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जम्मू कश्मीर में हिन्दी कविता और युवा कवि : एक अवलोकन - कमल जीत चौधरी / 03

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मजदूरों के जीवन स्तर के बारे में कोई नहीं सोचता . ऐसे में कवियों  का दायित्वबोध क्या है ? किसान और मज़दूर पर छिटपुट कविताएँ ज़रूर मिलती हैं . किसान या मज़दूर दिवस पर इनके श्रम सौन्दर्य को रेखांकित करने वाली कविताएँ पर्याप्त नहीं  हैं . कवियों को इसके लिए डीक्लास भी होना होगा . एक समय जम्मू में कविता पोस्टर जैसी परम्परा भी चली थी . कुछ कवि नुक्कड़में हिस्सा लेते थे . लोक मंच जम्मू कश्मीर जैसे सांस्कृतिक संगठन इसके लिए कुछ ज़मीनी काम कर सकते हैं . वर्गबोध कविताई के लिए बहुत महत्वपूर्ण है .

बर्जनिया वूल्फ ने लिखा है कि 'स्त्री को लिखने के लिए एक कमरा चाहिए'. इस कमरे को स्त्री अभी भी पा नहीं सकी . औरत जन्मजात कवि होती है . अपने कवि को पन्ने पर उतारना उसके लिए कभी भी किसी भी समय में आसान नहीं रहा . वह लिख रही है . इसी में उसका विद्रोह है . राष्ट्रीय स्तर पर शैलजा पाठक , अपर्णा मनोज , अंजू शर्मा , वंदना देव शुक्ला , मृदुलाशुक्ला , बाबुशा कोहली , रश्मि भारद्वाज , सुलोचना वर्मा , सोनी पाण्डेय आदि परिदृश्य पर हैं . इनके समकक्ष  योगिता यादव , अमिता मेहता , अरुणा शर्मा , डॉ० शाश्विता आदि को रखकर देखा जा सकता है . यहाँ का स्त्री स्वर
मुख्यधारा के फैशनेबल स्त्री विमर्श से परे एक मौलिक और मुखर भावजगत केगवाक्ष खोलता है .

डॉ० चंचल डोगरा के मनोवैज्ञानिक और प्राकृतिक धरातल की परम्परा को आगे ले जाने काम  डॉ० अरुणा शर्मा ने किया . उनकी कविताएँ पृथ्वी की कविताएँ हैं. जम्मू कश्मीर में उन्होंने स्त्री लेखन को नई भाव भूमि दी . इनके यहाँ चली आ रही कुछ चीजें टूटी हैं . उनके लेखन पर उन्ही की कलम से कहूँगा -

'चींटियों को नहीं मालूम
अपने पीछे क्या छोडती जा रही हैं ...'

योगिता यादव स्त्री परिवेश को समृद्ध कर रही हैं . वे बहुत अच्छी कवि भीहै . हंस , नया ज्ञानोदय आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित इनकी कविताओं पर पर्याप्त चर्चा हुई है . दस्तक समूह में प्रसिद्द संपादक आलोचक निरंजन श्रोत्रिय जी ने इनकी कविताओं को रेखाचित्र के समान कहा है . इधर उनकेनेतृत्व में स्त्री सृजन की मासिक बैठकों ने शहर में स्त्री लेखन के लिए नया माहौल बनाया है . योगिता की कविताओं में प्रेम , समर्पण , पितृ सत्ता प्रतिरोध , स्मृतियाँ , बदलाव का सपना , और आह्वान जगह पाता है . उनकी कविताओं का स्पेस देखें -

मैं मुक्त हूँ 
हाँ, मैं हूँ मुक्त 
न करना मुझे 
छंदों में बाँधने के असफल प्रयास ...
***
मैं सींचूंगी तब तक 
जब तक तुम
वटवृक्ष से 
छतनार नहीं हो जाते ...
***
तुम्हारे सब घाव
धूप की परछाई की मानिंद
मेरे आगे आगे चलते हैं .
***
 
डॉ० शाश्विता की कविताएँ स्त्री अंतर्मन की परतें खोलती हैं . इनका कोईसंग्रह अभी नही आया है . तलाश की कविताएँ हैं . इनके यहाँ छायावादी प्रवृत्तियाँ हैं . यहाँ सामाजिक सरोकार आत्मीय भाषा में जगह पाते हैं . 'सहवेदना 'नामक कविता में अपनी सहायिका के प्रति इनकी संवेदना सलामयोग्य हैवे व्यष्टि से समष्टि की तरफ जाती हैं . जब वे लिखती हैं -

घोर सघन अँधेरा
परत - परत गिरह खोलता है .
***
फिर एक दिन
मैं माफ़ कर देती हूँ उसे
और मुक्त हो जाती हूँ .
***
मैंने वो सब सुना
जो उसने कभी नहीं कहा
मैंने वो सब छुआ
जो भी उसने छुपाया
***
..........तो उनकी संवेदना गहरे तक छूती है .

किरण कंचन का एक कविता संग्रह आया है . उन्हें अभी किताब न लाकर और लिखनाचाहिए था . इनकी कविताएँ भाव और शैली में अभी बहुत कच्ची हैं . पर एक स्त्री मन यहाँ भी बतियाता नज़र आता है . एक बानगी देखें -

दुनिया के माहौल में रहना
घी बनकर , लौ में जलकर
प्रकाश फैलाना ...

अमिता मेहता कोमल भावों को व्यक्त करने वाली कवि हैं. किसी प्रकार काचमत्कार या अतिरिक्त प्रयास उनके शिल्प और कंटेंट में नहीं दीखता . उनकी 'संदूक 'कविता अगली पीढ़ी को विश्वास की चाभी थमा जाती है . 'आग के फूलों की डाली 'जैसा बिम्ब उनकी मौलिकता को दर्शाता है . देखें -

वह अक्सर मुझे मिलता है
और लाता है मेरे लिए
आग के फूलों वाली डाली .
 
वे इंतज़ार नामक कविता में गुलाब को नयी दृष्टि से देखती है  . इनका भीकोई संग्रह अभी नहीं आया है . सोनिया उपाध्याय अपनी क्षणिकाओं से जीवन केखट्टे मिट्ठे भाव और अनुभव व्यक्त करती हैं . इनके अतिरिक्त नीरू शर्मा , शारदा साहनी , विजया ठाकुर आदि पुरानी कवयित्रियाँ डोगरी के साथ साथ हिन्दी में भी लिख रही हैं .

पुरुषों की कविताओं में भी स्त्री संवेदना और सवाल दिखाई देते हैं.इनके यहाँ औरत प्रेमिका , दोस्त , बेटी  और माँ के रूप में सम्बोधित होती है. स्त्री संवेदना पर कल्याण की कुछ सुन्दर कविताएँ हैं . बेटी शीर्षक कविता बहुत मार्मिक है. कुमार कृष्ण और शक्ति सिंह ने प्रेमी रूप मेंस्त्री संसार को छुआ है . नरेश कुमार की कविताओं में माँ की छाँव दिखती है. अशोक कुमार लंगड़ी चलने के नियम वाले खेल शटापु के माध्यम से लड़कियों के जीवन संघर्ष को बखूबी अभिव्यक्त करते हैं . मनोज शर्मा की 'बार गर्ल काम पर जा रही है 'और 'स्त्री विलाप कर रही है 'जैसी कविताएँ स्त्रीसंवेदना की दृष्टि से हिन्दी कविता में अलग स्थान रखती हैं . एक बानगीदेखें -

लिखूं यदि यूँ कि 
स्त्री विलाप कर रही है
तो ऐसा लिखते ही सूख जाए पैन की स्याही
जिस कैमरे ने खींची हो ऐसी तस्वीर  
उसके लैंस में पड़ जाए तरेड़ ...
*** 

नरेश कुमार खजुरिया , अदिति शर्मा  , अरविन्द शर्मा , शिवानी आनन्द ,भगवती देवी , ऐशा बलोगोत्रा , मुद्दसिर अहमद , शालू देवी प्रजापति आदि नवोदित या उम्र के छोटे कवि भी परिदृश्य पर हैं . इनमें शिवानी आनन्द सबसे अधिक लिख रही हैं . इन सभी नामों पर बहुत कहना अभी जल्दी होगी . उम्मीद है कि आने वाले पाँच सात सालों में इनमें से एक दो नाम जम्मू कीहिन्दी कविता को समृद्ध करेंगे . इनके यहाँ निजता , कल्पना , रूमानियत , प्रेम , प्रतिरोध , श्रम सौन्दर्य , गाँव की संवेदना , सामाजिक चिंताएँ दिखाई देती है . शालू के रूप में इस युवतर स्वर की बानगी देखें -

माँ ने जिन किताबों को बेच
फेरी वाले से
दो प्यालियाँ खरीदी थीं
मैं उनमें कभी चाय नहीं पीती ...
***
मैं सड़क किनारे
उग आई कंटीली झाड़ी हूँ -
तुम मुझे गले लगाती हुई धूल .

वे कम से भी कम लिखती हैं . साहित्यिक कार्यक्रमों से दूर रहती हैं .शीराज़ा  , खुलते किवाड़ , अमर उजाला आदि में छपी हैं . इधर इनकी कविताएँ 'बया 'के ताजा अंक में आई हैं . जिन पर चर्चा हो रही है.

माहौल बड़ी चीज है . माहौल का अर्थ कदापि यह नहीं कि मौसम अच्छा हो जाए तोदो चार  कार्यक्रम कर लिए जाएँ . कवि विष्णु नागर लिखते हैं - 'सबसे अच्छी कविता बुरे वक्त में पहचानी जाती है . 'बुरे वक्त के साहित्यिक प्रयास सलाम योग्य होते हैं . बाकी 31 मार्च वाले प्रयास नहीं कहे जा सकते . साहित्य सीढ़ी नहीं है . अगर है तो यह ऊपर नहीं जाती . नीचेउतरती है .  जम्मू में समृद्ध साहित्यिक माहौल है . राष्ट्र भाषा प्रचार समिति , युवा हिन्दी लेखक संघ , हिन्दी साहित्य मण्डल आदि संस्थाएँ अनुदान प्राप्त करके पर्याप्त कार्य कर रही हैं . 'लोक मंच जम्मू कश्मीर
'सांस्कृतिक व साहित्यिक संगठन है . यह गाँवों में जाकर कार्य कर रहा है. कुमार कृष्ण शर्मा के साहित्यिक ब्लॉग 'खुलते किवाड़ 'जैसा प्रयास भी स्वागत योग्य है . समय की मांग है कि कोई राष्ट्रीय स्तर की अच्छी साहित्यिक पत्रिका भी यहाँ से निकले . आज तक यहाँ की कोई भी पत्रिकाहिन्दी साहित्य जगत में अपनी खास पहचान नहीं बना पाई . कला अकादमी कीशीराज़ा की भी अपनी सीमा रही है . वैसे इन दिनों हिन्दी कार्यक्रमों को लेकर जे०& के० कला अकादमी पहले से सक्रिय हुई है.

यह हाशियों की कविता है . आज इन हाशियों की कविता को रेखांकित भी किया जारहा है . कवि आलोचक और संपादक शिरीष कुमार मौर्य लिखते हैं - 'हिन्दी में सीमांतों की कविता जिस तरह से विकसित हो रही है , यह घटना आने वाले वक्त में कविता का एक बड़ा प्रस्थान बिन्दु साबित होने वाली है . '  यहदृष्टिसम्पन्न वक्तव्य है . आज दिल्ली , इलाहाबाद , भोपाल , पटना आदि कावर्चस्व या एकाधिकार टूट गया है . सीमांतों की कविता ने हिन्दी कविता को विस्तार दिया है . इस पर बात किए बिना हिन्दी कविता पर पूरी बात नहीं हो सकती .कुल मिला कर कहा जाये तो यह कविता जीवन के पक्ष में खड़ी है . लम्बे संघर्ष के बाद जम्मू की कविता पहचान के संकट से उभरी है . व्यष्टिपरक और छायावादी प्रवृत्तियाँ पीछे छूटी हैं . अब सिर्फ विस्थापन ही पहचान नहींरह गई है . आज युवा कवि शोषक शक्तियों के विरोध में खड़े हो रहे हैं . सामूहिक सपनों ने जोरदार दस्तक दी है . इसमें सभी के दुःख - तकलीफें और संघर्ष शामिल हैं . आने वाले दिनों में यहाँ की कविता और गहरे में उतरेगी. हाशियों से अधिकाधिक संवाद बनाएगी . संवाद ही प्रतिनिधि हो सकता है -

मुझे लगता है 
दुनिया में 
कहीं भी जब दो आदमी  
मेज़ के आमने - सामने बैठे 
चाय पी रहे होते हैं 
तो वहां आ जाते हैं तथागत
और आस पास की हवा को 
मैत्री में बदल देते हैं .        -  [ महाराजकृष्ण संतोषी ]

अंत में ,
दोस्तो !! सत्ता के समकक्ष सत्ता खड़ी करना किसी समस्या का हल नहीं . आओसमता और सहभाव के लिए संघर्ष करें . इंकलाब जिंदाबाद !!
**** 

कमल जीत चौधरी ,
काली बड़ी ,, साम्बा , जे०&के० { 184121 }
दूरभाष - 9419274403
ई मेल -
kamal.j.choudhary@gmail.com

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