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अमित श्रीवास्तव की दो कविताएं

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नाला झरना एक समान
उगना सड़ना एक समान
हंसना डरना एक समान
गण्डा चिमटा एक समान
जीना-मरना एक शब्द है
सीधा-उल्टा एक समान

लाल लंगोटा
गटई घोंटा
बोल मेरे केंचुए कित्ती मिट्टी
इत्ती मिट्टी

कविता को चुल्लू भर मिट्टी नसीब हुई|
***


अमित श्रीवास्तव की कविताओं ने अपने अब तक के सफ़र में कोई छूंछी चमक पैदा नहीं की है। वे मद्धम लौ में एकाग्र जलती कविताओं के कवि हैं। अमित की कविताओं की भाषा बोलचाल के लहज़े में आवाजाही करती रही है और उसमें हमारे ही जीवन के तलघरों की गूंज है। न बिम्बों का अतिरिक्त लदान, न प्रतीकों का अन्यथा बोझ। संतोष की बात है कि अपने रचाव में किसी अग्रज का अनुकरण करने के बजाए ये कविताएं अपने ही शिल्प से लड़ती हैं। इन कविताओं से बहस की जा सकती है, इन पर सवाल उठाए जा सकते हैं। इनमें जो निर्मोह है, वही हमारे लिए उत्सुकता का विषय है।
-अनुनाद
 
एक सरकारी नौकर का मोनोलॉग
(मैं अपनी आख़िरी हिचकी पहले ले लूं तो)

कोई एक बात कह दूं
मुसलसल चुप्पियों के बीच
कोई चीख लम्बी
एक कराह सी छोटी
कोई हल्की सी जुम्बिश होठों की
गंगाजल तो सारा बह गया लेकिन
तुम्हारे अनगिनत मन्त्रों के बीच

उस सूराख़ से बस इक दफ़ा
हटा लूं उंगलियाँ अपनी
और बहने दूं सारा मवाद 
खीज सारी, गालियाँ
दर्द, चोटें, आत्म हत्या की आदतें
पसीने में दबाया खून सारा
खून खून खून सारा

खोलकर कंठ की गाँठ को
रख दूँ परे
कि समूचा जिस्म ही नीला हो उठे

तुमने तो दीवार ही दीवार दी है छत नहीं
तोड़कर सारे पुलों को बना ली हैं सीढ़ियाँ तुमने
समझ की सब लयकारियाँ ढेर होतीं यहीं पुलों पर
बंधे तस्मों की नियंत्रित चाल से  

फांदकर दीवार कोई फर्श बना लूं
बस एक दफ़ा मैं सूंघ आऊँ बालियों में स्पर्श सुख
उसके माथे की शिकन को खोलकर  
फाड़कर अपनी किनारी
अपने हिस्से का ये सूरज बाँध दूँ

आख़िरी दम साध लूं
एक धुन सुनूँ मैं
सांस पर संत्रास की
एक गीत गाऊँ भरपूर हंसी का
खुशी के आवेग में झूम जाऊं
इस तरह फंदे पे झूलूँ कि
किसी की हिचकियों में
अपनी उसी आख़िरी हिचकी सा
गुंथ जाऊं

अब नहीं बस अब नहीं
अब नहीं होगा ये मुझसे
कि किसी के दर्द पर डाल दूँ ये नमक सारा
फिर किसी प्याले में डालूँ गटक लूं सारे सवाल
इतिहास के कंधों पे रख दूँ सब जवाबी
मौत पर उनकी हंसू मैं ठठाकर
जिनके लिए कंधों के पीछे एक चाँद टांका था कभी 

डिस्क्लेमर
(यह कविता किसी दिशा में नहीं जाती इस गाड़ी पर चढ़ने वाले लोग अपने उतरने की व्यवस्था स्वयं कर लें)

ये अलहदा काम नहीं पर करें कैसे
हम आजाद हैं
चुनने को कि मरें तो ससुरा मरें कैसे

दो टांगो के बीच घुसाकर
नाक झुकाकर कान उठाकर
सर लगाकर पीछे को
गहरी सांस छोड़ दें
गुत्थम-गुत्था दोनों टाँगे
दोनों बाजू गोड़ दें
अकाल मृत्यु आसन करने से पहले भक्तगण
जीने की सभी आशाएं छोड़ दें

कृपया पहली ताक़ीद पर ध्यान दें बार-बार-बार बताया गया कि इस कविता में कोई ऑफर नहीं चल रहा, कहा न, कोई नहीं, इतना भर भी नहीं जितना कि जीने के लिए जीवन

शाम मरियल सी धुवें में
पिटी-पिटाई, टेढ़ी-मेढ़ी
एक लकीर सी
उठती गिरती उजबक चलती
शोर-शोर में प्राइम टाइम के
धड़ाम से गिरती  

सुबह निकलती डूब डूब के
झाडू उछाल देती   
हर दूजे रविवार की चमच्च
बिस्किट निकाल लेती
टूटी-डूबी चाय में
चल बे चल उठ चल बे
कसी जीन है गाय में
पिलेट में धर दो हुंवा हमरी राय में 

जी नहीं, फाइव टू फाइव टू फाइव हमारा टोल फ्री नहीं है, किसी का नहीं है, दिमाग़ न खाएं, अपना सर बचाएं 

तू इसक करता है तो कर मियाँ
पर हिंया नईं
चल फूट रस्ता नाप
मेरे बाप
इधर गोली-शोली आग-वाग
पत्थर बाजी है भरपूर
अम्न का रस्ता इतिहास में घुसता
लंबा चलता
चलता जाता
कहीं नहीं आता कभी नहीं आता

तुझे पेड़ पे चढ़ना आया कि नईं
पानी में सांस लेना
आँख खोल कर सोना
एक क्लिक पर हंसना
एक इशारे पर रोना धोना
तुझे कबर गढ़ना आया कि नईं
अपने मरने की दावत खाना   

जी हाँ लॉजिंग कॉम्प्लीमेंटरी बस अपनी आई डी ले आओ, फूड बिल तो देना ही पड़ेगा जी  

रोटी खायेगा मर साले
सर उठाएगा मर साले
रोली, चन्दन, टीका बस
फ़तवा सोंटा लोटा बस
अब इत्ता तो कर साले
जीना चाहता है तो मर साले

कविता को आख़िरी हिचकी आई है दोस्तों संभाल लेना
चाहो तो अपना अक्स निकाल लेना
थूक लगाकर ज़रा सुखाकर
अपने पिंजरे के बाहर टटका देना
तुम बाशिंदे गुफाओं के
बिल में रहना
पर बाहर नेमप्लेट भी लटका देना

हमारे कस्टमर केयर रिप्रेज़ेन्टेटिव से बात करने के लिए डायल करें नौ या दस या चौवालिस या टू ज़ीरो वन सिक्स या फाइव फोर थ्री या टू फोर फाइव, फर्क नहीं पड़ता, लाइन बिज़ी है तो सुनें ये सिम्फनी
 
नाला झरना एक समान
उगना सड़ना एक समान
हंसना डरना एक समान
गण्डा चिमटा एक समान
जीना-मरना एक शब्द है
सीधा-उल्टा एक समान

लाल लंगोटा
गटई घोंटा
बोल मेरे केंचुए कित्ती मिट्टी
इत्ती मिट्टी

कविता को चुल्लू भर मिट्टी नसीब हुई|



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