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Channel: अनुनाद
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वीरेन डंगवाल पर महेश चंद्र पुनेठा का लेख

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परिवर्तन की गहरी उम्मीद से भरा हुआ कवि 

 

हर बड़े कवि में ऐसी कुछ खासियतें होती हैं, जो उस कवि को अन्य से अलगाती हैं। उसका एक चेहरा बनाती हैं। यही खासियतें होती हैं, जो पाठकों को उस कवि से जोड़ती हैं। वैसे पाठक की पसंद और नापसंद, उसकी अपनी रुचि ,दृष्टि ,समझ और सरोकारों पर भी निर्भर करती है।  फिर भी कुछ ऐसी बातें भी होती हैं जो हर पाठक को कवि की ओर आकर्शित करती हैं। वीरेन डंगवाल की कविताएं मैं लम्बे समय से पढ़ता आ रहा हूँ। रामसिंहकविता से इस कवि से मेरा पहला-पहला परिचय हुआ,उसके बाद एक सिलसिला चल पड़ा। इस कवि के यहाँ मौजूद भाषा-षिल्प और संवेदना की विविधता ने इस क्रम को कभी टूटने नहीं दिया। जितना अधिक पढ़ता गया उतनी अधिक जीवन की परतें खुलती गई। हर बार कुछ नया मिला। यदि कोई पूछे कि मुझे वीरेन डंगवाल की कविता क्यों पसंद है?कुछ शब्दों या वाक्यों में मेरे लिए कह पाना मुश्किल है।

वीरेन डंगवाल की कविताओं में हमारे चारों ओर फैले गहरे अँधेरे और कालेपन के बीच जो उजाले की चमक तथा जीवन का सौंदर्य है,वह मुझे बहुत पसंद है। वह हमारे समय और समाज में व्याप्त भयावह कालेपन को दिखाते हुए हमें उसी के बीच नहीं छोड़कर आते हैं, बल्कि उससे बाहर निकाल कर लाते हैं। वह अपनी कविताओं में जहाँ बार-बार कहते हैं कि बहुत कठिन समय है साथी’, वहीं बार-बार हमें जयघोष करती उन्मत्त भीड़ के चेहरों को भी दिखाते हैं। वह कभी नहीं कहते हैं कि इस कठिन समयसे निकलना कठिन है। उनकी कविताओं को पढ़कर अवसाद और निराशा की गर्त में पड़ा पाठक भी एक नए उजास से भर उठता है। उसे अँधेरे और कालेपन से लड़ते हुए लोग दिखाई देने लगते हैं। इस बात से उसका विश्वास बढ़ता है कि कितनी भी बड़ी हो तोप/एक दिन तो होना ही है उसका मुँह बंद।  वीरेन दा जांगर करते,खटते पिटते,लड़ते-भिड़ते, अनवरत सताए जाते,संतप्त-हृदय-पीडि़त,प्रच्छन्न क्रोध ,निस्सीम प्रेम और विस्तीर्ण त्याग से भरे जन के भीतर लपक रही खामोश आग को देख लेने वाले कवि हैं। इसी आग के बल पर तो उजले दिन जरूर आयेंगेजैसा विश्वास उनके मन में हमेशा बना रहता है। वह कह पाते हैं-मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ/हर सपने के पीछे सच्चाई होती है/हर दौर कभी तो खत्म हुआ ही करता है/हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है।इस तसल्ली देने के पीछे उनके पास ठोस कारण हैं। उन्हें पता है कि-हैं अभी वे लोग जो ये बूझते हैं/विश्व के हित न्याय है अनमोल/ वही शिवि की तरह खुद को जांचते/ देते स्वयं को कबूतर के साथ ही में तोल। वह इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि समाज में भले बेइमानी, अपराध,रिश्वतखोरी, झूठ,ठगी आदि कुप्रवृतियां बढ़ी हैं- भाई भाई की गर्दन पर/ छूरी फेर रहा है/दोस्त मुकदमा लिखा रहे हैं/एक दूसरे पर/सौदा लेकर लौटती/स्त्री के गले से चेन तोड़/भागा जा रहा एक शोहदा/विधान भवन की तरफ।निर्दोष-सज्जन,भोले-भाले सरेआम चौराहे में मारे जा रहे हैं, हत्या को भी कला में बदल दिया जा रहा है तो  हम भी इन्हें मान्यता देने लगें, यह मानने लग जाएं कि सबकुछ गड़बड़ है, हत्या एक कला है, अपराध एक हुनर और दुनिया का सारतत्व यही है, यह हरगिज नहीं हो सकता है-बेईमान सजे-बजे हैं/तो क्या हम मान लें कि/बेईमानी भी एक सजावट है?/ कातिल मजे में हैं/तो क्या हम मान लें कि कत्ल करना मजेदार काम है? कवि दृढ़ता से खुद ही अपने द्वारा उठाए प्रश्नों का उत्तर देता है कि-मसला मनुष्य का है/इसलिए हम तो हरगिज नहीं मानेंगे /कि मसले जाने के लिए ही/ बना है मनुष्य। वीरेन दा जीवन भर मनुष्य के मसले जाने के खिलाफ खड़े रहे। बूटों की ठक-ठक की ध्वनि उन्हें कभी भी पसंद नहीं आई। उनको पक्का यकीन है कि-इन्हीं सड़कों से चलकर/आते रहे हैं आतताई /इन्हीं पर चलकर आएंगे/हमारे भी जन। भले ही अत्याचारियों ने शोषण-उत्पीड़न और अत्याचार के सभी साधन जुटा लिए हों और अभी हम नींद में हैं, ‘मगर जीवन हठीला फिर भी/बढ़ता ही जाता आगे/हमारी नींद के बावजूद।’ ‘....रात है रात बहुत रात बड़ी दूर तलक/सुबह होने में अभी देर हैं माना काफी/ पर न ये नींद रहे नींद फकत नींद नहीं/ये बने ख्वाब की तफसील अंधेरों की शिकस्त।

वीरेन दा इस मलिन समयमें उस हर चीज की महिमा के गीत गाते हैं जो उम्मीद दिलाने वाली है और उस हर चीज पर चोट करते हैं, जो हमें गुलाम बनाती है, मनुष्य की आत्मा को रौंद डालती है तथा जीवन की महिमा को नष्ट करती है। वह सामंतवाद और पूंजीवाद दोनों पर एक साथ और सामूहिक रूप से हमला करने की बात करते हैं-कितना सताया तुम्हें-हमें/इन पोथियों-पोथियारों,ताकतवालों ने/इनका नाश हो/चलो मिलकर करते हैं इन पर घटाटोप/देखो तो चबा रहे हैं ये हमारे पहाड़ों को/गुड़ की भेली की तरह/खा रहे सब हमारे जंगल/हमारी भरी-पूरी नदियों को पी जा रहे हैं/पर इनकी भूख-प्यास मिटती नहीं/असली भूत-प्रेम-मसाण-राक्षस तो यही हुए/इनका नाश हो/इनका नाश करने के लिए चलो जुटते हैं /सभी एक साथ/करने से सब होगा भाई। करने से सब होता है’,का यकीन ही है जो हमें समय-सभ्यता के इस मोड़ तक लाया है और आगे भी ले जाएगा। इसी यकीन के साथ मनुष्यता जिंदा है और रहेगी, जीवन का सौंदर्य बना रहेगा, अंधकार खत्म होगा,आतंक सरीखी बिछी हुई बर्फ पिघलेगी,जीवनाकाश में छाए मेघ छिन्न-भिन्न हो पाएंगे। यह यकीन ही वीरेन दा की कविताओं की मूल संवेदना है और यही सबसे बड़ी सार्थकता व खूबसूरती भी।

हम जिस भयानक समय में रह रहे हैं वीरेन दा उसकी सच्चाई को बहुत गहराई से समझते-जानते हैं और उसका प्रतिसंसार रचते हैं। उस संसार का जो इस भयानक यथार्थ से लड़कर रचा जा सकता है। वह तेजी से बदलते संसार को तो अपनी कविताओं में दर्ज करते ही  हैं साथ ही उससे बाहर निकलने वाले रास्ते की ओर भी संकेत करते हैं-जरा रगड़ो तो अपनी लोहे की कुल्हाड़ी की धार/पत्थर पर /उसे चिंगारियाँ फेंकते देखो/और इस विराट जंगल को कुत्ते की तरह/कांपते-किकियाते दुम दबाते।एक जनप्रतिबद्ध कवि जनता के पक्ष में खड़ा होकर केवल अन्धकार की सत्ता की ओर संकेत ही नहीं करता है, बल्कि वह जनता को सजग भी करता है। उसे अपने समय और समाज की असलियत को समझने व उसको बदलने के लिए प्रेरित भी करता है। अपनी समझ को और अधिक पुख्ता करने और बदलने को कहता है। वह जनता से कठमुल्लापन छोड़ने और संस्कृति के नाम पर कठमुल्लापन फैलाने वाली ताकतों के प्रति एक सही राह लेने और उनकी मुस्काती शक्लों में न फंसने की अपील करता है, क्योंकि वह जानता है कि ये ताकतें मनुष्यता की दुश्मन हैं। मनुष्यता ही है जो इस जीवन-जगत के सौन्दर्य को बचाकर रख सकेगी। वीरेन डंगवाल की ये काव्य पंक्तियाँ उसी सौन्दर्य को बचाने के पक्ष में एक विनम्र अपील है,जो आज के माहौल में और अधिक प्रासंगिक हो उठी हैं-ऐसे कठमुल्ले मत बनना/ बात नहीं हो मन की तो बस तन जाना /.............पोथी -पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव/ कठमुल्लापन छोड़ो,उस पर भी तो तनिक विचारो/काफी बुरा समय है साथी/गरज रहे हैं घन घमंड के नभ की फटती है छाती/अन्धकार की सत्ता चिलबिल -चिलबिल मानव-जीवन/जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती/संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती/इनकी/असल समझना साथी/अपनी समझ बदलना साथी (इतने भले नहीं बन जाना साथी) सांस्कृतिक राष्ट्रवादके नाम पर आज जिस तरह भारत की बहुलतावादी संस्कृति और समाज को नष्ट कर,उसे एक खास रंग में रंगने की जो कुत्सित और मानवता विरोधी चाल चली जा रही है, उसकी असलियत को समझने के लिए ये पंक्तियां प्रेरित करती हैं।

वीरेन डंगवाल जिस तरह से साधारण से साधारण व्यक्ति,जीव-जंतु,वस्तु या घटना को अपनी कविता में असाधारण या विशिष्ट बना देते हैं,वह अद्भुत है। हम सोच भी नहीं सकते हैं कि यह भी कविता का विषय हो सकता है, वह उस पर कविता लिख डालते हैं। उनके पास ऐसी कविताओं की एक पूरी श्रृंखला है, जो नगण्य माने जाने वाले विषयों पर लिखी गई हैं, जिनमें जीवन की छोटी-छोटी चीजों में छुपी भव्यता और विराट सौंदर्य के दर्शन होते हैं। आश्चर्य होता है ऐसी कवि-दृष्टि को देखकर जो सर्दी में उबले आलूके दिल में भी पैठ जाती है,जो भीगे लाल कपड़े पे तहाके रखे पान के पत्तों में भारतीय उपमहाद्वीपता देख लेती है, जो कभी कढ़ाई में सनसनाते समोसे में अटक जाती है तो कभी स्याही की दवात में जा गिरी मक्खी पर। गाय,बिल्ली,सूअर,ऊँट,बंदर,चूहा,हाथी जैसे जानवरों को अपनी कविता में ले आते हैं। बिल्ली में शराफ़त  और सूअर में सुंदरता देख लेता है। पोस्टकार्ड-महिमागाता है। इत्रों की ख़ुश्बू के बरक्स पोदीने की ख़ुश्बू को रख देता है। कवि होने का मतलब क्या होता है,वह इन नगण्यता का गुणगानकरती कविताओं को पढ़ते हुए समझा जा सकता है। कोई किताबी कवि ऐसी कविताएं हरगिज नहीं रच सकता है। यथार्थ और कल्पना का सही संतुलन कविता में किस तरह साधा जा सकता है? इन कविताओं से सीखा जा सकता है। उनका मानना है कि कविता लिखना खुद को प्यार करना है और खुद को बचाए रखना, इस तरह के विषयों पर कविता लिखना उसी दिषा में एक विनम्र प्रयास माना जा सकता है। दरअसल इस तरह के साधारण से साधारण विषयों पर कविता लिखना केवल कविता का मसला नहीं है बल्कि प्रकारांतर से हाशिए के जीवन को महत्व देना और उसके पक्ष में खड़े होना है। जब वीरेन दा कविता में इन साधारण सी चीजों के बारे में बात करते हैं तो कहीं न कहीं यह हाशिए के जीवन को केंद्र में लाने और अभिजात्य के खिलाफ लोक को खड़ा करने की कोशिश है। ऐसा वही कवि कर सकता है जो लोकजीवन के निकट हो तथा उससे उसकी गहरी संबंद्धता हो। वसंत के उरूज में फ्यूंलीजैसे उपेक्षित फूल को ऐसा कवि ही देख सकता है। वही श्रमजीवियों के जीवन-संघर्ष के साथ-साथ उनकी कमजोरियों और ताकत दोनों को अच्छी तरह पहचान सकता है। उनके लोकज्ञान को महत्व देता है। वह उनके भुजबल की ही नहीं अक्ल का भी प्रशंसक होता है। वीरेन डंगवाल मल्लाहकविता में कहते हैं-सूंघ हवा को/बतला सकते हैं बरसेगा कब पानी/पैनी दृष्टि थाह लेती है पलक झपकते/डगमग लहरों के नीचे सारी गहराई। कवि दुःख व्यक्त करता है कि शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत होने के बावजूद उनकी पारिवारिक-सामाजिक-आर्थिक हालत बहुत कमजोर है। उनके पास न अच्छा खाने को है,न अच्छा पहनने को और न रहने को। इतना ही नहीं वे आपसी कलह, अशिक्षा, नशाखोरी, अपराध आदि के शिकार हैं। ठहरे पानी की तरह है इनका जीवन जिसमें सच्चे हुलास की एक लहर भी नहीं दिखाई देती है। कवि की सदइच्छा व्यक्त करता है-धनी बात के यों होते मेहनत के पक्के/कोई ले जाता इन तक भी सत जीवन का/दुनिया का समाज का तो ये बड़े जुझारू/साबित होते पर इनकी सुध नहीं किसी को ।वास्तव में इनकी किसी को सुध न होना ही सबसे बड़ी विडंबना है। शारीरिक श्रम करने वालों के प्रति यह उपेक्षा का भाव सदियों से चला आ रहा है। उनके श्रम की तो सबको जरूरत होती है लेकिन उसे उचित मूल्य और सम्मान विरले ही देते हैं। उनकी स्थिति बदलने की कोई नहीं सोचता है। आज लोकतंत्र में सभी राजनीतिक पार्टियां उसके वोट को तो पाना चाहती हैं,जिसके लिए उसे सब्जबाग भी दिखाए जाते हैं पर चुनाव जीतने के बाद उन्हें सभी भूल जाते हैं।

वीरेन दा का लंबी कविताओं में कहने का जो अंदाज है, वह मुझे निराला लगता है। वह अंदाज कविता में कथा का आनंद तो देता ही है, साथ ही अपने समय और समाज की विसंगति और विडंबनाओं को बहुत बारीकी से उभार देता है। जिस घटना,चरित्र या जीवन-वृत्त पर एक लम्बी कहानी या उपन्यास लिखा जा सकता है, उसे वीरेन डंगवाल एक कविता में बहुत प्रभावशाली ढंग से कह डालते हैं, लगता ही नहीं कि उसमें कुछ छूट रहा है। ऐसा नहीं कि वे अपनी इन कविताओं में दूर की कौड़ी लाकर उसे धो-पोछ और सजा-संवार कर प्रस्तुत करते हों, बल्कि वह कथ्य के भीतर प्रवेश कर उससे एक आत्मीय सम्बन्ध स्थापित कर उसे कविता में बदल देते हैं। इसलिए उनकी कविताओं को पढ़ते हुए पाठक भी उसी भावभूमि में पहुँच जाता है, जहाँ कवि था। उसे इन कविताओं में ग्रीष्म की तेजस्विता’,‘शहद का उष्म तापऔर उमड़ते बादलों की रगड़ से पैदा मुखर गुस्सा महसूस होता है। कथ्य से आत्मीय सम्बन्ध बना और उसमें गहरे तक प्रवेश कर कविता रचने की उनकी रचना प्रक्रिया को हम विभिन्न शहरों और चरित्रों पर लिखी गई उनकी कविताओं में देख सकते हैं। किसी जगह,व्यक्ति और वस्तु से आत्मीय सम्बन्ध बनाए बिना इतनी मर्मस्पर्शी कविताएं नहीं लिखी जा सकती हैं। साधारण चीजों पर असाधारण कविताएं लिख लेना इतना आसान नहीं होता है। यह आत्मीयता का ही कमाल है। तभी तो हरी मिर्च के बगल और उबले चनों के नाजुक ढेर पर रखा नींबू किसी फूल से बेहतर नजर आता है और पोदीने की ख़ुश्बू अलौकिक लगती है। चौंधा मार रही धूप में कबाड़ी बच्चे की पेप्पोर,रद्दी पेप्पोर!की पुकार  अवसाद और अकेलेपन से भर देती है। खुशी से गोरूओं का नथुने फुंकारना और कान फटफटानाभी दिख जाता है। वह बरेली, सहारनपुर, इलाहाबाद, नैनीताल,कानपुर, मेरठ,दिल्ली आदि शहरों में रहे, इन तमाम शहरों को उन्होंने अपनी कविताओं में बहुत आत्मीय तरीके से याद किया है।  कितनी बड़ी बात है कि आप जिस जगह भी जाते हैं और जिन लोगों से मिलते हैं ,उनके साथ अपने गहरे सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं, एक सच्चा कवि ही ऐसा कर सकता है। वही जो पूरी पृथ्वी को प्यार करता है, अपनी ही जगह और नाते-रिश्तेदारों के मोह में नहीं बंधा रहता है। यह सब एक अलग रास्ता पकड़कर ही संभव है। वह रास्ता नहीं जो सीकरीको जाता है बल्कि एक ऐसा रास्ता जो उन गली-मुहल्लों,बीहड़ों,रौखड़ों,पहाड़ों और रेगिस्तानों से होकर गुजरता है, जहां फौजी,कश्यप,धीमर,निषाद,मल्लाह,धुनार,शिल्पकार,लुहार,दर्जी,कारीगर,मजूर,कबाड़ी, फेरीवाले रहते हैं। कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता के दर्द को इसी रास्ते से चलकर महसूस किया जा सकता है। यह एक ऐसा रास्ता है जिसे साधारण जन तो जानते हैं, लेकिन मर्मज्ञ नहीं। यह बहुत घुमावदार रास्ता है। वीरेन दा जीवनपर्यंत इसी रस्ते पर चलते रहे। हमेशा सत्ता से एक दूरी बनाए रखी और दृढ़ता से इस संकल्प को पूरा किया-दिल्ली कहकर हरगिज/कोई तुक न मिलाऊँ/म्याऊँ कभी न बोलूँ।इसी संकल्प के चलते वह हमेशा सत्ता के सामने प्रश्न खड़े करते रहे, कभी रामसिंहतो कभी स्रश्टा और  तारंता बाबू के बहाने- तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह?/तुम बंदूक के घोड़े पर रखी किसकी ऊँगली हो?/.....कौन हैं वे ,कौन/.....जो बच्चों की नींद में डर की तरह दाखिल होते हैं?/ जो रोज रक्तपात करते हैं और मृतकों के लिए शोकगीत गाते हैं? आगे वीरेन खुद बताते हैं-वे माहिर लोग हैं रामसिंह/वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं। हत्या को कैसे कला में बदला जाता है? इस प्रकिया को वीरेन रामसिंहकविता में बहुत खूबसूरती से बताते हैं। एक अलग रास्ते पर चलकर ही वह पी.टी.उषाकी चमकती आँखों में  भूख को पहचानने वाली विनम्रता को देख पाए और कह पाए-मत बैठना पी.टी. उषा/इनाम में मिली उस मारुति पर मन में भी इतराते हुए/बल्कि हवाई जहाज में जाओ/तो पैर भी रख लेना गद्दी पर। कवि का ऐसा कहना एक तरह से सभ्यता के नाम पर किए जाने वाले आडंबरों को प्रश्नांकित करना है। वह मानते हैं कि आडबंरों से कोई बड़ा नहीं बनता है,बड़ा तो आदमी अपने उस आचार-व्यवहार से होता है जो उसे साधारण जनों से जोड़ता है।  वह साफ-साफ कहते हैं- वे जो जानते हैं बेआवाज जबड़े को सभ्यता/दुनिया के सबसे खतरनाक खाऊ लोग हैं। अपने चारों ओर नजर दौड़ाइए, पता चल जाता है कि वीरेन दा कितनी गहरी और प्रमाणिक बात कह गए हैं।
   एक और बात जो मुझे उनकी कविता में खास लगती है, वह है उनकी कविताओं की ध्वन्यात्मकता और खिलंदड़ापन। ऐसी ध्वन्यात्मकता मुझे उनके समकालीनों में तो कम से कम नहीं ही दिखाई देती है। वह ध्वन्यात्मक बिम्बों के माध्यम से कविता में एक लय तो पैदा करते ही हैं, साथ ही एक अलग तरह का कौतूहल भी। ये ध्वनियां कविता में नए अर्थों का संधान भी करती हैं।   बहुत देर तक टन..टन..घन...घन...तड़...तड़....सांय-सांय ...चट...चट...चट.... चिक...चिक...चीं...चीं.....भों-पों-भों .....चर्र-चर्र....गुर्र-गुर्र....की ध्वनियां कान में बजती रहती हैं। वीरेन डंगवाल भाषा में तोड़फोड़ करते हैं। नए-नए शब्दों को जन्म देते हैं। लोकधुनों और लोकगीतों की शैली का भी सुंदर इस्तेमाल करते हैं। उनकी काव्यभाषा और शिल्प में हमें गैर-जरूरी बांकपन नहीं दिखाई देता है। कथ्य ही नहीं बल्कि भाषा में भी वह जन के करीब हैं। भले ही तत्सम शब्दों का उनकी कविताओं में पर्याप्त इस्तेमाल हुआ है, बावजूद उनकी भाषा बोलचाल की भाषा से दूर नहीं गयी है। वह पुरखे कवि नाजिम हिकमत की इस बात के समर्थक थे कि कविता की भाषा और जीवन की भाषा अलग-अलग नहीं होनी चाहिए। इस बात का उन्होंने हमेशा ध्यान भी रखा। वह अपनी बात को कहने के लिए एक नाट्य-निर्देशक की भाँति पहले मंच सजाते हैं, जिसमें पूरा परिवेश जीवंत हो उठता हैं और  इस तरह कविता की अंतर्वस्तु अलग से चमक उठती है। उदाहरण के लिए उनकी लम्बी कविता कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्य कथादेखी जा सकती है। इसमें रुकुमिनी की वेदना को व्यक्त करने के लिए पहले कटरी का पूरा सामाजिक और भौगोलिक परिदृश्य  बारीकी से चित्रित करते हैं, तब रूकुमिनी को परिचित कराते हैं। शायद यदि ऐसा नहीं किया जाता तो रुकुमिनी और उसकी माता की वेदना उतनी गहराई से पाठक की संवेदना का हिस्सा नहीं बन पाती। न ही एक गरीब स्त्री कम उम्र में ही अपने चीथड़ा होते जीवन और शरीर के माध्यम से अपने समाज के कई जटिल और वीभत्स रहस्य को जानने की प्रक्रिया को इतनी मार्मिक रूप से व्यंजित कर पाती। यही बात हम गंगा स्तवनकविता में भी देख सकते हैं। ये दोनों कविताएं स्त्री की पीड़ा और विडम्बना को भी बहुत तीव्रता से उभारती हैं। लगता जैसे कवि ने अपना हृदय उड़ेल कर रख दिया हो। कथ्य से ऐसी अंतरंगता बहुत कम दिखाई देती है। इसी अंतरंगता के चलते कवि एक स्त्री के उपले की तरह सुलगते दिल को देख पाता है और कवि की आँखों में नम बादल उमड़ आते हैं। यह नम बादल कवि की आँखों तक ही नहीं रहते हैं बल्कि पाठकों की आँखों में भी उतर आते हैं। वे उसके उल्लास और यातना दोनों को महसूस कर पाते हैं।
   यहाँ स्त्री संदर्भ आया है,इसलिए इस बात का उल्लेख करता चलूँ कि तमाम परेशानियों,अभावों और विडम्बनाओं के बावजूद भी वीरेन दा के स्त्री पात्रों की सपने देखने की आदत का न जाना उनकी कविताओं को एक अलग ऊंचाई प्रदान करता है। उनकी औरतों का यह कहना-हम हैं इच्छा मृग/वंचित स्वप्नों की चरागाह में तो/ चैकडि़याँ मार लेने दो हमें कमबख्तो!  पितृसत्ता के खिलाफ एक युद्धघोष की तरह लगता है। वीरेन औरतों की बेखौफ आजादी के समर्थक रहे हैं और इस बेखौफ आजादी की शुरुआत अपने घर से ही करते हैं। अपनी बिटिया पर लिखी कविता समता के लिएमें वह कहते हैं-एक दिन बड़ी होना/ सब जगह घूमना तू/हमारी इच्छाओं को मजबूत जूतों की तरह पहने/ प्रेम करना निर्बाध/नीचे झाँक कर सूर्य को उगते हुए देखना।  ऐसे समय में जब प्रेम करने वाले लड़के-लड़कियों को ऑनर किलिंगका शिकार होना पड़ रहा हो और प्रेम करना प्रतिशोध का कारण बन गया हो, कवि द्वारा अपनी पुत्री को निर्बाध प्रेम करने की छूट देना साहसिक और ईमानदार पहल कही जा सकती है। यहाँ प्रेम करने की छूट देना केवल प्रेम करने तक सीमित होकर नहीं रह जाता है बल्कि उस सामाजिक ताने-बाने के विरोध में खड़ा होना है जो स्त्री की आजादी को स्वीकार नहीं करता है। स्त्री के लिए उनके मन में कितना सम्मान है इन पंक्तियों से समझा जा सकता है-और स्त्री का शरीर!/तुम जानते नहीं,जब-जब तुम उसे छूते हो/चाहे किसी भाव से/तब उसमें से ले जाते हो तुम/उसकी आत्मा का कोई अंश/जिसके खालीपन में पटकती है वह अपना शरीर।
   वीरेन दा की बात कहने का तरीका बड़ा अनूठा है। उनकी एक छोटी सी कविता में भी हमें बहुत अधिक विस्तार दिखाई देता है। वह कविता कहाँ से शुरू करेंगे और कहाँ पहुँच जाएंगे, कह नहीं सकते हैं। जैसे बात साइकिल से शुरू करते हैं पहुंच जाते हैं षहर के रहने के तौर-तरीकों पर ,गली-मुहल्ले के व्यवहार पर, उन दिनों पर जब लोग शहरों में पेड़ों के नीचे ही शरण ले लेते थे। रात के एक बजे भी कहीं से भी एक रिक्शे में अपना साज-सामान लादे आ जाते थे। साइकिल के बहाने अपने पूरे दौर को याद करते हैं। उसकी राजनीति पर बात करते हैं। साइकिल के माध्यम से निम्न-मध्यवर्ग के जीवन और सोच को समाने रख देते हैं। एक ही कविता में इतने सारे आयाम कम ही दिखाई देते हैं। एक की बात करते हुए दूसरे में प्रवेश कर जाना, फिर मूल पर वापस लौट आना उनके काव्य-शिल्प की विशिष्टता है। पता ही नहीं चलता है उनका प्रतीक कब पात्र में बदल गया और पात्र प्रतीक में। जैसे- गंगा नदी  की बात करते हुए उसे स्त्री जीवन से जोड़ देना, मक्खियों की बात करते हुए कूड़ा बीनने वालों तक पहुंच जाना। बड़ी बात यह है कि ऐसा करते हुए कविता में कहीं बिखराव या टूटन नजर नहीं आती है। कविता की संश्लिष्टता बनी रहती है। अंतर्वस्तु के विस्तार के चलते कुछ कविताएं पहली बार पढ़ने में समझ में नहीं भी आती हैं। इसके पीछे कारण हैं जिसके लिए उन्हीं की एक कविता को उद्धरित किया जा सकता है-जरा सम्हल कर/धीरज से पढ़/बार-बार पढ़/ठहर-ठहर कर/आँख मूंद कर आँख खोल कर/गल्प नहीं है/कविता है यह।
  वीरेन दा की कविताओं में आए बिम्ब,प्रतीक और रूपक इतने ताजे हैं कि उनकी ताजगी बहुत लम्बे समय तक पाठक को तरोताजा किए रहती है। इनकी एक लम्बी सूची तैयार की जा सकती है। बिम्बों  और प्रतीकों के टटकेपन की दृष्टि से मुझे उनकी जहाँ मैं हूँकविता बहुत पसंद है, जिसको यहां उल्लखित करने का लोभ में संवरण नहीं कर पा रहा हूँ-जहाँ नशा टूटता है ककड़ी की तरह/जहाँ रात अपनी सबसे डरावना बैंड बजाती है/सबसे मद्धिम सुरों में/एक स्त्री जहाँ करती है प्रेम का सुदूर इशारा/जहाँ मछली का ताजा पंजर चबाता है ऊदबिलाव/जहाँ भ्रष्टाचार का सौंदर्यशास्त्र रचते हैं/नीच शासक/जहाँ कोई विधवा अकेले में रोती है चुपचाप/चौतरफा बोझ है संसार/जहाँ कौड़ा तापते अब भी अडिग साथी/मशगूल हैं किले को भेदने की/नयी तरकीब खोजने में। नशे का ककड़ी की तरह टूटना, रात का बैंड बजाना, मछली का ताजा पंजर चबाता ऊदबिलाव जैसे बिंब शायद ही आपको कहीं पढ़ने को मिले हों। ऐसे अनेक उदाहरण हैं उनकी कविताओं में, जहां बिंब-प्रतीक और रूपक अनायास अपनी ओर आकर्षित करते हैं और फिर दूर नहीं जाने देते हैं। पाठक उन्हीं के साथ घूमता रहता है। बुरी खबर लेकर आने वाले पोस्टकार्ड के लिए उनका यह बिंब देखिए-तब उनकी सूरत होती है/कान-पूंछ दबाए घरेलू कुत्ते की तरह/जो कर आया हो कोई निखिद्द काम..... इसी तरह नींद का एक चित्र आता है उनके यहां-मुझे तो वह नींद सबसे पसंद है/जो एक अजीब हल्के-गरू उतार में/धप से उतरती है/पेड़ से सूखकर गिरते आकस्मिक नारियल की तरह/एक निर्जन में।.....बादलों भरी द्वाभा है भादों की शाम की/फेफड़ों में पिपरमिंट सी शीतल हवा का स्वाद...........शरद की है धूप/कुछ सीली जरा सी गर्म/वे लगे शिशु फूल गोभी के/नगीने से जगमाते....माता थी/कुएं की फूटी जगत पर डगमगाता इकहरा पीपल.....अकेलापन शाम का तारा था/इकलौता /जिसे मैंने गटका /नींद की गोली की तरह/मगर मैं सोया नहीं।..  गजब की कल्पनाशीलता और इंद्रियबोध के दर्शन होते हैं इन बिंबों में। इनसे पता चलता था कि यह कवि जीवन के कितने निकट था। जीवनराग से लबालब भरा हुआ।
  वीरेन दा मरते दम तक अपने समय और समाज के बारे में बहुत कुछ कहते रहे। हमें अपने समय की क्रूरताओं के प्रति सचेत करते रहे । इसी दुनिया में’ , ‘दुश्चक्र में स्रष्टाऔर स्याही ताल नाम से तीन कविता संग्रह हमें दे गए। कैंसर जैसे पीड़ादायी रोग से लड़ते हुए भी अपनी बात कहते रहे बावजूद इसके उनको यह लगता रहा कि अभी बहुत कुछ है जो कहना बाकी है - अनिद्रा की रेत पर तड़-पड़ तड़पती रात/रह गई है रह गई है अभी कहने से/सबसे जरूरी बात।अधूरेपन का यह अहसास एक बड़े और सच्चे कवि को ही हो सकता है अन्यथा हमारे दौर में तो ऐसे भी बहुत सारे कवि हैं जो चार कविता लिखने के बात खुद को महाकवि समझने लगते हैं। इतनी आत्ममुग्धता से ग्रस्त हो जाते हैं कि उनको अपनी कविता के अलावा कहीं कुछ नजर ही नहीं आता है। वीरेन दा को न अपने कवि होने पर और न अपनी कविता पर कोई गुमान या अहंकार था। उन्हें न कविता सुनाने और न छपाने का कभी कोई मोह रहा। न उन्होंने महज कवि बने रहने के लिए और संपादकों की मांग पर कोई कविता लिखी। उनके लिए कविता आदमी के भीतर से निकली एक गहरी पुकार है।(पाब्लो नेरुदा) ऐसी पुकार जो प्रकाश की व्याख्या करती रही। वह तो हमेशा बिल्कुल सहज-सरल बने रहे। सरलता उनके लिए एक जीवन-मूल्य था। तभी तो वह इतनी विनम्रता से कह पाए-एक कवि और कर ही क्या सकता है/सही बने रहने की कोशिश के सिवा।इस सही बने रहने की कोशिश में वीरेन दा  की लालसा थी-यह जो सर्वव्यापी हत्या का कुचक्र/चलता दिखाई देता है भुवन- मंडल में मुनाफे के लिए/मनुष्य की आत्मा को रौंद डालने वाला/रचा जाता है यह जो घमासाम /ब्लू फिल्मों,वालमार्टों,हथियारों,धर्मों/और विचारों के माध्यम से/उकसाने वाला युद्धों/बलात्कारों और व्याभिचार के लिए/ अहर्निष चलते इस महासंग्राम में/हे महाजीवन चल सकूं कम से कम/एक कदम तेरे साथ/प्रेम के लिए /शांति के लिए। इस उद्देश्य से पूरी दुनिया को एक एस एम एस लिख भेजना चाहते हैं- भूख और अत्याचार का अंत हो/घृणा का नाश हो /रहो सच्चे प्यार रहो
सबके हृदयों में/दुर्लभ मासूमियत बन कर।अद्भुत दुर्लभ मासूमियतसे भरा यह कवि हमेशा हजार जुल्मों से सताए लोगोंके साथ खड़ा रहा। अपने को उसका एक हिस्सा मानता रहा। उनकी आवाज को बुलंद करता रहा। उन साथियों के साथ रहा जो किला भेदने की नयी तरकीब हासिल करने में लगे रहे। उन्हें अपना स्नेह,ममता और प्यार दिया। चालाकी से हमेशा दूर रहा। अपने जन के दुःख-दर्द को महसूस करता रहा। अपनी जमीन से गहराई तक जुड़ा रहा, क्योंकि वह अच्छी तरह जानता था कि वे वृक्ष ढह जाते हैं जिनकी जड़ें जमीन की सिर्फ पपड़ी में होती हैं। कठोर दिनों का सामना करने और जीवन का सत पाने के लिए अपनी जमीन से जुड़ना कवि को आवश्यक लगा-अभी तो झेलना होगा बहुत कुछ/आगे दिन सख़त हैं/पहुँचना होगा अपनी जड़ों के रोम-कूपों को/धरा की तलहटी तक/हाँ जी ,बहुत पानी है वहाँ अब भी/समुद्रों की खोयी हुई याद/खींच लाना होगा वहीं से सत जीवन का/ तभी होगा खड़ा रहना । अपनी जमीन पर दृढ़ता से खड़े होकर ही सूखते जाते प्रेम के स्रोतों को फिर से हरा किया जा सकता है, और भीषण अंधे कोलाहल कलरव से भरी रात से मुक्ति पाई जा सकती है।
                

विद्रोही के साथ चलना हर किसी के लिए आसान नहीं है - प्रणय कृष्ण

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"नाम है-रमाशंकर यादव विद्रोही। ज़िला सुल्‍तानपुर के मूल निवासी। नाटा कद, दुबली काठी, सांवला रंग, उम्र लगभग 50 के आसपास, चेहरा शरीर के अनुपात में थोड़ा बड़ा और तिकोना, जिसे पूरा हिला-हिलाकर वे जब बात करते हैं, तो नज़र कहीं और जमा पाना मुश्किल होता है। विद्रोही फक्कड़ और फटेहाल रहते हैं , लेकिन आत्मकरुणा का लेशमात्र भी नहीं है, कहीं से। बड़े गर्व के साथ अपनी एक कविता में घोषणा करते हैं कि उनका पेशा है कविता बनाना और व्यंग्य करते हैं ऎसे लोगों पर जो यह जानने के बाद भी पूछते हैं, “विद्रोही, तुम क्या करते हो?” विद्रोही पिछले न जाने कितने वर्षों से शाम ढले जे.एन.यू. पहुंच जाते हैं और फिर जबतक सभी ढाबे बंद नहीं हो जाते, कम से कम तब तक उनका कयाम यहीं होता है. फिर जैसी स्थिति रही, उस हिसाब से वे कहीं चल देते है। मसलन सन् 1993-94 में, कुछ दिन तक वे मेरे कमरे में या मैं जिस भी कमरे में हूं, जिस भी हास्टल के, विद्रोही वहीं ठहर जाते। एक दिन सुबह-सुबह भाभी जी पधारीं उन्हें लिवा ले जाने। कई दिनों से घर में महाशय के पांव ही नहीं पड़े थे। भाभी जी सामान्य सी नौकरी करती हैं। विद्रोही निर्विकल्प कवि हैं। विद्रोही ने कविता कभी लिखी नहीं,, वे आज भी कविता कहतेहैं, चाहे जितनी भी लम्बी हो। मेरे जे.एन.यू. छोड़ने के बाद, एक बार मेरे बहुत कहने पर, कई दिनों की मेहनत के बाद वे अपनी ढेर सारी कविताएं लिखकर मुझे दे गए। इलाहाबाद में मेरे घर पर उन कविताओं का अक्सर ही पाठ होता; लोग सुनकर चकित होते, लेकिन मसरूफ़ियात ऎसी थीं कि मैं उन्हें छपा न सका, लिहाजा कविताओं की पांडुलिपि विद्रोही जी को वापस पहुंच गई।

विद्रोही कभी जे.एन.यू.के छात्र थे, लेकिन किंवदंती के अनुसार उन्होंने टर्म और सेमिनार पेपर लिखने की जगह बोलने की ज़िद ठान ली और प्रोफ़ेसरों से कहा कि उनके बोले पर ही मूल्यांकन किया जाए। ऎसे में विद्रोही अमूयांकितही रहे लेकिन जे.एन.यू. छोड़ वे कहीं गए भी नहीं, वहीं के नागरिक बन गए।. जे.एन.यू. की वाम राजनीति और संस्कृतिप्रेमी छात्रों की कई पीढियों ने विद्रोही को उनकी ही शर्तों पर स्वीकार और प्यार किया है और विद्रोही हैं कि छात्रों के हर न्यायपूर्ण आंदोलन में उनके साथ तख्ती उठाए, नारे लगाते, कविताएं सुनाते, सड़क पर मार्च करते आज भी दिख जाते हैं। कामरेड चंद्रशेखर की शहादत के बाद उठे आंदोलन में विद्रोही आठवीं-नवीं में पढ रहे अपने बेटे को भी साथ ले आते ताकि वह भी उस दुनिया को जाने जिसमें उन्होंने ज़िन्दगी बसर की है। बेटा भी एक बार इनको पकड़कर गांव ले गया, कुछेक महीने रहे, खेती-बारी की, लेकिन जल्दी ही वापस अपने ठीहे पर लौट आए। विद्रोही की बेटी ने बी.ए. कर लिया है और उनकी इच्छा है कि वह भी जे.एन.यू. में पढ़े.

विद्रोही को आदमी पहचानते देर नहीं लगती. अगर कोई उन्हे बना रहा है या उन्हें कितनी ही मीठी शब्दावली में खींच रहा है, विद्रोही भांप लेते हैं और फट पड़ते हैं। घर से उन्हें कुछ मिलता है या नही, मालुम नहीं, लेकिन उनकी ज़रूरतें, बेहद कम हैं और चाय-पानी, नशा-पत्ती का ख्याल उनके चाहने वाले रख ही लेते हैं। विद्रोही पैसे से दुश्मनी पाले बैठे हैं। मान-सम्मान-पुरस्कार-पद-प्रतिष्ठा की दौड़ कहां होती है, ये जानना भी ज़रूरी नहीं समझते। हां, स्वाभिमान बहुत प्यारा है उन्हें, जान से भी ज़्यादा।

किसी ने एक बार मज़ाक में ही कहा कि विद्रोही जे.एन.यू. के राष्ट्र-कवि हैं। जे.एन.यू.के हर कवि-सम्मेलन-मुशायरे में वे रहते ही हैं और कई बार जब बड़ेकवियों को जाने की जल्दी हो आती है, तो मंच वे अकेले संभालते हैं और घंटों लोगों की फ़रमाइश पर काव्य-पाठ करते हैं।. मज़ाक में कही गई इस बात को गम्भीर बनाते हुए एक अन्य मित्र ने कहा,”काश! जे.एन.यू. राष्ट्र हो पाता या राष्ट्र ही जे.एन.यू. हो पाता।” ‘बड़ेलोगों केराष्ट्रमें भला विद्रोही जैसों की खपत कहां? विद्रोही ने मेरे जानते जे.एन.यू. पर कोई कविता नहीं लिखी लेकिन जिस अपवंचित राष्ट्र के वे सचमुच कवि हैं, उसकी इज़्ज़त करने वाली संस्कृति कहीं न कहीं जे.एन.यू.में ज़रूर रही आई है।

जन-गण-मनशीर्षक तीन खंडों वाली लम्बी कविता के अंतिम खंड में विद्रोही ने लिखा है-

मैं भी मरूंगा
और भारत भाग्य विधाता भी मरेंगे
मरना तो जन-गण-मन अधिनायक को भी पड़ेगा
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत-भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से, उधर चलकर बसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा।
 
विद्रोही की कविता गंभीर निहितार्थों, भव्य आशयों, महान स्वप्नों वाली कविता है, लेकिन उसे अनपढ़ भी समझ सकता है। विद्रोही जानते हैं कि यह धारणा झूठ है कि अनपढ़ कविता नहीं समझ सकते। आखिर भक्तिकाल की कविता कम गंभीर नहीं थी और उसे अनपढ़ों ने खूब समझा। बहुधा तो कबीर जैसे अनपढ़ों ने ही उस कविता को गढ़ा। दरअसल, अनपढ़ों को भी समझ में आ सकने वाली कविता खड़ी बोली में भी वही कवि लिख सकता है जो साथ ही साथ अपनी मातृभाषा में भी कविता कहता हो। विद्रोही अवधी और खड़ी बोली में समाभ्यस्त हैं। विद्रोही के एक अवधी गीत के कुछ अंश यहां उद्धृत कर रहा हूं जिसमें मजदूर द्वारा मालिकाना मांगने का प्रसंग है-

जनि जनिहा मनइया जगीर मांगातऽऽ
ई कलिजुगहा मजूर पूरी सीर मांगातऽऽ
………………………………………….
कि पसिनवा के बाबू आपन रेट मांगातऽऽ
ई भरुकवा की जगहा गिलास मांगातऽऽ
औ पतरवा के बदले थार मांगातऽऽ
पूरा माल मांगातऽऽ
मलिकाना मांगातऽऽ
बाबू हमसे पूछा ता ठकुराना मांगातऽऽ
दूधे.दहिए के बरे अहिराना मांगातऽऽ
………………………………………
ई सड़किया के बीचे खुलेआम मांगातऽऽ
मांगे बहुतै सकारे, सरे शाम मांगातऽऽ
आधी रतियौ के मांगेय आपन दाम मांगातऽऽ
ई तो खाय बरे घोंघवा के खीर मांगातऽऽ
दुलहिनिया के द्रोपदी के चीर मांगातऽऽ
औ नचावै बरे बानर महावीर मांगातऽऽ
 
विद्रोही मूलत: इस देश के एक अत्यंत जागरूक किसान-बुद्धिजीवी हैं जिसने अपनी अभिव्यक्ति कविता में पाई है। विद्रोही सामान्य किसान नहीं हैं, वे पूरी व्यवस्था की बुनावट को समझने वाले किसान हैं। उनकी कविता की अनेक धुनें हैं, अनेक रंग हैं। उनके सोचने का तरीका ही कविता का तरीका है। कविता में वे बतियाते हैं, रोते और गाते हैं, खुद को और सबको संबोधित करते है, चिंतन करते हैं, भाषण देते हैं, बौराते हैं, गलियाते हैं, संकल्प लेते हैं, मतलब यह है कविता उनका जीवन है. किसानी और कविता उनके यहां एकमेक हैं।नई खेतीशीर्षक कविता में लिखते हैं-

मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा.
 
विद्रोही पितृसत्ता-धर्मसत्ता और राजसत्ता के हर छ्द्म से वाकिफ़ हैं; परंपरा और आधुनिकता दोनों के मिथकों से आगाह हैं। औरतशीर्षक कविता की आखि‍री पंक्तियां देखिए-,

इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया गया?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,
मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं नहीं होने दूँगा.

विद्रोही के साथ चलना हर किसी के लिए आसान नहीं है। वे मेरे अंतरतम के मीत हैं। ऎसे कि वर्षों मुलाकात न भी हो, लेकिन जब हो तो पता ही न चले कि कब बिछड़े थे। उन्हें लेकर डर भी लगता है, खटका सा लगा रहता है, इतने निष्कवच मनुष्य के लिए ऎसा लगना स्वाभाविक ही है।आखिर जे.एन.यू. भी बदल रहा है। जिन युवा मूल्यों का वह कैम्पस प्रतिनिधि बना रहा है, उन्हें खत्म कर देने की हज़ारहां कोशिश, रोज़-ब-रोज़ जारी ही तो है।
***
( यह टिप्पणी आशुतोष कुमार की फेसबुक वॉल से साभार)

बृजेश नीरज के कुछ नवगीत

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बहुत पहले रोहित रूसिया के कुछ नवगीत अनुनाद पर छपे थे। आज प्रस्तुत हैं जनवादी लेखक संघ से जुड़े कार्यकर्ता बृजेश नीरज के नवगीत।
***
हाकिम निवाले देंगे

गाँव-नगर में हुई मुनादी
हाकिम आज निवाले देंगे

चूल्हे अपनी राख झाड़ते
बासन सारे चमक रहे हैं
हरियाई सी एक लता है
फूल कहीं पर महक रहे हैं

मासूमों को पता नहीं है
वादे और हवाले देंगे

सूख गयी आशा की खेती
घर-आँगन अँधियारा बोती
छप्पर से भी फूस झर रहा
द्वार खड़ी कुतिया है रोती

जिन आँखों की ज्योति गई है
उनको आज दियाले देंगे

सर्द हवाएँ देह खँगालें
तपन सूर्य की माँस जारती
गुदड़ी में लिपटी रातें भी
इस मन को बस आह बाँटती

आस भरे पसरे हाथों को 
मस्जिद और शिवाले देंगे
***

लालसा कनेर कोई  

दायरों के
इस घने से संकुचन में
अब कहाँ वह
नीम या कनेर कोई
जेठ से तपते हुए
ये प्रश्न सारे
ढूँढ़ते हैं
पीत सा कनेर कोई

राह का हर आचरण
अब पत्थरों सा
ओस की बूँदें गिरीं
घायल हुई थीं
इन पठारों को
कहाँ आभास होगा
जो शिराएँ बीज की
आहत हुई थीं

अब हवा भी खोजती है
वह किनारा
हो जहाँ पर
लाल-सा कनेर कोई  

अब बवंडर रेत के
उठने लगे हैं
आँख में मारीचिका
फिर भी पली है
पाँव धँसते हैं
दरकती हैं जमीनें
आस हर अब
ठूँठ सी होती खड़ी है

दृश्य से ओझल हुए हैं
रंग सारे
काश होता
श्वेत सा कनेर कोई
***
 
सो गए सन्दर्भ तो सब मुँह अँधेरे

सो गए सन्दर्भ तो सब
मुँह-अँधेरे
पर कथा
अब व्यर्थ की बनने लगी है
गौढ़ होते
व्याकरण के प्रश्न सारे
रात
भाषा इस तरह गढ़ने लगी है

संकुचन यूँ मानसिक
औ भाव ऐसे
नीम
गमलों में सिमटकर रह गई है
भित्तियों की
इन दरारों के अलावा
ठौर पीपल को
कहाँ अब रह गई है

बरगदों के बोनसाई
हैं विवश से
धूप में
हर देह अब तपने लगी है

व्योम तो माना
सदा ही है अपरिमित
खिड़कियों के सींखचे
अनजान लेकिन
है धरा-नभ के मिलन का
दृश्य अनुपम
चौखटों को कब हुआ
आभास लेकिन

ओस से ही
प्यास को अपनी बुझाने
यह लता
मुंडेर पर चढ़ने लगी है
***

कुछ अकिंचन शब्द हैं बस

कुछ अकिंचन शब्द हैं बस
विलोपित
धार बहती
भाव की
तपती धरा यह
बस गरल के पान करती

क्लिष्ट होती वृत्तियों में
भावना निश्चलशिला सी
धूलभरती  
आँधियों में  
आसभी  बुझते दिया सी

मौन साधे 
हर घड़ी ज्यों 
वेदना के दंश सहती

व्योम का आकार सिमटा
हर दिशा है
राह भटकी
धुन्ध में ठिठकी
खड़ी है
अबकिरण की
साँस अटकी

भोर ओढ़े 
रंग धूसर 
साँझ हर  पल रात रचती 
***
 
जीवन 

इस नदिया की धारा में
कितने टापू हैं उभरे
कहीं हुई उथली-छिछली 
तो, कहीं भँवर हैं गहरे

पंख नदारद मोरों के
तितली का है रंग उड़ा
भौंरा भी अब यह सोचे
आखिर कैसे फूल झड़ा

चिड़ियों की गुनगुन गायब
यहाँ नहीं अब पग ठहरे

कल-कल करती जलधारा
अब सहमी औठिठकी सी
सिकुड़ी-सिमटी देह लिए
नदिया चलती, बचती सी

इक मरीचिका सी छलने
बीज मरू के हैं अँकुरे

काली सी बदरी छाई
नील गगन भी स्याह हुआ
कोयल, पपिहा आस लिए
अब तो फूटे फिर अँखुआ

सीप खड़ी तट पर सोचे
अब तो कोई बूँद झरे
***

ढूँढती नीड़ अपना

ढूँढती है एक चिड़िया
इस शहर में नीड़ अपना
आज उजड़ा वह बसेरा
जिसमें बुनती रोज सपना

छाँव बरगद सी नहीं है
थम गया है पात पीपल
ताल,पोखर,कूप सूना
अब नहीं वह नीर शीतल

किरचियाँ चुभती हवा में
टूटता बल, क्षीण पखना

कुछ विवश सा राह तकता
आज दिहरी एक दीपक
चरमराती भित्तियाँ हैं
चाटती है नींव दीमक

आज पग मायूस, ठिठके
जो फुदकते रोज अँगना

भीड़ है हर ओर लेकिन
पथ अपरिचित, साथ छूटा
इस नगर के शोर में अब
नेह का हर बंध टूटा

खोजती है एक कोना
फिर बनाए ठौर अपना
***
जन्मतिथि- 19-08-1966
ईमेल- brijeshkrsingh19@gmail.com
निवास-65/44, शंकर पुरी, छितवापुर रोड, लखनऊ-226001
सम्प्रति-उ0प्र0 सरकार की सेवा में कार्यरत
कविता संग्रह-कोहरा सूरज धूप 
संपादन- साझाकविता संकलन-सारांश समय का
विशेष-जनवादी लेखक संघ, लखनऊ इकाई के कार्यकारिणी सदस्य

वो तकनीक के साए में ज्ञान से ठगे गए उर्फ़ नब्बे के दशक के लौंडे - अमित श्रीवास्तव की नई कविता

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वो तकनीक के साए में ज्ञान से ठगे गएनब्बे के दशक लौंडे शीर्षक इस कविता के कुछ रेखांकित किए जाने योग्य उद्बोधनों में से एक यह ख़ास है। कवि ने इस कविता को मुझे समर्पित करके दरअसल मेरी पूरी साहित्यपीढ़ी को चपेट में लिया है। अब युवा अलग लहज़ों में बोल रहे हैं, वे चाहते हैं कि उनका बोला हुआ सुनाई तो दे ही, चुभे भी। अमित का लहज़ा भी ऐसा ही है। नब्बे के बाद के परिदृश्य को टोहता, उसमें शामिल कवि सब कुछ तो नहीं कह सकता पर बहुत कुछ कह जाता है। नब्बे के दशक के लौंडे, जो आज अफ़सर, अध्यापक, पत्रकार, लेखक-कवि, मैनेजर, डाक्टर, इंजीनियर, नेशनल-मल्टीनेशनल से लेकर बेकार-बेरोज़गार तक सब कुछ हैं पर कुछ इस तरह

ये सपनों की परित्यक्त औलाद
इन्हें लेने कोई नहीं आया
ये परित्यक्त रहे सपनों के विनाश के बाद भी

इनकी कहानी में अधूरापन
इनके व्यक्तित्व में बौनापन
गो अभी बाकी है इनका होना
***     


नब्बे के दशक के लौंडे
(शिरीष कुमार मौर्य के लिए)

वे आने वाले कल पर विस्मृत
उनकी आँखों में इतिहास के सपने जगमग
उनकी स्मृतियों का संसार भारी
बोझ ये कई दशकों का
कई दशकों तक ढोना था उन्हें
चीखने को आज ही काफी था
उन्हें आज भर रोना था 
रोने को आज ही काफी था
आज को होना था जीवन भर

वे नमक की डली की तरह
कि बाद में पिस सकें टाटा साल्ट से महीन
वे गुड़ की भेली
कि बिखर जाए उनका होना
खिल सकें लौट कर किसी संस्कृति संवाहक की उलट बांसियों में
वे मटर की फली
पोखर में खिले सिंघाड़े की तरह बेतरतीब
आमंत्रित नहीं आयातित
उन्होंने अभी-अभी सीखी थी भेड़ चाल
बिन बुलाए आना जाना था

उनके कान फुसफुसाहट को आह्वाहन मानने वाले
आह्वाहन किसी उतुंग शिखर से
उद्योगपति की मोटीवेशनल स्पीच
खींचो, पटको, धक्का दो
आगे बढ़ो, आगे बढ़ो रौंदकर 
उन्हें उस जैसा बनना था
आगे बढ़ना था उन्हें 
उन्हें प्रतिरूप था होना
उन्हें होना था इस तरह
कि नहीं होना था 

वे भाषा के चंगुल में छटपटाते
मौन के रखवाले 
इतने वाचाल एकांत में
कि पागल होने का भ्रम होता 

रास्ता बड़ा आम था
एक लम्बी खोह थी उसके आगे
वहां रेल का कोई स्टेशन नहीं था
जहां जाना था सबको
और बस एक सीट खाली थी 
वो जाने को तैयार थे बैठे
तैयार एक भ्रामक शब्द है
वो तो बाद में जाना

एक इमारत को गिरते देखना
महज़ देखना होता
इमारत को गिरते
तो वो भी देखते रहे इमारत को ही गिरते
इमारत को गिरते देखा जिसकी नींव
इनके कल ने बुनी थी
नींव से कोई नई इमारत नहीं बनती देखी गई 
नींव में देखा गया मट्ठा पड़ते 
अब वहां एक पेड़ है
जो छाँव-फल-फूल के प्रतिपक्ष में है खड़ा
अगली इमारत के गिरने के इंतज़ार में  

ये मासिक किश्तों में ज़िम्मेदार 
नागरिक हुए सोलह अंकीय पहचान पत्रों में
इन बिटवीन उतने ही बद्तमीज

अटक जाते थे लड़की को देखकर
क़यामत तक भटक आते प्रेम में
गटकते थूक के साथ ये चुहल
कि मिल जाए गर कहीं राह में
तो जड़ देंगे एक चुम्मा उसके मसमसाते गालों पर
फिर किताबों में दबाकर फूल
भूल जाते क़यामत तक

उतने ही रुष्ट रहे माओं से
बाप से थे जितने खौफज़दा
घर से जाते बाहर अक्सर यही सोचते
कि फिर न आएँगे यहाँ लौटकर
लौट आते शाम की डाक से रंगहीन  

किले बनाते ढहाते
किरदार नहीं वो देह गढ़ने में लगे
हालात की नब्ज़ पर
मासूम थी पच्चीकारी

इन्होने नाम का महत्व जाना
पूरा नाम पूछने पर ये जानना चाहते थे पूरा महत्व
उनका नाम उनके महत्व से बड़ा 
अपने नाम में गुमनाम हुए 

वो नमकवाले की औलाद थे
वो औलाद थे पसीनेवाले की
इस तरह से वो लकड़ीवाले की औलाद भी हुए न 
वो खूनवाले की औलाद थे
वो औलाद थे थूकवाले की
इस तरह से वो ईंटवाले की औलाद भी हुए न
उनके पसीने में था सबका खून
उनके खून में कई पीढ़ियों का पसीना

उनकी आँखें उन कूल्हों पर टिकी
जिसे कहते थे समय
एक दिन... एक दिन... एक दिन
वो आहें भरते थे
छाती भर उसांस से
किस्मत से ज़्यादा
वक्त से पहले के इंतज़ार में
वो देवताओं के घरानों में गए
जहां भयावह राक्षसों ने किया तिलक उनका 
वो गए राक्षसों के डेरे पर
छोटे-छोटे देवता वहां किलकारियों में लीन
उन्हें अनदेखा करते 

आज अपने ही पसीने की गंध से घबराते
बस की पिछली सीटों पर
हड़बड़ी में टिफिन भूल जाते

ये जल्दी में हैं
समय को काट-काट कर पीते
इन्हें जीने की नहीं अब पहुँचने की जल्दी है 

खूब रंगीन पर्दों से घिरे
धंसे बड़े लाल सोंफे में
उगते पेट बुझती आँखों वाले

ये बेसमय बूढ़े होते लोग
ये बेसमय गंजे होते लोग  
ये असमय तोंदुल होते लोग
इनके सरों पर जिम्मेदारियों का तलछट
इनके उदर में अपच डकार
दिमाग़ में भारी वायु-विकार

अब बचे-खुचे से हैं
कुछ चले गए इक्कीसवीं सदी में
दशक का भान नहीं
कुछ छूट गए पिछले दशक में ही कहीं  

इनके गिटार से मेढक की सी घों घों
कोई आवाज़ नहीं बांसुरी में अब
इनकी कविता में मधुमास नहीं
गिद्ध के नोचे हुए मास की बू  
बहुत ऊंचा जाकर भी
बहुत ऊंचा सुर नहीं लगता इनसे  
रिंगटोन से बजते हैं बार-बार एक ही धुन
कुरेदने की हद तक भरी इंकार इनमें
हुन्कारियों सी हैं लगती 

जहां टीले थे जीवन में इनके  
वहां सपाट है
जहां गड्ढे थे अब वहां सपाट है
जहां सपाट था
अब भी सपाट है वो स्थान जीवन का

ये घोड़े भर थे अश्वमेघ के
राजकुमार समझना इनकी भी भूल थी
रकाब किसी के हाथ इनकी
जीन पर सवार कोई और
जोर लगाकर पिंडलियों से पीठ पर
अद्भुद निशाने लगाकर इनकी ही देह में
इन्हें टेंट पेगिंगकराता  

इनके हाथ झंडे से लैस
पीठ पर लादी गई हैं ईंटें
कीचड़ से सने हैं पैर इनके  
जिस खंडहर को उजाड़ा
हाथ उसके मलबे में धंसे हैं कुहनियों तक

वो उड़ना चाहते थे
मगर उड़ने से पहले हाँफते
पंखों में लगाकर हाथ
पिछली उड़ान फाड़ते
वो तकनीक के साए में ज्ञान से ठगे गए

ऊपर जाने की कोशिश में
उधर गए जिधर भेड़ें गई थीं सारी
खुश हो जाने की कोशिश में
अनमयस्क हुए इतने कि
हर सांस पर अपनी एक खुजली छोड़ते  

सपनों में देखे ताजमहल
अपनी मुमताज़ों के लिए
घर के पिछवाड़े मूंगफली के छिलकों के साथ
दफना दिए
एक रुक्का भेजा अपने भगवानों को सीन फ़ाइल
इन्होने पिता की फटी जेब में
माँ की सब झुर्रियां सहेज दीं
धूल, पसीने, थूक के बाज़ार में
सेल के इंतज़ार में हैं ये

अब आधी उम्र की दहलीज़ पर
निश्चित तौर पर फिर भी नहीं कह सकते
इस अनिश्चित दौर में
उस तरह ही कि जैसे
आधे परिपक्व हुए ये आधा बचपन जीने के बाद

ये आधे रस्ते पर  
पूछ रहे थे बाकी का आधा रास्ता
ये जहां पहुंचे
वहां से कहीं भी पहुँचने की
सांत्वना मिलती
रास्ता नहीं

ये सपनों की परित्यक्त औलाद
इन्हें लेने कोई नहीं आया
ये परित्यक्त रहे सपनों के विनाश के बाद भी

इनकी कहानी में अधूरापन
इनके व्यक्तित्व में बौनापन
गो अभी बाकी है इनका होना
वैसे तो चंद साँसे ही रह गईं हैं इनके पास

ये जानते थे इन्हें क्या चाहिए
नहीं जानते थे क्या नहीं चाहिए इन्हें
ये थे इतना जानते 
कि चाहने लगे ये जो जानते थे

वक्त के माथे पर चंद खरोचें डालकर
ये गढ़ रहे थे एक देश
जिसमें इन्हें हर हाल नहीं होना था  
***


असंग घोष की कविताएं

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गहरे आक्रोश में डूबी ये कविताएं, कविता होने के पारम्परिक विधान को भी मुंह चिढ़ाती हैं। इनके कथ्य पर बहस हो और क्राफ़्ट पर भी -यही इन कविताओं की आंकाक्षा है आर सफलता है। सदियों के संताप का मुहावरा अब बहुत मुखर होकर सामने है। अन्याय जब तक रहेगा, ये ज़मीन असल इंसान के रहने-बसने काबिल नहीं बनेगी, तब तक समाज के कानों के परदों को भेदता ये आक्रोश गूंजता रहेगा। यह साहस अब संकल्प बन कर हमारे सामने है। 
अनुनाद अपने कवि का स्वागत करता है और उन्हें कविताएं भेजने के लिए शुक्रिया भी कहता है। असंग घोष का नया संग्रह अभी शिल्पायन प्रकाशन के अनुषंग प्रकाशन सान्निध्य से प्रकाशित हुआ है।


अपने सांड़ को बांध ले

ये सांड़
जिसके पुट्ठे को
तूने चिन्ह कर
छोड़ दिया हैं
गलियों-बाजारों में
घूमता हुआ
हमारे खेतों में
फसलों को चौपट करने
घूस आता है बार-बार,
भले ही इसे छोड़ा होगा तूने
अपने धर्म की खातिर
अब तू बांध ले इसे
मेरे सब्र का बाँध 
फट पड़ने को हैं,
अब बांध ले
तू इसे
या
मैं कर दूंगा
इसका काम तमाम
फिर ना कहना
कि मैंने तुझे चेताया नहीं।
*** 
बनानी होगी सुरक्षा पाल

आसमान में
मण्डराते
गिद्धों के झुण्ड
अपनी पैनी निगाहों से
हमारे दुर्बल शरीर को खोजते
हमारी लाशों पर
टूट पड़ने
किसी दिन
मण्डराना छोड़
अपना निवाला बनाने
नीचे जमीन पर
उतर ही आऐंगे,

ऐसे किसी दिन के
आने से पहले ही
इन गिद्धों से
खुद को बचाने
हमें ही बनाना होगी
अपनी सुरक्षा पाल।
***

मनुवादी न्याय
(स्मृतिशेष नामदेव ढसाल से प्रेरित एवं उन्हीं को सादर समर्पित)

मनु!
वही जो चित्त सोई थी
तेरे साथ
आज 
अपनी पहचान छिपाने
आँखों पर पट्टी बांध
भांजी और डाण्डी
मारती हुई चुड़ैल!
न्याय की मूर्ति बन
खड़ी है
कुर्सी के पीछे
आज़ादी के
सालों बाद भी
पैसों के लिए भड़वों के साथ
वह सोने को हर वक्त तैयार,

मनु !
तेरे चेले
तेरी ही
परम्परा का निर्वहन करते
लेट जाते है बार-बार
इस अंधी देवी के साथ,
तुम अपना भेजा लगाकर
कमियाँ ढूंढ़ते हो,
और
इस अन्यायी देवी से
खुद के हक में न्यायदान पाते हो
जो हर बार तराजू को एक ओर रख
सो जाती है
पैसों के साथ,
उठकर फिर से
आँखों पर पट्टी बांधे
बार-बार खड़ी हो जाती है
कांटी-डांडी मारने

मनु!
मैं किसी दिन
तराजू
काली पट्टी
सहित उठाकर
कैथा की तरह दे मारूँगा,
तेरे सिर पर
इसे ।
***


मैं बनाता रहूँगा वसूले की धार

मैं
वसूला लिए
अपने हाथों छिलता हूँ
तुम्हारी गांठ
बार-बार
कि वह छिलती नही
चिकनाते हुए
बहुत गहरे पैठ गई है
उस पर किंचित खरोंचें आती है
मेरे किए वार से
हर बार 
मेरे वसूले की ही धार
भोथरी हो जाती है 
किन्तु मैं कतई विचलित नही हूँ
ना कभी विचलित होऊंगा
रोज लगाऊँगा
इस वसूले पर धार
तेरी गांठ
कब तक
अपनी जड़ों से बिंधी रहेगी
एक ना एक दिन
कटना ही होगा इसे
और उस दिन के इंतजार में ही
बार-बार
मैं घिसता रहूँगा वसूला
करता रहूँगा
इसकी धार
तेज ओर तेज....
***
***
 
देखते रहना!

जिस किताब को
आँगन के बाहर
औसारे में रखे पीढ़े पर
तुम बैठ पढ़ते रहे
और देते रहे
हमारे विरुद्ध
फतवा!

हाँकते रहे
तुम्हारे कारिंदे
हमें खेतो में
बैलों की जगह जोत कर
कराने बेगार।
हम घेरते रहे
तुम्हारा खिरका
बाड़े में लाकर
छोड़ते रहे
तुम्हारें ढौर
मुट्ठीभर अन्न की खातिर,
फिर भी तुम
ऐरा¤ में छोड़ते रहे उन्हें
जिन्हें अपनी माँ
कहते नही अधाते हो
माँ को 
कोई कहीं ऐसे
ऐरा में छोड़ता है?

मैं!
आज कोई सवाल
नही कर सकता तुमसे
लेकिन कहता हूँ
एक दिन
तुम्हारी आँखों की
किरकिरी बन गड़ जाऊँगा
अपने हथेलियों में सजा
अपनी किताब
अगली पुश्तों को सौपूँगा
उस समय तुम
उल्लू की तरह
सिर्फ देखते रहोगे मुझे।
***
¤ ऐरा - पशुओं को आवारा छोड़ने की प्रथा। 

प्रेमपत्र - नवीन रमण

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हिंदी की कथा और कविता,दोनों में, प्रेमपत्र बहुत दिव्य किस्म की भावुकता का शिकार पद है। कहना न होगा कि प्रेमपत्र कहते ही किस कविता और किस तरह की  कविताओं की याद हमें आती है। नवीन रमण को मैं फेसबुक पर जानता हूं, उतना ही, जितना फेसबुक आपको जानने देता है। वे ख़ूब तीखी राजनीतिक टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं, समाज में हो रहे हर उलटफेर, उसकी हर विकृति पर उनकी निगाह है। राजनीति के प्रपंचों के बीच उनके बयान हमेशा मनुष्यता के पक्ष में होते हैं। वे सच्चे अर्थ में आधुनिक दृष्टिसम्पन्न युवा हैं। यहां प्रस्तुत किए जा रहे प्रेमपत्र एक अपूर्व प्रयोग है, जिसे नवीनसमाज की प्रयोगशाला में परख रहे हैं। इनमें वह गिजगिजी भावुकता नहीं है। हरियाणा की मिट्टी और उसके ठेठपन से भरे ये छोटे-छोटे आख्यान, जो मिलकर उस महाख्यान का हिस्साहो जाते हैं, जिसे 'प्रेम'कहा जाता है। 

अनुनाद नवीन रमण का स्वागत करता है और पाठकों से इन प्रेमपत्रों पर प्रतिक्रिया की आशा करता है। 
***


1
जय मां गूगा माई की

काले, तू आपणी मां नै समझांदा क्यूं नी । आज फेर तेरी मां नै ओए काम करया । मेरी मां गोस्से (गोबर के उपले) पाथ के आई और तेरी मां ने गा (गाय) खुली छोड़ दी । थारी गा (गाय) ने सारे गोस्से फोड़ दिए । मां सारा दिन बरड़-बरड़ करदी रही । गोस्से थारी गा फोडै अर आफत म्हारे जी नै होज्या सै ।इतनी भूंडी (गंदी) गाल दी है मां नै थारे तै अक पूछै मत । नास जाणी के भाई मरियो । बीज मरणया कै कीड़े पड़ कै मरियो ।
किसे दिन ये रोळा (झगड़ा) हो कै रहवैगा । फेर मत कहिए यो के होया । चै तै समझा दे आपणी मां नै । नहीं तै खामखा बात घणी बढ़ ज्यागी ।
कित तो हाम (हम) इतणी बढ़िया-बढ़िया बात लिख्या कर दे । कित इब यै बात लिखणी पड़ री सै । असल मैं  लूल्लू की मां करवा री यो सारा क्लेस । उसके बोये बीज सै । वा हे तेरी मां के आगै उल्टी-सुल्टी पोये जा सै । तेरी मां कै कुछ समझ कोणी आंदा । तेरी मां तै गऊ सै । वा सै असली चंडाळी । जिस धोरै (पास) बैठे उडै (वहीं) लट्ठ बजवा दे सै । हामनै तै वा घर तै भजा दी थी । उसकी ए भड़क ले री सै ।
तू कॉलेज नी जांदा (जाता) इब । सारी हाण ( हर टाइम) घरा ए पडया रै सै । फैल होग्या के ।कॉलेज जाया करता था तो नहाया-धोया बढ़िया लत्ते (कपड़े) पैरे रह था । इब तै कती पाळी ( भैंस चराने वाला) बरगा बणया रह सै । जूण से पैन गेल (साथ) तू लिख कै दिया करै ओह ए पैन मेरे तै भी ल्या कै दिए ।

तेरी आपणी

2
जय दादा खेड़े की 
जान से भी प्यारी ...
जिस दिन तेरी शक्ल नहीं देखता उस दिन दिल को चैन नहीं मिलता ।आज चौथा दिन हो गया तुझसे मिले और देखे । एक तो तेरा घर ही ऐसी गली में है, जो बंद है । किसी भी बहाने से तेरी गली में नहीं जाया जा सकता । दूसरा तेरा वो खडूस बुड्ढा पड़ोसी जो हमेशा बाहर गली में ही बैठा रहता है । हर किसी को बोलता रहेगा गली बंद है । किसके जाना है ।सबसे बड़ी आफत भैंस बिकने से हुई है । तेरे पापा ने अच्छी भैंस बेंची । अब शाम को मिलना बन्द ही हो गया । कम से कम गोबर के बहाने शाम को एक मुलाकात तो हो ही जाती थी । अपनी सहेली के साथ ही आ जाया कर । जब तक तुम्हारी भैंस नहीं आ जाती । अब तो तुम बरसात में ही खरीद पाओगे भैंस । गर्मी में रेट वैसे ही बढ़ जाते है भैंस के । क्या कुछ लग रहा है कब तक खरीद लेगा तेरा पापा भैंस ?
चल कल तो मिलने का मौका है ही । भगवान उसके बाल-बच्चों को लंबी उम्र दे,जिसने सोमवार के व्रत शुरू किए । तीन-चार दिन होने चाहिए थे शिवजी के । थोड़ी वारी-सी आइयो । तब तक भीड़ कम हो जाएगी । वो गुलाबी सूट पहनकर आइयो । जो तुने बबलू के ब्याह में पहना था । और उस फत्तु की बहु के साथ मत आइयो । पक्की डैण है वा । सारे गाम में ढिंढोरा पीट देगी जो उसनै शक हो गया तो ।

आई लव यू जान
.....................
फूलों से ज्यादा पसंद खुशबू को करता हूं
अपने से घणा ज्यादा तुझको प्यार करता हूं ।
2016के नए साल की मुबारक

3
तुझे भी नया साल मुबारक हो ।
ये साल आये बार-बार
यूँ हर बार लेकर बहार
हम यूँ ही रहे मिलते
और बगिया में फूल खिलते
लोग भी यूँ रहे जलते

देख मेरे पास पैसे तो होते नहीं । मैं तुझे देना तो चाहती हूँ बढ़िया और महंगा वाला कार्ड । तूने जो कार्ड दिया है उस पर जो सेंट छिड़का है उसकी खुशबू घणी बढ़िया है। मुझे वैसा ही सेंट चाहिए। हमने तो आज गाजरपाक बनाया है ।माँ सुबह तीन बजे ही बनाने लग गयी थी । पता है आज के हुआ । जब माँ चूल्हा जलाने के लिए कागज ढूंढ रही थी तो तेरा लव लैटर किताब से थोड़ा-सा बाहर रह गया था। माँ ने तो कागज का कान-सा पकड़ के खींच लिया और सीधा चूल्हे में । वो तो मैंने देख लिया और तुरन्त उसके दोनों हाथ पकड़कर उसे जलने से बचाया । छोरी तो खूब जलै आग मैं आज  लब लैटर भी जल गया होता । यो भी बढ़िया है अक माँ अनपढ़ है ।नहीं तो पढ़ते ही जलाने पड़ते । देख मैं खुद तेरे लैटर जलाती हूँ पर जब माँ जलाने लगी तो ऐसा लगा जैसे मेरे शरीर का कोई हिस्सा जल जायेगा। पर तब तक नहीं जलाती जब तक अगला नहीं मिल जाता । कई बार पढ़ती हूँ । इस बहाने पढ़ने की भी आदत हो गयी है।
आज तू मुझे समोसे जरूर खिलाना ।
नए साल की शुभकानाएं
तुझे भी नया साल मुबारक

4. 
जय बजरंग बली
प्यारी कमलेश
                        I                     LOVE                              YOU
हिम्मत-सी करके लिख ही रहा हूं । पता नहीं तुम तक ये पहुंच भी पाएगा की नहीं । वैसे तो मेरा उस्ताद मना करता है कि छोरियों के चक्कर में जो पड़ गया, वो कदे पहलवान नहीं बण सकता । पर के करूं तू मनै लाग्गै-ए घणी कसूत्ती सै ।         तू भी यो पढ़कर के सोचेगी की किसा माणस है । किसी-किसी बात लिख दी है । कभी लिखा नहीं है कोई लैटर । यो पहला है । चै स्कूल में छुट्टी के लिए लिखे थे । वैसे भी बात पहुंचनी चाहिए जैसे भी पहुंच जाए ।
मेरा प्यार कती असली है ।मैंने उस्ताद की खिलाई कसम भी तोड़ दी । उसने लगोट पकड़कर हनुमान की कसम खिलवाई थी । पर बहुत दिन मन मार के रह लिया । अब नहीं रहा जाता ।हनुमान भी वैसे ही बदनाम कर दिया जै हनुमान नै लुगाई तै इतनी दिक्कत होती तो राम-सीता बाबत रावण के साथ क्यों लड़ते ? फालतू की बात घणी लिख दी । असली बात तो या सै अक मन्नै तू घणी चोखी लाग्गै सै ।
अर जब तू गोबर का तसला सिर पर रखकर चलती है तो पीछे से घणी कसूत्ती लगती है । बस नू मान मेरा दिल आ गया है तेरे पै । तू भी तो देखते ही हंसने लग जाती है । बस वा तेरी हंसी कती कालजे मैं जाकै लाग ज्या सै ।बस या हंसी तू मेरे ऊपर ऐसे ही लुटाती रहणा ।मन्नै ओर कुछ नहीं मांगा बजरंग बली से ।जय बजरंग बली,तोड़ दे दुश्मन की नली ।
इसनै पढ़कै फाड़ दिए । नहीं तो फंस सकै सै ।
तन्नै तेरी मां की कसम है, जवाब जरूर दिए ।

तेरा आपणा
जस्सा / जसबीर पहलवान

5
पतासे बरगी सुदेस

एक तो तू आपणा पैन बदल ले । सारे लैटर पै इसा लागै जणू लीला रंग थूक दिया हो किसे नै । इस पैन गेल के तू ब्याह राखी सै ।फैकती क्यूं नी इसनै ।तेरे लिखै तै बत्ती तो यो पैन फैंक दे सै । मेरे साले पैन कै दस्त लाग रे सै ।चै जड़ मै एक लोगड ( रूई) धर लिया कर अर इसकी राल (लार) पूछती रहया कर लिखदी हाण ।
आगली काम की बात सुण तू इब ।

चंद्रावल फीलम देखणी हो तो परसो चालैगी शशीकांत चमरवे बामणा कै ।आज उसका छोरा कहवै था । अक बुक कर आए बीसीआर ।दो होर फिलम ल्यावैंगे । नई आली । पर पहलै चंद्रावल चलावैंगे । महासिंह कै लाए थे जब भी रैहगी थी तू देखे बिना । इबकै तै कती सही मौका सै । उनकी छोरी तो तेरे गेल पढै सै । घर आले भी कोनी नाटै (मना करना) । उनका छोरा कहवै था अक खबीले चूडे का रंगीन टीबी भी मांग लिया है हामनै । काले-धोले मै कोनी मजा आंदा,जितना रंगीन मैं आवै सै ।वै आपणे चोतरे (चबूतरा) पै धर कै चलावैंगे । म्हारे बरगे (जैसे) भी देख लेंगे । नहीं तै हामनै भीत्तर कूण बडण(घुसना) देंदा ।इस भाने (बहाने) तन्नै भी सारी रात देख ल्यूंगा ।

इब देख ले तनै आपणे घर आले क्यूकर राजी करणे सै ।मौका तै कती (बिल्कुल) लठ बरगा(जैसा) पडया सै (लाठी की तरह मजबूत बहाना है आने का) । मेरे आगै तो तू बाता की सोड-सी (रजाई भरना) भर दे सै । घरा तेरा कती घीटवा (गला) सूख ज्या सै ।
अर लैटर मैं मेरा नाम फत्तू क्यूं लिख्या करै । राकेस क्यूं नी लिखदी तू ।

तेरा गुड बरगा राकेस

6.
बबीता, करया नै तन्नै ओए काम । मैं नाटू (मना) था अक म्हारे  घरा इतनी बै मत आया कर । आज मां कह री थी अक रणबीर की छोरी के पां (पैर) के नीचै कुछ आरया सै । कती चकरी काटदी फीरे जा सै । कई दिन तै या पाणी लेण भी घणी बै आण लाग (आने लगी) ली । जरूर कुछ चक्कर सै । कीसे गेल्ला (किसी के साथ) पक्का मूंह काळा करदी होगी । नहीं तै जवान छोरी का इतनी चकरी काटण का कूणसा (कौन-सा) मतलब सै । रणबीर की तै अकल फूट री सै पर उसकी बहू नै भी कुछ नी दिखता ।इनका तै खरणा-ए (खानदान) खराब सै । इनकी बुआ भी आधे गाम नै नचागी थी ।

तू इब कई दिन कम आइये । तेरै भी बेरा (पता ) नी के भड़क सै । बार-बार के देखण आया करै तू । तेरा जी नी भरदा देखे बिना । पता नी के होज्या सै देख कै ।

न्यू करिए आज रात नै साग (सब्जी) मं मिला दिए दुवाई । सात बजे खा ल्योगे तो 9 बजे तयी घर वाले टै हो ज्यांगे । थारे चुबारे पै कोनी आया जांदा इब । महेंद्र नै आपणी भीत (दीवार)  ऊंची कर दी । थारे बगड़ (आंगन) मं कै आणा पडैगा । उडै (वहीं ) चुबारे पै मिलिए । बता दीए कदे तेरा बाबू आज भी खेत मं तै वारी आंदा हो । उस दिन तो बस बचगे । नहीं तै फसे-फंसाए थे उस दिन । पी रहया तेरा बाबू तो पता कोनी चाल्या ।

जय दादा खेड़े की


जुगलबंदी: लीलाधर जगूड़ी की लम्बी कविता "बलदेव खटिक"एवं वीरेन डंगवाल की बहुचर्चित कविता "रामसिंह'को साथ-साथ पढ़ते हुए - पृथ्वीराज सिंह

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पृथ्वीराज सिंह को सोशल मीडिया पर मैंने कविता पर उनकी कुछ सधी हुई टिप्पणियों से जाना। कविता की उनकी पढ़त और समझ अब एक रचनात्मक आकार ले रही है। वे कविताओं पर लम्बी प्रतिक्रियाएं लिख रहे हैं। अनुनाद के लिए उन्होंने हिंदी की दो महत्वपूर्ण लम्बी कविताओं 'बलदेव खटीक'और 'रामसिंह'पर साझी और तुलनात्मक प्रतिक्रिया लेख के रूप में उपलब्ध कराई है। अनुनाद पृथ्वीराज सिंह का स्वागत करता है और इस लेख के लिए शुक्रिया कहता है।

***
जुगलबंदी
 
दोनों कविताओं का कालखंड लगभग एक है सत्तर का दशक जब आजादी का जश्न विभाजन के दंगों में बदल चुका था और युद्धों की गाथाओं में जुड चुकी थी, चायना का युद्ध और भारतीय लोकतंत्र में आपातकाल की राजनीति।एक अजब दौर था जहाँ समीकरण बन रहे थे और नारे बदल रहे थे। इन दोनों कविताओं में उस समय को कहने की बैचैनी दिखती है।

दोनों ही कवि पहाड के हस्ताक्षर हैं, दोनों कविताओं के परिवेश एकदम अलग हैं लेकिन चरित्र समान हैं। रामसिंह पहाड़ के गांव का फौजी है तो बलदेव खटिक मैदान के गांव से पुलिस में है।

पहाड़ होते थे अच्छे मौक़े के मुताबिक़
कत्थई-सफ़ेद-हरे में बदले हुए
पानी की तरह साफ़
ख़ुशी होती थी
तुम कण्टोप पहन कर चाय पीते थे पीतल के चमकदार गिलास में
घड़े में, गड़ी हुई दौलत की तरह रख्खा गुड़ होता था (रामसिंह )

राह कठिन है समस्याएं खुद विकट लेकिन फिर भी 'रामसिंह'में पहाड की सम्पन्नता है, शान्ति है। वहीं इसके एकदम उलट स्थिति है बलदेव खटिक-

रात; चिथडा खाती गाय के जबड़े में
धीरे-धीरे गायब हो रही थी" ( बलदेव खटिक )

बलदेव खटिक में कथ्य है, आप इसे एक कहानी के रूप में भी गढ़ सकते हैं जिसमें माँ का अहम किरदार है, भावुकता क्षणिक आवेश की तरह है।

(लेकिन सिपाही की माँ
जेब में मुड़े तार पर छटपटा रही थी )
जब तीसरे दिन छुट्टी पर
वह अपने गांव पहुंचा तो उसकी मां
सुई की नोक पर
अभी झड़ पड़नेवाली
पानी की बूंद की तरह इन्तज़ार कर रही थी। ( बलदेव खटिक )

तुम्हारा बाप
मरा करता था लाम पर अंगरेज़ बहादुर की ख़िदमत करता
माँ सारी रात रोती घूमती थी
भोर में जाती चार मील पानी भरने ( रामसिंह )

माँ रामसिंह के केन्द्र में भी है लेकिन कथा के रूप में नहीं है पहाड़  के समानार्थी है स्मृति के रूप में।

एक सी स्थिति में बलदेव खटिक एक कहानी-कविता है, इसलिए भी है कि जहां उसमें स्थिति एवं परिस्थिति के विरोध में स्वर ही नहीं जद्दोजहद भी दिखाती है। इसके उलट रामसिंह में कवि का आह्वान दिखाता है, इसमें प्रश्न ज्यादा हैंयह विशुद्ध कविता है।

तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह ?
तुम बन्दूक़ के घोड़े पर रखी किसकी ऊँगली हो ?
किसका उठा हाथ ? ( रामसिंह )

क्योंकि ऐसे मौके पर
जो जिसके पास है
उसका उपयोग जरूरी हो जाता है
इसलिए कुत्ते भौंक रहे थे ( बलदेव खटिक )

तन्त्र एक तरफ देश के नाम पर, तो दूसरी ओर सेवा के नाम पर दोनों का उपभोग कर रहा है। यह एक ही समय की दो अलग अलग घटनाएं हैं, एक सीमा में है एक देश के अंदर।

वो माहिर लोग हैं रामसिंह
वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं। ( रामसिंह )

दीवान बैठा है
रोज़नामचे पर हाथ रखे हुए
जैसे वह शहर की पीठ हो ( बलदेव खटिक )

बलदेव खटिक एक विरोध में उठता स्वर है, पहल है, उग्र आंदोलन की आहट है जो शायद तात्कालिक परिस्थिति में एक समाधान की तरह प्रतीत होता है।

कि देश में कुछ लोग
पेट से ही पागल होकर आ रहे हैं
लेकिन वे जब फायर करेंगे
तो यह तय है कि इस बार कौवे नहीं मरेंगे। ( बलदेव खटिक )

यह समाधान रामसिंह के पास नहीं है वह तो मात्र संबोधित किया जा रहा है। परिस्थिति उसे उकसा नहीं रही है, वस्तुतः थिति बता रही है।

वे तुम्हें गौरव देते हैं और इस सबके बदले
तुमसे तुम्हारे निर्दोष हाथ और घास काटती हुई
लडकियों से बचपन में सीखे गये गीत ले लेते हैं

सचमुच वे बहुत माहिर हैं रामसिंह
और तुम्हारी याददाश्त वाकई बहुत बढ़िया है । ( रामसिंह )

व्यवस्था जिसमें चलती है, जिस तरह से शासकीय कार्य हो रहा है वह ढर्रा एक खाई है जिसके एक छोर में तन्त्र है दूसरे में जनता।खाई जोड़ती नहीं है,  तोड़ती भर है।मूल अधिकारों के आढ़े व्यक्तिगत स्वार्थ महत्वपूर्ण है। यही खाई रेखांकित है बलदेव खटिक में-

किस कलम से करूँ ?
चाँदी की कलम से करूँ ? सोने की कलम से करूँ ?
कि लकड़ी की कलम से करूँ ?
मार खाया हुआ आदमी रिरियाता है
कि कानून की कलम से करो
कानून की कलम लकड़ी की होती है
दीवान कहता है- कल आना  ( बलदेव खटिक )

यह सब रामसिंह में भी है लेकिन यहां व्यवस्था आढ़े नहीं आ रही आपका भरपूर उपयोग कर रही है, अपने स्वार्थ के लिए। यहां मूल अधिकारों का हनन नहीं हो रहा बल्कि मोहरा बनाया जा रहा है ।

यह पुतला है रामसिंह, बदमाश पुतला
इसे गोली मार दो, इसे संगीन भोंक दो
इसके बाद वह तुम्हें आदमी के सामने खड़ा करते हैं
ये पुतले हैं रामसिंह,  बदमाश पुतले ( रामसिंह )

बलदेव खटिक कविता की रचना अवधि का जिक्र नहीं है लेकिन यह संग्रह "बची हुई पृथ्वी"का पहला संस्करण सन 1977 में राजकमल से प्रकाशित हुआ हैस्वयं कविता अपने भीतर वर्ष 1974 की राजनीति का जिक्र करती है। इससे लगता है कि यह एक कालखंड की रचना है, दस्तावेज है।
रामसिंह की रचना का वर्ष स्पष्ट रूप से 1978 अंकित है जो बलदेव खटिक से एक साल बाद की है। रामसिंह एक कविता के रूप में  अंगरेजों का सिपाही है या खुद ड्यूटी बजाता बलदेव खटिक है, या उसकी अगली नस्ल के आगे खडा सिपाही। एक कालखंड को समझा जा सकता है लेकिन रामसिंह हर कालखंड में खड़ा व्यवस्था का मजबूत सिपाही है। उसका आह्वान जरूरी है।

आँख मूँदने से पहले याद करो रामसिंह और चलो
*

एक क्रोनिक कवि का साक्षात्कार (व्यंग्य) - राहुल देव

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पूर्वकथन-
अँधेरी आधी रात का पीछा करती गहरी घनेरी नींद | नींद में मैं, सपना और दादाजी | दादा जी सपनों में ही आ सकते थे क्योंकि अब वह इस ज़ालिम दुनिया में जीवित नहीं थे | पिताजी बताया करते थे कि मेरे दादा जी अपने ज़माने में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे थे और गाँधी जी के साथ मिलकर अंग्रेजों से लोहा लिया था | वो बात अलग है कि उनका नाम इतिहास में पढ़ने को नहीं मिलता | सपने में दादाजी की आत्मा को अपने माथे पर हाथ फेरते देखकर मैं थोड़ा डर सा गया लेकिन जब उन्होंने कहा बेटा रामखेलावन डरने की बात नहीं | मैं तुम्हारे नालायक बाप रामसखा का इकलौता बाप यानि तुम्हारा दादा रामअवतार पाण्डे हूँ | यहाँ पर मैं यह भी बता देना चाहूँगा कि हम भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के महानायक मंगल पाण्डे के खानदानी नहीं हैं | पता नहीं क्यों लोग मुझसे कहते हैं कि वह मेरे लक्कड़दादा थे | मैं उनकी पांचवीं पीढ़ी का बचा हुआ अंतिम चिराग हूँ | लेकिन यह सच नहीं है | हाँ तो मेरे फ्रीडम फाइटर दादा श्री रामअवतार पाण्डे जी की आत्मा ने मुझसे कहा, “कैसे हो रामू बेटा” मैंने कहा “एकदम फिट एंड फाइन दादा जी आप अपने हाल बताइए आप कैसे हैं ? उन्होंने कहा “अबे घोंचू ! हिंदी की टांग मत तोड़, मेरी छोड़ और अपनी सुन | अब भारत में अँगरेज़ तो बचे नहीं जिनसे तू लोहा लेकर अपनी खानदानी परम्परा को आगे बढ़ाए और फिर तू ही देख मुझे लोहा लेकर भी क्या हासिल हुआ ये कमबख्त नरक.... | “क्या दादाजी आप नरक में ? लेकिन आपको तो स्वर्ग में होना चाहिए था !” “अबे मूर्ख मैंने अंग्रेजों से लोहे के साथ साथ जो जो धातुएं लीं वह सब घर के आँगन में गड़ा हुआ है | इसलिए तेरा दादा अनिश्चित काल से यहाँ नरक में पड़ा हुआ है | मेरे पास ज्यादा टाइम नहीं है इसलिए कान खोलकर सुन मैं तेरा पुरखा तुझे आदेश देता हूँ कि तू अब मेरी बेईज्ज़ती का बदला कवि बनकर इस देश की जनता से ले | ठीक है दादा जी जैसी आपकी इच्छा | और जब सुबह मेरी आँख खुली मैंने स्वयं को कवि के रूप में पाया | फिर उसके बाद मैंने मुक्तिबोध की तरह फैनटेसी में रहकर यथार्थ को सिरजा | समय बीतता गया | सब मरते चले गये, मैं जीवित रह गया | मैं आज भी जिंदा हूँ | हमाम में नंगा हूँ | अच्छा, खासा, भलाचंगा हूँ | हरओर बस मेरी ही माया का सरमाया है | मैं कवि बनने से पहले चिंदीचोर था अतः आप मेरी भाषा पर न जाएँ, भावनाओं को समझें बस | दादाजी को श्रद्धांजलि का डेली डोज़ देने के बाद मैं पलटा तो देखा दरवाजे पर एक नामी पत्रिका का बेबस पत्रकार कम साहित्यकार कम संपादक हाथ जोड़े खड़ा है | ओह, याद आया आज वह मेरा साक्षात्कार लेने आया है | अपनी रामकहानी ज़रा लम्बी है इसलिए फिर कभी फ़िलहाल चलिए साक्षात्कार शुरू करते हैं |

साक्षात्कार-

वह- तो सबसे पहले आप यह बताएं कि आपका हिंदी साहित्य की ओर कब, क्यों और कैसे आना हुआ ?
मैं-एक दिन मैं चला जा रहा था इलाहाबाद के पथ पर तो हिंदी साहित्य को मैंने सड़क के दूसरी ओर पड़े हुए देखा | वह मुझे आर्तस्वर में पुकार रहा था | मुझसे उसकी यह दीनहीन दारुण दशा देखी नहीं गयी और मैं लपककर उसकी ओर आ गया | यह साहित्य की शाश्वत करुणा और एक कवि के कुटिल प्रेम का महामिलन था | ज्ञानात्मक संवेदना के उस चरम पर मैंने अपनी पहली रचना लिखी थी जिसे छपने से पहले किसी ‘निराले’ कवि ने चुराकर अपने नाम से छपवा लिया था | मैंने फिर भी हिम्मत नहीं हारी और तबसे लेकर आज तक उस पथ पर चलता आया हूँ, चल रहा हूँ | यह पथ पहले बहुत कच्चा था, बहुत गड्ढे थे इस पथ पर | अब सुविधा हो गयी है | मेरे अवदान को देखते हुए नेताजी ने चलने के लिए इस पथ पर जोकि इलाहाबाद से वाया लखनऊ दिल्ली तक जाता है, अब पक्की रोड का निर्माण करवा दिया है |

- ‘जिंदगी’ के मायने आपके हिसाव से क्या हैं या कुछ यूँ पूछें कि आपकी इतनी लम्बी उम्र का राज़ क्या है ?
मेरे लिए जिंदगी एक अपार संभावनाओं की नदी के समान है | यह आप पर निर्भर करता है कि आप ‘बाल्टी’ लेकर खड़े हैं या ‘चम्मच’ !

- आप किस वाद के पोषक हैं ?
हम मायावादी हैं |

- यह कौन सा वाद है, ज़रा विस्तार से बताएं ?
मुझे मालूम था कि आप सोच रहे होंगें यह कैसा, कौन सा नया वाद है | आप दुविधा में पड़ चुके हैं इसलिए आपको न माया समझ में आ रही है और न वाद | यही मायावाद की सफलता है | हम साहित्यिक भ्रम के गोदाम में आश्वासन के तात्कालिक लालच का परदा डालकर भाषा की चाशनी में रचना का मुरब्बा तैयार कर उसे कविता के डिब्बे में पैक कर बाज़ार में उतार देते हैं | इसकी चमक-दमक को देखकर बड़े बड़े लोग इस सस्ते फार्मूले के नकली उत्पाद को महँगा और असली समझकर चकमा खा जाते हैं फिर आप किस खेत की मूली हैं | यह पूँजीवाद का साहित्यिक दख़ल है जिसे आप रोक नहीं सकते बल्कि हँसते हँसते स्वीकार करते हैं | लेखक संगठन भी हमसे डरते हैं | लेखक खुद हमसे अपना शोषण करवाने को तैयार बैठा है | इस लूटतंत्र में अनैतिकता का बोलबाला यूँ ही नहीं | वह शोषित भी होता है और अपना मजाक भी उड़वाता है | उसे इस खेल में कुछ भी हासिल नहीं होता | जनता दूर से देखकर मज़े लेती है और प्रकाशक अपनी जेब भरता है | साहित्यिक शुचिता की बात करना यहाँ एक अघोषित अपराध है | ईमानदार आदमी का यहाँ कोई काम नहीं | वह हाशिये की विषयवस्तु है | उसे चर्चा में रहने का कोई अधिकार नही | मायावादियों को चर्चें के लिए खर्चें की नितांत आवश्यकता है |

- वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में आये परिवर्तनों को किस तरह से देखते हैं ?
बहुत परिवर्तन आया है | मेरा शिष्य ‘बुखार अविश्वास’ किस तरह कविता की कमर तोड़ रहा है आपको तो मालूम ही होगा | आजकल उसके चर्चे ही चर्चे हैं | मेरा खूब नाम रोशन कर रहा है मेरा चेला | इन्टरनेट पर मेरे लाखों फाल्लोवेर्स हैं | सारे वैश्विक संकटों को धता बताते हुए कविता के बाज़ार में बूम आया हुआ है | कविता की ऐसी प्रगति पहले कभी नहीं हुई | विमर्शों की आंधी आई हुई है | धड़ाधड़ उत्सव हो रहे हैं | ‘आलूचना’ की सैकड़ों दुकानें सजी हुई है | लोग पढ़ने के अलावा सब काम कर रहे हैं | सब ओर आनंद ही आनंद है | मैं यह सब बदलाव देखकर बहुत खुश हूँ लेकिन कुछ चालू टाइप के लोगों को मेरी ख़ुशी रास नहीं आती | उन्हें समझना चाहिए कि इस पवित्र दलदल में धंसे बगैर यह सुख हासिल नहीं होगा | मैं अपनी बाहें फैलाए उन्हें अपनी ओर बुलाता हूँ | कहता हूँ मेरी शरण में आओ, लेकिन वे बिदकते हैं | मुझ पर तरह तरह के मिथ्या आरोप लगाते हैं | (हाथ उठाकर) नादान हैं वे, ईश्वर उन्हें क्षमा करे !

- अपनी रचनाधर्मिता के बारे में आप क्या कहेंगें ?
मेरी रचनाधर्मिता का ब्यौरा यहाँ एक पैरा में नहीं समाएगा | उसके लिए आप अपनी महिला मित्र के साथ कल शाम सात बजे कॉफ़ी हाउस में मिलें | वहां तफ्सील से बताऊंगा |

- वर्तमान में आप क्या लिख-पढ़ रहे हैं और क्या कुछ लिखने की आपकी योजना है
हाँ...अभी मुझे जो लिखना था वह लिखा ही कहाँ है | ‘छपास सुख’ नामक महाकाव्य, ‘पुरस्कार महात्म्य’ नामक खंडकाव्य, ‘उजाले में उल्टी’ नामक लम्बी कविता साथ ही अपनी आत्मकथा ‘बेदर्दी बालम’ और एक कविता संग्रह जिसका शीर्षक है ‘कविता में नींद’ लिखने की पंचवर्षीय योजना तैयार है | साहित्य अकादेमी से बजट स्वीकृत होते ही लोकार्पण की घोषणा करूँगा | वर्तमान में मैं हनुमान चालीसा पढ़ रहा हूँ |

- आपके विचार में कविता तथा कविकर्म क्या है ?
कविता मेरे लिए उस गाय की तरह है जिसे मैं रोज़ सुबह-शाम दुहता हूँ | कविकर्म मेरे लिए नित्यकर्म से भी बढ़कर है |

- आपके प्रिय कवि/ लेखक ?
प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, परसाई, अज्ञेय, भारतभूषण, केदारनाथ अग्रवाल, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, धूमिल, दुष्यंत, केदारनाथ सिंह, अरुण कमल, राजेश जोशी, कुमार अम्बुज आदि मेरे प्रिय कवि लेखक नहींहैं | इनको छोड़कर जो बचे उनको मैंने पढ़ा नहीं है |

- कविता आपके लिए क्या है ?
कविता मेरे लिए ‘चुल्लू भर पानी’ है जिसमें डूबकर भी कोई नहीं डूबता |

- लेखन के अलावा आपकी रुचियाँ और शौक?
जब आदमी लिखना शुरू कर दे तो अन्य रुचियाँ वैसे ही ख़त्म हो जातीं हैं जैसे कि मालदार आदमी के सिर के बाल | शौक़ीन आदमी मैं हूँ नहीं | वैसे आपके झोले में से ये बोतल जैसा क्या झांक रहा है ? क्या है दिखाइए दिखाइए ??
....................
...................
मध्यांतर........गट..गट.गट...
कुछ देर बाद...चैतन्य होते हुए – बहुत बढ़िया...
हाँ हाँ आगे पूछिए, जो पूछना है पूछिए, दिल खोल के पूछिए --

- पिछले वर्ष के साहित्यिक लिखत-पढ़त पर आपकी राय ?
यह प्रश्न आपको शिरिमान ‘सिलौटी नारायण राय’ से पूछना चाहिए | आजकल उनके स्थानापन्न ‘व्योम उत्पल’ भी चलेंगें |

- कौन-कौन सी पुस्तकें हैं जिन्हें आप बार बार पढ़ना पसंद करेंगे ?
इतना टाइम किसके पास है | अब मेरे पास क्या एक यही काम रह गया है | मैं एक बार कोई पुस्तक उलट-पुलट कर देखने के बाद उसे दुबारा छूना पसंद नहीं करता |

- साहित्य की कौन सी विधा आपको सर्वाधिक आकर्षित करती है ?
मेरा कवि मन ‘व्यंग्य’ में ज्यादा रमता है | वैसे ‘कविता’ मेरा पहला प्यार है |

- आप किस बात पर सबसे अधिक खुश होते हैं ?
जब मेरे मुँह पर कोई मेरी (झूठी) प्रशंसा करता है |

- आप किस बात को लेकर सबसे अधिक दुखी होते हैं ?
जब मेरी कालजयी रचनाओं को कोई पुरस्कार दे देता है तब साहित्य की दुर्दशा पर मुझे अन्दर से वाकई अफ़सोस होता है | लेकिन मैं इस दुःख को जाहिर नहीं होने देता हूँ | शालीनता से मुस्कुराता रहता हूँ | क्या करें, होने और दिखने में फ़र्क है भाई !

- अपनी साहित्यिक सेवा / ज़मीनी संघर्ष का कोई किस्सा बताएं ?
मेरा धुर विरोधी दुर्दांत आशावादी पिछले बीस सालों से साहित्य की एकांत साधना कर रहा था, उसकी ओर किसी ने झाँका तक नहीं | खूब संघर्ष किया उसने, घर के लोटिया-बरतन तक बिकने की नौबत आ गयी | उसकी गैरसाहित्यिक बीवी गुप्त रोग के शर्तिया इलाज़ के पर्चे छापने वाले राजू प्रकाशक के साथ भाग गयी | आजकल वही आशावादी मेरे घर में चौका बर्तन करता है और साहित्य को भूलकर चुपचाप अपना पेट भरता है | वह कब टपक जाय कोई गारंटी नहीं | मैंने उसे सहारा दिया है | यह साहित्य की सेवा नहीं तो और क्या है | उसने मेरी सेवा की अब मैं उसकी रचनाएँ अपने नाम से छपवाकर अपनी सेवा करवा रहा हूँ | सेवाओं का विशुद्ध आदान-प्रदान | आजकल सेवा में ही मेवा है |

- ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के प्रश्न पर आपका क्या कहना है ?
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रश्न पर जिसने कुछ कहा वो जिंदा नहीं बचा | मरवाओगे क्या बे !

- आपको किस बात पर गर्व होता है ?
आप भी कमाल करते हैं | मैं हिंदी का (स्वघोषित) कवि हूँ, इससे ज्यादा गर्व की बात मेरे लिए और क्या होगी |

- आप कब सच बोलते हैं और कब झूठ बोलना पड़ता है ?
मैं दूध में पानी मिलाने वालों में से नहीं हूँ | मैं पानी में दूध मिलाता हूँ |

- आपकी विचारधारा क्या है ?
मेरी कोई विचारधारा नहीं है, यही मेरी विचारधारा है |

- आपके लिए जीवन दृष्टि ?
मेरे लिए जीवन आइसक्रीम की तरह है इससे पहले कि पिघलकर बह जाए, खा लेना चाहिए | दृष्टि मेरे ईर्ष्यालु पड़ोसी की बेकाबू लड़की का नाम है जो पिछले साल अपने प्रेमी के साथ भाग गयी |

- साहित्यकार कैसे बन गये ?
आप पत्रकार कैसे बन गए ? अमा बनना था बन गए | बच्चे की जान लोगे क्या !

- आप लिखते क्यों हैं ?
आप हगते क्यों हैं ? क्योंकि जब आपको हाजत महसूस होती है आप हगे बिना नहीं रह सकते | मेरी साहित्यिक निष्ठा पर इतने वाहियात किस्म के प्रश्नों की विष्ठा मत गिराइए | बहुत पुराना सवाल है, आगे पूछो |

- आपके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार ?
कि आप मेरा इंटरव्यू लेने आए | फ़िलहाल तो मेरे लिए यही पुरस्कार है | भारत में कवीन्द्र रवीन्द्र के बाद सबसे बड़ा पुरस्कार किसी को मिला नहीं है | मुझे कैसे मिले उसके लिए आज से सोचना पड़ेगा | आपने अच्छा याद दिलाया इसके लिए आपका धन्यवाद |

- आप किस बात से सबसे अधिक डरते हैं ?
अरे कैसी बात करते हैं आप | किसने कह दिया है कि मैं डरता हूँ | मैं किसी के बाप से नहीं डरता | (इधर उधर देखकर) अच्छा चलिए आप जान गये हैं कोई बात नहीं लेकिन किसी से कहिएगा नहीं कि मैं डरता हूँ |

- आपको सबसे ज्यादा गुस्सा कब आता है ?
जब मुझे लोग साहित्य का निर्मल बाबा बुलाते हैं |

- आपको सर्वाधिक संतोष कब मिलता है ?
जब मुझे कोई अमृतपान कराता है | जैसे कुछ देर पहले आपने कराया था | मुझे परम सन्तोष की प्राप्ति हुई | संतोषम परम सुखम बाकी सब दुखम दुखम ! हैरान न होइए, मेरी अपनी लाइन है |

- रचनाकर्म आपके लिए क्या है ?
रचनाकर्म मेरे लिए बाबाजी का वह ठुल्लू है जिससे मैं लोगों को उल्लू बनाता हूँ |

- आपके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी ?
यही कि मैं सब जगह होकर भी सबको नहीं दिखता हूँ | मैं साहित्यिक मिस्टर इंडिया हूँ |

- आपकी सबसे बड़ी कमजोरी ?
मिस्टर इंडिया कह दिया तो मेरी कमज़ोरी पूछ रहा है बुड़बक | (कलाई दिखाते हुए) देख कोई घड़ी नही है मेरे पास | ई काला जादू है बबुआ...ढूंढते रह जाओगे ! (मोगाम्बो जैसी शैतानी हंसी हँसते हुए) हा हा हा हा हा हा...

- आप अपनी कोई रचना सुनाइए....अच्छा रहने दीजिये !

- नयी पीढ़ी के लिए आप क्या सन्देश देना चाहेंगे?
अब सन्देश का जमाना नहीं लाइक, कमेंट, शेयर का ज़माना है | अगर मैंने अपने इनबॉक्स संदेशों की बात सार्वजनिक की तो हंगामा बरप सकता है | वैसे मैं खुद चिर युवा हूँ | मैं खुद को क्या सन्देश दे सकता हूँ |

“आपने साक्षात्कार हेतु समय निकाला, बहुत बहुत शुक्रिया”
“अजी ऐसी क्या बात है | हे हे हे | मैं भी बहुत (आ)भारी हूँ | धन्यवाद, दुबारा फिर आइएगा”

____________________________
राहुल देव
09454112975
rahuldev.bly@gmail.com

कविता की उम्मीदों का लालिमा भरा चेहरा - अनिल कार्की के कविता संग्रह 'उदास बखतों का रमोलिया'पर महेश चंद्र पुनेठा का लेख

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अनिल कार्की संभावनाओं का एक नाम है और महेश पुनेठा सुपरिचित कवि-समीक्षक। महेश पुनेठा का अनिल के संग्रह पर लिखना सुखद है। महेश और अनिल, इस पृथ्वी पर एक ही भूगोल साझा करते हैं और मैं भी। इस समीक्षा के लिए मैं महेश पुनेठा का आभारी हूं।
***    

पहाड़ को देखने के सबके अपने-अपने नजरिए हैं-कोई उसके प्राकृतिक सौंदर्य को देखता है तो कोई उसकी भौगलिक दुरूहता को ,कोई वहां रहने वालों के सीधे-सच्चे व भोलपन को, कोई उनके अभाव, दुःख-दर्द व कष्ट को। ऐसे बहुत कम हैं जिन्होंने पहाड़ को उसकी समग्रता में देखा हो-उसकी प्रकृति, उसका सौंदर्य, समाज-संस्कृति व उसमें आ रहे बदलाव, उसकी जल-जंगल-जमीन की लूट और संघर्ष। अनिल कार्की उन युवा साहित्यकारों में हैं जो पहाड़ को उसकी समग्रता में महसूस और  व्यक्त करते हैं। उनकी कहानी हों या कविताएं, उनमें पहाड़ के लोकजीवन के रूप-रंग,रस-गंध के साथ-साथ उसका संघर्षधर्मी स्वरूप भी अभिव्यक्त हुआ है। उनके पास लोक का विस्तृत वितान और जीवनानुभव है, जिसके द्वारा वह अपने समय और समाज के सवालों को प्रतिबिंबित करते हैं। वैश्वीकरण के बाद समाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक जीवन में आए बदलावों को दर्ज करते हैं। पिछले दिनों दखल प्रकाशन से आए उनके पहले कविता संग्रह उदास बखतों का रमोलियाकी कविताओं में ये बातें साफ-साफ देखी जा सकती हैं।

अनिल कुमांउनी लोक में आकंठ डूबे हुए कवि हैं। उनकी फसकऔर ठसक’,दोनों में आप यह बात महसूस कर सकते हैं। इसी कारण वह अपनी कविताओं में एक कुमाउंनी मुहावरा गढ़ने में सफल रहते हैं। लोकजीवन और उसकी विविधताओं की जितनी बारीक समझ अनिल में है, उतनी इधर के कम ही युवा कवियों में दिखाई देती है। लोकजीवन की समझ के मामले में मुझे वह गिर्दा के नजदीक लगते हैं। अनिल में गिर्दा का जैसा पहाड़ीपन और हौंसियापन दोनों दिखाई देता है। इसलिए मैं अनिल को गिर्दा की परंपरा का कवि मानता हूं। जैसा कि वह इस बात को स्वयं भी स्वीकार करते हैं, ‘‘मेरा वह पहाड़ीपन हो सकता है जो गिर्दा के साथ ज्यादा तादात्म्य स्थापित कर पाता है। हौंसियापन गिर्दा की कविताओं के प्रति मेरे लगाव का कारण है।’’  अनिल लोकगीतों की शैली और मिथकों का बेहतरीन उपयोग करते हैं। अपनी लोक बोली से कविता को नई ऊर्जा प्रदान करते हैं। ये सब उनकी लोक के प्रति प्रतिबद्धता से ही संभव हुआ है।

युवा कवि अनिल कार्की का कवि मन अपने गांव की सबसे ऊंची जगह पर खड़ा होकर पूरी दुनिया को देखना चाहता है, अर्थात उसका केंद्र अपना जीया-भोगा लोक है, जहां कवि की उदासी और उम्मीद दोनों की जड़ें हैं। कवि का लोक बाहर से भले ही जितना खुरदुरा-उबड़खाबड़ और कठोर-चट्टानी दिखता हो लेकिन भीतर से बहुत नर्म है। यह महत्वपूर्ण बात है। अनिल ने अपनी कविताओं में जीवन के संपन्न पक्ष को नहीं बल्कि अभाव पक्ष को चुना है-

मैं उन अनाम
घायल लोगों के बीच की
कराह हूं...चीख हूं
जो मर खप जाएंगे।

यही पक्ष है जो एक सच्चे कवि को चुनना भी चाहिए। जहां अभाव और उपेक्षा है वहीं कविता की जरूरत भी है। संपन्न पक्ष के लिए तो कविता सजावट की चीज है। अभाव पक्ष के लिए लड़ने का औजार। कविता ही है जो उसे जीवन के कठिन संघर्षों में सुस्ताने की जगह उपलब्ध कराती है। ढाढ़स बंधाती है। उसकी सहचरी है जो उदासी और हताशा में साहस देती है व आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है़। मौन के खिलाफ उठ खड़े होने को प्रेरित करती है। वह जानती है कि इस व्यवस्था ने चारों ओर मौन अपेक्षित हैकी अघोषित तख्ती लगाई है, जिसका उद्देश्य इस विसंगति-विडंबनाओं के खिलाफ उठने वाले किसी भी प्रश्न को रोकना है। कविता भयानक आपदाओं के बाद भी चूल्हे जलाने की आग बनती है। श्रम का गीत बनकर फूटती है और श्रमवीर का साथ निभाती है। जो छले गए हैउनके हाथों में चटक चमकीले रूमालकी तरह लहराती है। उसकी चीख और आर्तनाद में शामिल हो जाती है। हृदय की गहराई में उतर जाती है और रक्तवाहिकाओं में रक्त बनकर दौड़ने लगती है। उसकी दुखती पीठ और चड़कती नसों परमरहम लगाती है। ये बातें आप अनिल की कविताओं में यत्र-तत्र देख सकते हैं। उनका गहरा विश्वास है कि-

एक दिन
हमारे गीत
हमारे नृत्य
जरूर युद्ध की तरफ लौटेंगे

शायद एक अलग रूप में। वह अपने सीढ़ीनुमा खेतों पर जुबान उगानाचाहते हैं। ताकि वह जवाब दे सके/हिसाब मांग सके।इस तरह अनिल की कविताओं का तेवर पूरी तरह से राजनीतिक है।

अनिल नमक को जीवन मानने वाले कवि हैं, क्योंकि वह जानते हैं-

पसीने का स्वाद नमक की तरह ही होता है
रक्त भी नमकीन होता है
आंसू की धार भी नमकीन होती है
बहती नाख भी नमकीन होती है।

लेकिन उन्हें पहाड़ों को खारा कहना उनका अपमान लगता है। उनके लिए नमकीन होना और खारा होना दो अलग-अलग चीजें हैं। खारा होना किसी के भी काम का न होना है। जबकि वह इस नमक में भविष्य के विद्रोह की संभावना देखते हैं। यह नमक उन्हें उत्तराखंड के पहाड़ों से लेकर दक्षिण अफ्रीका के आदिवासी पुरखों तक में दिखाई देता है जो ग्वाले,अहीर,शेरपा,चरवाहे,डोंगरिया आदि-आदि हैं-जिनको इतिहास के कुचक्रों का बार-बार शिकार होना पड़ा है।भले-इतिहास ने उन्हें अनपढ़,मलेच्छ घोषित किया हर बारलेकिन कवि कहता है-

वे इतिहास के उन पृष्ठों के पीछे जिंदा हैं
जिन पृष्ठों पर राजाओं,अवतारों के बोझ में उन कथाओं में जिंदा है
जिन्हें गाता है आज भी
मेरा भाई आंगन-पटांगण
मेरे ही पुरखे हैं जिनकी कथाओं में आज भी जीने की कसक है
स्वाभिमान के साथ....मेरे चरवाहे पुरखों के कंठ से पहाड़ी जलस्रोत से फूटते थे
जिनकी दुनाली मुरली में बसता था
मेहनत से उपजा संसार का महान सौंदर्यशास्त्र।

मेहनत से उपजा यही सौंदर्यशास्त्र अनिल की कविताओं का सौंदर्यशास्त्र है, इसलिए उनकी अधिकांश कविताएं पसीने के गंध से सुवासित हैं। अनिल पुरखों में अपनी पहचान की शिनाख्त करते हुए इतिहास में उनके साथ शुरू हुए शोषण-उत्पीड़न को तार्किक ढंग से वर्तमान से जोड़ते हैं-

उस समय भी समुद्र मंथन का सारा विष
परिधि पर खड़ा मेरा पुरखा पी रहा था
आज भी मथे जा रहे हैं पहाड़,पर्वत,नदियां,समंदर
आज भी पी रही है मेरी पीढ़ी विष
आज भी पहाड़ बने हुए हैं
जीते जी उनके स्वर्गारोहण की सीढ़ी।

वह जानते हैं चूसे जाने की यह श्रृंखला पहाड़ तक ही सीमित नहीं है बल्कि-

मैं भी उसी कतार में खड़ा हूं जिस कतार में खड़े हैं मेरे भाई
काले हब्शी,अफ्रीकी,बलूची,आदिवासी अब फिलिस्तीनी भी।

इस तरह उनकी कविता स्थानीयता की जमीन से पैदा होकर वैश्विकता के आकाश में फैलती है। वह साफ-साफ कहती है,‘धरती के किसी भी जगह होते हैं पहाड़।और इन  पहाड़ों में रहने वालों के संघर्ष सभी जगह लगभग एक जैसे हैं। सभी जगह पहाड़ों को काटा-पीटा-लूटा-डूबाया जा रहा है। उनकी छाती को चीरा जा रहा है। उनके गर्भ में छुपे अमूल्य संसाधनों को लूटा जा रहा है। उसे विकृत किया जा रहा है। दुनिया के सबसे ऊंचे पहाड़ों को जीतने के लिए अपने झंडों और औजारों को ढोने के लिए उनके रहवासियों की पीठों का इस्तेमाल किया जा रहा है। इतना ही नहीं उन्हीं के कंधों पर चढ़कर लोकतंत्र पर कब्जा किया जा रहा है। उनके संतानों की चीख-पुकार को अनसुना किया जा रहा है। लेकिन कवि उन्हें बहुत गहराई से सुनता है, वह पहाड़ को पहाड़बनाने वाली इजाओं(मां) की ताकत को जानता है और कहता है-

जिन्होंने पहली बार मशाल जलाकर
अंधेरी रातों में घर से बाहर निकलना सिखाया मुझे
जिन्होंने बताया रास्ते पार करना
बीहड़ों में गीत गाना
पहाडि़यों पर पैर जमाना
और अपने हिस्से की हरियाली को काटना
दुर्गम बीहड़ों से।

यह कवि की कोरी भावुकता नहीं है बल्कि पहाड़ की स्त्री की हकीकत है। पहाड़ यदि बचा है तो यहां की स्त्रियों की बदौलत ही बचा है। तमाम कठिनाइयों के बावजूद उन्होंने पहाड़ी नदियों के मानिंद बहने का जज्बा बनाए रखा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इनका हौंसिया पराण बहुत चीमड़ है।दो रोटी की तलाश में पहाड़ से नीचे उतर चुके पुरुषों की अनुपस्थिति में पहाड़ के घर-बार, खेती-बाड़ी, तीज-त्यौहार, जल-जंगल-जमीन इन्हीं के भरोसे तो बचे हैं। वह मरके भी नहीं छोड़ती अपनी जमीनें। हर दुःख में देती हैं लड़ने का हौंसला अपने संगज्योंको। दसियों किलोमीटर पैदल चलकर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र तक पहुंच जन्म देती हैं बच्चे को। कवि का यह प्रश्न बहुत गहरे तक तक सोचने को विवश करता है-

सोचो एक दिन
ये नदियां बहना छोड़ देंगी जब
तब बचेगा ही क्या
पहाड़ के पास।

यही स्त्री तो है जिसके होने में महकता रहा मध्य हिमालय का लोकजीवन।जिसके भ्यासपन में ही छिपा है उसका सौंदर्य।जिसके पास है लोकज्ञान की अनूठी गठरी। ये पहाड़ों पर नमक बोती हैं।

उगता है उनका नमक
अपनी ही बरसातों में
अपने ही एकांत में
अपनी ही काया में
अपनी ही ठसक में।....करती हैं वे संबोधित
अपनी ही भाषा में
अपने ही अनगढ़ शब्दों में पहाड़ को......उनका यह महकदार नमक सीझता नहीं
बल्कि बिखर जाता है....नमक बोती हुई औरतें
थकती नहीं
या कि उन्हें थकना बताया ही नहीं गया है....
वह अपने पतियों के बिना भी रहती हैं खुश
पति उनके लिए केवल
होते हैं पति
या फिर फौजी कैंटीन के सस्ते सामान की तरह.....
महकदार नमक लिए
चलती हैं हमेशा.....अपने देशाटन गए
पतियों से वे करती आई हैं
विद्रोह।

पहाड़ की यह स्त्री दोहरा संघर्ष करती है-पहला, पुरुषवादी समाज से और दूसरा, प्रकृति से। पुरुषवादी समाज से उसकी लड़ाई तो देश-दुनिया की आम औरत की तरह ही है, लेकिन पहाड़ों में उसकी एक और लड़ाई प्रकृति से है। घास-लकड़ी लाने जंगल गए तो कभी जंगली जानवरों के हाथों तो कभी घास-लकड़ी बटोरते खड़ी चट्टान से लुढ़कर गिरने की खबरें आम हैं। यह पहाड़ी स्त्री का एक ऐसा संघर्ष है जो उसे नगरों में रहने वाली स्त्रियों से अलगाता है। अनिल पहाड़ी स्त्री के प्रकृति के इस संघर्ष को भी अपनी कविताओं का विषय बनाते हैं-

अपने इतिहास और अपनी लड़ाइयों में
वे राजधानी से दूर
किस तरह होती हैं शामिल
किस तरह होती हैं शहीद
किस तरह करती हैं गर्व
किस तरह उगती हैं ढलानों पर
किस तरह भींच लेती हैं जमीनों को अपनी जड़ों से।

पहाड़ की औरतों का एक और यथार्थ सीमाओं में तैनात फौजियों की पत्नी के रूप में हैं। आपको पहाड़ में ऐसी सैकड़ों औरतें मिल जाएंगी जो अपनी पूरी जवानी फौज में तैनात अपने पति की यादों में सैनिकों के कार्यक्रम रेडियो पर सुनते हुएकाट देती हैं। या शहीद की विधवा का गौरव लिए खुलकर रो भी नहीं पाती हैं। अनिल उन अबोध सत्रह साला इजाओं की चीखें सुनते हैं  और उस पीड़ा को महसूस करते हैं जो अपने सैनिक पतियों से सालों नहीं मिली।इस चीख को भी बहुत मार्मिक ढंग से अपनी अनेक कविताओं में अभिव्यक्त करते हैं। कवि पति की याद में डूबी इन औरतों को-उजाड़ बाखलियों-सा/निराश आंगनों-सा/झड़ चुकी हरी पपड़ी वाले अखरोट-सादेखता है। कितना मर्मबेधी बिंब है। एक विरहणी का इससे जीवंत वर्णन क्या हो सकता है भला। यह  अनिल की बहुत बड़ी ताकत है कि वह अपनी कविताओं के रूपक और बिंब अपने ही लोकजीवन से उठाते हैं और ऐसे जो शायद ही कभी किसी कविता में आए हों। देखिए, कितनी अनूठी पंक्तियां हैं-

अब जब इस वक्त मैं तुम्हारे साथ नहीं हूं
उदासी के कंठ में चुभती है हाड़फोड़ ठंड
लेकिन तुम्हारे साथ गुजारा हुआ
हर क्षण मेरी नसों में
कबूतर के गर्म जवां खून की तरह बहा करेगा आजीवन।

अनिल की कविता लोक की जीवटता और प्रकृति से लड़ने की उसकी ताकत से अपने पाठकों को परिचित कराती है। वह बताती है कि कैसे आपदा में सब कुछ खो चुकने के बाद भी वे उठ खड़े होते हैं,दरकते पहाड़ों के सीने के बीच से पगडंडी बनाते हैं और पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी पर फिर से अपने घर और खेत बना लेते हैं-

वे झगड़ते हैं देवताओं से
चीरते हैं नदियों के सीने
भिड़ते हैं पहाड़ों से
कहते हैं शेर को बणबिल्ली
आश्चर्य!
फिर भी वे दुष्यंत के पुत्र भरत नहीं होते
जिसके नाम पर रखा जा सके किसी देश का नाम।

अंत में यहां एक बड़ा सवाल भी खड़ा कर देते हैं। एक ऐसा सवाल जो हाशिए में पड़े लोगों के प्रति मुख्यधारा के समाज के व्यवहार को प्रदर्शित करता है। संकेतों ही संकेतों में सही लक्ष्य पर निशाना साधना ,यही तो है एक अच्छी कविता की विशेषता।

अनिल एक ऐसे भूगोल से जुड़े हैं जिसे हमें आनंदोलन के भूगोल के रूप में जानते हैं। पृथक राज्य निर्माण को लेकर उत्तराखंड के निवासियों ने एक लंबा आंदोलन किया। इस आंदोलन से वहां रहने वालों की गहरी आशा-आकंाक्षाएं जुड़ी रही। स्थानीय निवासियों को लगता था कि पहाड़ी राज्य बन जाने से सरकार की नीतियों का निर्माण और क्रियान्वयन उनकी आशाओं-अपेक्षाओं और जरूरतों के अनुरूप होगा। जल-जंगल-जमीन में पूरी तरह समुदाय का नियंत्रण रहेगा। शराब नहीं-रोजगार दोजैसी चिर परिचित मांग पूरी होगी। पहाड़ी स्त्री के पीठ और मन का बोझ कम होगा। पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम आएगी। पहाड़ के पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन स्थापित होगा। यहां की प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक विविधता इस राज्य की पहचान बनेगी। लेकिन हुआ कुछ अजीब-अजीब ही। राज्य बनने के बाद छुटभैया नेताओं के बल्ले-बल्ले हो गए, जो एक ब्लॉकप्रमुख बनने की योग्यता नहीं रखते थे, केबिनेट मंत्री बन गए। माफियाओं की नई-नई प्रजातियां पनप आई। गांव वाले खुद को अपने ही गांव में भी सुरक्षित नहीं महसूस कर रहे हैं। पता नहीं किस जिंदलके बाउंसर उनके सिर को फोड़ डालें, कहना मुश्किल हैं। संघर्षशील ताकतों में बिखराव देखने में आ रहा है। राज्य बिना तंत्र की कुर्सी की भेंट चढ़ गयाहै। लोक की उम्मीदें उदासियों में बदलती जा रही हैं। ये उदासियां अनिल की कविताओं में जगह-जगह व्यंजित होती हैं। वह इस उदास बखत के रमोलियाके रूप में सामने आते हैं और राजाके प्रति अपने गहरे आक्रोश को प्रकट करते हैं। प्रकारांतर से यह उस लोक का आक्रोश है जो आज राज्य को लेकर देखे गए सपनों को टूटते देख खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है। वह कुछ ऐसा कहने को मजबूर है-

तेरी गुद्दी फोड़ गिद्द खाए
तेरे हाड़ सियार चूसे
चूहे के बिलों में धंसे तेरे अपशकुनी पैर
लमपुछिया कीड़े पड़े तेरी मीठी जुबान में
तेरी आंखों में मक्खियां भनके
आदमी का खून लगी तेरी जुबान
रह जाए डुंग में रे
नाम लेवा न बचे कोई तेरा।

कवि यहां केवल आक्रोश ही नहीं व्यक्त करता है बल्कि स्थितियों को बदलने के लिए श्रमजीवी वर्ग को जगाता भी है,जो खेत के कामगार और जमीन के दावेदार हैं। उनसे कहता है-

गांव की सीवान से लेकर
शहर की चौबटिया तक हर जगह लुट रहे हैं रे तेरे लाल
....रजवाड़े अल्पसंख्यक होकर आरक्षण खा रहे हैं
हल बाने वाले अब भी
हल बा रहे हैं...

इसलिए कवि उनसे अपने पुरखों की संघर्षशील परंपरा को अपने भीतर जगाने की अपील करता है-

ए हो मेरे पुरखो
जागो जागो रे
मेरे भीतर जागो
इस बखत के बीच में।
.....काट रे काट जाल
पौ फाड़
पूरब की दिशा जगा
जगा रे सूरज के घोडि़यों को जगा।

अच्छी बात है कि कवि उदास जरूर है लेकिन हताश नहीं है। उम्मीद का दिया उसके भीतर बलता रहता है-

देखना रे खिलेगा एक दिन जंगलों में बुरांस
भरेगा एक दिन काफल में रस
भरेंगी नदियां
कूदेगी ताल की माछी
छींड़ का पानी फोड़ेगा
डांसी पत्थर।

उनका विश्वास है कि-

तांबई बाहों वाले हमारे बच्चे
निकट भविष्य में
पहाड़ों के सर पर बजाएंगे
हरे बांस की मुरली
........धीरे-धीरे ही छटकेगा
कुहरा
आवाजें और साफ
और हमारे करीब होती जाएंगी
एक दिन ...तोड़ देंगे जंगलों का मौन....
उदासियों की कोख में जो बच्चे पल रहे हैं
वे बड़े होंगे एक दिन
अपनी कंचों भरी जेबों में समय को ठूंसते हुए
पार करेंगे उम्र.....
पहचानेंगे खामोशी की जुबां
उदासी का मतलब
जेबों से निकालेंगे समय
और कंचों की तरह बिखेर देंगे
इतिहास के पृष्ठों पर।

उम्मीदों का लालिमा भरा चेहराउनकी कविताओं के हाथों में दमकता हुआ दिखाई देता है। कवि घंटों सोचता है उम्मीद के बारे में ,घंटों चुप रहता है उम्मीद के लिए और घंटों बोलता है उम्मीद पर। यही उसे जनता का कवि बनाता है। उनका दृढ़ विश्वास है कि हमारे उदास दिन अपना रंग बदलेंगेलेकिन ये कब बदलेंगे? जब-हमारी अपनी धरती का ओर-पोर/हमारे ही पसीने की नदी में/हरियायेगा।इसके लिए हमें अपने आक्रोश और सपनोंको एक साथ मिलाना होगा। कवि को इस बात की गहरी समझ है कि जो भी बदलाव आएगा वह श्रम करने वालों की एकजुटता और संघर्ष से ही आएगा। यही संघर्षशील तबका है। इसी वर्ग की ताकत पर विश्वास करता हुआ वह शोषणकारी-दमनकारी और लूटेरी व्यवस्था को चेतावनी देता है-याद रखना!/कविता के खत्म होने का मतलब/हमेशा तालियों का बजना हो जरूरी नहीं/वह पहली और अंतिम चेतावनी भी हो सकती है/तुम्हारे लिए।कवि का यह स्वर बहुत प्रीतिकर लगता है। एक दरिन्दे समय के विरुद्धअनिल की कविता पूरी दृढ़ता के साथ गूंजती हैं। उम्मीदों से भरे इस युवा कवि से हिंदी कविता को भी बहुत अधिक उम्मीद है कि यह जीवन में रोटियों की तरहकी कुछ यादगार अवश्य कविताएं देगा। पूरा विश्वास है कि इस आवाज और इस नजर को कोई भी धन्ना सेठ या सत्ता की ताकत बेच नहीं पाएगी और न ही कोई उसके आंखों के समंदरों पर  नागफनी उगा पाएगा।
***

एक अनाम समस्या : बेट्टी फ्रीडन- अनुवाद : सुबोध शुक्ल

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सुबोध शुक्ल सुपरिचित आलोचक हैं। उनका लेखन हिंदी के इलाक़े में एक नई उम्मीद की तरह है। हमारे अनुरोध पर उन्होंने बेट्टी फ्रीडन के एक महत्वपूर्ण लेख का अनुवाद उपलब्ध कराया है। इस उपलब्धि के लिए अनुनाद लेखक और अनुवादक का आभारी है। हिंदी में विस्तार से आने वाले ये बिलकुल नए प्रसंग हैं, पाठकों से अनुरोध है कि वे इस अनुभव से गुज़रते हुए अपनी प्रतिक्रियाएं भी हमें सौंपें। हमने सुबोध से ऐसे और लेखों के लिए भी अनुरोध किया है, आशा है जल्द उन्हें हम अनुनाद के पाठकों के समक्ष रख सकेंगे।
    
एक सफल अनुवाद भाषाओं के साथ-साथ मनुष्यता के बीच भी चहलकदमी है. वह विचार को उसके अनुभवगत भूगोल में जितना स्वायत्त करता है उतना ही उसके सभ्यतागत पर्यावरण को संयुक्त भी रखता है. वह समय की चेतना का सीमाओं के समीकरण में एक सांस्कृतिक ट्रेसपास है.
               -      अनुवादक              
(यह प्रस्तुति बेट्टी फ्रीडन की विवादास्पद और चर्चित किताब ‘द फेमिनिन मिस्टीक’ से ली गयी है. यहाँ इस किताब के पहले अध्याय का अनुवाद दिया जा रहा है. इस पुस्तक का प्रकाशन १९६३ में हुआ और इसे स्त्री-चिंतन की दूसरी धारा (१९६०-१९८०) का सबसे क्रांतिकारी दस्तावेज़ माना जाता है. यह कृति फ्रीडन का अमरीकी उपनगरीय गृहिणियों के मनोविज्ञान, संस्कार, जीवन-शैली, विचार और दृष्टिकोणों पर किया गया एक अनौपचारिक शोध है जिसे उन्होंने अपने पूर्व कॉलेज ‘स्मिथ कॉलेज’ के पन्द्रहवें पुनर्मिलन पर अपने सहछात्रों  के अनुरोध पर १९५७ से शुरू किया. इसका दायरा समूचे छठे दशक और सातवें दशक के शुरुआती सालों तक का है.)
 
 
एक अनाम समस्या

कई सालों से अमरीकी औरतों के दिमाग में एक समस्या कहीं बहुत अन्दर दफ़न है जो कभी ज़बान पर नहीं आई. एक मुर्दा बौखलाहट, निर्जीव सी ललक और असंतोष का भाव, बीसवीं सदी के मध्य की अमरीकी औरतों को घेरे हुए है. हर कस्बाई पत्नी अपने अकेलेपन के साथ लड़ रही है. बिस्तर लगाती हुई, रसोई के लिए ख़रीदारी करती हुई, घर की दीवारों के रंग से मिलते-जुलते परदे और मेजपोश खरीदती हुई, अपने बच्चों के साथ पीनट बटर सैंडविच खाती, बुनकरी और घरेलू सजावट की पत्रिकाएँ पढ़ती और रात में अपने पति के बगल में लेटकर खुद से यह गूंगा प्रश्न पूछने में भी डरती कि “सब कुछ क्या इतना ही है?”    
                               
 पन्द्रह साल से कहीं अधिक का समय बीत जाने पर भी इस घुटी हुई  ललक का कोई जवाब नहीं था जबकि कितना कुछ महिलाओं पर लिख डाला गया. उनके लिए विशेषज्ञों द्वारा लिखे गये वे तमाम अखबारी स्तम्भ, किताबें और आलेख भी थे जिनमें स्त्रीत्व की पूर्णता, पत्नी और माँ बने रहने में बताई और समझाई गई थी. बारबार स्त्रियाँ उस परम्पराजीवी रीति और फ्रायडीय दुनियादारी की वे आवाजें भी सुनती आई थीं की अपने स्त्रीत्व के गौरव को बचाए रखने में ही उनका होनहार भविष्य निहित है. विशेषज्ञों ने सुझाया कि कैसे पुरुष को पाया और वश में रखा जाय, बच्चों को स्तनपान कैसे कराया जाय, उन्हें प्रसाधन में शिक्षित कैसे किया जाय, कैसे भाई-बहनों के आपसी झगड़े निपटाये जाएं, किशोरावस्था के विद्रोही तेवरों से कैसे निपटा जाय. इस बात का ध्यान रखते हुए कि बर्तन मांजने की मशीन को खरीदने से लेकर पावरोटी सेंकने, जायकेदार खाना और स्वीमिंग पूल तैयार करते हुए अपने पहनावे के साथ-साथ अधिक से अधिक नारी सुलभ होकर शादी को कैसे जोशीला बनाये रखा जाय. यही नहीं अपने पतियों की जवानी को बनाये रखने और अपने बेटों को अपराधी बनने से रोकने की सोच भी इसमें शामिल थी. उन्हें उन विक्षिप्त, अस्त्रैण और दुर्भाग्यशाली स्त्रियों पर तरस खाना भी सिखाया जाता था जो कवि, वैज्ञानिक और राजनेता बनना चाहती थीं. उन्हें बताया जाता कि स्त्रीत्व को सच्चे अर्थों में जानने वाली औरतें रोजगार-आजीविका, उच्च-शिक्षा और राजनीतिक अधिकारों की आज़ादी और अवसर नहीं चाहतीं जिनके लिए पुराने ख़यालातों वाली स्त्रीवादी महिलाएं लड़ती थीं. चालीस से पचास साल के बीच की कुछ महिलाएं आज भी अपने सपनों की उस दर्दनाक मौत को याद करती थीं पर अधिकांश  युवतियां इन सब के बारे में सोचना भी नहीं चाहती थीं. हज़ारों विशेषज्ञों ने उनके उस स्त्रीत्व और समझौते से भरे संजीदा फ़ैसले की ऊंचे सुर से सराहना की जिसमें उन्हें अपने जीवन की शुरुआती उम्र से ही एक अदद पति की खोज और फिर बच्चों को पालने-पोसने के लिए तैयार रहना था.
बीसवीं सदी के छठे दशक के अंत तक अमेरिका में महिलाओं की शादी की औसत उम्र गिर कर 20 साल तक आ गई और अब यह किशोरावस्था तक पहुँच रही थी. लगभग एक करोड़ चालीस लाख लड़कियों की सत्रह वर्ष की उम्र तक सगाई हो चुकी थी. पुरुषों के बनिस्पत महिलाओं का कॉलेज जाने का अनुपात 1920 के 47 फ़ीसदी के मुकाबले 1958 में 35 फ़ीसदी तक रह गया था. एक सदी पहले जहां औरतें उच्च-शिक्षा के लिए लड़ी थीं वहीं आज लड़कियां कॉलेज एक अदद पति की तलाश में जा रही थीं. छठे दशक के मध्य तक 60 फ़ीसदी लड़कियों ने कॉलेज शिक्षा समाप्त करते ही शादी कर ली इस भय के साथ कि अधिक पढाई उनकी शादी में बाधा साबित होगी. कॉलेजों ने ‘विवाहित छात्रों’ के लिए छात्रावास बनवाये पर पर ये छात्र हमेशा पति ही हुआ करते थे.पत्नियों के लिए एक नई तरह की डिग्री शुरू हो चुकी थी – “पी.एच.टी.” (पतियों को पा लेने का पाठ्यक्रम)
फिर अमरीकी लड़कियां हाईस्कूल के दौरान ही ब्याहता होने लगीं और महिलाओं की पत्रिकाओं ने इन कम उम्र में होने वाली शादियों के सम्बन्ध में बड़े दुखद आंकड़े पेश किये. और हाई -स्कूल स्तर पर शादी से जुड़े मामलों के लिए अध्ययन-सामग्री और विवाह सलाहकारों की नियुक्ति की वकालत की जाने लगी. जूनियर हाईस्कूल तक पहुँचते 12-13 साल की लड़कियां अपनी गढ़न में सधने लगती हैं. दस्तकार, दस साल की छोटी लड़कियों की छाती में उभार दिखाने के लिए उनकी ब्रेज़ियर में फ़ोम रबर का इस्तेमाल किया करते थे. १९६० के वसंत में, न्यूयॉर्क टाइम्समें बच्चों की पोशाकों की नाप के सिलसिले में एक विज्ञापन प्रचारित किया गया : “ वे भी पुरुषों को फांस सकने के लिए तैयार हैं.”
छठे दशक के अंत तक अमेरिका की जन्म-दर, भारत की जन्म-दर को भी पार कर रही थी. गर्भ-निरोध आन्दोलन जो अब योजनाबद्ध अभिभावकत्व में बदल चुका था को ऐसा तरीका खोजने को कहा गया जिससे कि  जिन औरतों को यह सलाह दी गई थी कि उनका चौथा या पांचवा बच्चा मरा हुआ या अपंग पैदा हो सकता है वे भी कैसे भी बच्चे पैदा करें. संख्याशास्त्री कॉलेज की लड़कियों में बच्चों के पैदा होने की असाधारण दर से अचंभित होने लगे थे. जहां कभी यह संख्या 2 बच्चों तक सीमित थी अब वह चार,पांच यहाँ तक की छः तक पहुँचने लग पड़ी थी. औरतें जो एक वक़्त अपने रोज़गार और आजीविका को लेकर प्रयासरत थीं, अब बच्चों को पैदा करने के रोज़गार में शामिल हो गई थीं. ज़बरदस्त हुलास से 1956 में लाइफ़पत्रिका ने अमरीकी महिलाओं के आन्दोलन की इस ‘घर वापसी’का जयगान किया.
न्यूयॉर्क के एक अस्पताल में, एक औरत यह जानकर कि वह अपने बच्चे को स्तनपान नहीं करा सकती, बौखलाहट से भरा प्रलाप करने लगी. दूसरे अस्पतालों में औरतों ने कैंसर से मरना स्वीकार किया पर उस दवा से परहेज़ किया जो उनके जीवन को बचाते हुए, अपने दूरगामी प्रभावों में उन्हें  अस्त्रैण’ बना सकने के खतरे पैदा कर सकती थी. दवा की दुकानों और अखबारों में एक सुन्दर, भाव-शून्य औरत की भीमकाय तस्वीर ढिंढोरा पीटते हुए कह रही थी कि “यदि मुझे एक बार जीवन मिला है तो मुझे एक गोरी और सुनहरे बालों वाली स्त्री की तरह जीने दो.”पूरे अमेरिका में हर दस औरतों में तीन अपने बालों को सुनहरे रंग में रंगती थीं. अपने नाप और आकार को दुबली-पतली मॉडल्स जैसा दिखलाने के लिए वे भोजन के स्थान पर एक ख़ास किस्म का  वज़न घटाने का आहार जो स्वाद और रंग में खड़िया की तरह था जिसे मेट्रिकल कहते थे, लेती थीं. बड़ी दुकानों के ख़रीदारों ने प्रत्यक्षतः यह महसूस किया की 1939 से आज तक अमरीकी महिलाओं की माप तीन से चार अंकों तक कम हो गई थी. एक ख़रीदार यह कहते हुए पाया गया कि “ कपड़ों की नाप से महिलाएं बाहर हो गई हैं, जबकि होता इसका उलट है.”
घरेलू सजावट करने वाले, रसोइयों की दीवारों पर पच्चीकारी और तस्वीरों को लगाकर उन्हें सजा-संवार रहे थे. एक बार फिर रसोई औरतों के जीवन का केन्द्रीय हिस्सा हो गई थी. घरेलू सिलाई-बुनाई के सामानों का कारोबार लाखों डॉलर तक पहुँच गया. महिलाओं ने ख़रीदारी करने, बच्चों को घुमाने ले जाने या सामाजिक कार्यक्रमों में अपने पति के साथ शिरकत करने के सिवाय घर से लगभग निकलना ही बंद कर दिया था. लड़कियों का बाहरी जीवन, रोज़गार सब ख़त्म होकर घर तक सिमट गया था. छठे दशक के अंत तक एक उल्लेखनीय समाजशास्त्रीय माहौल महसूस किया गया- अमरीकी औरतों की संख्या का तिहाई हिस्सा रोज़गार में लगा था पर उनमें युवतियों का हिस्सा बेहद कम था. बहुत कम संख्या में वे जीविका के लिए प्रयासरत थीं. अपने परिवार का भरण-पोषण करती विधवाओं के अलावा इनमें वे शादीशुदा औरतें भी थीं जो दुकानों या दफ्तरों में, अपने पतियों को प्रशिक्षण के लिए भेजने, बच्चों को पढ़ाने के लिए, क़र्ज़ को चुकता करने में सहयोग करने के लिए अंशकालिक कामों में लगी थीं. व्यावसायिक रोजगारों में महिलाओं की संख्या लगातार कम होती जा रही थी. नर्सों, समाज-सेविकाओं और अध्यापिकाओं की कमी के कारण लगभग हर अमरीकी शहर में संकट के हालात हो गये थे. सोवियत संघ के अन्तरिक्ष अभियान में अग्रणी होते जाने को चिंता का विषय मानते हुए वैज्ञानिकों ने यह भी महसूस किया कि अमेरिका की सबसे बड़ी अप्रयुक्त दिमागी-ऊर्जा  औरतें’थीं. पर स्त्रियाँ भौतिकी नहीं पढ़ सकती थीं क्योंकी वह ‘स्त्रीत्वहीन’ मान ली जातीं. एक लड़की ने जॉन हॉपकिंसकी विज्ञान छात्रवृत्ति ठुकरा कर भूमि-भवन संबंधी दफ़्तर में नौकरी कर ली क्योंकि वह वही चाहती थी जो सभी अमरीकी लड़कियां चाहती थीं- शादी करना, कुछ बच्चे पैदा करना और एक ख़ूबसूरत उपनगर में ख़ूबसूरत से घर में रहना.
एक उपनगरीय कस्बे में रहने वाली गृहस्थिन - यह युवा अमरीकी महिलाओं की स्वप्न छवि थी और दुनिया की तमाम औरतों की जलन की वजह भी. एक अमेरिकन गृहिणी जो विज्ञान और मेहनत बचाऊ उपकरणों के द्वारा तमाम घरेलू नीरस कामों, बच्चा जनने के खतरों और घर के बूढ़ों की बीमारियों से जूझने से मुक्त थी. वह तंदुरुस्त, सुन्दर, पढ़ी-लिखी और पूरी तरह से अपने पति, बच्चों और घर के प्रति समर्पित थी. उसने अपने स्त्रीत्व के चरम संतोष को प्राप्त कर लिया था. एक घरेलू महिला और माँ के रूप में पुरुष की बराबर सहधर्मिणी के तौर पर सम्मानित होती थी. कार, कपड़े, उपकरण, सुपरमार्केट; वह कुछ भी चुन सकने को स्वतंत्र थी. उसके पास सब कुछ था जो औरतों का सपना था.
दूसरे विश्व-युद्ध के पंद्रह सालों बाद स्त्रीत्व का यह तिलिस्मी आत्मतोष समकालीन अमरीकी सभ्यता का चहेता और मान्य तत्व बन गया. बेहिसाब महिलाओं ने अपने जीवन को उस ख़ुशनुमा तस्वीर की छवि में ढाला जो कि अमरीकी उपनगरीय गृहस्थिन के अनुरूप था; कांच की एक बड़ी खिड़की के सामने अपने पति को गुडबाय चुम्बन देती, अपनी बड़ी सी गाड़ी में बच्चों को स्कूल छोडती, अपनी बेदाग़ रसोई के फर्श पर उनकी खिलौने वाली गाड़ी को दौड़ते देख हंसने वाली. वे अपना खाना खुद बनाती थीं, खुद अपने और अपने बच्चों के कपड़ों को सीतीं और उन्हें लगभग दिन भर धोतीं और सुखातीं. एक बार के बजाय हफ्ते में दो बार बिस्तर का लिहाफ़ बदलतीं, वयस्क शिक्षा के बतौर कढ़ाई की क्लास लेतीं और उन बेचारी, अवसादग्रस्त मांओं पर अफ़सोस प्रकट करतीं जो आजीविका और रोज़गार का स्वप्न देखती थीं. श्रेष्ठ-कुशल पत्नी और माँ बनना ही उनका एकमात्र ख्वाब था. उनकी महानतम आकांक्षा पांच बच्चे और सुन्दर घर था और एकमात्र संघर्ष एक पति को पाने और उसे बनाये रखने का था. घर के बाहर की दुनिया की कथित स्त्रीत्वहीन समस्याओं से उनका कोई लेना-देना नहीं था.इन्हें बड़े और महत्व के फैसलों को लेने के लिए एक पुरुष की ज़रुरत हमेशा थी. वे अपनी स्त्री की भूमिका में गौरवान्वित थीं और पूरी ठसक के साथ जनगणना के रोज़गार वाले खाने में ‘गृहिणी’ भरा करती थीं.
पंद्रह साल से अधिक बीत जाने पर जब उन औरतों के पति दूसरे कमरों में बैठे राजनीति और दुनियादारी की बातचीत में मशगूल रहते थे उन औरतों के लिए लिखे गये शब्दों या औरतों के बीच होने वाली बातचीत में इस्तेमाल होने वाले शब्दों में अपने बच्चों की परेशानियां, उनकी पढ़ाई ,पति को ख़ुश रखने के तरीके, और फर्नीचर-मेजपोश ही शामिल रहते थे. यह बहस का मुद्दा ही नहीं था कि औरतें पुरुषों से कमतर हैं या बढ़कर, वे बस उनसे अलग थीं. ‘आज़ादी’ और ‘व्यवसाय’ जैसे शब्द विचित्र और शर्मिंदगी पैदा करने वाले बन गये थे; सालों से यह शब्द प्रयोग में लाये ही नहीं गये थे. इसलिए जब सीमोन दे बुआ नामकी फ्रांसीसी महिला ने ‘ द सेकेण्ड सेक्स’नाम की किताब लिखी तो एक अमरीकी समीक्षक ने यह टिप्पणी की “वह जानती ही नहीं कि ज़िन्दगी किसे कहते हैं. संभव है कि वह फ्रांसीसी औरतों की बात कर रही हो. “स्त्री समस्या” नाम की कोई चीज़ अब अमरीका में नहीं है.”
1950 से 1960 के बीच एक औरत यदि परेशान थी तो उसे कहीं यही आशंका थी कि उसकी शादीशुदा ज़िन्दगी में कोई दिक्कत ज़रूर है; साथ ही वह यह भी सोचती कि आख़िर वह कैसी औरत है जो अपनी रसोई के फर्श को चमकाने में वह तिलिस्मी आत्मसंतुष्टि नहीं पा रही है जो दूसरी औरतों को मिल रही है. वह अपने इस असंतोष को ज़ाहिर करने में बेहद शर्म महसूस करती थी यह न जानते हुए कि दूसरी बहुत सी महिलाएं भी वैसा ही सोच रही हैं. जब वह अपने पति से इस सिलसिले में बात करने की कोशिश करती तो उसे समझ में ही नहीं आता कि वह किस सिलसिले में बात कर रही है और वह खुद भी इसे कहाँ समझती थी. पंद्रह साल से ऊपर हो जाने के बाद भी अमरीकी महिला के लिए इस मुद्दे पर बात करना सेक्स पर बात करने से भी ज़्यादा  मुश्किल था.यहाँ तक की मनोविश्लेषकों के पास भी इसके लिए कोई नाम नहीं था. जब एक औरत किसी मनोचिकित्सक के पास सहायता के लिए जाती थी जैसा कि तमाम महिलाएं करती थीं, उनके वाक्य होते थे- “ मैं शर्मिन्दा महसूस करती हूँ”, या “ मैं निहायत पागलपन से भरी हताशा में हूँ”. “ मैं नहीं जानता कि आज की औरत के साथ मुश्किल क्या है?”, एक उपनगरीय मनोचिकित्सक ने कहा. “ मुझे इतना पता है कोई तो बात है क्योंकि मेरे अधिकाँश मरीजों में महिलाएं हैं और उनकी समस्या यौन नहीं है”.और जो बहुत सी महिलाएं मनोचिकित्सकों के पास नहीं जाती थीं, वे भी अपने को ‘कुछ भी दिक्कत नहीं है’, और ‘सब कुछ ठीक तो  चल रहा है’ जैसी बातों से ख़ुद को बहलाती रहती थीं.
पर 1959 की अप्रैल की एक सुबह, न्यूयार्क से चौदह मील दूर एक उपनगरीय विकास-खंड में मैंने चार बच्चों  की एक माँ को जो दूसरी चार माँओं के साथ कॉफ़ी पी रही थी, खासी झल्लाहट से भरी आवाज़ से ‘परेशान’ कहते हुए सुना. और सभी बिना बोले समझ गईं कि वह अपने पति, बच्चों और घर से जुड़ी समस्याओं की बात नहीं कर रही है. यकायक उन सभी ने महसूस किया कि वे एक समान समस्या से जूझ रही थीं; वह समस्या जो बेनाम है. उन्होंने हिचकते हुए आपस में यह बात करनी शुरू की. बाद में अपने बच्चों को स्कूल से घर लाने और उनके सोने चले जाने के बाद वे महिलायें यह जानते हुए, भरपूर राहत और सुकून के साथ रोईं कि वे अकेली नहीं हैं.
धीरे-धीरे मुझे महसूस हुआ कि यह बेनाम समस्या अनगिन अमरीकी महिलाओं द्वारा आपस में साझा की गई. एक पत्रिका की लेखिका होने के नाते मैंने तमाम महिलाओं से उनके बच्चों, शादी,परिवार और बिरादरी को लेकर ढेर सारी बातें की थीं. पर थोड़े ही समय बाद इस समस्या के साफ़ और भेद खोल देने वाले संकेत मिलने लगे. मैंने इस समस्या को समान रूप से उपनगरीय पशु-फार्मों, सुदूर द्वीपों से लेकर न्यूजर्सी और वेस्टचेस्टर काउंटी, मैसेच्यूसेट्स के उपनिवेशी घरों, मेंफिस के आँगन से लेकर उपनगर और शहरी इमारतों तथा मध्य-पश्चिमी क्षेत्रों की घरेलू बैठकों तक फैले देखा. कई बार मैंने इस समस्या को एक पत्रकार की हैसियत से नहीं बल्कि एक उपनगरीय गृहस्थिन के बतौर महसूस किया क्योंकि मैं स्वयं अपने तीन बच्चों के साथ न्यूयार्क के रॉकलैंड काउंटी में ही रहती थी. इस समस्या की सुगबुगाहटें मैंने कॉलेज के हॉस्टलों, अर्द्ध-प्राइवेट प्रसूतिघरों, पी.टी.ए. की बैठकों, महिला वोटर समाज के दोपहर के खानों, उपनगरीय कॉकटेल गोष्ठियों, ट्रेनों का इंतज़ार करती लॉरियों और श्राफ्ट्स(1)की हो-हल्ले से भरी ऊंची आवाज़ों वाली बातचीत में सुनीं. शाम के ऐसे वक़्त में जब बच्चे स्कूल में होते और पति देर तक दफ्तरों में, वे महिलाएं एक दूसरे से बतियाती रहतीं. मुझे लगता है कि मैंने इसे एक औरत के रूप में सबसे पहले महसूस किया और किसी सामाजिक और मनोवैज्ञानिक निहितार्थ के रूप में बाद में.
तो यह समस्या आख़िर है क्या जो बेनाम है? इसको अभिव्यक्त करने के लिए महिलाएं किन शब्दों का इस्तेमाल कर रही थीं? कभी कोई औरत कह रही होती- “पता नहीं क्यों मैं खाली-खाली महसूस करती हूँ....एक हद तक अधूरी.”कोई और कहती मिलती- “मुझे ऐसा महसूस होता है जैसे मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है”कभी-कभी वह इन  भावनाओं को नींद की गोलियों के सहारे मिटाती. कभी सोचती कि समस्या उसके पति और बच्चों के साथ थी या फिर कहीं घर को फिर से सजाने की आवश्यकता में यह समस्या छिपी थी. शायद उसे किसी बेहतर पड़ोस की तलाश है, किसी प्रेम-सम्बन्ध की या फिर एक और बच्चे की. कोई किसी डॉक्टर के पास ऐसे लक्षणों के साथ गई जिसे वह बतला ही नहीं पा रही थी- “एक थकाऊ मन ... मैं बच्चों पर बहुत गुस्सा हो जाती हूँ यह बात मुझे डरा देती है ...मैं बिना किसी वजह के रोना चाहती हूँ.” (क्लीवलैंड के एक चिकित्सक ने इसे गृहिणी-शोथका नाम दिया). कितनी ही गृहिणियों ने मुझे अपने हाथ और पंजों के छालों से रिसते हुए खून के बारे में बताया था. “ मैं इसे गृहिणी पक्षाघात कहता हूँ,”पेन्सिल्वेनिया के एक पारिवारिक चिकित्सक ने बताया. “ हाल ही में मैंने चार,पांच और छ: बच्चों वाली युवा औरतों में ऐसे लक्षण देखे हैं जो दिन भर बर्तन धोती रहती हैं पर ऐसे लक्षण डिटर्जेंट के कारण नहीं होते और यह कॉर्टीसान(2) से ठीक भी नहीं होता.”
एक बार एक महिला ने मुझे बताया कि यह भावना इतनी उग्र हो जाती है कि वह अपने घर से बाहर भाग खड़ी होती है और अकेले सड़क पर चलने लगती है या फिर घर में रहते हुए वह लगातार रोती रहती है. उसके बच्चे कोई चुटकुला सुनाते हैं तो वह हंसती नहीं क्योंकि वह उसे सुन नहीं रही होती थी. मैंने ऐसी औरत से बात की जिसने कुछ साल ‘अपने स्त्री धर्म में सामंजस्य’को हल करने के लिए और उन बाधाओं की समाप्ति के लिए ‘जो एक माँ और पत्नी के रूप में आत्म-संतोष’में आड़े आ रहे थे, एक मनोवैज्ञानिक के साथ बिताये थे. ऐसी औरतों की आवाजों में वही निराशाजनक स्वर और आँखों में विषादग्रस्त भाव थे जो अन्य महिलाओं में थे. जो कोई समस्या नहीं है कह कर ख़ुद को आश्वस्त कर लेती थीं यद्यपि वे जानती थीं एक गहरे अवसाद ने उन्हें घेर रखा है.
चार बच्चों की एक माँ, जिसने उन्नीस साल की उम्र में शादी कर ली थी, ने मुझे बताया:
मैंने वह सब कुछ किया जिसकी एक औरत से उम्मीद की जाती है- तमाम तरह के शौक, बागवानी, अचार डालना, डिब्बाबंदी, पड़ोसियों से हिलना-मिलना, गोष्ठियों में शामिल होना, पी.टी.ए. चाय-पार्टी देना; मैंने यह सब किया, मुझे यह पसंद भी आया, पर ये सारी चीज़ें किसी और बारे में सोचने का मौक़ा ही नहीं देती थीं और न इस बारे में कि असल में मैं हूँ कौन? अपनी आजीविका-रोज़गार को लेकर मेरी कोई आकांक्षा नहीं थी.मैं सिर्फ़ शादी करके बच्चे पैदा करनी चाहती थी. मैं बच्चों को, बॉब को और अपने घर को प्यार करती हूँ. कोई ज़रूरी नहीं कि आप इसे कोई नाम दें. लेकिन मैं हताश हूँ. मैंने महसूस किया है मेरा कोई व्यक्तित्व नहीं है. मैं खाना लगाने वाली, कपड़े तहाने वाली, खाना बनाने वाली एक ऐसी औरत हूँ जिसे आप तब याद करते हैं जब उससे कोई फरमाइश करनी हो. पर मैं हूँ कौन यह नहीं जानती.
नीली जींस पहने एक तेईस साला माँ ने बताया:
मैं स्वयं से पूछती हूँ कि मैं इतनी असंतुष्ट क्यों हूँ? मैं सेहतमंद हूँ, बच्चे ठीक-ठाक हैं, एक प्यारा सा नया घर है, पर्याप्त पैसा है. एक इलेक्ट्रानिक इंजीनियर के रूप में मेरे पति का स्वर्णिम भविष्य है. वह कहता है कि मुझे छुट्टी की ज़रुरत है. चलो सप्ताहांत में न्यूयार्क चलते हैं. पर असल में समस्या यह है ही नहीं. मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि हमें एक साथ मिलजुलकर काम करना चाहिए. मैं अकेले बैठ या पढ़ नहीं सकती. अगर बच्चे सो रहे हैं और मेरे पास अपना एक घंटा है तो मैं घर भर में टहलते हुए उनके उठने का इंतज़ार करती रहती हूँ. मैं कोई भी हरकत यह बिना जाने नहीं करती कि बाकी लोग क्या चाहते हैं.ऐसा तब से है जब मैं बच्ची थी और कोई व्यक्ति या कोई चीज़ हर वक़्त मेरे इर्द-गिर्द होती थी : माता-पिता, कॉलेज, प्रेम, बच्चे का पैदा होना किसी दूसरे घर में जाना. लेकिन एक दिन अचानक सबेरे उठ कर आप यह पाते हैं कि आगे बढ़ने के लिए कुछ भी नहीं है.
लांग आइलैंड के विकास खंड में रहने वाली एक युवा पत्नी बोली:
मैं बहुत अधिक सोती हूँ. पता नहीं मैं इतना अधिक क्यों सोती हूँ? पहले वाले साधारण से घर के (कोल्ड वाटर फ़्लैट(३)) मुकाबले इस घर की साफ़-सफाई में भी कोई दिक्कत नहीं होती. बच्चे दिन भर के लिए स्कूल चले जाते हैं. पर यह कोई काम नहीं है. मैं ज़िंदा महसूस नहीं करती.
1960 तक यह बेनाम समस्या विस्फोटक होने लगी थी और उफन कर ख़ुशहाल अमरीकी गृहस्थिनों के बने-बनाए चौखटों से बाहर आने लगी थी. टेलीविजन के प्रचारों में अब भी ये ख़ुशहाल गृहिणियां बर्तन धोने के झाग में चमकती हुईं और टाइमकी कवर-स्टोरी पर ‘उपनगरीय पत्नियां : एक अमरीकी परिघटना’ के रूप में’,  ‘बेहद उम्दा जीवन जीती हुईं ... वे दुखी भी हैं यह अविश्वसनीय है’, जगमगा रही थीं. पर न्यूयार्क टाइम्स, न्यूज़वीक, गुडहाउसकीपिंगऔर सी.बी.एस. टेलीविजन (“बंधक गृहिणियां”)                                                                                                                   के हवाले से अमरीकी महिलाओं का वास्तविक असंतोष  एकाएक दर्ज भी किया जाने लगा था. यद्यपि लगभग हर व्यक्ति जो इसके बारे में बात कर रहा था उसके पास इस समस्या को ख़ारिज कर देने के पर्याप्त सतही कारण मौजूद थे. इसके लिए घरेलू उपकरण सुधारने वाले निकम्मे मिस्त्रियों ( न्यूयार्क टाइम्स) को, उस दूरी को जो बच्चों को छोड़ने-लाने के बीच तय होती थी (टाइम), बहुत ज़्यादा संख्या में होने वाले अध्यापक-अभिभावक बैठकों को ज़िम्मेदार ठहराया गया. कुछ ने कहा कि इसके पीछे शिक्षा सबसे बड़ा कारण है. ज़्यादा से ज़्यादा महिलाएं शिक्षित हो रही हैं जिसने उन्हें स्वाभाविक तौर पर अपनी गृहिणी वाली भूमिका के प्रति दुखी बना रखा है. न्यूयार्क टाइम्स ( २८ जून, १९६०)ने ख़बर लगाई की  “फ्रायड से लेकर फ्रिजिडेयर(4) और सोफोक्लीज़ से स्पॉक(5) तक का रास्ता बुरी तरह से ऊबड़-खाबड़ हो गया है. सभी नहीं पर बहुतेरी युवा स्त्रियाँ जिनकी शिक्षा ने उन्हें विचारों की दुनिया में छलांग लगाने का अवसर दिया अपने घरों में घुटन महसूस करती हैं. अपनी शिक्षा के साथ वे अपने दैनंदिन कार्य का रिश्ता नहीं बना पाती हैं. नज़रबंदों की तरह वे स्वयं को ठुकराया हुआ महसूस करती हैं. पिछले साल परेशानहाल महिला कॉलेजों के अध्यक्षों के तरफ से शिक्षित गृहिणियों की समस्याओं पर दर्ज़नों तकरीरें दी गईं जिनमें इस समस्या के मद्देनज़र यह तय किया गया कि स्त्रियों को दिया जाने वाला सोलह साल का अकादमिक प्रशिक्षण पत्नीत्व और मातृत्व के लिए एक ज़रूरी तैयारी की तरह ही होता है”
शिक्षित गृहिणियों के लिए सहानुभूतिपरक माहौल बन गया था. (“ एक विभाजित मस्तिष्क वाली स्त्री की तरह... जहां कभी वे ग्रेवयार्ड कवियों पर लेख लिखा करती थीं अब वे दूधवाले का हिसाब तैयार करती हैं. जहां कभी वह सल्फ्यूरिक अम्ल के क्वथनांक का परीक्षण करती थीं वहीं आज मिस्त्रियों के बकाया हिसाब के कारण अपने बढ़ते हुए रक्तचाप को देखती रहती हैं... उनका जीवन चीखों और विलापों से भरा है.....कोई भी उनके सन्दर्भ में तनिक भी यह सोचने की कोशिश नहीं करता है कि कैसे वह एक कवि से चिड़चिड़ी औरत में बदल गयी?”)
घरेलू अर्थशास्त्रियों ने गृहिणियों के लिए घरेलू संसाधनों पर हाईस्कूल कार्यशालाओं जैसे  कुछ दूसरे व्यावहारिक सुझाव दिए. शिक्षाशास्त्रियों ने महिलाओं को पारिवारिक माहौल में सामंजस्य बैठाने के लिए परिवार और घरेलू प्रबंधन पर ज़्यादा से ज़्यादा परिचर्चाओं का सुझाव दिया. पत्रिकाओं में ऐसे लेखों की बाढ़ आ गयी जो ‘शादी को ज़्यादा रोमांचक बनाए रखने के ५८ नुस्खे’बता रहे थे. कोई भी महीना बिना किसी मनोचिकित्सक और यौनशास्त्री की किसी ऐसी नई किताब के बगैर नहीं बीतता था जो सेक्स के ज़रिये पूर्ण संतुष्टि प्राप्त करने की तकनीकी सलाहें देते थे. हार्पर बाज़ार ( जुलाई, १९६०)में एक पुरुष मसखरे ने मज़ाक किया की यह समस्या ख़त्म हो सकती है यदि महिलाओं से मतदान का अधिकार वापस ले लिया जाय. (१९वें संशोधन(6) के पहले, महिला प्रसन्नचित्त, सुरक्षित और अमरीकी माहौल में अपनी भूमिका को लेकर सुनिश्चित थी. उसने सारे राजनीतिक निर्णय अपने पति पर छोड़ रखे थे और पति ने सारे पारिवारिक निर्णय उस पर. जबकि आज की महिला राजनीतिक और पारिवारिक दोनों निर्णय ले रही है जो उस पर विपरीत प्रभाव डाल रहे हैं.”)
बड़ी संख्या में शिक्षाशास्त्रियों ने गंभीरता से सुझाव दिये कि महिलाओं के कॉलेज-विश्वविद्यालयों में चार-साला दाखिले को प्रतिबंधित कर दिया जाय. कॉलेजों की बढ़ती हुई समस्या में वह शिक्षा जो गृहिणी के तौर पर लड़कियां उपयोग में नहीं ला सकतीं वह इस अणु-युग में ज़्यादा से ज़्यादा पुरुषों के लिए ज़रूरी है.
समस्या को कुछ ऐसे अटपटे समाधानों  के ज़रिये भी खारिज किया गया, जिसे कोई भी गंभीरता से नहीं ले सकता था. ( हार्पर बाज़ार पत्रिका में एक महिला ने सुझाव दिया की औरतों के लिए नर्स और बेबी-सिटिंग का काम अनिवार्य सेवाओं के अंतर्गत डाल दिया जाय.) और उन परम्परागत नुस्खों की आवाजें भी उठ रही थीं जो सब कुछ ठीक कर देने वाली दवा की तरह हमेशा से मौजूद थे जैसे की  “प्रेम ही समाधान है”,“अंतर्मन की आवाज़ ही एकमात्र जवाब है”,बच्चे सम्पूर्णता की कुंजी हैं”, “बौद्धिक परिपूर्णता के निजी साधन”, “समूची इच्छाएं  और जीवन  नियति के संचालन में हैं.[1]
इस समस्या को यह कहकर नकार दिया गया कि गृहिणियों को समझना चाहिए वह कितनी किस्मत वाली हैं  कि स्वयं अपनी मालिक हैं, समय का बंधन नहीं है, कोई प्रतियोगिता नहीं है. क्या हुआ अगर वह खुश नहीं है? क्या उसे लगता है कि इस दुनिया में पुरुष खुश है? क्या सच में वह पुरुष बन जाना चाहती है? उसे पता भी है कि स्त्री होना उसकी ख़ुशनसीबी है?
समस्या को झटककर यूँ भी खारिज किया गया कि इसका कोई समाधान नहीं है: एक औरत होने का यही मतलब है और अमरीकी महिलाओं को यह हो क्या गया है कि वह अपनी इस स्थिति को शिष्टाचार से स्वीकार नहीं कर पा रही हैं? न्यूज़वीक ( मार्च ७, १९६०)ने इसे इस तरह पेश किया:
वह अपने उस भाग्य से असंतुष्ट है जिसका दूसरे देशों की स्त्रियाँ मात्र सपना ही देख सकती हैं. सतही और अस्तरीय निदान जो बेहद आम और फ़िज़ूल हैं उनके लिए उसका असंतोष बेहद गहरा, व्यापक और अभेद्य है.... पेशेवर खोजी दस्तों ने संकट के कारणों की एक लम्बी फेहरिश्त पहले से ही तैयार कर रखी है  ....अनादि काल से मादा-चक्र ने नारी की भूमिका को स्पष्ट कर रखा है. जैसा कि फ्रायड ने ख़ूब कहा है कि “शरीर-संरचना नियति है” महिलाओं का कोई भी समूह इन प्राकृतिक सीमाओं को बाधित नहीं कर सकता चाहे वे अमरीकी पत्नियां ही क्यों न हों. पर इन सबके बावजूद वे इसे शिष्टता से स्वीकार नहीं करतीं.... एक नई उम्र की सुन्दर, आकर्षक, हुनरमंद और समझदार माँ अपने इस रूप को नकारती है. हम उसे कहते हुए सुनते हैं कि “मैं क्या करूं?”, “कुछ भी नहीं है”, “मैं सिर्फ़ एक गृहिणी हूँ”. लगता है शिक्षा ने महिलाओं के बीच यह उदाहरण पेश किया है कि उनकी अपनी कीमत के अलावा सब कुछ मूल्यवान है.
इसीलिये उसे यह बात मान लेनी चाहिए कि “अमरीकी महिलाओं के असंतोष का कारण कहीं न कहीं स्त्रियों के अधिकार से जुडा हुआ है” और न्यूज़वीक की उस खुशहाल गृहिणी की परिभाषा से अपना सम्बन्ध बना लेना चाहिए जो कहती है- “हम इस ख़ूबसूरत आज़ादी को सलाम करते हैं और अपने जीवन पर नाज़ करते हैं. मैंने कॉलेज की पढाई पूरी की, मैंने नौकरी की पर गृहिणी की भूमिका सबसे संतुष्ट करने वाली और एक किस्म के पुरस्कार की तरह है....मेरी माँ को कभी भी मेरे पिता के काम-काज में शामिल नहीं किया गया...उसे कभी भी अपने घर से और बच्चों से दूर जाने की इजाज़त भी नहीं थी. पर मैं अपने पति के बराबर हूँ और बराबर ही उनके साथ उनकी व्यावसायिक यात्राओं और सामाजिक आयोजनों में जा सकती हूँ.”
दिया गया विकल्प एक चुनाव था जिस पर कुछ महिलाओं ने ध्यान दिया. न्यूयार्क टाइम्स के सहानुभूतिपूर्ण शब्दों में इसका ज़िक्र हुआ: “सब यह मानती हैं कि वे बुरी तरह से अवसादग्रस्त हैं.निजता की कमी, शारीरिक दबाव और पारिवारिक दिनचर्या एक कारावास की तरह है. हालांकि उन्हें अगर दोबारा सोचने का मौक़ा दिया फिर भी वे अपने परिवार और घर को नहीं छोड़ना चाहतीं.” रेडबुक ने टिप्पणी की“कुछ महिलाएं अपने परिवार, पति और समाज को धता बता कर अपनी मनमानी करना चाहती हैं. ये होनहार महिलाएं हो सकती हैं पर कदाचित ही ये सफल हो पाएं”
जिस साल अमरीकी महिलाओं में यह असंतोष चरम पर था, यह भी खबर (लुक पत्रिका)मिली कि दो करोड़ दस लाख से भी ज़्यादा अमरीकी महिलाएं जो अविवाहित, विधवा या तलाकशुदा हैं पचास की उम्र होने के बावजूद एक अदद पुरुष के लिए हताशा के स्तर तक व्यग्र हैं. अमरीकी महिलाओं का सत्तर फीसदी हिस्सा चौबीस की उम्र के पहले ही शादी करने लगता है. एक ख़ूबसूरत पच्चीस साला सेक्रेटरी छः महीने के अन्दर एक पति की खोज की उम्मीद में पैंतीस नौकरियां बदल चुकी थी हालांकि वह सब निष्फल सिद्ध हुआ. एक पुरुष को पति रूप में पा लेने के लिए औरतें एक क्लब से दूसरे में जा रही थीं, लेखा-कार्यों और नौका-चालन से जुड़े अध्ययन में दाखिला ले रही थीं, गोल्फ और स्की सीख रही थीं, ढेरों चर्चों की सदस्य बन चुकी थीं, बार में अकेली जा रही थीं.
हज़ारों की संख्या में महिलाएं अमेरिका में निजी स्तर पर मनोचिकित्सकीय परामर्श ले रही थीं. ब्याहतायें अपनी शादी से उचटी हुई थीं और अविवाहितायें उद्विग्नता और विषाद से गुज़र रही थीं. तरह-तरह के अनुभवों से गुज़रते हुए मनोचिकित्सकों ने यह पाया कि अविवाहित मरीज़ स्त्रियाँ, विवाहित मरीज स्त्रियों से ज़्यादा ख़ुश थीं. ऐसी बातों ने उन सजे-संवरे उपनगरीय घरों के दरवाज़े में एक दरार पैदा कर दी जिसने उन अधिकाँश अमरीकी गृहिणियों, जो अकेले ही इस समस्या से जूझ रही थीं, के जीवन की झलक दिखाने की कोशिश की. अचानक सभी इस मुद्दे पर बात कर रहे थे, ज़रुरत से ज़्यादा तूल देने वाला मुद्दा समझ रहे थे और हाइड्रोजन बम जैसी अवास्तविक घटनाओं जैसा मानकर चल रहे थे जो कभी हल नहीं होने वाली थी. 1962 तक उलझी-फंसी अमरीकी गृहिणियों की यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति एक राष्ट्रीय खेल का स्वरुप ले चुकी थी. पत्रिकाओं के सभी अंक, अखबारों के स्तम्भ, अकादमिक या सस्ती किताबें. शैक्षणिक कार्यशालाएं, टेलीविजन चर्चाएँ सभी इस समस्या पर बात कर रहे थे.
इन सबके बावजूद बहुत सारे पुरुष और कुछ स्त्रियाँ यह नहीं समझ पाते थे कि दरअसल यह समस्या असल है. पर वे जो ईमानदारी से इसका सामना करते थे जानते थे कि सभी सतही निदान, सहानुभूतिपरक सलाहें, धिक्कारते शब्द और शोर मचाते लोग हर प्रकार से इस समस्या को अवास्तविकता में ही डुबो रहे थे. इन सब पर अमरीकी औरतों की विडंबनात्मक कड़वी हंसी सामने आने लगी थी. उनकी तब तक प्रशंसा की गयी, घृणा की गयी, दया दिखाई गयी, विवेचित किया गया जब तक कि वे इससे पूरी तरह त्रस्त नहीं हो गईं साथ ही ऐसे उग्र और कठोर समाधान तथा बचकाने चुनाव दिए गए जिन्हें कोई भी गंभीरता से नहीं ले सकता था. शादी और बच्चों के परामर्शकार, मनोचिकित्सक और किताबी मनोवैज्ञानिक हर ओर से तमाम तरह की ऐसी सलाहें देने वालों में शामिल थे जो बताते थे अपनी गृहस्थिन वाली भूमिका के साथ वे कैसे तालमेल बैठाएं. बीसवीं सदी के मध्य तक अमरीकी महिलाओं को अपनी परिपूर्णता के लिए दूसरा और कोई रास्ता नहीं बताया गया था. बहुतों ने इस समस्या के साथ जो बेनाम थी ,अपना साम्य बैठा लिया था कुछ लगातार झेल रही थीं और कुछ उसे अनदेखा कर रही थीं. महिलाओं को, उस अनोखी असंतुष्ट सी आवाज़ जो लगातार उनके अन्दर घुमड़ रही थी न सुनना ही कम दर्दनाक लगता था.
अमरीकी स्त्रियों की इस आवाज़ को अधिक समय तक अनसुना करना और उनकी हताशा को खारिज़ करना  संभव नहीं है. एक स्त्री होने का मतलब यह नहीं है. विशेषज्ञ क्या कहते हैं इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. हर यंत्रणा के पीछे एक कारण होता है: संभवतः कारण खोजा नहीं जा सका है क्योंकि सही सवाल नहीं पूछा गया है या फिर कहीं दूर ढकेल दिया गया है. ऐसा जवाब स्वीकार नहीं किया जा सकता कि कोई समस्या ही नहीं है और अमरीकी औरतों के पास तो वह वैभव है जिसका दूसरे देशों की स्त्रियाँ स्वप्न भी नहीं देख सकतीं. इस समस्या का नवीनतम पहलू यह है कि इसे पीढ़ियों पुरानी मनुष्यता की भौतिक समस्याओं - गरीबी, बीमारी, भूख और सर्दी जैसे हालातों से जोड़कर नहीं देखा जा सकता. जो औरतें ऐसी समस्याओं से बावस्ता हैं उनको पता है किसी भोजन से उनकी भूख नहीं मिटने वाली है. यह समस्या उन औरतों के साथ भी है जिनके पति संघर्षरत इंटर्न, कानूनी कर्मचारी हैं, उनके साथ भी जिनके पति धनाढ्य चिकित्सक और वकील हैं. पांच हज़ार डॉलर से लेकर पचास हज़ार डॉलर तक की आय-वर्ग के पतियों की पत्नियां इसमें शामिल हैं. किसी किस्म के भौतिक लाभ की कमी इसके पीछे का कारण नहीं है और न ही इस समस्या को ऐसी औरतों के द्वारा मात्र सोचा जा रहा है जो भूख, बीमारी और गरीबी की तोड़ देने वाली समस्याओं से ग्रस्त हैं और मामला तब और भयावह होने लगता है  जब औरतें इस परेशानी का उपचार और ज़्यादा पैसे, और बड़े घर, दूसरी कार और बेहतर उपनगर में जाने को समझने लगती हैं.
स्त्रीत्वहानि के लिए अब इस समस्या को कि पुरुष के बराबर शिक्षा, आज़ादी और समानता ने अमरीकी महिलाओं को अस्त्रैण बना दिया है, दोष देना संभव नहीं रह गया है: मैंने कितनी ही स्त्रियों को अपनी इस क्षुब्ध आवाज़ को दबाने का प्रयास करते देखा है क्योंकि वह विशेषज्ञों द्वारा बताई गई स्त्रीत्व की तस्वीर में स्वयं को अंटता नहीं देख पाती हैं. इस समस्या की पहली कुंजी संभवतः यही है कि इसे वैज्ञानिक समझ, चिकित्सकीय पड़ताल, परामर्श और लेखकों के बनाए गए ढाँचे से अलग कर के देखे जाने की ज़रुरत है. वे औरतें जो इस समस्या से गुज़रती रही हैं अपनी पूरी ज़िन्दगी इसी स्त्रियोचित परिपूर्णता की बौखलाहट भरी खोज में बिता चुकी हैं. वे पेशेवर या जीविका से जुड़ी हुई महिलाएं नहीं हैं ( यद्यपि पेशेवर महिलाओं की कई अन्य परेशानियाँ भी हैं.). ये वे महिलाएं हैं जिनके लिए शादी और बच्चे सबसे बड़ी आकांक्षा रहे हैं. अमरीकी मध्य-वर्ग की इन उम्रदराज़ महिलाओं के लिए दूसरा कोई स्वप्न संभव ही नहीं था. ये चालीस-पचास साला औरतें जिनके कभी कोई भी स्वप्न रहे हों  उन्हें झटककर पूरी खुशी के साथ स्वयं को गृहस्थी के काम के सुपुर्द कर चुकी थीं. युवा पत्नियों और मांओं के लिए अब यह एकमात्र स्वप्न था. ये वे स्त्रियाँ थीं जिन्होंने शादी के लिए मैट्रिक और कॉलेज की पढाई छोड़ दी थी या फिर शादी होने तक कोई गैर-ज़रूरी और अरुचिकर रोज़गार को करने लग गयी थीं. प्रचलित अर्थों में यही वे औरतें थीं जो कथित ‘स्त्रीत्व’ से भरी थीं पर फिर भी समस्याग्रस्त और उद्विग्न थीं. क्या वे औरतें जिन्होंने अपनी पढाई पूरी की, गृहस्थी के अलावा भी जिनके पास ख्वाब थे, वे इस समस्या से अधिक त्रस्त थीं? विशेषज्ञ ऐसा ही मानते हैं पर इन चार स्त्रियों को सुनिए :
मैं दिन भर व्यस्त रहती हूँ और साथ ही खिन्न भी. मैं बस सब कुछ दिन भर इधर-उधर करती रहती हूँ. आठ बजे उठती हूँ- नाश्ता बनाती हूँ फिर बर्तन धोती हूँ, दोपहर का खाना बनाती हूँ फिर बर्तन धोकर कपड़े धोने और साफ़-सफ़ाई का काम करती हूँ फिर अंत में रात का खाना और बर्तन.... यही मेरा पूरा दिन है. हाँ बच्चों के सोने जाने के पहले थोड़ा आराम कर लेती हूँ. हर दूसरी पत्नी की तरह भयंकर ऊब और अकेलेपन के साथ ज़्यादातर वक़्त मैं बच्चों के पीछे ही भागती रहती हूँ.

ओह! मेरा वक़्त कैसे गुज़रता है ? मैं छः बजे उठती हूँ, अपने बेटे को तैयार करती हूँ, उसे नाश्ता देती हूँ. बर्तन धोती हूँ, नहाती हूँ, छोटे बच्चे को दूध पिलाती हूँ. फिर दोपहर का खाना खाती हूँ. और जब बच्चे झपकी ले रहे होते हैं तो मैं सिलाई-कढ़ाई और इस्त्री का काम करती हूँ जो दोपहर के पहले किये नहीं जा सकते. फिर परिवार के लिए रात का खाना बनता है. मेरे पति टी.वी. देख रहे होते हैं तब तक मैं बर्तन धो लेती हूँ. और जब बच्चे सोने चले जाते हैं मैं बालों को संवार कर बिस्तर पर चली जाती हूँ. 

समस्या सिर्फ़ यही है की आप हमेशा या तो बच्चों की मां हैं या फिर मंत्री की बीवी, आप खुद में कुछ नहीं हैं

पुरानी मार्क्स भाइयों की कॉमेडी की तरह एक रटे हुए ढर्रे पर मेरे घर की सुबह की शुरुआत होती है. मैं बर्तन धोती हूँ, बच्चों को स्कूल भेजती हूँ. फुर्ती से अहाते में लगी गुलदाउदी को देखती-परखती हूँ. वापस कमेटी बैठक के लिए कुछ फोन करती हूँ. पंद्रह मिनट अखबार पलटती हूँ ताकी दुनिया-देश की जानकारी बनी रहे. फिर दौड़कर वाशिंग मशीन के पास जाती हूँ जहां तीन सप्ताह के कपडे इतने ढेर सारे दूसरे कपड़ों के साथ पड़े रहते हैं जो किसी आदिवासी गाँव में साल भर चलने के लिए पर्याप्त होंगे. दोपहर तक मैं आराम की स्थिति में होती हूँ. इस बीच ऐसा बहुत कम है जो महत्व का हो. बाहरी दबाव दिन भर मुझे परेशान किये रहते हैं: इसके बावजूद मैं खुद को अपने पड़ोस की सबसे निश्चिन्त गृहिणियों में से एक देखती हूँ. मेरी बहुत सारी दोस्त ज़्यादा ही परेशान और तकलीफ में रहती हैं. पिछले साठ  सालों में हम जहां से चले थे वहीं पहुँच गए हैं और अमरीकी गृहिणियां एक बार फिर गिलहरी के पिंजरे में फंसी हुई हैं. यह भी दीगर है कि अब यह पिंजरे आधुनिक चादरों, आइनों और कालीनों से सजे आलीशान फ़ार्म-हाउस, या फिर सुविधाओं से भरी कोठियों में बदल चुके थे पर उनकी हालत उस समय की स्थिति से  कम दर्दनाक नहीं थी  जब उनकी दादी गिलेट और मखमल की कशीदाकारी करती हुई स्त्री अधिकारों की बात पर गुस्से में बड़बड़ाती रहती थीं.
पहली दो महिलाएं कभी कॉलेज नहीं गईं वे क्रमशः लेवीटाउन (न्यूजर्सी) और टाकोमा(वॉशिंगटन) के निर्माणाधीन इलाके में रहती हैं. उनका साक्षात्कार समाजशास्त्रियों की उस टीम ने लिया जो कामगार पुरुषों की पत्नियों पर शोध कर रहे थे.[2]तीसरी, एक मंत्री की पत्नी है, जिसने यह बात अपने कॉलेज के पन्द्रहवें पुनर्मिलन कार्यक्रम की एक प्रश्नावली को भरते हुए लिखी कि उसने कभी रोज़गार की आकांक्षा नहीं की पर काश उसने की होती.[3]चौथी, मानव-विज्ञान में शोध कर चुकी एक गृहिणी है जो अपने तीन बच्चों के साथ नेब्रास्का मे रहती है.[4]उसके यह शब्द बतलाते हैं कि शैक्षणिक स्तर पर हर तबके की गृहिणी लगभग समान अवसाद की समस्या को महसूस करती है.
तथ्य यह भी है कि आज कोई भी ‘स्त्री अधिकारों’ की बात पर गुस्से से बड़बड़ा नहीं रहा है और तो और ज़्यादा से ज़्यादा स्त्रियाँ कॉलेज भी जा रही हैं. बर्नार्ड कॉलेज से स्नातक हुए लगभग हर वर्ग का एक हाल का सर्वेक्षण बताता है[5]कि पूर्व स्नातकों का एक महत्वूर्ण अल्पसंख्यक तबका शिक्षा पर अपने अधिकारों के प्रति सचेत करने का आरोप लगाता है. एक दूसरा वर्ग शिक्षा पर रोज़गार के सपनों को दिखलाने का आरोप लगाता है. पर हाल के स्नातकों ने शिक्षा पर यह आरोप लगाया कि उसने उन्हें यह महसूस कराया कि सिर्फ़ गृहिणी या माँ होकर रहना ही पर्याप्त नहीं है; वे इस बाबत अपराध-बोध महसूस नहीं करना चाहतीं कि उन्होंने किताबें नहीं पढ़ीं या कम्युनिटी कार्यक्रमों में हिस्सेदारी नहीं की. शिक्षा का एक पके हुए घाव की तरह हो जाना भी इन स्त्रियों को समझने की एक कुंजी हो सकती है.
यदि बच्चे होना स्त्री-पूर्णता का रहस्य है तो क्या उन्होंने अपनी इच्छा से कुछ ही सालों में इतने सारे बच्चे पैदा नहीं कर लिये थे. यदि जवाब प्रेम है तो क्या उन्होंने पूरी शिद्दत और मेहनत से उसे नहीं खोजा. पर फिर भी यह संदेह बढ़ता जा रहा था की समस्या यौनाधारित नहीं है यद्यपि यह किसी न किसी तरह से सेक्स से जुडी हुई है. मैंने स्त्री-पुरुष के बीच मौजूद यौन समस्याओं के बारे में चिकित्सकों द्वारा दिए जा रहे प्रमाणों के बारे में सुना है कि पत्नियों की यौन-क्षुधा इतनी तीव्र होती है की पति उन्हें संतुष्ट ही नहीं कर पाते हैं. मारग्रेट सेंजर जो विवाह परामर्श केंद्र के मनोचिकित्सक हैं, बताते हैं – “ हमने स्त्रियों को एक यौन-पशु बना दिया है. उसका पत्नी और माँ के अलावा और कोई परिचय नहीं. उसे नहीं पता कि असल में वह कौन है. वह दिन भर, रात तक अपने पति के घर लौटने का इंतज़ार करती है जो उसे ज़िंदा महसूस कराये. और पति हैं जिनकी दिलचस्पी ख़त्म हो चुकी है. रात दर रात, एक औरत के लिए इस कामना के साथ बिस्तर पर पड़े रहना कितना संत्रासपूर्ण है कि उसे ज़िंदा महसूस कराया जाय.” यौन सलाहें परोसने वाली किताबों का और आलेखों का बाज़ार आखिर क्यों कर है?  किन्से की खोज से यौन चरमानंद की प्रचुरता को उपलब्ध हो जाने वाली   हालिया पीढ़ी में भी यह समस्या दूर होती नहीं दिखती.
इसके उलट नई किस्म की दिमागी समस्याएं महिलाओं में देखी जा रही हैं- ये वही समस्या है जो अब तक बेनाम है और एक किस्म की विक्षिप्ति के रूप में सामने आ रही है. ऐसे शारीरिक लक्षण, चिंताएं और रक्षात्मक उपाय जो यौन दमन के लक्षणों की ही तरह थे पर जिन्हें फ्रायड और उसके अनुयायी भी स्पष्ट नहीं कर पाए थे. बच्चों की बढ़ती हुई उस पीढ़ी में भी कई विचित्र तरह की समस्याएं सामने आने लगी थीं जिनकी माँएं हमेशा उनके साथ रही थीं, उनकी देख-रेख करती थीं और पढाई-लिखाई में उनकी मदद करती थीं. वे दर्द और अनुशासन को झेलने की अशक्तता, अपने निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचने की अक्षमता और बर्बाद कर डालने वाली ऊब का शिकार हो रहे थे. अब शिक्षाशास्त्री कॉलेज जाने वाले लड़के-लड़कियों में आत्मविश्वासहीनता और दूसरों पर निर्भरता को लेकर बेहद असहज हो रहे हैं. कोलंबिया विश्विद्यालय के डीन ने टिप्पणी की “ हम अपने छात्रों में साहस और समझदारी पैदा करने की अनवरत लड़ाई लड़ रहे हैं.”
अमरीकी बच्चों के शारीरिक और मानसिक कुपोषण पर एक व्हाईट हाउस सम्मलेन रखा गया: क्या वे अतिरेकी पालन-पोषण का शिकार हो रहे थे? समाजशास्त्रियों के द्वारा  कुछ संस्थाओं के साथ मिलकर उपनगरीय बच्चों  के जीवन को उन्नत करने के लिए तमाम तरह के अध्ययन, पार्टियों, मनोरंजन और खेल-स्पर्द्धाओं का आयोजन किया जाने लगा. पोर्टलैंड(ऑरेगॉन) में रहने वाली एक उपनगरीय गृहिणी यह देख कर चकित थी कि बच्चों को यहाँ ब्राउनी(7) और बॉय-स्काउट(8) की क्या ज़रुरत है? “ यह कोई मलिन बस्ती नहीं है. यहाँ के बच्चों के पास बड़े खुले मैदान हैं. मुझे लगता है की लोग ऊब-अघा गए हैं जिससे कि बच्चों को ही जमा कर के उनमें एक दूसरे के साथ मेल-जोल बढ़वाने का काम करने लगते हैं और बेचारे बच्चों के पास बिस्तर पर पड़े रहने और दिवास्वप्न देखने के सिवाय कोई रास्ता नहीं छोड़ते.”
क्या यह बेनाम समस्या गृहिणियों के दैनिक घरेलू कामों से भी जुडी हो सकती है? क्योंकि जब एक औरत इस परेशानी को शब्दों में कहना चाहती है तो वह अमूमन उसी ज़िन्दगी की बात करती है जिसे वह रोज़ जी रही है. घरेलू सुविधाओं के विवरण के जाप करने में क्या है जबकि वही उनके अवसाद का बुनियादी कारण है. क्या अपनी गृहिणी की भूमिका से जुड़ी प्रचुर उम्मीदों (बीवी, प्रेमिका, माँ,नर्स, ग्राहक, खानसामा, ड्राइवर, घरेलू साज-सज्जा, बच्चों की देखभाल, मशीनों की मरम्मत, फर्नीचर के रख-रखाव, खान-पान और शिक्षा)                  के जाल में वह फंस गयी है? उसका पूरा दिन बर्तन से लेकर कपडे धोने, टेलीफोन से ड्रायर, स्टेशन वैगन* से सुपर मार्केट तक, जॉनी को लिटिल लीग (खेल की प्रतियोगिता) में छोड़ने से लेकर जिनी को नृत्य-कक्षा से लेने और शाम को बैठकों का हिस्सा होने  तक कितने ही टुकड़ों में बंटा हुआ है. वह किसी भी काम में पंद्रह मिनट से ज़्यादा का समय नहीं बिता पाती है. पत्रिकाओं के अलावा किताबें पढ़ने का उसके पास समय नहीं है. दिन के अंत तक कभी-कभी वह इस कदर थक जाती है कि उसके पति को उसकी भूमिका में आकर बच्चों को सुलाने ले जाना पड़ता है.
ऐसी भयावह टूटन छठे दशक में बहुत सारी स्त्रियों को चिकित्सकों के पास ले गई. तो एक चिकित्सक ने इसकी पड़ताल करने की सोची. आश्चर्यजनक रूप से वह इस नतीजे पर पहुंचा कि उसके मरीज़ ‘गृहिणी-दंश’से पीड़ित हैं. एक सामान्य वयस्क औसतन दस घंटे की नींद लेता है पर वे औरतें उससे अधिक नींद की चाहना करने वाली थीं. और दिन भर में अपनी समूची ऊर्जा का बहुत कम हिस्सा ही खर्च कर पा रही थीं. असल समस्या निश्चय ही कुछ और थी, उसने सोचा- शायद ऊब. कुछ चिकित्सकों ने अपनी महिला मरीजों को दिन भर के लिए घर से बाहर रहने या शहर जाकर फिल्म देखने की सलाह दी. कुछ ने उन्हें नींद की दवाई दी. यह वह वक़्त था जब बहुतेरी गृहिणियां खांसी-जुकाम की दवाई की तरह नींद की दवाइयां ले रही थीं. “ आप एक सुबह उठते हैं और पाते हैं कि हर दूसरे दिन के तरह इस एक दिन को गुज़ारने में क्या फायदा है तो इसलिए  नींद की गोली ले ली जाती है ताकि उसकी फिक्र न की जा सके जिसका कोई फ़ायदा नहीं.”
उपनगरीय गृहिणियों के पाश के सर्वाधिक महत्व के कारणों में इसे बड़ी आसानी से चिन्हित किया जा सकता है कि उनके पास अपना कोई समय नहीं है और उनसे लगातार व्यस्त रहने की उम्मीद की जाती है. पर वे जंजीरें जो उसे जाल में फंसाए हुए हैं वह उसके मन-मस्तिष्क में ही हैं जो कि त्रुटिपूर्ण अवधारणाओं, भ्रामक तथ्यों, अधूरे सच और अवास्तविक चुनावों से मिलकर बनी हैं. उन्हें आसानी से देखा नहीं जा सकता इसलिए उन्हें आसानी से हिलाया भी नहीं जा सकता.
अपने जीवन के बंधनों के दायरे में एक औरत समग्र सत्य को कैसे समझ सकती है? वह कैसे भरोसा कर सकती है कि उसकी अन्दर की आवाज़ जब रूढ़ियों को नकारती है तो वह उस सच को स्वीकारती है जिसमें वह रह रही होती है? वे औरतें जिनसे मैंने बात की है और उनमें से जो अपने अन्दर की आवाज़ को सुन रही हैं वे बड़े अचंभित कर देने वाले तरीकों से विशेषज्ञों को चुनौती देते हुए सत्य की टोह लेने की कोशिश करने लगी हैं.
मुझे लगता है कि बड़े-बड़े क्षेत्रों के विशेषज्ञ भी सत्य को उसकी समग्रता में समझे बिना उसके अलग-अलग टुकड़ों को ही परीक्षित करते रहे हैं: मैंने मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और जैव-वैज्ञानिक सिद्धांतों-शोध व्याख्याओं में सत्य के ऐसे ही टूटे-बिखरे हिस्सों को पाया है जिनके आशयों को स्त्री के सन्दर्भ में कभी भी जांचा-परखा नहीं गया.मुझे उपनगरीय चिकित्सकों, स्त्री-रोग विशेषज्ञों, प्रसूति-विज्ञानियों, शिशु-चिकित्सकों, किशोर-चिकित्सकों, हाई--स्कूल सलाहकारों, कॉलेज अध्यापकों, विवाह परामर्शदाताओं, मनोचिकित्सकों और राजनेताओं से बात करके बहुत सुराग मिले. उनके सिद्धांतों से सवाल करके नहीं बल्कि अमरीकी औरतों से बर्ताव करने के उनके असल अनुभवों से. मुझे बहुत सारे साक्ष्य देखने को मिले जिनमें से कई सार्वजनिक नहीं किये गए हैं क्योंकि वे महिलाओं के बारे में विचारों के वर्तमान अंदाज़ से मेल नहीं खाते. ये वे प्रमाण हैं जो स्त्री, स्त्री-सामंजस्य, स्त्री-परिपूर्णता, स्त्री-प्रौढ़ता जैसे मापदंडों पर सवालिया निशान लगाते हैं, अधिकाँश महिलाएं जिनके बीच में आज भी जी रही हैं. अमरीकियों की जल्द शादी और बड़े परिवारों को  जो जनसंख्या-विस्फोट की स्थिति  पैदा कर रहे हैं, शिशु-जन्म और स्तनपान के हालिया आन्दोलन को, उपनगरीय शैलियों, नई विक्षिप्तियों,  चारित्रिक रोग के  लक्षणों और चिकित्सकों द्वारा बताई जा रही यौन-समस्याओं को मैं बिल्कुल नई रोशनी में देखने लगी. माहवारी दिक्कतों, यौन-निष्क्रियता, संकीर्णता, गर्भाधान से जुड़े भय, बच्चे के पैदा होने के समय का अवसाद, भावनात्मक टूट की बड़ी घटनाओं, बीस से तीस साल के बीच की औरतों की आत्महत्या, रजोनिवृत्ति, अमरीकी मर्दों की तथाकथित निष्क्रियता-बचकानापन, औरतों के बचपन में जांची गई उनकी बौद्धिक क्षमता और आगामी जीवन की उपलब्धियों के बीच की विसंगति, अमरीकी महिलाओं में यौन चरमोत्कर्ष की बदलती हुई मानसिकता, मनोवैज्ञानिक समस्याओं की निरंतरता और उनकी शिक्षा से जुड़ी पुराने तकलीफ़ों को जो औरतों के परिप्रेक्ष्य में हमेशा कम करके आंकी जाती थीं मैंने नए आयामों में देखना शुरू किया.
यदि मैं सही हूँ तो वह बेनाम समस्या जो ढेरों अमरीकी महिलाओं को मथ रही है वह स्त्रीत्व के ह्रास, अधिक पढाई या घरेलूपन की मांग से नहीं जुडी हुई है. यह किसी के मान्यता देने से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है. यह उन सभी नई-पुरानी समस्याओं की कुंजी है जो सालों से स्त्रियों, उनके पतियों और बच्चों को पीड़ित तथा चिकित्सकों, शिक्षाशास्त्रियों को परेशान करती रही हैं. यह एक राष्ट्र और संस्कृति के रूप में हमारे भविष्य की कुंजी साबित हो सकती है. हम लम्बे समय से स्त्री के भीतर चलने वाली इस आवाज़ को उपेक्षित नहीं कर सकते कि “ मैं अपने पति, अपने बच्चों और अपने घर के अलावा भी कुछ चाहती हूँ.”  



(1)न्यूयार्क की एक रेस्तरां चेन
(2)जलन या किसी तरह के संक्रमण में दी जाने वाली दवा
(3)निम्न-मध्यवर्गीय घर जहां गर्म पानी की व्यवस्था नहीं होती है
(4)घरेलू सामानों की एक निर्माता कम्पनी
(5)डॉ. बेंजामिन स्पॉक अमेरिका के मशहूर शिशु-रोग विशेषज्ञ थे. पांचवें दशक में बच्चों के लालन-पालन से जुड़ी उनकी किताब बेहद चर्चित रही.
(6)लैंगिक आधार पर मतदान के अधिकार से वंचित किये जाने को उन्नीसवें संविधान ( 18 अगस्त 1920) संशोधन के आधार पर अमेरिका में निषिद्ध घोषित कर दिया गया
(7)सात से दस साल की उम्र वाली लड़कियों के लिए मार्गदर्शक कार्यकलाप
(8)सात से दस साल के कद्कों के लिए मार्गदर्शक क्रियाकलाप   
 

सुबोध शुक्ल
सहायक पर्यवेक्षक
नार्थ केरोलिना कंसोर्टियम फॉर साउथ एशियन स्टडीज़
डरहम (नार्थ केरोलिना)
 

[1]‘द गिफ्ट ऑफ सेल्फ’, ‘गुडहाउसकीपिंग’ के पचहत्तरवें अंक (मई,1960) में मार्गरेट मीड और जेस्मिन वेस्ट के बीच आयोजित परिचर्चा.   
[2]‘वर्किंगमेंस वाइफ’ (न्यूयार्क, 1959), ली रेनवॉटर, रिचर्ड.पी.कोलमेन, गेराल्ड हेंडल    
[3]‘इफ वन जेनेरेशन कैन एवर टेल एनदर’ बेट्टी फ्रीडन, स्मिथ पुराछात्र त्रैमासिक पत्रिका, नॉरथम्पटन, मैसच्यूसेट्स, शीतकालीन अंक, 1961. मैं सबसे पहले इस बेनाम समस्या से जिसको मैंने बाद में ‘स्त्री-विडंबना’ से जोड़ कर देखा, 1957 में परिचित हुई जब मैंने पंद्रह साल पहले स्नातक हो चुके अपने सहछात्रों के बीच एक सर्वेक्षण करने के लिए गहन प्रश्नावली तैयार की. इस प्रश्नावली को रेडक्लिफ और दूसरे महिला कॉलेजों के पुराछात्रों के बीच में भी लगभग सामान परिणामों के साथ बाद में उपयोग में लाया गया              
[4]‘व्हाई यंग मदर्स फील ट्रैप्ड’ जां और जून रॉबिन्स, रेडबुक, सितम्बर, 1960   
[5]‘ऐल्युम्नी ऑन परेड’ मेरियन फ्रीडा पॉवरमेन, बर्नार्ड पुराछात्र पत्रिका, जुलाई, 1957   

नयार की लहरों का लेखा-जोखा ‘मल्यो की डार’ - अनिल कार्की

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गीता गैरोला की संस्मरण पुस्तक की समीक्षा

         
मैं याद को केवल जगह (स्पेस) नहीं मानता और न वर्तमान से पलायन की शरणस्थली। मैं स्मृति को पलायन या किसी खास समय व जगह के विरुद्ध खड़ा करने का पक्षधर रहा हूँ, स्मृति को राजनीतिक मानते हुए। स्मृतियाँ कैसे औजार बनती हैं, यह बात गीता गैरोला की किताब मल्यो की डारसे और स्पष्ट होती है। इस संग्रह में लोक के बदलने की घटना केवल एक रोमांचक घटना नहीं है, बल्कि हृदय विदारक घटना है। यह किताब गुमनाम स्त्रियों, लोगाें के हाड़-मांस, अस्थि-मज्जा का ही नहीं, आत्मा और जनमन का इतिहास भी हैं। लोकजीवन में भाषा ही अपने आप में एक स्मृति-कोष है। गीता गैराेला के लेखन में आये लोकबोली के शब्दों के बहाने बचपन के आँगन तक पहुँता जा सकता है। शब्द मूझे हमेशा बूढ़ी दादी से स्नेहिल लगते हैं, जितने सरल, उतने ही गूढ़ और उलटबाँसी सा कलेवर लिये हुए।
          स्मृतियाँ हमारे जेहन में कभी स्थिर नहीं रहती वे तरल होती हैं। वे गतिशील जीवन से ससन्दर्भ जुड़ने लगती हैं। वे हमारे अवचेतन में करवट बदलती रहती हैं। उम्र के साथ उनके अर्थ व सन्दर्भ संश्लिष्ट ही नहीं, बहुआयामी भी होते जाते हैं। स्मृति हमारी पक्षधरता के साथ समकालीन सन्दर्भों से जुड़ जाती है। स्मृति ठीक उन मिथकों की तरह इस्तेमाल होने लगती हैं, जिन्होंने अतीत से वर्तमान की यात्रा करते हुए, अपने सैद्धान्तिक स्वरूपों व दार्शनिक अर्थों को खुद ही तोडा़ और खुद ही गढ़ा भी। इतिहास व आस्था के दायरों में बने रहने के बावजूद भी मुझे लगता हैं किस्मृति एक अलग तरह की मिथक हैं, जो घटित होने के बाद भी स्वरूप और दृष्टी के लिये तरसती रहती हैं। आगत समयों में वे अपने घटित होने के लम्बे अन्तराल में जब दृष्टि पाती हैं और समय का दबाव जब उसे देखने के लिये राजनैतिक पक्षधरता प्रदान करता है तो वह मल्यो की डारजैसे एक अलग दस्तावेज और अलग विधा का रास्ता अख़्तियार कर लेती है, जो अपार संवेदना से भरे लोक के साथ ही शहरों के अजनबीपन को पूरी तरह  व्यक्त करता है। अपनी खास वैचारिकी से और वर्तमान सन्दर्भ के साथ ही जीवन के गहरे जाकर चीजें छूने और उन्हे समझने की छटपटाहट का सग्रंह है मल्यो की डार। जिसका शिल्प और लय का प्रस्थान बिन्दु, अपार संवेदनाओं वाले मनुष्य और तकनीकी समय में मशीन बनते मनुष्य के साथ ही वर्तमान वैश्वीकरण के अन्तरद्वंद्व से उपजा है।
          खैर यह तो निशचित ही हैं कि परिधि की छिटकी अस्मिताओं, वंचित, समूहों के लिये स्मृति बहुत काम का औजार हो सकती है। स्मृतियाँ स्त्रियोंके साथ दलित तबकों का इतिहास लिखा सकती हैं, पर इसके लिये बहुत सचेत होना होगा। गीता गैरोला बहुत सचेत होकर पूरी किताब में उन बिन्दुओें को छूती हैं, जिनमें स्त्रियांहैं, आम किसान, मजदूर हैं और बाजार व अभिजातीय तबकों द्वारा लील लिया गया एक सरलमना मनुष्य है। यह किताब इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यहाँ जीवन में विचार है, विचार में जीवन नहीं, न अतिस्त्रीवादी आग्रह और न ही मशीनी सिद्धान्त के प्रति जबरन मोहग्रस्तता। हाँ, यह जरूर है कि यह किताब एक खास किस्म की स्त्रियोंके अन्तरमन को पूरा उकेर के सामने रख देती हैं। इधर कुमाऊँ की तरफ ब्राह्मण स्त्री का साहित्य में आया जो सबसे प्राभवी मेरे जेहन में उभर के आता है, वह है गुरुवर शैलेश मटियानी की कहानी सुहागिन का, लेकिन मैं चकित हूँ कि सुहागिन के बाद अगर हमें कहीं फिर दुबारा से कोई इतना सघन प्रभावी चित्र और स्वानुभूत सत्य मिलता हैं तो वह है गीता गैरोला का संस्मरण घने कोहरे के बीच’, बहुत गज्जब का संस्मरण है यह, जो धीरे धीरे वर्ग का जातीय चरित्र खोल के सामने रख देता है। माई फूफूजैसी गुमनाम औरत के बहाने हम पहाड़ में स्त्री शोषण का कच्चा चिठ्ठा पढ़ पाते हैं।
        बच्चों के मोह मे फंसी माई कब जीजा के मोह जाल में उलझ गयी, पता ही नहीं चला। जीजा को बच्चों की आया के साथ ही अपना दिल बहलाने के लिये एक खूबसूरत खिलौना मिल गया इस रिश्ते को न तो जीजा ने कोई नाम दिया न माई के माईके वालों ने ही कोशिश की। जाने कितने जाड़े कितनी बरसातें निकल गई। नयार में पता नहीं कितने बरसातों का पानी बह गया।
          गीता ने पन्द्रह अगस्त के बहाने जहाँ आज के उथले राष्ट्रवाद को शुरूआती ईमानदार राष्ट्रवाद के बरक्स देखने की कोशिश हैं, वहीं वे अपने बेटे के बहाने अपने बचपन में पहूँच के कर्जु भैजी जैसा चरित्र पकड़ लाती हैं, जो पन्द्रह अगस्त को स्कूल के सूट सिलता हैं और पूरे गाँव के लिये दलित हैं। आजादी के इस मोड़ में पीछे छूट गये लाखों लाख लोगों को प्रतिनिधित्व करते कर्जु के बहाने गीता ने पहाड़ी सामन्ती समाज की जो झाँकी प्रस्तुत की वह बहुत अधिक विश्वसनीय ही नही प्रामाणिक भी है।
मेरे बचपन में कपड़े सिलने का काम औजी किया करते थे गाँव के पूरे मवासे उनकी वृति में बँटे रहते थे....उनकी जजमानी बँधी रहती थी इसके लिये उन्हें मजदूरी देने का रिवाज नहीं था।
          देवताओं का खेलअपनी स्मृति-कोष को दुरस्त करता और मौखिक परम्परा को ग्रहण करने का शुरूआती खेल प्रतीत होता है। संम्भव है जो पहाड़ में पैदा हुआ हो उसने जरूर देवताओं का खेल खेला ही होगा, उनकी नकल की ही होगी। मल्यो की डारसंस्मरण भी परम्परा ग्रहण की शुरूआती तालीम का संस्मरण है, जब पुरखे खेल-खेल में हमें परम्परा का हस्तातंरण कर देते थे और हमें उसका अन्दाजा तक न होता था। मल्यो की डार पढ़ते हुए मैं स्वयं भी अपने बचपन के आँगन लौट आया। कुणाबुडके बहाने एक प्रयोगधर्मा दादा का चरित्र उभर के सामने आया है, जो पहाड़ों में फैले अन्धविश्वास को नकारता है। इन सब संस्मरणों में लोक के इतने सघन बिम्ब है कि पूरा परिवेश चरितार्थ होने लगता है। मेरे मास्टरजी कई कई ढंग से पहाड़ के जातिवाद व स्त्री विरोधी मानसिकता का पर्दा उठाता संस्मरण है, जिसमें गुमनाम संघर्षशील प्रयोगधर्मा शिक्षक अन्थवाल मास्टर को गीता ने एक बार पुनः जीवित कर दिया है। एक शिक्षक के सामाजिक दायित्व बोध के मानकों पर खरा यह मास्टर किस तरह दलित बच्चों के द्वारा लाया पानी पाने के बाद आलोचनाओं में घिर जाता है, किस तरह वह लड़कियों को भाषण और गीत नृत्य सिखाने पर लाँछित होता है इसका कच्चा चिट्ठा है यह संस्मरण।
          मैं शुरू मैं ही कह आया हूँ कि मैं स्मृतियों राजनैतिक चीज मानते हुए, उन्हें किसी खास समय के विरुद्ध खड़ा करना चाहता हूँ।  पहाड़ों में हिन्दू-मुस्लिम गंगाजमुनी परम्परा के बहुत मोहक उदाहरण मिलाते हैं पर जब से राम ने भाजपा ज्वाइन की तब से लगातार वैमनस्य बढ़ता सा गया है। गीता गैरोला के नजीब दादाइसी गंगाजमुनी परम्परा के वाहक है। वैसा चूड़ी बेचने वाला मामूली सा अपार संवेदनाओं भरा पात्र पुनः केन्द्र में दिखाई देता है। जिसकी पहनाई चूड़ियाँ गीता को आज भी याद हैं। मल्यो की डारएक अजब संस्मरण है, स्मृतियों का अजायबघर है। जिसके हर पन्ने में पहाड़ की विहंगम झाँकिया दिखाई देती हैं। चख्कू, चौमास, बिजी जा, स्याही की टिक्की, आ ना मासी धंग, एक रामलीला ऐसी भी, सामूहिकता का रिवाज, नखलिस्तान, गाँव के तरफ, सभी संस्मरण विषयवस्तु के साथ ही विधागत दृष्टि से भी अद्भुत है। गीता ने जगह जगह पर लोकगीतों का भी प्रयोग खूबसरती से किया है।
          इधर पहाड़ में लम्बे समय से इतने प्रभावी और नपे तुले संस्मरण मेरे देखने में नहीं आये है, जो एक अलग तरह की बहस की माँग करते हैं। हमारा लोक केवल महान ही नहीं है, उसमें भी सामन्ती और स्त्री विरोधी व्यवस्थायें हैं, जातिवाद गहरे तक जड़ें जमाये बैठा है। तमाम किस्म के सवालों से जूझता यह संग्रह मल्यो की डारइस समय की एक जरूरी किताब हैं, जिसे नयार नदी के लहरों का लेखा- जोखा कहा जा सकता है, जो सभ्यता के मुहाने से वर्तमान तक पहुँची हैं। इस किताब को पढ़ते हुए मैने महसूस किया कि कम से कम हमारी नई पीढ़ी को इस किताब तक जाना ही चहिए और इस बहाने आज के पहाड़ पर बात होनी चाहिए।

प्रकाशक - समय साक्ष्य, 15फालतु लाईन देहरादून।
              पृष्ठ संख्या-158, मूल्य 200रुपयें मात्र 

अनिल कार्की की नई कविताएं

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अनिल की आंचलिकता से भ्रमित मत होइए, वह अपनी कविताओं के जाहिर दिख रहे स्थानीय आख्यानों में हमारे जीवन और वैचारिकी के महाख्यान छुपा देता है। जीवन सदा स्थानीय ही होता आया है पर उसके आशय समूची मानव-जाति के उत्थान-पतन के बीच संभलने-पनपने के रहे हैं। अनिल की इन नई कविताओं में जो गरिमा है, उसे मैं सलाम करता हूं। इतिहास भर नहीं, इतिहासपूर्व की स्मृतियां भी इन कविताओं का हिस्सा बनी हैं। सुखद है देखना कि अंतत: एक नौजवान हमारे लोक में व्याप्त मिथकों को समकालीन जीवन के रचाव में इस तरह लिख रहा है। पाठकीय प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा।
कवि अपनी इजा(मां) के साथ
 
रं साथी के लिये

(उन सभी रं साथियो के लिये जो नस्लीय  टिप्पणी के शिकार हुए और हो रहे हैं . इस उम्मीद में कि हम इस अमानवीयता के खिलाफ आवाज बुलन्द करेंगे)
1.
तुम्हारे चेहरे
नैन नक्श पे जो भूगोल है
सबसे बड़ा दावा है
तुम्हारे होने का इस धरती पर
वे जो तुम्हारे भूगोल को नकारते हैं
वे तुम्हें नकारते हैं
तुम्हारी जमीनों को नकारते हैं
या कि हड़प लेना चाहते हैं

अव्वल तो भूगोल और जाति में
हेड और टेल हो जाता है लोकतंत्र
सिक्के के दो पहलू होने के बावजूद भी
सिक्के को एक ही नज़र से देखती हैं सत्तायें

साथी!
तुम्हारे लिये
जगहें जातियाँ
जातियाँ जगह भर हैं
जिसमें बैल, भेड़, घोड़े, खच्चर
झुप्पओं के अलावा
एक स्नेहिल कुत्ता भी मौजूद होता है सदैव

कुत्ते में अपनापन होना एक प्राकृतिक स्वभाव है
और आदमी में कुत्तापन होना
आदमी होने की गरिमा
तुम पर उनकी नस्लीय  छींटाकशी
इसी गरिमा का  प्रमाण भर है

जबकि तुम
सफेद बुराँश-सी शान्त
हिमाल की नदी हो
नदियाँ जिनके पाट
सभ्यताओं के प्रतीक हैं।

2.
तुम्हारी च्यूंभ्याला1पोशाक
अडिग हिमाल सी फबेगी हमेशा
ओ नन्दा की पुत्री!
खौंगली2का चांदी
हिमरेख-सा झलकेगा हमेशा
तुम्हारे कण्ठ में

इयू-ज्यूस3
रामगंगा, कालीगंगा और गोरीगंगा सी
हिमाल की बयार में
बलखाती रहेंगी
लटकती ज्यूंज्यू4का झक्क सफेद रंग 
गंगा के पानी सा
सागर तक जाने को रहेगा आतुर

जबकि तुम्हारे बब्चै5हिमाल को
जकड़े रहेंगे अपने मोह में
और हिमाल चमका करेगा
तुम्हारी ही स्वर्णिम आभा से
युगों युगों तक

3.
तुम रहना अपने एकांत में
केलड़ी6के फूल-सी
सेमल के नर्म फाहों के भीतर
उड़ती रहना बीज की तरह
ढुंगछा7सा बचे रहना

तुम शहर की तरफ आओगी तो
घूरेंगे तुम्हें लोग
तुम्हारे जंगलों से ज्यादा खतरनाक
जानवर
तुम्हारे प्रेतों से भी
ज्यादा खतरनाक
नीयत वाले सियार

तुम झुण्डों में आओगी तो वे
दुकानों-दड़बों में बैठ के करेंगे छीटाकसी
तुम अकेले में आओगी तो
पास आके छूना चाहेंगे तुम्हें
तुम प्रतिकार में चुपचाप चल दोगी तो
पीछे से उछाल लेंगे
तुम्हारे नैन नक्श पर
फब्तियाँ

यह तुम्हारी पराजय कतई नहीं है
साथी!
यह उनकी वर्षों से
तुम्हें न जीत पाने की झल्लाहट है

तुम आना उतर के रोज शहर की तरफ
अपना भूगोल ले के
और धड़धड़ा के गुजरना
चौकों, मॉल, दुकानों से
रेस्त्रां में काफी पीना
और घरों में ज्या8

4.
अब मालूसाही9नहीं है
रह गई है रजुला 
अपने एकान्त में
प्रेम मे पगी
हजार साल पुरानी प्रेमिका की तरह

मालूशाही अब वाकई बदल गया है साथी
राजाओं का क्या हैं
वे बदल ही जाते हैं
पहले तो राजाओं की रीढ़ें नहीं होती थी
अब उनके सींग और पूंछ भी लुप्त हो गए हैं
उन्हें  पहचान पाना मुश्किल है इस बखत
तब भी कौन सा निभा पाया था वह तुम्हारा प्रेम
जो अब निभायेगा

चहकना खूब
भाड़ में जायें राजकुंवर
पर हाँ, सोचना कभी
इस तरफ अभी हैं कुछ
संगी साथी तुम्हारे
तुम्हारी तरह के।


    1.    एक रं परम्परागत पोशाक
    2.    गले मे पहना जाने वाला चाँदी का गहना जिसकी तुलना पूर्व से ही सम्पूर्ण हिमरेखा के साथ की जाती रही है
    3.    मालाओं के नाम जिनकी तुलना पूर्व से ही हिमालय से निकलने वाली नदियों संग की जाती है
    4.    एक सफेद कपड़ा  जो अलग से रं स्त्रीयों  के पारम्परिक  पोशाक में पैरों की तरफ लटका रहता है जिसकी तुलना पूर्व से ही गंगा नदी के साथ    की जाती है
    5.    परम्परागत जूते
    6.    एक पहाड़ी  फूल
    7.    पत्थर पर पीसा हुआ नमक (छा)
    8.    नमक डली चाय
    9.    एक नान रं कत्यूर राजकुमार जिसने रं बाहदुर लड़की से प्रेम किया। 

***

पलटनिया पिता
(सैनिक पिता)

1-
काले रंग का तमलेट
सिलवर का टिप्पन
चहा1पीने वाला सफेद कप्फू
एक हरिये रंग की डांगरी
बगस के किनारे
सफेद अक्षर में लिखे
नाम थे
पलटनिया पिता

बगस के भीतर रखे उसतरे
ब्लेड, फिटकरी का गोला
सुई, सैलाई,
राईफल को साफ करने वाला
फुन्तुरु  और तेल
कालाजादू बिखेरते फौजी कम्मबल
हुस्की, ब्राण्डी, और रम की
करामाती बोतल थे
पलटनिया पिता

धार पर से ढलकती साँझ
पानी के  नौलों में चलकते सूरज 
चितकबरे खोल में लिपटे
टाँजिस्टर पर बजते
नजीमाबाद आकाशवाणी थे
पलटनिया पिता

पलटनिया पिता के
खाने के दाँत और थे
और दिखाने के दाँत और

देशभक्ति उनके लिये
कभी महीने भर की पगार
कभी देश का नमक
कभी गीता में  हाथ रख के खाई कसम परेट थी
कभी दूर जगंलों में राह तकती
घास काटती ईजा
कभी बच्चों के कपड़े लत्ते जैसी थी

आयुर्वैदिक  थी देश भक्ति
च्यवनप्राश के डब्बे-सी
आधुनिक थी देशभक्ति
मैगी के मसाले-सी
लाईबाय साबुन की तरह
जहाँ भी हो
तन्दुरस्ती का दावा करती सी

इसके  अलावा पलटनिया पिता
हमें मिले
कई बार
कई-कई बार

मसलन
फिल्मों में
और तारीखों में 
पन्द्रह  अगस्त की तरह
छब्बीस जवनरी की तरह

कुहरीले राजपथों में
जोशीले युद्धों में
पंक्तियों में
कतारबद्ध चलते हुए
हाके जाते हुए।

2.
पलटनिया पिता
तुम जब लौटोगे
भूगोल की सीमाओं से
और देश की सीमाओं से
मनुष्यता की सीमा के भीतर

जेब से बटुआ निकाल लोगे
निहार लोगे
ईजा की फोटुक
बच्चों की दन्तुरित मुस्कान
जाँच लोगे मेहनत की कमाई
एक दिहाड़ी मजदूर की तरह

कहीं किसी पहाड़ी स्टेशन में
(जो अल्मोड़ा भी हो सकता है)
उतरोगे बस से
बालमिठाई के डब्बों के साथ
पहुँचोगे झुकमुक अंधेरे में
अपने आँगन

मिठाई के डब्बे से
निकाल लोगे एक टुकड़ा मिठाई
मुलुक मीठे मिठाई सा
घुल आयेगा बच्चों की
जीभ पर

जबकि देश पड़ा रहेगा
लौट जाने तक
रेलवे टिकट के भीतर 
या संसद में होती रहेगी
उसके संकटग्रस्त होने की चर्चा

१-    चाय
 ***

‘ग्यस’
(एक पुराने लालटेन (ग्यस) को देखकर। राज्य बनने के सोलह साल फिर याद आये)

कहीं अतीत में
पहाड़ों के सर पे रोशनी के फूल थे तुम
तुम्हारे भीतर
सुतली का मैन्टल चमका करता था
चनरमा सा

काज बरातों में
उतर आती थी जून1
पटाल वाले आँगन में

ओ ग्यस !
हमारे अन्धेरे समय के साथी
तुम्हें होना पड़ा है विदा
उजले अच्छे दिनों में

जबकि
हमारे गाँव
आज भी तुम्हारे कर्जदार हैं
और हमारे बेटे भी
जिनके पैदा होने से लेकर ब्याह तक जले थे तुम रात भर

यही सोचकर कि
एक दिन वे ग्यस में बदल जायेंगे
और चमकेंगे तुम्हारी ही तरह
धार-उलारों2पर
पहाड़ों पर

चोबाटों3में उलझे हुए
बेटों के पुरखे हो तुम ग्यस
तुम्हारे बेटे जलते भी नहीं
और बुझते भी नहीं

वे अधिक जगह घेरते हैं
तुम कम जगह से
अधिक दूर तक उजाला देते थे
वे अधिक जगह में भी
कानी टार्च से टिमकते हैं
जातियों के पक्षधर वे लोग
पहाड़ से इतर
क्षेत्र और गुटों में
मोमबत्ती से पिघल रहें हैं
उनके बस में कहाँ
ग्यसहोना!

1.    चाँदनी
2.    उतरायी चढ़ाई पहाड़ों की
3.    चौराहे

प्रदीप अवस्थी की दस कविताएं एवं वक्तव्य

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वक्तव्य
 

दो बातें बहुत ज़रूरी हैं लगातार लिखते रहकर अपने समय को जितना हो सके दर्ज करते रहना और जो अनुपस्थित हैं, जिनसे चाहकर भी उस तरह संवाद नहीं हो सकता जैसा हम चाहते हैं,उनसे बात करते रहना | यह दोनों काम मैं सहज रूप में कविता के माध्यम से कर पाता हूँ | पिछले कुछ वर्षों में अकेलेपन ने जीवन का बड़ा हिस्सा भरा | आप अंदर से मचलते हों पर सुनने वाला कोई ना हो,ज़रूरी हो जाता है कि लिखकर बाहर निकाल दिया जाए | मैंने ऐसे ही कविता का सहारा लिया है अपने भारी क्षणों को थोड़ा सहनीय बनाने के लिए | मेरे ख़याल से तो गहन पीड़ा के क्षणों में ही कोई अपने पहले शब्द लिखता है | यह देखने की बात होती है कि आगे वह किस तरह बढ़ता है | यही मेरे लिए भी रोचक रहेगा कि आगे मेरी यात्रा क्या रूप लेती है |
       थोड़ी सी बात माहौल की भी | बहुत लोग कविता को बचाने की बात करते हैं | मुझे लगता है कविता हमें बचाती है, हम कविता को नहीं | यहाँ जो चुपचाप लिख रहे हैं, उनपर ध्यान नहीं जाता किसी का | क्या यह अब ज़्यादा ज़रूरी हो गया है कि रोज़ ऐलान किए जाएँ कि देखिए मैं लिख रहा हूँ या हमेशा से ऐसा ही था | मैं पिछले दो साल के माहौल को देखकर ऐसा कह रह हूँ | कई अग्रज परेशान और मायूस भी दिखते हैं कि कविता का क्या होगा | मेरा आप बताएं, लेकिन कुछ लोग तो हैं जो वाकई बेहतरीन हैं | जो खालिस होगा, वह टिकेगा और सामने आएगा ही | बस एक और बात यह कि तोड़-फोड़ भी होने दीजिए | कोई भी विधा खांचे में बंधने वाली नहीं |  
 
1)अजनबी लड़कियाँ प्रेमिका नहीं होतीं

   सुबह चार बजे
   दस अंको का एक नंबर
   जिसका एक-एक अंक छपा है छाती में
   भेजता है आवाज़
   व्यस्त होने की ।

   दिल गिरता है पाताल में कहीं
   मैं शब्दकोष निकालता हूँ
   जहाँ भरोसा लिखा है
   घबराते दिल और काँपते शरीर से 
   वह पन्ना फाड़ कर खा जाता हूँ
   धोखा लिखा हो जहाँ
   वह पन्ना जेब में लेकर
   चलता चला जाता हूँ क्षितिज तक

    प्याज़ काटते हुए अचानक
    दाँए हाथ के अँगूठे पर पड़ता है चाकू
    टप-टप गूँजती है आवाज़ बेआवाज़ दुनिया में
    गिरता हुआ लाल रंग आँखों में भर आता है 
    अतीत में गिरता चला जाता है अतीत
    फिर भी बच जाता है ।

    कि बिल्कुल अभी दिल को अंदर ही अंदर भींच रहा है कोई  
    और नींद की गोलियां सिरहाने आ पहुँची है
    मैं उन्हें गटककर सो जाता हूँ
    कैसे बताऊँ !

    किराए के कमरे घर नहीं होते
    अजनबी लड़कियाँ प्रेमिका नहीं होतीं
    ज़मीन खुरचने से नाख़ून बढ़ने बंद नहीं होते
    दीवारों से लिपट कर रोने से कम नहीं होता प्यार ।

2) हमारी स्त्रियाँ हमें लौटा दो.

    हमने घर बनाए
   उनकी चौखटों से बाँध दिया औरतों को
   घर की नींव में गाड़ दिया उनकी खनक को गहरे
  बुनियाद उतनी पक्की जितनी भीषण उनकी चुप्पी
  उनके लिए पैदा किया बच्चे
  हवादार रोशनदान वाली रसोईयां कर दी उनके नाम
  घर आबाद रहे, इसके लिए
  सांसें बचाए रख बाकी सब मार दिया उनका
  पीढ़ियाँ यूँ बीतीं ।

   आंटे में कब घुला आंसुओं का नमक
   गले का पानी कब सूख गया
   बच्चे कहते इतनी चिड़चिड़ी क्यों है माँ !

   ख़त लिखते थे पिता,लिखते रहे
   माँ ने छोड़ा लिखना ख़त आख़िरकार 
    
   जब स्त्रियाँ छोड़ देती हैं लिखना ख़त
   तब लौट आते पुरुष कि ध्यान नहीं दे पाया
   ध्यान जबकि वे दे ही रहे थे
   कि भूख का इलाज और कोई नहीं
   और जैसे वे कहते हैं
   घर के आँगन में अंकुरित नहीं होंगे रुपए
   अमरूद की तरह तोड़कर नहीं खाए जा सकेंगे सिक्के

    पर हाय ! स्त्री का पत्थर हो जाना
    जो जा सकती है चली जाती है कहीं और
    जो नहीं जा सकती वो पागल हो जाती है
    बच्चे कराते इलाज.

    तोड़ क्यों नहीं देते इन घरों को
    यह दुश्मन है हमारी स्त्रियों के

    हमारे पेट की भूख वापस दे दो और निकाल लो हमारी आँखों से सपने हाथ डालकर
    हमारी स्त्रियाँ हमें लौटा दो.

3) उनके दुखों में थे कपड़े जिनसे स्तन भी एक ही ढँकता था 

    बहुत अँधेरा है माँ
   इतना कि ये ट्यूब लाइट मेरी आँखों में उतर आती है
   सब कुछ इतना साफ़ दिखाई देता है कि कुछ नहीं
   एक दाग़ नहीं अँधेरे के चेहरे पर
  बरसों से एक ज्वालामुखी दहक रहा है अंदर
  मैं किसी सर्द जमी हुई नदी की बर्फ़ में दब जाना चाहता हूँ |

   कितने दिन जिंदा रह सकता है अकेला आदमी बिना हँसे
  एक दिन जब घिर आती है उदासी की बूँदें आँखों में
  तो ठहर-ठहर हँसता है |

 कितनी रातें बीत गईं ऐसी जुड़वा बच्चों जैसी
 जिनकी माँ ढूँढने पर भी नहीं मिलती
 कहाँ होंगी वे ?

 उन्होंने शहर बदल लिए होंगे
 या नदी में कूद मृत्यु की चाह में बचाई होगी ज़िन्दगी
 उन्हें किसी खेत में लूटा गया होगा या मख़मली बिस्तर में  
 बाहर गुड्डे गुड़िया की शादी कराती होंगी बच्चियां
 प्यारे भाई छीनकर तोड़ते होंगे गर्दनें
 आदमी तो फिर भी मार दिए जाएंगे
 औरतों को छोड़ दिया जाएगा नंगा करके 
 खेतों से लौटकर वे छुएँगे माओं के पैर लेंगे आशीर्वाद
 और पत्नियों की छाती में मूँह रखकर सो जाएंगे
 कि पेट में बच्चा है और लक्ष्मी ही आनी चाहिए घर में |

 इतना अँधेरा !
 काली रात की आँखों में काजल भरना कहूं तो कैसा मनहूस सा लगता है ना !
 नज़र उतारो कोई इन रातों की लोभान का धुआँ करो रे |

 मैं जब कह नहीं पाता था जैसा कि अक्सर था
 जैसा बनाया गया था या बन गया था मैं अपने आप
 तो लिख देता था
 उन्हें लगता कि....

 हमारे दुखों में इतना सुख तो था कि उन्हें सोच कर लिखा जा सकता था
 उनके दुखों में थे कपड़े जिनसे स्तन भी एक ही ढँकता था 
और माँगकर खाना जिसे बेशर्मी समझते रहे आप पूरी बेशर्मी से
कितने गर्भों में भर दी गईं थी अनचाही संतानें
 उन्हें भी तो खींच कर निकाल लिया गया दंगों में एक बार
माफ़ करना इस ज़िक्र से कहीं मैंने पहुंचाई हो राष्ट्र को कोई क्षति
आसमान से कंचे खेलती इमारतों का निर्माण हो रहा है देश में
भीतर सब अच्छा है,सब मर्यादा में

आओ
उन बच्चों को ढूँढते हैं
जिन्हें फ्लश कर दिया गया शौचालयों में
फ़ेंक दिया गया जंगलों में या दबा दिया गया मिट्टी में
माएँ तो उनकी खो गईं जैसा ऊपर लिखा था मैंने
वे लटक गई हैं,उनकी नसें चटक गई हैं
वे बाज़ारों की रौनक हैं,
वे ज़माने भर की हवस को अपने जिस्म में संभाल रही हैं
वे जहाँ भी हैं,यहाँ या वहाँ,लौट नहीं सकती,
आप उन्हें एक रास्ते पर भेज देते हैं,फिर ध्वस्त कर देते हैं वह रास्ता

रुकिए यहाँ !

ऊपर लिखा,यह सब काल्पनिक है
इसपर तनिक भी विश्वास नहीं करना
बच्चे बड़ा होने से मना कर देंगे वरना  
लड़कियां हो जाएँगी इतनी समझदार कि गर्भ में ही
अपनी नन्ही हथेलियों से घोंट लेंगी अपना गला
फिर हवस का क्या होगा ?

मुझे अपना दुःख तुझसे कहना था माँ,क्या क्या कह गया 
वहाँ सबसे कहना ऐसा कुछ नहीं होता
यह तो बस ख़बरें हैं जो हम टीवी में देखते हैं

मैं कहता जाता हूँ चरणस्पर्श
माँ कहती जाती है ख़ुश रह
फ़ोन कट जाता है
फिर रात आती है
ऐसी रात !

4)...इतने में ख़ुदकुशी की ख़बर आती है

    सूरज जब डूबता है
   कौन छीन लेता है उससे उसकी चमक

   कोई दो बजे का वक़्त होगा रात में
   या जितना भी आप रखना चाहें
   रोता है कुत्ता
   बड़ा मनहूस कहते हैं लोग पर कौन जाने
   कहीं काँच चुभ गया हो पैर में

   मेरे सोते हुए शरीर में से उठकर चल देता है एक शरीर
   और दिन-भर बैठकर मुझे देखा करता है
   मैं भाग बस उसी से रहा हूँ
   कई सारे कटे-फटे निशान हैं उसकी नंगी छाती पर
   और तुम मनाए जाने की गहरी इच्छा लिए रूठती हुई
   कंधे झटकती हो मेरी हथेलियों से तो रुक जाता है मेरा भागना
   अपनी आँखें रख देता हूँ तुम्हारे सीने में
   तो रास्ता बदल लेती हैं मुफ़लिसियाँ

   अजनबी शहर से लौटते बार बार
   अजनबी होते जाते घर की ओर
   ठहरने और लौटने की कश्मकश में
   कट-कटकर गिरते थोड़े यहाँ-वहाँ

      ...इतने में ख़ुदकुशी की ख़बर आती है
      मैं पिछली बार के घावों पर बर्फ़ घिसता चला जाता हूँ
     जैसे बचपन में नहलाते समय माँ कोहनी का मैल छुड़ाने को रगड़ती थी ईंट का टुकड़ा
     दुनिया की सारी बर्फ़ पिघल रही है माँ
    और मैं अपने दिनों की उल्टियों में जी रहा हूँ
    ऊपर से इन ख़बरों ने दुभर कर दिया है जीना
    विदा दो....

    भाषा असमर्थ हो जाती है
  शब्दों की पीठ पर लदे अर्थ फिसलने लगते हैं
  रुदन अपने लिए होता है
  अपने भीतर के ताप को कम करने के लिए
  ताप इतना आता कहाँ से है !

  मत कहना I

5) यह पहली आग है

  मैं रूठकर पलट गया हूँ ग़ुस्से में
 वह एक झटके में उठकर बैठ गई है
 उसका दिल आँखों से निकलकर
 सामने की दीवार पर चिपक गया है

 अब मैं चाह रहा हूँ कि वह मुझे रिझाए
 वह चाह रही है कि मैं उसके अपमान को समझूँ

 उस रात हमारे बीच बिस्तर पर आग की एक रेखा है
 यह दूसरी आग है
 जो दिलों को बर्फ़ की तरह जमा देगी

 रूठने के बजाय
 माथा चूमना था मुझे
 और आग के बरसने का इंतज़ार करना था
 यह पहली आग है
 इसे उम्र भर दिलों में जलना था

 और क्या !
 मुझे बस तुम्हारे तिलों से दोस्ती करनी है
 तुम मेरे घाव पहचान लेना । 

6) यदि मेरी अनुपस्थिति तुम्हें नहीं टीसती

  यदि मेरी अनुपस्थिति तुम्हें नहीं टीसती
  तो अच्छा हुआ मैं अनुपस्थित रहा तुम्हारे जीवन में

  यदि उस अनुपस्थिति की टीस में इतना ज़ोर नहीं
  कि मुझ तक पहुँच सकने वाली आवाज़ लगा ली जाती
  तो अच्छा हुआ कि इतना ज़ोर नहीं था टीस में

  भट्टी सा तपता था तुम्हारा मन यदि
  और अहंकार भी बचाए रखना था
  या एक वेदना थी भीतर जो चीखने को मूँह खोलती थी
  और झुलस जाती थी ज़ुबान,
  जो भी था
  हर दोष मेरे मत्थे क्यों !

  मोह मुझे नहीं खींचता अब
  उपेक्षा एक आदत में बदल चुकी है
  और मैं
  कुचला जा चुका हूँ |

7)  फिर कभी नहीं लौटे ! पिता

हाफलौंग की पहाड़ियाँ हमेशा याद रहेंगी मुझे ।   

     वॉलन्टरी रिटायरमेंट लेकर कोई लौटता है घर 
     बीच में रास्ता खा जाता है उसे ।
     दुःख ख़बर बन कर आता है
     एक पूरी रात बीतती है छटपटाते 
     सुध-बुध बटोरते ।

     अनगिनत रास्ते लील गए हैं सैकड़ों जानें ।
     एक-दूसरे से अपना दुःख कभी न कह सकने वाले अपने
     कैसे रो पाते होंगे फूट-फूट कर ।
     

     असम में लोग ख़ुश नहीं है
     बहुत सारी प्रजातियाँ अपनी आज़ादी के लिए लड़ रही हैं
     उनके लिए कोई और रास्ता नहीं छोड़ा गया है शायद ।
     हथियार उठाना मजबूरी ही होती है यक़ीन मानिए 
     कोई मौत लपेटकर चलने को यूँ ही तैयार नहीं हो जाता ।

     आप देश की बात करते हैं,
     युद्ध की बात करते हैं,
     देश तो लोग ही हैं ना !
     उनके मरने से कैसे बचता है देश ?

     बॉर्डर पर,कश्मीर में,बंगाल में,छत्तीसगढ़ में,उड़ीसा में,असम में
     मरते है पिता
     उजड़ते हैं घर
     बचते हैं देश ।

     अख़बारों में कितनी ग़लत खबरें छपती हैं,यह तभी समझ आया । 
     
     सामान लौटता है !
     गोलियों से छिदा हुआ खाने का टिफ़िन,
     रुका हुआ समय दिखाती एक दीवार घड़ी,
     बचपन से ख़बरें सुनाता रेडियो,
     खरोंचों वाली कलाई-घड़ी,
     खून में भीगी मिठाइयाँ,
     लाल हो चुके नोट,
     वीरता के तमगे,
     और धोखा देती स्मृति ।
     
     कितनी बार आप लौट आए
     वो मेरी नींद होती थी या सपना या कुछ और
     जब चौखट बजती थी और आप टूटी-फूटी हालत में आते थे
     फिर कुछ दिनों में चंगे हो जाते थे
     ऐसा मैंने कुछ सालों तक देखा
     अब वो साल तक नहीं लौटते ।

     हर बार सोचा कि
     इस बार जब आप आएंगे सपने में
     तो दबोच लूँगा आपको
     सुबह उठकर सबको बोलूंगा कि देखो
     लौट आए पापा
     मैं ले आया हूँ इन्हें उस दुनिया से
     जहाँ का सब दावा करते हैं कि नहीं लौटता कोई वहाँ से,
     ऐसी सोची गई हर सुबह मिथ्या साबित हुई ।

     काश फिर आए ऐसा कोई सपना
     फिर मिल पाए वही ऊर्जा
     एक घर को
     जो पिता के होने से होती है ।

     हे ईश्वर !
     कोई कैसे यह समझ पैदा करे कि बिना झिझके सीख पाए कहना
     “पिता नहीं हैं 

    और कितनी भी क़समें खाते जाएँ हम
    कि नहीं आने देंगे किसी भी और का ज़िक्र यहाँ
    पर एक समय था,एक शहर था बुद्ध का,एक साथ था,
    फल्गु नदी बहती थी ,
    विष्णुपद मंदिर में पूर्वजों को दिलाई जाती थी मुक्ति ।
    हम यहाँ दोबारा आएंगे और करेंगे पिण्ड-दान
    ऐसा कहती,भविष्य की योजनाएँ बनाती एक लड़की
    जा बैठी है अतीत में कहीं ।

    आख़िरी स्मृतियों में बचती है रेल,
    प्लेटफार्म पर हाथ हिलाते हुए पीछे छूट जाना।
    उस आख़िरी साथ में पहली बार उन्होंने बताए थे अपने सपने । 
    
    सात साल पहले इसी दिन वो लौटे
    हमने उन्हेँ जला दिया ।
    फिर कभी नहीं लौटे
    पिता ।

8)  लेकिन उनके लिए या अपने लिए क्या हूँ 

     मैंने औरों के प्रति बरती ईमानदारी   
   इसमें अपने प्रति ग़द्दारी छिपी थी |

   वे प्रेम जैसा कोई शब्द पुकारते हुए मेरे पीछे दौड़े
   मैं यातना नाम का शब्द चिल्लाते हुए उनसे बचकर भागा |

      गिड़गिड़ाते हुए लोगों की आँखों में झाँककर देखा जाना चाहिए
   वे बचाना चाहते हैं कुछ ऐसा
   जो जीवन भर सालता रहेगा |

   कहानियाँ बस शुरू होती हैं,ख़त्म कभी नहीं
   ख़त्म हम होते हैं |

    और मैं कहना बस यह चाहता था कि
   मैं उन्हें पहचानता ज़रूर हूँ
  लेकिन उनके लिए या अपने लिए क्या हूँ
  मैं नहीं जानता |

9) जो बाद में पूछते पागल क्यों ?
    नींद में मारे जाते कोड़े     
    सोने से लगता डर
     
    कोयला मेरे गले में
    पर मैं काला नहीं

   कितने अच्छे लगते हैं ना 
   हँसते हुए लोग
   पर जब वे हँसते हों किसी के रोने पर !

  मोम पिघलता कानों में
  आवाज़ की खनक बढ़ती जाती
  सब रास्ते बंद करके कहा जाता
  वापस लौटो ।

  दिमाग़ में घूमता सारा ब्रह्माण्ड
  मेरे ब्रह्माण्ड में एक ही इंसान

  जब आप मेरा नाम पुकार रहे होते हैं
  मैं वहाँ होता ही नहीं
  जूझते हम सपने में
  बचाता कोई ।

  यह पागलपन उन्होंने ही दिया
  जो बाद में पूछते पागल क्यों ?

10) और मुझे लगता रहा कि इंसानियत भी बचाई जा सकती है

  वे लगातार खोज रहे हैं नए-नए शब्द
 दुनिया भर के शब्दकोशों से,
 बड़ी मेहनत से रच रहे हैं नित नए और मुश्किल वाक्य,
 वे जन्म दे रहे हैं नए मुहावरों को
 और दिनोंदिन होती जा रही हैं उनकी कविताएँ और जटिल
               
 वे जटिलता बचाने और सबसे महान कवि कहलाने की होड़ में हैं शायद |

 और मुझे लगता रहा कि
 इंसानियत भी बचाई जा सकती है कविताएँ लिखकर |

 एक बार एक बड़े कवि ने मुझसे कहा कि
 जो बातें हम किसी से कहना चाहते हैं और कह नहीं पाते
 वह बातें करने का ज़रिया है कविता
 और इस तरह मैंने अपनी माँ, पिता,भाई, दोस्तों
 पूर्व-प्रेमिका और प्रेमिका से की बहुत सारी बातें |

 मुझे आज भी यही सही लगता है |

 शब्दों और वाक्यों को रचने की अय्यारी भर कविता बची है बस
 उनकी एक बात दिल तक नहीं पहुँचती,
 कहीं कोई टीस नहीं उठती,
 उनके लिखे से कहीं कोई ज़ख्म फिर नहीं दुखता
 और वे इस समय के लोकप्रिय कवि हैं |
***
प्रदीप अवस्थी
9930910871
मुंबई
(कवि,गीतकार और फ़िलहाल पटकथा लेखन में सक्रिय)









अरुण देव की कविताएं

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हर दूसरा आदमी या तो कुफ्र है
है या देशद्रोही 
- अरुण देव की कविता हमारे समय का बयान हैं। यहांदी जा रही कविताएं पाखी में छप चुकी हैं औरइनकी आवाज़ एक गूंज पैदा करती है। इसी गूंज को अनुनाद दुबारा साझा कर रहा है। The Hindu में शफी किदवई ने अरुण की इन कविताओं पर टिप्पणी की है, उसे भी अनुनाद अपने पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहा है। 

Of blood and tears 


Arun Dev’s collection of poems not only brings out the incongruities of life with a sense of satire but also gives a unique perspective to the poetic persona of Malik Mohammed Jaisi through a short poem. Awe-inspiring creative exuberance at times produces maudlin and curious public perception but whatever is stashed away in the collective consciousness bristles with unmapped terrain of truth. It can only be brought to light by creative reasoning and this is what a short poem on the celebrated Oudhi poet Malik Mohammad Jaisi wraps up. The poem composed by talented young Hindi poet Arun Dev whose collection of poems “Koi Jagah to Ho” (There must be a space) won him Maithli Sharan Gupt national honour, revisits the popular belief about the author of trail-blazing romantic epic “Padmawat”. The poet endorses the popular perception as Jaisi's ground-breaking long poem “Padmawat” is nothing but a full throated cry against the arrogance of the power that be: Aiysa kaha jata hain ki apne ant samay mein Malik Mohammad Jaisi Bagh mein badal gaiye the/ Agar theekh se padhen Padmavat to usme bhi yeh dahar sunai parti hai/ Satta ke ahankar par ek kavi ki dahar/( It is said that Malik Mohammad Jaisi transmitted himself into a Tiger during his last days /If Padmawat is read carefully, its roar becomes audible / It is the poet’s cry against the arrogance of the establishment). Arun Dev through multiple focalisation offers a unique perceptive to jog our memory about Jaisi, the icon of Oudhi poetry, and turns attention to the unanswered questions related to the poetic persona of the poet. For him Jaisi’s creative dexterity enabled him to portray the spiritual side of the life of desire with cadence. His poetry peels away the layers of ignominy that he had felt at having found his unprepossessing appearance the object of sheer ridicule but his poetry got widespread adulation even from the jeering crowd: Soulhivin Shatabi ke sufi Jaisi ke kurup pe hasne wale/ Unko sun kar rone lagte thhe /Unki kavita rakt aur ansu se likhi gai thi (The people who scoff at the unsightly appearance of Jaisi, the sufi poet of the sixteen century/ start crying their eyes out/ His poetry is made up of blood and tears.) Arun Dev whose two collections of poems including “Koi to Jagah to Ho” (These must be a space) to his credit, recited poems in the North East and Northern writers meet organised by the Sahitya Academy recently. His another poem “Is samay mein” (At this time) repudiates the dominant narrative of our time that draws its sustenance from religious identity and nationalism. With his penetrating irony the poet muses on a situation shaped by the insensitive contemporary society that fills the narrator of the poem with despair and bewilderment: Cheezen Nahin Ho Rahin Har Pal/ Dharmo Mein Kisi Trarah Ke Badlaw Ki Koi Technic Nahin Hain Hamare pas/ Har Doosra Admi ya to Kufr Hai/Hai Ya Desh Drohi (Things are not changing every moment/ We do not have any technique to change the religion/Every other person is either infidel or traitor.) In one of his refreshingly evocative and nuanced poem ‘Voiceless’ the young poet who edits a reputed literary web magazine ‘Somalochna’ initiates a dialogue between nature and man that takes place at the level of voice and sound. The poet concludes that crying too has natural disposition but if one decides to weep soundlessly then we must understand that the time has come to raise voice against all pervading decline and decay. The poet is completely lost to realise that universal truths and emancipatory ideologies have ceased to exist. The threat of an indissoluble uniformity produces in him a strong sense of dejection. Arun Dev’s poems “Chahat” (Love) “Rafi Ke liaye Ek Sham” (An evening dedicated to Mohammad Rafi) and “Vigyapan Aur Istri” (Advertisement and woman) try to encapsulate the vicissitude of contemporary life and narrator of the poems strives for going beyond the familiar reality to come to grips with the ever changing social values. Usurpation of values by cross commercialism sets in motion weird euphoria that produces plenty of darkness. Arun Dev eschews long-winded description and concentrates on polarization of sensitivity that resists stifling harmonization. The poet’s poems shun every streak of self-indulgence, sentimentalism and quick witted responses wrapped in statements and for him usual staid props seem to be some sort of anathema. His poem exhorts us to rely on visual senses more than the analytical sense. Arun Dev’s poetry acquaints us to a parallel reality in which there is no trace of fusion of emotive content His pungent sarcasm hardly recedes into self pity and his many poems are endowed with a marked sense of love when is gradually waning as a central motif of the poetry. Arun Dev’s poems betray a rare ability to fathom human psyche that stomachs the incongruities of life with a sense of satire. For him poetry is the only means of much desired redemption.
SHAFEY KIDWAI
१.
इसी समय में

अजानों में धमिकयां थीं गेरुए टीके हिक्कारत से दमकते
भावनाओं के जख्मों से बहते लहू में लिथड़े थे शहर और कसबे
सर काटने को लम्बे जुलूस थे
पंचायतें थीं प्रेम के प्रतिशोध में
और नफरत की आंधी में कुछ दिख नहीं रहा था

मजहब की इबारतें इतनी मजबूत हुईं कि
कि उसकी छत में छिपना मुनासिब समझ रहे थे सब

न कोई कुछ कहता न इंकार करता
जहाँ थे सब चुप थे

जो जगहें थीं कहने सुनने की वहाँ अब कायदे थे
गुस्ताखी की सज़ा मौत थी

निरीह गायों से डर लगता
धर्म की किताबें किसी मानव बम से कम नहीं
कहीं भी फट सकती थीं

एक अदृश्य ताला था हर एक ज़बान पर

मिलने जुलने की जगहें जमीन और आकाश के बीच कहीं थीं
उसका हर पल अहसास होता पर वह थीं नहीं
हालांकि हम वहां देख सकते थे सुन सकते थे कह सकते थे

उसकी ताकत का एहसास तब होता जब उसके कारण
बंद हो जाते बाज़ार

चीजें नयी हो रहीं हैं हर पल
धर्मों में किसी तरह के बदलाव की कोई तकनीक नहीं है हमारे पास

हर दूसरा आदमी या तो कुफ्र है
है या देशद्रोही.

२. 
जायसी

सोलहवीं शताब्दी के सूफी कवि जायसी के कुरूप पर हँसने वाले
उनको सुन कर रोने लगते थे
उनकी कविता रक्त और आँसुओं से लिखी गयी थी

उनके मुरशिद-पीरशाह मुबारक बोदले जागते रहते थे
पोस्ते का पानी उन्हें थोड़ी देर के लिए सुला जरुर देता था

जायसी ने अपनी पहली कविता पोस्तीनामा अपने पीर को सुनाई
उन्हें पीर के रतजगों का इल्म न था
और एक मुसलसल जगे हुए आदमी से वह अपनी कविता में
नशे के खिलाफ दूर तक चले गए

उसी रात छत गिरने से दब गए मालिक मुहम्मद के सभी बच्चे
ऐसा माना गया

जायसी के विलाप से पोस्ते-दाने का जब नशा टूटा
शाह मुबारक बोदले ने कहा जाओ तुम्हारी किताबें कयामत तक तुम्हें जिंदा रखेंगी

सूर्य की तरह तपता सुल्तान शेरशाह अस्त हो गया
चूर-चूर होकर गढ़ मिटटी में मिल गए

नहीं है अब रत्नसेन
नहीं है वह पारलौकिक सुन्दरी पद्मावती
वह क्रूर आसक्त अलाउद्दीन भी नहीं

पर है वह कहानी
युद्ध के अंत की वह राख अभी भी बची है
जो हर धर्म-युद्ध के बाद हर जगह बची रह जाती है
जिसे वह शायर अपनी डबडबायी करुणा में देख सका

ऐसा कहा जाता है कि अपने अंत समय में मलिक मुहम्मद बाघ में बदल गए थे

अगर ठीक से पढ़ें पद्मावत तो उसमें भी यह दहाड़ सुनाई पडती है
सत्ता के अहंकार पर एक कवि की दहाड़.

३. 
रफी के लिए एक शाम

मंच पर रौशनी थी
जितनी जरूरी होती है खुद से मुलाकात के लिए

नायकों की तरह एक-एक कर आये गीतकार
कोट पुराने थे उनके
जूते घिसे हुए
चेहरों पर समय की शिकन
हथेलियाँ में मशक्कत का खुरदरापन
थोड़ी फीकी उनकी रंगत
पर आँखों में बा-शऊर जिंदगी की चमक

माइक हाथ में लेते ही बहने लगा प्यार के राग का दिलकश संगीत

एक ऐसी दुनिया जहाँ इश्क था, थीं निष्ठुर प्रेमिकाएं
प्रेम के लिए आर्तनाद करते प्रेमी थे
बेवफाई का सुरीला गीत प्रेम के ध्वंस से उठता
और हुस्न वो शबाब के प्रार्थना में खो जाता

जहाँ न काशी से कुछ गरज था न काबे से कोई वास्ता

हालाँकि उनमें से कुछ के गले बैठे ग़ये थे
समय बड़ा भारी गुजर रहा था
हर मुलायम चीज हर मासूम शै रंगों रूप खतरे में थे

उस सर्द रात जब हवाएं पत्तों से होकर गुजरती
सन्नाटा बज उठता
तारों की रौशनी में कोई खोज़ रहा था अपने चाँद को

यार की याद में खोये- खोये आसमान के नीचे
उस रात लोग अपने-अपने गम सुनने को इक्कठे थे
कभी वे ख़ुशी में हंस पड़ते कभी ठहर कर चुप हो जाते 

एक दाढ़ी बेखुदी में हिल रही थी
देखा किये तुमको बन के दीवाना
एक फर वाली टोपी  कह रही थी आसूं की तरह न गिराना मुझे

एक खामोश आवाज़ ने धीरे से कहा बहारो फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है
पूरा जलसा फूलों से भर गया

किसी के यार की शादी में सब बिन बुलाये शामिल हो गए
जब बाबुल ने दुआ मांगी भीग़ गए सबके कंधे

फिक्र को धुंए में उड़ाते कई चेहरे वहाँ धुंआ धुंआ हो रहे थे
विरह की कंपकपाती लौ में किसी ने टूटी आवाज़ में पूछा
क्या हुआ तेरा वादा ?

बैठी स्त्रियों के श्रृंगार हंस रहे थे
जैसे कोई उनके ही लिए गा रहा हो ये रेशमी जुल्फें ये शरबती आंखें
कभी वे भी किसी के लिए चौदवीं की चाँद हुआ करती थीं
कोई उनके नाज़ुक होठों को छूने के लिए ऐसे ही लरजता था

इश्क के मनुहार का जब कोई गीत फूटता
वे हँसती

जैसे उन्हें अभी भी इंतजार हो कि कोई कहेगा अब तो आँखों में सारी रात जाएगी
जिसे लम्बे दाम्पत्य में भूल गये थे उनके पति

कुछ किशोर सोच रहे थे
यह कौन सी दुनिया है
ऐसे नगमे ऐसे साज़ ऐसे ज़ज्बात
यह कैसा झरना कि जहाँ जिंदगी खुद गाने लगे

मेरे बगल में बैठा एक बच्चा अपने अब्बा को देख रहा था
इतने संजीदा होते थे ये तो
कभी मेरे सामने अम्मी का हाथ तक नहीं पकड़ा
और आज रुख से नकाब हटाने की ऐसी शोख गुजरिश कर रहे हैं

उनमें दूर- दूर तक न कहीं पिता था न पति
था तो बस एक पुरुष एक स्त्री के सामने खड़ा
जो कातरता से कह रहा था मुलाकात का वादा तो करती जाओ

तीर,तलवार, कांटें, बरछी जैसे दिनों में यह राहत की शाम थी
यह रफी की शाम थी.

४. 
विज्ञापन और स्त्री

यह सुंदर देह
आत्मविश्वास से भरी यह मुद्रा
स्वास्थ्य की यह चपलता
मैं तुम्हें बार-बार देखता हूँ

पर कुछ ही देर में तुम बेचने लगती हो घड़ी, कपड़ें, कारें

एक सोफा तुम्हारे जैसा तो कभी नहीं हो सकता ?

तुम्हारी आवाज़ तक में फंदे डाल दिए गए हैं

हाट में सब्जी बेचती हैं स्त्रियाँ
पर मैंने कभी लौकी खरीदते हुए उसमें उन्हें शामिल नहीं पाया

इतिहास में इतनी चीजें इतनी बार बेची खरीदी जा चुकीं हैं कि
उसमें पहले विक्रेता का चेहरा नहीं दिखता

अनाजों के अदल बदल में संभव है कि किसी स्त्री को ही सूझा हो विक्रय
संभव हो इस धरती की पहली विक्रेता कोई स्त्री हो

जब तक यह व्यापार स्त्रियों के हाथों में रहा होगा हाट में सामान ही बिकते होंगे
यह मुनाफा नहीं था
यह सभ्यता की सीढियाँ थीं
सभी चीजों के सभी जगह उपलब्ध होने का एक उत्सव
जहाँ रंग मिले, आवाजों ने एक दूसरे को पहचाना
गान और कथाओं की बैठकी जमी
स्वाद, श्रृंगार और परिधान के आदान-प्रदान का मेला लगा  

अधीनता के फिर लम्बे बर्बर दौर में 
वे धीरे धीरे खुद सामानों में बदल गयीं

उनका श्रम बिका,   बिके उनके बच्चे
उनका रूप, उनकी आवज़, उनका नृत्य उनकी देह, उनका होना भी खरीद लिया गया

समुद्रों पर खींच दी गयीं रेखाएं
रेगिस्तानों में लम्बे-लम्बे कारवां थे
सरायों में भरे रहते थे व्यापारी

अब  तलवारें, घोडें और गुलाम बिकने लगे

और फिर बिके देश, लोग और खरीदने बेचने की आज़ादी
और फिर उनकी खुद की आज़ादी 

आज तुम्हारी आड़ में कोई नियत्रित कर रहा है मेरी जरूरतें
वह बेच रहा है तुम्हारा रूप
बेच रहा है  स्त्री पुरुष का  आदिम आकर्षण

वह फिर तुम्हें बेच रहा है
तमाम तरह की आजादियों के बीच.

५.
बे आवाज़

बे आवाज़ गिरते हैं पत्ते
वे वृक्षों के लिए गिरते हैं, जड़ों पर गिरते हैं

बे आवाज़ घूमती है पृथ्वी घूमती हुई अपनी धुरी पर
हर हिस्से को रौशनी में रंगती हुई, ऋतुओं के लिए

चन्द्रमा घटता बढ़ता है
सूरज से उसकी शिकायत का ज़िक्र तक नहीं किसी कथा में

जल जैसा चुप्पा तो मैंने आज तक नहीं देखा
अपने लम्बे फैलाव में चादर तान कर सोता हुआ 

तमाम फुसफुसाहटों के बावजूद जंगल की ख़ामोशी में चुपचाप पलता रहता है
एक दूसरा ही संसार
जैसे समुद्र के तल पर तमाम तरह की हरकतों के बावजूद हमतक
नहीं आती कोई आवाज़

यहाँ तक कि प्रेम के सघन वन में
हमारे पास आवाज़ की जगह कुछ ध्वनियाँ ही रह जाती हैं

पत्ते तब शोर करते हैं जब काटा जाता है वृक्षों को
आत्मरक्षा में वे इससे अधिक और क्या कर सकते हैं ?

जब तोड़ा जाता है पहाड़ों को
उनके अंदर से एक बड़ी डरावनी सी आवाज़ आती है
जैसे किसी गुफा में कहीं से फूटती रौशनी के रास्ते में आ जाये कोई भारी पत्थर

नदियों में गिरते नाले में बदबू का शोर भरता रहता है
कुँए से कभी-कभी आती है गों गों करती आवाज़
जिसे दम घुटने पर शरीर अपनी तनी मांसपेशियों से पैदा करता है 

जब एक घड़ी साज से कहा गया कि अब नही है घड़ियों के लिए जगह
तब मैंने उसके अंदर से सुइयों के तेज़-तेज़ चलने की आवाज़ सुनी
हालाँकि वह चुप चाप लौट रहा था घर की ओर

सिलाई मशीन को ठीक करते रोशन सिंह के अंदर से मुझे आती है
कलपुर्जों की खट-खट
जैसे वे स्त्रियों के लिए व्यक्त कर रहे हों आभार
जो अपने असहायता में कपड़ों को जोडती हुई मोहताज़ नहीं हैं किसी की

तार, ट्रंककाल, टेलीफोन की स्वर लिपियां लुप्त हो गयीं हैं
चिट्ठियों तक की सूख गयी है स्याही
कभी इसका पानी हमारी ख़ुशी में उछलकर आखों में चमकने लगता था
दुःख से लुढकते हुए गालों से बह जाता था

रोने की भी स्वाभाविकता होती है
पर अगर कोई बे आवाज़ रोये
तो समझ लेना चाहिए कि यह आवाज़ उठाने का समय है. 

६. 
चाहत

तारे लिखते हैं तुम्हारा नाम
सरसराती हुई हवा तुम्हें पुकारती है
तुम्हारी याद में हरा कुछ और गाढ़ा हो गया है

नदी से अभी अभी निकले सूरज को देखता हूँ
तुम्हें कभी भी पूरा कहाँ देख पाया मैं

नदी के पार मेरा घर है
पर मुझे अपने साथ बसा लो
मैं लम्बे रेगिस्तानों को पार करता हुआ सदियों से खोज रहा हूँ तुम्हें

मेरे पास सिवाय चाहत के और कुछ नहीं है.
***
परिचय:
अरुण देव
१६ फरवरी १९७२, कुशीनगर
उच्च शिक्षा जे.एन.यू. नई दिल्ली से
युवा कवि और आलोचक
क्या तो समय’,  कविता संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से २००४ में और कोई तो जगह हो, कविता संग्रह राजकमल प्रकाशन से २०१३ में प्रकाशित.
कोई तो जगह होके लिए २०१३ का राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रीय सम्मान
नेपाली, मराठी, असमिया, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में कविताओं का अनुवाद और कुछ लेख प्रकाशित
५ वर्षों से हिंदी की चर्चित वेब पत्रिका समालोचन का संपादन
www.samalochan.com
सम्पर्क :
Dr. Arun Dev
5/ Himalayan Colony (Nehar Colony)
Najibabad (Bijnor)
UP- 246763
e mail: devarun72@gmail.com
mob.-9412656938

भानुराम सुकौटी का गीत-संचयन 'एक तारो दूर चलक्यो' : पृथ्वीराज सिंह

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मन में 'लोक'शब्द आते ही स्मृति में भी 'तीन प्रसंग'आ जाते हैं

एक में कबूतरी देवी गा रही हैं
"भात पकैये बासमती को, भुख लागि खैल्यूला"

फिर इसी का विस्तार ठुमके लगाते 'ताऊ कव्वाल' ; 
"विराना देशमां मैं मरि ज्यूला,
रोनिया कोई छईनां"

और अब भानुराम सुकौटी के गीत की यह पंक्तियाँ
"हिमाल को डफ्या पंछी, अगास में रिट्यो"

क्या है लोक?

चुस्त दुरुस्त तामझामों के बीच अपने अमल/ भूख को महसूस करने की ठसक,

या जिसमें संवेदना शेष नहीं रह गई है उस जगह को ही विराना/ पराया कह देने की कसक,

या यह कि सुन्दर डफ्या / मोनाल पंछी पर्वतों से घिरी नदी-घाटी ऊपर आकाश की ऊंचाई से गोल गोल चक्कर लगा रहा है। यह स्वछंद, उन्मुक्त नहीं है बंधी हुई,  कसी हुई उडान है पराणि की / पंछी की या प्राण की भी कह सकते हैं।

यही तो है लोक।

हाल ही में 'पहाड़'ने अनिल कार्कीद्वारा संकलित व संपादित किताब 'एक तारो दूर चलक्यो'का प्रथम संस्करण प्रकाशित किया है। यह किताब लोक गीतकार, गायक और संगीतकार स्वर्गीय श्री भानुराम सुकौटीके जीवन परिचय  एवं उनकी उपलब्ध प्रमुख रचनाओं  का एक गम्भीर व महत्वपूर्ण संकलन है। 'पहाड़'के द्वारा इसका प्रकाशन इस समर्पण की पुष्टि करता है।

एक रचनाकार के रूप में अनिल कार्की के बारे में संक्षिप्त रूप से इतना ही कहा जा सकता है कि उनकी रचनाओं में जो पहाड़ परिलक्षित होता है, वह स्मृति का नहीं है जो अतीत में लेकर जाता है। अनिल का लेखन प्रवासी नहीं है,  यह आपको प्रभावित करता है, जोडता है, और करीब लाता है अपनी दूध बोली के।

किताब के बारे में कहा जा सकता है कि यह दो हिस्सों में लिखी गई है।
प्रथम में 'एक तारो दूर चलक्यो'शीर्षक, यही किताब का नाम भी है, दलित और अन्य लोक कलाकारों की तरह ही हमेशा हाशिये में रहे भानुराम सुकौटीका जीवन वृतांत है। इसमें सामाजिक, पारिवारिक और एक कलाकार के रूप में सुकौटी का चित्रण है। शिष्यों के साथ, साथी कलाकारों के साथ,अपने दो परिवारों के साथ, नौकरी व दलित जाति के साथ भी सामंजस्य बिठाते, मान देते भानुराम सुकौटीहैं। यही दलित भानुराम सुकौटी'पतित भानु'बनकर भी अपने हिन्दी भजनों में आता है राग और ताल के साथ।

दूसरे भाग 'हिमाल को डफ्या पंछी'में भानू राम सुकौटी का रचना पक्ष है, उनके बेहतरीन गीत हैं। झुसिया दमाई, गोपीदास, कबूतरी देवी, रीठागाडी, ताऊ कव्वाल की जमात के कवि, गायक, संगीतकार भानुराम सुकौटीकाली वार व काली पार की साझा विरासत के वाहक हैं। उनके गीतों में हिमाल की उतरती हुई बर्फ - ग्लेशियर - नदी है तो वहीं ऊंची चोटी - पेड़ - घाटी भी।यह सब एक साथ उपस्थित हैं।एक समग्र रूप में प्रकृति है, उससे जुडे हुए नाम हैं पूरी समग्रता के साथ समरस।वार - पार फाट हैं नदी के, डाणाँ - काँणा, तल्लागाडा - मल्लागाडा, धुरे हैं तो सिरे भी।

अनिल लिखते हैं कि भानुराम सुकौटीलोक के उत्सवधर्मी कवि हैं। खुद उनके रचना संसार की प्रस्तावना लिखते हुए अनिल अपनी दूध बोली का ही प्रयोग करते हैं।

'दिन ढलिक्या', भिटौलिया दिन, सबकी सब रचनाओं में सम्बन्धों की मार्मिक तारतम्यता है। भानुराम सुकौटीका यह पक्ष जो रचनाधर्मिता का पक्ष है इसमें दरिद्रता का लेशमात्र भी नहीं है। जातिगत भेदभाव नहीं है। बस नाम हैं जैसे बरूँश, न्यौली, धौला बल्द, भैंसी को परान हैं वैसे ही पंत ज्यू का सेरा। लोक के ऐसे समृद्ध शब्द हैं कि हौंस लगने लगती है।

अलग तरह की माया / लगाव और वैसी ही उदासी भी जैसा कि 'ऐगे बसन्त बहार'गीत की यह पंक्तियाँ
"काली खाइछ कालसिनि ले,  गोरी पिचास ले।
मैं त सुवा मरी जाँछू, तेरा निसास ले ।।" 
तुकबंदी सी लगने वाली यह पंक्तियाँ वास्तव में बहुत ही नाजुक ढंग से बुनी हुई उत्कृष्ट रचनाएं हैं।जो लोक की विशिष्टता भी है और समृद्धि भी।जैसे:-
"अस्कोट पानी का नौला, रूमाल भिजाया।
उदासियों मन मैरो, गीत गाई भुलाया।।
उमर काटूँ कै संग।।"
इसी गीत में अस्कोट के साथ ही दैलेख जगह का भी नाम है। यह दोनों अलग अलग देशों में बटे हुए नाम इस गीत में साझा विरासत काली वार व काली पार को समेटे हुए हैं। यह लगाव यह विराटता केवल लोक में ही संभव है।

इसी क्रम में भानुराम सुकौटीऔर उनकी दुसरी पत्नी शान्ति सुकोटी के गीत हैं। अनिल ने इन्हें बहुत ही मधुर माना है।

यह वाकई अलग हैं। हेव लगाने की परम्परा के विपरीत दोनों का अलग सम्बन्ध दिखता है।समाज का दलित, भजनों का पतित और लोक गीतकार भानू राम सुकौटी को जितना मैंने इस किताब के माध्यम से जाना ।उस सब को हाजिर नाजिर जानकर मैं कहूँगा कि यह रचनाएँ एकदम अलग हैं।मेरे लिए इसे एक प्रेमी युगल का वैचारिक धरातल में सहवास कहना बेहतर होगा या बेहतर होगा कि  आप स्वंय ही इन गीतों को पढकर देखें। जैसा कि 'माया ले, पाले को, यो जीबन तेरो'गीत की यह पंक्तियाँ
"सरग में बजर पड्यो, सरकारी बाग में।
ज्यू झुराया क्या हुन्यां हो,  जेहोलो भाग में।"
आह! विद्रोह की यह क्षमता, यह लड़ाकापन अलग है एकदम अलग। एक अलग दृष्टिकोण भी है समझ का जो एकतरफा सम्भव ही नहीं है, बिना शक्ति-शिव तत्व के एकसात् हुए।

इसी रचना क्रम में उनके लिखे स्थानीय देवी देवताओं के कुमाउंनी भजन हैं, फिर हिन्दी में भजन हैं। भानुराम सुकौटीने कुमाउंनी भजनों को लोकगीत माना है अनिल ने उनके हिन्दी भजनों में नाथमत का प्रभाव। मैं अपनी समझ से इन्हें सुकौटी जी के मैदानी व पहाडी क्षेत्रों में प्रवास व सामान्य जन मानस में कलाकार की पैठ के रूप में भी देखता हूं।

एक संगीतकार के रूप में भानुराम सुकौटीअपने गीतकार का नाम डायरी में लिखना नहीं भूले। जैसा कि आम देखा गया है, परिपाटी है कि रचनाकार को गुमनाम कर पूरी रचनाएँ डकार जाना। भानुराम सुकौटीएक अलग परिपाटी के रचनाकार हैं हेव लगाने वाले नहीं उनके साथी साथ में खडे हैं बराबर कदकाठी लिये।

साधुवाद है अनिल को। उनके साथियों महेश बराल, विक्रम नेगी व उमेश पुजारी का भी जिनका सहयोग लिया व बकायदा लिखा भी। आभार है पहाड़ का प्रकाशन के लिए।

अशोक कुमार पाण्डेय की नई कविता

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कवि मित्र अशोक को पिछले दिनों पंकज सिंह स्मृति सम्मान प्रदान किए जाने की घोषणा हुई है और कल मुझे ईमेल में ये नई कविता मिली। कवि को और मित्र को बधाई के साथ इन कविताओं के लिए शुक्रिया भी कहता हूं।


जात्रा
(एक)
उलटे साँप सी सड़क पर चींटियों सी रेंगती भीड़ में चलता कहाँ चला आया हूँ

          रुकिए – एक पेड़ कहता है जिसकी पत्तियाँ लुट चुकी हैं
                   पीले फूल जिनमें न ख़ुशबू न छाँव कोई
                   देवताओं से बहिष्कृत, मनुष्यों के सर पर गिर रहे हैं
                   कितना कम हो गया पानी धरती पर.

रुकना चलने का व्यवधान है या व्यतिक्रम लौटना तो चलने का ही विस्तार है एक उदास

          सूरज एकांत की आग में जलता चला जाता है
          एक कवि एकांत ढूंढता खिड़कियाँ बंद करता है सारी
          और फिर मोबाईल की स्क्रीन में खोजता है कविता
          कोई अपनी ही तस्वीर खींच देखता है मुग्ध
          पेड़ अपना आख़िरी फूल गिरा चिड़ियों को सुनाता है किस्से
          मैंने वह फूल तुम्हारे लिए रखा तो था जाने कहाँ गया...

जिस दरवाज़े पर लिखा है मनुष्य डरें कुत्तों से वहाँ एक बच्चा खड़ा है भीतर चली गई गेंद के बारे में सोचते

          सुनिए – रुकता नहीं कहता चला जाता है कोई
                   चलता हूँ और आवाज़ चलती है आगे आगे
                   तुमने कहा था करना प्रतीक्षा रुकना था मुझे
                   पर यह आवाज़...चलता चला जाता हूँ और तेज़
                   मोज़े पसीने से भीगे हैं कमीज़ चिपकती जाती है देह से
                   गले में कांटे उग रहे हैं कान सुन्न होते जाते आवाज़ों से
                   एकांत की आग है यह!

देह जलती है आत्मा को देखा ही किसने है आवाज़ है एक जो जलती नहीं चलती जाती है लगातार

                   यहाँ कुछ नहीं हाशिये पर जो शून्य दिखता है वह भी नहीं
                   गुज़रा हुआ जीवन है एक बेमानी भविष्य की कहाँ होती है कोई शक्ल
                   और जो है अधर में लटका उसके गिरने की प्रतीक्षा में चाँद-सूरज सब
                   रुकता हूँ वहाँ जहाँ आधे कपड़ों वाला एक बूढ़ा मरने के बाद सफ़ेद संगमरमर बन गया
                   उफ़ दाहिने हाशिये की ओर बढ़ता जाता हूँ
                   उस ओर जिधर एक दलदल है
                   गहरा दलदल
                   शान्ति
                   .

शान्तियाँ श्मशानों के कितने क़रीब होती हैं मंदिर टूटे मस्ज़िद टूटी अब श्मशानों की बारी है?
                  
                  

(दो)

पानी बहुत कम बचा है धरती पर आसमान थक गया रो रो के समन्दर पी गईं मछलियाँ

          चिड़ियों की सामूहिक आत्महत्या पर बहाने के लिए दो बूँद आँसू भी नहीं बचा
          सड़क सूखी पतझड़ में गिरी पत्तियों से लिपट रोती लगातार अश्रुहीन
          आहिस्ता रखता हूँ पाँव संभल संभल कर
          कांटे चूमते हैं पत्तियाँ धन्यवाद की मुद्रा में देखती हैं लाचार
          क़दमों के निशान दरअसल खून के निशान हैं जो बचा नहीं अब आसुओं की तरह
          आगे का रास्ता तुम्हें ख़ुद ही तय करना है...

रास्ते पहाड़ से फिसल गए पत्थर हैं मंज़िलें स्वर्ग से बहिष्कृत आदम सपने हव्वा हैं निरुपाय

          इकलौती खुली खिड़की से बढ़ता है एक हाथ जिसमें ख़ाली बर्तन है
          उसमें भरती है धूप और धूल मैं उँगलियों से एक चित्र बना देता हूँ उस पर
          बंद होती है खिड़की तो उसमें से एक सूराख झांकता है
          मुझे भीतर जाना था शायद मैं दूर निकल आया हूँ लेकिन
          यहाँ दीवार पर लिखे हैं सारे पवित्र शब्द
          जहाँ एक बच्चा खड़िया से विकेट बना रहा है
          और एक औरत गोबर लिए बैठी है कि ख़त्म हो खेल तो थापे चिपरी
          उसने आग के बारे में पूछा है मुझसे
          पानी ख़त्म हुआ है और तुम्हें आग की चिंता है?
          सब्र करो बाबू कहा उसने तो सुना कब्र में रहो बाबू
         
क़ब्रों को आग की नहीं पानी की ज़रुरत है और मुझे आग की ज़रुरत पानी तक पहुँचने के लिए


(तीन)

उदास क्यों हो देखो सब तो हँस रहे हैं मत चलो इतना थक जाओगे कुछ पी ही लो कम से कम

          उसी वक़्त समाचार देखते कह रहा था कोई
          है तो इतना पानी वाटर पार्क में आएगी होली तो देखना रंग भी होंगे
          उसी वक़्त पढ़ रहा था अखबार कोई ट्रेन का सफ़र कर रहा है पानी
          चलती कार से उछाली किसी ने बोतल तो तेज़ संगीत गूँजा उसी वक़्त
          तीन बच्चे लपक पड़े हैं बोतल पर जिसमें पानी नहीं है
          प्लास्टिक के खोखे पर जिसमें ज़रा सा नमक है
          पानी बिना मर गया जो उसकी लाश भीग रही थी बर्फ में उसी वक़्त
          साँप सीधा हो रहा है धीरे धीरे
सूरज थक गया चीखते चीखते कौन आता उसके पास?
आसमान में उदासी की कालिख छाई तो लोग निकल पड़े हैं बाहर


पहाड़ पर बर्फ़ बेचकर लौटते लोगों की बोतलों में पानी नहीं शराब है और उँगलियों में आग. 

         

         

         

स्वरांगी साने की कुछ कविताएँ

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कविता के इलाक़े में नई आवाज़ों के सिलसिले हैं। उसी सिलसिले से स्वरांगी साने की ये कविताएं। इन कविताओं को छापते हुए अनुनाद ने कवि से परिचय भेजने को कहा था और जो परिचय हमें प्राप्त हुआ है, उसके अनुसार स्वरांगी बहुत पहले से लिख-छप रही हैं, लेकिन मैंने अब तक कुछ ब्लॉग्स पर ही उन्हें पढ़ा है, यह मेरी पढ़त की सीमा है। स्वरांगी साने का अनुनाद पर स्वागत है।

तस्वीर कवि की फेसबुक वाॅल से

समुद्र
 (1)
समुद्र में एक बारगी 
वो उतरी 
तो उबर ही नहीं पाई समुद्र से।                                                        
(2)
किसी मछली को देखा है 
तट पर तड़पते हुए ?
मैं वो मछली हूँ
जिससे लहरें किनारा कर गई हैं।
(3)
समुद्र में इतना खारापन कहाँ से आया?
मैंने एक बार
एक मीठी नदी को
समुद्र में रोते देखा था।

(4)
समुद्र में दिखता है केवल पानी
समुद्र अपनी उकताहट 
फैलाता जाता है दूर तक।

(5) 
बहुत गहरा होता है न समुद्र
उसकी थाह पा ही नहीं सकते
चाह कर भी।

(6)
हर लहर में समाया है समुद्र
पर इसलिए
हर लहर समुद्र नहीं कहलाती।
मैं भी हूँ बस एक लहर
तुमसे मिलने वाली 
अनगिनत लहरों जैसी
पर
उनमें मैं कहाँ हूँ समुद्र !
(7)
आह समुद्र!
मैंने तुम्हें साफ़ नीला देखा है
हरा भी
और गहरा काला भी।
मैंने तुमसे सूरज को निकलते 
और तुममें चाँद को तैरते देखा है।
सीपियों को खोजा है
मैंने तुममें 
और पैरों के नीचे से 
खिसकते जाना है।
पर मैंने अब तक
कहाँ देखा तुम्हें
 पूरा का पूरा समुद्र।

(8) 
जिस दिन मैंने माँगे मोती
तुमने कह दिया
उसके लिए मुझे
समुद्र होना होगा।
मैं पिघलती चली गई
फिर भी मैं रही पानी ही
नहीं बन पाई 
तुम-सा समुद्र।

(9) 
इतने ज्वार
इतने भाटे
चाँद के बढ़ने-घटने से।
समुद्र और चाँद के खेल को
बोझिल हो डोलती है चट्टान
जिस पर हर बार कुछ नए निशान बन जाते हैं।
(10)
एक शंख को 
कान में लगाकर 
सुनी थी मैंने समुद्र की आवाज़।
पर मैं 
यह नहीं कह सकती साफ़-साफ़
कि वो समुद्र की ही आवाज़ थी।
कुछ ऐसा ही अस्पष्ट कह रहे थे तुम।
(11)
कितना भी पकड़ो रेत को
छूट ही जाती है।
महीन कण रह जाते हैं हाथ से चिपके
अब इन्हें क्या कहें
रेतया चमकीली रेत।

(12)
रेत के किले बनाना
या रेत पर नाम लिखना
समुद्र के लिए दोनों बातें समान हैं।
वो सब बहा ले जाता है 
अपने साथ।
दूर चला जाता है 
ऐसे ही एक दिन
उम्मीद का जहाज़।
****



सा
     
सलाम साब सलाम !
उठते हुए सलाम !!
बैठते हुए सलाम !!!
सलाम आपको
सौ-सौ बार सलाम !!!!

आप एक काम करें तो वो हो
मनों टन का बोझ
हम मनों टन बोझ भी ढोएँ तो
मान लें उसे पंखुरी जितना वज़न

आपकी थकान जायज़
हमारा पसीना भी नाजायज़
बैठ-बैठकर
ऊँघ-ऊँघकर                       
आप कुछ न करते भी थक जाते हैं
मुआ कोई पानी का गिलास तो देना
इतना चिल्लाने में थक जाते हैं
आपके हिसाब से
हम इतना-सा काम करेंगे
तो घिस नहीं जाएँगे

हम क्यों घिसेंगे
हम मोटी खाल
आप सुकुमार
आप की आँखों में हमारे लिए
घृणा-तिरस्कार
जिससे आप का आँख तक खोल पाना दुश्वार
ओहकितनी थकान !

हमें दिल पर पत्थर रखकर सो जाना
और
रात भर की नींद मिली
आपके इस उपकार तले
भोर-तड़के उठ जाना
आपके लिए चाय की गरम प्याली ले खड़े हो जाना

आपका खाना मतलब पूरी थाली
हमारे लिए खुरचन बची हो तो वह भी भली
आप सोएँगे दोपहर भी चादर तान
आपके लिए हमें रहना चाय लेकर तैनात
उसके लिए उठना भी आपके लिए जी का जंजाल

चाय के साथ आपको ज़रूरी बिस्कुट चार
हमारे लिए चाय की चुस्की लेना भी महापाप
आप पवित्र आत्मा
आपका जन्म हमारा करने को उद्धार
हमारा जन्म
पाप गलने तक का इंतज़ार।

आपका हमारे लिए इतना कष्ट उठाना
हमें दुत्कारना
गालियाँ देना सब स्वीकार

आप महान्
आपको सलाम !
सौ-सौ बार सलाम !!
सलाम साब सलाम !!!
---

जन्मदिन

उसके जन्म की कोई तारीख़ नहीं

एक पल है जन्म लेने का
दूसरा पल मृत्यु का।

उसके बाद तो सारी कहानी देह की है

देह की इच्छाएँ हैं
पीड़ाएँ हैं
देह के सपने हैं
उसी के रतजगे हैं
देह के भोग हैं
उसी के कर्म हैं
पाप-पाप जैसा जो कुछ है
वह सब उसका है
देह की यातना है
विलाप है

मन तो केवल
उसके सुख-दु:ख का गवाह है

देह को मारा जाना था
देह को ही मरना था
पर मन मरा था
जिस पल जन्मा था
उसके अगले पल ही मरा था
और मन मरता ही जा रहा था
-----

पटाक्षेप

पहाड़ी का अंतिम छोर
वह खड़ी है
उसके बाद गहरी खाई है
पाताल तक जाती हुई।

तुम उसके आगे आकर खड़े नहीं हो सकते
नहीं, इतनी जगह ही नहीं है
वहाँ उस किनारे पर

पर तुम होते तो
तुम्हारी छाती पर सिर रख रो देती
शांत हो लेती
फिर खुद कूद पड़ती खाई में
तुम पर कोई आरोप नहीं मढ़ती

तुम नहीं खड़े हो सकते थे उसके आगे
पर पीछे ही खींच लेते
तुम जो कहते हो साँस रोकना मतलब मर जाना है
तुम कभी किसी को नहीं रोकते

फिर भी तुम
अपनी साँस रोके खड़े रहे
जहाँ थे वहीं बने रहे

वह मुहाने पर खड़ी है
खाई में कूदना है
और
अब और कोई विकल्प नहीं है।

स्वरांगी साने
पूर्व वरिष्ठ उप संपादक, लोकमत समाचार,पुणे
  • जन्म ग्वालियर मेंशिक्षा इंदौर में और कार्यक्षेत्र पुणे
शिक्षाः
  • एम. ए. (कथक) (स्वर्णपदक विजेता) देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर से
  • बी.ए. (अंग्रेज़ी साहित्य) प्रथम श्रेणी 
  • विशेष योग्यता (Distinction) के साथ कथक विशारद (Distinction), अखिल भारतीय गंधर्व महाविद्यालय मंडल, मिरज (मुंबई)
  • डिप्लोमा इन बिज़नेस इंग्लिशदेवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर
  • सदस्य, इंटरनैशनल डांस काउंसिल- CID / यूनेस्को
  • इंटरनैशनल डांस डायरेक्टरी में नाम सम्मिलित
पत्रकारिता के क्षेत्र में उपलब्धियाँ
  • राज्य स्तर का सर्वोत्तम गोपीकृष्ण गुप्ता रिपोर्टिंग पुरस्कार, 2004
  • उस्ताद अलाउद्दीन खान संगीत अकादेमी द्वारा खजुराहो नृत्य समारोह, 2004 में रिपोर्टिंग के लिए आमंत्रित
  • मध्य प्रदेश कला परिषद द्वारा आयोजित मांडु उत्सव -2003 का दैनिक भास्कर के लिए कवरेज
नृत्य, नाटक, रेडियो और टीवी
  • सन् 1992 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा आयोजित नाट्य शिविर में निर्धारित आयुसीमासे कम होने के बावज़ूद चयन.
  • 1995-96 के दौरान अंतर विश्वविद्यालयीन वाद विवाद प्रतियोगिता मॆ भाग लिया.
  • इंदौर कलैक्टरेट द्वारा आयोजित साक्षरता अभियान, सन् 1991 में जत्था कलाकार के रूप में भाग लिया.
  • इंदौर आकाशवाणी द्वारा प्रसारित “उस लड़की का नाम क्या है” रूपक के लिए सन् 1989 भारतीय परिवार कल्याण विभाग द्वारा प्रथम पुरस्कार प्रदान किया गया. उसमें लड़की की भूमिका का निर्वाह.
  • पुणे आकाशवाणी के लिए महाराष्ट्र की आषाढ़ी वारी पर कवि दिलीप चित्रे के वृत्त चित्र का सन् 2007 में अंग्रेजी से हिंदी रूपांतरण किया जिसे आकाशवाणी का अखिल भारतीय स्तर का प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ.
  • इंदौर दूरदर्शन पर समाचार वाचक (News reader) के रूप में भी कार्य किया.
कार्यक्षेत्र :नृत्य, कवितापत्रकारिता, संचालन, अभिनयसाहित्य-संस्कृति-कला समीक्षाआकाशवाणी पर वार्ता और काव्यपाठ
प्रकाशित कृति: 
  • काव्य संग्रह “शहर की छोटी-सी छत पर” 2002 मेंमध्य प्रदेश साहित्य परिषद, भोपाल द्वारा स्वीकृत अनुदान से प्रकाशित औरम.प्र.राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के कार्यक्रम में म.प्र. के महामहिमराज्यपाल द्वारा सम्मानित.
  • पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशितः कादंबिनीइंडिया टु़डे (स्त्री), नवनीत, साक्षात्कारभोरकल के लिएआकंठजनसत्ता (सबरंग)शेषवर्तमान साहित्य,समावर्तन के रेखांकित स्तंभ में, कलासमय, मंतव्य-3, वेबदुनिया, अहा ज़िंदगीआदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ-लेखप्रकाशित
  • मराठी दिवाली अंक 2015- ‘उद्याचा मराठवाड़ा’ में हिंदी कविता का मराठी अनुवाद प्रकाशित
  • साथ ही वैबदुनिया ने यू ट्यूब पर मेरी कविताओं को सर्वप्रथम श्रव्य-दृश्यात्मक माध्यम से प्रस्तुत किया.  
  • asuvidha.blogspot.com/,jankipul.blogspot.com/,kritya.blogspot.com/,swaymsidha.blogspot.com/, shabdankan.blogspot.comआदि में कविताएँ पोस्ट
कार्यानुभव:                                           
इंदौर से प्रकाशित साप्ताहिक पत्र प्रभातकिरण’ में स्तंभलेखन, औरंगाबाद से प्रकाशित पत्र लोकमत समाचार’ में रिपोर्टर, इंदौर से प्रकाशित दैनिक भास्कर में कला समीक्षकनगर रिपोर्टर, पुणे से प्रकाशित आज का आनंद में सहायक संपादक और पुणे के लोकमत समाचार में वरिष्ठ उप संपादक के रूप में कार्य किया.
अंतिम कार्यकाल :  
लोकमत समाचार,पुणेमें वरिष्ठ उप संपादक के रूप में 3 जून 2012 - 31 मई 2015 तक.
संप्रति :  
  • CDAC, पुणे के लिए अब तक ग्यारह फिल्मों यथा- तीन मराठी फिल्में – देवुल, एक कप चहा, पाली ते संबुरान, चार कन्नड़ फिल्में कुर्मावतार, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित डॉ. के. शिवराम कारंथ के उपन्यास पर आधारितबेट्टदा जीवा- पहाड़ी इंसान, मौनी एवं स्टंबल,तीन बांग्ला फिल्म निशब्द, जानला एवं सांझबातिर रूपकथा और एक असमी फिल्म – कोयाद के अंग्रेजी सबटाइटल का हिंदी अनुवाद . साथ ही तीन फिल्मों के सब टाइटल्स का वेलिडेशन-नाबार (पंजाबी),शिवेरी (मराठी) और माहुलबनी सेरंग (बांग्ला).
  • CDAC, पुणे के लिए- डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर स्मारक संग्रहालय में रखे जाने वाले छायाचित्रों के अंग्रेजी कैप्शन का हिंदी अनुवाद का कार्य।
  • भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान( इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ ट्रॉपिकल मेट्रोलॉजी- आईआईटीएम) और जलवायु परिवर्तन अनुसंधान केंद्र (सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज रिसर्च सेंटर-सीसीसीआर), पुणे के वैज्ञानिक डॉ. मिलिंद मुजुमदार के लिए वैज्ञानिक पर्चों का अनुवाद।
  • मूषक एप्प के लिए सेवाएँ प्रदत्त.
मोबाइलः +91 9850804068 / ई-मेल : swaraangisane@gmail.com
-2/504, अटरिया होम्स, आर. के. पुरम् के निकट, रोड नं. 13, टिंगरे नगर, मुंजबा वस्ती के पासधानोरी, पुणे-411015
                                                                                         



               



साहित्य-सरोवर और यक्ष -युधिष्ठिर संवाद : पंकज मिश्र

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यक्ष -युधिष्ठिर संवाद हमने पहले भी अनुनाद पर साझा किए थे, जिन्हें आप यहां पढ़ सकते हैं। उसी क्रम में यह एक और संवाद। अनुनाद पंकज मिश्र का आभारी है।
***


यक्ष -
सबसे कोमल भावनाएं किसकी होती है और क्यों ?
युधिष्ठिर -
साहित्यकारों की , वरना रचना सम्भव नही | साहित्यकार भावुक न होगा तो सम्वेदनशील कैसे होगा | संवेदनशील न होगा तो विचलित कैसे होगा | विचलित न होगा तो दिमाग में खलबली कैसे मचेगी और खलबली न मचेगी तो वह रचेगा कैसे | अब हर छोटी बड़ी बात पे झंडा तो उठाया नही जा सकता |
यक्ष -
क्या इसीलिये उसकी भावनाएं बात बात पर आहत होती है ?
युधिष्ठिर -
उफ़ .... भावुक होने से आशय यह है कि उसे चीज़ों से फ़र्क़ पड़ता है | वह जड़ नही चेतन है अतः घटनाओं से प्रभावित होता है | चेतन है इसलिए सिर्फ प्रभावित हो कर रह नही जाता अपने तइं चीज़ों को प्रभावित करने की कोशिश भी करता है | रचना इसी द्वंदात्मकता का फलन है | प्रभावित होने और आहत होने में अंतर करना सीखिये यक्ष |
लेकिन हाँ , हाल फिलहाल में उसकी भावनाये जो इतनी भंगुर हुई है , इसमें साहित्यकारों का कोई दोष नही है | यह तो समय की मांग है | क्या कीजियेगा समय जो बदल गया है |
यक्ष -
समय को क्या हुआ है जो इसकी भावनाए इतनी भंगुर हुई हैं ?
युधिष्ठिर -
समय में यह बदलाव आया है कि आजकल सब कुछ व्यापार हो गया है | सब बाज़ार तय कर रहा है| अगर आप बाजार के मुआफिक नही तो आप जी नही सकते | अब साहित्यकार को लीजिये | इसे भी बाजार के कायदों से ही चलना होगा वरना बीड़ी पी पी , फेफड़े में बलगम भरे , खांसते खांसते मर जाइए कोई पूछने वाला नही | साहित्यकार की वैकेंसी सिस्टम अपने तरीके से फिल अप कर ही लेगा | रजत शर्मा को किया कि नही किया | तो यक्ष जी , साहित्यकारों को अब अपना भला बुरा खुद सोचना है | उन्हें भी अपनी दूकान चमकानी है ,अपना माल बेचना है |

आखिर साहित्यकार के पास बेचने के लिए क्या प्रोडक्ट है ? उसकी रचना | जो बिना सम्वेदनशील और भावुक हृदय के सम्भव नही | दरअसल रचनाओं की शक्ल में अपनी भावनाओं को ही ती शोकेस कर रहा होता है | आप जानते ही है कि , किसी दुकान के शोकेस या उस के चमचमाते डिस्प्ले बोर्ड पर जरा सी खरोंच आ जाए या जरा सा दाग लग जाये तो कितना उभर कर दीखता है | इसलिए यदि उसे यह आशंका भी हो कि दूर मैदान में क्रिकेट खेल रहे बच्चों की बाल शायद कभी डिस्प्ले बोर्ड को नुक्सान पहुंचा सकती है तो वह उस अज्ञात भय की आशंका में भी उन्हें भगाने लगता है | यही आशंका उसे इतना वल्नरेबल बना देती है कि बात बात पर वास्तव में आहत न होते हुए आहत महसूस करने लगता है | भंगुर भावनाओं का राज़ यही है |
फिर ....प्रोडक्ट की झाड़पोंछ् तो वह डिलवरी के वक़्त भी कर सकता है लेकिन डिस्प्ले बोर्ड / शोकेस को वह बिलनागा सबसे पहले चमकाता है | दिन में भी कई कई बार और दुकान बढ़ाते वक़्त भी सबसे ज्यादा उसे ही सुरक्षित कर के जाता है | ये बेचारा ......अपने समय का मारा ...इसकी भावनाओं का सम्मान कीजिये ....कुछ न कहिये , कुछ न बोलिए .......वैसे कुछ न कहेंगे या बोलेंगे तो भी यह आहत हो जाएगा .......कि , उसकी कहीं कोई चर्चा नही , कि , उस पे कहीं कोई चर्चा नही | यह आहत होने को अभिशप्त है और अब तो अभ्यस्त भी |
***

एक सरकारी नौकर का मोनोलॉग - अमित श्रीवास्तव

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सरकारी नौकरी में कई लोग ऐसा ही महसूस करते हैं, जैसा अमित की ये कविता महसूस कराती है। ये सीधे-सीधे वाक्य हैं और कविता इनकी गूंज में कहीं बोलती है। इच्छाएं हैं, जो साधारण हैं। टीस है, जो जितनी व्यक्त हो रही है, उससे कहीं ज़्यादा छुपी है अनगिन जीवनों के विकट अंधेरों में।


*एक सरकारी नौकर का मोनोलॉग*


मैं चाहता था
कि मेरे आगे खिंची लकीरों में तुम्हारा नाम हो
मिरा नहीं

मैं पेड़ की छालों को कुरेदकर
नम हरियाली भरना चाहता था

मैं चाहता था कि तालाब की काई कटे 
कुछ गहराई कम हो
कुछ कंकड़ों की बरसात हो
कुछ तरंगें उठें और ऊपर आ जाए तले पर बैठा मटमैला कीचड़

मैं चाहकर सोना चाहता था
जानकर उठना

मैं नींद की बड़बड़ाहट में
ख़्वाबों के चलने में
उजाले की उम्मीद में
कोई चाँद चिपकाना चाहता था

मैं दीमकों से निज़ात चाहता था
मैं धूल से निज़ातचाहता था

मैं चाहता था पीले पन्नों का खुरदुरापन कुछ कम हो
मैं चाहता था पन्नों पर लिखावट का क्रम टूटे,
हस्ताक्षर का घमण्ड,
सेवा का निचाट अकेलापन

मैं दाहिने कोने को मुड़े याददाश्त के निशान खोलना चाहता था
रात के हाशिये पर एक दंतुरित मुस्कान चाहता था

मैं चाहता था कि स्पर्श स्पर्श के जैसा हो
आवाज़ आवाज़ सी

मैं रेत के समन्दर में
कैक्टस के कांटों की तरह होना चाहता था

मैं टीले दर टीले नहीं
रेत अंदर रेत चलना चाहता था

मैं अपनी आवाज़ भर नहीं
अहसास भर बोलना चाहता था

मैं इतिहास के उजले कपड़े उधेड़ चिकत्तों के दाग़ दिखाना चाहता था
मैं चाहता था आज का चेहरा कल हथेलियों के पीछे न छुपा हो

मैं भरे प्यालों से उड़ेलकर थोड़ी शराब टूटे बर्तनों की प्यास बुझाना चाहता था
माथे की लकीरों को तहाकर खिला देना चाहता था

बाजू की मछलियों को मैं घुमड़ते बादलों की प्यास बनना चाहता था
मैं चाहता था मैं कुछ देर और ज़िंदा रह सकूं।
***

संजय चौधरी की कविताएं - चयन, मराठी से अनुवाद और प्रस्तुति : स्वरांगी साने

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स्वरांगी साने की कविताएं अनुनाद छापते हुए मैंने उनसे मराठी से अनुवाद के लिए अनुरोध किया था और उन्होंने कुछ अनुवाद भेजने शुरू किए हैं। मराठी कविता में संजय चौधरी के नाम मेरे लिए अनसुना है। उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता  शिवाजी की तलवार और बाबा साहेब के हाथों की किताब के बीच बहुत स्पष्ट नहीं हैइस प्रसंग में दुविधा है। आगे बाल भिक्खू के संवाद और उसके बाद वाली कविता से कवि की वैचारिकी कुछ स्पष्ट होती दिखाई पड़ती है। उनके बारे में कोई राय बनाने के लिए हमें उन्हें और पढ़ना होगा, ये कविताएं तो कुछ शुरूआती संकेत भर हैं। 
कवि का अनुनाद पर स्वागत  और स्वरांगी को इस सिरीज़ को शुरू करने के लिए शुक्रिया।    
-शिरीष कुमार मौर्य

मैं निकला हूँ तुम्हारी दिशा में गौतम….’ जब किसी कवि का परिचय यह बन जाए तो उसके आगे सारे शब्द मौन हो जाते हैं। इन दिनों ठाणे महाराष्ट्र में रहने वाले संजय चौधरी का पहला काव्य संग्रह 2005 राजहंस प्रकाशन पुणे से माझं इवलं हस्ताक्षरआया और देखते ही देखते उसकी तीन आवृत्तियाँ भी  आ गई। राज्य के तमाम प्रतिष्ठित पुरस्कार उस संग्रह के नाम दर्ज हैं।  उनकी कुछ मराठी कविताओं का अनुवाद प्रस्तुत है।
-      स्वरांगी साने

                         
कविता की कविता


मेरी जेब में होती है क़लम
जैसे शिवाजी महाराकी क़मर से
बंधी होती है तलवार

बाबा साहेब के हाथ में होती है हमेशा किताब
वैसे     
मेरे हाथों में होता है कविता का सामान

बुद्ध आँखें बंदकर प्रवेश करते हैं भीतर और भीतर
वैसे ही मैं कविता में प्रवेश करता हूँ

मैं लड़ता हूँ लेखनी के साथ दुनिया का हर युद्ध
***

बाल भिक्खू का बुद्ध से संवाद

उसने एक शब्द तक नहीं कहा
मैं भी होंठ बंदकर
बैठा हूँ उसके आगे
...

केवल सांसों के चलने की आवाज़
...

मौन के विद्यालय में
आज मेरा पहला ही दिन 
मैंने अपना नाम लिखवाया है
बुद्ध की पाठशाला में
….

मैंने उससे पूछा
किस रास्ते से जाना होगा भीतर?
उसने कहा
जिस रास्ते से आँसू आते हैं बाहर

अब मैं निकला हूँ
उसकी अंगुली पकड़
करूणा के निर्मल धरातल की ओर
….

मैंने पूछा
कहाँ से आए हो
कहाँ जा रहे हो?
कहाँ है तुम्हारी पोटली, कपड़े-लत्ते?
बुद्ध ने कहा,
मैं सिर्फ़ खुद को अपने साथ रखता हूँ

तुम्हारे पास सब कुछ है
पर
तुम्हारा तुम खो गया है इस कचरे में

उसने किया स्मित हास्य
और मैं रहा मौन
उसने कहा चलो
मैं चल पड़ा उसके कदमों की दिशा में
खुद की खोज में
….
**

 
लड़कियों की कविताएँ


लड़कियों को अपना सौंदर्य
किसी की बपौती नहीं बनाना चाहिए
जो सम्मान कर सकें
उन आँखों को दान कर देना चाहिए


ग्रीष्म ऋतु लड़कियों को सुखा नहीं सकती
लड़कियाँ उसे वापस भेज देती है
ग्रीष्म सूर्य से कहता है
ऊष्णता सब जगह है
तुम्हारे जितनी ही

अब लड़कियों की रश्मियाँ
सूर्य तक जा रही हैं
….

लड़कियाँ घायल कर लेती हैं
अपने आपको
गहरी नींद में
सपनों से

और कराहती रहती है
उजाले में, जागते हुए


कच्ची उम्र की लड़कियों के
हिसाब भी कच्चे

लड़कियाँ
सर्वस्व के बदले में
दु:ख के गहने पहन लेती हैं


हर लड़की का रास्ता
कौए1 के घर से गुज़रता है
कौआ लड़कियों को    
ऋतु के गीत देता है
इन दिनों
लड़कियों ने
कौए का घर पीछे छोड़ दिया है

अब लड़कियाँ सोती हैं तब भी
उनका शरीर जाग रहा होता है
….

1-   मराठी घरों में ऋतुचक्र के दिनों को आम बोलचाल में  कौए ने छूलियाकहा जाता है।

कविपरिचय  -
                                    
संजयचौधरी
माँ - सौ.रमाबाई पिता  -  श्री.नारायणचौधरी
जन्म - २८ अगस्त १९६५
शिक्षा विद्युत अभियांत्रिकी में पदविका - १९८४
        - 
एम ए ( मराठी ) - १९९१
कवितासंग्रह  -“ माझं इवलं हस्ताक्षर” , राजहंस प्रकाशन, पुणे
                                     # 
प्रथम आवृत्ति - जनवरी २००५
                                     # 
द्वितीय आवृत्ति -  फरवरी २००५
                                     # 
तृतीय आवृत्ति - दिसंबर २०१३
         
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