अनुनाद पर अजय सिंह के कविता संग्रह के लोकार्पण समारोह की भाषा सिंह द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट(साभार फेसबुक) छपने के बाद इस संग्रह की कविताओं पर हमें विष्णु खरे और अजीत प्रियदर्शी के लेख हस्तक्षेप के रूप में मिले। इन दो लेखों के बाद उमाशंकर सिंह परमार का लेख अनुनाद को मिला है, जिसे संग्रह पर बहस की कड़ी के रूप में यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। इस हस्तक्षेप के लिए लेखक का आभार।
आशा है विष्णु खरे से लेकर इस लेख तक के छोटे-से इस सिलसिले में बहस का एक आकार अब स्पष्ट होगा। आगे भी कोई लेख इस या किसी अन्य महत्वपूर्ण कविता प्रसंग पर हमें मिलता है और वह बहस की ऊर्जा रखता है, तो अनुनाद पर उसका स्वागत है।
अजय सिंह एक राजनीतिक विश्लेषक और एक्टिविस्ट के रूप में जाना पहचाना नाम है | तमाम सामयिक पत्रिकाओं और पत्रों में प्रकाशित उनके आलेख पढ़कर उनकी दृष्टि व समझ को परखा जा सकता है | सामयिक समस्यायों पर मुकम्मल विश्लेषण करने के लिए विचार जरुरी होतें है | विश्लेषक घटनाओं को एकत्र करता है उन घटनाओं की उपादेयता पर चिंतन करता है फिर जनतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप अपने विचारो में ढालकर प्रस्तुत करता है | घटना व दुर्घटना से वह उतना ही प्रभावित होता है जितना की कवि प्रभावित होता है |यदि इस दृष्टिकोण से देखा जाय तो वैचारिक दृष्टि से संपन्न पत्रकार और कवि में ज्यादा अंतर नही होता है | विश्लेषक तथ्यों पर ज्यादा जोर देता है और कवि विचारों पर जोर देता है | पर दोनों की रचना प्रक्रिया एक जैसी है | दोनों का मैटर समाज से आता है दोनों घटनाओं पर चिंतन करते हुए अपने वैचारिक सरोकारों से पुष्ट करते हैं | दोनों के निकर्ष और सन्देश व्यापक जन समुदाय के पक्ष में होतें हैं | काव्य एक चेतन रचना है | कवि अपने सामाजिक जीवन से वास्तविक अनुभव लेकर उन्हें अधिक प्रभावी रूप में प्रस्तुत करता है | वास्तविकता उसे समाज से प्राप्त होती है लेकिन समाज से जो विचार प्राप्त होतें है उसमे अभिजन विचार भी जुड़े होते है कवि अपनी प्रतिभा से इन बुर्जुवा विचारों को अलग करके वास्तविक विचारों को प्रस्तुत करता है इस प्रकार कविता का सौन्दर्य सामाजिक श्रम का परिणाम है | यही कारण है काडवेल ने सौन्दर्य को “सामाजिक तत्व” कहा है | सौन्दर्य चाहे कविता का हो या कला का वह श्रम का ही परिणाम है | समाज में व्याप्त बुर्जुवा मूल्यों को ध्वस्त करके लोकधर्मी मूल्यों को स्थापित करने वाली रचना ही सुन्दर रचना है | यही रचना प्रक्रिया एक प्रतिबद्ध लेखक की होती है | और जागरुक सचेतन पत्रकार की होती है | अजय सिंह पर उनका पत्रकार ज्यादा प्रभावी है | वो कविता में कवित्व का बजाय तथ्यपरकता पर अधिक बल देते हैं | इससे कविता यथार्थ की अभिव्यक्ति तो बखूबी कर लेती है पर बुनावट में कमजोर हो जाती है | आज का समय देखते हुए “कला के लिए कविता” जैसी बात करना बेमानी है रीतिशास्त्र का कोई भी मापदंड जो दहकते हुए कंटेंट को खारिज कर सकता है उसकी कोई जरुरत नहीं है | अजय सिंह की कविता समय के खतरों पर श्वेत पत्र है , केवल भाषा और कवित्व के कारण उसे खारिज करना कवि की इमानदारी को खारिज़ करना है उसके वैचारिक पक्ष को खारिज करना है विदेशी पूँजी द्वारा पैदा किये गए मानवता विरोधी परिवेश को खारिज करना है |
अजय सिंह ६८-६९ वर्ष के हैं कवितायें बहुत कम लिखतें है | उन्होंने अपने कवि होने का दावा कभी नही किया न अब करने की उनकी मंशा है | ६८ वर्ष की उम्र में उनका पहला कविता संग्रह “राष्ट्रपति भवन में सूअर” आना इस बात का प्रमाण है | उन्होंने खुद कहा है की “मैं धीरे धीरे लिखता हूँ और देर से छपता हूँ” छपने में कभी दो साल चार साल का अंतराल हो जाता है अजय सिंह को जानने वाले मित्र “पंचवर्षीय योजना का कवि” कहते थे क्योंकि वो लिखते कम थे छापते कम थे अगर उनकी कवि होने की मंशा रही होती तो जल्दी लिखते अधिक छापते ( जैसा की आजकल हो रहा है) यही कारण है उनका पहला संग्रह ६८ वर्ष की उम्र में २०१५ में छापकर आया जबकि वो १९६३ से लिख रहें है | “राष्ट्रपति भवन में सूअर” की भूमिका में अजय सिंह ने स्वीकार किया है की इस संग्रह में उनकी वर्ष १९९५ से लेकर २०१४ तक की कवितायें सम्मिलित हैं | इसका मतलब है इस संग्रह में उनकी पुरानी कवितायें संग्रहीत नहीं हैं केवल नई कवितायेँ सम्मिलित की गयी हैं | इस अवधि की उनकी बारह कवितायें इस संग्रह में है अंत में एक परिशिष्ट है जिसमे उनका एक आलेख है और दो चार छोटी कवितायें है जो उनकी पत्नी शोभा सिंह को समर्पित है | उनकी पत्नी शोभा सिंह जसम से जुडी है अत: उन्हें केवल पत्नी के रूप में नही देखा जाना चाहिए बल्कि वैचारिक मित्र के रूप में देखना चाहिए इस संग्रह की दो और कवितायें उनके वैचारिक संघर्षों के साथियों को समर्पित है एक है “ लाल सलाम कामरेड” जो अजंता लोहित को समर्पित है और दूसरी है “झिलमिलाती अनंत वासनाएं” जो गोरख पाण्डेय को समर्पित है | इन कविताओं को पढने के बाद अजय सिंह का निजी संसार स्पष्ट हो जाता है की उनके द्वारा गढी गयी दुनिया उनके विचारों की दुनिया है | इसी विचारों की दुनिया में वो रहतें है और अपने रिश्ते नाते तय करते हैं | अपनी इस दुनिया को वो सर्वाधिक प्यार करते हैं | दुनिया को उजड़ने से बचाने के लिए वो बाहरी दुनिया से टकराते हैं वो चाहते हैं की बाहरी दुनिया भी उनकी निजी दुनिया जैसी हो जाय | अपने विचारों की दुनिया से इतर उनकी कोई भी दुनिया नही है | अपने वैचारिक सरोकारों और प्रतिबद्धता को वो पार्टी से जोड़कर देखते हैं पार्टी के हर सदस्य को प्यार करते है उनका कहना है –“यहाँ कोई समझौता नहीं / शर्त नही / साथी पार्टी है / तो सब कुछ है “ (पृष्ठ ५४)अर्थात पार्टी की नीति और अनुशाशन से परे कोई विचार नहीं है क्योंकि विचारों की दुनिया तभी तक है जब तक पार्टी है | कुछ लोग इस कविता को नारेबाजी कह सकतें है , लेकिन ध्यान रहना चाहिए अजय सिंह एक आम कार्यकर्ता थे , बड़े नेता नही थे | आम कार्यकर्ता अगर अपनी पार्टी के प्रति ये निष्ठा रखता है तो यह कोई गलत नही है क्योंकि कार्यकर्ता के लिए उसकी पार्टी ही उसका संसार है | उसका परिवार है , जैसा की अजय सिंह मानते रहे हैं|
अजय सिंह के एक निष्ठावान एक्टिविस्ट होने के कारण ही “राष्ट्र पति भवन में सूअर” की भाषा और लहजा दोनों आक्रोशपूर्ण है | लेकिन अजय सिंह का आक्रोश उपरला नही है , इसकी तह में अपनों के प्रेम को बचाने की जद्दोजेहद है | आक्रोश दो तरह का होता है | एक जिसमे केवल जुमलेबाजी होती है , कविता यथार्थ से दूर नारेबाजी में उतर आती है , बिम्ब पोस्टर से प्रतीत होने लगते हैं , और कंटेंट राजनीतिक अड्डेबाजी लगने लगता है | और दूसरा आक्रोश वो होता है जिसकी तह में संकटग्रस्त समय की असंगतिया होती है अजय सिंह का आक्रोश दूसरी कोटि का आक्रोश है इस आक्रोश को पहचानने के लिए अजय सिंह की कविताओं का काल और उनकी निजी दुनिया के प्रति अगाध प्रेम की पहचान जरुरी है | मैं तो यही कहूँगा की “राष्ट्रपति भवन में सूअर” प्रेम को बचाए रखने के लिए कवि आत्मसंघर्ष है यह संग्रह आक्रोश का नही समूची मानवता का प्रेम आख्यान है | समतापूर्ण हिंदुस्तान के लिए आम आदमी का चिंतन है स्त्री के पक्ष में मनुष्यता का संवेदनापूर्ण संलाप है | राष्ट्रपति भवन में सूअर की कविताओं का ध्यान से अनुशीलन किया जाय तो इसमें एक चरित्र का समावेश है वह चरित्र कोई और नही कवि की नातिन “खिलखिल” है | खिलखिल मासूम है | भोली भली है | कवि खिलखिल को जी जान से चाहता है खिलखिल का जिक्र उनकी कई कविताओं में है | खिलखिल का बार बार जिक्र उसे चरित्र के रूप में स्थापित कर देता है | कवि खिलखिल को खोना नही चाहता , उसके प्यार को बचाए रखना चाहता है | लेकिन समय इतना संकटपूर्ण है की उसे मासूम खिलखिल की चिंता बेतरह सता रही है | इसलिए कवि समय की असंगतियों के विरुद्ध खड़ा होता है ,निर्मम आलोचना करता है , कवि का सारा आक्रोश मासूम खिलखिल के प्यार से उत्पन्न है | खिलखिल हिंदुस्तान बन जाती है |खिलखिल का चरित्र और उसका भोलापन हिन्दुस्तानी आम आदमी का चरित्र बनता है | करोड़ों मज़लूमो का चरित्र बनता है |खिलखिल के बहाने कवि हिंदुस्तान को बचाना चाहता है | समय के भयावह खतरों के समक्ष खिलखिल के प्रति कवि की चिंता इस कविता से समझी जा सकती है –“ खिलखिल / तुम्हे किस नाम से पुकारा जाय / तुम्हे कौन सी पहचान दी जाय / की तुम सही सलामत रहो / कोई अलाय बलाय न आये / कोई तलवार त्रिशूल भाला चाकू प्रट्रोल बम / लेकर तुम्हे दौड़ा न ले / जय श्री राम का नारा लगाती भीड़ / तुम्हे जिन्दा आग के हवाले न कर दे /तुम्हे सामूहिक बलात्कार का शिकार न होना पड़े / कौन सा नाम दूँ” ( पृष्ठ २८) | खिलखिल को बचाने की उद्दाम लालसा ने कवि को समय का कटु आलोचक बना दिया है | इन कविताओं का रचनाकाल १९९५ से २०१४ के बीच का है यह समय हिंदुस्तान के इतिहास का बुरा समय है | इसी अवधि में फासीवादी शक्तियां सत्ता के करीब पहुंची , गुजरात के दंगे हुए जिसमे निर्दोष बच्चो और महिलाओं की हत्या की गयी , इसी समय पूँजीवाद ने अपना रूप विश्वव्यापी करते हुए सत्ता के साथ गठजोड़ स्थापित किया , बोस्निया , इराक , अफगानिस्तान , जायरे , आदि में अमरीकी साम्राज्यवाद का नंगा नाच देखा गया , मुजरिम आदालतों के आदेश से छोडे गए , नरसंहार हुए , जनांदोलन कुचले गए , महिलायें बलात्कार का शिकार हुईं , किसानो ने आत्महत्या की , पूंजीपतियों ने सार्वजनिक धन का गबन किया , बड़े घोटाले हुए , चूंकि कवि एक सजग पत्रकार है वो इन घटनाओं से अपरिचित नही हो सकता उसने विस्तार से इन संकटों का रक्तरंजित चेहरा देखा है | लाशों के सड़ते हुए अम्बार देखे हैं | आदिवासी , महिलाओं , अल्पसंख्यकों की हत्याएं देखी हैं | स्वाभाविक है भयानक समय में कवि को अपनों की चिता व्यापेगी वह अपनों को बचाने का हर संभव प्रयास करेगा , वह खतरों के सूत्रधारों से हद के स्तर तक नफरत करेगा , जो व्यवस्था दंगों और नरसंहार के पक्ष में होगी वो उसकी आलोचना करेगा | कवि की खिलखिल आम जनता है , व्यवस्था से काटकर हाशिये में रख दिए लोग हैं कवि कहता है -मैं आधा हिन्दू हूँ / मैं आधा मुसलमान हूँ / मैं पूरा हिंदुस्तान हूँ “ ( पृष्ठ १५) इस हिंदुस्तान को बचाने की जिद में कवि सांप्रदायिक दंगों का पूरा चिटठा खोलकर रख देता है | दंगो का राजनीति से , और राजनीति का पूँजी से , और पूंजी का साम्राज्यवादी शक्तियों से क्या रिश्ता होता है अजय सिंह इसकी तह तक चले जातें हैं –“यह जो नयी संस्कृति बन रही है / उसका एक शिरा अयोध्या में / दूसरा दिल्ली में तीसरा अहमदाबाद में / चौथा कई नदियाँ समंदर पार / व्हाईट हॉउस ,वाशिंगटन डी सी में / इसकी जड़ें बड़ी गहरी दूर दूर तक फैली” ( पृष्ठ ३७) |
अजय सिंह का “राष्ट्रपति भवन में सुअर” मानवीय संवेदनाओं के सबसे दिलकश पहलू है की यह प्रेम की प्रतिष्ठा का काव्य है अधिकांश कवि आक्रोश को सही दिशा नही दे पाते वो नकारात्मक विचारों के पक्ष में खड़े हो जाते हैं | भले ही अजय सिंह की भाषा भद्र न हो( एक या दो जगह पर) पर संवेदनाएं आधुनिक और सामयिक है | किसी भी समुदाय के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण नहीं है | धूमिल में भी आक्रोश है , भाषा भी बहुत कुछ् अजयसिंह के करीब है , गलियों का उपयोग है , पर धूमिल स्त्रियों का जिक्र आते ही स्त्रियों के पक्ष में नही रह जाते “ हर लड़की तीसरे गर्भपात के बाद धर्म शाला हो जाती है” गद्दीनशीन औरतें टांगो के बीच धमाका दबाये बैठी हैं” जैसे नकारात्मक प्रयोग धूमिल में खूब मिलतें है पर अजय सिंह इस मामले में धूमिल से अलग है | उनकी किसी भी कविता में स्त्री का विरोध नही है | उसके प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण नही है | इसके उलट वो स्त्री के पक्ष में व्यवस्था की तीखी आलोचना करते हैं | वो स्त्री के लिए हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मो की आलोचना करते है| अजय सिंह ने स्त्री को किसी लिंग और जाति धर्म के खांचे में फिट नही किया है बल्कि उसे वर्गीय दृष्टि से देखते हैं | उसे अपने आप में एक समुदाय मानते है| इस वर्ष प्रकाशित कविता संग्रहों मे मैने जितने भी अब तक पढे हैं उनमे से राष्ट्रपति भवन मे सुअर सबसे उम्दा और अलहदा है । स्त्री की वर्गीय स्थिति को जिस ढंग से अजय सिंह ने देखा है वह पूर्ण यथार्थ और वैज्ञानिक है कहीं भी दोहराव नही हैं आजाद हिन्दुस्तान का क्रूरतम सच है । स्त्री के पक्ष मे आजकल जिस तरह से घिसी पिटी शब्दावलियों मे एक जैसी कविताएं लिखी जा रही हैं उन्हे देखते हुए अजय की कविता को नया कहा जा सकता है एक कविता का अंश-“मैं वो अनगिनत हिन्दू औरत हूं /जैसा साल दर साल के आंकडे बताते हैं /जिन्हे फ्रिज टीवी स्कूटर चंद जेवरात के लिए /भरी जवानी मे आग के हवाले कर दिया गया / और कहा गया /खाना बनाते समय कपडों मे आग लग गयी / मैं वो अनगिनत मुसलमान औरत हूं / जिन्हे तलाक़ तलाक़ तलाक़ कहकर / गर्मी की चिलचिलाती दोपहर /जाडे की कंपकपाती रात / घर से बेघर कर दिया गया /और कहा गया /मेहरुन्निसा बदचलन औरत है /जैसे गर्भवती सीता को /अंधेरी रात सुनसान जंगल मे /कितनी अजब बात है / सीता धरती से पैदा हुई /और वापस धरती मे समा गयी / लेकिन आज की सीता फातिमा जहरा /धरती की कोख मे नही लौटेगी /यह द्वन्दवाद के खिलाफ है / वे लडेंगी” (पृष्ठ १६) स्त्री के प्रति यह दृष्टि प्रमाण है की उनका प्रेम सम्पूर्ण आवाम के प्रति है उनकी खिलखिल हिन्दुस्तान की लाखों करोडो मजलूम जनता है जिसे आज़ाद हिंदुस्तान के कर्णधारों ने कैद कर रखा है |
अजय सिंह की आलोचना का एक कारण उनकी राजनीतिक कवितायें भी हैं जिसमे उन्होंने बगैर किसी बहाने के सीधे सीधे व्यवस्था और उसके सूत्रधारों पर प्रहार किया है | जो लोग कविता को राजनीति से पृथक मानते हैं और तथ्यों के प्रयोग से कविता को बचाना चाहतें है उन्होंने अजयसिंह के संग्रह को काव्यत्व हीन कहकर खारिज किया | लेकिन आज कविता को राजनीति से अलग नही किया जा सकता है | विशेषकर तब जब सारी समस्याओं के मूल में राजनीति हो | इतिहास में कविता कभी भी राजनीति से पृथक नही रही, इतिहास गवाह है की या तो कविता ने राजनीति को प्रभावित किया या फिर राजनीति ने कविता को प्रभावित किया | कवि एक जागरूक इंसान है वह समाज के हर एक अंग को कविता का विषय बना सकता है | अपने समय और परिवेश से पृथक होकर राजनीति को अछूत नही कर सकता है , और फिर अजय सिंह की कविता में जिस पीड़ा , घुटन , संत्रास , टूटन , का चिंतन है उसका सम्बन्ध राजनीति से ही है कवि खिलखिल को जिन संकटों से बचाना चाहता है वो सब राजनीति की कोख से ही पैदा हुई है | सांप्रदायिक दंगे राजनीतिक अपसंस्कृति का ही कुपरिणाम है , नरसंहार , हत्याएं राजनीतिक घटनाएं ही है , अस्तु अजय सिंह राजनीती से कैसे बच सकतें है | रचनात्मक स्तर पर राजनीति एक ऐसा प्रश्न है जिसे लोकतंत्र की अनिवार्य दशाओं में देखा जाना चाहिए इससे कतराना आज असंभव है | अजय सिंह की कवितायें १९९५ से लेकर २०१४ तक की भारतीय राजनीति की दशा और दिशा दोनों का मूल्यांकन करती है | यदि राजनीति व्यापक जनसमुदाय के पक्ष में होती तो कवि संभव था आलोचना नही करता पर भारतीय लोकतंत्र पर प्रभावी विश्व पूँजी और उसकी सुरक्षा में तैनात सांप्रदायिक शक्तियों के अदृश्य गठबंधन को कवि ने परखा है | लोकतंत्र में विद्यमान सामन्ती तत्वों को कवि ने भुगता है | अत: अपने अस्तिव और प्रेम को बचने के लिए राजनीतिक संस्थाओं की आलोचना करना कवि के लिए जरुरी था | उसने वही किया जो उसे करना चाहिए | अजय सिंह की यह कविता इस बात का एक उदहारण है कि कविता के माध्यम से राजनीति कैसे की जाती है। जो लोग राजनीति को कलात्मकता का ह्रास करने वाला कारण मानते हैं उनको भी यह देखना चाहिए की क्या राजनीति कविता को अपनी गिरफ्त में नही ले लेती ? यह कविता जन विरोधी राजनीति के साहित्यिक सांस्कृतिक ऐतिहासिक सामाजिक सभी पक्षों की असलियत खोल कर रख देती है | राजनीति व्यक्ति के विभिन्न पक्षों को किस कदर प्रभावित करती है इस कविता में दिखा दिया गया है | राजनीति के माध्यम से जनविरोधी साजिशों को कैसे अंजाम दिया जाता है इस कविता में दिखा दिया गया है “हमें चाहिए कई विद्याविनाश मिश्र / आओ निर्मलेश्वर वर्मा उर्फ़ आखिरी जंगल / जो छद्म सेक्युलरवादियों का मुकाबला कर सके / आओ विद्याविनाश मिश्र / कई निर्मलेश्वर वर्मा उर्फ़ आखिरी जंगल / राजपथ पर स्वागत है! / यहीं से रवाना किया है / केसरिया वाहिनी को गुजरात / तुम लोग मंगला चरण गाओ / अध्यात्म.वध्यात्म मृत्यु.वृत्यु / भारतीय संस्कृति की बजबजाती महानता / वैदिक ऋछाओं में खनिज तत्त्व / की चर्चा में साहित्य को उलझाए रखो।“ ( पृष्ठ ३४) फासीवादी सत्ताधीशों के साथ साहित्यकारों के इस गढ़बंधन को देखते हुए राजनीति और कविता के अलगाव की बात करना बेमानी है | ऐसे छद्म मुखौटों की आलोचना अजय सिंह ने अपने प्रेम को बचाने के लिए की है | “राष्ट्रपति भवन में सूअर” उनकी प्रतिनिधि राजनैतिक कविता है राष्ट्रपति भवन को वो सामंती संस्कृति से जोड़कर देखते है लोकतंत्र में जानबूझकर बचाकर रखे गए इस राजतान्त्रिक अवशेष को वो सार्वजनिक कर देने की मांग करते है | इस कविता में आया सुअर शब्द तथाकथित भारतीय समाज का वह वर्ग है जिसे गन्दा एवं अछूत माना जाता है | सूअर किसी जानवर का प्रतिनिधि नही है बल्कि गरीब मैले कुचैले गंदे माने जाने वाले समुदायों का प्रतीक है जो सदियों से उपेक्षा और जलालत का शिकार रहा है | कवि चाहता है हिंदुस्तान के जितने भीं गरीब मजलूम शोषित है सबको राष्ट्र पति भवन में स्थापित कर दिया जाय और स्थापित करने के बाद वहां कवि जिस तरह व्यवस्था की कल्पना करता है वह साम्यवादी वर्गविहीन व्यवस्था से पूरी तरह मिलती है | इस कविता का मूल कथ्य है की समाज का स्वरूप वर्गविहीन हो दलितों , महिलाओं , आदिवाशियों को उनके अधिकार उपलब्ध कराएं जाएँ, निजी पूँजी का अधिग्रहण हो , सांप्रदायिक शक्तियों का प्रवेश वर्जित हो , चतुर्दिक शांति और ख़ुशी का वातावरण हो, सब आपस में प्रेम से स्वतंत्रता पूर्वक जीवन यापन करें, उनका कहना है की “ कोई माननीय महामहिम माई लार्ड न हो / बराबरी का जज्बा हो / न हो डर या ऊँच नीच / सब सह योद्धा और कामरेड हो (पृष्ठ ७७) कवि केवल राष्ट्रपति भवन की ही कल्पना नही करता अपितु इस व्यवस्था को हिंदुस्तान में लागू करना चाहता है वो कहतें है “सोचिये तब कैसा नज़ारा होगा / वह कुछ कुछ नया हिंदुस्तान होगा” ( पृष्ठ ७५) ऐसे वर्ग विहीन समाज में ही खिलखिल के प्रेम को , औरत की आबरू को , निर्दोष हत्याओं को , आम आदमी को जानलेवा खतरों से बचाया जा सकता है | हिन्दुस्तानी आवाम ( खिलखिल) के प्रति कवि का यह प्रेम बुनियादी परिवर्तनों की मांग करता है | यह परिवर्तन है व्यवस्था का | अर्थात प्रेम के लिए परिवर्तन “प्रेम जातिवाद , सम्प्रदायवाद , शोषण और उत्पीडन के खिलाफ एक विद्रोह है” अजय सिंह ने अपने कविता संग्रह राष्ट्रपति भवन में सूअर से यह साबित कर दिया है |
अब कुछ विचार अजय सिंह की भाषा के सन्दर्भ में हो जाय भाषा को उन पर कई सवाल खड़े किये गए क्योंकि उन्होंने आम काव्यभाषा की जगह एक नए तेवर और आक्रोश से युक्त भाषा गढ़ी | हालाँकि भाषाको लेकर धूमिल , काशीनाथ सिंह , डॉ रही मासूम राजा पर भी लोग सवाल उठातें है पर अजय सिंह पर आलोचक अधिक हमलावर रहे | आज का कवि आज की असंगतियों को बखूबी पहचानता है| वह समझ चुका है की आज के मनुष्य का अस्तित्व और व्यक्तित्व दोनों इस संकट की घडी में चरमरा रहे है | जब खतरे भयावह होंगे , अस्तित्व की हितचिंता होगी ,सम्पूर्ण व्यवस्था में अराज़कता का हो हल्ला होगा , आदमी अपनी रक्षा और सुरक्षा की चिंता करेगा ऐसी अवस्था में व्यक्ति के साथ उसके शब्द भी पैंतरा बदल देते हैं | शब्दों में अजीब सी हडकन और हरकत पैदा होती है | आक्रोश की गहन मुद्रा में शुचिता का ध्यान किसी व्यक्ति को नही रहता | आक्रोशित कवि अपनी जनभाषा का इस्तेमाल करता है अभिजन भाषा और जनभाषा मे अन्तर होता है । कविता मे अभिजन भाषा और जनभाषा की मात्रा का अन्तर बहुत कुछ कवि की अन्दरूनी भाषा पर निर्भर करता है । कवि सृजक के साथ साथ लोक का जीवन्त भोक्ता भी होता है । परिवेश की तमाम असंगतियां और खतरनाक साजिशों से जूझते हुए कवि अपनी अन्दरूनी भाषा निर्मित करता है । परिवेश यदि बिखरावपूर्ण हो हत्यारा हो लुटेरा हो छली हो और कवि लगातार इस परिवेश से टकरा रहा हो ।टकराव की जय पराजय, बौखलाहट, अक्रोश से युक्त हो तो स्वभाविक है वह उत्तरदायी कारणों के प्रति निर्मम होगा |वह ध्वन्श और प्रहार को हथियार बनाएगा।और अस्तित्व पर मंडरा रहे खतरों पर उसके विचार आक्रोश की पराकाष्ठ में होंगे | ऐसे मे भी यदि अभिजन की भाषायी शुचिता का ख्याल किसी कवि को आता है तो मैं यही कहूंगा कि कवि का संघर्ष छद्म है ।क्योंकी पेशेवर भाषा अन्दरूनी भाषा नही बन सकती । वर्तमान मे विश्वपूंजी ने जिस तरह से लोकतान्त्रिक संस्थाओं का अवमूल्यन किया है वह किसी से छिपा नही है । कारपोरेट नियन्त्रित सत्ता किसानों की आत्महत्या , बाजारवाद, फर्जी इन्काऊन्टर राजनैतिक गुन्डागर्दी इनके प्रति आम आदमी का आक्रोश गालियों के रूप मे ही निकलता है । डरे हुए लोग सत्ता के पक्ष मे खुद को सौंपने वाले लोग भले ही इस आक्रोश मे शुचिता का राग अलापें पर इमानदार आदमी अपने संघर्षों की कोख से उत्पन्न भाषा को ही काव्य भाषा बनाएगा । तेज़ी से अपनी प्रतिबद्धताएं बदल रहे लोगों के बीच कम से कम एक ऐसा कवि तो हुआ जिसने युगीन नरभक्षियों को उन्ही मांद में जाकर ललकारा है |कामरेड अजय सिंह के कविता संग्रह 'राष्ट्रपति भवन मे सुअर'को आलोचकों ने जिस तरह से खारिज करने की कोशिश की उसे देखकर और संग्रह को पढकर कहा जा सकता है कि या तो उन्होने संग्रह को पढा नहीं था या फिर अजय सिंह की आमफहम भाषा व कविता के लहजे से उन्होंने दो चार होने की कोशिश नही की । एकाध जगह पर गालियों और विद्रूप शब्दों के प्रयोग भर( गांड , गूं , मूत, हगना , मूतना ) से कोई कविता खारिज नही की जा सकती जब तक यह न देखा जाय कि गालियों का 'पक्ष'क्या है | परम्परागत शुचितावाद के सामन्ती नजरिए से अजय सिंह की कविता को देखना किसी आलोचक की कमजोरी है । इससे अजय सिंह की दृष्टि पर सवाल नही उठाए जा सकते | अजय सिंह की भाषा का पक्ष उनकी कविता के विषय को समझकर ही जाना जा सकता है | उन्होंने जिन संदर्भों में विद्रूप शब्दों का प्रयोग किया है उसे देखते हुए वो शब्द अपनी पूर्ण अर्थवत्ता को सार्थक करते हैं| “राष्ट्रपति भवन में सूअर” कविता की गाली और तल्खी मैला ढोने वाले समुदाय के पक्ष में दी गयी है | उनका कहना है की राष्ट्रपति भी यदि एक दिन इन समुदायों का काम अपने हाथ कर दे तो वो सर में रखे मैले के बहाव और बदबू से अपना राष्ट्रपतिपना भूल जायेगा | कवि मैला ढोने वाले समुदायोंकी पीड़ा से उपेक्षा से खिन्न है | वह उन्हें राष्ट्रपति भवन में हिस्सा देने की मांग करता है | अत: इन गलियों को कवि की कुंठा या कवित्व के रूप में न देखकर पीड़ित समुदाय के प्रति प्रेमपूर्ण संवेदना के रूप में देखना चाहिए |
अजय सिंह की काव्यभाषा उनकी संवेदना और आक्रोश को व्यक्त करने में पूर्ण सक्षम है | पर विवरण प्रधानता होने के कारण उनके कविता में आये तथ्य कभी कभी प्रवाह में बाधा उत्पन्न का देते हैं| हालाँकि विवरण प्रधानता होने से उनका कंटेंट एवं उस पर आधारित संवेदना और परिष्कृत हो जाती है पर कविता की लय ,गठन , प्रवाह में बाधा हो जाने से कविता शुष्क प्रतीत होने लगती है | इसी को काव्यत्व हीनता कहा गया पर अजय सिंह के विषय और कंटेंट को देखते हुए इसे कवि का दोष नही माना जा सकता है | ऐसे दोष आज की कविता में होना आम बात है | समय जटिल है , अनुभूतियाँ जटिल है, तो स्वाभाविक है कवि जटिलता को सरल करने में ही मेहनत करेगा न की कविता के रीतिशास्त्र पर अपना ध्यान खपायेगा | कंटेंट की सार्थकता व कहन की तल्खी को ध्यान रखते हुए ऐसी कव्यहीनता स्वीकार्य है | क्योंकि काव्यत्व का क्षय वही हुआ है जहाँ जहाँ कवि ने आक्रोश की भंगिमा अख्तियार की है | मतलब जहाँ काव्यत्व का क्षय है वहां कथ्य का निखार है | अगर कवि काव्यत्व का निखार करता तो कथ्य का क्षय होता | कथ्य की कीमत में कला को महत्व देना किसी भी विचार से उचित नही है | यही कलावाद है जो अपने आप में एक बुर्जुवा अवधारणा है | देखिये एक उदाहरण जहाँ भाषा में तडफन , विवरण प्रधानता , शुष्कता, लय विहीनता के वावजूद भी कथ्य अपनी पूरी गरिमा के साथ विद्यमान है – “हिन्दुत्ववादी गुंडे न हों / मुल्ले का अमामा न हो / फतवा ना हो / पब्लिक लायब्रेरी हो रेडियो हो /किताबो पत्रिकाओ की दुकाने हो /औरतो के लिए उनका अपना खाश कोना हो / आज़ादी हो / प्रेम रहे उन्मुक्त / न हो वर्जनाएं /अपने ढंग से जीने की चाहत “ (पृष्ठ ७६) इस विवरण प्रधानता ने कथ्य को गरिमामय ऊंचाई दी है | विवरण को तरजीह देने का प्रभाव कवि की शैली पर भी पड़ा है | विवरण देने के लिए कवि की उपस्थिति कविता में जरूरी हो जाती है इसलिए अजय सिंह की अधिकांश कवितायें उत्तम-पुरुष में है अर्थात “मैं” शैली में है | कवि जब यथार्थ का भोक्ता बनकर आता है तो वह खुद को यथार्थ से अलग करके अनुभूति को क्षीण नही करना चाहता क्योंकि अनुभूति के सम्प्रेषण में आलंबन का प्रभावशाली होना बहुत जरुरी है | इसलिए कवि इसलिए कवि बजाय काल्पनिक आलंबन के स्वयम को ही आलंबन बना देता है | इससे कविता संवादी हो जाती है | ऐसा लगने लगता है जैसे कवि पाठक से सीधे बात कर रहा हो | राष्ट्रपति भवन में सूअर संग्रह में ऐसी संवादी भंगिमाएं खूब मिलती हैं | देखिये एक कविता जिसमे कवि पाठक से मुखातिब है – “ कोई मुझसे पूछे /वह तुम्हारे लिए क्या है /मैं कहूँगा वह मेरे लिए मुक्ति है /आज़ादी की तमन्ना /खुली हवा “ (पृष्ठ ४६) नाटकीयता , संवादपरकता ,संक्षिप्तता ,से परिपूर्ण ये भंगिमाएं अजय सिंह की काव्य भाषा की जान हैं | यदि इन भंगिमाओ को हटा दिया जाय तो रहा सहा काव्यत्व भी चरमरा कर बैठ जायेगा | ऐसा नही है की अजय सिंह की कविता में काव्यत्व सिरे से गायब है | उनकी कविता में भी रीति के तत्व हैं पर जबरिया ठूंसे नही गए स्वत: आये हैं | विशेष कर जब अजय सिंह अपने प्रवाह में होते है तो संवादी भंगिमाओ के बीच बीच रूपको की झड़ी लग जाती है | रूपकों का स्वाभाविक अंदाज़ उनके कहन को और भी खूबसूरत कर देता है “ कभी उन्मुक्त झरना /कभी दहकती चट्टान /कभी प्यास / कभी तृप्ति /कभी रसीले चुम्बन /( पृष्ठ ४६) अप्रस्तुत विधानों और रूपकों का व्यंजन परक , मुहावरेदार प्रयोग हिंदी में कम ही मिलता है | अजय सिंह के अलंकारों में खास बात यह है की उनके प्रयोग कंटेंट का क्षय नही करते हैं | जितना ताप उनके विषय पर है उतना ही ताप उनके रूपकों पर है | जिस तरह उनका कथ्य दहक रहा है उसी तरह उनका शिल्प भी दहक रहा है |ऐसा भी नहीं है की उनकी हर कविता में ताप है उनकी कुछ् कवितायेँ जिनमे साम्यवादी समाज का युटोपिआइ बिम्ब आता है उनकी भाषा और लहजा देखते ही बनता है | दांडी के शब्दों में कहें तो “कोमलकान्त पदावली” के दर्शन होतें हैं पर ऐसी कवितायें कम है “वह ऐसे मिलती / जैसे धन के खेत के बगल में /अधुल का फूल अचानक दिखे /अपनी मोहक सुन्दरता / से बे परवाह / हवा में धीरे धीरे हिलता हुआ” (पृष्ठ ४६) | अजय सिंह के कविता को एकदम काव्यत्व से रहित करार देना एकपक्षीय दृष्टिकोण होगा उनकी कविता में सब कुछ है जिसे “कला” कहा जाता है |बस नही है तो केवल विशुद्ध कला नही है | अजय सिंह की कविताई और उनकी कला जानने के लिए हमें उनकी कविताओं की अवधि और उस दौरान घटी घटनाओं का भारतीय जन जीवन , राजनीति , पर पड़े प्रभावों का ज्ञान जरुरी है | समय के साथ उनकी कविता बिलकुल फिट बैठती है | यदि हम सामयिक खतरों से चतुर्दिक घिरे हों तो घिरा हुआ आदमी अपनी रक्षा में क्या लिखेगा ? संकटग्रस्त मनुष्य संकटों के खिलाफ कैसे खड़ा होगा ? भाषा की तल्खी उनके वैचारिक सरोकारों की देन है | उनकी कविता अपनी खिलखिल को बचाने की चिंता की देन है |कहतें है की “प्रेम” जातिवाद सम्प्रदायवाद शोषण और उत्पीडन के खिलाफ एक विद्रोह है । तो इस विद्रोह का कवितामय स्वरूप अजय सिंह के कविता संग्रह राष्ट्रपति भवन मे सुंअर मे देखा जा सकता है । जितना भ्रम इस संग्रह की भाषा और लहजे को लेकर उत्पन्न किया गया । जितना व्यापक विरोध शुचितावादियों द्वारा किया गया । जितनी गालियां पौराणिक पांखडियों द्वारा अजय सिंह को दी गयीं शायद किसी भी नये कवि को नहीं दी गयीं होंगी । इस संग्रह की कविताएं पढने के बाद एक बात मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि मासूम खिलखिल के वात्सल्य प्रेम को बचाने के लिए ही अजय सिंह ने इस मानीखेज संग्रह को रचा है । इस संग्रह के मूल मे प्रेम है । आक्रोश की घनेरी परतों के बीच छिपे प्रेम मे कैसे बदलाव को चिन्हित किया जाता है अजय सिंह की कविता मे देखा जा सकता है ।प्रेम का इससे सकारात्मक पक्ष कही नहीं मिलेगा |
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उमाशंकर सिंह परमार
बबेरू जनपद बाँदा
९८३८६१०७७६