटियार, चारुकेशी, कोमल ऋषभ आसावरी, देशकार, नटभैरव, बरवा, रामकली और खुदित पाषाणजैसी कुछ फिल्मों में गाये गीतो की एक से बेहतर एक और कई-कई प्रस्तुतियां, जो अमीर खां की खंडमेरु तकनीक के बावजूद अलग-अलग मनःस्थितियों में गायी होने के कारण एक दूसरे से बहुत भिन्न होती थीं. ऐसे करीब 70 टेप मेरे पास हो गये और जीवन अमीर खां की आवाज़ से आप्लावित हो गया.

एक दिन सुबह कवि रघुवीर सहाय घर आये. समय मिलने पर कभी-कभी वे अपनी पुरानी एम्बेसडर चलाते हुए आते थे. टेप रेकॉर्डर पर अमीर खां का कोमल ऋषभ आसावरी बज रहा था. रघुवीरजी ने पांच मिनट उसे सुना, फिर कहा, ‘या तो हम यह गाना बंद कर दें या अपनी बातचीत बंद कर दें. दोनों काम एक साथ करना मुश्किल है. इस संगीत को बैकग्राउंड म्यूजिककी तरह नहीं सुन सकते. इसके लिए बहुत एकाग्रता चाहिए.रघुवीरजी कोई ज़रूरी बात करना चाहते थे, मैंने टेप रेकॉर्डर बंद कर दिया. लेकिन वे जब जाने लगे तो बोले, ’इसे सुनने मैं फिर किसी दिन आऊंगा.और फिर एक सुबह हम दोनों अमीर खां के इस राग को करीब एक घंटे तक निश्शब्द सुनते रहे. रघुवीर सहाय को संगीत की गहरी समझ और जानकारी थी और उसके प्रति उनका नजरिया बौद्धिक और गैर-भावुक था. शायद इसलिए भी अमीर खां उन्हें बहुत पसंद थे. अमीर खां को सुनते हुए कोई दूसरा काम करने में सचमुच दिक्क़त होती थी और गाना बंद करना पड़ता था क्योंकि उसमें ऐसी चुम्बकीयता थी कि दिल और दिमाग दोनों उसकी ओर खिंच जाते थे. कभी-कभी वे अपने गायन के बीच में कहते सुनाई देते : नग़मा वही नग़मा है जिसे रूह सुने और रूह सुनाये’. उनका गायन सुननेवाले की भी रूह की मांग करता था. एक अनोखी दार्शनिक शान्ति के साथ मंच पर बैठने का उनका अन्दाज शुरू में ही बता देता कि वे लोकप्रियतावादी मनोरंजनकारी कलाकार नहीं हैं और उनसे निरे वाहवाही उपजाने वाले संगीत की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए. गाते समय उनका सिर्फ एक हाथ आगे-पीछे कुछ हरकत करता और चेहरे पर तन्मयता और कभी-कभी पीड़ा के अलावा और कोई भावना नहीं दिखती. दरअसल, अमीर खां किसी भी तरह के प्रदर्शन से या जिसे अंग्रेजी मेंप्लेइंग टू द गैलरीकहा जाता है, उससे बहुत दूर थे. वे ऐसा कुछ नहीं करते थे जिसे प्रस्तुतिका नाम दिया जाता है. कभी लगता था कि वे सामने बैठे श्रोताओं के लिए नहीं, बल्कि खुद को ही सुनाने के लिए गा रहे हैं. इसीलिए उनका गायन जितना बाहर व्यक्त होता सुनाई देता था, उससे भी ज्यादा उनके भीतर जाता हुआ होता था. मानसून से सम्बंधित रागों में ज़्यादातर गायक जहां भौतिक और बाहरी आकार को, गर्जन-तर्जन को अभिव्यक्त करते रह जाते हैं, अमीर खां के मेघ (बरखा ऋतु आयी’) और मियां की मल्हार (बरसन लागी री बदरिया/ सावन की अत कारी अत भारी’) आदि को सुनते हुए लगता था जैसे यह कोई आतंरिक बारिश है जिसमें हम भीग रहे हैं. वातावरण-प्रधान रागों को ऐसी अंतर्मुखता देना कोई सरल काम नहीं है.

इस संगीत में क्या था जो बरबस अपनी ओर खींचता था और दुनियावी कामों से दूर ले जाता था? उसे सुनते हुए लगता था, कुछ और नहीं करना चाहिए और अगर हम कुछ और कर रहे हों तो यह संगीत नहीं सुनना चाहिए. क्या वह बौद्धिकता थी या विकलता और मार्मिकता? या रूहानियत और विराग-भाव? शायद यह सभी कुछ उसमें था, लेकिन अमीर खां के संगीत के ये सिर्फ कुछ पहलू थे. अपनी अवधारणा और संरचना में वह कहीं अधिक जटिल और बहुआयामी था. उन्होंने कई स्रोतों-परम्पराओंकलाकारों से अपनी कला को ग्रहण किया था इसलिए उनकी कला का आगम-क्षेत्रकैचमेंट एरिया घरानेदार संगीतकारों की तुलना में कहीं ज्यादा फैला हुआ था. उनके गायन की तामीर ध्रुपद की खंडमेरु शैली पर हुई इसलिए उसमें जोखिम-भरी प्रयोगशीलता के साथ ही प्राचीनता की अनुगूंज भी सुनाई देती थी. किसी तयशुदा घराने का वारिस न होने के बावजूद या इसी वजह से अमीर खां वहां तक गये जहाँ से सभी घरानों का उद्गम माना जाता है. परंपरा की ऐसी अन्तर्निहित स्मृति उनके किसी दूसरे समकालीन में नहीं मिलती. खासकर उनके हेम कल्याण, आभोगी, रागेश्री, मारवा, पूरिया और बरवा में एक पुरातन संगीत-समय भी हमें घेर लेता है. अपनी बंदिशों और उनमें निहित काव्य-तत्व के प्रति पवित्रता और सम्मान का जो भाव अमीर खां के यहाँ है, वह एक दूसरे धरातल पर कुमार गन्धर्व में ही मिलता है. कुमारजी जिस तरह भक्ति-कवियों के पदों और लोक-बंदिशों के मौलिक स्वरूप पर बहुत ध्यान देते थे, वैसे ही अमीर खां ने अमीर खुसरो, हाफ़िज़ और सादी की ज़्यादातर सूफी चेतना की फ़ारसी शायरी को तरानों में शामिल किया था. उन्हें समझने में मुश्किल होती थी इसलिए वे गाते हुए उनके मानी भी बता देते थे.

गायन के अलावा अमीर खां का जीवन भी अभिभूत करनेवाला था, जिसके कई किस्से महेंद्र शर्मा और राजीव वोरा से सुनने को मिलते थे और इस महान गायक के प्रति सम्मान में इजाफा करते थे. दिल्ली के शुरुआती वर्षों में एक बार उन्हें सुनने का मौका मिला थाकमानी सभागार में, जहाँ उन्होंने दरबारी और और कान्हडा के दूसरे प्रकार गाये थे. उन्हीं दिनों सप्ताहिक दिनमानमें अमीर खां से उर्दू शायर और आकाशवाणी के अधिकारी अमीक हनफी का एक इंटरव्यू पढने को मिला, जिसमें पकिस्तान में संगीत को भारतीय संगीत से अलग करने की कोशिशों के सवाल पर अमीर खां ने बहुत सुन्दर जवाब दिया था कि शास्त्रीय संगीत में सात सुर होते हैं. ऐसा तो नहीं हो सकता कि इनमें से चार सुर हिंदुस्तान में रह गये हों और तीन पाकिस्तान चले गये हों.ऐसी बेजोड़ विनोद-वृत्ति के साथ-साथ उनकी शराफत की भी चर्चा होती थी. मसलन, यह कि अमीर खां दूसरे संगीतकारों की तुलना में काफी कम फीस लेते हैं, कोई मोल-भाव नहीं करते, वरीयता के बावजूद संगीत सभाओं में आखीर में गाने का कोई आग्रह नहीं करते और पहले गाने के लिए भी तैयार रहते हैं, नमाज़ पढने मुश्किल से ही जाते, लेकिन दिल्ली में हज़रत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर जाना नहीं भूलते, ईद के दिन बकरा कटवाने से परहेज़ करते और उसके पैसे आसपास के बच्चों में बाँट देते, दूसरों के दुख से तुरंत द्रवित हो उठते और मददगारी का हाथ बढाते. यह इसके बावजूद था कि वे हमेशा हाथ से तंग रहे और फिल्म्स डिवीज़न द्वारा उन पर निर्मित एक वृत्तचित्र में उनकी आखिरी पत्नी रईसा बेगम पैसे के अभाव की शिकायत करती हुई दिखती हैं. एक कवि-मित्र अक्षय उपाध्याय (जिनकी मृत्यु सत्यजित राय के साथ काम करने के दौरान एक ट्राम-दुर्घटना में हुई) ने बताया था कि एक बार कलकत्ता में उनके पास पैसे नहीं थे तो उन्होंने अमीर खां से मांगे, लेकिन उनके पास भी पैसे नहीं थे इसलिए वे एक घर में गये और कुछ देर बाद अपनी एक महिला प्रशंसक से पैसे लेकर आये. इन मानवीय कहानियों से लगता था कि यह एक ऐसा व्यक्ति ही कर सकता है जिसने अपने को सांसारिक प्रलोभनों से ऊपर उठा लिया हो और जो बिना किसी स्वार्थ के जीता हो.

जिन लोगों ने राग मारवा की उनकी बड़े और छोटे ख़याल की बंदिशें –‘पिया मोरे अनत देस बसें/ना जानूं कब घर आवेंगे’, या रे जग बावरेऔर गुरु बिन ज्ञान न पायेया जनसम्मोहिनी में कौन जतन सों पिया को मनाऊंसुनी हैं, उन्हें अमीर खां के गहन विराग और अमूर्तन का एहसास होगा. उनके मारवा के बारे में पंडित रविशंकर ने कहा था: ऐसा मारवा मैंने इस पृथ्वी पर कहीं नहीं सुना. उनके यमन में भी इसी तरह का अमूर्तन होता था. यमन एक बहुत इस्तेमालशुदा और आरंभिक राग है और उसे प्रस्तुत करना जितना सरल है, नए और अप्रत्याशित आयामों तक पंहुचाना उतना ही मुश्किल है. लेकिन अमीर खां के स्वरों में वह लोकोत्तर अनुभव बन जाता था. यमन के विलंबित में वे कभी एक श्रृंगारिक बंदिश कजरा कैसे डारूंऔर कभी आध्यात्मिक बंदिश शाहाजे करम दरवेश निगरगाते थे और द्रुत में अक्सरऐसो सुघर सुन्दरवा बालमवा / मईका सुरंग चुनरिया दियहू मंगाय’. मध्य लय में एक और बंदिश भी उन्होंने कुछ समय तक गायी: अवगुन न कीजिये गुनिजन.’ ‘ऐसो सुघर सुन्दरवामें वे एक ऐसे सौन्दर्यशास्त्र की निर्मिति करते थे जो बहुत भौतिक और दृश्यात्मक होते हुए भी विस्तीर्ण अमूर्तन में बदल जाता था. श्रोता यह देखसकता था कि वह स्त्री जिसके बालमने उसके लिए सुंदर रंग की चुनरी मंगा दी है, कितनी मासूमियात के साथ उल्लसित है और इस ख़ुशी को तरह-तरह से व्यक्त कर रही है, लेकिन यह सब जहाँ घटित हो रहा है वह इस दुनिया से कहीं दूर, सृष्टि का कोई दूसरा विस्तार और दूसरा देशकाल है. अक्सर यह एहसास होता था कि अमीर्फ़ खां जिस समय में गा रहे हैं, उसे अविलम्ब लांघ रहे हैं, एक दूसरे समय में पहुँच गए हैं और दोनों के बीच एक द्वंद्वात्मक सौंदर्य निर्मित हो गया है.

किसी दार्शनिक का कथन है कि दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं. एक वे जो सांसारिक हैं और अध्यात्म की खोज में रहते हैं, और दूसरे वे जो आध्यात्मिक होते हैं लेकिन उन्हें सांसारिकता के लिए मजबूर होना पड़ता है. अमीर खां दूसरी किस्म के इंसान थे. ऐसे इंसान का न कोई घर बन पाता है, न घराना. अमीर खां ने जितनी बार घर बसाने की कोशिश की, विफलता ही हाथ आयी और जहां तक घराने का सवाल है, वे किसी में नहीं अंट पाये और सभी घरानों से परे जाते रहे. उस्ताद अब्दुल वहीद खां से गायन की कुछ समानता के कारण उन्हें किराना घराने में रखने की मुहिम चली, लेकिन उन्होंने भेंडी बाज़ार घराने के अमान अली खां और देवास के उस्ताद रजब अली खां की गायकी के चुनिन्दा तत्वों को भी आत्मसात किया था, इसलिए उसे कहीं-की-ईंट-कहींका-रोड़ा-नुमा गायकी कहकर उपेक्षित करने की कोशिशें हुईं. अमीर खां अपने शिष्यों को बाकायदा तालीम नहीं दे पाते थे और गाते समय संभवतः अपनी ध्यानावस्था के भंग होने की आशंका से स्वर-संगत के लिए किसी को नहीं रखते थे (इसका संकेत कुछ समीक्षकों ने भी किया है), लेकिन इसके बावजूद आश्चर्य यह है कि उनके शिष्यों और उनका अनुकरण करने वालों की तादाद सबसे ज्यादा रही है और दर्ज़नों गायक रेकॉर्डिंग सुनकर ही उनके स्वर लगाने के तरीके, बढ़त और विस्तार की शैली का अनुकरण करते रहे हैं. रामपुर-सहसवान घराने के राशिद खां की मिसाल अक्सर दी जाती है, जो बहुत से रागों में अमीर खां के पैरों की छाप पर ही अपने पैर रखते हुए बढ़ते हैं. कहते हैं, सितारवादक निखिल बनर्जी ने उनसे कहा था कि आप जो गाते हैं, मैं उसे ही सितार पर बजा देता हूँ.अमीर खां के शिष्यों ने उनके लिए इंदौर घराने की ईजाद की, लेकिन यह कहना ज्यादा सही होगा कि वे सभी घरानों का घराना, तमाम गायकों के गायक थे--कुछ इस तरह जैसे हिंदी में शमशेर बहादुर सिंह को कवियों का कविकहा जाता था.
संगीत आम तौर पर आनंद की ओर ले जाता है, द्वंद्वों, टकराहटों, दरारों को पाट देता है, विसर्जित कर देता है और समरसता पैदा करता है. लेकिन अमीर खां का संगीत समरसता नहीं उपजाता, बल्कि एक ख़ास तनाव को जन्म देता है जो बहुत रचनात्मक होता है और जिसे आत्मसात करने के लिए सिर्फ दिल नहीं, दिमाग की भी दरकार होती है. इसीलिए वह हमेंबौद्धिकलगता है, लेकिन आश्चर्य कि गाना समाप्त होने पर एहसास होता है कि उसने हमारे भीतर कुछ पैदा कर दिया है और हम कुछ अधिक मनुष्य हो उठे हैं और यह दुनिया भी कुछ सुन्दर हो गयी है, और यह अनुभव भी जितना विलक्षण हो, अंतिम नहीं है, बल्कि हम इसमें कुछ और, अपनी कोई भावना, अपना कोई राग और विराग जोड़ सकते हैं. यह एक महान अमूर्तन था जिसे अमीर खां जीवन भर गाते रहे, लेकिन वह उनके संगीत में इतने स्वाभाविक ढंग से आकार लेता था जैसे, खुद उन्हीं के शब्दों में, ‘पेड़ पर पत्ते आते हैं.
***

गिर्दा के लिये मरदूद का मातम - वीरेन डंगवाल

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(यह लेख नैनीताल समाचार के आर्काइव से साभार)

क्या शानदार शवयात्रा थी तुम्हारी कि जिसकी तुमने जीते जी कल्पना भी न की होगी। ऐसी कि जिस पर बादशाह और मुख्यमंत्री तक रश्क करें। दूर-दूर के गरीब-गुरबा-गँवाड़ी। होटलों के बेयरे और नाव खेने वाले और पनवाड़ी। और वे बदहवास कवि-रंगकर्मी, पत्रकार, क्लर्क, शिक्षक और फटेहाल राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता जिनके दिलों की आग भी अभी ठंडी नहीं पड़ी है। और वे स्त्रियाँ, तुम्हारी अर्थी को कंधा देने को उतावली और इन सबके साथ ही गणमान्यसाहिबों मुसाहिबों का भी एक मुख्तसर हुजूम। मगर सबके चेहरे आँसुओं से तरबतर। सब एक-दूसरे से लिपटकर हिचकियाँ भरते। सबके रुँधे हुए कंठों से समवेत एक के बाद एक फूटते तुम्हारे वे अमर गीत जो पहले पहल सत्तर के दशक में चिपकोआंदोलन के दौरान सुनाई दिये थे और उसके बाद भी उत्तराखंड के हर जन आंदोलन के आगे-आगे मशाल की तरह जलते चलते थे:जैंता एक दिन तो आलो, उदिन यो दुनि में (आयेगा मेरी प्यारी जैंता वो दिन/चाहे हम न देख सकें चाहे तुम न देख सको/फिर भी आयेगा तो प्यारी वो दिन/इसी दुनिया में’)लेने लगता था। रोमांच, उम्मीद और हर्षारितेक से कँपकपाते हुए वे जलूस आज भी स्मृति में एक खंडित पवित्रता की तरह बसे हुए हैं।
 
क्या बात थी यार गिर्दा तुम्हारी भी! अफसोस, सख्त अफसोस कि मैं तुम्हारी इस विदा यात्रा में शामिल नहीं हो पाया, जिसका ये आँखों देखा हाल में लिख रहा हूँ। और इस समय मुझे तुम्हारी यह खरखरी हँसी साफ सुनाई दे रही है जिसे तुम गले से सीधे गालों में भेजते थे और दाँतों से थोड़ा चबाकर बाहर फेंक देते थे।

कैसा विचित्र नाटक है यार! क्या तो तुम्हारी बातें, क्या तो तुम्हारे शक। घाटियों, चोटियों, जंगलों, बियाबानों, जनाकीर्ण मेले-ठेलों, हिमालय की श्रावण संध्याओं और पहाड़ी स्त्रियों के गमगीन दिलों से बटोरे गये काष्ठ के अधिष्ठान जिनसे आग जलाई जाएगी और खाना पकेगा। और तुम्हारी वो आवाज? बुलंद, सुरीली भावों भरी सपनीली: ऋतु औनी रौली, भँवर उड़ाला बलि/हमारा मुलुका भँवर उड़ाला बलि (चाँदनी रातों में भँवरे उड़ेंगे सुनते हैं/हमारे मुलुक में खूब भंवरें उड़ेंगे सुनते हैं/ हरे-हरे पत्ते में रखकर खूब बढ़िया दही खायेंगे हम सुनते हैं / अरे क्या भला लगेगा कि हमारे मुलुक में भंवरे उड़ेंगे ही!

कभी वो पुकार होती थी तुम्हारी, पुरकशिश क्षुब्ध आंदोलनों की हिरावल ललकार: आज हिमाल तुम्हें बुलाता है। जागो-जागो हे मेरे लाल / जागो कि हम तो हिल भी नहीं सकते / स्वर्ग में है हमारी चोटियाँ और जड़ें पाताल / अरी मानुस जात, जरा सुन तो लेना/हम पेड़ों की भी विपत का हाल / हमारी हड्डियों से ही बनी कुर्सियाँ हैं इनकी/जिन पर बैठे ये हमारा कर रहे ये हाल/देखना-देखना एक दिन हम भी क्या करते हैं इनका हाल।ये केवल पेड़ नहीं जिनकी हड्डियों से उनकी कुर्सियाँ बनी हैं। ये केवल आत्मरक्षा की फरियाद भी नहीं, परस्पर सहयोग की माँग है। ये केवल हिमालय भी नहीं है जो अपने बच्चों से जागने को कह रहा है। इतिहास प्रकृति लोक और वर्तमान का ये अनूठा जद्दोजेहद भरा रिश्ता है जो लोकगीतों की मर्मस्पर्शी दुनिया के रास्ते गिर्दा ने अपनी कविता में हासिल किया है और जिस रिश्ते वह सब बेईमानी, अत्याचार, ढोंग और अन्याय के खिलाफ अपना मोर्चा बाँधता है: पानी बिच मीन पियासी/खेतों में भूख उदासी/यह उलटबाँसियाँ नहीं कबीरा/खालिस चाल सियासी।किसान आत्महत्याओं के इस दुर्दान्त दौर के बीस-पच्चीस बरस पहले लिखी उसकी यह कबीरही नहीं, उसकी समूची कविता, उसके गीत, उसके नाटक, उसका रंगकर्म उसका समूचा जीवन सनातन प्रतिपक्ष और प्रतिरोध का है। जैसा कि मौजूदा हालात में किसी भी सच्चे मनुष्य और कवि का होगा ही।

तीस-पैंतीस साल के मुतवातिर और अत्यंत प्रेमपूर्ण संबंध के बावजूद मुझे यह मालूम ही नहीं था कि गिर्दा की उम्र कितनी है। दोस्तों, हमखयालों-हमराहों के बीच कभी वह बड़ा समान लगता और कभी खिलखिलाते हुए सपनों और शरारत से भरा एकदम नौजवान। ये तो उसके मरने के बाद पता चला कि उसकी पैदाइश 10 सितंबर 1943 की थी, अल्मोड़ा जिले के गाँव ज्योली की। वरना वो तो पूरे पहाड़ का लागत था और हरेक का कुछ न कुछ रिश्तेदार। जब उसने काफी देर से ब्याह किया और प्यार से साज-सँभाल करने वाली हीरा भाभी उस जैसे कापालिक के जीवन में आई तो लंबे अरसे तक हम निठल्ले छोकड़ों की तरह दूर से देखा करते थे कि देखो, गिर्दा घरैतिन के साथ जा रहा है।कभी थोड़ा आगे और अक्सर थोड़ा पीछे हमारी सुमुखी भाभी, और साथ में लजाये से, भीगी बिल्ली से ठुनकते हुए गिरदा। दाढ़ी अलबत्ता चमक कर बनी हुई, मगर कुर्ता वही मोटा-मोटा और पतलून, और कंधे पर झोला जिसमें बीड़ी-माचिस, एकाध किताब-पत्रिका, मफलर और दवाइयाँ। यदा-कदा कोई कैसेट और कुछ अन्य वर्जित सामग्री भी। आखिर तक उसकी यह धजा बनी रही। अलबत्ता दिल का दौरा पड़ने के बाद पिछले कुछेक बरस से यह फुर्तीली चाल मंद हो चली थी। चेहरे पर छिपी हुई उदासी की छाया थी जिसमें पीले रंग का एक जुज था- सन् सतहत्तर-अठहत्तर, उन्यासी या अस्सी साल के जो भी रहा हो।

उससे पहली मुलाकात मुझे साफ-साफ और मय संवाद और मंच्चसज्जा के पूरम्पूर याद है। नैनीताल में ऐसे ही बरसातों के दिन थे और दोपहर तीन बजे उड़ता हुआ नम कोहरा डीएसबी के ढँके हुए गलियारों-सीढ़ियों -बजरी और पेड़ों से भरे हसीन मायावी परिसर में। हम कई दोस्त किसी चर्च की सी ऊँची सलेटी दीवारों वाले भव्य एएन सिंह हाल के बाहर खड़े थे जहाँ कोई आयोजन था। शायद कोई प्रदर्शनी। रूसी पृष्ठभूमि वाली किसी अंग्रेजी फिल्म के इस दृश्य के बीचोंबीच स्लेटी ही रंग के ओवरकोट की जेबों में हाथ डाले, तीखे, लगभग ग्रीक नाक-नक्शों और घनी-घुँघराली जुल्फों वाला एक शख्स भारी आवाज में कह रहा था: ‘‘ये हॉल तो मुझे जैसा चबाने को आता है। मेरा बड़ा ही जी होता है यार इसके इर्दगिर्दअंधायुगखेलने का।मैंने चिहुँक कर देखा- डीएसबी कालेज में अंधायुग ? वहाँ या तो अंग्रेजी के क्लासिक नाटक होते आये थे या रामकुमार वर्मा, विष्णु प्रभाकर के एकांकी। राजीव लोचन साह ने आगे बढ़कर मुझे मिलवाया: ‘‘ये गिरीश तिवाड़ी हैं वीरेन जी, ‘चिपकोके गायक नेता और जबर्दस्त रंगकर्मी। वैसे सौंग एंड ड्रामा डिवीजन में काम करते हैं। बड़े भाई हैं सबके गिर्दा।’’ गिर्दा ने अपना चौड़ा हाथ बढ़ाया। किसी अंग्रेजी फिल्म के दयालु रूसी पात्र जैसा भारी चौड़ा हाथ। देखते-देखते हम दोस्त बन गए। देश-दुनिया में तरह-तरह की हलचलों से भरे उस क्रांतिकारी दौर में शुरू हुई वह दोस्ती 22 अगस्त 2010 को हुई उसकी मौत तक, बगैर खरोंच कायम रही। उसके बाद तो वह एक ऐसी दास्तान का हिस्सा बन गई है जिसे अभी पूरा होना है।जिसके पूरा होने में अभी देर है। गिर्दा को याद करते हुए ही इस बात पर ध्यान जाता है कि यह शख्स अपने और अपने भीषण जीवन संघर्ष के बारे में कितना कम बोलता था। वरना कहाँ तो उसका हवलबाग ब्लॉक का छोटा सा गाँव और कहाँ पीलीभीत-लखीमपुर खीरी में तराई के कस्बे-देहातों और शहर लखनऊ के गली-कूचों में बेतरतीब मशक्कत और गुरबत भरे वे दिन। गरीबी से गरीबी की इस खानाबदोश यात्रा के दौरान ही गिरीश ने अपने सामाजिक यथार्थ के कठोर पाठ पढ़े और साथ ही साहित्य, लोक रंगमंच और वाम राजनीति की बारीकियाँ भी समझीं। संगीत तो जनम से उसके भीतर बसा हुआ था। 1967 में उसे सौंग एवं ड्रामा डीविजन में नौकरी मिली जो उत्तराखण्ड के सीमावर्ती इलाकों में सरकारी प्रचार का माध्यम होने के बावजूद ब्रजेंद्र लाल शाह, मोहन उप्रेती और लेनिन पंत सरीखे दिग्गजों के संस्पर्श से दीपित था। यहाँ गिरदा खराद पर चढ़ा, रंगमंच में विधिवत दीक्षित हुआ और उसकी प्रतिभा को नए आयाम मिले। कालांतर में यहीं वह क्रांतिकारी वामपंथ के भी नजदीक आया। खासतौर पर पहाड़ के दुर्गम गाँवों की जटिल जीवन स्थितियों से निकट के संपर्क, द्वंद्वात्मक राजनीतिक चेतना, और मानवीयता पर अटूट विश्वास ने ही इस अवधि में गिरीश चंद्र तिवाड़ी कोगिर्दाबनने में मदद दी है।चिपकोके इन जुझारू नौजवानों का भी इस रूपांतरण में कुछ हाथ रहा ही है, जो अब अधेड़, और कई बार एक-दूसरे से काफी दूर भी हो चुके हैं, पर जो अब परिवर्तन के साझा सपनों के चश्मदीद और एकजुट थे। वे पढ़ते थे, सैद्धांतिक बहसें करते और लड़ते भी थे। एक-दूसरे को सिखाते थे। नुक्कड़ नाटक करते, सड़कों पर जनगीत गाते थे। साथ-साथ मार खाते और जूझते थे। शमशेर सिंह बिष्ट, शेखर पाठक, राजीव लोचन साह, प्रदीप टम्टा, गोविंद राजू, निर्मल जोशी, हरीश पंत, पीसी तिवारी, जहूर आलम, महेश जोशी…. एक लंबी लिस्ट है। गिर्दा ने जब भी बात की इन्हीं, और इन्हीं जैसी युवतर प्रतिभाओं के बाबत ही की। या नैनीताल समाचारऔर पहाड़और युगमंचके भविष्य की। अपने और अपनी तकलीफों के बारे में उसने कभी मुख नहीं खोला। मुझे याद है मल्लीताल में कोरोनेशन होटल में नाली के पास नेपाली कुलियों की झोपड़पट्टी में टाट और गूदड़ से भरा उसका झुग्गीनुमा कमरा, जिसमें वह एक स्टोव, तीन डिब्बों, अपने नेपाली मूल के दत्तक पुत्र प्रेम और पूरे ठसके साथ रहता था। प्रेम अब एक सुदृढ़ सचेत विवाहित नौजवान है। अलबत्ता खुद गिर्दा का बेटा तुहिन अभी छोटा है और ग्रेजुएशन के बाद के भ्रम से भरा आगे की राह टटोल रहा है।

एक बात थोड़ा परेशान करती है। एक लंबे समय से गिर्दा काफी हद तक अवर्गीकृत हो चुका संस्कृतिकर्मी था। उसकी सामाजिक आर्थिक महत्वकांक्षायें अंत तक बहुत सीमित थीं। जनता के लिए उसके प्रेम में लेशमात्र कमी नहीं आई थी। उसका स्वप्न कहीं खंडित नहीं हुआ था। यही वजह है कि उसके निर्देशित नाटकों, खासतौर पर संगीतमय अंधेरनगरी’, जिसे युगमंचअभी तक सफलतापूर्वक प्रस्तुत करता है- अंधायुगऔर थैंक्यू मिस्टर ग्लाडने तो हिंदी की प्रगतिशील रंगभाषा को काफी स्फूर्तवान तरीके से बदल डाला था। इस सबके बावजूद क्या कारण था कि जन-सांस्कृतिक आंदोलन उसके साथ कोई समुचित रिश्ता नहीं बना पा रहे थे। उसके काम के मूल्यांकन और प्रकाशन की कोई सांगठनिक पहल नहीं हो पाई थी। ये बात अलग कि वह इसका तलबगार या मोहताज भी न था। अगर होता तो उसकी बीड़ी भी उसे भी जे. स्वामीनाथन बना देती। आखिर कभी श्याम बेनेगल ने उसके साथ एक फिल्म करने की सोची थी, कहते हैं।

अपनी आत्मा से गिर्दा नाटकों और कविता की दुनिया का एक चेतनासंपन्न नागरिक था। उसके लिखे दोनों नाटक नगाड़े खामोश हैंऔर धनुष यज्ञजनता ने हाथों हाथ लिये थे। लेकिन जानकार और ताकतवर लोगों की निर्मम उदासीनता और चुप्पी उसे लौटाकर लोक संगीत की उस परिचित, आत्मीय और भावपूर्ण दुनिया में ले गई, जहाँ वह पहले ही स्वीकृति पा चुका था और जो उसे प्यार करती थी।

मगर गिर्दा था सचमुच नाटक और नाटकीयता की दुनिया का बाशिंदा। हर समय नाट्य रचता एक दक्ष, पारंगत अभिनेता और निर्देशक। चाहे वह जलूसों के आगे हुड़का लेकर गीत गाता चलता हो या मंच पर बाँहें फैलाये कविता पढ़ते समय हर शब्द के सही उच्चारण और अर्थ पर जोर देने के लिये अपनी भौंहों को भी फरकाता। चाहे वह नैनीताल समाचार की रंगारंग होली की तरंग में डूबा कुछ करतब करता रहा हो या कमरे में बैठकर कोई गंभीर मंत्रणा…. हमेशा परिस्थिति के अनुरूप सहज अभिनय करता चला था वो। दरअसल लगभग हर समय वह खुद को ही देखता-जाँचता-परखता सा होता था। खुद की ही परछाई बने, हमेशा खुद के साथ चलते गिर्दा का द्वैध नहीं था यह। शायद उसके एक नितांत निजी अवसाद और अकेलेपन की थी यह परछाई। खुद से पूरा न किये कुछ वायदों की। खंडित सपनों, अपनी असमर्थताओं, जर्जर होती देह के साथ चलती अपनी ही आत्मा के यौवन की परछाई थी यह। लोग, उसके अपने लोग, इस परछाई को भी उतनी ही पहचानते और प्यार करते थे जितना श्लथ देह गिर्दा को।

सो ही तो, दौड़ते चले आए थे दूर-दूर से बगटुट वे गरीब गुरबा -गँवाड़ी नाव खेने वाले। पनवाड़ी होटलों के बेयरे। छात्र-नौजवान, शिक्षक पत्रकार। वे लड़कियाँ और गिरस्थिन महिलायें- गणमान्यों के साथ बेधड़क उस शव यात्रा में जिसमें मैं ही शामिल नहीं था। मरदूद!

चर्चित लेटिन अमेरिकन कवि ओस्वाल्दो सौमा की कविताएं - अनुवाद एवं प्रस्तुति दुष्यंत

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मूलत: ये अनुवाद kritya international poetry festival के लिए किए गए थे, प्रिंट में ये 'कथादेश 'में आए। दुष्यंत हिंदी के चर्चित कथाकार और कवि हैं। इन्होंने फिल्मों के लिए भी लेखन किया, जो चर्चा में रहा है। अनुनाद के पाठक पहले भी उन्हें यहां पढ़ चुके हैं। अनुनाद ने अपने पुराने लेखक साथी दुष्यंत से इन कविताओं के लिए अनुरोध किया था। इस अनुरोध का मान रखने के लिए अनुनाद उनका आभार व्यक्त करता है।



कोस्टारिका में 1949 में जन्में ओस्वाल्दो अस्सी के दशक में कवि के तौर पर पहचाने जाने लगे। उसके बाद की लेटिन अमेरिकन कवियों की पीढी उन्हें अपना आदर्श मानती है। अब तक 6 कवितासंग्रहों के प्रकाशन के साथ उनकी ख्याति दुनिया भर में हुई है और दुनिया भर के कविता उत्सवों में वे भागीदार रहे हैं, लगातार बुलाए जाते हैं। वे कई समवेत कविता संकलनों के संपादक भी हैं जिनकी चर्चा लगातार पश्चिमी देशों में हुई है। 

हिंदी अनुवाद - दुष्यंत

नाचती है एक स्त्री

रात में छुपी हुई
नाचती है एक स्त्री
अपनी बांहे फैलाती है
बोलते पंखों सी
वायुकेंद्र से वायु चक्र तक
परछाइयों की दीवारों के बीच फैला हुआ
प्रकाश का सूनापन
वो एक सितारे सी घूमती हुई
बनाती है रेखाएं
संभावनाओं के पथ पर
पीछे हट जाती है
नाचती है
परिवर्तित होती है
जैसे उठाएं किसी पक्षी को
और धरती के आलिंगन से
एक चुंबकीय आकर्षण सा
जलते हुए लाल कोयले की तरह
गुफाओं की प्रतिध्वनि सी
नाचती है और हिलती है
बालसुलभ भय से
वो अब भी भयभीत
अपने भीतर से आवाज देती है
नाचती है एक स्त्री
काष्ठ के हृदय पर जलाने को
जिंदगी की अंधी धड़कन
मेरे निष्ठुर घावों पर नाचते हुए
पश्चाताप के पथ पर
नाचती है एक स्त्री
अकेली दुर्भाग्य के विरूद्ध
घूमते हुए ग्रह पर
स्मृतियों की दुर्घटना पर नाचती है
और खुद पर पलटती है
हमारे सामने अपनी व्याकुलता को प्रकट करने को
जो थी धरती के स्वर्ग से निर्वासित
एकांत के यूटोपिया में
मैं शब्दों की ओर देखता हूं
जो भीड़ को गति देगा
जो अपने पाश्र्व में नीहित समस्त शब्दों
को एकत्र करेगा
जो खो गया है उसकी तपन से समृद्ध
एक शब्द
अकथनीय की कुंजी से युक्त होगा
कथित की अतीन्द्रिय दृष्टि
एक शब्द
जो बांध लेगी करीब
हृदय के उस द्वीप में
जिससे समुद्र उस पर टूट पड़े।
उसकी मृदु निद्राहीनता
एक अद्भुत शब्द
केवल जिसकी ध्वनि शत्रु को नष्ट कर देगी
एक आईने की तरह
जहां प्रत्येक स्वयं को दूसरे में देखेगा
और कालनिरपेक्षता में
एक शब्द
बारिश और उसके खतरों से प्रार्थना करने
हवा की तरह
समस्त देशों से मिलेगा
और जैसे ही रोटी की ओर मुड़ेंगे
मनुष्य एक दूसरे से जुड़ जाएंगे।
*** 
बच्चे सरीखे मेरे बूढे पिता

एक
मैंने देखा आपको बहुत भयभीत
बिल्कुल बच्चे की तरह!
मेरे पिता जब आपकी आंखों में
मौत ने मौन सूचना दी अपने आगमन की,
मैं तड़प रहा था
आपको शुक्रिया कहने को
गले लगाने और अलविदा कहने को
आपको याद दिलाने को कि
ईश्वर ने सदा आपको माफ किया
ईश्वर हमेशा उन्हें माफ करता है
जो जिंदगी  के लिए जिंदगी की बाजी लगाते हैं
जो अपने हृदय के साहस से
अपने वजूद के रास्ते खोजते हैं
और इसके तमाम जोखिमों को लांघते हैं
मैं तड़प रहा था आपसे कहने को
कि मैंने आपके श्रेष्ठों में श्रेष्ठ गुणों को
भद्रता में आपकी विशिष्ट भद्रता
और मरूस्थल की सौम्य रेत पर स्थित
आपके अटल गर्व को।

दो


मेरे पिता
मैं तड़प रहा था
आपको ले जाने को आपके पिता की कब्र पर
इस उम्मीद के साथ कि आप
इस जीवन में क्षमा कर देंगे
निस्संगता उनके जीवन की
जो छोड़ गया आपको
जो अब रहते हैं अकेले पोर्ट फादर में
मैं चाहता था कि आप छोड़ जाएं
बिना अपने उपर कोई भार महसूस किए
जिससे दूर तट पर
आपकी परेशानियां होगी न्यूनतम 
और आप भूल सकेंगे अपने घाव इसके कारण।

तीन

अब आप शांति से रह सकते हैं
मेरे बूढे पिता बच्चे से
आपके पोते दोहिते
पहले ही आपके बारे में बात करते हैं
जैसे आप गए नहीं हो कहीं
अब भी तुम मौजूद हो
हमारे समय में
डरिए मत!
जैसे ही आप प्रकाश का रास्ता पार करेंगे
समय फिर से आपको ले जाएगा बचपन में
फिर आप बिछड़े सूरज से खेलोगे
मैं आपको गले लगाउंगा पिताजी!
जे मैं नहीं कर सका मेरे पिता को उनकी मौत पर
जो अब पोर्ट फादर में अकेले रहते हैं
***

शताब्दी का अंत

पहला जाम


मैं बहुत तन्हा हूं
और पुलिस के लिए भी अवांछित
यह काल्डस रम
मेरी उदासी में बेअसर है
मेरा कोई प्रियजन मेरे पास नहीं है
कोई जीवमात्र भी
मुझे याद दिलाने को
इस ग्रह का भाग्य!
मेरे बेटे अपने कामों पर गए हैं
मैं बस अपने ही साथ अकेला
कि समझ तो सकता हूं आत्महत्याओं को
पर खुद को गोली मारने की हिम्मत नहीं करता।

दूसरा जाम


वो सही थे
जब उसने इनसान बनाया
ईश्वर के पास दो जाम कम पड़ रहे थे
अब एकांत है
ख्वाबों का कटोरा
स्त्री जिसे मैं जानता हूं
लौटती है धूल के फूल उगाने को
दो जाम...
और दुनिया का चेहरा बदल जाता है..
छोटे मसले गौण हो जाते हैं
और उनमें से एक करता है मौत से ही दिल्लगी !

तीसरा जाम


आत्मसंतुष्टि के मार्ग को अपनाते हुए
मैं खुद को समझाता हूं
पर ये दिल
अब चाहता है
अपने पिंजरे से मुक्ति
अपने संत होने से नहीं बंधा रहेगा
जो आकांक्षाओं को अस्वीकार करेगा
यह मुक्ति चाहता है
और गलियों तक ले जाते हुए
खुद को खपाना उतावले कामों में
तमाम खतरों का जोखिम उठाता है
यह जानते हुए कि सच्चे यौद्धा की तो
पहले ही मौत हो चुकी है।

चौथा जाम


यह संख्या मुझे
क्यों बार-बार परेशान करती है
क्या इसलिए कि मैं चार भाइयों में तीसरे नंबर का हूं
या यह मेरे हाई स्कूल के प्रायः हासिल होने वाले प्राप्तांक हैं
या मैं नहीं जानता
क्योंकि
यह रहस्यपूर्ण अंक हैं
या केवल इसलिए
कि मैं विषम संख्याओं को ज्यादा पसंद करता हूं।

पांचवां जाम


ली पो का चांद फिर चमका
सहज होने की प्यास में
कोई और धारण करता है मेरी देह
धुल जाते हैं 
सारे पाप और सारी घृणाएं
मेरी छाती के पास पतवार रखते हुए
नाव लड़खड़ाती है
बिल्कुल एक शराबी की तरह।



***

विमलेश त्रिपाठी – 15 कविताएँ

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विमलेश त्रिपाठी अनुनाद के पुराने साथी लेखक हैं। उनकी दो लम्बी कविताएं पहली बार अनुनाद पर छपीं और चर्चा में रहीं। बहुत समय बाद विमलेश ने अपनी कविताएं अनुनाद को दी हैं। अनुनाद इन सभी कविताओं का स्वागत करते हुए, इन्हें पाठकों के हाथ सौंप रहा है। 
- - - 
 

घर में अकेले


इस घर में अकेले रहता हूं तो घूम आता
गांव के पुराने घर के आंगन में कई बार
पेंसिल से लिखी दीवारों पर वर्णमालाएं
अपने नाम के पहले अक्षर
गोटी खेलने वाली वो जगहें
खोजता छूता बेतरह

चला जाता उन सखियों के गांव जो बहुत दूर बियाही गईं
उन दोस्तों के घर
जो चले गए सूरत दिल्ली अरब रोटी की जुगाड़ में
उस बूढ़े गवैये के घर
जो गाता था तो हिलता था पूरा गांव वीणा के तार-सा

घर में अकेले रहता  तो कभी नहीं जाता
हावड़ा ब्रीज पर
विक्टोरिया या नंदन नहीं जाता
कार्यालय तो भूल कर भी नहीं

जाता हूं कुछ देर बैठने उस नदी किनारे
जिसमें बहुत कम रह गया है पानी
उस बगीचे में जहां बहुत कम रह गए हैं पेड़
उस चौपाल पर
जहां अब मेहिनी नहीं होती पूरवी की तान नहीं लहराती

जाता हूं बार-बार लौटकर
जहां अपना बचपन छोड़ आया था एक दिन
बार-बार जाता हूं
उसे ही तलाशता हंकासा-पियासा

और लौट आता हूं बार-बार निराश
इस घर में अकेला 
जिसे मेरा ही घर कहते हैं लोग-बाग ।
*** 

सड़क पर रहते लोग

वे दंगे नहीं करते   हत्या नहीं करते
राजनीति नहीं करते
मंदिर  मस्जिद या गिरिजाघर नहीं जाते
घोर निराशा में भी  वे आत्महत्या  नहीं करते

वे हँसते हैं जोर-जोर
प्रसव करते हैं    बच्चों को पालते हैं
कुत्ते और बिल्लियों को अपना दोस्त बनाते हैं
धूल और धुएँ के बीच जीते हैं
वे अपने देश को गालियाँ नहीं देते
वे कभी देश के लिए खतरा नहीं होते

कुछ खास और सरूख़ लोगों का समुद्रशास्त्र बताता है
कि वे देश के नक्शे पर
गलत जगहों पर उगे मस्से की तरह हैं
तमाम दुख और अभाव के साथ
कुछ काले धब्बे-से
उनका होना देश के लिए शुभ नहीं है

पता नहीं कितनी सदियाँ बीतीं
और मेरा कवि उस दिन का इंतजार कर रहा है
जब वे देश के ललाट पर चिपक जाएंगे
एक सुंदर तिल की तरह
समुद्रशास्त्र का तो पता नहीं
कि देश के व्याकरण और कविता  की भाषा में एक दिन
वे शुभ हो जाएंगे।
*** 

फ़िलहाल

कौन हैं जो साजिशों की अंधेरी परतों में छुपे बैठे हैं
कौन हैं जिन्हे कविता और जनता की भाषा समझ नहीं आती
फर्जी और अबूझ आदेश देने वाले वे लोग
कौन हैं इमान में जिनके काली हँसी तैरती है

कविता और आम जनता की भाषा में बेनकाब वे बहरूपिए
रात-दिन जो बनाते हैं आत्महत्या की रस्सियाँ
जिनके नाम पर जहर बनाने की हजारों फैक्टरियाँ
कौन हैं वे लोग जिनकी दुकानें
इस अभागे देश के नाम पर फल-फूल रही हैं

कौन हैं वे प्रेस कॉन्फ्रेंसों में झूठ उगलते
मंचों पर देशभक्ति दनदनाते
नूक्कड़ों पर ईमानदारी की उल्टियाँ करते
कौन हैं वे लोग जिनकी आत्मा की शर्मो हया
राजनीति के अंधकूप में गिरवी है

आओ इन्हें अपनी कविता के गिलोटीन पर चढ़ा दें
फिलहाल इनके लिए
कोई और दूसरी कठोर सजा नहीं।
***

वह

वह कविता में अभिनय करता
करता प्यार में अभिनय
उसने चेहरे पर लगा रखे हैं
कई तरह के मुखौटे

वही समय का सबसे बड़ा प्रेमी
वही समय का सबसे बड़ा कवि ।

*** 

जब वह दिन

कुछ लोग थे जो बहुत तेजी से खूँखार जानवर में बदलते जा रहे थे
मैं चाहता था  सिर्फ आदमी बने रहना
लेकिन मुश्किल यह
कि आदमी बनकर मैं 
एक अजीब तरह के दुख का शिकार हो जाता था
साँस तक लेने में होने लगती थी तकलीफ

तब मुझे लगता कि इस देश में जिंदा रहने के लिए
मुझे भी एक दिन जानवर में बदल जाना होगा
मेरे सारे प्रतिरोध
एक जगह धरे के धरे रह जाएंगे

वह दिन आया और मैं भी जानवर की शक्ल में तब्दील हो गया
तब मेरे पास दुनिया भर की चीजें थीं
जिनके न होने से गांव घर से लेकर मुहल्ले भर में
अब तक मुझे नकारा समझा जाता था

जब वह दिन आया तब सब कुछ था मेरे पास
सिर्फ कविता नहीं थी ।
*** 
शब्द कहीं नहीं जाते

शब्द कहीं नहीं जाते
धान की तरह रहते ओखर में
तसली में डभकते चावल की तरह
रक्त में चले जाते कुछ देर
हमें ताकत देते 
दुःसमय के खिलाफ लड़ने को 
धमनियों में रेंगते 
और फिर वापिस चले आते 
मौसम के रंग की तरह

और कविता कहां जाती है
सूखे खेत में बारिश के पानी की तरह
चूल्हे में लावन की तरह
शरबत में गुड़ और तरकारी में नमक की तरह

कविता कभी-कभी जाती है परदेश 
कमाने के लिए
और एक दिन मिट्टी के एक घर में
महीनों बाद अन्न की गंध
और मुरझाए चेहरे पर 
हंसी की तरह लौटती है
*** 
दो हाथ मिलकर

एक हाथ एक दुनिया नहीं है
एक हाथ एक दूसरे हाथ के साथ मिलकर दुनिया है
दुनिया अगर दो हाथ बन जाए
तो वह बहुत सुंदर एक शब्द

और दो हाथ मिलकर अगर दुनिया बन जाएं
तो वही मुक्म्मल एक कविता ।
***
 
नए साल में

हालांकि मां को लिखनी ही होगी चिट्ठी
बहनों को भेजना ही होगा राखी के दिन संदेश
पिता को तो प्रणाम भर कर लेने से काम चल जाएगा
लेकिन बच्चों के लिए 
तुतलाते हुए कुछ शब्दों की होगी जरूरत
इस दुनिया में न रहे पितरों के लिए
मंत्रों के कुछ अंश बचा लेने होंगे

दोस्तों के लिए बचा कर रखना होगा
मिसरी-से कुछ मीठे बोल

बावजूद इनके
नए साल में बहुत कम शब्द खरचूंगा

रोजमर्रा की जरूरतों से
शब्द-शब्द बचाकर
बनाऊंगा 
एक ऐसा देश 
जिसके नाम पर रोना नहीं आएगा

नए साल में कविता नहीं
सचमुच का देश लिखूंगा ।
*** 

लौटना

लौट आया हूँ मेरे दोस्त

घोसले में लौटी चिडिया की तरह नहीं
मटमैले घर में किसान की तरह नहीं
न चींटियों की तरह सुरक्षित बिल में

लौट आया हूँ जंगल में अंधेरे की तरह
खेत में सूखे की तरह
उस तरह कि एक पराजित योद्धा
लौटता है लहूलूहान अपने टैंट की ओर

कि जैसे आँख में लौटता है पानी
पैर में झिनझिनी
सिर में असह्य दर्द लौटता है जैसे

लौट आया हूँ जैसे पिता लौटता है
एक मृत शिशु को जमीन में गाड़कर निढाल
माँ लौटती है
बेटी को डोली में विदा कर रूआँसा

लौटता है जैसे दिन
रात को अपनी कोख में छुपाए

लौट आया हूँ संसार की विलुप्त होती
भाषाओं की तरह
जानवरों की तरह
आदिवासियों की तरह

अंततः लौट आया हूँ मेरे दोस्त
कि अब कभी नहीं लौटूँगा ।
*** 
मौलिक

बाद एक शब्द लिखने के सोचता हूँ कि इसे किसी ने पहले ही लिख दिया है
एक वाक्य लिखकर लगता है कि इसे तो पहले
और पहले कई लोगों ने लिख दिया है
एक कविता लिखने के बाद खंगालता हूँ कविता की दुनिया
तो पता चलता है
कि यह कविता भी बहुत पहले लिखी जा चुकी है
मैं लिखे हुए को
फिर-फिर लिख रहा हूँ
और जी रहा हूँ इस एक दुखद भ्रम में कि मैं लिखे हुए को ही दुहरा रहा हूँ
कि घिस रहा हूँ शब्द, वाक्य
और इस तरह कविता को भी
इस तरह बन रही हैं ढेर सारी पहले से ही लिखी जा चुकी कविताएँ
छप रही किताबें
लेकिन यह सब होने पर भी
एक काम करता हूँ जरूर
और वह मौलिक है
नया है
उसमें दुहराव नहीं
कि हर शब्द, हर वाक्य, हर पदबंध
हर कविता के साथ
मैं अपना समय जड़ देता हूँ
जो मेरा अपना समय है
कि अपनी जमीन की थोड़ी-सी माटी भुरभुरा देता हूँ अदृश्य
जो मेरी अपनी माटी है
कि इस तरह हर बार मैं मौलिक
और अलग हो उठता हूँ ।
***

लिखने का स्वप्न

आजकल लिखता नहीं कुछ
लिखने का स्वप्न देखता हूँ
यकीन कीजिए
कुछ न लिखकर
लिखने का स्वप्न देखना
बहुत सम्मोहक
और बहुत खतरनाक होता है ।
***
 
ख़्वाब में कविता

ख़्वाब में चांद चांद ही रहता है
पृथ्वी पृथ्वी ही रहती है
हवा बहती हवा की तरह
रात रहती रात की तरह ही

ख़्वाब में तुम नहीं रहते तुम
घर नहीं रहता घर
हमारे बीच की नदी नहीं रहती नदी

झर जाते स्मृतियों के गुलाब
टूटता भरभराकर हमारे बीच का पुल
नदी का वेग अंतहीन

ख़्वाब में हमारे शब्द
चनकते कांच की तरह
लय टूटता अपने उठान पर
सांस टूटने की तरह

और कविता साध लेती मौन
अंतहीन ।

***

उम्मीद

रात से पूछता हूं
कैसे सहती हो यह एकांत अपनी छाती पर अकेले

रात हंसती है
मेरी देह पर एक शब्द लिखकर
'सुबह'
***
 
महत्वाकांक्षा

चाहता हूँ
एक चिरइ की-सी 
महत्वाकांक्षा

वही लेकर जीना
वही लेकर मरना

बस वही

और
कुछ भी नहीं
नहीं... नहीं ।
***

आत्महत्या

धरती दरक जाती   आसमान सियाह धुंध में ढक जाता
दुनिया की सारी अच्छी किताबें खाक में तब्दील हो जातीं

सूख जाते सब महासागर
नदियों की कोख में उड़ती धूल
संपूर्ण सृष्टि यह मौन - अवाक्

और एक एक कर सारे ईश्वर मर जाते ।
***
विमलेश त्रिपाठी
·        बक्सर, बिहार के एक गांव हरनाथपुर में जन्म । प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही।
·        प्रेसिडेंसी कॉलेज से स्नातकोत्तर, बीएड, कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधरत।
·        देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, समीक्षा, लेख आदि का प्रकाशन।
·        कविता और कहानी का अंग्रेजी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद।
सम्मान       
·        भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार
·        ठाकुर पूरण सिंह स्मृति सूत्र सम्मान
·        भारतीय भाषा परिषद युवा पुरस्कार
·        राजीव गांधी एक्सिलेंट अवार्ड
पुस्तकें
·        हम बचे रहेंगेकविता संग्रह, नयी किताब, दिल्ली
·        एक देश और मरे हुए लोग,  कविता संग्रह, बोधि प्रकाशन
·        उजली मुस्कुराहटों के बीच, ( प्रेम कविताएँ) ज्योतिपर्व प्रकाशन
·        अधूरे अंत की शुरूआत, कहानी संग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ
·        कैनवास पर प्रेम, उपन्यास, भारतीय ज्ञानपीठ
·        आमरा बेचे थाकबो ( कविताओं का बंग्ला अनुवाद), छोंआ प्रकाशन, कोलकाता
·        वी विल विद्स्टैंड( कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद), अथरप्रेस, दिल्ली
·        2004-5 के वागर्थ के नवलेखन अंक की कहानियां राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित।
·        देश के विभिन्न शहरों  में कहानी एवं कविता पाठ
·        कोलकाता में रहनवारी।
·        परमाणु ऊर्जा विभाग के एक यूनिट में  कार्यरत।
·        संपर्क:साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,
1/ए.एफ., विधान नगर, कोलकाता-64.
·        ब्लॉग: http://bimleshtripathi.blogspot.com
·        Email: starbhojpuribimlesh@gmail.com
·        Mobile: 09088751215




एक वृक्ष का शोकगीत और विषाद की कुछ कविताएँ - राकेश रोहित

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राकेश रोहित ने पिछले कुछ समय में निरन्तर मूल्यवान कविताएं लिखी हैं। प्रकृति के गझिन रूपकों और उदात्त मानवीय भावनाओं के बीच उनकी भाषा ने इधर एक नया लहज़ा विकसित किया है। प्रस्तुत है राकेश जी की ऐसी ही कुछ नई कविताएं।

***
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एक वृक्ष का शोकगीत

कहाँ से सूखता है वृक्ष

पहले जड़ें सूखती हैं
या पहले सूख जाता है टहनियों में बहता रस?

एक दिन पेड़ से झरा पत्ता
अपने दुख की कथा लेकर
लौटता है जड़ों के पास
बदलता करवटें बेचैनी में
धीरे-धीरे घुलता है
मिट्टी बन सोख लिया जाता है
जड़ों में
और निस्पंद टहनियां
उन्मत्त हो गाती हैं बसंत का गीत!

क्या टहनियों के पास झर गये पत्ते की स्मृतियां हैं?
क्या जड़ों को है उसका दुख?
धीरे-धीरे यह जो निरंतर
बिखर रहा है जीवन
और समय का सुगना पाखी
चुग रहा है विह्वल मन
क्या किसी को खबर है कि
कैसे एक दिन उदास हो जाती है टहनियां
और जागते जड़ों के रहते हुए भी
बन जाती हैं ठूंठ?

एक अकेले समूचे वृक्ष की भी
अलग- अलग गाथाएँ हैं
कविता लिखते हुए मुझे दिखता है
सबका अलग- अलग अकेलापन
इसलिए इतनी उदास है मेरी कविताएँ
इसलिए जब मैं एक वृक्ष के बारे में बोलता हूँ
मैं उस वृक्ष में छिपे
थके, आश्रय लेते
हजार अकेलेपन के बारे में सोचता हूँ।

एक साथ नहीं मरता है वृक्ष
पर कलरव में डूबे पक्षियों को खबर नहीं होती
पहले सूख जाती हैं जड़ें
या सूख जाता है पहले टहनियों का रस?

***

और विषाद की कुछ कविताएँ


(1)
दुख वही पुराना था
उसे नयी भाषा में कैसे कहता
पुरानी भाषा में ही
निहारता रहा अपना हारा मन।

हाथ में किरचें समेटे
चलता रहा भीड़ में
किसी ने नहीं पूछा
मैं इतना अकेला क्यों हूँ
किसी ने नहीं पूछा
मेरी खामोशी का सबब।

जब लोग युग का नया मुहावरा रच रहे थे
मैं समेट रहा था अपना आदिम दुख
चौंक गया एक दिन मैं यह देख कर
मेरी आँखों में कितने पुराने आंसू थे!

(2)
मेरे पास एक सपना है
और हजार दुख!

मैं आँसुओं को समेटता रहता हूँ सारी रात
और दुख रेत की तरह किरकिराता है आँखों में
मैं सपने के लिए थोड़ी नमी बचाना चाहता हूँ
और वह कहती है
आँसुओं को बह जाने दो
तो थोड़ा आराम आए!

इस समय में
जहाँ दुख हजार बिखरे हैं
बहुत कठिन है अपना एक सपना बचाना
यह जो धुंधला दिखता है जगत का दृश्य
कह नहीं सकता रेत चुभ रही है आँखों में
या मेरा सपना बिखर रहा है!

(3)
मैं उस जीवन को देखता हूँ जो धुंधला है
उसमें साफ नहीं है मेरी भी तस्वीर
एक अंधेरा जो मन के अकेले कोने से
अधिक काला है
धीरे- धीरे फैल रहा है
रोशनी की शहतीरों के बीच!

कुछ अव्यक्त उदासियों की
धरती पर छाया पड़ रही है
परछाइयाँ जिंदगी में यह कौन सा खेल खेलती हैं
जीवन में जब मैं पहली बार रोया था
क्या जिंदगी में मैं तब भी इतना ही अकेला था?

(4)
यह आकाश है
और इसमें एक ठहरी हुई गेंद
इस गेंद को अगर हाथ से छोड़ दें तो
गेंद ने विज्ञान नहीं पढ़ा
फिर भी गेंद वहीं जायेगी
जहाँ न्यूटन ने कह रखा है
पर अगर गुरूत्वाकर्षण न हो तो
तो यह वहीं थिर रहेगी
अनंत काल तक!

यह शून्य है
और इसमें मेरा मन
इसे नहीं खींचता धरती का कोई बल
इसका कोई भार नहीं है
न ही कोई आयतन
फिर भी यह थिर क्यों नहीं होता
क्यों भटकता है बिना किसी बल के
यह निर्बल, निर्भार?

(5)
दुख के इस पन्ने को रंग दो
नीले रंग से
फिर उस पर खींच दो
काली रेखाएं
अब अपनी आँखें बंद करो
और अपनी उंगली रखो उस पन्ने पर
कहीं भी
वह क्या है जो बिच्छू की तरह
डंक मारता है एक बार
और फिर सारी उम्र
टीसता है!

क्या रंग से पहले इस पन्ने पर
किसी का नाम लिखा था
फिर सारी जिंदगी हम
क्या लिखते रहे काली रेखाओं से?

(6)
जानने को कुछ नहीं रह गया है
गिरने दो विश्वास के वृक्ष का
आखिरी तना
चिड़ियाएं सारी उड़ कर
खो गयी हैं आकाश के एकांत में...

एक पत्ता टूट कर गिरता हुआ
तैरता है हवा में बेमतलब, बेचैन!

जड़ों के पास थोड़ी उखड़ी हुई
भुरभुरी मिट्टी है
और समाप्त हो गई
एक संभावनापूर्ण कथा!

***

अदनान कफ़ील दरवेश की दस कविताएं

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अदनान कफ़ील दरवेश हिंदी कविता के इलाक़े में नया नाम है। मैंने सोशल मीडिया पर उनकी दो-तीन कविताएं पढ़ीं और उनसे कविताओं के लिए अनुरोध किया। राख हो चुकी बहनों का उल्लेख असद ज़ैदी की बहुचर्चित कविता 'बहनें'के बाद उसी तड़प और मर्म के साथ दुबारा देखना एक कवि-प्रभाव के साथ-साथ समाज के उन्हीं कोनों-अंतरों को देखना भी है, जो अब तक कमोबेश वैसे ही रहे आए हैं। आज़ादी के बाद की कविता के पूरे सिलसिले को याद करें तो एक मुकम्मल दृश्य बनता है, जहां हिंदी कविता में दोआबे की वही आंच भरी ज़ुबान बार-बार लौटती है - यह केवल भाषा का सिलसिला नहीं, बच रही मनुष्यता का सिलसिला भी है, हमारे कितने ही कवियों के नाम इस सिलसिले में शामिल हैं। अदनान कफ़ीर दरवेश के रचनाकर्म को लेकर मैं उत्सुक हूं, हमेशा उन पर निगाह टिकी रहेगी। 

अनुनाद पर आपका स्वागत है मेरे नौउम्र साथी।
*** 

पुन्नू मिस्त्री

मेरे कमरे की बालकनी से दिख जाती है 
पुन्नू मिस्त्री की दुकान 
जहाँ एक घिसी पुरानी मेज़ पर 
पुन्नू ख़राब पंखे ठीक करता है 
जब सुबह मैं 
चाय के साथ अख़बार पढ़ता हूँ 
वो पंखे ठीक करता है 
और जब मैं शाम की चाय 
अपनी बालकनी के पास खड़े होकर पीता हूँ 
पुन्नू तब भी पंखे ठीक करता दिख जाता है 
मुझे नहीं मालूम कि उसे पंखे ठीक करने के अलावा भी 
कोई और काम आता है या नहीं 
या उसे किसी और काम में कोई दिलचस्पी भी होगी 
पुन्नू मिस्त्री की केलिन्डर में कोई इतवार नहीं आता 
मुझे नहीं पता जबसे ये कॉलोनी बसी है 
तबसे पुन्नू पंखे ही ठीक कर रहा है या नहीं 
लेकिन फिर भी मुझे पता नहीं ऐसा क्यूँ लगता है कि 
सृष्टि की शुरुवात से ही पुन्नू पंखे ठीक कर रहा है..
मेरे पड़ोसी कहते हैं कि, “पुन्नू एक सरदार है
कोई कल कह रहा था कि, “पुन्नू एक बोरिंग आदमी है 
मुझे नहीं मालूम कि बाकि और लोगों की क्या राय होगी 
इस दाढ़ी वाले अधेढ़ पुन्नू मेकेनिक के बारे में 
लेकिन मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि कोई दिन मैं अपनी गली भूल जाऊँ 
और पुन्नू भी कहीं और चला जाये 
तो मैं अपने घर कैसे पहुँचूँगा ?
मुझे पुन्नू इस गली का साइनबोर्ड लगता है 
जिसका पेंट जगह-जगह से उखड़ गया है 
लेकिन फिर भी अपनी जगह पर वैसे ही गड़ा है 
जैसे इसे यहाँ गाड़ा गया होगा 
पुन्नू की अहमियत इस गली के लोगों के लिए क्या है 
ये शायद मुझे नहीं मालूम 
लेकिन मुझे लगता है कि 
पुन्नू की दुकान इस गली की घड़ी है 
जो इस गली के मुहाने पर टंगी है...
(रचनाकाल: 2016)

- - -

गमछा
पिता जब कभी शहर को जाते 
माँ झट से अलमारी से गमछा निकालकर
पिता के कंधो पर धर देती
जैसे अपनी शुभकामनाएँ लपेट कर दे रही हो
कि सकुशल घर लौट आना
मुन्हार होने से पहले.
जब माँ अपने यौवन में ही ब्याह कर आई थी पिता के घर
तब भी शायद उसने अपने सारे स्वप्नों को एक गमछे में लपेटकर
पिता को सौंप दिया था
पिता 
जो दुनियादारी के कामों में अक्सर चूक जाते
गच्चा खा जाते
कई बार भूल जाते अपना चश्मा 
अपनी कलम 
दुकान की चाबी और तमाम चीज़ें 
शायद उसी तरह माँ के स्वप्नों की पोटली भी
कहीं खो आए 
शहर जाते हुए किसी दिन.
माँ 
जिसे मैंने टीवी और फिल्मों में दिखने वाली
पत्नियों की तरह व्यवहार करते हुए कभी नहीं देखा
कभी कुछ खुल कर माँगते-मनवाते नहीं देखा 
माँ जो सिर्फ़ माँ ही थी 
शायद पिता के लिए भी
कभी न पूछ सकी पिता से कि वे कहाँ उसके 
स्वप्नों की पोटली छोड़ आए...
जब एक दिन ट्रेन पकड़ने के लिए घर से निकला 
माँ ने मेरे कंधो पर भी गमछा डाल दिया
और मैंने सहसा अपने कन्धों पर काफी वज़न महसूस किया
जब स्टेशन पर अकेले किसी कोने में बैठा 
ट्रेन का इंतजार कर रहा था
कंधे पर पड़े गमछे की तरफ मेरी नज़र गई
जिसका मुँह मेरी ही तरह लटका हुआ था 
और मैंने महसूस किया माँ के हाथ का दबाव 
जो वैसे का वैसा ही अब भी गमछे में लिपटा पड़ा था
माँ का विदा में उठा हाथ याद आया मुझे
और पिता का थका कंधा भी 
जो अब गमछे के वज़न से भी अक्सर झुक जाता था...
गमछा जो अब पूरे रास्ते मेरा साथी बनने वाला था
मैंने उसपर हाथ फेरा 
और उसे देखकर शुक्रिया अदा करने की मुद्रा में मुस्कुराया.
गाँव से हज़ारों मीलों दूर 
इस महानगर में जब कभी बाहर धूप में निकलता हूँ 
तो अपने उदास और कड़े दिनों के साथी
अपने गमछे को उठाता हूँ और उसे ओढ़ लेता हूँ 
क्यूँकि मुझे यक़ीन है इस गमछे पर 
इसके एक-एक रेशे पर
जिसमें मेरा ही नमक जज़्ब है !
और
सच कहूँ तो 
एक पुरबिहा के लिए गमछा 
महज़ एक कपड़े का टुकड़ा भर ही नहीं है 
बल्कि उसके कन्धों पर बर्फ़ की तरह 
जमा उसका समय भी है !
(रचनाकाल: 2016)

- - -

जगहें-1

माँ कहती थी-
"...जगहें बोतल की तरह होती हैं
वो भरतीं हैं
और ख़ाली भी होती रहती हैं"
माँ ये भी कहती थी-
"...जगहें कभी पूरी नहीं भरतीं
और न ही कभी पूरी रिक्त होती हैं
हम थोड़ी मशक्कत करके
थोड़ी और जगह बनाते हैं...."
मैंने भी
अपने प्रेम के लिए
थोड़ी जगह बनायी थी
लेकिन अब सिर्फ जगह बची है
प्रेम नहीं
अब प्रेम
उस जगह के खाली होने
और भरने के बीच का
एकांत है.....
(रचनाकाल: 2015)

- - -

राखी

बहनें नहीं आईं इस बार भी
आतीं भी तो किस रास्ते 
जबकि रास्ते भूल चुके थे मंज़िल
भाईयों की कलाइयाँ सूनी थीं 
राखियाँ 
राख में धँस गयी थीं
बहनें राख बन चुकी थीं...
(रचनाकाल: 2016)

- - -

बारिश में एक पैर का जूता

गुरूद्वारे के बाहर 
एक कार के ठीक सामने 
बारिश में एक पैर का जूता भीग रहा है 
पानी पर मचलता हुआ 
उत्सव मना रहा है 
मैं रिक्शे से गुज़रते हुए उसे देख रहा हूँ 
सब ने छतरियाँ ओढ़ ली हैं 
या छज्जों की ओट में आ गए हैं 
सब कुछ धीमा-सा पड़ गया है
बारिश का संगीत जूते को मस्त किये हुए है 
इन हाँफते हुए लोगों में मुझे जूता ज़्यादा आकृष्ट कर रहा है 
जूता 
जिसे अपने पाँव के खो जाने का शायद कोई दुःख नहीं है !

(रचनाकाल: 2016)

- - - 
बीमार दोस्त

मैं अपना हाथ बढ़ाता हूँ 
उसके ख़त की तरफ़ 
और फिर वापिस खींच लेता हूँ 
उसका ख़त तप रहा है 
ठीक उसके माथे की तरह !
(रचनाकाल: 2016)

- - -


धूप मुक्की से वैसे ही झाँकेगी 

धूप मुक्की से वैसे ही झाँकेगी रोज़ सुबह,
पछुवा वैसे ही बहेगी और धूल झोंक जायेगी कमरे में 
पंखा अपनी रफ़्तार नहीं बदलेगा 
मैं वैसे ही चारपाई के पायताने घुटनों पर सिर रख के बैठूंगा 
हाँ खूंटी से कुछ कपड़े कम हो जाएँगे
बरसात में पूरब की दीवाल भीगेगी लेकिन उसे देखकर कोई चिंतित नहीं होगा अब 
मेज़ पर पाकीज़ा आँचल अब शायद कभी नहीं दिखेगा
बस रोज़ रात को पच्छिम की दीवाल गिरेगी मुझपर
घड़ी की हर टिक-टिक के साथ किसी की याद बहुत आएगी 
जो अब इस कमरे में कभी उपस्थित नहीं होगा !

(रचनाकाल: 2016)

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पहचान 

बचपन में मुझे
माँ और पिता के बीच मेंसुलाया जाता
मेरी नींद कभी-कभार बीच रात में ही
टूट जाती
और मैं उठते हीमाँ को ढूँढता.
घुप्प अँधेरे में
एक जैसे दो शरीरों में
मैं अंतर नहीं कर पाता
इसलिए मैं
अपनी तरफ़ ढुलक आयेदोनों चेहरों को टटोलता.
पिता की नाक काफ़ी बड़ी थी
सो मैं उन्हें पहचान जाता
मेरे लिए जो पिता नहीं थेवो ही माँ थी
इस तरह मैंने अँधेरे मेंमाँ को पहचानना सीखा।
(रचनाकाल: 2016)

- - - 
बीमारी के दौरान

तुम्हारी याद ने इन दिनों 
बिल्ली के करतब सीख लिए हैं 
वो चली आती है दबे पाँव हर रोज़ 
समय, काल औए मुंडेरों को छकाती हुयी
एकसाथ. 
कितने-कितने दिन बीत गए 
तुम्हें छुए; तुमसे मिले हुए
मेरे रोएँ भी जानते हैं तुम्हारा मुलायम स्पर्श
तुम्हारी गंध को मैं नींद में भी पहचान सकता हूँ
आजकल मैं धीरे-धीरे खाँसना सीख गया हूँ
वक़्त पे दवाएँ भी ले लेता हूँ 
बेवजह बाहर भी नहीं निकलता
देखो तुम्हारे अनुरूप कितना ढल गया हूँ 
कोई दिन तुम आ जाओ मुझसे मिलने
जीवन और मृत्यु के संधिकाल में
आजकल मैं नींद में भी 
एक दरवाज़ा खोल के सोता हूँ !
(रचनाकाल: 2016)
- - -

जब दिन लौट रहा था

जब दिन पश्चिम के आकाश में 
तेज़ी से लौट रहा था
मैं हज़ारों मीलों दूर 
तुम में लौट रहा था
तुम जो मेरा घोंसला थीं
एक थके पक्षी का घोंसला 
मेरा लिबास थीं तुम 
जिसमें मैं समा रहा था
दक्षिण के मलिन आकाश में 
मेरी प्रार्थनाएं गुत्थम-गुत्था हुयी जाती थीं
ईश्वर का मुख विस्मय में खुला था
क्योंकि वो पश्चिम के आकाश में बैठा था 
और मेरा रुख़ उसके मुताबिक नहीं था !
(रचनाकाल:2016)
- - - 
अचानक

वो अचानक नहीं आता 
बता कर ही आता है
क्योंकि उसे मालूम है 
कि मुझे किसी चीज़ का अचानक होना
कोई ख़ास पसंद नहीं 
मुझे वो सुख ज़्यादा प्रिय है जो अपनी 
ख़बर पहले भिजवा दे 
और दुःख 
जो धीरे-धीरे अंधकार में उतरते हों
और जब मैं उससे कहता हूँ कि-
"..
सुनो ! 
मुझे मृत्यु भी धीरे-धीरे ही चाहिए.."
तो वो कई-कई रोज़ मेरे घर नहीं आता 
अचानक भी नहीं !
(रचनाकाल: 2016)
- - -

ठूँठ की तरह

आसमान को कुछ याद नहीं 
कि वो किसके सिर पर फट पड़ा था एक दिन 
ज़मीन को भी कुछ याद नहीं कि उसने किस-किस की 
पसलियाँ तोड़ के रख दी थीं 
उन खरोंचों और चोटों को भूल चुके हैं लोग 
और शायद हम भी 
अब कहाँ याद है कुछ..
एक दिन तुम भी मुझे भूल जाओगे
लेकिन मैं बड़ा ही ज़िद्दी पेड़ हूँ
तुम्हारी स्मृतियों में 
ठूँठ की तरह 
बचा रह जाऊँगा...
(रचनाकाल: 2016)


कवि परिचय:

नाम: अदनान कफ़ील दरवेश
जन्म: 30 जुलाई 1994
जन्म स्थान: ग्राम-गड़वार, ज़िला-बलिया, उत्तर प्रदेश
शिक्षा: कंप्यूटर साइंस आनर्स (स्नातक), दिल्ली विश्वविद्यालय
स्थायी पता: S/O एहतशाम ज़फर जावेद, ग्राम/पोस्ट- गड़वार
           ज़िला- बलिया, उत्तर प्रदेश
           पिन: 277121  
प्रकाशन: पत्र-पत्रिकाओं तथा ब्लॉग्स पर छिटपुट प्रकाशित   

संपर्क:
ईमेल: thisadnan@gmail.com
फ़ोन: 9990225150



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