सीमा सिंह की कविताएं प्रेम, प्रतीक्षा, स्वप्न, पीड़ा और इच्छाओं के अछोर विस्तार में खड़ी कविताएं हैं। इस विस्तार में उनसे पहले भी एक समूची दुनिया है, उसी दुनिया से ये कविताएं आत्मीय संवाद करती हैं। अनुनाद पर यह उनका पहला प्रकाशन है, कवि का यहाँ स्वागत है।
- शिरीष मौर्य
मैं एक स्वप्न की प्रतीक्षा में हूँ
जिस भी क्षण वह प्रवेश करे मेरी नींद में
मेरी आँखें जागते हुए देखे उसे
देखें कि कैसे जन्म लेता है एक सपना
और आख़िर कितनी होती है उसकी मियाद
कुछ है जो दुनिया से कहना नहीं चाहती अब
कि कहते कहते थकने लगी हूँ
जिसे बोलने के लिए मुझे एक सपने की ज़रूरत है
कोई भय कोई मर्यादा कोई सीमा नहीं हो जहाँ
जहां उड़ेल सकूँ सच को हूबहू कि जैसा वह है
जिसे सुनने के बाद कोई फ़ैसला मेरे इंतज़ार में न खड़ा हो
और न ही हो कोई ताकीद मेरे किरदार की
समय की रेत पर खड़ी ढूँढ रही हूँ आदिम प्यास
जिसमें छिपी है बेकल प्रतीक्षा और पीड़ा
अपनी अंतिम साँस और इच्छा से पहले
चाहती हूँ कि सपना निकल भागे मेरी आँखों से
किसी दूर हरे घास के मैदानों में
आँखें जहां तक देखे दुनिया का सारा हरा ही देखें
सपना इतनी दूर कभी न लगे जितनी यह दुनिया
इतना धैर्य इतनी भाषा इतना प्रेम हमेशा बचा रहे
कि जिस भी क्षण छोड़ कर चल दूँ दुनिया को
फिर किसी सपने के लिए न पड़े आवश्यकता
किसी आन्दोलन किसी क्रांति की
वह उतना ही स्वाभाविक लगे जितना कि आती जाती साँस !
***
किसी और दिन की तलाश में
देख रही हूँ भीगता हुआ दिन
भीग रहे आदमी और पेड़
सड़क और गलियाँ, सरकारी इमारतें
उन पर लगे सरकारी झंडे
बड़े बड़े होर्डिंग
नेताओं की विशाल क़द मूर्तियाँ
शहर का अकेला नीला पुल
और उदास नदी भी
इसी बीच एक भीगी हुई चिड़िया
ढूँढती है छुपने की जगह
और पेड़ की सबसे ऊँची टहनी पर
बैठ कर देखती है बारिश
उसकी आँखों का अचरज उतर आया है
मेरी आँखों में
मैं किसी और दिन की तलाश में
देखती हूँ आज का भीगा हुआ दिन
याद आता है खूँटी पर लटका घर का अकेला छाता
भीगे दिनों की सोहबत में वही रहा उपस्थित सदा
उसके होने से जाता रहा भ्रम अकेले होने का
वो भीगता रहा मेरी जगह
और मैं उसके सहारे ही पार करती रही
बाहर भीतर उग आये जंगल
बारिश के ही दिन थे
जब कहा किसी ने कि जाता हूँ
तो नदी में पानी अचानक बढ़ गया था
डूबने की आशंका में बैठी रही देर तक किनारे
और देखती रही जाते हुए को
भीगा हुआ मन और भरी हुई नदी
भला कहाँ रोकी जा सकती है !
***
रात और बारिश
स्वप्न से भाग आयी एक स्त्री
देखती है रात में हो रही बारिश
वह बारिश में रात नहीं
रात में बारिश को देख रही
अनुभव से जानती है अंधेरे का गाढ़ापन
दिखाई न दे कुछ तो भी
स्पर्श से पहचानती है तरलता
पीठ पर उग आयी इच्छाओं की भीत
अधिक भार से जब डूबने लगती है
वह देखती है मेघों से भरा आकाश
सुनती है बारिश की तेज जलधार
झींगुरों का संगीत
मेंढकों की टर्र टर्र
कितने स्वरों में बोल रही यह रात
पेड़ निस्तब्ध भीगे हुए झर रहे
पत्तों से छन कर आती बूँदें
किसी उँची पहाड़ी से गिरते झरने सी
मिट्टी की यात्रा में शामिल होने को विकल हैं
जलधारा बहा ले जाती समस्त स्मृतियाँ
समस्त इच्छाएँ
पानी भी एक रास्ता है मुक्ति का
थमते थमते बारिश थम जाती
हवा में गमक उठती मटियारी गंध
लैम्प पोस्ट के नीचे छोटे गढ्ढे में
उभर आया है एक छोटा तालाब
देर तक तकते हुए गढ्ढे के पानी को
सोचती है वह
अतल में डूबने को इतना भी पर्याप्त है !
***
प्रतीक्षा में
सब विलग जायेगा
रीत जायेगा साँझ का
अकेला तारा भी
उसी क्षण कहीं आकाश में
चमक उठती है बिजली
चलने लगती हैं हवाएँ
दिशाएँ बदल लेती हैं रास्ता
एक तितली के पंखों पर
सवार सारे रंग
बिखर जाते हैं अनायास
हम नहीं जानते कि
कुछ भी घटने में
छिपी है कितनी पीड़ा
कितना आर्तनाद है उसके भीतर
सृजना के क्षण कितने
असहनीय हो उठे हैं
और मृत्यु कितनी रोज़मर्रा
आँखें खोलो तो समूचा दृश्य
बदल चुका होता है
और हम व्यतीत कर देते हैं
बची हुई उम्र प्रतीक्षा में !
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परिचय
नाम - सीमा सिंह
जन्मस्थान - लखनऊ (उत्तर प्रदेश )
शिक्षा - एम ए (हिन्दी ) ,पी एच डी
अध्यापन - नेशनल पी जी कॉलेज लखनऊ (गैस्ट लैक्चरर )
प्रकाशन - कविता विहान ,बहुमत ,पाखी ,वागर्थ ,दोआब ,उद्भावना ,पोषम पा आदि पत्रिकाओं तथा ई- पत्रिकाओं और ब्लॉग में कविता का प्रकाशन ।
लखनऊ में साहित्यिक संस्था सुखन चौखट का संचालन