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अशोक कुमार पाण्डेय की तीन कविताएं

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जबकि हमारी अपनी ही स्मृतियां निर्जनता के कगार पर खड़ी हैं, अशोक तीन बुज़ुर्गों से कविता में संवाद कर रहा है। यहां तीन अलग लोग एक ही ऊर्जा में जलते हुए मिलते हैं, उनके साथ जलता है आज का कवि। ये और वे, विचार के सब रास्ते अब भी हलचल से भरे हैंऔर उन पर आगे भी आहटें भरपूर रहेंगी - ऐसा विश्वास दिलाने वाली इन कविताओं के लिए शुकिया दोस्त। 
*** 
प्रकाश दीक्षित
 
प्रकाश दीक्षित

शहर ही था जो तुमसे बाहर नहीं गया
तुम तो कबके हो गए थे शहर से बाहर

देह में ताब नहीं, न मन में हुलास कि चलो देख आयें दिल्ली एक बार
जहाँ तुम्हारे शिष्य याद करते रहते हैं तुम्हें जैसे कालेज के दिनों की प्रेमिकाओं को

लिखे हुए पन्नों के पीछे गोंजते रहते हो जाने क्या क्या
एक इतिहास तुम्हारे चश्में के शीशों में जमा वाष्प की तरह
एक वर्तमान जोड़ों की दर्द की तरह पीरा रहा है कबसे
सूने ऐश ट्रे सा भविष्य जलती सिगरेट के मसले जाने की बाट जोहता

सम्मानों की गीली मट्टी पर संभल संभल कर चलते
अपमानों के अदृश्य ईश्वर पर हंसते कभी डरते
जैसे सूख गयी वह नदी जिसमें नहाते बीते बचपन के दिन
जैसे छूट गयीं वे आदतें जिनकी संगत में गुज़री जवानी
और वे दोस्त हर सपने में रही जिनकी हिस्सेदारी
सूखती वैसी ही उम्मीदों और छूटती वैसी ही समय की चार पहिया गाड़ी को
देखते अकेले दरवाज़े की ओट से
पीछे छूट गए देखते आगे निकल गयों के रंग
तुम मुझे भी तो देख रहे होगे?

लिखो न एक अंतिम नांदी इस अंतहीन नाटक के लिए साथी
पार्श्व में गूँजता मंदिर का घंटा उसकी शुरुआत का उद्घोष कर रहा है कबसे.
*** 

 
लाल बहादुर वर्मा

लाल बहादुर वर्मा

ठीक इस वक़्त जब तुम्हारी साँसे किसी मशीन के रहम-ओ-करम पर हैं
मैं इतिहास के पेड़ से गिर पड़े पत्तों पर बैठा हूँ लाचार

वे इतिहास को एक मनोरंजक धारावाहिक में तब्दील कर रहे हैं साथी और तुम्हारी आवाज़ जूझ रही है

तुम्हारा उत्तर पूर्व अब तक घायल है
तुम्हारे इलाहाबाद में भी हो सकते हैं दंगे
तुम्हारा गोरखपुर अब हिटलरी प्रयोगशाला है
फ्रांस की ख़बर नहीं मुझे फलस्तीन के जख्म फिर से हरे हैं साथी

और तुम्हारे हाथों में अनगिनत तार लगे हैं
पहाड़ जैसा सीना तुम्हारा नहीं काबू कर पा रहा है अपने भीतर बहते रक्त को
समंदर की उठती लहरों जैसी तुम्हारी आवाज़ किसी मृतप्राय नदी सी ख़ामोश
बुझी हुई है ध्रुव तारे सी तुम्हारी आँखें
अनगिनत मरूथलों की यात्रा में नहीं थके जो पाँव गतिहीन हैं वे

हम अभिशप्त दिनों की पैदाइश थे
तुम सपनीले दिनों की
तुम्हारे पास किस्से भी हैं और सपनें भी
और उन सपनीली राहों पर चलने का अदम्य साहस
कितने रास्तों से लौटे और कहा कि नहीं यह रास्ता नहीं जाता उस ओर जिधर जाना था हमें

यह राह नहीं है तुम्हारी साथी
लौट आओ...हम एक नए रास्ते पर चलेंगे एक साथ

चन्द्रकान्त देवताले और अशोक
 
चंद्रकात देवताले  

सुना आज उज्जैन में ख़ूब हुई बरसात
सुना तुम्हारा मन भी बरसा था बादल के साथ

मुझे नींद नहीं आ रही और बतियाना चाहता हूँ तुमसे
कि पता चले कहीं खून ठंडा तो नहीं हो गया मेरा
सच कहूँ...कुछ लोगों की नींद हराम करने का बड़ा मन है!

पठार अब और तेज़ भभक उट्ठा है साथी
जो लोहा जुटा रहे थे उन्होंने किसी मूर्ति के लिए दान कर दिया है
तुमने जिस बच्ची को बिठा लिया था बस में अपनी गोद में
उसकी नीलामी की ख़बर है बाज़ार में

आग हर चीज़ में बताई गयी थी और हड्डियों तक में न बची
देखते देखते सिंहासनों पर जम गए भेडिये
देखते देखते मंचों पर हुए सियार सब सवार
अबकि तुम्हारी काफी में मिला ही देंगे ज़हर
और तुम सावधान मत होना..प्लीज़

चलो घूम कर आते हैं
नुक्कड़ की वह गर्म चाय और प्याज कचौड़ी चलो खिलाओ
वरना तो फिर सपने में ताई की डांट पड़ेगी
बच्चों को भूखा भेजा? कब सुधरोगे ?

चलो जुनूं में बकते ही हैं कुछ
क्या करें?
कहाँ जाएँ?
मैं दिल्ली तुम उज्जैन
दोनों बेबस दोनों बेचैन!
*** 

स्मरण में है आज जीवन : वसुंधरा ताई कोमकली - संदीप नाईक

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“जब होवेगी उम्र पुरी, तब टूटेगी हुकुम हुजूरी, यम के दूत बड़े मरदूद, यम से पडा झमेला”
(पंडित स्व कुमार गन्धर्व की पत्नी पदमश्री वसुंधरा ताई का निधन )


“भानुकुल” आज उदास है ऐसा उदास वह 12 जनवरी 1992 को हुआ था जब भारतीय शास्त्रीय संगीत के मूर्धन्य गायक पंडित कुमार गन्धर्व ने अंतिम सांस ली थी, दुर्भाग्य से आज फिर माताजी के रास्ते वाले सारे पेड़ ग़मगीन है और भानुकुल में एक सन्नाटा पसरा है. भानुकुल देवास की टेकडी के नीचे बसा एक बँगला है जहां भारतीय संगीत के दो महान लोग आकर बसे और इस शहर के माध्यम से देश विदेश में भारतीय संगीत और खासकरके निर्गुणी भजनों की अनूठी परम्परा को फैलाया. इसी बंगले में पंडित कुमार गन्धर्व ने संगीत रचा, नए राग रागिनियों की रचना की, उनके सुयोग्य पुत्र मुकुल शिवपुत्र ने संगीत की शिक्षा ली, पंडित की पहली पत्नी भनुमति ताई के निधन के बाद उनकी सहयात्री बनी ग्वालियर घराने की प्रसिद्द गायिका विदुषी वसुंधरा ताई जिनके साथ पंडित जी का दूसरा विवाह अप्रैल सन 1962 में हुआ. कुमार जी को यक्ष्मा की शिकायत थी और मालवे के हवा पानी ने उन्हें एक नई जिन्दगी दी, एक फेफड़ा खोने के बाद भी उनका संगीत में योगदान किसी से छुपा नहीं है.  कुमार जी के होने में और यश के शिखर पर पहुँचाने में वसुंधरा ताई के योगदान को भूलाया नहीं जा सकता, जिन्होंने कुमार जी के साथ जीवन में ही नहीं वरन हर मंच पर उनका हर आरोह अवरोह में साथ दिया और हर तान के साथ अपना जीवन लगा दिया. वसुंधरा ताई जैसी विदुषी महिला आज के समय में दुर्लभ है. 

पंडित देवधर की सुयोग्य शिष्या और बेटी वसुंधरा ताई ग्वालियर से देवास आने के बाद मालवे में ऐसी रच बस गयी कि यहाँ के लोग उनके घर के लोग हो गए, वे देवास, इंदौर और उज्जैन के हर घर में पहचानी जाने लगी, देवास के हर भाषा और मजहब के लोगों से उनका वास्ता पड़ा और उन्होंने बहुत सहज होकर सबको अपना लिया. ना मात्र अपने गायन से बल्कि उनकी सहजता, अपनत्व और वात्सल्य भरी मेजबानी के व्यवहार से हर शख्स उनका कायल था. स्व कुमार जी जब तक थे या आज भी देश-विदेश के बड़े से बड़े गायक - वादक, साहित्यकार, अधिकारी, कलाकार, पत्रकार जब भी इंदौर, देवास या उज्जैंन से गुजरे तो एक बार वे जरुर कुमार जी के भानुकुल में आये और जी भरकर कुमार जी से बाते की और ताई का आतिथ्य पाया जो उनकी यात्रा को महत्वपूर्ण बना गया.

कलागुरु विष्णु चिंचालकर, नाट्यकर्मी बाबा डिके, प्रसिद्ध पत्रकार और सम्पादक राहुल बारपुते और स्व कुमार गन्धर्व कला क्षेत्र की ये चौकड़ी मालवा ही नहीं वरन देश विदेश में प्रसिद्द थी और जब ये मिल जाते थे तो बहुत लम्बी चर्चाएँ, और बहस होती थी. अशोक वाजपेयी तब मप्र शासन में वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी थे और भारत भवन बनाने की तैयारी में थे. अक्सर देवास उनका आना होता था और ताई के स्नेह और आतिथ्य के लिए वे लालायित रहते थे क्योकि उन्हें ताई से कई रचनात्मक सुझाव मिलते थे. चारों मित्रों की यह अमर जोड़ी बनाने में वसुंधरा ताई का बहुत बड़ा हाथ था. ताई की समझ सिर्फ संगीत ही नहीं बल्कि व्यापक मुद्दों और रंजकता, कला के विविध पक्ष और साहित्य पर भी बराबर थी. कुमार जी के घर लगभग सारे अखबार और पत्रिकाएं आती थी जिनका अध्ययन और मनन वे लगातार करती रहती थी. मुझे याद है एक बार जब जब्बार पटेल ने अपने नवनिर्मित फिल्म “उड़ जाएगा हंस अकेला” का प्रीमियर देवास में रखा था और मै जब्बार पटेल का इंटरव्यू कर रहा था तो ताई ने कई मुद्दों और फिल्म के तकनीकी पहलुओं पर विस्तृत बात रखकर जब्बार पटेल को भी आश्चर्य में डाल दिया था. फिल्म के शो के बाद लोगों के प्रश्नों का भी ताई ने बखूबी जवाब दिया था जो उनके गहन वाचन और याद रखने का अनूठा उदाहरण था.

संगीत के कार्यक्रमों में देवास में लगभग हर कलाकार यहाँ आता है और भानुकुल जाकर स्व कुमार जी श्रद्धा सुमन अर्पित करता है और ताई से आशीर्वाद लेता था. हम बड़े कौतुक से हर शख्स को ताई से बात करते हुए देखते थे और पाते थे कि वे  हर कलाकार की उनके गुणों के कारण तारीफ़ करती और रचनात्मक सुझाव भी देती थी और हर कलाकार इसे सहजता से स्वीकार करता था. शायद हम कभी महसूस ही नहीं कर पाए कि कुमार जी और ताई जैसे बड़े महान लोगों के सानिध्य में हमारा बचपन कब गुजर गया और हम संगीत में संस्कारित हुए. कुमार जी और ताई ने देवास की अनेक पीढ़ियों को शास्त्रीय संगीत का ककहरा सिखाने का महत्वपूर्ण किया.

ताई सिर्फ कुमारजी की सहचरणी नहीं थी बल्कि शास्त्रीय संगीत के जो संस्कार ग्वालियर घराने और अपने पिता से मिले थे उन्होंने संगीत में बहुत प्रयोग किये, निर्गुणी भजनों की परम्परा को जीवित रखा. देश विदेश में उनके शिष्य आज इस परम्परा को निभा रहे है. कुमार जी के निधन के बाद वे सार्वजनिक कार्यक्रमों में हिस्सेदारी कम करने लगी थी परन्तु अपनी पुत्री सुश्री कलापिनी और पोते भुवनेश को उन्होंने संगीत की विधिवत शिक्षा देकर इतना पारंगत कर दिया कि ये दोनों आज देश के स्थापित कलाकार है.

इधर ताई बीमार रहने लगी थी, जब भी मिलते तो कहती थी कि मिलने आ जाया करो, अब तबियत ठीक नहीं रहती. और आखिर कल वही हुआ जिसका डर था, कल वे अपने ही घर पर गिर गयी और कूल्हे में चोट लगी थी, कलापिनी और भुवनेश ने खूब प्रयास किये परन्तु कल दोपहर उन्होंने अंतिम सांस ली. ताई को भारत सरकार ने कई पदम् पुरस्कारों और उपाधियों से नवाजा था. भारतीय संगीत की मूर्धन्य गायिका तो वे थी ही, साथ ही एक अच्छी गुरु और बहुत स्नेहिल माँ थी. देवास के साथ साथ पुरे मालवे ने आज एक वात्सल्यमयी माँ को खो दिया.
*** 
संदीप नाईक,
सी – 55, कालानी बाग़,
देवास, मप्र.
9425919221.

आज वीरेन दा का जन्मदिन है

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अग्रज कवि वीरेन डंगवाल के लिए ये दो कविताएं, जो मेरे इस बरस 'आए-गए'संग्रह 'खांटी कठिन कठोर अति'में शामिल हैं। इनमें से एक साल भर पहले समालोचन पर छपी थी। बहरहाल, चाहें तो इन्हें कविता मान लें, चाहें तो मेरा अपने अग्रज से निजी संवाद।  
  

 
1
ओ नगपति मेरे विशाल

कई रातें आंखों में जलती बीतीं
बिन बारिश बीते कई दिन
अस्पतालों की गंध वाले बिस्तरों पर पड़ी रही
कविता की मनुष्य देह

मैं क्रोध करता हूं पर ख़ुद को नष्ट नहीं करता
जीवन से भाग कर कविता में नहीं रो सकता
दु:खी होता हूं
तो रूदनविहीन ये दु:ख
भीतर से काटता है

तुम कब तक दिल्ली के हवाले रहोगे
इधर मैं अचानक अपने भीतर की दिल्ली को बदलने लगा हूं
मस्‍तक झुका के स्‍वीकारता हूं
कि उस निर्मम शहर ने हर बार तुम्हें बचाया है
उसी की बदौलत आज मैं तुम्‍हें देखता हूं

मैं तुम्हें देखता हूं
जैसे शिवालिक का आदमी देखता है हिमालय को
कुछ सहम कर कुछ गर्व के साथ

ओ नगपति मेरे विशाल
मेरे भी जीवन का - कविता का पंथ कराल
स्मृतियां पुरखों की अजब टीसतीं
देखो सामान सब सजा लिया मैंने भी दो-तीन मैले-से बस्तों में
अब मैं भी दिल्ली आता हूं चुपके से
दिखाता कुछ घाव कुछ बेरहम इमारतों को
तुरत लौट भी जाता हूं

हम ऐसे न थे
ऐसा न होना तुम्‍हारी ही सीख रही
कि कविता नहीं ले जाती
ले जा ही नहीं सकती हमें दिल्ली
ज़ख्‍़म ले जाते हैं

ओ दद्दा
हम दिखाई ही नहीं दिए जिस जगह को बरसों-बरस
कैसी मजबूरी हमारी
कि हम वहां अपने ज़ख्‍़म दिखाते हैं.
***

2

हे अमर्त्य धीर तुम

वह
फोन पर जो आती है कुछ अस्पष्ट-सी आवाज़
अपने अभिप्रायों में बिलकुल स्पष्ट है

एक स्वप्न का लगातार उल्लेख उसमें
हालात पर किंचित अफ़सोस
यातना को सार्वजनिक न बनने देने का कठिन कठोर संकल्प

आवाज़ आती है जिनसे लदी हुई
कितने अबूझ वे दु:ख के सामान
जितने नाज़ुक
उतने क्रूर

आवाज़ पर कितने बोझ कुछ धीमा बनाते उसे
पर पुरानी गमक की उतनी ही तीखी तेजस्वी याद भी उसमें

कुछ नहीं खोया
इतना कुछ नहीं मिटा चेहरे से
नक्श बदले ज़रा ज़रा पर ओज नहीं
प्यार वही
उल्लास वही

सुनना जहां ढाढ़स में नहीं उत्सव में बदलता हो
आवाज़ भी ठीक वही

जबकि
इधर के बियाबान में
बिना किसी दर्द और बोझ के बोल सकने वाले महाजन
बोलते नहीं कुछ
वह आवाज़ आती है
उस निकम्मी ख़ामोशी में पलीता लगाती
ले आती हमारे हक़ हुकूक सब छीन छान
               तिक तीन तीन तुक तून तान
- यही असर है थोड़ा-सा तालू पर

जीवन के तपते जेठ महीने में
पांव पड़ा था बालू पर
थे लगे दौड़ने केकड़े जहां बाहों के ताक़तवर कब्ज़े खोले
चिपटते-‍काटते जगह-जगह
तब से ये आवाज़ विकल है

लेकिन
स्त्रोत सभी झर-झर हैं इसके
उतनी ही कल-कल है इसमें
अब भी है
सतत् प्रवाहित सदानीर वो

आशंकाओं की झंझा में जलती चटख लाल एकाग्र लपट का
तुम प्यारे
अमर्त्य धीर हो
***

जब लोग अपने होने के अभिप्राय से भाग रहे थे - महाभूत चन्दन राय की कविताएं

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महाभूत चन्दन राय ने कविता में एक कठिन राह पकड़ी है। सरलीकरणों के बरअक्स वे एक जटिल लग सकने वाला संसार रच रहे हैं। उनके लिखे में ख़ूब अभिधा है। वे संवाद में यक़ीन रखने वाले कवि हैं। कोई संवाद उतना जटिल होता नहीं, जितना एकबारगी लग सकता है। इन कविताओं का गद्य कठोर है। कविता, कविता होने से पहले एक बयान है - इस बिसरी हुई याद को वे अचानक केन्द्र में ले लाए हैं। कविता में चहुंओर चल रहे बखानों के विरुद्ध ये तीखे और बेधक बयान एक कहीं अधिक मार्मिक कार्रवाई है। इनका सम्बोधन किसी ओजस्वी भाषण का-सा है। समकालीन सत्ता की राजनीति और साहित्य की राजनीति से खुली भिड़न्त आज के इस कवि के सामर्थ्य का पता देती है, क्योंकि ठीक वहीं कविता और जाहिर सफलताओं से चूक जाने का ख़तरा भी माजूद है। कितने कवि हैं जो ख़तरे के बीच इस तरह चले जाने को ही अपने शिल्प बना लेना चाहेंगे?

मेरा छटपटाता हृदय इन कविताओं के बीच से गुज़रते और भी छटपटाता है। कला के धुंधलकों में छुप गए कितने ही सूर्य हमारे, तब उस लुका-छुपी के बीच इन कविताओं की साफ लाल लपट मुझे आश्वस्त करती है। आगे इस आग की ज़रूरत होगी हमें। इस आग में उतरता हूं तो 'चकमक की चिंगारियां'याद आती है –

अधूरी और सतही जिन्‍दगी के गर्म रास्‍तों पर
हमारा गुप्‍त मन
निज में सिकुड़ता जा रहा
जैसे कि हब्‍शी एक गहरा स्‍याह
गोरों की निगाह से अलग ओझल
सिमटकर सिफ़र होना चाहता हो जल्‍द
मानों क़ीमती मजमून
गहरी,ग़ैर-क़ानूनी किताबों,ज़ब्‍त पत्रों का
(मुक्तिबोध)   
***


हवाकेरुखकेविरुद्ध

( 1 )
यह कैसी बर्बर हवा बह रही है..
की कविताओं में समय-दर्ज यथार्थ के सारे हर्फ़ उड़ गए है..
कलमें तानाशाहों की रंगशालाओं में फाँसी झूल रही है
सच झूठ के पांवों में दासों सा हाथ जोड़े पड़ा है
और शैतानों को दिहाड़ी बजा रहे हैं इस सदी के देवता-गण
जो सबसे झूठे दगाबाज और मक्कार थे...
वो  सिहांसनों पर विराजित दे रहे हैं न्याय के आदेश  !

( )
मैं शहर के बीचो-बीच खड़ा पड़ताल करने की कोशिश करता हूँ
यह कैसी निर्लज्ज हवा बह रही है की समय इतना लफंगा हो गया है
की दुर्घटनाओं का रत्ती भर भी शोक नहीं मानता
संवेदना लो बॉटम जींस डाले हर्ट-लैस  अर्द्धनग्न घूम रही है
निजता निजीकरण में और उदारता उदारीकरण के बाजार में तब्दील हो चुकी है
धर्म-जाति-भाषा-शब्द-रोटी और देह सब कुछ बिक रहा है खुलेआम

( 3 )
मैं पड़ताल करता हूँ क्या है इस बर्बर हवा का रुख..
की जिसमे धर्मनिरपेक्षताकीहरबातमस्जिद की गुंबदसेशुरूहोतीहै
और मंदिरों की दीवारों पर आकरखत्महोतीहै
यहकैसी  विषाक्तहवाबहरहीहैकी
कोईभीऐरा-गैरानत्थूखेरादिनदहाड़े लिख देता है
धर्मकीदीवार  पर..
"राम-रहीम जानी-दुश्मन"
औरलोगएकदूसरेकागलारेतनेलगतेहैं!

( 4 )
मैं जानना चाहता हूँ इस हवा का रुख ...
जिसमे मैं और आप दोनों बड़ी बेफिक्री से सांस लेते हैं
की अयोध्या की बाबरी मस्जिद में दाखिल होते हुए
उसने अल्लाह को वजूहात का हक अदा किया था या नहीं
और राम लला के खंडित परिसर में भीतर प्रवेश करने से पहले
उसने अपने इस्लामी पाँव पखारे थे या नहीं…?
वह किस-किस जगह कितनी-कितनी हिन्दू थी और कितनी-कितनी मुसलमान..?
मंदिर-मस्जिद की विवादित जमीन पर उसका रुख क्या है ?
इस हवा में सांस लेने के लिए मेरा यह जान लेना बेहद आवश्यक है
वह झोपड़ियों में कितनी खिन्न थी और महलों में थी  कितनी प्रसन्न !

( 5 )
यह कैसी हवा बह रही है की जिसमे हम अपने-अपने मुँह छुपाये
अपनी-अपनी मजबूरियों और समझौतों के साथ घर में नजरबंद हैं ..
हमारी वैचारिकता सम्मोहन-ग्रस्त मूढ़ हामी लिए अपने सर झुकाये
भेड़ों सी भेड़-झुंडों में चली जा रही है
मसलन हम समूहों में बोलते है और समूहों में करते है इंकार
अब एक समूह तय करता है हमारी बौद्धिकता ,हमारे विरोध
हमारी आवाज हमारी प्रतिबद्धता हमारा रुख एक समूह का रुख हैं
ये कैसी हवा बह रही है की जिसके साथ हम कोरेकागजों से उड़े जाते हैं
और हमारे पास अपने नुकीलेइंकार तक नहीं हैं!

( 6 )
मैं देख रहा हूँ इसी बर्बर हवा में कुछ जीवित वस्तुओं का रुख ..
एक बाँस अभी भी तना हुआ अकड़ रहा है हवा के विमुख
एक अमरबेल रस्सियों के सहारे झूल रही है ,
अच्छे दिनों की परिकल्पना के दिवास्वप्नों में डूबा एक अर्धमृत रीढ़-हीन देश
ऑंखें भींचे एक मायावी के पीछे चला जा रहा है
हिटलर का पुनर्जन्म हो रहा है
और सद्दाम जैसे धीरे-धीरे इस समय में लौट रहा है !

( 7 )
मैं देख रहा हूँ इस विचारशून्य समय में
जब समूची विपक्षता हवा के रुख की तरफ रुख कर चली जा रही है
इस समय में जब चीजें इतनी मृतप्राय और निर्जीव हो गयी हैं
एक हरी दूब मुस्कराती हुई पूरे साहस के साथ खड़ी है
हवा के इस रुख के विरुद्ध  !
***

जीवितहोनेकामहत्व

महत्वइसबातकानही..
कीवहलड़ाऔरमारागया
महत्वइसबातकाहैकी
यहजानतेहुएभीकीवहमारदियाजाएगा
वह  लड़ा!

सम्भवतःइसबातकाकोईअर्थहोकी
वहज़बप्रतिरोधकेगलगलेकररहाथा
उसकीआवाजकेप्रहारनेकहींकोईहलचलपैदानहीकी
कहींविरोधकीकोईश्रृंखलानहीफूटी
कोईकिलानहीढहाकोईदिवारकहींनहीगिरी
परइसबातकाअर्थसदैवजीवितरहेगाकी
जबचारोंतरफ़पसराहुआथामुर्दासन्नाटा
वहपागलोंकीतरहबोलरहाथा !

जबसहमतियाँसामूहिकताकीगलबहियाँडाले
बेशर्मोंकीतरहघूमरहीथी
औरहवाकारुखतयकररहीथी
पक्षधरताकीवस्तुस्थिति
वहअकेलाहीहवाकेरुखकेविरुद्ध
खड़ाहस्तक्षेपकररहाथा !

जबलोगअपनेहोनेकेअभिप्रायसेभागरहेथे
वहअपनेहोनेकेमतलबकेसाथअड़ाखड़ाथा
औरअसम्भवकोसम्भवबनानेकीअपनीजिदमें
बचाएहुआथाप्रतिनिषेधकीभूमिका
जबहरचीजबिकाऊऔरमृतप्रायःहोचलीथी
वहबचायेहुएथाजीवितहोनेकामहत्व..

औरइसबातकेमायनेकभीमृतनहीहोंगे !
***

मेडइनइंडिया

अबमैंभूखसेनहीमरूँगा..
      नहींमरूंगाडेंगू  मलेरियायाचिकनगुनियासे
 -विकासकामच्छरमुझेनहींमारेगा  डंक 
मेरेफेफड़ोंमेंनहींरेंगेगेटी.बी. केकीड़े
      मेरीआँतोंमेंबिलबिलातेगरीबीकेचूहे
      अब  फाड़ेंगे  नहींमेरापेट
 गरीबीमेरेलिएमहजएकअफवाहहै
पानीकीजगहपियूँगादारु
 खाऊंगाडॉलरयूरोऔरपाउंड
बेचूंगानींदके   घोड़े !

मैंअबपृथ्वीपरनहीमरूँगा..
कीड़ेमकौड़ोंकीसीमौत !!

 अबतो  चीनसेदनदनातीआएगीकोईचाइनापिस्तौल
कोईअमरीकीस्मार्टसिटीमेरेमुहल्लेमेंबसेगी 
रूससेउड़ताआएगाकोईयुद्धविमान
जापानसेदौड़तीआएगीकोईजापानीरेल
जर्मनीसेआयातहोंगेहिटलर 
हवामेंउड़तेहोंगेशॉपिंगमाल 
बरसतीहोगीआसमानसेइंग्लिशवाइन !

मैंअबकभीमंगलयानमेंबैठा
कभीचंद्र-यानमें  बैठा
कभीप्लूटोपर...
कभीजूपिटरपर ..
कभीवीनसपर..
नरककेमसीहाओंसे
"मृत्युपरचर्चा"करूंगाऔरबेचूंगा"मौत"
कहूँगामहोदय.. कममेकइनइण्डिया
जीवनयहाँमहंगाहैतोक्यामौतयहाँपरसस्तीहै
आखिरग्लोबलाइजेशनकाजमानाहैसाहब !

फिरकोईचन्द्रमाहीक्योंमुझपरगिरपड़े
मैंमंगलकेमलबेकेनीचेहीक्यों  दबमरूं
डूबजाऊंचाहेकिसीहिन्दमहासागरमें
फिरकोईउल्काहीमुझपरटूट  पड़े
फिरकोईताबूतहो. चिताहोयाकब्र .
मुझेफूंकों ,दफनाओं, जिन्दाजलादो 
मिलहीजानाहैयमलोकमें ..
"आनअराइवलवीजा"

मैंकिसीभीविदेशनितिकेतहतमरूँ...
मरूंगाआखिरकर"पूंजीवादी"मौत
फिरमैंनेकराभीतोलियाहै ..
मरनेकेबाद ...
आदमीकोअमीरकरदेनेवालाबीमा !
***

अमानुषोंकेप्रति

मैंमहजअफवाहहूँ...
तुमसनसनीखेजखबरहो !

मैंभूखेकीथालीकाग्रहणहूँ
तुमगलेतकमदिराकीतरावटहो !

मैंटूटीझोपडीहूँ
तुमसोनेकामहलहो !
मैंजनताकीजूतीहूँ
तुमराजाकापाँवहो !

मैंमेहनतकीगन्धहूँ..
तुमविलासकाइत्रहो !

मैंआपरेशनकीटेबुलपरबिकनेवाली
किडनीहूँ ,आंतहूँ , आँखहूँ...
तुमसाइनकियाब्लैंकचैकहो !

मैंकोठेपरबिकनेवालासामानहूँ..
कारीगरकेकटनेवालाहाथहूँ
तुममालदारखरीदारहो
धारदारऔजारहो !

मतमानो..
मेरेपासकलेजाहै
मुर्गाहूँ
खामोशतुम्हारेगंडासेकेनीचेकटजाऊँगा !

तुम्हारेनथुनोंमेंघुसरहीहैजोहवा
उसेसुंघों...
येकिसकेलहूकीगन्धहै ?

गरकानखराबहो
तोकानोंकेपासझाँखभरगयीहवामेंसुनो
येकिसकेकत्लकीचीखहै ?

मेरेशब्दोंमेंउसीकत्लकीबूहै
मुझेहरवक्तदिखायीपड़तीहैवोस्त्री
जो"बचाओबचाओ"चीखरहीहै !

क्यातुम्हेभीकुछमहसूसहोताहैऐसा
गरअमानुषहीहो.
तोफिरक्याकहूँ ??
***
मतमतमत

मतदेखोआईनाही...
की वह तो तुम्हारा रूप ही बघारता  है
फिर वह दोष भी दिखाएगा
तो तुम कहाँ देखोगे ?

मतजाओकिसीपोएट्रीफेस्टिवलमें
शिमला,चिमला, चकादमीयापानपीठ
बजाओ बंशीधर बंशी अकेले ही अकेले 
पुरस्कारों की मुंह दिखाई से दूर
कुंवारे ही बने रहो ...
रहो अलग थलग किसी से मत मिलो !

मतपूजोउनकेपाँव..
जिनके सर बहुत ऊँचे हो 
जिनकी आँखे झुकती ही नही
और जिनकी गर्दनों में अकड़न हो !

खूब जियो नास्तिकता का दुस्साहस
गढ़ो सहारे की आदत के विरुद्ध जीने की पद्धति
मतमानोजिसेअबतकबदलानहीगया..
उसे बदला नही जा सकता 

मत मानो उसे जिसे राजदरबारों की प्रथा में
मानना बेहद जरूरी है
खूब कहो जैसे कहते हो, कहते रहे हो
चीखकर, धीमे से, लिखकर, गाकर,बड़बड़ाकर
करो इंकार जितना कर सकते हो !

मतखोलनाअपनेमनकेद्वार..
पर इतना भर खुले रहना
की अपने बनाये सिद्धांतों के भीतर
कहीं तुम ही कैद होकर  दम न तोड़ दो
इच्छा करना पर लोभ मत करना
गलतियाँ करना पर अपराध मत करना
गर्व करना पर अभिमान मत करना
विरुद्ध होना पर खिलाफ मत होना
बोलना पर थूकना मत!

बेशक उकताए रहना
अपनी मत मत की मत मत में
पर मत चूकना यह जांचने में भी की
तुम्हारी यह  मत मत मत कहीं
तुम्हारा दृष्टिदोष, वाक् दोष या श्रवण दोष न हो
इस"मत मत मत"की दुनिया बनाते हुए
तुम जो मान रहे गढ़ रहे हो रच रहे हो
वह  "मत मत मत"इस लगातार  कठिन होती दुनिया को
को"सरल"बनाने की कोशिश हो
और यह भी की इस  मत मत की मत मत में
तुम कहाँ  स्थितहो??
***

बधाई  औरपुरस्कार

यह जानते हुएभी मैं लिखता हूँ यथार्थपरक कविताएँ
की महज एक गर्मजोश बधाई भर रह कर दम तोड़ देगा
मेरी लिखी कविताओ का औचित्य और महत्व
तथापि मैं अपनी कविताओं संग पूरे साहस के साथ
इस निर्लज्ज समय से मुठभेड़ करता हूँ !

यह ज्ञात होते हुए भी
की कविता की आवश्यक उपस्थिति
एक पुरस्कार की नियति भर बन कर रह जायेगी
साहित्यिक परिचर्चाएं होगी महज कवि की
कलात्मक सरंचना-गुण-दोष-भाव पर
मैं निष्प्रभावित यथोचित मनन कर लिखता हूँ
हस्तक्षेपों से भरी कविता

मैं भयभीत हूँ की
मुझे एक लोकप्रिय कवि की तरह मिल जाएगी
सामाजिक और साहित्यिक स्वीकार्यता
किन्तु जिरह और बहसों के सामाजिक खांचे में
छूटा रहेगा वो रिक्त स्थान
जहाँ बेहद जरुरी था रचने की अनिवार्यता का हस्तक्षेप

कविता महज मनोरंजन की कला नहीं है
कविता नयी संभावनाओं नयी उम्मीदों नए सपने जगाने की भी कला है
अत: कविता लिखने की दुविधा और चिंता से त्रस्त
मैं समाज में कविता की भूमिका और उसकी अनिश्चित स्थिति सेखिन्न 
बधाईयों और पुरस्कारों से भयभीत हूँ !

कहीं रचे का यथार्थ और उसकी अनिवार्यता
बधाईयों और पुरस्कारों के मलबे के नीचे दब कर
दम न तोड़ दे
कवियों बधाईयों और पुरस्कारों से  सावधान… !
***

थूकना

वह थूकने के कौशल में पूर्णत सक्षम एक थूकबाज था
वह जो भाषा को पीकदान बना देने की हद तक आमादा था
एक दिन उसने अपनी लफंगी शैली में  भाषा के भीतर
शब्दों की शक्ल  में थूका
थूकने को आसक्त हो चले एक तथाकथित समुदाय ने
घोषित किया उसे एक प्रतिभाशाली भाषाविद !

इस तरह उस थूकवीर ने जारी रखा अपना थूकने का उपक्रम
धीरे-धीरे उसने अपने समकालीन कवियों कथाकारों 
उपन्यासकारों पुरस्कारों पर थूकना शुरू किया  
इस दफे थूकने  में पारंगत  कुछ मूर्धन्य महाशयों ने घोषित किया
उसे नयी पीढ़ी का  संभावनाशील आलोचक
बताया गया उसने विकसित की है आलोचना की नई कला !

इस तरह बढ़ता गया उस थूकवीर के थूकने का दुस्साहस
उसने  हर घोटी बड़ी घटनाओं व्यवस्थाओं राजनेताओं समाजसेवकों पर थूका
उसने अपने प्रिय अनुजों अप्रिय शत्रुओं  और आदरणीय अग्रजों पर समानुपात में थूका
इस दफे कुछ शोहदों ने उसे सार्वजनिक रूप में  घोषित किया
उसे अपने हृदयों का नया सम्राट
प्रतिभाशाली निर्भीक और जोखिमदार  !

जबकि थूकना और आलोचना दो अलग-अलग क्रिया है
तथापि धीरे-धीरे लोग उसके साथ मिलकर थूकने लगे..
एक बड़ा जन समूह उसके पदचिह्नों पर चलने लगा..
अन्तत: एक दिन थूकने की नई संस्कृति विकसित करने पर
वह  थूकवीर भी  हुआ पुरस्कृत
अतएव उससे अपने विचार साझा करने के लिए कहा गया..
किन्तु मंच पर माइक सँभालते ही जो उसने थूकना शुरू किया
तो उसका थूकना रुका ही नहीं

उसे थूकने की बिमारी थी!
***

आलोचककीआलोचना

यह इस युग के आलोचकों की..
 "अहमधर्मिता है या हठधर्मिता"
की अपनी मानक आलोचना के 
बाड़ों और अखाड़ों से बाहर कूदते ही
उसकी सारी विद्वता लंगड़ी और गूंगी हो जाती है !

उनकी सारी समकालीनता नव्य की खोज से विमुख
उपेक्षाओं की उस प्राचीन प्राचीर पर बैठी बगुले की वो आँख है
जो अपनी पीठ घुमाए कुछ स्थायी पात्रों की बगुला-भक्तिकररहीहै
उनका सारा ज्ञान अपने ही बनाये बूढ़े प्रतिमानों का वह अशिक्षित है
जिसके बाहर झाँकते ही उसकी दूरदर्शिता खो बैठती है अपनी आँखें..
और महज पढ़ पाती है चिंदी भर निकटता !

जबकि त्रुटियाँ नई संभावनाएं हैं और पूर्णता है समापन..
उसका सारा साहित्यिक-बोध महज पुरस्कृत श्रेष्ठता का
पिछलग्गू हो कर रह गया है
समालोचना अब महज रचनाकार उन्मुखी भाड़े की
प्रशंसा-प्रपत्र होकर रह गयी है
साहित्य की विकास यात्रा पर निकला नव्य का खोजी
वह समन्वेषक रचना से विकेन्द्रित हो खो बैठा है
आलोचना में निहित धैर्य और सन्देहकामुलभूत स्वाभाविक गुण
और अधीर हुए नाचता है कभी यहाँ कभी वहाँ
 जैसे चालाक लोमड़ी और खट्टे अंगूर..

जबकि आलोचना है कौए की प्यास
जैसे विदुर की नीति !

समालोचना खो रही है अपना प्राकृतिक सौंदर्य
सूख रहा है आलोचना का हरियर वृक्ष
आलोचक की आलोचना का सुगठित समालोचक प्रयास
ही बचा  सकती है अब समालोचना की कस्तूरी सुगंध
और यह एक  कवि की आलोचक चिंतित समालोचना है!
***

दस नई कविताएँ : पंकज चतुर्वेदी

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पंकज समर्थ आलोचक और प्रिय कवि हैं। अनुनाद की स्थापना से ही उनका इस पत्रिका से गहरा लगाव रहा है। अनुनाद के पन्नों पर उनकी कविताएं अौर लम्बे आलोचनात्मक लेख सहेजे हमनें और उन पर हुई स्वस्थ लम्बी बहसें भी। इधर पंकज की दस नई कविताएं हमें उपहार की तरह मिली हैं। मैं इन कविताओं पर कोई टिप्पणी नहीं लगा रहा हूं, उसे बचा रखा है कहीं और विस्तार से लिखने के लिए। 
अनुनाद इन कविताओं के लिए आपको शुक्रिया कहता है पंकज, साथ जन्मदिन की मुूबारकबाद भी।  


1
और सुंदर

तुम अनन्य सुंदर हो
प्यार तुम्हें और सुंदर करेगा

जैसे नीम है हरा कोई रंग नहीं है हरा
जैसे गुलाब है लाल कोई रंग नहीं है लाल

जैसे प्रकृति का व्यवहार
इनमें और
रंग भरेगा

प्यार तुम्हें
और सुंदर करेगा

2

आज मैंने

आज मैंने तुम्हें देखा
तो पहले कहाँ देखा था
यह ध्यान नहीं कर पाया
जीवन एक निर्जन प्रतीक्षा-सा लगा
क्योंकि न जाने कब से
तुम्हें नहीं देखा

आज देखा तो लगा
कि देखता ही रहूँ
पर यह संभव नहीं हुआ

रौशनी उमड़ती हुई जाती थी मुझसे दूर कहीं
और वह मुझे जानती भी तो न थी

3
सफ़र

खन्ना बंजारी और व्यौहारी
किन्हीं व्यक्तियों के
नाम या विशेषण नहीं
कटनी और सिंगरौली के बीच पड़नेवाले
रेलवे स्टेशन हैं
मुमकिन है ऐसे व्यक्ति कभी रहे हों
जगहें जिन्हें याद करती हैं

इसी तरह जुगमंदिर और वीर भारत
व्यक्ति हैं
किसी इमारत या मुल्क की
विशेषता बताते

वस्तुओं और व्यक्तियों का
एक-दूसरे में ढलता और बदलता
यह सफ़र है जि़ंदगी

आप किसी से मिलते हैं
तो कहीं पहुँचते हैं
और जहाँ पहुँचते हैं
वहाँ फिर किसी से मिलना चाहते हैं

4
दादी

दादी की मुझे इतनी भी याद नहीं है
कि घर के एल्बम में उनकी छवि से उसका
मिलान कर सकूँ

मैं बहुत छोटा था जब वे नहीं रहीं
गाँव से बहुत दूर शहर के
एक टी.बी. अस्पताल में

माँ ने बताया
कि वे बार-बार कहती थीं:
भैया को मैं देखना चाहती हूँ

जि़ंदगी के आखि़री तीन महीने
उन्होंने बिताये अस्पताल में
पर उनसे मुझे मिलवाया नहीं गया

घर के लोग उनके रोग की
संक्रामकता को जानते थे
पर जीवन, जो उनसे छूट रहा था
उसके क़रीब आने की
उनकी कोशिश को
नहीं जानते थे

5
प्रश्न

मैं उस शहर को जा रहा हूँ
जहाँ मैं नौकरी करता था
मैं उस शहर से आ रहा हूँ
जहाँ मैं नौकरी करता हूँ

भागती हुई ट्रेन में
उसने मुझसे पूछा:
आपका घर कहाँ है?

मैंने कहा:
गाँव में

इसके पहले कि मैं बताता
वह किस जि़ले का
कौन-सा गाँव है

सहसा एक प्रश्न
मुझे चुप कर गया:
घर वह मेरे जानने को
रह गया है
मानने को
मुझे क्या करना चाहिए?

6
आस्था

बचपन में स्कूल से लौटकर घर आता 
तो कभी-कभी माँ नहीं मिलती 
सामने चाचा के घर में जाकर पूछता 
तो छोटी दादी मेरी परेशानी से 
प्रसन्न होकर कहतीं :
माँ तुम्हारी चली गयी 
किसी के साथ 
मैं अचरज में पड़ जाता :
कैसे चली गयी ?
''सड़क पर जो बस आती है 
उसमें बैठकर''
मगर माँ आस-पड़ोस में कहीं गयी होती 
थोड़ी देर बाद मिल जाती 

मेरे इस एहसास को 
सत्यापित करती हुई 
कि माँ कहीं जा नहीं सकती 
इस तरह आस्था मुझे मिली 
माँ से 

7
समयांतर
                    
बरसों पहले अपने एक रिश्तेदार से मिलने 
उनकी दुकान पर जाता था 
तो वे प्रायः कभी नहीं मिलते थे 
पर दुकान खुली रहती थी 
तब मेरा एक सपना यह था 
कि मैं एक दुकान खोलूँगा 
और उसमें मिलूँगा नहीं 
कितना अखंड विश्वास है इसमें 
अपने समाज पर 
कि सामान चोरी होगा नहीं 
और बैठे रहने से वह बिकेगा नहीं 
और कुछ बिक भी गया तो 
उसकी उम्मीद में बैठे रहना 
बेवक़ूफ़ी है 
तब यह नहीं पता था 
कि एक ऐसा समय आयेगा 
जब दुकानें जो चलेंगी नहीं 
बंद हो जायेंगी 

8
खनक
                    
जब मैंने उससे कहा :
आपने सत्ता बदलने के साथ ही 
अपने विचार बदल लिये 
उसने जवाब दिया :
ऐसा नहीं है 
और अगर ऐसा है भी तो 
मुझमें एक नज़रिये पर 
क़ायम रह सकने का 
विवेक नहीं है 
और ऐसी निष्ठा भी नहीं है 
मगर यह कहते हुए 
उसके स्वर में 
किसी अभाव की कसक नहीं 
बल्कि एक अभिमान की खनक थी 
कि देखो, नीचे मैं गिरा हूँ 
ऊँचा उठने के लिए 

9
मैं जागते रहना चाहता था 

मैं जागते रहना चाहता था 
इसलिए सोना 
मुझे अनिवार्य था 
अगर कुछ नहीं हो सका 
दुख का निदान 
तो सोना सुख था 
जब बहुत ज़्यादा 
यथार्थ हो जाता था 
तो सोना न होना था 
जो उसे संतुलित करता था 

10
नियंता कहते हैं
  
क्रिकेट में अगर 
अपने विकेट की रक्षा की 
पात्रता नहीं है 
तो बल्लेबाज़ को---------
चाहे वह कितना ही महान हो---------
मैदान छोड़कर जाना होगा 
कोई क्षमा नहीं है 
यही नियम लोकतंत्र का है 
पर उसके नियंता कहते हैं 
कि क्रिकेट का है
***
पता: हिन्दी विभाग, डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय,
सागर (म.प्र. )-470003
मोबा. 09425614005

आशीष बिहानी की कविताएं

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आशीष बिहानी की कविताएं अनुनाद पर कुछ दिन पहले ही लगनी थीं पर नेट की रफ़्तार ने साथ नहीं दिया। इस संभावनाशील युवा कवि का पहला संग्रह जल्द आ रहा है, जिसका ब्लर्ब कवि लाल्टू ने लिखा है। यह ब्लर्ब और आशीष की कुछ कविताएं अनुनाद के पाठकों के लिए। 

 
युवा कवि आशीष बिहानी की कविताएँ समकालीन हिंदी काव्य-परिदृश्य में नए-नवेले अहसासों से भरपूर होकर आती हैं। ये कविताएँ 'छटपटाते ब्रह्मांड'की 'धूल-धूसरित पनीले स्वप्न'भरी कविताएँ हैं। अहसासों की विविधता और विशुद्ध कविता के प्रति कवि का समर्पण हमें आश्वस्त करता है कि यह शुरूआत दूर तक ले जाएगी। ये कविताएँ हमें निजी दायरों से लेकर व्यापक सामाजिक और अखिल सवालों तक की यात्राओं पर ले जाती हैं। कविताओं को पढ़ते हुए हम एकबारगी इस खयाल में खोने लगते हैं कि जीवन के अलग-अलग रंगों में रंगे इतने अर्थ भी हो सकते हैं। उनका ब्रह्मांड सूक्ष्म से विशाल तक फैला है। कवि की परिपक्वता को हम दिन के अलग वक्तों के लिए कविता के चयन में देख सकते हैं। जैसे संगीत में राग का चयन होता है, आशीष ने संग्रह में कविताओं को इसी तरह सँजोया है। ये केवल वही वक्त नहीं, जब हम पूरी तरह सचेत होते हैं, इनमें स्वप्नकाल और ब्रह्ममुहूर्त भी शामिल हैं।

उनकी हर कविता में अनोखा राग सुनाई पड़ता है, चाहे वह 'जाड़े की क्रूर रात'हो या कि कोई उल्लास-पर्व हो। यहाँ 'शोषित, पीड़ित देवताओं'की रवानी है, और 'चाँदनी की फुहारों के नीचे... वाष्पित बादल'भी हैं। वहाँ जीवन है और 'मृत्यु का शून्य अनुभव'भी है। हर ओर संवेदना की अनोखी तड़प है। समकालीन समाज की विसंगतियों को अपने निजी और व्यापक संदर्भों में बयां करते हुए हर कहीं आशीष संवेदना के धरातल पर खड़े दिखते हैं और इस तरह कविता की शर्तों पर वे खरे उतरते हैं। कविता को चुनौती की तरह लेते हुए नई परंपराओं की खोज में जुटे इस कवि को पढ़ना सुकून देता है। हिंदी कविता का पाठक-वर्ग संभावनाओं भरे इस विलक्षण कवि का निश्चित ही खुले मन से स्वागत करेगा। इसमें कोई शक नहीं है कि जल्दी ही आशीष हिंदी के युवा कवियों की पहली श्रेणी में गिने जाएँगे।

-लाल्टू

हौज

कृशकाय, जर्जर, थके-प्यासे घुटनों ने
रेत में धंसे धंसे ही
देखा एक दानवाकार,
मानवाकार वाले हौज को
दुर्भिक्ष से फटे धरती के दामन
की तरह ही
फटे हाल पैरों वाला
और चिंतनमग्न

अपने व्यक्तित्व की बिवाईयों से
पानी में घुलकर रिसते
जहर से अनभिज्ञ
तन्मय होकर देखता
इस विषाक्त नखलिस्तान को
सिमटती दरारों को
वाष्प को
संतुष्टि की सौंधी महक चढ़ गयी है
उसके नथुनों में गहरे तक

प्यासे, अकुलाये यात्री लपके उसके पैरों की ओर
चूमने लगे, चाटने लगे
उस पनीले विष को
और वो रेगिस्तान का भूत
वो नरपिशाच
पालता रहा अपने ह्रदय में संचित
द्वेष को
हिक़ारत से देखता रहा
अपनी शांति के भंग के परिणाम को
अपने पैरों
पर बंधे
मृतप्राय मानवों के गुच्छों को
कोसता रहा उनके लालच को

पुनः परिभाषा करने की आवश्यकता है
क्या है लालच
और क्या है एकांत 

फूट रहें है अँधेरे के अंडे, पृथ्वी की
दरारों में
पश्चाताप के आंसू बह चलने वाले हैं
उसके पथरीले गालों पर
*** 

महाखड्ड

तम से लबालबवातावरण में
आभास हुआ
रोशनी की उपस्थिति का
कारागार के अदृश्य कोनों में
चमक उठी आशा

उसने इकठ्ठा किया
धैर्य और हिम्मत
जमीन पर बिखरे
पतले बरसाती कीचड की भांति
अपनी कठोर हथेलियों में,
और डगमगाता हुआ
भागा
अँधेरी मृगमरीचिका की ओर
गिर पड़ा
नन्ही विषाक्त अडचनों पर से।

यों दुर्गन्ध के सिंहासन पर
कीचड से अभिषिक्त,
ठठाकर हँसा
टुकड़ों में बिखरी चमक को
समय की चौखट में जमाकर
और बड़ी जिज्ञासा से ढूंढने लगा
अर्थ, सिद्धांत, प्यार, ख़ुशी

उधेड़ दिए समय ने
विक्षिप्तता से रंजित जल-चित्र
तीखी नोकों वाले
त्रिभुजों और चतुर्भुजों में,
दब गया सत्य
कमर पर हाथ रखकर
उछाली चुनौती उसकी ओर,
"उधेड़ दी है तूने
अपने पैरों तले की जमीन
सत्य की तलाश में
अब बुन इसे पुनः
या गिर जा
विक्षिप्तता के महाखड्ड में।"
*** 

मौन

अनंत से प्रतीत होने वाले
लावा के एक विशाल सागर
के ऊपर, मैं भाग रहा हूँ
बदहवास
किसी जिन्न की दाढ़ी के बाल
पर, बड़ी रफ़्तार से
किसी गुत्थी की ओर
सीधे, नपे-तुले रास्तों पर होते हुए
घुस गया असंख्य विमाओं वाले
देश-काल के बवंडर में
जहाँ बहुत सारी चीज़ें घटित होतीं है
बहुत धीमी गति से
एक साथ

भागते बेदम स्थूलकाय परिप्रेक्ष्य (मैं)
समय से पिछड़ने लगे हैं
घिस रहे हैं समाप्ति को
क्षितिज से जिन्न की विशाल लाल ऑंखें
विकृत हो
फिसल आती हैं
अग्नि के क़ालीन पर

एक विकराल अंतःस्फोट
चबा जाता है मेरे अस्तित्व को
वाष्पित हो जाती हैं
स्मृतियाँ
दामन से
दहाड़ती दिशाओं के
जबड़े आ टकराते हैं
शून्य पर

रिक्तता, अनुपस्थिति, मौन।

तह करके रख दिए हैं
ब्रह्माण्ड ने अपने कपडे
इन्द्रियों की पहुँच से परे

विस्मय के बैठने को भी
ठौर नहीं बची है

*** 

यज्ञ

सड़क किनारे एक बहरूपिया
इत्मीनान से सिगरेट सुलगाये
झाँक रहा है
अपनी कठौती में

चन्द्रमा की पीली पड़ी हुई परछाई
जल की लपटों के यज्ञ
में धू-धू कर जल रही है
रात के बादल धुंध के साथ मिलकर
छुपा लेते हैं तारों को
और नुकीले कोनो वाली इमारतों
से छलनी हो गया है
आसमान का मैला दामन
ठंडी हवा और भी भारी हो गयी है
निर्माण के हाहाकार से

उखाड़ दिया गया है
ईश्वरों को मानवता के केंद्र से
और अभिषेक किया जा रहा है
मर्त्यों का
विशाल भुजाओं वाले यन्त्र
विश्व का नक्शा बदल रहे हैं

उसके किले पर
तैमूर लंग ने धावा बोल दिया है
उस "इत्मीनान"के नीचे
लोहा पीटने की मशीनों की भाँति
संभावनाएं उछल कूद कर रहीं हैं
उत्पन्न कर रहीं हैं
मष्तिष्क को मथ देने वाला शोर

उसकी खोपड़ी से
चिंता और प्रलाप का मिश्रण बह चला है
और हिल रही हैं
आस्था की जड़ें

एक रंगविहीन परत के
दोनों और उबल रहा है
अथाह लावा
*** 

नरसिंह

गुरुत्वाकर्षण को धता बताकर
विषधरों की तरह उठती हैं
उसकी अयाल से लटें
हवा में
उसके मस्तक के चारों ओर

उद्दंडता से विस्फारित आँखें
भस्मीभूत किये देतीं है
उसके विरोधियों को,
सही या गलत।

वो रहता है ज्वलंत
अज्ञान की पपड़ियों के ऊपर या नीचे
आवश्यकता की भित्ति के दोनों ओर
रोशनी के पटल पर
और अँधेरे की गहराइयों में
थार के रेगिस्तान में
और
मुल्तान की अमराइयों में
करता है विद्रोह
विपत्ति से
प्रकृति से

वो मार सकता है
हिरण्यकश्यप को
अंदर, बाहर,
दिन में, रात में,
मर्त्य बन, अमर्त्य बन,
जल, थल और नभ में --
अपनी गोदी में,
देहलीज पर रखकर भी

ब्रह्मा देखते ही रह जाते हैं
अपने चारों मुख टेढ़े किये-किये
अपनी मूर्खताओं का विकराल रक्तरंजित भंजन
*** 
मूल निवास बीकानेर, राजस्थान। पिता की नौकरी के कारण भीलवाड़ा, राजस्थान के कई कस्बों में उम्र गुज़री।
शिक्षा - M.Sc. biological science + B.Tech. Civil Engineering (integrated)। वर्तमान में CDFD, हैदराबाद में गणनात्मक जैव-भौतिकी और जैव रसायन के प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहे हैं।
कविताओं का एक संकलन हिन्द-युग्म प्रकाशन कुछ अनुदान पर प्रकाशित कर रहा है। पुस्तक का ISBN आ गया है, उम्मीद है जल्द ही उपलब्ध होगी।

यह चमकीले शब्दों से भरे मनुष्यता के धूसर दिन थे - राकेश रोहित

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तीस छोटी कविताएँ
1.
प्रेमियों का एकांत 


...और जबकि इतनी धूप खिली है
प्यार कैसे तुमको छू रहा है
क्या अब भी आकाश के किसी कोने में
प्रेमियों का एकांत है


2.
नदी, पत्ती और प्रेम 


कई बार नदी पर तैरती पत्ती से भी
हो सकता है प्रेम
कई बार प्रेम ही होता है
जो पत्ती को डूबने नहीं देता!


3.
फिर प्रेम मुझे छूता है 


उसने कहा-
पहले मैं प्रेम करती हूँ
फिर प्रेम मुझे छूता है।



4.
मनुहार 


इस जिद्दी बारिश में बचाना है
कागज का यह टुकड़ा,
तुम अपना हाथ दो
तो हथेलियों में छिपा लूँ इसको!


5.
तुम्हारी याद जैसे कलरव है 


एक चिड़िया पेड़ पर बैठी है
एक याद मेरे मन में है
पता नहीं आवाज किसकी आती है?
पता नहीं यह कलरव किसका है?



6.
धरती और चाँद 


एक दिन खिड़की से चाँद को बुलाऊंगा
और सो जाऊंगा,
तुम देखना फिर उत्तप्त धरती पर
कैसे बरसती है चाँदनी!


7.
कविता और प्यार 


हर नया शब्द
नया पर्दा है सच को छुपाने के लिए।

सात पर्दों में छुपी भाषा को
मैं बाहर लाता हूँ कविता में
मैं कविता करता हूँ, जब मैं कहता हूँ -
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।


8.
पहले पन्ने पर तुम्हारा नाम 


पढ़ने को तो मैं पढ़ता हूँ
बादलों का लिखा
लेकिन नहीं पढ़ पाया वो किताब
जिसके पहले पन्ने पर तुम्हारा नाम लिखा है
और बाकी सफे खाली हैं।


9.
मेरा मन वहीं 


मैं देखता हूँ फुनगी से गिरता फूल
मेरे कदम आगे बढ़ जाते हैं
और मन देखता रहता है
जहाँ वह फूल झर रहा है।

सुनो,
जब तुम उस राह से गुजरोगी
एक पल जरा देखना
मेरा मन वहीं- कहीं आसपास
ठहरा हुआ होगा!


10.
घास की नोक पर बूंद


सुंदर है
घास की नोक पर ठहरी
पानी की एक बूंद!

पर, मेरी कविता को इंतज़ार
उस बूंद के
घास की जड़ों तक पहुँचने का है!!

11.
एक पल 
 

तुम्हें याद करते हुए अचानक
डायरी में किसी एक पल मैंने प्यार लिख दिया था।
वही एक पल मेरी जिंदगी में
हर रोज कम पड़ जाता है!


12.
स्पर्श 
 

स्पर्श में ही बचा रहता है
सृष्टि का आदिम स्वाद
ऐसे छूता हूँ तुमको
जैसे छूती है हवा नदी को।


13.
ऐसे रहे कविता 
 

चाहता हूँ कविता ऐसे रहे मेरे मन में
जैसे तुम्हारे मन में रहता है प्रेम!


14.
फूलों का नाम न पूछो 
 

मैंने बच्चे से उसका नाम पूछा
उसने कहा-
क्या आप फूलों से भी उसका नाम पूछते हैं?
मैंने देखा बारिशों सी उसकी हँसी थी
और बादलों सी उसकी आँखें!
मैं जानता था कि उसके खुश होने में ही
कविता बची है।


15.
शब्दों में चमक 
 

शब्दों में चमक थी/ पर
शब्दों का अर्थ
खुलकर सामने नहीं आता था।

वह धीरे-धीरे रिसता था
और कुछ उनकी मुद्राओं में छुपा रह जाता था।

यह चमकीले शब्दों से भरे
मनुष्यता के धूसर दिन थे।


16.
बहते जल में परछाई 
 

बहते जल में
नहीं बह जाती है मेरी परछाई!
जो मेरी जिद है
कविता में
हर वक्त बची रहती है।



17.
पत्तों पर हरे रंग से नाम 
 

मैंने पत्तों पर हरे रंग से लिखा है तुम्हारा नाम
ना पढ़ो सही पर पत्तों पर अपना रंग तो देखो!

 18.
चिड़िया की आवाज लिखनी है कविता में 
 

मुझे चिड़िया की आवाज लिखनी है कविता में
मैं रोज पत्तों से पूछता हूँ उसकी भाषा!


19.
प्यार का अनुवाद 
 

जब नष्ट हो रहा हो सब कुछ
और दिन आखिरी हो सृष्टि का
मेरे प्रियतुम मुझे प्यार करती रहना!
...क्योंकि यह प्यार ही है
जिसका कविता हर भाषा में अनुवाद
उम्मीद की तरह करती है।

 20.
कठपुतली और कहानी 
 

क्या आपने कभी कठपुतली का नाच देखा है?
चमक- दमक और रंगों से सजे
मंच पर नाचते हैं वे,
पर उनके अंदर कोई कहानी नहीं पलती।

वेजिनके अंदर कोई कहानी नहीं पलती
कठपुतली बन जाते हैं!


21.
यूँ ही नहीं 
 

एक फूल खिला यूँ ही,
एक बच्चा मुस्कराया यूँ ही
एक मनुष्य घर से निकला,
गुनगुनाया यूँ ही.

यूँ ही नहीं बड़बड़ाता है
नरक का बादशाह -
इस दुनिया के नष्ट होने में
देर है कितनी?


22.
एक दिन जब होगी उम्मीद 
 

एक दिन मेरे पास
इतनी उम्मीद होगी
कि मैं अपने कहे शब्दों से
प्यार करने लगूँगा!
उस दिन असत्य के सामने
इतनी रोशनी होगी
कि साफ झलकेगा उसका नकलीपन,
उस दिन विश्वास से चमकेंगी
उत्सवधर्मी शुभकामनाएँ!!



23.
जड़ की ओर 
 

लौटना चाहता हूँ वहाँ
जहाँ से चला नहीं हूँ,
जैसे फुनगी पर खिलती है पत्ती
और जड़ की ओर लौटना चाहती है.


24.
खेल-खेल में 
 

खेल-खेल में बच्चे ने
आकाश सर पे उठा लिया,
बार-बार टकरा जाती थी
आकाश से उसकी गेंद!


25.
जादू तेरे प्यार में है 
 

एक चिड़िया मेरे पास आकर
तेरी जुबां  में बोलती है
कुछ जादू तेरे प्यार में है
कि पंछी भी तेरा कहा मानते हैं.



26.
भाषा, दुःख और खुशी 
 

आप कहें और वो समझें
यह भाषा है!

आप कहें और वो ना समझें
यह दुःख है!!

...और आपके कहे बिना
वो समझ जाएँ
यही खुशी है!!! 



27.
याद 
 

उसने हँसकर देखा मुझे
और रो पड़ी...
यह बारिशों के  
पहले का मौसम था
और फिर बारिश हुई।




28.
नींद में हँसी 
 

नष्ट होनी ही वाली थी यह दुनिया
फिर इसे बचाने का जिम्मा
बच्चों की हँसी को सौंपा गया
और तब से बच्चे
नींद में भी हँसते हैं।


29.


रहने लायक यह दुनिया

  
कुछ कहानियों ने हमें इंसान बनाया
कुछ कविताओं ने उदासी में थामा हाथ
दुनिया यूँ ही नहीं हो गयी रहने लायक
सदियों से,
सुंदर फूलों के बीज बचाते आए हैं कुछ लोग।

30.
दो शब्द 
 

दो ही शब्द हैं दुनिया में!
एक जो तुम कहती हो,
एक जो मैं लिखता हूँ !!

***


अमित श्रीवास्तव की नई कविता

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अमित ने अपनी कविताओं में कई स्तरों पर प्रयोग किए हैं। उनमें कुंभ पर लिखी एक कविता मेरी याद में सबसे ऊपर है। ये प्रयोग,प्रयोगधर्मिता के लिए नहीं हैं, किसी तरह अपने विकट समय और हालात को व्यक्त कर पाने के औज़ार भर हैं। यहां दी जा रही कविता भी ऐसी ही है। नौउम्रों के जीवन और बरताव को संचालित करती सूचना प्रौद्योगिकी के इस दौर में कवि की भाषा भी उसी पदावली में बात करती है गोया बात करनी मुझे मुश्किल कभी इतनी तो न थी/जैसी अब है तेरी महफ़िल कभीऐसी तो न थी। इस पदावली के भीतर कविता किंवा जीवन और मृत्यु के बेहद गंभीर आशय अपने हर आवरण को लगभग खरोंचते हुए-से बाहर झांकते हैं।  

सम्पादन में कई बार कविता के असली फूल और अंगारे झर जाते हैं, यह मैंने अनुभव किया है इसलिए कवि से मेरा आग्रह था कि कविता के इसी पहले ड्राफ्ट को यहां छापा जाए और अब मैं पूरी उत्सुकता के साथ इसे अनुनाद के पाठकों के हवाले कर रहा हूं।
***

हैश टैग डेंगू

(जिसकी आँखों दीद है, उसकी मिट्टी पलीद है)


इसे हैश टैग मलेरिया कह दो
दिमाग़ी बुखार, बाढ़, आतंक, आपदा, अपराध
हैश टैग कोई अभियान इन ब्रैकेट किसी सेलीब्रिटी का नाम
होठ मोड़े नाक सिकोड़े कोई स्माइली
या
हैश टैग का ही खाली निशान
देन थ्री डॉट्स विद अ फुल स्टॉप  
फर्क नहीं पड़ता
हमारे भी युग का मुहावरा है फर्क नहीं पड़ता
किसी को, कोई जवाबदार नहीं
किसी मौत का

एक अर्ध विराम भी बदल सकता है आपकी हैश वैल्यू
किसी के लिए ये वैल्यू बदलने की दौड़ है
किसी को ये विराम लगने फीस है  
कुछ लोग दुनिया में आने की फीस भरते हैं
फीस वसूलते हैं कुछ लोग
कुछ लोग महज़ फीस होते हैं
पहले और तीसरे का काम भी दूसरे ने चुना है
ये किसी पुरानी कविता का नया तर्जुमा है 
बहुत आसान किश्तों में फीस चुकाना
लम्बे दौर में महंगा पड़ जाता है
इतना कि आदमी घूँट घूँट ज़िन्दगी पीता है
शुक्र करो कि लोग ज़िंदा हैं पानी पीकर भी
पानी पीकर कोसा भी जा सकता है

बात क्यों सिर्फ कोसने पर रुक गई
बात पानी मरने की भी तो है
बात मिट्टी उतरने की भी तो है
बात चिकना होने की भी तो है
बात कलई खुलने की भी तो है 
जो हर मौत एक रेशा खुलती है
जो हर मौत एक परत चढ़ती है

उम्र भर मौत है
उम्र भर नींद है
नींद भर आराम नहीं
नींद को मौत आती है, मौत को नींद नहीं आती
अब किसी घूँट से प्यास नहीं जाती

मौत उम्र नहीं देखती अब
तुम्हारी उम्र क्या हुई
तुम्हारी घड़ी में क्या बजा है
के बराबर है
नौ बजे प्राइम टाइम
इज़ इक्वल टू
दस बजे कॉमेडी नाइट्स विद कपिल
इस तरह फीस माफ़ हो जाए कभी तो भी
हम खुद भरते हैं हमारे मारे जाने का बिल

इसे आत्महत्या न कहें सर
दूसरे ने तीसरे का बिल फाड़ा है
पृष्ठांकन से पता चला है
अलिखित पीनल कोड में   
ये शासकीय अभिरक्षा में मौत का मामला है

मैं पूछता हूँ
तुम्हारी घड़ी में क्या बजा है
झुर्रियां मत देखो
समझो, तुम्हारी मौत सरक रही है
बालू खत्म होने का इंतज़ार मत करो
अब पलट दो ये रेतघड़ी

-    अमित श्रीवास्तव


ख्‍़वाब की तफ़सील और अंधेरों की शिकस्त

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इंसानियत के एक समूचे घराने जितना विराट था उनका व्यक्तित्व. कवि, पत्रकार, अध्यापक, दोस्त, पिता, भाई वगैरह तो वे बाद में थे. ज़रा भी कम नहीं पड़नी उस घराने की कौंध और चमक. कभी नहीं.

- अशोक पांडे
मेरे दो बड़े भाई। यही दो हैं, जिनसे मैं हमेशा डरता रहा हूं।
 
(मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं। कोई संस्मरण नहीं - अभी मौजूद है वो जीवन। यह दो साल पुराना लेख भर है)

ख्‍़वाब की तफ़सील और अंधेरों की शिकस्त

एक टूटी-बिखरी नींद थी और एक अटूट ख्वाब था अट्ठारह की नई उम्र का, जब मैं वीरेन डंगवाल के पहले संग्रह इसी दुनिया में की समीक्षा करना चाहता था, स्नातक स्तर की पढ़ाई और वाम छात्र-राजनीति करते हुए... फिर एक टूटा-बिखरा ख्वाब था और एक अटूट नींद थी अट्ठाइस की उम्र के सद्गृहस्थ जीवन में जब वीरेन डंगवाल के दूसरे संग्रह दुश्चक्र में स्रष्टा की समीक्षा करना चाहता था, एक महाविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हुए। अब न वैसे ख्वाब हैं, न वैसी नींद है... पढऩा भी बदलने लगा है और पढ़ाना भी... इधर वीरेन डंगवाल का तीसरा संग्रह (स्याही ताल) भी 2009 में आ चुका है... और अब मैं किसी भी लेखन-योजना से बाहर कुछ लिखने बैठा हूँ, वीरेन डंगवाल के सभी तीन संकलनों को सामने रख कर। जाहिर है वे दो समीक्षाएँ कभी हो न सकीं और कह नहीं सकता कि अब जो होगा, उसमें कितना महज करना होगा- कितना लिखना...

पहली बात जो वीरेन डंगवाल की कविता को देखते ही, बहुत स्पष्ट, सामने आती है, वो ये कि जब समकालीन हिंदी कविता, पाठ और अर्थ के नए अनुशासनों में अपना वजूद खोने के कगार पर खड़ी है, तब वीरेन डंगवाल कविता में कही गई बात को अर्थ के साथ (बल्कि उससे अलग और ज़्यादा) अभिप्राय और आशय पर लाना चाहते हैं। भाषा में दिपते अर्थ, अभिप्राय, आशय और राग के मोह के चलते वे एक अलग छोर पर खड़े दिखाई देते हैं, जो जन के ज़्यादा निकट की जगह है। वे हमारे वरिष्ठों में अकेले हैं जो हिंदी पट्टी के बचे हुए मार्क्‍सवाद - जनवाद के सामर्थ्‍य के साथ उत्तरआधुनिक पदों को भरपूर चुनौती दे रहे हैं। इस तरह वीरेन डंगवाल और उनकी कविता के बारे में जैसे ही सोचना शुरू करता हूं तो उन्हीं के शब्दों में आलम कुछ ऐसा होता है - लाल-झर-झर-लाल-झर-झर लाल... समकालीन कविता के बने-बनाए खाँचें में वीरेन डंगवाल की कविता ने सब कुछ उलट-पुलट कर रख दिया है। अपने समय की कविता में जितनी उथल-पुथल निराला, मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन और धूमिल ने की थी, वैसी ही वीरेन डंगवाल ने अस्सी के दशक की पीढ़ी में कर दिखाई है। वे अपने पुरखों से सबसे ज़्यादा सीखने, लेकिन उस सीख को व्यक्तित्व में पूरी तरह अपना बना के, बिलकुल अलग अंदाज़ में व्यक्त करने वाले कवि हैं।

मुझे वीरेन डंगवाल की कविता में सबसे ज़्यादा नागार्जुन नज़र आते हैं पर याद रखें कि मैं प्रभाव की बात नहीं कर रहा हूं। किसी को वीरेन डंगवाल और नागार्जुन का एक बिलकुल अटपटा युग्म लग सकता है और ऐसा लगने पर मैं तुरंत यही कहूंगा कि हाँ! यही तो है वह बीज शब्द 'अटपटा'जो दोनों कविताओं को जोड़ देता है बल्कि दो ही नहीं, और जो नाम मैंने ऊपर लिए उन्हें भी। अपने ही भीतर अजब तोडफ़ोड़ का एक अटपटापन निराला का, विराट बौद्घिक छटपटाहट और चिंताओं से भरा एक अटपटापन मुक्तिबोध का, कविता को सामाजिक कला में बदल देने और सामान्य पाठकों में भी उस बदलाव का ख्वाब देखते रहने का एक अटपटापन शमशेर का, हमारे महादेश की समूची जनता को अपने हृदय में धारण किए कबीरनुमा मुँहफट-औघड़ एक अटपटापन नागार्जुन का, सहजता को ही कविता का प्राण मान लेने के बावजूद बहुत कुछ जटिल रच जाने का एक अटपटापन त्रिलोचन का और ठेठ उजड्ड गँवईं संवेदना का सहारा लेकर नक्सलबाड़ी और लोकतंत्र तक के तमाम गूढ़ प्रश्नों से टकराने का एक अटपटापन धूमिल का। इतने अलग-अलग कवियों में घिरकर भी अपनी बिलकुल अलग राह बनाने का फ़ितूर जैसा अटपटापन वीरेन डंगवाल का। वैसा ही दिल भी उनका, मोह और निर्मोह से एक साथ भरा।

इस कवि की कविता समीक्षा से परे जा चुकी है, यह जान लेना अब ज़रूरी हो चला है। समकालीन आलोचना की जो हालत है, उसमें वीरेन डंगवाल का एक विकट नासमझ और मुखर विरोध मैं वरिष्ठ आलोचक नंदकिशोर नवल के आलेख में देख चुका हूं, जो कुछ बरस पहले उन्हीं के द्वारा सम्पादित कसौटी नामक पत्रिका में छपा था... और फिर कुछ युवा आलोचकों द्वारा उनका मूल्यांकन करते समय पूजा-वंदना की स्थिति में आ जाना भी किसी से छुपा नहीं है। मेरे सामने बड़ा संकट विरोध नहीं, वंदना है। जब कोई अग्रज कवि एक समूची युवा पीढ़ी द्वारा लगभग वंदनीय मान लिया जाए तो खतरे की घंटी नहीं, दमकल का हूटर बजने लगता है मेरे भीतर। मेरा मानना है कि अपने समय और समाज की तमाम कमज़ोरियों से भरी उनकी कविता एक ऐसी विकट चुनौती है, जिससे हारकर उसकी वंदना भर कर लेना आलोचना की हार तो है ही, कवि के साथ भी अन्याय है। यह अन्याय मैं नहीं करूँगा, ऐसा कोई वादा भी नहीं कर सकता - यह एक अटपटापन मेरा भी।
 
शुरुआत के लिए कवि के पहले संग्रह इसी दुनिया में की बात करूँ... यह साधारण नाम वाला बहुत असाधारण संग्रह हैं, किंतु पहले संग्रह के रोमांच से बहुत दूर। गौर करने की बात है कि 44 साल की कविउम्र में रोमांच उस तरह सम्भव भी नहीं पर विचार की संगत के उल्लास में पूरा संग्रह पाठकों के आगे इसी दुनिया में किसी और दुनिया की तरह खुलता है। वीरेन डंगवाल का यह संग्रह 1991 में आया। इसके आने की अन्तर्कथा इतनी है कि कवि के कविमित्र और प्रकाशक नीलाभ उनकी कविताओं का हस्तलिखित एक रजिस्टर उठा ले गए, जिसे उन्होंने संकलन के रूप में संयोजित किया। तब तक भी वीरेन डंगवाल की कविताएं अपने पाठकों में खूब लोकप्रिय थीं। उनके साथी हमउम्र कवि कविता संकलनों की संख्या और अनुपात में उनसे बहुत आगे थे, पर यही बात कविता की स्थापना और विकास के संदर्भ में नहीं कही जाएगी। 44 की उम्र में वीरेन डंगवाल अपनी कविता को किताब के रूप में सेलिब्रेट करने के मामले में निर्मोही साबित हुए थे, लेकिन अब ये बहुप्रतीक्षित संकलन परिदृश्य पर मौजूद था और उसे सेलिब्रेट करने वाले जन भी। इसके लिए उन्हें रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (1992) और श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (1993) दिया गया, यह उनके योगदान को यत्किंचित रेखांकित करने जैसा था, जबकि कवि किसी भी पुरस्कार-सम्मान की हदबंदी में अंटने के अनुशासन से बाहर खड़ा था। एक भले और मित्रसम्पन्न संसार को याद करते हुए मैं नीलाभ के प्रकाशकीय वक्तव्य का शुरूआती अंश उद्धृत करना चाहूंगा –

वीरेन डंगवाल की लापरवाही और अपनी कविताओं को लेकर उसकी उदासीनता एक किंवदंती बन चुकी है। लेकिन जो वीरेन को नज़दीक से जानते हैं और उसकी कविताओं से परिचित हैं, उन्हें बखूबी मालूम है कि वीरेन की प्रकट लापरवाही और उदासीनता के नीचे गहरी संवेदना, लगाव और सामाजिक चिंता मौजूद है। यही नहीं, बल्कि वह कविता और कविकर्म को लेकर उतना लापरवाह और उदासीन भी नहीं है, जितना वह ऊपरी तौर पर नज़र आता है। यह ज़रूर है, और उल्लेखनीय भी, कि वीरेन डंगवाल कविता के कंज्‍़यूरमिज्‍़म, चर्चा-पुरस्कार की उठा-पटक या राजधानियों के मौजूदा कवि-समाज की आत्मविभोर परस्पर पीठ-खुजाऊ मंडलियों से अलग है। यह बात उनके व्यवहार में भी झलकती है और कविताओं में भी।

नीलाभ का ये कथन आज कविता में वीरेन डंगवाल के महत्व को जानने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें कोई आलोचना-तत्व नहीं है, तब भी इसकी राह पर हमें न सिर्फ वीरेन डंगवाल की कविता, बल्कि उनकी समूची पीढ़ी की कविता की पहचान के कुछ आरम्भिक सूत्र मिलते हैं। वीरेन डंगवाल कविता लिखने के प्रति उदासीन या लापरवाह नहीं है, वे तो अपने हमउम्रों में खुद के लिए सबसे कठिन उत्तरदायित्वों के निर्वहन का संकल्प लेने वाले कवि हैं। वे शुरूआत से जानते थे कि पीठ-खुजाऊ मंडलियों के कारण उनसे बाहर दरअसल कविता किस गति को प्राप्त हो रही है –

कवि का सौभाग्य है पढ़ लिया जाना 
जैसे खा लिया जाना
अमरूद का सौभाग्य है
हां, स्वाद भी अच्छा और तासीर में भी
    (इसी दुनिया में)

कोई हैरत नहीं कि इलाहाबाद में अपने लम्बे रहवास के कारण कवि को अमरूद याद आया और इसमें इलाहाबाद की मिली-जुली कवि-परम्परा भी पीछे कहीं गूंजती है। यह कविता की हक़ीक़त हो चली थी जो बाद में और कठोर रूपाकारों में सामने आयी। इस संकट की भनक तब वीरेन डंगवाल के साथी कवियों में दिखाई नहीं दी थी, वे नई लोकप्रियता, आलोचकीय-प्रकाशकीय मान्यता और आगे चल पड़ने के उल्लास से भरे थे और वीरेन डंगवाल समय को आंकने-भांपने के अपने कर्म में लीन, ताकि आने वाली नौजवान पीढ़ी पीछे मुड़कर देखे तो उसे ये कुछ निर्मम आत्ममूल्यांकन के दृश्य भी दिखाई दें –
 
सफल होते ही बिला जाएगा
खोने का दु:ख और पाने का उल्लास
तब आएगी ईर्ष्‍या
लालच का बैंड-बाजा बजाती
    (इसी दुनिया में)

इस संग्रह के मुखर राजनीतिक स्वर बहुत क़ीमती हैं। इसमें साहित्य की तुष्टि के लिए नहीं, जनता के अटूट जीवन संघर्षों के बीच रहने-सहने की इच्छा की राजनीति है। वीरेन डंगवाल अपने समकालीन कवियों में सबसे अधिक मार्क्‍सवादी कवि हैं, जबकि उनकी कविताओं में नारे नहीं हैं। वे अधिक मार्क्‍सवादी इसलिए हैं क्योंकि उनके यहां जन का दु:ख-दर्द और विकट संघर्ष अधिक बेधने वाले साबित हुए हैं। कविता में उनकी पुकारें ओज से भरी हैं। वे लगातार क्रूर और निरंकुश सत्ताओं को चुनौती देते हैं। अपनों की भीड़ में बिलकुल अलग आवाज़ में बोलती इसी दुनिया में की कुछ पुरानी कविता नए वक्त में दस्तावेज़ बन गई है।
***   

जगहों को लेकर अपने एक मोह में मेरा ध्यान अकसर इस तरफ गया है कि हमारी समकालीन हिंदी कविता जगहों को किस तरह ट्रीट और सेलिब्रेट कर पा रही है। जगहें हर किसी के जीवन में बहुत खास होती हैं। आदमी जहां कुछ देर को भी बसता है, उस जगह को जाने-अनजाने अपने भीतर बसा लेता है। जगहें महज भूगोल नहीं होतीं। वे समाज और संस्कृति होती हैं। साहित्य में उनका एक खास मोल होना चाहिए। जगहों में विचार और मानवीय रिश्तों के आकार बनते हैं। हमारे प्रिय वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने जगहों को नास्टेल्जिया के शिल्प में व्यक्त किया पर वे उससे बाहर बेहतर गूंजती हैं और इस गूंज को वीरेन डंगवाल की कविता में कहीं साफ़ और सही स्वर में सुना जा सकता है। इन जगहों में कुछ शहर हैं। कहना अतिरेक न होगा कि हिंदी में आज अगर कोई सच्चे अर्थ में शहरों का कवि है, तो वो वीरेन डंगवाल हैं। शहरों को अकसर सत्ता और शोषणकेन्द्रों के रूप में स्थापित किया गया है और उसमें बसने वाले हमारे लाखों-लाख जन अनदेखे ही रह गए। ये उम्रभर के लिए भव्य इमारतों और भागती हुई सड़कों के बीच फंसे हुए लोग हैं, जिनके जीवन में आसपास की तथाकथित भव्यता के बरअक्स एक स्थाई होती जाती जर्जरता है। वीरेन डंगवाल की कविता ने शहरों को धिक्कारने की जगह इस प्रिय आत्मीय जर्जरता को पहचाना है। ढहने के दृश्यों को आकार दिए हैं और जूझने की हदें आज़मा कर देखी हैं। नामों से देखें तो इलाहाबाद उनका प्रिय शहर है। वे इस शहर को अपने और कविता के भीतर बसाए बैठे हैं। इसी क्रम में बाद में चलकर कानपुर भी आता है, बरेली के दृश्य कई कविताओं में लगातार बने रहते हैं। नागपुर पर भी कविता है और रॉकलैंड डायरी के समूचे रचाव में जाएं तो दिल्ली पर भी। जिस भी शहर- जिस भी जगह कवि जाता है, उसे अपने भीतर बसाता है। वीरेन डंगवाल की यह स्थानप्रियता उनकी कविता की एक बहुत बड़ी दिशा है, जिस पर कभी विचार नहीं हुआ।

इलाहाबाद एक अद्भुत जगह है। हिंदी के भूगोल में ये एक दोआबा अलग चमकता है। ये एक ऐसा शहर है, जो कहीं न कहीं एक खरोंच-सी लगा देता है ज़ेहन पर। वीरेन डंगवाल के पहले संग्रह में इलाहाबाद:1970 नाम की कविता है तो तीसरे संग्रह में इलाहाबाद और वहां पनपी रचनात्मक और वैचारिक प्रिय मित्रताओं की कसक भरी याद में टीसती ऊधो, मोहि ब्रज मौजूद है, जिसे अजय सिंह, गिरधर राठी, नीलाभ, रमेन्द्र त्रिपाठी और ज्ञान भाई को समर्पित किया गया है। लगभग अड़तीस-चालीस बरस का फर्क दोनों के रचनाकाल में है। इतने बरस तेज़ी से बदलते ज़माने में न सिर्फ व्यक्ति के बल्कि शहर के इतिहास में भी मायने रखते हैं। 70 का दौर इलाहाबाद से लिख-पढ़कर आजीविका के लिए दूसरे शहरों की ओर चले जाने के अहसास का था और दूसरी कविता का दौर, जिस ओर गए, उधर कुछ पा लेने के बाद मुड़ कर देखने और भीतर शहर को याद करने का है, जहां उस तरह लौटना और रहना-बसना कभी होगा नहीं।

मैं ले जाता हूं तुझे अपने साथ
जैसे किनारे को ले जाता है जल
एक उचक्कापन, एक अवसाद, एक शरारत,
एक डर, एक क्षोभ, एक फिरकी, एक पिचका हुआ टोप
चूतड़ों पर एक ज़बरदस्त लात 
खुरचना बंद दरवाज़ों को पंजों की दीनता से

विचित्र पहेली है जीवन

जहां के हो चुके हैं समझा किए
तौलिया बिछाकर इतमीनान की सांस छोड़ते हुए 
वहीं से कर दिए गए अपरिहार्य बाहर
(इलाहाबाद : 1970, इसी दुनिया में)


कविता के इस शुरूआती नोट में ही अर्थ से परे कितने ही नाज़ुक अभिप्रायों की दुनिया खुलती है। इस लम्बी कविता का अंत इसमें न होकर स्याही ताल की कविता में मौजूद है... बल्कि उसे भी अंत कहना अभी जल्दबाज़ी होगा, क्योंकि जानता हूं, अभी बहुत इलाहाबाद बाक़ी है कविमन में। ऊधो, मोहि ब्रज की शुरूआत ऐसी किसी भी कविता की हिंदी कविता के प्रचलित मुहावरे में अब तक असम्भव रही एक अद्वितीय शुरूआत है (गो वीरेन डंगवाल किसी भी तरह के प्रचलित से बाहर एक असम्भव के ही कवि साबित भी हुए हैं)-

गोड़ रही माई ओ मउसी ऊ देखौ
   
आपन-आपन बालू के खेत
कहां को बिलाये ओ बेटवा बताओ
   
सिगरे बस रेत ही रेत
अनवरसीटी हिरानी हे भइया
   
हेराना सटेसन परयाग
जाने केधर गै ऊ सिविल लैनवा
   
किन बैरन लगाई ई आग
        (स्याही ताल)

किन बैरन... अकसर भीमसेन जोशी के राग दरबारी के मंद्र गम्भीर सुरों में सुनता रहा हूं, लोक के बिलखते भावघर से सजग वैचारिकी ओर बढ़ता ये सुलगता हुआ सवाल। और इधर शहर और प्रिय राजनीति की कितनी परतों को खोलता कैसा ये कविता के आखिर का उलाहना -

कुर्ते पर पहिने जींस जभी से तुम भइया
हम समझ लिये
अब बखत तुम्हारा ठीक नहीं
    (ऊधो, मोहि ब्रज, स्याही ताल)

इलाहाबाद वीरेन डंगवाल के शहरों का स्थाई है, मगर राग से वीतराग में बदलते इस किस्से के कुछ और भी पड़ाव भी हैं - जैसे कानपुर... कवि के शब्दों में कानपूर। दस टुकड़ों में ये लम्बी कविता स्याही ताल में है, जो पहली बार पहल में छपी और चर्चित हुई। कविता की शुरूआत प्रेम के बारे में एक असम्बद्घ लगते बयान से होती है-

प्रेम तुझे छोड़ेगा नहीं
वह तुझे खुश और तबाह करेगा
            (कानपूर, स्याही ताल)


लेकिन वीरेन डंगवाल असम्बद्ध नज़र आने वाली चीज़ों/बातों में रागपूर्ण सम्बद्धता सम्भव करते हैं। वे असम्बद्धता के बारे में हमारे भ्रमों को लगातार तोड़ते चलते हैं। सम्बद्धता-असम्बद्धता अकसर हमारे सोच-विचार के दायरे से बाहर स्वत: घटित होने वाला तथ्य है, हम कभी उसे देख पाते हैं, कभी नहीं - वीरेन डंगवाल की कविता इसे देखने की समझ देती है। बहुत दूर घटित हुए किसी और प्रेम की खातिर कवि इस शहर में है, जहां वो पहले कभी नहीं था। प्रेम में खुशी और तबाही एक साथ हैं और इसे प्रेम पर व्यंग्य समझने की भूल न की जाए। सायास लिखी जा रही प्रेम-कविताओं में व्यर्थ हो रहा हमारे समय का कवित्व प्रेम की उस मूल समझ से दूर जा रहा है, जिसे यहां दो छोटी पंक्तियों में कह दिया गया है। शहर के ब्यौरों में उतरने से पहले वीरेन डंगवाल पहले अपने भीतर की हलचलों में राह खोजते हैं और इस बहुत लम्बी कविता के अंत की उर्दू क्लासिक की-सी इन पंक्तियों में फिर वहीं लौट आते हैं, मानो किसी उदात्त राग के बड़े खयाल में सुरों को जहां से जगाया गया था, वहीं लाते हुए उनका स्थायी प्रभाव बनाकर छोड़ा जा रहा हो - गा/सुन चुकने के बाद जैसे राग की स्मृतियां बरकरार रहती है –

रात है रात बहुत रात बड़ी दूर तलक 
सुबह होने में अभी देर है माना काफ़ी
पर न ये नींद रहे नींद फ़क़त नींद नहीं
ये बने ख्‍़वाब की तफ़सील अंधेरों की शिकस्त
                (वही)

अंधेरों की शिकस्त का दावा करने/इच्छा रखने वाले बहुत कवि हमारे समय में मौजूद हैं पर ख्‍़वाब की तफ़सील देने वाले बिरले ही होते हैं, वीरेन डंगवाल उनमें हैं... फ़िलहाल  अकेले...
वीरेन डंगवाल की कविता में मौजूदा शहर हैं और ऐसा शहर भी है, जो कहीं नहीं है, पर जानना मुशिक्ल नहीं कि यह तो एक बार फिर वही इलाहाबाद है, जो एक उम्र के बाद उस तरह नहीं रहा जैसा कभी कवि के जीवन में था। अलबत्ता इसे नाम न देकर कवि ने सबका बना दिया है। यह कविता जो शहर कहीं था ही नहीं दूसरे संग्रह दुश्चक्र में स्रष्टामें है। इसमें पीड़ा अधिक घनीभूत हुई है, क्योंकि शहर तो हैं पर इस तरह जैसे था ही नहीं। होने का नहीं होना कविता में ऐसे अभिप्रायों को स्वर देता है, जो इतनी टीस के साथ कम ही देखे गए हैं। इस शहर की याद भी अतीव सुन्दर प्रेम है। मुहल्ले भरपूर बूढ़े, सजीले पान, मिठाई की दुकानें, सूरमा मच्छर और मेला साल में एक बार ज़बरदस्त हमें बताते हैं कि यह इलाहाबाद है। यह समझ कविता में ही सम्भव हो सकती है कि जहां हम क़दम नहीं रख सकते वहां भी अकसर जाना होता है अपनी फ़रेबसम्भवा भाषा के साथ। यही और ऐसा ही है इलाहाबाद, जिसे निराला, शमशेर और वीरेन डंगवाल ने लगभग अमर बना दिया है कविता के भीतर और बाहर भी।
***

वीरेन डंगवाल की कविता में असाधारण का साधारणीकरण और साधारण का असाधरणीकरण विचार के बहुत सधे हुए ताने-बाने में मुमकिन होने की वाली प्रक्रियाएं हैं। उनमें कोई शास्त्रीय हल या व्याख्याएं मौजूं ही नहीं हैं। यहां वे बहुचर्चित कविताएं हैं, जिन्हें अतिसाधारण चीज़ों और जीवों का सन्दर्भ लेते हुए लिखा गया है। समोसा-जलेबी आम आदमी के जीवन में उपस्थिति व्यंजन हैं, जिनसे कवि अपनी कविता के लिए व्यंजना प्राप्त कर लेता है। पपीता है, जिसकी कोमलता घाव की तरह लगती है। साइकिल पर एक आख्यान है। साम्राज्यवादी ताक़त की प्रतीक इलाहाबाद के कम्पनी बाग़ की तोप है, जिसका मुंह बंद हो चुका है। रेल आलोक धन्वा की कविता में भी है और वीरेन डंगवाल की कविता में भी - यहां आशिक जैसी उसांसें और सीटी भरपूर वाले भाप इंजन की आत्मीय स्मृति है, रेल का विकट खेल और उपूरे दपूरे मपूरे का खिलंदड़ापन है, इसमें आम आदमी की यात्राओं का आसरा तिनतल्ला शयनयान है। ऊंट जैसा मेहनतकश संतोषी पशु है, जो सिर्फ़ मरुथलों में नहीं, पूरब के मैदानों में भी आम आदमी का संगी रहा है। यहीं राजसी वैभव से बाहर आ चुका हाथी भी है। बारिश में भीगा अद्भुद मोद भरा सूअर का बच्चा है। जीते-जी कहीं न गिरने का साहस साधे झिल्ली डैनों वाली मक्खी, पुरखों की बेटी छिपकली और सृष्टि के हर स्वाद की मर्मज्ञ कुत्ते की जीभ के संदर्भ मनुष्य की कथा कहने के लिए हैं। ये वो छोटे जीव हैं, जिनका जीवट बहुत बड़ा है। जाहिर है कि वीरेन डंगवाल कविता में वस्तु और जीवों से व्यवहार की एक नई कला विकसित कर चुके हैं। इस कला पर कवि की निजी छाप है, उसकी कोई नकल तैयार कर पाना एक नामुमकिन चुनौती है। यहां से हमें यह समझ भी मिलती है कि कविता में वस्तुएं और विषय निजी नहीं होते पर कला होती है।
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रात हमेशा से कवियों का लक्ष्य रही है। रात पर और उसके अलग-अलग रचावों पर हमारे पास कविताएं हैं, पर वीरेन डंगवाल के यहां एक पूरी रातगाड़ी मौजूद है, जो मुश्किल में पड़े देश की रात को लादे है। इस रात के अपने कई ब्यौरे हैं, जिन्हें यहां दूंगा तो लेख अपनी तय सीमा से बाहर निकल जाएगा पर इतना तो ज़रूरी होगा-

इस क़दर तेज़ वक्त़ की रफ़्तार
और ये सुस्त ज़िंदगी का चलन
अब तो डब्बे भी पांच ए.सी. के
पांच में ठुंसा हुआ बाकी वतन
आत्मग्रस्त छिछलापन ही जैसे रह आया जीवन में शेष
प्यारे मंगलेश
अपने लोग फंसे रहे चीं-चीं-चीं-टुट-पुट में जीवन की
भीषणतम मुश्किल में दीन और देश
* * *
कोमलता अगर दीख गई आंखों में, चेहरे पर
पीछे लग जाते हैं कई-कई गिद्घ और स्यार
बिस्कुट खिलाकर लूट लेने वाले ठग और बटमार
माया ने धरे कोटि रूप
* * *
रात विकट विकट रात विकट रात
दिन शीराज़ा
शाम रुलाई फूटने से ठीक पहले का लम्बा पल
सुबह भूख की चौंध में खुलती नींद
दांत सबसे विचित्र हड्डी
                         (रात-गाड़ी, दुश्चक्र में स्रष्टा)

यहां सिर्फ बाहरी दृश्य नहीं हैं, यह रात आत्मग्रस्त छिछलेपन की भी है। रात पर एक छोटी कविता स्याही ताल है - 

मेरे मुंतज़िर थे
रात के फैले हुए सियह बाजू
स्याह होंठ
थरथराते स्याह वक्ष
डबडबाता हुआ स्याह पेट
और जंघाएँ स्याह
मैं नमक की खोज में निकला था
रात ने मुझे जा गिराया 
स्याही के ताल में
            (स्याही ताल)

इस कविता का मतलब क्या है? रात है, समझ में आता है। विकट रात है, जिसमें सब कुछ स्याह है, यह भी समझ में आता है। फिर उस रात का संक्षिप्त किंतु तीव्र ऐंद्रिक विवरण, जहाँ वक्ष, डबडबाता हुआ पेट, जो अकसर प्रौढ़ावस्था में होता है और जंघाएँ भी हैं। ये सब अंग स्याह हैं और अंतत: नमक की खोज में निकले कवि को रात स्याही के ताल में जा गिराती है... यह उस रात की विडम्बना है या कवि की, कुछ साफ़ समझ नहीं आता। यह रात विकट तो है पर मुक्तिबोध की रातों की तरह भयावह और क्रूर नहीं... यहाँ ऐंद्रिक मिलन जैसा कुछ होते-होते रह गया-सा लगता है। इस कविता के अंत में रात कवि को स्याही के ताल में जा गिराती है... कविता कुल मिलाकर एक अनोखा-आत्मीय-करुण और कलात्मक वातावरण रच देती है, जिसमें पाठक का घिर जाना तय है। ऐसा होना शमशेर की गहरी याद दिलाता है। यही कवि का अटपटापन और फितूर भी है। यहाँ मुझे दुश्चक्र में स्रष्टा में संकलित शमशेर वाली कविता की यह पंक्तियाँ भी याद आती हैं -

अकेलापन शाम का तारा था
इकलौता
जिसे मैंने गटका
नींद की गोली की तरह
मगर मैं सोया नहीं
            (शमशेर, दुश्चक्र में स्रष्टा)

इस रात्रिकथा में हृदयस्थ सूर्य के ताप से प्रेरित भोर के हस्तक्षेप लगातार बने रहते हैं। यहीं से कवि अपनी अलग राह का साक्ष्य प्रस्तुत करता है -

इसीलिए एक अलग रास्ता पकड़ा मैंने
फ़ितूर सरीखा एक पक्का यकीन
इसीलिए भोर का थका हुआ तारा
दिगंतव्यापी प्रकाश में डूब जाने को बेताब
        (कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा, स्याही ताल)

समकालीन क्रूरताओं-निमर्मताओं और हत्यारी सम्भावनाओं के बीच वीरेन डंगवाल उम्मीद को कहीं कोई नश्तर नहीं लगने देते, फिर चाहे जो उम्मीद है/भले ही वह फ़िलहाल तकलीफ जैसी हो। आस या उम्मीदें उनके यहां महाख्यान होने के करीब आती हैं। वे विसंगतियों, विडम्बनाओं, विफलताओं और तमाम अनाचारों के बीच मनुष्यता के पक्ष में जुझारूपन और लड़ाकूपन के चित्रों को अपना ख़ास गाढ़ा लाल रंग देते हैं। रॉकलैंड डायरी कैंसर से लड़ते हुए कवि की निजी-व्यथाकथा हो सकती थी लेकिन यह वीरेन डंगवाल का हृदय नहीं, जो दु:खों में निजता को साधे। इस लम्बी कविता के अंत में फिर कवि का वही लाल चमकता-भभकता दिल है, जो जनसंघर्षों के हर सम्भव पथ को आलोकित करता है –

मेरी बंद आंखों में
छूटे स्फुल्लिंग
मेरे दिल में वही ज़िद कसी हुई 
निजी नवजात की गुलाबी मुट्ठी की तरह
मेरी रातों में मेरे प्राणों में
वही-वही पुकार:
'
हज़ार जुल्मों के सताए मेरे लोगों
तुम्हारी बद्दुआ हूं मैं
तनिक दूर तक झिलमिलाती
तुम्हारी लालसा'
                (राकलैंड डायरी, स्‍याही ताल)
वीरेन डंगवाल के यहां उम्मीद दिलासा की तरह नहीं है, वह हमारे काल में यकीन की तरह धंसी हुई है। देखना होगा कि अब तक समकालीन कविता में असम्भव रही यही वीरेन डंगवाल की कला है, जो अपनी पूरी ताक़त के साथ एक भरपूर समर्पित सामाजिक और राजनीतिक कृत्य में बदल जाती है। यह जानना कितना सुखद और आश्वस्तिप्रद है कि इस कला को पूर्णता में पाकर भी कवि सोता नहीं, निरन्तर जागता और जगाता है। इसी कला से उनके सभी संग्रह बने है। कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा तीसरे संग्रह की पहली कविता है, जिसकी पंक्तियों को पहले मैंने उद्धृत किया - हर समर्थ कवि अपने समाज का विश्लेषण करने और उसके बारे में कोई राजनीतिक बयान देने में रुचि रखता है, लेकिन वीरेन डंगवाल स्थूल विश्लेषण से कहीं आगे उसके रग-रेशे में प्रवेश करके खुद को उसके साथ रच लेने के उस हद तक हामी हैं, जहाँ बयान देने की कोई ज़रूरत ही नहीं रह जाती, वह उस रचाव के बीच से खुद ही निकलकर आता है। यह कविता इसका एक बड़ा उदाहरण है। कविता लगातार दिल में गूंजती है। बरेली से लगा हुआ रामगंगा के कछार पर बसा कटरी गाँव। वहाँ रहती रुक्मिनी और उसकी माँ की यह काव्य-कथा। नदी की पतली धार के साथ बसा हुआ साग-सब्जी उगाते नाव खेत मल्लाहों-केवटों के जीवन की छोटी-बड़ी लतरों से बना एक हरा कच्चा संसार। कलुआ गिरोह। 5-10 हज़ार की फिरौती के लिए मारे जाते लोग, गो अपहरण अब सिर्फ उच्च वर्ग की घटना नहीं रही। कच्ची खेंचन की भट्टियाँ। चौदह बरस की रुक्मिनी को ताकता नौजवान ग्राम प्रधान। पतेलों के बीच बरसों पहले हुई मौत से उठकर आता दीखता रुक्मिनी का किशोर भाई। पतवार चलाता 10 बरस पहले मर खप गया सबसे मजबूत बाँहों वाला उसका बाप नरेसा। एक पूरा उपन्यास भी नाकाफ़ी होता इतना कुछ कह पाने को। अपने कथन की पुष्टि के लिए नहीं, बस एक सूचना के लिए बताना चाह रहा हूं कि अभी बया (अंक 18) में चर्चित युवा कथाकार अनिल यादव ने इस कविता को आधार बनाते हुए कटरी की रुकुमिनी नाम से ही एक अद्भुत कहानी लिखी है। यह कविता और कहानी के बीच अपनी तरह का पहला पुल है, जिसे शायद वीरेन डंगवाल की कविता और अनिल यादव की अलग विद्रोही समझ ही मुमकिन कर सकती है। संक्षेप में कहूं तो यह कविता हमारे समय की मनुष्यनिर्मित विडम्बनाओं और विसंगतियों के बीच कवि की अछोर करुणा का सघनतम आख्यान प्रस्तुत करती हुई सदी के आरम्भ की सबसे महत्वपूर्ण कविता मानी जाएगी। मैं सिर्फ आने वाले कुछ दिन नहीं, बल्कि पूरी उमर इसके असर में रहूंगा। निजी सम्बन्धों के बावजूद कवि से कह नहीं सकता और भाग्य को भी नहीं मानता, पर कहना ऐसे ही पड़ेगा कि हमारा सौभाग्य है कि हम उन्हें अपने बीच पा रहे हैं। सुकांत भट्टाचार्य की कविता से आया इस कविता का उपशीर्षक 'क्षुधार राज्ये पृथिबी गोद्योमय'भी कुछ कहता है, जो महज आज की कविता नहीं बल्कि उसकी भाषा पर विमर्श छेडऩेवाली आलोचना को भी की एक राह देता है, जिसे लोग भूल रहे हैं। गद्य अलग है और कविता अलग, लेकिन वह कैसा अजब शिल्प है, जिसमें गढ़ा गया गद्य भी अंतत: कविता बनने को अभिशप्त है। उसे कविता होना होगा क्योंकि कविता में ही मनुष्य की सर्वकालिक अभिव्यक्ति की मुक्ति है। कहानी-उपन्यास-नाटक-निबंध होते रहेंगे,उनका अपना अलग महत्व है, पर कविता उन्हें एक साथ, एक साँस में रच लेने वाली विधा सिद्घ हुई है। इस कविता की गूंज में मैं स्त्रियों के गुमनाम रहे  संसार का पता भी पाता हूं।

इसी दुनिया मेंसड़क पर सात कविताओं की आखिरी कविता में दारूण दृश्य आता है, जहां एक औरत को नंगा करके पीट रहे हैं सिपाही - आततायियों की राह बनीं इन सड़कों पर कवि को उम्मीद है एक दिन इन्हीं पर चलकर आएंगे हमारे भी जन। इसी संग्रह में भाषा (सिंह) और समता (राय) पर दो कविताएं हैं। भाषा तब बच्ची थी, कवि ने सत्ताओं के बारे में उसके पूछे जिन सवालों का उल्लेख किया और उम्मीद दिखायी, वह अब साकार हो चुकी है - भाषा जन और जनान्दोलनों को समर्पित एक जुझारू पत्रकार बनी हैं, उनके बचपन के सवाल बाद के जीवन में उसी दिशा में बढ़ कर उन्हें वामपंथी पत्रकारिता में एक मुकाम दिला चुके हैं। समता भी प्रतिबद्घ कम्युनिस्ट कार्यकर्ता हैं - इस मामले में वीरन डंगवाल विचार के पक्ष में भविष्यदृष्टा कवि साबित हुए हैं। यहां उनका इन्वाल्वमेंट बहुत गहरा है। गर्भवती पत्नी के अनुभव संसार पर उनकी कविता अपनी तरह की अकेली कविता है। मेरे गरीब देश की बेटी पी.टी. उषा के बहाने उन्होंने जिन ख़तरनाक खाऊ लोगों को रेखांकित किया, उनका बढ़ते जाना हमारे नए उदारवादी देश की सबसे बड़ी विडम्बना बन चुका है। वीरेन डंगवाल की पुरानी कविता वन्या में जंगल जाते हुए ठेकेदारों और जंगलात के अफ़सरों से डरती किशोरी के डर, अब वास्तविकता में बदल चुके हैं और उत्तराखंड बनने के बाद इनमें अब भूमाफिया और शराबमाफिया-तस्कर भी शामिल हो गए हैं। जिस सिपाही रामसिंह को उनके जीवन और भविष्य के प्रति कवि 1980 में चेतावनी दे रहा था, वह अब स्याही ताल की कविता गंगोत्री से हरसिल के रस्ते पर में अपने बेटी को एक बोतल शराब के लिए दिल्ली के तस्कर की लम्बी गाड़ी में घुमा रहा है। निरीह लड़कियों के सुखद स्वप्न अब स्थायी दु:स्वप्नों में बदल गए हैं। इक्कीसवीं सदी की शुरूआत में विकास और आम आदमी की समृद्घि की मासूम इच्छाओं के साथ अस्तित्व में आए नए राज्यों में सत्ता और लोलपुता के नए दुश्चक्रों में सबसे बड़ी कीमत अपने मनुष्य होने के ज़रूरी सम्मान और गरिमा की बलि देकर औरतों ने चुकायी है। यहां उनकी एक कविता को इधर स्त्री संसार पर लिखी जा रही सुनियोजित कविताओं के सामने रखकर ज़रूर देखा जाना चाहिए-

रक्त से भरा तसला है
रिसता हुआ घर के कोने-अंतरों में

हम हैं सूजे हुए पपोटे
प्यार किए जाने की अभिलाषा 
सब्ज़ी काटते हुए भी
पार्क में अपने बच्चों पर निगाह रखती हुई प्रेतात्माएं

हम नींद में भी दरवाज़े पर लगा हुआ कान हैं
दरवाज़ा खोलते ही
अपने उड़े-उड़े बालों और फीकी शक्ल पर
पैदा होने वाला बेधक अपमान हैं

हम हैं इच्छा मृग

वंचित स्वप्नों की चरागाह में तो
चौकडिय़ां मार लेने दो हमें कमबख्‍़तो
            (हम औरतें, इसी दुनिया में)


वंचित स्वप्नों की चरागाह में चौकड़ी मार सकने का हक साबुत-सलामत रखना चाहतीं इन इच्छा-मृगों द्वारा अपने नरक की बेतरतीबी से ही थोड़ी खीझ भरी प्रसन्नता के साथ अपनी अपरिहार्यता तसल्ली ढूंढने का दृश्य दुश्चक्र में स्रष्टा में आता है। इन कविताओं के पाठक के हैसियत से मुझे कहना होगा कि वीरेन डंगवाल ने अपनी कविभाषा में, स्पष्ट दिखायी देने वाले रूपों के साथ ही इन छुपे हुए रूपिमों को भी भरपूर चमकाया है।
***

वीरेन डंगवाल ने कविता में छंद का महत्व को भी खूब पहचाना और उसके मर्म को बेहतर मांजा और आज़माया है। उनके तीनों कविता संग्रहों में ऐसी कविताएं हैं। हिंदी में एक निश्चित राजनीति और वैचारिकी में छंदमुक्तता जन की हामी रही है किंतु उसका निकट का साथ अब भी छंद ही है। मेरी पढ़त में यह क्रम, एक अद्भुत कविता इतने भले नहीं बन जाना साथी से शुरू होता है, जिसे हम छात्र-राजनीति के दौर में मुहावरे की तरह दोहराते थे। अंधकार की सत्ता में चिल-बिल चिल-बिल मानव जीवन के बीच संस्कृति के दर्पण में मुस्काती शक्लों की असलियत समझना हमने सीखा, कहना होगा कि यह समझ अब भी काम आती है। इन कविताओं की सूची नहीं दे रहा, पर ये याद आ रही हैं। दुश्चक्र में स्रष्टा में हमारा समाज है, जिसके पाठ के सफल हमलावर प्रयोग हमने कालेपन की संतानों की अभिजात महफ़िलों में किए हैं। छंदयुक्त इन कविताओं के अलावा मैंने देखा है कि वीरेन डंगवाल की कविता में शब्दों की जगह का चयन हमेशा एक लय पाने की इच्छा से संचालित रहा है। शिल्प की तोडफ़ोड़ के बीच भी यह लय बनी रहती है। कुछ कद्दू चमकाए मैंने जैसी कविता व्यंग्य के भीतरी घरों में भी वही लय खोज आती है। वीरेन डंगवाल का बहुत अलग और प्रखर कवि-कौशल है, जिसमें कविता के शिल्प का बदलाव उसी लय में बंधा रहता है, जिसमें वह पाठकों के लिए अधिकाधिक ग्राह्य होती जाती है।
***

कविता ही नहीं मनुष्यता के स्तर पर वीरेन डंगवाल बड़े हैं। उनकी कविता की अपवाद असफलताएं और विकट उलझनें दरअसल मनुष्य बने रहने के द्वन्द्व की हैं - यदि यहां समझौता हुआ होता तो ये कविताएं ज्‍़यादा कटी-छंटी, सधी और चमकीली हो सकती थीं, इनमें भरपूर आप्तवचन हो सकते थे, इनमें विचार के स्तर पर सीख, नारे और जाहिर प्रेरणाएं हो सकती थीं... तब इन पर आलोचना भी बहुत आसान होती। इस तरह के एक झूठे और धूर्त होते जाते अकादमिक संसार में इन कविताओं की स्वीकार्यकता भी बढ़ती लेकिन फिर ये हमारी न होतीं, न ये कवि हमारा होता। जब से आलोचना महज बुद्घि व्यवसाय के रूप में स्थापित हुई है, तब से उसकी अपनी मुश्किलें बढ़ीं और विश्वसनीयता घटी है - दिक्कत यह है कि इस बात को अभी पहचान/स्वीकारा नहीं जा रहा है। मैं अपने आसपास देखता हूं कि जिन लोगों ने इस तरह के एकेडेमिक्स में अपनी जगह बना ली है, वे इस कवि की अतीव (और विवश) मौखिक प्रशंसा करते हुए भी उसे समझ नहीं पाते और इस तथ्य को गाहे-बगाहे जताते भी चलते हैं। वीरेन डंगवाल दरअसल जीवन के सहज उल्लास और असाधारण मुश्किलों के कवि हैं - इन दोनों को अपना बनाए बिना उन पर आलोचना सम्भव नहीं और जाहिर है कि इन दो चीज़ों को अपनाना भी इतना सरल नहीं।
***
यहां मैंने जो कुछ लिखा, वह अपर्याप्त तो है ही, बिखरा हुआ भी है - इससे बाहर अभी वीरेन डंगवाल को कितनी ही तरह से देखा जाना बाकी है। एक अच्छे-प्रिय कवि पर काफी कुछ लिखा जाना हमेशा बाकी ही रहता है। लिखते हुए उस कवि के प्रति दूसरे कवि का गहरा प्यार और सम्मान भी बांध-सा देता है, जैसे मैं बंध गया हूं... इन पृष्ठों को लिखना मेरे लिए मुश्किल होता गया है और अपनी बहक को सम्भालना भी। लेकिन इसे भी समझा जाए कि यही बात आलोचक कहाए जाने वाले लेखकों के लिए उसी तरह नहीं कही जा सकती। खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि  सियाराम शर्मा और पंकज चतुर्वेदी को छोड़, बाकी ओजस्वी वामपंथी आलोचकों ने वीरेन डंगवाल के सन्दर्भ में मुझे बहुत निराश किया है। बोल कर उन्हें बड़ा बताने वाले कई आलोचक और चिंतक कवि परिदृश्य पर मौजूद रहे हैं, पर उन्होंने लिखकर कभी यह काम नहीं किया। जिन बातों का अभिलेख होना चाहिए, ये वायु में विलीन हो रही है। बहुत बड़े आलोचक तो जैसे सन्नाटे में हैं। सबको ये जो चुप-सी लगी है, उसके चलते अपनी बात के अंत में मुझे अचूक कहने वाले पुरखे ग़ालिब की याद आ रही है –

दिल-ए-हसरतज़द: था मायद:-ए-लज्‍़ज़त-ए-दर्द
काम यारों का, बक़द्र-ए-लब-ओ-दन्दां निकला
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10वां विश्व हिंदी सम्मलेन(एक छात्र प्रतिभागी के नोट्स) - शिव त्रिपाठी

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1०वाँ विश्व हिंदी सम्मलेन का आयोजन 10-12 सितम्बर 2015 को मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में संपन्न हुआ वैश्विक परिदृश्य पर हिंदी की एक ठोस पहचान बनाने तथा उसे यथेष्ठ सम्मान दिलाने के लिए और हिंदी को वैश्विक प्रचार प्रसार के लिए विश्व हिंदी सम्मेलन की परिकल्पना राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा द्वारा 1973 ई0 में की गयी थी| इसका एक प्रमुख उद्देश्य हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ में आधिकारिक भाषा का दर्ज़ा दिलाकर विश्व भाषा के रूप में स्थापित करना भी था| अब तक 9 विश्व हिंदी सम्मलेन नागपुर, नई दिल्ली, पोर्ट लुई (मारीशस में दो सम्मेलनहुए), पोर्ट ऑफ स्पेन, त्रिनिदाद एंड टोबैगो, लन्दन(यु.के), पारामारिबो(सूरीनाम), न्यूयार्क(अमेरिका) और जोहान्सबर्ग(द० अफ्रीका) में आयोजित हो चुके हैं|

10वें विश्व हिंदी सम्मेलन के विमर्श का मुख्य विषय रहा  “हिंदी जगत:विस्तार एवं संभावनाएँ|” मुख्य विषय के अतिरिक्त उप विषय भी निर्धारित किये गये थे, ‘विदेशनीति और विदेशों में हिंदी,प्रशासन में हिंदी,विज्ञान क्षेत्र में हिंदी तथा संचार और सूचना प्रद्योगिकी में हिंदी| इन्ही उप-विषयों पर तीन दिन तक समानांतर सत्रों में निर्धारित सभागार में विमर्श हुआ| जिस प्रकार से यह सम्मेलन अपने आयोजन, वैचारिकी और उद्देश्यों को लेकर शुरू से ही विवादित रहा तो यह आवश्यक हो जाता है कि हम इसकी वैचारिकी, विषय विभाजन, विमर्श के मुद्दे, आमंत्रित विद्वानों, अतिथियों तथा विशिष्ट अतिथियों को ध्यान में रखते हुए इनका यथार्थ विश्लेषण करें और यह सुनिश्चित करें कि अपने स्थापनापरक उद्देश्यों की पूर्ति में 10वाँ विश्व हिंदी सम्मेलन कहाँ तक सफल रहा है |

यह सम्मेलन विदेश विभाग भारत सरकार के द्वारा आयोजित किया किया गया था| स्थानीय संरक्षक के रूप में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान स्वयं सक्रिय थे| स्थानीय सहयोगी सदस्य के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय एवं अटलबिहारी वाजपेयी विश्वविद्यालय भी पूर्णतः सक्रिय थे| एक अन्य सहयोगी के रूप में अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा भी था| भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी नगर के लाल परेड मैदान में सम्मेलन स्थल को भव्यता दी गयी थी|हम अगर इसके भव्यता की बात करे तो देखतें हैं कि सम्मेलन स्थल का पंडाल करीब 60 हजार वर्गफुट का था |इसके आलावा चार अलग-अलग सभागृह बनाये गये जिसमे समानांतर सत्र चले इन चारों सभागृह के नाम थे-
1-रोनाल्ड स्टुअर्ट मैक्ग्रेगर सभागार
2-अलेक्सेई पेत्रोविच वारान्निकोव सभागार
3-विद्यानिवास मिश्र सभागार
4-कवि प्रदीप सभागार

इन्ही से सटा हुआ एक अन्य राजेंद्र माथुर सभागार भी था जिसमे हिंदी के शोधपत्र भी पढ़े जा रहे थे| इन सबके अलावा 14 हजार वर्गफुट के दो पंडाल प्रदर्शनियों के लिए बनाये गये थे
1-सोमदत्त बखौरी प्रदर्शनी कक्ष
 2- डॉ.मोटुरि सत्यनारायण प्रदर्शनी कक्ष
जिसमे एक में मध्यप्रदेश की गौरव गाथा दर्शायी जा रही थी वही दूसरे में अनेक मल्टीस्टारर कम्पनियां जैसे कि एप्पल, माइक्रोसाफ्ट, गूगल,सी-डैक जैसी अन्य, ने अपने उत्पादों की प्रदर्शनी लगा रखी थी|दो जलपान गृह भी बनाये गये थे-
1-   दुष्यंत कुमार जलपानगृह (केवल प्रतिनिधि)
2-   काका कालेलकर जलपानगृह (केवल विशिष्ट अतिथि)

सबसे बड़ा आकर्षण जो था वह था मुख्य मंच जिसमे उद्घाटन और समापन समारोह संपन्न हुए यह मंच जो की रामधारी सिंह दिनकर सभागार में बनाया गया था जो कि कुल 4700 वर्गफुट में बना था| इस मंच में सायंकाल में अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया गया|

भोपाल के लाल परेड में प्रवेश करते ही भारी-भरकम पुलिस दस्ते से हमारा सामना हुआ| एक पल को लगा की हम किसी अति संवेदनशील सामरिक महत्व के बैठक में भाग लेने आयें हैं| खैर आगे परिचयपत्र की जाँच हो जाने के बाद हमारी नज़र मुख्य पंडाल के विशाल तोरणद्वार पर पड़ी| जिसे देखकर प्रसन्नता के साथ-साथ अपने हिंदी व्याकरण ज्ञान पर संशय प्रतीत होने लगा तोरणद्वार पर जो विशालकाय हिंदी शब्द लिखा हुआ था उसमे अर्द्ध व्यंजन ‘न्’ के साथ ही अनुस्वार का प्रयोग भी ग्लोब के रूप में किया किया गया था जिससे हिंदी शब्द कुछ इसतरह “हिंन्दी”, दिख रही थी| तोरणद्वार का दूसरा मुख्य आकर्षण था हिंदी साहित्य के कुछ प्रसिद्ध रचनाओं की विशालकाय पुस्ताकाकृति| जिनमे क्रमशः रामचरितमानस, गोदान, सूरसागर, कामायनी, चंद्रकांता, पृथ्वीराज रासो, मैला आँचल तथा शेखर एक जीवनी थी|बहुत माथापच्ची करने के बाद मै इनके पीछे छिपे उद्देश्यों को समझने में असफल रहा हालाँकि यह मेरी सीमा भी हो सकती हैं|तत्पश्चात्य पंडाल में प्रवेश हुआ| अंदर व्यवस्था में अनेक स्वयंसेवक थे जिनमे किसी पार्टी विशेष की छाप स्पष्ट दिखाई दे रही थी| पूरे पंडाल की सजावट और लगे साहित्यकारों की पोस्टर नुमा चित्रों के चुनाव में दक्षिणपंथी सोच स्पष्ट झलक रही थी| R.S.S. और संत समाज के अनेक साधुओं को विशिष्ट अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया गया था| जिनका साहित्यिक योगदान कार्यक्रम के आयोजकगण  ही जानते होगें | हिंदी भाषा की सर्वसमावेशी विशेषता को नजरंदाज करते हुए वैचारिक तालिबानीकरण की परम्परा शुरू करते हुए प्रारंभ से ही हिंदी साहित्य के बड़े व प्रबुद्ध साहित्यकारों व भाषाविदों को आमंत्रित ही नही किया गया था| जिसका हिंदी समाज ने अनेक सत्रों पर अपने-अपने तरीके से विरोध भी किया था| विरोध की परम्परा,एक स्वस्थ्य बहस, एक स्वस्थ्य वैचारिकी को जन्म दे सकती हैं| और साहित्य ही इस परम्परा का संवाहक होता है| यदि हिंदी साहित्य के विश्व सम्मलेन में ही इस प्रकार की वैचारिकी हठधर्मिता दिखाई जा रही है तथा भाषा,साहित्य व साहित्य सम्मेलन को राजनैतिक पैतरेबाजी के हथकंडे के तौर पर प्रयोग किया जा रहा हो तो हिंदी के भविष्य के विषय में आशंका उठना लाज़िमी है, यह सोंचते हुए मै मुख्य पंडाल की तरफ बढ़ चला और सीधे दिनकर सभागार पंहुचा जहाँ उद्घाटन समारोह होना था| कुछ कुछ ही समय पश्चात प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी, सुषमा स्वराज, शिवराज सिंह चौहान, केशरीनाथ त्रिपाठी, मृदुला सिन्हा, रामनरेश यादव, किरण रिजिजू, डॉ.हर्षवर्धन के साथ मंच पर पहुँचे| ऐसा प्रतीत हो रहा था कि विश्व हिंदी सम्मेलन का मंच न होकर के सत्तासीन पार्टी  की राजनीतिक रैली हो| मंच में किसी भी साहित्यकार के लिए कोई भी स्थान नही था| उद्घाटन कार्यक्रम के आरम्भ में स्वागत भाषण शिवराज सिंह चौहान के पढने के बाद सुषमा स्वराज जी ने प्रस्तावना वक्तव्य दिया|सुषमा जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि हमारा 1०वाँ विश्व हिंदी सम्मेलन साहित्य केन्द्रित न हो कर भाषा केन्द्रित है इसीलिए इसमें हमने साहित्यकारों को आमंत्रित नही किया है| परन्तु सुषमा जी इस बारे में कुछ भी नही बोली कि R.S.S. के जिन कार्यकर्ताओं और साधुओं को विशिष्ट अतिथि बनाकर आमंत्रित किया गया था वो कौन से भाषाविद लोग थे या जिन भी हिंदी के विद्वान या प्रबुद्ध लोगो को आमंत्रित किया गया उनमे से कितने भाषाविद है और उन्होंने हिंदी भाषा के विकास में कितना योगदान दिया है| यह भी बताय कि इसबार जो सामान्तर सत्र चलेंगे उनकी अध्यक्षता कोई साहित्यकार या भाषाविद न करके भारत सरकार के मंत्री करेगें| साथ ही सफाई भी देते हुए कहाँ कि अन्य आयोजनों में जो भी निष्कर्ष निकलकर आते हैं उनकी फाइल और संस्तुतियां तत्संबंधी विभाग को भेज दी जाती हैं परन्तु विभाग का मंत्री उसपर ध्यान नही देता है इसलिए उनको यहाँ अध्क्षता करवाई जा रही है जिससे जो भी संस्तुतियां आयेगी उनके संज्ञान में रहेगी साथ ही साथ वह अपने जिम्मेदारी से बच नही सकता हैं| 

तत्पश्चात  माननीय नरेन्द्र मोदी जी का उद्बोधन हुआ जिसमे मोदी जी ने भाषा के महत्व पर प्रकाश डालते हुए भाषा को सर्वग्राही बताया तथा उसे विलुप्त होने से बचाए रखने का आग्रह किया अब ये आग्रह खुद से था या समाज से ये स्पष्ट नही हुआ| हिंदी भाषा की सुगमता की ओर ध्यान दिलाते हुए उन्होंने कहा कि मैंने इतनी अच्छी हिंदी चाय बेचते हुए सीखा है,साथ ही भाषाविदों को सुझाव दिया कि हिंदी को अखिल भारतीय स्वरुप प्रदान करने के लिए हिंदी में तमिल,बांग्ला,कन्नड़ आदि भारतीय भाषाओँ से शब्द लिए जाये जिनका हिंदी में स्थानापन्न पर्यायवाची शब्द नही है| हिंदी समाज जो कि माननीय प्रधानमन्त्री जी की तरफ आशापूर्ण नजरो से देख रहा था कि वह इस मंच से हिंदी के विकास व प्रचार-प्रसार के विषय में कोई नई उद्घोषणा करेगें, केंद्र सरकार की तरफ से कोई नई पहल करेगें तथा हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने की एक सार्थक पहल करेगें, उसे निराशा ही हाथ लगी|
कार्यक्रम-
 10 सितम्बर 2015 :  
Ø  उद्घाटन समारोह – स्थल: रामधारी सिंह दिनकर सभागार
Ø  स्वागत वक्तव्य- शिवराज सिंह चौहान
Ø  सम्मेलन प्रस्तावना- सुषमा स्वराज
Ø  उद्घाटन उद्बोधन- नरेन्द्र मोदी
Ø  विमोचन–गगनांचल पत्रिका  विशेषांक (द्वारा नरेन्द्र मोदी एवंअशोकचक्रधर)
Ø  विमोचन-प्रवासी साहित्य: जोहान्सबर्ग से आगे    (नरेन्द्र मोदी जी एवं कमलकिशोर गोयनका)
Ø  धन्यवाद ज्ञापन- अनिल वाधवा (सचिव विदेश सरकार)

उद्घाटन सत्र के पश्चात भोजन की व्यवस्था दुष्यंत कुमार सभागार(प्रतिनिधि) तथा काका कालेलकर सभागार(विशिष्ट अतिथि) में थी | तत्पश्चात विभिन्न समानांतर सत्रों का प्रारम्भ हुए,जिसकी अध्यक्षता मंत्रीगण कर रहे थे और हालात ये थे की वह किसी की बात सुनने को तैयार नही थे मात्र और मात्र अपने विभाग और सरकार द्वारा शुरू की गयी योजनाओं का बखान किये जा रहे थे| साथ ही अन्यत्र भी सत्र चल रहे थे(उनकी भी हालत कमोबेश यही थी) जो निम्न हैं-            
 समानांतर सत्र –  10-सितम्बर 2015
      सभागार – रोनाल्ड स्टुअर्ट मैकग्रेगर                 विषय-विदेशनीति में हिंदी
अध्यक्ष-श्रीमती सुषमा स्वराज (विदेश मंत्री एवं प्रवासी भारतीय कार्य मंत्री)
संयोजक – विपुल

      सभागार- अलेक्सेई पेत्रोविच वारान्निकोव             विषय -प्रशासन में हिंदी
अध्यक्षता - शिवराज सिंह चौहान (मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश)
संयोजक – डॉ. हरीश नवल

     सभागार-विद्यानिवास मिश्र                        विषय- विज्ञान क्षेत्र में हिंदी
अध्यक्षता- डॉ. हर्षवर्धन (विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी मंत्री, भारत सरकार )
संयोजक-श्रीमती किंकिणी दासगुप्ता
     सभागार –कवि प्रदीप           विषय- संचार एवं सूचनाप्रोद्योगिकी में हिंदी
अध्यक्षता-श्री रविशंकर प्रसाद (मंत्री,सूचना एवं संचार प्रद्योगिकी, भारत सरकार)
संयोजक- डॉ. रचना विमल
मुख्य वक्ता –श्री अशोक चक्रधर,बालेन्दु शर्मा दधीच,आदित्य चौधरी आदि 

समानांतर सत्र –  11 -सितम्बर 2015 (सत्र-पूर्वाह्न)
     सभागार – रोनाल्ड स्टुअर्ट मैकग्रेगर  
     विषय-विधि एवं न्यायक्षेत्र में हिंदी और भारतीय भाषाएँ
अध्यक्ष-केशरीनाथ त्रिपाठी (महामहिम राज्यपाल- प.बंगाल)
संयोजक – श्री प्रदीप  
                             
     सभागार- अलेक्सेई पेत्रोविच वारान्निकोव           
    विषय –बाल साहित्य में हिंदी
अध्यक्षता – डॉ. बालशौरी रेड्डी
संयोजक – श्रीमती ऊषा पुरी

    सभागार-विद्यानिवास मिश्र                        
    विषय- हिंदी पत्रकारिता और संचार माध्यमों में भाषा की शुद्धता  
अध्यक्षता- श्रीमती मृणाल पाण्डेय
संयोजक-श्री राजेंद्र
वक्ता- श्री ओम थानवी, श्री आलोक मेहता,डॉ.नरेन्द्र कोहली,श्री राहुल देव
      
     सभागार –कवि प्रदीप          
     विषय- देश और विदेश में प्रकाशन : समस्याएं एवं समाधान   
अध्यक्षता-श्री बलदेव भाई शर्मा (राष्ट्रीय पुस्तक न्यास)
संयोजक-श्री प्रभात कुमार
मुख्य वक्ता-श्री अशोक गुप्त , श्री राजनारायण गति (मॉरिशस)

समानांतर सत्र –  11 -सितम्बर 2015 (सत्र-अपराह्न् )
     सभागार – रोनाल्ड स्टुअर्ट मैकग्रेगर  
     विषय-गिरमिटिया देशों में हिंदी
अध्यक्ष-श्रीमती मृदुला सिन्हा (महामहिम राज्यपाल- गोवा)
संयोजक – श्री मनोहर पुरी
                             
     सभागार- अलेक्सेई पेत्रोविच वारान्निकोव           
     विषय –विदेशों में हिंदी शिक्षण-समस्या और समाधान
अध्यक्षता – डॉ. प्रेम जनमेजय
संयोजक – श्री सतीश मेहता

    सभागार-विद्यानिवास मिश्र                        
    विषय- विदेशियों के लिए भारत में हिंदी अध्ययन की सुविधा   
अध्यक्षता- कमलकिशोर गोयनका
संयोजक-डॉ.अवनीजेश अवस्थी

     सभागार –कवि प्रदीप          
     विषय- अन्य भाषा-भाषी राज्यों में हिंदी   
अध्यक्षता-प्रो. एस.शेषारत्नम 
संयोजक-श्री वाई. लक्ष्मी प्रसाद

12 सितम्बर को पूर्वाह्न विभिन्न समानांतर सत्रों में संस्तुतियां पढ़ी गयी| लंच के पश्चात समापन समारोह प्रारम्भ हुआ| विद्वानों को विश्व हिंदी सम्मान प्रदान किया गया| मंच में अजीब सी व्यवस्था की गयी थी सभी सम्मानित विद्वानों को राजनेताओं के पीछे बैठाया गया था| हालाँकि ये कोई अचम्भित करने वाली बात नही रह गयी थी बाकी के दो दिनों की व्यवस्था और क्रियाकलापों को देखते हुए|

समापन सत्र की अध्यक्षता भारत सरकार के गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने की| उनके समक्ष तीन दिन तक चले सम्मेलन में जो भी संस्तुतियां पारित की गयी उसे पढ़ा गया| समापन भाषण देते हुए राजनाथ जी ने हिंदी भाषा की वैज्ञानिकता, वर्णों के वैज्ञानिक संयोजन क्रम पर भी बात की तथा राष्ट्रभाषा व राजभाषा के मुद्दे को भी उठाया | उन्होंने कहा कि जहाँ तक मेरा मानना है हिंदी राष्ट्रभाषा बनाये जाने के सर्वथा योग्य है और ऐसा किया जाना चाहिए| ऐसा बोलते हुए शायद वह भूल गये कि वह किसी चुनावी सभा को संबोधित नही कर रहे थे अपितु वह भारत सरकार के गृहमंत्री है और उनकी सरकार केंद्र में पूर्ण बहुमत में हैं तथा हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने काम सरकार का है|

अंततः 10वाँ विश्व हिंदी सम्मेलन हिंदी सम्मेलन न होकर विश्व हिन्दू सम्मेलन बन गया था| पुरे कार्यक्रम की रुपरेखा व आयोजन में आर.एस.एस. और भाजपा इकाई सक्रिय भूमिका में थी और उसकी वैचारिकी का प्रभाव जगह-जगह परिलक्षित हो रहा था | इस पूरे आयोजन से हिंदी के वरिष्ठ और प्रबुद्ध तथा महत्वपूर्ण विद्वानों, साहित्यकारों तथा भाषाविदों को एक वैचारिक संकीर्णता प्रदर्शित करते हुए दूर रखा गया था | विश्व हिंदी सम्मेलन के मंच को एक राजनैतिक दल विशेष और विचारधारा विशेष का मंच बना दिया गया| हिंदी के उत्कर्ष एवं विकास के लिए कुछ ठोस करने की जगह पर केवल बयानबाजी की गयी और घिसीपिटी पुरानी बातों को दोहराया गया| सारे राजनेताओं ने अपने-अपने भाषण में इस बात को जरुर दोहराया कि आज वे जिस जगह पर खड़े हैं वह पद और प्रतिष्ठा उनको हिंदी के कारण ही मिली है, उन के अन्दर आत्मविश्वास हिंदी ने ही जगाया है, परन्तु हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के मुद्दे पर इनके अंदर का आत्मविश्वास समाप्त हो जाता है | अतः निष्कर्ष रूप में कहना होगा कि समस्त हिंदी जनों को मिलकर अपने-अपने स्तर पर हिंदी के विकास और उत्थान के लिए प्राणप्रण से प्रयास करना होगा| सरकार अथवा इस प्रकार के आयोजनों से हिंदी के विकास की आशा करना बेमानी होगी |       
     
(शिव त्रिपाठी कुमाऊं वि.वि.नैनीताल में हिंदी के शोधार्थी हैं।)                             

अनुपम सिंह की तीन कविताएं

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नहीं जानता कि अनुपम सिंह पहले किन पत्रिकाओं में मौजूद रही हैं और कवि के रूप में उनकी यात्रा अब तक कैसी रही है, मेरी पढ़त के हिसाब से वे नई कवि हैं। ये कविताएं उजागर करती हैं कि समकालीन जीवन की ऊपर-ऊपर मीठी बताई जाती जलधार की अन्तर्धाराओं में कितना तो क्षार है। अनुपम ऐसा करने वाली अकेली और अलग कवि नहीं हैं, लेकिन ऐसे कवियों की संख्या कोई बहुत ज़्यादा नहीं है। अभी इतना ही कहूंगा कि कविता संसार में संभावनाओं के ऐसे कुछ सिरे जब अनुनाद में खुलते हैं तो मन आश्वस्त होता है। इन कविताओं के लिए कवि का आभार।

(1)
हम औरतें हैं मुखौटे नहीं

वह अपनी भट्ठियों में मुखौटे तैयार करता है 
उन पर लेबुल लगाकर ,सूखने के लिए 
लग्गियों के सहारे टांग देता है 
सूखने के बाद उनको अनेक रासायनिक क्रियाओं से गुजारता है 
कभी सबसे तेज तापमान पर रखता है
तो कभी सबसे कम 
ऐसा लगातार करते रहने से 
उनमे अप्रत्यासित चमक आ जाती है
विस्फोटक हथियारों से लैस उनके सिपाही घर -घर घूम रहे हैं 
कभी दृश्य तो कभी अदृश्य 
घरों से उनको घसीटते हुये 
अपनी प्रयोगशालाओ कीओर ले जा रहे हैं 
वे चीख रही हैं,पेट के बल चिल्ला रही हैं 
फिर भी वे ले जायी जा रही हैं 
उनके चेहरों की नाप लेते समय खुश हैं वे 
आपस मे कह रहे हैं ,की अच्छा हुआ इनका दिमाग नहीं बढ़ा
इनके चेहरे ,लंम्बे-गोल ,छोटे- बड़े है 
लेकिन वे चाह रहे हैं की सभी चेहरे एक जैसे हो 

एक साथ मुस्कुराएं
और सिर्फ मुस्कुराएं 
तो उन्होने अपनी धारदार आरी से 
उन चेहरों को सुडौल 
एक आकार का बनाया 
अब मुखौटों को उन औरतों के चेहरों पर ठोंक रहे हैं वे 
वे चिल्ला रही है 
हम औरते हैं 
सिर्फ मुखौटे नहीं 
वह ठोंके ही जा रहे हैं
ठक-ठक लगातार
और अब हम सुडौल चेहरों वाली औरतें 
उनकी भट्ठियों से निकली 
प्रयोगशालाओं में शोधित 
आकृतियाँ हैं ।

(2)


लड़कियाँ जवान हो रही हैं

हम लड़कियाँ बड़ी हो रही थीं
अपने छोटे से गाँव में
लड़कियाँ और भी थीं
छोटी अभी ज्यादा छोटी थीं
जो बड़ी थीं वे
ब्याह दी गयी थीं सही सलामत
इस तरह हम ही लड़कियाँ थीं
जिनकी उम्र बारह-तेरह की थी
हम सड़कों के बजाय
मेड़ों के रास्ते आतीजातीं
चलती कम
उड़ते हुये अधिक दिखतीं
गाँव मे नयीनयी ब्याह कर आयीं
दुल्हन हुयी लड़कियों की भी
सहेलियाँ बन रही थीं हम
किसी के शादी-ब्याह में
हम बूढ़ी और अधेड़ उम्र की
स्त्रियों से अलग बैठतीं
और अपने जमाने के गीत गातीं
हमारी हंसी गाँव में भनभनाहट की तरह फैल जाती
गाँव के छोटेभूगोल में
हमारे जीवन के विस्तार का समय था
अब हम सब अपने देह के उभारों के अनुभव से
एक साथ झुककर चलना सीख रही थीं
कभी तो जीवन को
हरे चने के खटलुसपन से भर देती
तो कभी माँ की बातों से उकताकर
आधे पेट ही सो जाती थीं
हम उड़ना भूलकर
अब भीड़ में बैठना सीख रहीं थीं
भीड़ से उठतीं, तो कनखियों से
एक दूसरे को पीछे देखने के लिए कहतीं
जब कभी हमारे कपडों में
मासिक धर्म का दाग लग जाता
तो देह के भीतर से लपटें उठतीं
और चेहरे पर राख बन फैल जाती
हम दागदार चेहरे वाली लड़कियाँ
उम्र के कच्चेपन में सामूहिक प्रार्थनाएँ करतीं
हे ईश्वर बस हमारी इतनी-सी बात सुन लो
हम लड़कियाँ , अनेक प्रार्थनाएँ करती हुयी
जवान हो रही थीं
लड़कियाँ जवान हो रही थीं
उनके हिस्से की धूप, हवा, रात
और रोशनियाँ कम हो रहीं थीं
अब हम बाग में नहीं दिखतीं
गिट्टियाँ खेलते हुये भी नहीं
हम घरों के पिछवारे
लप्प झप्प में
एक दूसरे से मिल लेती हैं
दीवार से चिपक कर ऐसे बतियातीं
जैसे लड़कियाँ नहीं छिपकलियाँ हों हम
घरों के बड़े कहीं चले जाते
तब बूढ़ी स्त्रियाँ चौखट पर बैठ
हमारी रखवाली करतीं और
किसी राजकुमार के इंतिज़ार और अनिवार्य
हताशा मे हरे कटे पेड़ की तरह उदास होती हम
लड़कियाँ जवान हो रही हैं।

(3)


आसान है हमें मनोरोगी कहना 

रात अनेक सपनों का कोलाज होती है
कई रातों के सपने अभी भी याद हैं
बचपन में पढ़ी कविताओं की तरह
सपने के एक सिरे से दूसरे सिरे का मतलब
अभी भी पूछतीं हूँ सबसे ।
आखिर! पश्चिम दिशा में साँप उगने का क्या मतलब होता है ?
कुछ सपने ,जो गाँव में आते थे
अब शहर की अनिद्रा में भी आने लगे हैं
एक आदमकाय ,सींगवाला जानवर
धुन्धभरी रातों में दौड़ता है
मेरे पैरों में बड़े-बड़े पत्थर बांध देता है कोई उसी क्षण
पैर घसीटे हुये, घुस गयी हूँ अडूस और ढाख के जंगलों में
अब वह जंगल ,जंगल नहीं एक सूनी सड़क है
उस साँय-साँय करती सड़क पर मैं भाग रही हूँ ।
रात को सोने से पहले ही
दिन चक्र की तरह घूम जाता है
आज फिर दूर वाले फूफा जी आए हुये हैं
वे आंखो से ,मेरे शरीर की नाप लेते हुये
अभिनय की मुद्रा मे कहते हैं
अरे ! तुम इतनी बड़ी हो गयी
मेरे बायें स्तन को दायें हाथ से दबा देते हैं ।
वह डॉक्टरनुमा व्यक्ति फिर आया हुआ है
जो मेरे गाँव की सभी स्त्रियॉं का इलाज करता है
पूछता है पेशाब में जलन तो नहीं होती
एक प्रश्न हम सभी की तरफ उछालकर
जाड़े की रात में भी ग्लूकोज चढाता है
और रात भर उन औरतों का हाथ
अपने शिश्न पर रखे रहता है
फिर सपने में आते हैं कुछ मुंह नोचवे
जो स्कूल जाती लड़कियों को बस में भर ले जाते हैं
छटपटाहट में नीद खुलती है
मुझे अपना चिपचिपाया हुआ बिस्तर देखकर घिन्न आती है
बीच की छूटी तमाम रातों में डरी हूँ
जिस रात, मैं उन देवताओं से गिड़गिड़ाती हूँ
की अब कोई और सपना मत दों मेरी नीद में
उसी रात ,पता नहीं कब ,कहाँ ,कैसे निर्वस्त्र ही चली गयी हूँ ।
सभी दिशाओं से आती हुयी आंखे मुझे चीर रही हैं
वे मेरी देह पर अनेक धारदार हथियारों से वार करते हैं
मुझे सबसे गहरी खायीं में फेक देते हैं वे
मेरी सांस फूल रही है ,मेरी देह मेरे विस्तार से थोड़ा उठी हुयी है
मैं सबसे पहले अपने कपड़े देखती हूँ ।
बगल में सोयी माँ पूछ रही है क्या कोई बुरा सपना देखा तुमने
मैं कहती, नही, अम्मा तुम सो जाओ
मैं सोच रही हूँ की, फ्रायड तुम जिंदा होते
तो इन सपनों को पढ़ कर कहते
की यह मनोरोगी है

वीरेन के साथ पूरी आधी सदी - बटरोही

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वीरेन डंगवाल पर उनके आत्मीय मित्र कथाकार बटरोही की लम्बी टिप्पणी मैं फेसबुक से साभार ले रहा हूं। बटरोही से वीरेन डंगवाल की संबंधों की दास्तान आधी सदी लम्बी है। लगभग दो दशकों तक मैं ख़ुद इन संबंधों का साक्षी रहा हूं। ये वैसा ही अजब-गज़ब रिश्ता है, जैसा वीरेन दा के साथ किसी का हो सकता है।  
वर्ष 1965 का मार्च या अप्रेल का महीना था. डी. एस. बी. कॉलेज तब एक सरकारी महाविद्यालय था. हम विद्यार्थियों ने एक ग्रुप बनाया था, ‘द क्रैंक्स’. शुरू में इसमें मेरे अलावा बॉटनी के देवेन्द्र मेवाड़ी थे, मगर धीरे-धीरे दूसरे विषयों के लड़के-लडकियाँ जुड़ते चले गए. साहित्य, संस्कृति और कलाओं से जुड़े कुछ सिरफिरे लड़के-लड़कियों का समूह था यह. हर-किसी विद्यार्थी को इसमें शामिल होने की अनुमति नहीं थी. जो भी इसमें आना चाहता था, उसे किसी भी रूप में यह सिद्ध करना होता था कि वह दूसरों से अलग हटकर है. (पहले इस संस्था का नाम द क्रैक्सरखा गया था, बाद में कुछ लोगों के ऐतराज के बाद नाम बदला गया. इसका उद्घाटन उस वक्त के सबसे अधिक चर्चितक्रैंकआचार्य कृपलानी ने किया था, जिन्होंने अपने उद्घाटन भाषण में कहा था, 'भारत में कवल दो ही क्रैंक हुए हैं एक गाँधी और दूसरा मैं'.)

उन्हीं दिनों बी. ए. के पहले वर्ष में आया था वीरेंद्र कुमार डंगवाल, जिसका नामकरण हमने किया, वीरेन डंगवाल. छोटे कद का, आँखों में भरपूर शरारत भरे हुए, एकदम बच्चों के-से व्यवहार वाला वह लड़का अपने खुले व्यवहार की वजह से हम लोगों में फ़ौरन घुल-मिल गया. एक दिन जब वीरेन ने हमसे कहा कि वह भी क्रैंक्स का सदस्य बनना चाहता है, हमने उससे कहा कि वह इस बात को साबित करे कि वह बाकी लोगों से फर्क है. जवाब देने की जगह उसने हमसे सवाल पूछा, हममें ही ऐसी कौन-सी चीज है? उस वक्त ग्रुप में अंग्रेजी के श्याम टंडन और डी. एस. लॉयल, बॉटनी के देवेन्द्र मेवाड़ी (जो तब देवेन एकाकीबन चुके थे) के अलावा रमेश थपलियाल, फिजिक्स के वेदश्रवा विद्यार्थी और सुबोध दुबे, बी. ए. के ओम प्रकाश साह, मिताली गांगुली और वसंती बोरा सदस्य थे, जिनमें एक-दूसरे को जोड़ने वाली विशेषता थी उनकी साहित्यिक अभिरुचि. हमने पूछा, क्या तुम कहानी लिख सकते हो? उसने फ़ौरन जवाब दिया की वह दूसरे दिन कहानी लेकर हमारे दरबार में हाजिर हो जायेगा. दूसरे दिन करीब ग्यारह बजे वह कहानी लेकर आ गया और क्रैंक्स का सदस्य बन गया. (इस पोस्ट के साथ जो रेखाचित्र लगाया गया है, उसमें वीरेन को चुपके-से पाँवों के बीच-से झाँकते हुए दिखाया गया है जो उसके शरारती व्यक्तित्व को दर्शाने के लिए जानबूझकर चित्रित किया गया है. दरअसल हमारे दोस्तों में एम. एस-सी (बॉटनी) फाइनल का एक लड़का था, रमेश थपलियाल (चित्र में दायें से पहला) जिसमें ऐसी अद्भुत प्रतिभा थी कि वह एक बार देख लेने के बाद कभी भी उसका चित्र बना सकता था. उन्हीं दिनों उसके व्यंग्यचित्र अंग्रेजी साप्ताहिक इलस्ट्रेटेड वीकलीऔर हिंदी साप्ताहिक धर्मयुगमें प्रकाशित होने लगे थे. चित्र में रमेश थपलियाल के बाद देवेन्द्र मेवाड़ी खड़े हैं, फिर छोटे कद का मैं, फिर चित्रकार सईद, उसके बाद ओमप्रकाश साह और श्याम टंडन और पीछे से हैं सुबोध दुबे.)

1966 में जब मैं शोधकार्य के सिलसिले में इलाहाबाद गया, वीरेन एम. ए. (हिंदी) करने के लिए वहाँ पहुँच चुका था. अपनी आदत के अनुसार वह थोड़े ही वक़्त में ठेठ इलाहाबादी बन चुका था, जैसे कि नैनीताल आने के कुछ ही समय बाद वह ठेठ कुमाऊँनी बन गया था. नैनीताल में जिस लहजे में वह कुमाऊँनी बोलता था, ऐसा हो ही नहीं सकता था कि कोई धोखे से भी यह अंदाज लगा सके कि उसकी मातृभाषा कुमाऊँनी नहीं है. यही बात उसकी इलाहाबादी हिंदी और बरेली जाने के बाद पश्चिमी हिंदी के लहजे और शब्दावली के बारे में कही जा सकती है. यह कहावत कि प्रतिभाएं जन्मजात होती हैंबिना किसी अतिरंजना के वीरेन पर लागू होती है. जिंदगी का हर व्यवहार उसका स्वाभाविक होता था, चाहे खाना हो, कपड़े पहनना हो, कविता लिखना हो, दोस्तों के प्रति प्रेम प्रदर्शित करना हो या अख़बार के शीर्षक लगाना. किसी बात पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने में वह पल-भर से अधिक का वक़्त नहीं लगाता था. अपनी शब्दावली और वाक्यों में संशोधन करते हुए तो वह देखा ही नहीं गया था. तमाम कवियों के बारे में मैंने सुना है कि वे लोग अपनी कविताओं में छंद, मात्रा और लय लाने के लिए खूब मशक्कत करते हैं, वीरेन की कविता कलम या मुँह से ही तैयार बाहर निकलती थी, मानो तैयार माल की तरह. इसीलिए किसी के औपचारिक व्यवहार से वह परेशान हो जाता था और अपना पिंड छुड़ाने के बहाने खोजने लगता था. साहित्य अकादेमी के लिए जब उसका नामांकन होना था, कितनी ही बार मुझे उसे फोन करना पड़ा था. तीसरे या चौथे दिन उसके प्रकाशनों का विवरण मैंने उससे फोन से ही लिया था. वह भी उसने मरे मन से दिया था. रामगढ़ में अकादेमी सम्मान मिलने के बाद मैंने उसकी कविताओं पर करीब दस मिनट का आलेख पढ़ा था, उसने मंच पर ही मानो एक राहत की साँस लेते हुए कहा, ‘कैसी-कैसी बातें कह गए यार तुम मेरे बारे में, उन्हें सुनते हुए मेरी छाती में अजीब-अजीब-सा होता रहा... ये सब कहने की क्या जरूरत थी यार.

उस दिन नैनीताल से मैं, शेखर पाठक, उमा और राजीवलोचन साह एक टैक्सी करके वीरेन को देखने बरेली गए, पहली नजर देखने के बाद ही मुझे लगा कि मैं गश खाकर गिर पडूंगा. हालाँकि पहले सुन चुका था कि उसका जबड़ा निकला जा चुका है, मगर ऐसा बिम्ब तो दिमाग में कतई था हीनहीं. वीरेन हम लोगों के बीच, कम-से-कम मेरे तो निश्चय ही, जिन्दादिली उन्मुक्तता का जीता-जागता प्रतीक था. शरीर के किसी अंग तो छोडिये, किसी मनोभाव की अनुपस्थिति को भी मैं उसमें सहन नहीं कर सकता था. मैं शायद जमीन पर गिर ही पड़ता, शेखर ने सहारा देकर मुझे थामा, फिर भी मुझे सामान्य होने में बहुत वक़्त लगा. हालाँकि खाने की मेज पर उसने आग्रह कर-कर के खाना खिलाया, बेटे को भेजकर आधा लीटर दही मंगाया, मगर दहशत तो उसके बाद लगातार बनी ही रही. सच कहूं, उसके बाद मिलने जाने की हिम्मत मेरी कभी नहीं हुई. फोन पर अनेक बार बातें हुईं, मगर वह भी डरते-डरते. उसकी तकलीफों के बारे में छोटे भाई टाटा से बातें होती रहती थीं, वैसी अदम्य जिजीविषा मैंने सचमुच किसी और में नहीं देखी... खासकर आखिरी वक़्त तक लिखते रहने के लिए उसकी जिजीविषा,
 
इसीलिए, सच बात तो यह है कि उसके न रहने की सूचना से दुःख कम राहत-सी ही अधिक मिली. लगभग वैसी-ही अनुभूति जैसी मटियानी जी के निधन का समाचार पाकर हुई थी. ये दोनों ही मेरे खुद के जितने ही अन्तरंग थे, इसलिए उनकी देह के न रहने का मेरे लिए कोई खास अर्थ नहीं था. शब्द से ही वह तब भी मेरे भीतर जीवित थे, शब्द से ही आज भी हैं.
 
अपने किशोर दिनों को याद करता हूँ तो इस अनुभूति को साझा करना चाहता हूँ कि वीरेन का महत्व हम जैसे आर्थिक दृष्टि से कमजोर लड़कों के लिए यह भी था कि न जाने कितनी बार हम लोगों में से अनेकों को उसने आर्थिक मदद की थी. बड़े लोगों के बच्चे हमारी मित्र-मंडली में और भी थे, मगर वीरेन कभी भी हमें न बड़े घर का बेटा लगा, न अपने आर्थिक और सामाजिक स्तर से अलग. आज यह बात सुनने-कहने में अटपटी और अविश्वसनीय लगती है, क्योंकि हममें से अधिकांश की स्थिति लगभग सामान हो चुकी है, मगर उस स्थिति का अंदाज वही व्यक्ति लगा सकता है, जिसने कुछ दिनों से पेट में कुछ न डाला हो और वीरेन ने खाना खिलाकर लौटने का जुगाड़ भी कर दिया हो और यह अहसास भी न दिलाया हो कि कहीं कुछ मदद की गयी है. ये भावुक बातें नहीं हैं. हाँ, भावुकता का बिम्ब उसके दिमाग में कुछ और था. वह दूसरों के सीने पर सिर रखकर मिनटों तक रो सकता था, मगर दूसरे के दुःख सुनकर मजाक करने से भी बाज नहीं आता था. महादेवी वर्मा सृजन पीठ में जिस अपमानजनक तरीके से मुझे अलग किया गया था, मैंने फोन पर उसके सामने अपना दुखड़ा रोया. मैं समझ रहा था कि वह अमर उजालामें इस सन्दर्भ में लिखकर मेरा मनोबल बढ़ाएगा, मगर सारी बात सुनने के बाद वह अपने उसी पुराने अंदाज में बोला, ‘दद्दा, पीठ का डायरेक्टर मुझे बना दे यार!


हर्षिल पाटीदार की कुछ कविताएं

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हिंदी में बहुत सारी रॉ एनर्जी है। वह उतनी अनगढ़ है, जितना एक मनुष्य को होना चाहिए। उसे बाहर से साधना हिंसा की तरह होगा। वह ख़ुद सधेगी विचार की राह पर उसके पथ आगे कभी प्रशस्त होंगे। जैसे बच्चा देखता है अचंभे से दुनिया को, वैसे ही युवतर कवि देखते हैं - ऐसे देखना ही सहज है, बाक़ी तो कला है, सामाजिक-राजनीतिक भटकावों के बीच जनपक्ष में उसे ख़ुद ही सधना है। यहां ऐसी ही उम्मीदों के साथ हर्षिल पाटीदार की कुछ कविताएं साझा कर रहा हूं। 

अनुनाद उस्तादों का नहीं, जीवन में फंसे और उसे गरिमा के साथ जीने की राह पर संघर्ष कर रहे अनगिन लोगों का शहर है।
*** 
 
हत्याओं का दौर और राजनीतिक अपंगता

मैं एक वाक्य लिखता हूँ कि
"आप अंधे हो."
और आप मुक्त हो जाते हो
उन समस्त उत्तरदायित्वों से
जो जनता ने
अपना सबकुछ दांव पर रख
आपको दिए थे।

हत्याएं
एक हो या हज़ार
आप नही देख सकते.

कल ही
न्याय
उन हत्यारों से भागते-भागते
अपने प्राण गँवा बैठा था.

आज सुबह
कालिख की फैक्ट्री के पीछे वाले नाले में
काली वर्दी वाले
पुलिसवालों ने
उसकी लाश बरामद की है.
और पोस्टमार्टम के लिए
मुर्दाघर में रखवा दी है
जिसपर ताला लगाकर
चाबी आपकी कुर्सी के नीचे चिपका दी गई है.
मैं एक दूसरा वाक्य लिखता हूँ.
"आप बहरे हो."
अब
घटनाओं से
आपका कोई सरोकार नहीं है.
वहीं करो,
जो पूर्वनियोजित है.
***   
 
ऐसे लिखता हूँ मैं कविता

पूछता है बुड़बक-
कहां से सीखी तुमने
ये कविता-वविता?

कहता हूँ
पिता की मूंछों पर ताव दे,
मैंने सीखी है कविता
धान के पौधों पर खिलती कोंपलों से
दूध भरते हुए संक्रमण कालीन समय से

हरी पहाडियों के पीछे
ढलते हुए सूरज की आखिरी किरण को सहेजते हुए
उभरते हैं मेरे भीतर से शब्द।

पिता के हाथों से
खलिहानों पर झरती हैं
चाँदनी में दूधियाती
कविताएँ।

टोकरों में भरभर कर
ढो देता हूँ घर तक
और भर देता हूँ
काग़ज़ों में
ढेर सारी कविताएँ।

बुड़बक,
ऐसे लिखता हूं मैं कविता।

.... और हाँ, ये वविता कुछ नहीं होती।
***

एक रहस्य


दोनों में से एक
महुआ रहा होगा या आम।
(रहा होगा कि दोनों की शक्लें एक जैसी थी)
महुए पर
फूल भी उगता था और फल भी,
पर आम पर सिर्फ फल उगता था
और उस फल में
हजारों फल एक रहस्य की तरह रहते थे।

उन्हें ज्यादा चाहिए था
इसलिए उन्होंने महुआ चुना।
मुझे अच्छा चाहिए था
सों मैं आम चूस रहा हूँ।
***  

 
हर्षिल पाटीदार 'नव'
महादेव मंदिर के पास,
गांव विकासनगर
जिला डूंगरपुर(राज.)
पिनकोड 314404
मो.न. 9660869991
ईमेल harshil.nav@gmail.com

उत्तर सदी की हिन्दी कहानी : समाज और संवेदनाएं -संदीप नाईक

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मित्रों
, उत्तर सदी की हिन्दी कहानी का विकास दुनिया के किसी भी साहित्य में उपलब्ध प्रक्रिया के तहत अपने आप में अनूठा होगा इस लिहाज से कि हिन्दी कहानी ने इस समय में बहुतेरी ना मात्र घटनाओं को देखा, परखा और समझा वरन भुगता भी है इसलिए उत्तर सदी की हिन्दी कहानी एक नाटकीयता नहीं, एक कहानी की परम्परा नहीं बल्कि एक सम्पूर्ण इतिहास को व्याख्यित करती है जहां लेखक, इतिहासकार, कलाकर्मी अपने समय से दो चार होते है मुठभेड़ करते है और फिर उस सब होने, देखने और भुगतने का सिलसिलेवार दस्तावेजीकरण करते है और हमें सौंपते है है एक समृद्ध विशाल और बड़ा फलक जिसे हम आने वाले समय में सीखने के लिए सहेजकर रख सकें.



विश्व परिदृश्य

विश्व के परिदृश्य पर नजर डाले तो हम पायेंगे कि पूरी दुनिया में यह बेहद उठापटक और खलबली मचने वाला समय रहा है जिसे साधारण भाषा में हम संक्रमण कह सकते है परन्तु इस संक्रमण के काल में इतिहास में कभी ना घटित हुई घटनाओं ने समूची मानवता को प्रभावित किया और एक बेहतर दुनिया को देखने के महा स्वप्न को भंग कर देने के षड्यंत्रों को देखा समझा. निश्चित ही कहानी को चाहे वो हिन्दी या विश्व के किसी और भाषा की हो, को इस बदलते परिदृश्य ने प्रभावित किया है. सन 1991 में गोर्बाच्योव के ग्लास्तनोस्त और पैरेस्त्रोईका ने जिस तरह से रूस का खात्मा किया वह समय बहुत ही कठिन समय था जिससे सदी का महास्वप्न भंग हुआ यह मेरा मानना है. ठीक इसी समय से दुनिया के परिदृश्य पर एक नजर डालें तो हम देखते है कि उदारवाद सुधारवाद और वैश्विकीकरण का समय में श्रमजीवी समुदायों को हाशिये पर धकेलने का काम बहुत सुसंगठित तरीके से किया जाने लगा और एक संघर्षशील वर्ग को आहिस्ते से पूरे विकास से हटाने का काम किया गया. जिस पूंजी को एक अभिशाप मानकर एक नई दुनिया देखने का स्वप्न हमने संजोया था वही पूंजी राजनीती पर हावी होती गयी और अन्तोत्गात्वा सर्वोपरि हो गयी. नए उद्योग घरानों का प्राकृतिक संसाधनों पर सत्ता के साथ मिलकर उदय और फिर पूरी दुनिया से सर्वहारा वर्ग के हकों, लड़ाईयों और ट्रेड यूनियनों को सिरे से नकार कर ठेकेदारी प्रथा से मानव शर्मा को हांकना, टास्क आधारित काम पर पूंजी का वितरण आदि भी इसी वर्ग की एक चाल थी जिसने मजदूरों को ना मात्र खत्म किया बल्कि उन्हें ज़िंदा रहने के लिए भी नहीं छोड़ा. अमेरिका और रूस के द्वीध्रुवीय व्यवस्था के पराभव का भी यही समय है जन विश्व संस्था के रूप में यु एन ओ जैसे संगठन एकाएक ताकत बनकर उभरे जिन्होंने रूस के खात्मे के बाद अमेरिका के बढ़ते वर्चस्व को विश्व में स्थापित किया यहाँ तक कि एक ठोस उदाहरण से अपनी बात कहूं तो ईराक पर किया गया हमला बगैर सहमित के किया गया और सिर्फ तेल पर अपना दबदबा कायम करने के लिए हजारों जानें ली गयी. इसी से दुनिया में तेल की राजनीती पनपी जिसने कालान्तर में दुनिया भर में रिसेशन या मंदी थोपी जिसका नुकसान ज्यादातर गरीब मुल्कों पर हुआ जो संसाधनविहीन थे और इस मंदी में इन्हें अपना सब कुछ बेचना पडा या भारत जैसे देश को अपना सोना भी गिरवी रखना पडा.

विश्व के फलक पर तेजे से बढ़ते घटते क्रम में दुनिया के इतिहास में सभ्यताओं के संघर्ष जो इस उत्तर सदी में उभरे है वे अपने आप में बेहद रोचक, डरावने और सिखाने वाले है. दक्षिण एशिया में उभरे गुट निरपेक्ष जैसे आन्दोलनों की महत्ता ख़त्म हो गयी और एशियाई देशों के सामने चुनौतियां अपने पड़ोसी मुल्कों और साथ वाले गरीब देशों से ही मिलने लगी लिहाजा अपनी सारी ताकत वे बनिस्बत विकास, गरीबी, बेरोजगारी या महिला समानता, दलित और वंचित लोगों की भलाई करने के आपस  में लड़कर अपनी ऊर्जा और संसाधन ख़त्म करने लगें जिससे वे लगातार गरीब होते चले गए, गृह युद्धों की स्थिति में जी रहे इन देशों के सामने अमेरिका के सामने घुटने टेकने के अलावा कोइ और चारा नहीं बचा और अमेरिका अपने हतियार बेचने के लिए एक से दूसरे मुल्क में यात्राएं करता रहा और किसी सिद्धहस्त खिलाड़ी की तरह से बाजार में वो सब देता रहा जिससे उसके प्रोडक्ट दनिया के बाजार में छा जाए और वो स्थानीय उद्योग धंधों को ख़त्म कर अपना वर्चस्व दुनिया में शामिल कर पाए. यूरोप के राजनैतिक नक़्शे में बदलाव को भीहमने इस उत्तर सदी में देखा जहां एक ओर दोनों जर्मनी का एकीकरण हुआ, और दीवारें टूटकर गिरी वही युगोस्लोवाकिया, चेकोस्लोवाकिया और सोवियत संघ जैसे देशों का या शक्तियों का विघटन हुआ जो कि बहुत चिंतनीय था परन्तु बदलती अर्थ व्यवस्था और राजनैतिक ध्रुवीकरण के समय में कही से कोई आवाज उठाने वाला नहीं था. इसका असार अभी तक है हाल ही में एक छोटे से देश को विश्व मुद्रा कोष ने खरीदने की बात की थी परन्तु अच्छी बात यह थी कि जन मानस ने जनमत में इस बात को नकार दिया.

भारतीय परिदृश्य

भारतीय परिदृश्य पर एक नजर डालें तो हम पायेंगे कि दुनियावी उथलपुथल से भारत जैसा देश भी अछूता नहीं रहा, पचास साल की आजादी के बाद देश ने करवट बदलना शुरू किया और यहाँ के लोगों ने जब अभी आजादी का मतलब समझा ही था, शासन, प्रशासन और स्वशासन की इकाईयों को समझकर वे 73 वें और 74 वें संविधान संशोधन को अंगीकार करके सुशासन स्थापित कर ही रहे थे कि मंदी ने उनके जीवन पर प्रभाव डाला और सब कुछ विध्वंस कर दिया. यह बहुत लम्बी बात नहीं है जब मन मोहन सिंह ने संसद को संबोधित करते हुए कहा था कि लम्हों ने खता की है और सदियों ने सजा पाई हैलिहाजा देश को गिरवी रखकर आर्थिक सुधार करना होंगी, विश्व बाजार को अपने आँगन में बुलाकर मिश्रित अर्थ व्यवस्था के मॉडल को हमने एक झटके में तोड़ दिया. उदारवाद की बयार में छोटे मोटे लोग बह गए और एक ग्लोबल विश्व और मॉल की चकाचोंध भरी दुनिया से सबसे सॉफ्ट मध्यमवर्ग को लुभावने सपने दिखाकर यहाँ भी संघर्ष को सिरे से खत्म कर दिया गया.


इस समय में मिश्रित या यूँ कहें कि गठबंधन सरकारों का दौर चालु हुआ जिसने समूचे राजनैतिक ढाँचे को एक अजीब स्थिति में पाया, इस गठबंधन से ना मात्र आर्थिक बदलाव करना पड़े बल्कि सामाजिक और राजनैतिक बदलाव एक अनिवार्य तत्व की तरह से आया जिसने भारतीय विकास के सोपान में नया अध्याय लिखना आरम्भ किया. इस उथल पुथल भरे समय में ही हमने मिश्रित अर्थ व्यवस्था की विदाई की और मप्र के एक छोटे से जिले बडवानी से उभरे नर्मदा आन्दोलन ने विकास और विनाश के प्रश्न उछाले इस ताः के जमीनी आन्दोलनों से पूंजी का जहां महत्त्व बढ़ा वही पूंजी के प्रति एक नफ़रत भी समाज ने देखी जहां एक बड़ा तबका सामने आया और बेहद प्रतिबद्धता से जमीनी आन्दोलनों में नेत्रित्व के रूप में सामने आया और फिर एक बार नक्सलवाद, माओवाद, एक्टिविज्म को परिभाषित किया जाने की मांग उठी ठीक इसके विपरीत जातिगत ध्रुवीकरण और हिन्दू मुस्लिम शक्तियों के कारण समाज में कमजोर और वंचित समुदाय को लगातार हाशिये पर धकेला गया क्योकि इस साम्प्रदायिकता में सबसे ज्यादा नुकसान गरीब और शोषित वर्ग का हुआ. पर इसी के साथ राजनीती में दलित और वंचित वर्ग ने अपनी घुसपैठ भी बनाई. इनकी राजनीती और निर्णय में बहाली भी इसी दौर की उपज है.

उत्तर सदी की कहानी

सबसे महत्वपूर्ण उत्तर सदी की कहानी की यह थी कि इस समय में हिन्दी की चार पीढियां बराबरी से सक्रीय थी, बहुत प्रतिबद्धता से चार पीढ़ियों का एक साथ सामान रूप से सक्रिय रहना हमें निकट इतिहास में कही देखने को नहीं मिलता, यहाँ तक कि क्षेत्रिय भाषाओं में ऐसा बिरला उदाहरण देखने को नहीं मिलता. निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती, कृष्ण बलदेव वैद, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश से लेकर संजीव, राजेन्द्र दानी, उदय प्रकाश प्रकाशकांत, हरी भटनागर, संजीव ठाकुर, भालचंद्र जोशी आदि जैसे लेखक बेहद सक्रीय होकर कहानी लिख रहे थे. इन्ही के साथ साथ साठोत्तरी पीढी के सक्रीय दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह रविन्द्र कालिया जैसे कहानीकार भी सक्रीय थे. जीतेन्द्र भाटिया, रमेश उपाध्याय, मृणाल पांडे, गोविन्द मिश्र, स्वयंप्रकाश, सत्येन कुमार, पंकज बिष्ट, मन्नू भंडारी, रमाकांत श्रीवास्तव यानी प्रतिबद्ध और गैर प्रतिबद्ध दोनों प्रकार के साहित्यकार थे.

इस चार पीढी की सघन और रचनात्मक यात्रा में कहानी कई तरह के धरातलों पर चल रही थी जहां एक ओर राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश और भीष्म साहनी, ज्ञानरंजन कहानी को अपने तई परिभाषित कर रहे थे, नई कहानी की संरचना पर बात हो रही थी वही कहानी के मूल स्वर में महास्वप्न भंग की आहट हिन्दी में भी बनी हुई थी, नईदुनिया के स्वप्न भंग होने की बात कहानी ने भारत की आजादी के दो दशकों में ही भांप ली थी और इसी तर्ज पर एक भयावह  दुनिया का मंजर कहानी में सामने आने लगा था. उद्योगिकीकरण और तेजी से बढ़ाते जा रहे शहरीकरण के कारण परिवारों का विघतन हो रहा था और इसे उभारने में कई कहानीकार सफल रहे जिन्होंने महानगरीय पीड़ा को देखा, शहरीकरण और खत्म होते गाँव, वहाँ की संस्कृति पर शहरी आक्रमण का प्रभाव देखा तो उन्होंने कहानी में भी व्यक्त किया और जो फिल्मों में स्क्रिप्ट लेखन के लिए बंबई की ओर निकल गए वहाँ उन्होंने रुपहले परदे पर भी इस पीड़ा को व्यक्त किया. इस पूरी कहानी के मूल स्वरों में दलित और स्त्री विमर्श मुख्य रूप से दो विमर्शों की तरह से उभरकर आये जिसने कहानी की संवेदना को प्रभावित किया. तुलसीराम, ओम प्रकाश वाल्मिकी, अजय नावरिया आदि जैसे कहानीकारों ने अपनी कहानियों के माध्यम से दलित चेतना को सामने रखा, वही रमणिका गुप्ता, पुष्पा मैत्रेयी, लवलीन, जया जादवानी, प्रभा खेतान, मनीषा कुलश्रेष्ठ जैसी महिला कहानीकारों ने महिला चेतना और विमर्श की बात हिन्दी कहानी में रखी. इस स्त्री विमर्श ने हिन्दी कहानी में स्त्री संबंधों की पड़ताल की, स्त्री स्वातंत्र्य की नए सिरे से व्याख्या की, सीमोन द बाउवा को एक बार फिर से व्याख्यित किया, खारिज किया और फिर  स्वीकार भी किया. इसी समय में इन कहानीकारों ने उदारवाद से आ रहे परिवर्तन की पड़ताल की, इस सन्दर्भ में स्वयंप्रकाश की कहानी मंजू फ़ालतूकहानी का उल्लेख आवश्यक है, साम्प्रदायिकता पर लेखन बहुतेरे लेखकों ने किया अजगर वजाहत से प्रकाशकांत तक परन्तु इस मुद्दे पर अखिलेश की कहानी अगला अन्धेराइतिहास में उल्लेखनीय है. जहाँ और अंत में प्रार्थनाजैसी कहानी लिखकर उदय प्रकाश ने समाज, सत्ता, परिवर्तन और संवेदना को एक नया अर्थ दिया, वही प्रियंवद ने बूढ़े का उत्सव या खरगोश जैसी कहानिया दी जो संवेदना के स्तर पर एक अलग तरह की कहानियाँ थी.

हिन्दी कहानी में जमीनी आन्दोलनों से उभरे मुद्दों ने कहानी को प्रभावित किया. वीरेन्द्र जैन के उपन्यास डूब ने विस्थापन जैसे मुद्दे को उभारा वही दर्जनों कहानियों ने भारत में फैलते बेरोजगारी के मुद्दे को एक चिंतन के रूप में उभारा जिसने एक बड़े युवा वर्ग को प्रभावित भी किया और साहित्य से जोड़ा भी. बढ़ता तथाकथित मध्यमवर्गीय समाज का इस दौर में बढ़ना भी एक संकेत है जो अपनी महत्वकांक्षाएं बढाता जा रहा है क्योकि उसे लगता है कि यही शार्ट कट सही है बदलाव का - जहां उसे ना लम्बी कतार में लगना है, ना इंतज़ार करना है किसी बात का जेब में रुपया है तो वह दुनिया की हर सुविधा भोग सकता है, खरीद सकता है और उसके लिए संसार में हर चीज बिकाऊ है यहाँ तक कि साहित्य की मूल संवेदनाएं भी वह खरीद सकता है.  चकाचौंध की दुनिया से प्रभावित मध्यमवर्ग हमारे सामने है और अब वह सवाल नहीं खोजना चाहता, वह सिर्फ विन विन के सिद्धांत पर जीना चाहता है और बाजार के ट्रेप में. किश्तों के जाल से दुनिया की हर सुविधा को वह अपने लिए हर कीमत पर हासिल करना चाहता है.

संवेदना

उत्तर सदी की हिन्दी कहानी में संवेदना दो स्तर पर मै देखता हूँ, एक नागर संवेदना और दूसरी ग्रामीण संवेदना. नागर संवेदना ने जहां बेरोजगारी, शहरीकरण, एकाकीपन त्रासदी, लगातार प्रेम से उभरी और खत्म हुई त्रासदियों को उभारा वही इस कहानी के खिवैया बने जया जादवानी, एस आर हरनोट, निर्मल वर्मा जैसे लेखक. उदय प्रकाश की कहानी पाल गोमरा का स्कूटर या मोहनदास इस पूरी पीड़ा को व्यक्त करती कहानियां है. वही ग्रामीण संवेदना ने गाँव की मूल समस्याएं अर्ध और पूर्ण बेरोजगारी, विस्थापन, गाँवों का खत्म होना, जमीन का बिक जाना और खेती की जमीन पर कल कारखानों का उग आना जैसे मुद्दे उभारें. संजीव ठाकुर की कहानी झौआ बेहारइस ग्रामीण संवेदना को व्यक्त करती कहानी है जहां एक युवा शाहर में आकर किस तरह से खो जाता है. ग्रामीण संवेदना की कहानी को स्वर दिया पुन्नी सिंह, संजीव, महेश कटारे, कुंदन सिंह परिहार, प्रकाशकांत, अखिलेश आदि जैसे लेखकों ने. इसी के साथ कहानी में नई आयी संवेदना में आदिवासी समाज की चिंताएं भी उभरी - खासकरके युद्धरत आदमीजैसी इस संवेदना को प्रतिनिधत्व देने वाली पत्रिकाएँ महत्वपूर्ण है. हंस, वागर्थ, आजकल, पश्यंती, सारिका, गंगा, समकालीन जनमत, आदि पत्रिकाओं ने आमजन पर केन्द्रित अंक निकालें. नए समाज का स्वप्न ध्वस्त हो रहा था, टूटने से जो लम्बी परछाईयाँ समाज में पड़ रही थी उसने कहानी को गंभीर किया. सुविधाएं बढ़ी जरुर है पर इसके मायने क्या है और क्या होंगे.

आज की कहानी में संवेदना के स्तर पर शहरी ग्रामीण दोनों समाजों को मूल चिंताओं को कह रही है. इसलिए उम्मीद की जाना चाहिए कि ये नया समाज रचेंगी और धैर्य से हमे सब कुछ एक दस्तावेज की तरह से  पढ़ना होगा.


संदीप नाईक - (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आयोजित "डा जी डी बेन्डाले महिला महाविद्यालय, जलगांव, महाराष्ट्र"में दिनांक 22 और 23 सितम्बर 15 को आयोजित की गयी राष्ट्रीय संगोष्ठी में पढ़ा गया एक सत्र के आधार वक्तव्य के रूप में आलेख)
*** 

संदीप नाईक, सी-55, कालानी बाग़, देवास, मप्र, 455001, मोबाईल +91-9425919221



लाल्टू की नई कविताएं

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मुझे कुछ ही देर पहले ये कविताएं मिली हैं और मैंइन्हें एक सांस में पढ़ गया हूं। आज और अभी के हिंसक प्रसंगों के बीच कविता के पास प्रतिरोध एक सहेजने लायक पूंजी है। लाल्टू की कविताओं की ये भीतरी आग और उसके रिसाव बंजर पठारों पर बहती मैग्मा की धाराओं सरीखे हैं, जो जलाती तो हैं पर पीछे उर्वर धरा छोड़ जाती हैं। 

अब हर कोई अखलाक है
हर कोई कलबुर्गी
हर कोई अंकारा में है
हर कोई दादरी में है
हर प्राण फिलस्तीन है


इन कविताओं के लिए शुक्रिया मेरे प्रिय कवि। 
 
देखो, हर ओर उल्लास है

1
पत्ता पत्ते से
फूल फूल से
क्या कह रहा है

मैं तुम्हारी और तुम मेरी आँखों में
क्या देख रहे हैं

जो मारे गए
क्या वे चुप हो गए हैं?

नहीं, वे हमारी आँखों से देख रहे हैं
पत्तों फूलों में गा रहे हैं
देखो, हर ओर उल्लास है।

2

बच्चा क्या सोचता है
क्या कहता है
देखता है प्राण बहा जाता सृष्टि में

चींटी से, केंचुए से बातें करता है
उँगली पर कीट को बैठाकर नाचता है कि
कायनात में कितने रंग हैं
यह कौन हमारे अंदर के बच्चे का गला घोंट रहा है
पत्ता पत्ते से
फूल फूल से पूछता है
मैं और तुम भींच लेते हैं एक दूजे की हथेलियाँ

जो मारे गए
क्या वे चुप हो गए हैं?

नहीं, वे हमारी आँखों से देख रहे हैं
पत्तों फूलों में गा रहे हैं
देखो, हर ओर उल्लास है।

3

लोग हँस खेल रहे हैं
ऐसा कभी पहले हुआ था

बहुत देर लगी जानने में कि एक मुल्क कैदखाने में तब्दील हो गया है
धरती पर बहुत सारे लोग इस तकलीफ में हैं
कि कैसे वे उन यादों की कैद से छूट सकें
जिनमें उनके पुरखों ने हँसते खेलते एक मुल्क को कैदखाना बना दिया था

इसलिए ऐ शरीफ लोगो, देखो
हमारी हथेलियाँ उठ रहीं हैं साथ-साथ
मनों में उमंग है
अब हर कोई अखलाक है
हर कोई कलबुर्गी
हर कोई अंकारा में है
हर कोई दादरी में है
हर प्राण फिलस्तीन है

हमारी मुट्ठियाँ तन रही हैं साथ-साथ
देखो, हर ओर उल्लास है।

4

हवा बहती है, मुल्क की धमनियों को छूती हवा बहती है
खेतों मैदानों पर हवा बहती है
लोग हवा की साँय-साँय सुनने को बेताब कान खड़े किए हैं
हवा बहती है, पहाड़ों, नदियों पर हवा बहती है
किसको यह गुमान कि वह हवा पर सवार
वह नहीं जानता कि हवा ढोती है प्यार

उसे पछाड़ती बह जाएगी
यह हवा की फितरत है

सदियों से हवा ने हमारा प्यार ढोया है

जो मारे गए
क्या वे चुप हो गए हैं?

नहीं, वे हमारी आँखों से देख रहे हैं
पत्तों फूलों में गा रहे हैं
देखो, हर ओर उल्लास है।
*** 
 
बुद्ध को क्या पता था

1

("कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती”)

बहते हैं और नहीं बहते हैं
कि कोई आकर थाम ले इन आँसुओं को
रोना नहीं है रोना नहीं है कह ले

कहीं तो जाने का मन करता है
कहाँ जाऊँ

महानगर में सड़क किनारे बैठा हूँ
देखता हूँ एक ऊँट है चल रहा धीरे-धीरे
उसकी कूबड़ के साथ बिछावन के रंगों को देखता हूँ
उस पर बैठे लड़के को देखता हूँ

है, उम्मीद है, अंजाने ही उसे कहता हूँ
कि सारे तारे आस्मां से गायब नहीं होंगे
अँधेरे को चीरता टिमटिमाएगा आखिरी नक्षत्र
रचता रहेगा कविता गीत गाता रहेगा

उठता हूँ
कोई पूछता है
कि कब तक उम्मीदों का भार सँभालोगे
फिलहाल इतना ही निजी इतना ही राजनैतिक
चलता हूँ राजपथ पर।

सोचते रहो कि एक दिन सब चाहतें खत्म हो जाएँगीं
नहीं होंगी
ऐसे ही तड़पते रहोगे हमेशा
दूर से वायलिन की आवाज़ आएगी
पलकें उठकर फिर नीचे आ जाएँगीं
कोई नहीं होगा उस दिशा में
जहाँ कोई तड़प बुलाती सी लगती है

देह खत्म भी हो जाे
तो क्या
हवा बहेगी तो उड़ेगी खाक जिसमें तुम रहोगे
हवा की साँय-साँय से दरों-दीवारों की खरोंचों में
तुम जिओगे ऐसे ही रोते हुए
बुद्ध को क्या पता था कि खत्म होने के बाद क्या होता है
तुम जानोगे
जब रोओगे उन सबके लिए
जिन्हें भरपूर प्यार नहीं कर पाए।

2

मारते रहो मुझे बार बार
मैं और नहीं कहूँगा तुम्हारे बारे में
मुझे कहना है अपने बारे में
मैं प्यार में डूबा हूँ
अपने अवसाद अपने उल्लास में डूबा हूँ

मार दो मुझे कि मैं तुम्हारे खिलाफ कभी न कह सकूँ
सिर्फ इस वजह से मैं रोऊँगा नहीं
नहीं गरजूँगा
नहीं तड़पूँगा
रोने को मुहब्बत हैं कम नहीं ज़माने में
ग़मों के लिए मैं नहीं रोऊँगा।
*** 
 
डर

मैं सोच रहा था कि उमस बढ़ रही है
उसने कहा कि आपको डर नहीं लगता
मैंने कहा कि लगता है
उसने सोचा कि जवाब पूरा नहीं था
तो मैंने पूछा - तो।
बढ़ती उमस में सिर भारी हो रहा था
उसने विस्तार से बात की -
नहीं, जैसे खबर बढ़ी आती है कि
लोग मारे जाएँगे।
मैंने कहा - हाँ।
मैं उमस के मुखातिब था
यह तो मैं तब समझा जब उसने निकाला खंजर
कि वह मुझसे सवाल कर रहा था।
*** 
 
वे सुंदर लोग

आज जुलूस में, कल घर से, हर कहीं से
कौन पकड़ा जाता है, कौन छूट जाता है
क्या फ़र्क पड़ता है
मिट्टी से आया मिट्टी में जाएगा
यह सब किस्मत की बात है
इंसान गाय-बकरी खा सकता है तो
इंसान इंसान को क्यों नहीं मार सकता है?

वे सचमुच हकीकी इश्क में हैं
तय करते हैं कि आदमी मारा जाएगा
शालीनता से काम निपटाते हैं
कोई आदेश देता है, कोई इंतज़ाम करता है
और कोई जल्लाद कहलाता है

उन्हें कभी कोई शक नहीं होता
यह खुदा का करम यह जिम्मेदारी
उनकी फितरत है

हम ग़म ग़लत करते हैं
वे
पीते होंगे तो बच्चों के सामने नहीं
अक्सर शाकाहारी होते हैं
बीवी से बातें करते वक्त उसकी ओर ताकते नहीं हैं
वे सुंदर लोग हैं।

हमलोग उन्हें समझ नहीं आते
कभी कभी झल्लाते हैं
उनकी आँखों में अधिकतर दया का भाव होता है
अपनी ताकत का अहसास होता है उन्हें हर वक्त

हम अचरज में होते हैं कि
सचमुच खर्राटों वाली भरपूर नींद में वे सोते हैं।
वे सुंदर लोग।

झुंडीने लोक जमले तेव्हा तू कुठे होतास?/झुंड में जब लोग जमा हुए तब तुम कहाँ थे - कविता महाजन : अनुवाद - प्रज्ञा जोशी

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यह महत्वपूर्ण कविता हमें प्रज्ञा जोशी और हिमांशु पांड्या ने उपलब्ध कराई है। अभी जिन दिनों के बीच हमारा जीवन है कराहता हुआ, उन्हीं दिनों में, उन्हीं दिनों को कहती यह कविता भी है। अनुनाद कविता महाजन और प्रज्ञा जोशी को शुक्रिया कहता है।
***
 
झुंड में जब लोग जमा हुए तब तुम कहाँ थे?




झुंड में जब लोग जमा हुए तब तुम कहाँ थे?
झुंड में से एक थे
सुन्न हुए मस्तिष्क की भेड़ थे जिसे केवल
कान होते हैं आज्ञा सुनने वाले
मुंडी होती है हिलने डुलने वाली
पीछे पीछे दौड़ने वाले पाँव और शस्त्र के लिए आतुर हाथ

या तुम
थे झुंड के हाथों की ईंट सिर कुचलने वाली
या थे लोहे का सरिया?
स्थिर तीक्ष्ण चमकता धारदार हथियार
एक ही घाव में आरपार जाने वाला
अंधा छुरा ?

शिकार थे क्या तुम सहमे से
डर के मारे तुम्हें याद नहीं आ रहा था कि क्या खाया था तुमने कल
या परसों तरसों और क्या खाते थे तुम्हारे
बाप दादा पडदादा सगडदादा नगडदादा
क्या खाते थे मूलपुरुष तुम्हारे और तुम्हारे ख़ानदान के
कितनी पीढ़ियों की उलटी हुई तुम्हें ख़ून की
और घुस पाए नहीं फिर से बाप की छाया में
माँ की कोख में भी छुप नहीं पाते फिर से
और गर छुपना संभव भी हो जाता तो ढूँढ निकालते तलवारें घोप कर
और फिर भ्रूण को नचाते ये लोग धारदार नोंक पर

तुम शिकार को जन्म देने वालों में से थे?
या उसके सगेसंबंधियों में से कोई?
जो आयँबायँ भटकते रहे वहीं के वहीं
आक्रोश से फट गए उनके गले हमेशा के लिए
ये देखने से तो आँखें फूट जाती ऐसा लगा
और इन हाथों का क्या करें समझ ही नहीं आ रहा था उन्हे
बाद में जब खूनमांस का कीचड़ टटोल रहे थे

तुम तमाशबीनों की आँखों में से एक आँख थे शायद
या होंठों को सीने वाला धागा थे
या फिर जिन्होंने जल्दबाज़ी में हाथ छुपा कर रखे
 निकालकर ले जा कर घर की तिजोरी में
और बन गए लूले बड़ी सुविधा से
उनकी कायरता का सबूत थे शायद
ठंडा कर जीमने के आदेश की पालना में और तब
जोड़ लेंगे हाथ निकाल कर व ढूँगे धोने के लिए भी
कहते हुए देखकर अनदेखी सी करते हुए लौटने वाले

या फिर फ़ेसबुक पर दोस्त के दादाजी के
एक सौ दसवीं वर्षगाँठ की फ़ोटो को लाईक करते
हुए होनेवाले थे खिड़की की ओर पीठ घुमाकर
या फिर हेडलाइन से ही कसमसाते
क्षणभर में चैनल बदलकर धारावाहिक लगाने वाले
या फिर मुझ में घुस कर कविता लिखने वाले केवल

कहाँ थे तुम?

कि तुम काल्पनिक गाय थे दादरी की
जिसे मारकर खाया था मोहम्मद अख़लाक़ ने कल्पना में ही?
***

मूल मराठी कविता

झुंडीने लोक जमले तेव्हा तू कुठे होतास?

झुंडीने लोक जमले तेव्हा तू कुठे होतास?
झुंडीतला एक होतास

बधीरल्या मेंदूचं मेंढरू ज्याला केवळ
कान असतात आज्ञा ऐकणारे
मान असते डोलणारी
मागे मागे धावत जाणारे पाय आणि उत्सुक हात शस्त्रासाठी

की तू
झुंडीतल्यांच्या हातातली वीट होतास डोकं ठेचणारी
 वा लोखंडी सळया होतास?
स्थिर तीक्ष्ण चकाकतं धारदार हत्यार
एकच वार आरपार करणारा सुरा आंधळा?

सावज होतास का तू भेदरलेलं
घाबरल्याने तुला आठवत नव्हतं की काय खाल्लंस तू काल
किंवा परवा तेरवा आणि काय खात होते तुझे
वडील आजोबा पणजोबा खापर पणजोबा
काय खात होते मूळपुरुष तुझ्या आणि त्यांच्या घराण्यांमधले
किती पिढ्यांची उलटी झाली तुला रक्ताची
आणि शिरता आलं नाही पुन्हा बापाच्या सावलीत
आईच्या गर्भाशयातही लपता येत नसतं पुन्हा
आणि लपता आलं तरी शोधून तलवारी खुपसून
गर्भगोळा नाचवतील हे लोक धारदार टोकावर

की सावजाला जन्म देणाऱ्यांपैकी होतास?
वा त्यांच्या गोतावळ्यातला कुणी?
जे सैरावैरा धावत राहिले तिथल्या तिथंच
आक्रोशानं फुटले त्यांचे घसे कायमचे
हे पाहण्यापेक्षा डोळे नकोत असं वाटलं
आणि हातांचं काय करावं हे काही कळतच नव्हतं त्यांना
मागाहून रक्तामांसाचा चिखल चाचपडताना

तू बघ्यांच्या डोळ्यांमधला एक डोळा होतास बहुतेक
किंवा ओठांना टाके घालणारा धागा होतास
किंवा ज्यांनी घाईघाईनं हात लपवून ठेवले काढून नेऊन
घरातल्या तिजोरीत आणि थोटे बनले सोयीस्कर
त्यांच्या भेकडपणाचा दाखला होतास बहुतेक
निवल्यावर जेवू आदेशाला अनुसरून आणि तेव्हा
हात जोडून घेऊ काढून व परत ढुंगण धुवायलाही
म्हणत पाहून न पाहिल्यासारखं करत परतणारा

किंवा तू फेसबुकवर मित्राच्या आजोबांच्या
एकशे दहाव्या वाढदिवसाच्या फोटोला लाईक करत
असणारा होतास खिडकीकडे पाठ फिरवून
किंवा हेडलाईनने हळहळून क्षणभर च्यानल बदलून मालिका
लावणारा किंवा माझ्यात शिरून कविता लिहिणारा नुसती

कुठे होतास तू?

की तू काल्पनिक गाय होतास दादरीतली
जिला मारून खाल्लं मोहम्मद अख़लाक़नं कल्पनेतच?

***

रेयाज़ उल हक़ की कविताएं / जलसा-4

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उधार के लोहे और उधार की धार वाली कविताओं के प्रतिरोध शुरू हो ये कविताएं देश और राजनीति में चल रहे दुश्चक्रों के कई नक़ूश दिखाती हैं। इनका प्रथम प्रकाशन जलसा के हाल में चौथे अंक में हुआ है। कवि ने इन्हें अनुनाद के लिए उपलब्ध कराया है। 

 
पटना में कविता
1.
तानाशाह हत्याओं के हुक्म दे रहा है
कवि के सीने पर दिपदिपा
रहा है पदक
और इस बीच
कविता लिखी
और मारी जा रही है
कहीं और

2.
कहीं और
लोहा निकालनेवाले
और धार चढ़ाने वाले
झुग्गियों और राहत शिविरों में
मलबे की जिंदगी जी रहे हैं

और यहां सफल हो रहा है
दूसरों का लोहा और दूसरों की धार को
अपना हथियार बतानेवाला कवि.

3.
कवि की जनेऊ से बंधी गाय
प्रगतिशीलता का चारा चरती है
और सरोकारों का गोबर करती है

इस बीच
घास काटनेवालों
और फसल उगाने वालों की कविता
लिखी और मारी जा रही है
कहीं और.
***

चंदा उगाही

मुल्क छूट जाता है
याद नहीं रहती वह ज़ुबान
भूल जाते हैं उस धरती का नक़्शा

याद रहता है हिंदू होना
याद रह जाती है नफ़रत
याद रह जाता है कि कोई मुसलमान है
उसका हिकारत के काबिल
चेहरा याद रह जाता है.
***

हाशिमपुरा

वे दीवारें कहीं नहीं है
जिनमें लगी चौखटों से वे आख़िरी बार निकाले गए थे
धकेल कर

वे इंसान कभी पैदा नहीं हुए
हाशिमपुरा में
जो मारे गए
या बच गए मारे जाने के लिए
अगली खेप में
हाशिमपुरा जैसी कोई जगह
अभी तक नहीं बसी है

वह नहर भी एक सनक भरी क़िस्सागोई का
एक आख़िरी ब्योरा है

वह शाम कभी हुई ही नहीं
जिसमें धुआं उड़ाता एक पीला ट्रक
कुछ बेहतरीन ज़िंदगियों की आख़िरी गुंजाइशें लिए
रवाना हुआ था
इस दुनिया में कभी नहीं बना
एक भी पीला ट्रक

कुछ भी नहीं है यहां
सिर्फ एक मुल्क है
एक नामौजूद गलाज़त
और ख़ून में डूबा हुआ

कभी इस्तेमाल में नहीं लाए गए
ख़ंज़र की तरह दमकता
मेरे सीने में पैबस्त
और तुम्हारे सीने में।
***

लक्ष्मणपुर बाथे

मिट्टी की दीवार पर
खड़िए से लिख गया है कोई

हम अज़दक को लाएंगे
और जन अदालत बैठाएंगे.
***



कृष्ण कल्पित की बारह कविताएं

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कवि कृष्ण कल्पित भारतनामाशीर्षक से कविता की एक सिरीज़ लिख रहे हैं। उनके जन्मदिन के अवसर पर बधाई देते हुए इसी सिरीज़ से बारह कविताएं। ये कविताएं उसी क्रम में नहीं हैं, जिसमें कवि द्वारा इन्हें प्रस्तुत किया गया है। वहां कविताओं की संख्या सौ पर पहुंचने को है, मैंने बारह का चयन किया है। 


1
कभी का धूल-धूसरित हो जाता यह देश
बिखर जाता

टुकड़ों-टुकड़ों में विभक्त हो जाता

लेकिन इस महादेश को
अभावों ने कसकर थाम रखा था


ग़रीबों की आहें
हमारी प्राण-वायु थी !

***
2
खेत जोतने वाले मज़दूर
लोहा गलाने वाले लुहार
बढ़ई मिस्त्री इमारतसाज़
मिट्टी के बरतन बनाने वाले कुम्हार
रोज़ी-रोटी के लिये
पूरब से पश्चिम
उत्तर से दक्षिण

हर सम्भव दिशा में भटकते रहते थे

ये भूमिहीन लोग थे
सुई की नोक बराबर भी जिनके पास भूमि नहीं थी

बस-रेलगाड़ियाँ लदी रहती थीं
इन अभागे नागरिकों से


अब कहीं दूर-देश जाने की ज़रूरत नहीं थी
अपने ही देश में
निर्वासित थे करोड़ों लोग !

***
3
मैं बहुत सारी किताबों की
एक किताब बनाता हूँ


मैं कवि नहीं
जिल्दसाज हूँ

जो बिखरी हुई किताबों को बांधता है

किताबें जलाने वाले इस महादेश में
मैं किताब बचाने का काम करता हूँ !

***
4
वरमद्य कपोत: श्वो मयूरात् !
( आज प्राप्त कबूतर कल मिलने वाले मयूर से अच्छा है ! )


वरं सांशयिकान्निष्कादसांशयिक: कार्षापण:
इति लौकायतिका: !
( जिस सोने के मिलने में सन्देह हो उससे वह ताम्बे का सिक्का अच्छा जो असन्दिग्ध रूप से मिल रहा हो । यह लौकायतिकों का मत था ! )


अलौकिक लोगों के अलावा इस देश में
लौकिक लोग भी रहते थे


***  
5
ख़ामोश हो गया हूँ
अपने ही देश में


जब-जब खोलता हूँ ज़बान
बढ़ती जाती है दुश्मनों की कतार


कहाँ से लाऊँ प्रेम की बानी
अपनी आत्मा के दाग़ लेकर
किस घाट पर पर जाऊँ
किस धोबी किस रजक के पास


मेरी चादर मैली होती जाती है !
***
6
किसी ने मेरे भारत को देखा है
किसी ने


एक फटेहाल स्त्री
इस महादेश के फुटपाथों पर भटकती थी
अपने भारत को खोजती हुई


जैसे अपने खोये हुये पुत्र को !
***
7
आज भारतवंशी करोड़ों जिप्सी
यूरोप से लेकर सारी दुनिया में भटकते हैं

उनके क़ाफ़िले बढ़ते ही जाते हैं

एक पढ़-लिख गये जिप्सी ने
बड़ी वेदना से 1967 में अपने देश को याद करते हुये अपनी डायरी में यह दर्ज़ किया :
हम अपने छूटे हुये देश को कितना याद करते हैं लेकिन लगता है हमारा देश हमें भूल गया है । कितनी हसरत से मैं जवाहरलाल नेहरू लिखित 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया'ख़रीद कर लाया लेकिन उसमें हमारे बारे में, अपने विस्मृत बंधुओं के लिये, एक शब्द भी नहीं है


ओ बंजारो
ओ जिप्सियो
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ मेरे बिछुड़े हुये भाइयो


इस महादेश का एक कवि
अश्रुपूरित नेत्रों से तुमको याद करता है !

***
8
इब्न बतूता मोराको से हिंदुस्तान आया था
 

उसने अपने प्रसिद्ध यात्रा-वृत्तांत में
अपने ख़ैर-ख़्वाह मुहम्मद तुग़लक़ के बारे में लिखा है :
शायद ही कोई दिन जाता हो कि
बादशाह किसी भिखमंगे को धनाढ्य न बनाता हो
और किसी मनुष्य का वध न करता हो


प्रसिद्ध दानवीरों ने अपनी समस्त आयु में
इतना दान नहीं किया होगा
जितना तुग़लक़ एक दिन में करता था

ऐसा न्यायप्रिय और आदर-सत्कार करने वाला
कोई दूसरा मुहम्मद तुग़लक़ की बराबरी नहीं कर सकता

कोई सप्ताह भी ऐसा नहीं बीतता था जब यह सम्राट ईश्वर-भक्तों माननीयों धर्मात्मा सैयदों वेदान्तियों साधुओं और कवियों-लेखकों को न बुलवाता हो
और उनका वध करके
रुधिर की नदियाँ न बहाता हो


विद्वानों कवियों लेखकों विचारकों को
मुहम्मद तुग़लक़ ईनाम देकर मार देता था
या तेग़ से उनका सर काट देता था


मुहम्मद तुग़लक़ उनको दोनों तरह से मार देता था !
***
9
इस देश के बंजारे
जिप्सियों का भेस धरकर
पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं


सिकंदर लोदी के समय
जिन्हें खदेड़ा गया था अपने देश के बाहर

कल के बंजारे
आज के जिप्सी
 

उतने ही चंचल मदमस्त
गीत गाते हुये परिव्राजक

उनकी दृढ मान्यता है कि
अंतिम जिप्सी व्यक्ति
पाश्चात्य दुनिया के बिखरे हुये खंडहरों से
अपना रास्ता खोजते हुये
अपने खोये हुये देश भारत लौटेगा


यह महादेश
निर्वासित बंजारों का गंतव्य है !

***
10
शताब्दियों बाद आज भी
वह पुष्करणी प्रवाहित है
जिसमें कभी वैशाली की नगरवधू
अपने चरण पखारती थी


खरौना पोखर की निर्मल जल-धारा में
आज भी आम्रपाली की
देह-गंध बसी हुई है


वह अपार-सौंदर्य
बुद्ध की अपार-करुणा के सिवा कहाँ समाता


और काल की क्रूर सड़क पर
साइकिल का चक्का दौड़ाता हुआ
वह नंग-धड़ंग बच्चा !

***
11
इस देश का समस्त प्राच्य-साहित्य
उत्कृष्ट श्रेणी की मेधा
और उत्कृष्ट श्रेणी की ठगी के मिश्रण से बना

बेसुध कर देने वाला आसव है

यह कोई कम करामात नहीं कि
शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ-याग को
कितनी कुशलता से रंग-राग में बदल दिया गया है :
हे गौतम स्त्री अग्नि है उसकी इन्द्रियाँ समिधा है लोम धुंआ है योनि लौ है सहवास अंगारा है और आनन्द चिंगारियाँ हैं
इस अग्नि में देव वीर्य आहुति से पुरुष उत्पन्न होता है जब तक आयु है जीता है
मरने पर उसको अग्नि तक ले जाते हैं


इस महादेश में कामक्रीड़ा भी एक तरह का यज्ञ थी
और यज्ञ भी एक तरह की कामक्रीड़ा !

***
12
कितने रजवाड़े मिट गये
कितने साम्राज्य ढ़ह गये
कितने राजप्रासाद ढ़ेर हो गये

कितने राजा बादशाह सामन्त सुलतान शहंशाह वज़ीरे-आज़म और राष्ट्राध्यक्ष
इस महादेश की मिट्टी में मिल गये


फिर आता है कोई नया तानाशाह
सत्ता-मद में चूर
लोकतंत्र का नगाड़ा बजाता
भड़कीले वस्त्रों में भड़कीली भाषा बोलता हुआ

जिसे देखकर डर लगता है
कलेजा कांप जाता है
उसका भयानक हश्र देखकर


किसी से भी पूछकर देखो
इस देश की गली-गली में भविष्य-वक्ता पाये जाते हैं !

***

उनका मरना लाज़िम था-अशोक कुमार पांडेय की कविता

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कराहते हुए वक़्तों में, बेइंतेहा ज़ुल्मतों में, जब आंखों में पानी और आग एक साथ भरे हों, कविता की राह और कठिन हो जाती है। हमारे बीच लोग क़त्ल हो रहे हैं, वे लोग, जो मनुष्यता को अपना साध्य माने थे। जाहिर है कि मनुष्यता बचे, यह अपने आपमें एक विचार है। लेखक , विचारक और अंधविश्वासों के विरुद्ध  मानवीय उजाले की शिनाख़्त कराने वालों के साथ-साथ धर्म और जाति के नाम पर आमजनों के क़त्ल हो रहे हैं। ये पानी के बीच आग उठने के दिन हैं, जैसे हमारी आंखें हैं इन दिनों, जैसे हमारे दिल। अशोक की ये कविता इसी तरह की कविता है। राह कठिन की कविता।


उनका मरना लाज़िम था
(पानसरे,काल्बर्गी,दाभोलकर और तमाम बेनाम योद्धाओं के लिए)
·        
(एक)


जहाँ श्रद्धांजलि लिखा होना था वहाँ शुभकामना लिखा था
माफ़ हुई यह ग़लती उदारताओं के हाथ


उदारताएं
          गाय जितनी दुधारू
          गाय जितनी पवित्र
          गाय जितनी निरीह


और बेमानी था मक़तूल का होना
शहर में अदीब जैसे धूल भरी लाइब्रेरी में किताब
जैसे सुबह तक जलता रह गया दिया
आदमी की सोच जैसे जहाज में बम
न रहे तो बेहतर रहे तो बस कम कम


वह चमचमाता हुआ वक़्त था चाकू के फाल की तरह
गोली की गति से भागता हुआ
शोर और सूचनाओं से भरा वक़्त
जिसमें खलल डालती आवाज़ों के लिए कोई जगह नहीं थी
होशमंदों का वक़्त था जहां नशे में टूटती आवाज़ कुफ्र थी
सीने से बहते लहू सा बह रहा था वक़्त और मक़तूल रूई सा राह में बज़िद


ज़िद की कोई जगह नहीं थी वज़ह नहीं थी
ज़िद की कोई सुनवाई कोई ज़िरह नहीं थी
ज़िद का तो ख़ामोश किया जाना लाज़िम था
सच बस वह था जो एलान-ए-हाकिम था


(दो)


जब सबके हाथों में मोबाइल था
वे क़लम लिए गुज़रे बाज़ार से
          यह ज़ुर्म नहीं इकबाल-ए-ज़ुर्म था


इश्तेहार से सजी दीवारों पर
भूख लिखा बदलाव लिखा
खुशबूदार राख में दबी किताबें पलटीं
हाकिम के दरबार में गए सर उठाये
और लौट आये पीठ दिखाते


बलात्कार की महफ़िल में प्यार किया
लहू खेलते लोगों के सूखे चेहरे पर
रंग शर्म का जाने कबसे फेंक रहे थे
अँधेरे वक़्तों में जाने कैसे क्या क्या देख रहे थे।


चुप्पी के सुरमई बसंत में नीले हर्फ़ों में बोल रहे थे
चार सिम्त बाज़ारू पर्दे धीमे धीमे खोल रहे थे


                   जो जैसा था वैसा रखने को
                   उनका मरना लाज़िम था



(तीन)


एक उदास इतिहास था उनकी कब्रगाहों में फूल सा बिछा हुआ
बेचैन भविष्य धुएँ से बनती तस्वीरों सा क्षणभंगुर
और उनके बीच वर्तमान शोकग्रस्त भीड़ सा कसमसाता


                                      वे हारे नहीं मारे गए थे
नायक नहीं थे वे पुत्र थे, पति थे, पिता थे जैसे हम होते हैं
जर्जर कायाओं के भीतर आज़ाद तबीयत और भय भी तमाम
चलते हुए थके भी वे कई बार रुके गिरे संभले और चलते रहे
मार दिए जाने के ठीक पहले तक


अनलहक कहा और मारे गए
कोपरनिकस के वंशज थे और मारे गए
चार्वाकों की राह चले और मारे गए
नहीं बना सके ज़िन्दगी को बनिए की दूकान और मारे गए
प्यार किया बेहिसाब और वे मारे गए


          मरकर भी पर दीवाने कब मरते हैं?
          मरने से पहले पर वे कितने जीवन छोड़ गए थे
          रक्तबीज थे
          सौ सौ आँखों में अपने सपने बीज गए थे.


          जिनको डरना था
          वे सब कैसे सीना ताने खड़े हुए हैं
          उसकी स्याही बिखर गयी है यहाँ वहाँ
          धीमी आवाज़ें उसकी हर सूं गूँज रही हैं
          धर्म ध्वजा के नीचे उनका लहू जमा है.

संपर्क :e-mail :  ashokk34@gmail.com
          मोबाइल : 8375072473

अंधेरी कविताएं - अशोक कुमार पांडेय

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यहां दी जा रही कविताओं को 'अंधेरी कविताएं'ख़ुद कवि ने कहा है। अंधेरेके बारे में गाया जाएगा का संकल्प धरे कवि का हक़ बनता है कि वह ऐसा कहे। तनाव, अवसाद और आक्रोश में अतिशय होते जाते बिम्ब ऊंचे सुरों को छू लेने का यत्न करते हैं। अंधेरे में टटोलते हाथ एक दिन आग के जलाने के स्त्रोत भी खोज ही निकालेंगे। अशोक को शुक्रिया कि उसने इधर दूसरी बार अपनी नई कविताएं अनुनाद को दी हैं।
*** 
तस्वीर:सीरिया के बेघर - अशोक की ही फेसबुक फोटो गैलरी से
 
जो है वह यही है

कुहरे में डूबी सड़क के उस पार नहीं है कोई पेड़
उस पेड़ पर कोई पत्ती नहीं उस पत्ती में क्लोरोफिल नहीं ज़रा सा भी
उसकी छत पर कोई सूरज नहीं, उस सूरज में एक भी किरण नहीं
उसकी कोख में कोई रौशनी नहीं, उस रौशनी में कोई दृश्य नहीं उस दृश्य में नहीं कोई और
ब्लैक होल है इस कुहराये क्षितिज के उस पार और इस पार मैं हूँ


थकन के पार कुछ नहीं पैरों के पास
बैठो तो यह भरोसा भी नहीं कि वह पत्थर की बेंच है या कोई मृग मरीचिका
आश्वस्ति भीग भीग जाती है थकन और आराम के बीच
एक आवाज़ कहती है लौट जाओ और रास्ते लील जाती है सारे
धीमी पुकार अट्टहास में बदलती हुई अट्टहास विलाप में टूटता
बढ़े हुए हाथ तैरते हैं हवा में मुस्कुराते हुए कहते हैं चयन है यह तुम्हारा
उम्मीदें रौशनी थीं चिता की अब यह जो राख है स्वप्नों की है इसे स्मृतियों की नदी में कर दो प्रवाहित
अस्थियाँ कविताओं सी रख लो अपने पास जब कम होगा दुःख तब रखेंगी ज़िंदा ये

कँटीली झाड़ियों के बीच जाने चल रहा हूँ कि लौट रहा हूँ
एक क्षण तनती हैं मुट्ठियाँ तो दूसरे क्षण चीख़ पड़ता हूँ
कोई काँटा है जाने कि किसी फूल के दबने की चीख़ जो मुझमें खो गई है
भयंकर शोर आवाज़ों की कोई रणभूमि हो जैसे और मैं ख़ामोशियों की तलाश में चलता हूँ मुसलसल
साँसे टूटती हैं, लय तो खैर बनी ही नहीं वर्षों से, हाथ झाड़ियों के बीच बनाते रास्ता टकराते कुहरे से और लौट आते अपनी जगह
ख़ाली है वह जगह और मुट्ठियाँ बाँध लेतीं ख़ालीपन को एक आवाज़ भरती जाती ख़ाली जगहों में
तुम उसे नारा कहते हो

धीरज के उस पार प्रतीक्षा है एक अधीर चलने के पहले कोई पता नहीं दिया तुमने ठहरने से पहले कोई आश्वासन नहीं प्रतीक्षा के पहाड़ के उस ओर कोई गाँव नहीं न इस ओर कोई छाँव. मैं वह नहीं जो चला था वह भी नहीं जिसने एन दुपहरी रुक कर देखा था क्षण भर सूरज को न वह जो राह पूछता आया झाड़ियों से. कोई और होगा वह जो शिखर से उतरते हुए अनुपस्थित गाँव की राह पूछेगा और कोई और होगा वह यह सुनने के बाद कि जो है बस यही है.
***


कितने क़दमों के बाद गलने लगेगी देह?

एक तारा टूटता है और घाव धरती की देह पर होता है पैबस्त
सपनों के टूटने के घाव अदेखे से बहते रहते हैं धमनियों में
उपेक्षाएँ हृदय के कहीं बहुत भीतर पलती रहतीं असाध्य विषाणुओं सी
जीवन किसी अंत की प्रतीक्षा के बिना भी बढ़ता रहता उस ओर

          आखिरी सिगरेट की आग पहुँच रही उँगलियों तक
          नींद की आखिरी संभावना दम तोड़ती एश ट्रे में
          डाक्टर की पर्ची सुलगती है धुएँ में बिखरती जाती उम्र
          यह चयन है मेरा
मेरे आखिरी बयान में कोई संज्ञा नहीं होगी
सर्वनाम भी नहीं.

भीड़ है न्यायालय में
न्यायधीश अभी अभी मंदिर चला गया है
ज़िरह जारी है पुरज़ोर
मुझे मारे जाने के अलग अलग वजूहात बताते वक़ीलों के मुंह से फेन आ रही है
उसमें ताज़े खून की बास है
मुझे तुम्हारे कम हीमोग्लोबीन की याद आती है
जोर से दबाकर देखता हूँ अपने नाखून अब भी गुलाबी हैं वे जरा जरा
भीड़ है बहुत और तमाम जाने पहचाने चेहरे
अख़बारों में किस्से गुनाहों के मेरे
और चैनलों पर बहस लाइव कि फाँसी बेहतर हो या उम्रक़ैद
मैं तुम्हारी आँखों में उन बहसों के कांटे उतरते देखता हूँ
किसी ने अभी अभी कहा है तुम्हें चाय बनाने को
एक तजवीज़ चाय में ज़हर देने की सुझाई गयी है
मैं सोचता हूँ कहीं उसमें दूध न डाल दें कमबख्त.

          बधाइयों की एक पूरी जमात उतर आई है आँगन में
          किसी ने कहा “तुम ही हो सकते थे यह, मैं सदा से जानता था”
          मुझे उसकी गालियाँ याद आईं
          एक ने कहा सदा से चाहता रहा हूँ तुम्हें बस कहा नहीं कि बिगड़ न जाओ
          मुझे उसके श्राप याद आये
          इतना प्रेम कि मुझे उपेक्षाओं की याद आने लगी है अब
          कहाँ हो तुम

पैरों में जूते नहीं ढंग के ठण्ड का कोई इंतजाम नहीं
और पहाड़ है कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता
साँसें पैरों से तेज़ चलती हुईं सूरज चाँद सा दिखता मुस्कुराता
न कहीं शिखर दीखता है कोई न लौटने की कोई राह
जितने क़दम चलो उतने क़दम दूर होता जाता सफ़र
कोई आवाज़ नहीं, कोई दृश्य नहीं जैसे धरती हो गयी हो अचानक तिरछी
और सारे दृश्य तलहटी में जा छिपे हों
तुम थक गयी होगी न
कब तक चलोगी आँखों के सहारे
एक छोटी सी गाय रास्ता दिखाती चलती जाती है निःशंक
शाम का इंतज़ार करें जब वह लौटेगी?
यह क्यूं कहा तुमने – कोई रास्ता नहीं लौटने का न कोई वज़ह चलने की
कितने क़दमों के बाद गलने लगेगी देह?

          नब्ज़ थामे मुस्कुराता है डाक्टर - तुम नहीं बदलोगे
          पूछता हूँ कितना है वक़्त तो हँसता है वह वक़्त नहीं आया अभी
          बीमारी न हुई गोया सपने हुए दीखते हैं पर आते नहीं कभी क़रीब
          अपने विराट एकान्तिक अंधकार में देखते हुए तुम्हें जैसे माचिस की लौ को
          एक शब्द आकर ठहरता है जबान पर फिर दांतों के बीच ठहर जाता है
          भूख कहता हूँ तो अंतड़ियों में उतर जाता है
प्यास कहने पर गले में रेंगता है आहिस्ता
चुप होता हूँ अंत में
तो आँखों में प्रतीक्षा बन कर ठहर जाता है.

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