मुझे यक़ीन है कि पानी यहीं से निकलेगा
गाँव भीतर गाँव
बरसों पहले ग्वालियर रेड़ियो के निदेशक ने मुझसे पूछा था, ‘ ओम जी आपकी ये कविता क्या शासन के ख़िलाफ़ है ?
मैंने कहा था, ‘ जी, नहीं ! ये कविता आज की सारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ है ।
‘ ठीक है । आप रिकार्डिंग करवा दीजिए ।
ये छोटी-सी घटना मुझे सत्यनारायण पटेल के अव्वलीन उपन्यास ‘ गाँव भीतर गाँव ’ को बाक़ायदा पढ़ाने के बाद अचानक याद आ गई कि ये मुख़ालिफ़त, ये विरोध और वो भी सारी व्यवस्था से – आख़िर कुछ लोगों के अंदर क्यों अड्डा जमा के बैठ जाता है- सत्यनारायण पटेल की तरह । इस किताब से पहले उनकी कहानियों की भी तीन किताबें आ चुकी हैं । इन में से पहली ‘ भेम का भेरू माँगता कुल्हाड़ी ईमान ’ को लेकर मैंने ऎसी ही कुछ बातें कही थीं । तब भी मैंने रेखाँकित किया था कि विरोध- जो है उसका अस्वीकार, सत्यनारायण पटेल के मनोजगत का एक स्थायी भाव है । यहाँ यह भी साफ़ होनी चाहिए कि ये विरोध क्या सिर्फ़ असन्तोष है, अपने जीवन –जगत और उसके प्रबंधन से ? अगर ऎसा है तो प्रबंधन या व्यवस्था यत्किंचित अनुकूल हो कर उस असंतोष को संतोष में तब्दील कर सकती है ।
लेकिन अगर ऎसा नहीं है तो रचनाकार के ‘ स्टेण्ड ’ पर यक़ीन करना उचित ही है, और वो भी तब जब उसकी रचना की मुख्य भाव, विचार और उसके पात्रों की कर्म धारा भी उसके साथ खड़ी हो ।
सत्यनारायण पटेल की एक और वृति पर शुरू से मेरा ध्यान है कि वह ‘ नया ’ ‘ आधुनिक’ या ‘ अद्भुत ’ नहीं होना चाहता। उसकी रचना की रगों में घुल-मिल कर बहता ग्राम्य जीवन उसे जो आन्तरिक ऊर्जा प्रदान करता उसी को वो अपने पूरे सृजनात्मक कला-कौशल के साथ शब्दों में प्रकट कर देता है ।
‘ गाँव भीतर गाँव ’ को पढ़कर इसके बारे में, न जाने क्यों, मेरे भाव-विचार किसी एक क्रम में नहीं जागते। कभी उसकी विषय वस्तु, कभी उद्देश्य आदि को छूते हुए इधर-उधर घूमते रहते हैं । जैसे, अभी मेरा ध्यान गया कि किताब का नाम कैसा है, ‘ गाँव भीतर गाँव ’ । अब लेखक से कोई कहे कि गाँव भीतर गाँव नहीं होगा तो क्या ताजमहल या सोमनाथ का मंदिर या अजमेर वाले ख़्वाजा साहब की दरगाह या कि राम लला का तंबू वाला चबूतरा होगा? लेकिन नहीं, सत्यनारायण पटेल का ये पहला उपन्यास है और लेखक एक मेहनती, ईमानदार और समर्पित कथाकार है, तो उसने यों ही तो ये नाम नहीं तय किया होगा ! यहाँ मैं रुक गया और किताब के मुखपृष्ठ को फिर देखा तो पाया कि ऊपर ‘ गाँव ’ के नीचे लिखा है ‘ भीतर गाँव ’ यानी गाँव की इस कहानी को आप पढ़ लीजिए, तो आपको देश के लगभग सभी गाँवों की सत्य कथा की जानकारी हो जाएगी। मालवा के इस एक अनाम गाँव की हक़ीक़त जान कर आप इस महादेश के तक़रीबन सभी गाँवों की असलियत जान सकते हैं कि आज देश के लगभग सभी गाँव किस तरह मरते-मरते जी रहे हैं । यह भारतीय गाँव का मुकम्मिल आइना है । मुकम्मिल चलचित्र । इसमें किसी भी गाँव की ( बहुत कम ) अच्छाइयों और ( बहुत ज़्यादा ) बुराइयों देखा जा सकता है । सभी एक समान दुःखी, निस्सहाय, मरने की राह देखते हुए जीवित रहने की जद्दोजहद करते हुए । अपने मन, विवेक, चरित्र और आत्मा को कुचलते हुए आज के भारत के सभी गाँव एक जैसा अमानवीय जीवन व्यतीत करने को विवश हैं- ये ‘ गाँव भीतर गाँव ’ के अनाम गाँव को अपने जिस्मो जाँ को पूरी तरह बेपर्दा किए हुए आप देख सकते हैं ।
मैंने ‘ गाँव भीतर गाँव ’ को देश के लगभग सभी गाँवों का आइना कहा है; तो ज़रा इस आइने की एक विचित्र त्रासदी भी देख लीजिए- ‘ वक़्त ने रख दिया आईना बना कर मुझको / रू-ब-रू होते हुए भी मैं फ़रामोश ( विस्मृत ) रहा ।’ आप जब आईने के सामने होते हैं तो ख़ुद को देखते हैं- आईने को भूल जाते हैं और यही आइने की त्रासदी है और यही तब भी होता है जब आप राजधानी से गाँवों को देखने निकलते हैं तो जो आइना आपके सामने पेश किया जाता है वो वैसा ही होता है जैसा आप चाहते हैं और उसमें वही दिखता है जो उसके सामने होता है- यानी आप , गाँव आईने के पीछे रह जाता है ।
आज के लक्ष्यभ्रष्ट, तीव्र गति और ऊबड़खाबड़ समय में वह देखना पूर्णतः निषिद्ध है जो ग़लत और गिरा हुआ है और अगर उसे कोई देखता है, उस पर उँगली उठाता है या उसका सकर्मक विरोध करता है तो पहले तो उसे चींटा मान कर लालच का गुड़ दिखाया जाता है और अंततः मच्छर मानकर मसल दिया जाता है।
मैं कई सालों से सत्यनारायण पटेल को लिखते-पढ़ते देख रहा हूँ। अभी तक उसकी कहानियाँ मेरे ज़ायके में आती रही और अब ये उपन्यास आया है जो कथा-रचना की सारी बुनियादी शर्तों को जाने-अनजाने निभाता हुआ अपने शाब्दिक शरीर के अन्दर भी कितना गतिशील और कड़क है- इसका अनुभव तो इसके वाचन से ही प्राप्त हो सकता।
सत्यनारायण पटेल का यह उपन्यास ‘ गाँव भीतर गाँव ’ निराला और नागार्जुन के ठोस उपन्यासों का आधुनिक संशोधित और परिष्कृत संस्करण कहा जा सकता है ।
कथा-कहानी या उपन्यास की पहली शर्त है उसकी चित्ताकर्षकता कि वो पाठक को शुरू से ही पकड़ ले कि पाठक मुतवातिर बेचैन रहे कि आगे क्या ? गोकि कथा-कहानी की ये शर्त बड़ी पुरानी है, लेकिन कारगर आज भी है कि हमारे पिता का नाम और पद बहुत पुराना है लेकिन कारगर आज भी है। हिन्दी-उर्दू के जिन बुज़ुर्ग कथाकारों को पढ़कर हम कुछ सीख-समझकर बड़े हुए हैं, उनमें से किसी ने भी इस शर्त की अनदेखी नहीं की। मैं साधुवाद देता हूँ सत्यनारायण को कि उसने इसे पूरी शिद्दत के साथ निभाया।
पुरखों का ये वचन – जो पुरानी किताबों में सुरक्षित है कि कहानी किसी भी देश-काल में किसी भी दशा में अंततः कहने की कला ’ है और वह भी ‘कला’ तब जब उसका स्रोता इस शाम से अगली सुबह तक उदग्र और उत्कर्ण बैठा रहे। ‘गाँव भीतर गाँव’ का पूरा वजूद इस बात का प्रमाण है कि लेखक ने पुरखों के इस वचन का सांगोपाँग निर्वाह किया है ।
मेरी नज़र में अदबी चीज़ें दो तरह से अस्तित्व में आती हैं। पहली लिखकर और दूसरी रचकर। लिखना केवल शब्दों की उचित और आकर्षक क्रमबद्धता से होता है । यह थोड़ी बहुत कल्पना ज़रा-सी अपनी सोच और तक्नीकी मदद से भी मुमकिन है। लेकिन रचना में ज़रूरी चीज़ें तो रहती हैं, लेकिन उनका देश-काल, विषय-वस्तु, उपकरण, संदेश और रचना क्रम की कालिक स्वतंत्रता भी होती है। ‘ रचना ’ के लिए कोई नियम-विधान नहीं है, जबकि लिखना बहुत कुछ हुनर, कौशल, क्राफ़्ट के नज़्दीक होता है। ‘रचना’ को ‘भावनाओं का अप्रतिहत प्रवाह’ भी कहा गया है । ऎसी स्थिति में ‘गाँव भीतर गाँव’ पर जब फिर नज़र डालते हैं तो यह आश्वस्ति सहज ही मिल जाती है कि इस कथा को सही अर्थों में ‘रचा’ गया है।
बीते वक़्तों हमारी अम्माओं के द्वारा घर की किसी विशेष दीवार पर डेढ़-दो हफ़्ते पहले ‘रचना’ शुरू की गई ‘ करवाचौथ’ के नक़्श अगले साल की करवाचौथ तक तो दीवार ही पर रहते थे- थोड़े धुँदले ही सही- लेकिन वे ‘ लिखने’ आने वाली कई पीढ़ियों की अम्मीओं के ह्रदय पटल पर लिख नहीं रच जाते थे। ‘ गाँव भीतर गाँव’ सत्यनारायण पटेल ने ‘ लिखा ’ तो दो-एक ही जगह है, रचा बड़े मन से पूरा उपन्यास है ।
‘गाँव भीतर गाँव’ मेरे ख़याल से विगत कई दशकों से चली आई कदाचार के कोढ़ से ग्रस्त समाज-व्यवस्था को वैयक्तिक और सामूहिक प्रयासों से बदलने या ‘ ठीक’ करने की प्रमाणिक और जीवित कथा-रचना है।
यह हो गया है या लेखक ने सायास किया है कि आज जब हर कौने-अँतरे से नारी-अस्मिता और स्वतंत्रता और नारी सशक्तिकरण की आवाज़े उठ रही हैं और इन्हीं आवाज़ों के शोर में आज जब नारी का सर्वाधिक दैहिक, सामाजिक, आर्थिक और नैतिक क़त्लेआम किया जा रहा है तब सत्यनारायण पटेल ने अपने उपन्यास में एक दलित, निरीह, विधवा और निर्धन स्त्री झब्बू को रचना के केन्द्र में रखा है।
अपनी पुरानी किताबों में हर युवा नारी को उस युग की कृत्या शक्ति बताया गया है कि उस युग की सारी घटनाएँ उसी से उत्पन्न होकर अंततः उसी में विलीन हो जाती हैं। लिखा है कि सतयुग की रेणुका, त्रेता की सीता और द्वापर की द्रौपदी कृत्या शक्ति थीं। इस हिसाब से जो भी युग ‘गाँव भीतर गाँव’ में है, उसकी कृत्या शक्ति झब्बू है- एक दलित, विधवा, निरीह शोषित और निर्धन औरत कि उपन्यास की सारी घटनाएँ उसे से निस्सृत होकर अंततः उसी में विलीन हो जाती हैं ।
झब्बू का पति कैलास हम्माल है। गाँव की सोसायटी के लिए ज़िला मुख्यालय से खाद की बोरियाँ लाते हुए ट्रैक्टर ट्रॉली पलट जाने से बोरियों के नीचे दब कर मर जाता है और बाकी रह जाती है उसकी पत्नी झब्बू और पुत्री रोशनी। ऎसी हालत में पास के शहर से झब्बू के बूढ़े माँ-बाप अपनी बेटी और नातिन को अपने साथ ले जाते हैं। कुछ महीने झब्बू मायके में रहती है। वहीं की उसकी सखी की मदद से वह कपड़े सिलने का काम अच्छी तरह सीख लेती है और अपने माँ-बाप पर ज़ोर डाल कर वापस अपने ससुराल आकर अपना झोपड़ा आबाद कर लेती है।
झब्बू की निजी सोच यह है कि जहाँ मेरा ‘बिगाड़’ हुआ है- मैं वहीं अपना और अपनी बेटी का ‘बनाव’ करूँगी। और ये ‘ सोच’ भी क्या- एक ज़िद है-हठ और भी ‘त्रिया हठ’ । लेकिन यही एक सवाल भी सर उठाता है लो एक दलित, ग़रीब, बेसहारा और अकेली ग्रामीण स्त्री की ‘ त्रिया हठ’ के फली भूत होने की क्या थोड़ी भी सम्भावना आज के इस अतिप्राचीन सँस्कृति वाले जगद गुरू रहे महादेश में सम्भव है ? ‘ गाँव भीतर गाँव’ का रचनाकार कहता है- नहीं। आज के भारतीय समाज में नारी-स्वातंत्र्य और सशक्तिकरण की जितनी और जहाँ से भी आवाज़े उठ रही हैं, उससे कहीं ज़्यादा नारी को हर स्तर पर अपमानित किया जा रहा है और एक राजनैतिक दुरभिसंधि के अन्तर्गत जिस अनुपात में सामाजिक कदाचरण बढ़ते जा रहे हैं, उसी अनुपात में पंचायत से लगायत लोक-सभा तक में उनके विरुद्ध ऊँची से ऊँची आवाज़ में भाषण दिए जा रहे हैं और आज ‘ ग़लत’ और ‘सही’ बड़े आराम से ख़रामा-ख़रामा किसी एक ही ठण्डी सड़क पर टहलकर कट रहे हैं ।
सत्यनारारायण पटेल की अब तक कथा-रचनाओं से ये तो सिद्ध हो गया है कि वह कोई ‘ बाय द वे ’ कहानीकार नहीं है । उसका अपना कमिटमेंट है- समाज के प्रति और अपने भी प्रति। ऎसी स्थिति में उसके कथा-पात्र शहीद तो हो सकते हैं, लेकिन हताश होकर या उठ कर एक तरफ़ बैठ जाना उनके लिएू असम्भव प्राय है। उसकी कथा-नायिका झब्बू जितनी उसमें बची है- अपनी अंतःशक्ति- को समेटती है और गाँव की अपनी जैसी निरीह और दलित औरतों को अपने इर्द-गिर्द इकट्ठा करती है- सिर्फ़ जीवित बने रहने के लिए संघर्ष हेतु। झब्बू का सोचना है कि ‘ इस बस्ती में मेरे जैसे भी होंगे दो-चार आदमी / जीवन से बेज़ार ऊबे हुए आदमी, जीने को तय्यार आदमी। जो लोग उपलब्ध जीवन से प्रतिपल बेचैन और असंतुष्ट होते हैं, लेकिन फिर भी ज़िन्दा रहने के लिए रात-दिन सँघर्ष करते रहते हैं, ऎसे लोग वे कहीं भी हों- एक सुप्त ज्वालामुखी होते हैं। कभी भी फट पड़े। और सत्यनारायण की इस कथाकृति में ऎसा ही होता है ।
झब्बू अपनी जैसी ही दो-चार ‘ ज़िन्दा ’ औरतों के सहयोग से गाँव के बीचोंबीच खुली दबंग जाम सिंह की कलारी हटवा देती हैं। यानी अत्याचार सहने के विरुद्ध उठ खड़े होने और डटे रहने की मारक शक्ति में तब्दील कर लेती है। रामरति आदि को समझा कर हाथों से पाखानों की सफ़ाई के पारम्परिक जातिगत पेशे को बंद करवा देती है। झब्बू अपने धीरज और हिम्मत के अलावा अपनी जैसी निस्सहाय औरतों के सहयोग से गाँव में इतना बदलाव ला देती है कि पड़ौसी ज़िला मुख्यालय से सामाजिक, नैतिक, आर्थिक और राजनैतिक कदाचरण में पूर्णतः दीक्षित जाम सिंह, अर्जुन, गणपत, शुक्ला जी और दुबे मास्टर भी ठिठक कर विचार करने लगते हैं कि इस अधम औरत से कैसे पार पाएँ ?
शहरों का दस शीश और बीस भुजाओं वाला कदाचरण किस तरह गाँवों में संक्रमित में होता है- सत्यनारायण ने उसकी सूक्ष्मता को बड़े कौशल से उजागर किया है। ये उपन्यास आज के भारतीय समाज की एक अनिवार्य त्रासदी की बड़े जीवंत और रोचक ढंग से उजागर करता है, और वो त्रासदी है भारतीय गाँवों की निजी और विशिष्ट जीवन शैली का क्षरण उसके एकमएक सामाजिक शरीर में पड़ती हुई दरारें ।
कई सालों से हो ये रहा है कि शहर की बदकारियाँ गाँव के कुछ सवर्ण-समर्थ लोगों द्वारा इधर लाई जाकर गाँव के दीन-हीन दलितों, शोषितों के ज़िस्मों में बचे रह गए ख़ून को चूसने में लागू की जा रही हैं। इसमें भी विडम्बना ये है कि ऎसे कुकृत्यों में कुछ दीन-हीन भी शामिल रहते हैं । नहीं रहें तो भूखे मर जाएँ। झब्बू का सीमांतक शरीर शोषण आख़िर जाम सिंह के कहने पर उसके हम्माल ही तो करते हैं ।
सालों-साल से अभावों से जूझता और रुढ़ियों को ढोता गाँव जब पड़ौसी शहर की संगत में आता है तो जैसे करेला नीम चढ़ जाता है। कुछ तो गाँव की अपनी रितियों-रुढ़ियों का पारम्परिक कड़वापन था ही, और अब तो शहर की लम्पटता धोखा धड़ी, हिंसा, पुलिस, कचहरी, वकील, गवाह सबूत आदि ग्रामीण समाज को ‘ सत्यनाश ’ से धकेल कर साढ़े सत्यानाश में ठेल देती हैं। ये भूखे, नंगे गाँव अंततः असहाय शारीरिक और मानसिक पीड़ा से पराजित हो कर पेट भरे सफ़ेद कपड़े वालों के शिकंजे में फँस ही जाते हैं और भूख, बीमारी, या आत्महत्या से मरने तक मुक्त नहीं हो पाते और उत्तर काण्ड में यह होता है कि उनके झोपड़े में जो जीव या वस्तु उनके बाद शेष रह जाती है, वह भी उन्हीं सफ़ेदपोशों की सम्पति बन जाती है । और ये सामाजिक अनुक्रमणिका सदियों से आज तक बदस्तूर उसी तरह चल रही है; गोकि हमारे देश और बाहरी मुल्कों में कई भीमकाय क्रांतिकारी चिंतक हुए, किसी एक सामाजिक हित को लक्ष्य बनाकर जीवन भर ख़ुद की… .. ख़र्च करते रहे और एक दिन अंततः चले गए । जब तक को रहे कुछ होता हुआ सा लगा- सिर्फ़ लगा। बाद में उनके चरण चिन्ह शायद किसी बियाबान वनखण्ड में ही छिपे रहे होंगे।
बुद्ध, महावीर, गोरखनाथ, कबीर, गाँधी, गोखले, दयानन्द, सुभाष, नेहरू, इन्दिरा, लोहिया, जेपी, वीपी सिंह- किसने कोशिश नहीं की इस देश को सही, सहज और सरल, सीधा बनाने की- विनोबा तो अपनी पूर्णाहुति दे गए। लेकिन इस देश के चेहरे का एक भी नक़्श बदला ! हाँ, बदला कि आँख, नाक, कान और ज़ुबान पूर्णतः अमानवीय हो गए ।
चुनाव होते रहे। नतीजे आते रहे । जनता तरह-तरह के स्वाँग-तमाशे देखती रही और मन ही मन में कहती रही- अभिशापित भूमि। यहाँ कभी कुछ नहीं होगा। चाहे जितने दधीच। अस्थि-बीज बो जाए।’’
ये एक नज़रिया है जिससे आज के भारतीय समाज को कुछ लोग देखते हैं। लेकिन सिर्फ़ यही नहीं है। एक नज़रिया और है- ‘वतन की रेत मुझे एड़ियाँ रगड़ने दे । मुझे यक़ीन है पानी यहीं से निकलेगा । ‘‘ यानी यहीं ’’ से पानी निकालने की ज़िद पर अड़े लोग भी अभी यहाँ हैं।
मुझे थोड़ा आश्चर्य होता है कि सत्यनारायण पटेल जैसा प्रतिबद्ध लेखक जहाँ एक और झब्बू जैसी दलित, शोषित परिवर्तन के प्रतीक रूप में तय्यार करता है, वहीं उसे ख़ुद को बनाए और बचाए रखने की सामंजस्य कला भी सिखा देता है। यह बात मेरे गले नहीं उतरती। इन्किलाबी तो पूरा बदलाव लाता है या शहीद हो जाता है, जैसा कि अंततः झब्बू के साथ किया या हो जाता है कि पड़ौसी महानगर से लौटते वक़्त गाँव की सीमा पर ही उसकी गाड़ी को ट्रक से उड़ा देता है। इस तीन सौ बीस पृष्ठ के उपन्यास में आज के भारतीय गाँव के जितने पहलू पृष्ठ दर पृष्ठ खुलते जाते हैं, उन्हें उनकी पूरी शक़्लो-सूरत और ख़ूबियों के साथ देख पाना एक विचलित कर देने वाला अनुभव हो सकता है।
आज के भारतीय गाँवों में जो अच्छा ( कम ) और बुरा ( ज़्यादा ) सक्रिय है वो सिर्फ़ गाँव का नहीं, राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में से ही है। मेरा ख़याल है कि ‘ भारत-भारती ’ के कवि मैथिली शरण गुप्त इन दिनों जिस भी लोक में होंगे कम से कम अपनी ‘‘ ग्राम्य-जीवन’’ कविता पर तो अवश्य शर्मिन्दा होंगे- ‘‘ अहा, ग्राम्य जीवन भी क्या है, क्यों न इसे सबका मन चाहे। थोड़े में निर्वाह यहाँ है.. यहाँ शहर की बात नहीं है। अपनी-अपनी घात नहीं है…।
आज का भारतीय गाँव केवल अपनी रुढ़ियों, परंपराओं और निरीहता से ही परेशान और दुखी नहीं है, शहरों की कतिपय बदकारियाँ, मक्कारियाँ भी दबे क़दमों गाँवों में दाखिल हो रही। हो चुकी हैं और इन में सब से सफल और सुशोभित अय्यारी है- एनजीओ।
एक एनजीओ कर्मी रफीक़ भाई, जब अख़बार में ख़बर पढ़ता है कि अमुक गाँव में कुछ औरतों ने एकमत हो शराब की दुकान बंद करा दी है और गाँव में बेचैनी और ग़ुस्सा है। बस, इतना बहुत है। रफीक़ भाई उस गाँव पहुँच जाता है। उन दलित स्त्रियों से मिलता है, उनकी हिम्मत की दाद देता है। उनके साथ ज़मीन में बैठ कर चाय पीता है। उन्हें गाँधी, मार्क्स, अंबेडकर आदि के क्रांतिकारी वचन सुनाता है। गाँव में हाथ से मैला साफ़ करने की चली आ रही परंपरा पर बात करता है । उन अपढ़, किन्तु बदलाव के लिए बेचैन औरतों को अपनी समझ बनाने में मदद करता है। उन्हें अपने एनजीओ ‘ सम्मान ’ के बारे में बताता है। औरतें रफीक़ भाई को अपना सबसे बड़ा हितैषी मानने लगती हैं। अब रफीक़ भाई जल्दी-जल्दी गाँव आने लगता है। रामरति, झब्बू, धापू, श्यामू आदि को रैलियों में ले जाने लगता है। फिर अपने एनजीओ ‘सम्मान’ और उन औरतों की मदद से उनके गाँव में भी सिर पर मैला ढोने के काम को बंद करने की बात उठती है। रामरति, झब्बू और रफीक़ भाई आदि की मदद से बंद भी कराया जाता है।
रफीक़ भाई का एनजीओ धीरे-धीरे काफी नाम कमाता है। रफीक़ भाई को तमाम देशी-विदेशी फंडिंग एजेन्सियों से फंड मिलता है। वह अपने काम को विस्तार भी देता रहता है। उसकी व्यस्तता बढ़ती है। अनेक वजह से उसका गाँव आना भी कम होता जाता है। झब्बू, रामरति, श्यामू आदि जहाँ जैसी थीं, वैसी ही रहती हैं। अपनी छोटी-बड़ी समस्याओं से जूझती। ख़ुद को माँझती।
अँग्रेज़ों की सल्तनत ख़त्म हुए अड़सठ साल हो गए, हमें आज़ाद हुए-तो शायद ये देखना मुनासिब ही होगा इस लम्बे अर्से में इस स्वतंत्र राष्ट्र में क्या कुछ और हुआ, जो तब नहीं था।
हुआ-बहुत कुछ हुआ- भौतिक स्तर पर जैसे सड़कें कारख़ाने, पुल, वाहन, स्कूल, कॉलेज, अंतरिक्ष विग्यान में बढ़ोतरी, संचार तंत्र की प्रगति-लेकिन इस सबके होते हुए भी क्या आज तक उन अधिसंख्य भारतीय को पीने का पानी, दो वक़्त का खाना, सर पर छत न सही छप्पर और तन ढाँकने को दो कपड़े मयस्सर हो सके कि जो पुस्तैनी बदहालत में आज भी जैसे-तैसे जी रहे हैं लेकिन देश के लिए खेत जोत-बो रहे हैं, कारख़ानों में मशीन बन कर लगे हुए हैं, सड़कें, पुल, रेल लाइन, बस अड्डे से हवाई अड्डा तक बना रहे हैं-यानी वे देश का सब कुछ बना रहे हैं, सिवा ख़ुद को ‘ बनाने ’ के। तो जब वे अपनी सारी अन्तर्बाहय शक्ति देश को बनाने में लगाए दे रहे हैं तो उनकी अन्तर्बाहय शक्ति को बनाए रखने के लिए हमें- आपको एक तरफ़ करके बृम्हा, विष्णु, महेश तो आएँगे नहीं ?
सत्यनारायण पटेल का ये उपन्यास आज के भारतीय गाँव का इतना शर्मनाक और जुगुप्साजनक चित्र प्रस्तुत करता है, जितना जाम सिंह के हम्मालों ने एक साथ अकेली झब्बू के शरीर को नौच-खसोट कर किया। और यही एक मात्र सत्य है कि गुज़रे अड़सठ सालों से देश के छोटे, बड़े, मझोले सभी नागरिक और नेता अच्छी-अच्छी बातें लगातार कर रहे हैं, लेकिन कहीं कुछ भी अच्छा घटित नहीं हो रहा और यहाँ-वहाँ कभी कुछ जनानुकुल हो भी जाता है तो सिर्फ़ ‘ चार दिन की चाँदनी ’ के मुहावरे के तहत। ऎसी दशा में यदि कोई कथाकार ‘ जो है ’ वो लिखना चाहता है- अपनी पूरी सृजनात्मक ईमानदारी के साथ, अपनी मिट्टी, अपनी भाषा-बोली की गँध के साथ, अपनी सँस्कृति, अपने देशज रंग के साथ, तो बहुत कुछ सत्यनारायण पटेल की तरह ही लिखेगा- अपनी वैयक्तिता को सुरक्षित रखता हुआ।
हमारे देश के जिन गाँवों ने राजनीति और प्रशासन को अपने गाँव के सीवान से ही वापस लौटा दिया है, वो तो कभी-कभी पुच्छल तारे की तरह या टीवी या अख़बार के पहले पन्ने पर चमक जाते हैं, जब कि जो गाँव ‘ राष्ट्र की मुख्य धारा ’ से जुड़ गए हैं उन गाँवों से वे ही फ़ौजदारी और दीवानी मामलात की ख़बरे आती हैं जो महानगर की अपनी शान हैं । अब यहाँ चिंता का विषय यह है कि मरते हुए असली गाँवों को शहरों की सँस्कारविहीन, ईट-ट्रिंक एण्ड बी मैरी वाली सोच-समझ से कैसे बचाया जाए ?
लगता है ऎसे ही ज़िन्दा और धड़कते हुए सवालों के समाधान स्वरूप सत्यनारायण ने अपने उपन्यास में एक पारम्परिक सर्वहारा स्त्री झब्बू को खड़ा किया है और ऎसा करना उसकी प्रतिबद्ध दृष्टि का प्रमाण है, वरना बड़ा सरल था कि अभिजात्य वर्ग की स्त्री या पुरुष को समाजोद्धार से देशोद्धार के मसीहा के रूप में प्रस्तुत करना। सत्यनारायण पटेल का यह पहला उपन्यास अपने कथानक, संदेश देश-काल, चरित्र भाषा और उद्देश्य की दृष्टि से मुझे पूर्ण आश्वस्तत तो करता ही है, शायद विचलित उससे ज़्यादा ।
इतने सब के बाद भी इस किताब में कुछ ऎसी तस्वीरें हैं जो सब जगह हैं मगर नज़रों या ध्यान से ओझल हैं क्योंकि वे हमारे स्वार्थी जीवन-जगत से थोड़ा परे है।
ग़रीब परवर बन कर दौलत पटेल चार छः दिन पहले विधवा हुई झब्बू के झोपड़े पर जाता है उसकी मदद करने। झब्बू का झोपड़ा एक बहुत बूढ़े नीम के पास था। दो-तीन बार आवाज़ देने पर भी जब झब्बू बाहर नहीं आती तो दौलत पटेल का मूड बिगड़ने लगता है- तभी उसे अपने कंधे पर एक ‘पट्ट’ की हल्की आवाज़ सुनाई देती है। ‘पट्ट’ की आवाज़ के साथ गर्दन पर हल्के छींटे भी महसूस होते हैं- जैसे आवाज़ बिखरी हो। पटेल ने अपने कंधे पर देखा और फिर ऊपर डाल पर । वहाँ एक कौआ बैठा काँव-काँव कर रहा था। पटेल को एक पल के लिए लगा कि कौआ काँव-काँव नहीं आँऊ-आँऊ कर रहा है। कौए की बगल वाली डाल पर बैठा मोर, पटेल और कौए की लाग-डाँट देख हँसने लगा। उसके सामने की डाल पर बैठी दो गिलहरियाँ दौड़ने-फुदकने लगी। वे अपनी चीं चीं और काँव-काँव से अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर रही थी जबकि दौलत पटेल को लग रहा था कि उसके ग़रीबनवाज़ होने का मज़ाक उड़ाया जा रहा है। पटेल की बगल में खड़े उनके चमचे को कौए का दुस्साहस बहुत नाग़वार गुज़रा । उसने एक पत्थर उठा कर ज़ोर से कौए की तरफ़ फैंका। कौआ दूसरी डाल पर जा बैठा। गिलहरियाँ ताली बज़ाने लगीं। तभी पत्थर डाल से टकराया- भट्ट। एक गिलहरी बाल-बाल बची। पत्थर के टकराने से डाल हल्की सी काँपी। पत्थर पलटा और तेज़ी से नीचे की ओर आया और पटेल की दाहिनी तरफ़ खड़े उनके चमचे की कोहनी में आ लगा-‘कट्ट’ अब देखिए कि ये तस्वीर मज़ेदार भी है और मानीख़ेज भी। इसकी मज़ेदारी तो साफ़ है ही जबकि अपने अर्थों में ये एक सम्पन्न व्यक्ति द्वारा एक विपन्न स्त्री की बची-खुची इज़्ज़त, दीनता और निरीहता को कुछ रुपयों की चमक में और कुचल-मसल देना भी है.., और परिन्दे, गिलहरी इसके ख़िलाफ़ हैं।
इस उपन्यास में ऎसे सुख और दुःख भरे कई दृश्य हैं, जिनमें गाँव वालों के साथ पँछी-परेवा भी उतने ही दुःखी-सुखी होते दिखाई देते हैं। उपन्यास में जग्गा भी एक अद्भुत चरित्र है। बहुत ही धीरजवान ! और जब उसके दामाद, पत्नी और बेटे की हत्या हो जाती है। उसके बाद तो लगभग मौन ही रहता है। एक विक्षिप्त की सी छवि बन जाती है। सुख-दुःख हो ! या उससे कोई बात पूछो ! हर मौक़े-बेमौक़े नाचने लगता ! अपनी कमर में एक खूँटा बाँधे रखता। जब तब खूँटे को नुकिला बनाता रहता ! लेकिन जब वह मसान में खूँटा जाम सिंह के पेट में घोंप देता है, और घोंपने के बाद नाचने लगता है। यह एक दबंग, संपन्न और शोषक व्यक्ति के विरुद्ध एक निरीह, विपन्न और दलित का मौलिक प्रतिशोध है- अंतिम प्रहार ।
और उपन्यास की एक और पात्र है रोशनी। झब्बू की बेटी। झब्बू की और दबे-कुचलों की उम्मीद। विद्रोही चेतना से भरी। मंत्री ने अपने पद-पैसे का दुरुपयोग कर, उसे साजिश से जेल भिजवा दिया। लेकिन गाँव वाले भी जानते हैं, और मंत्री भी कि रोशनी ज़िन्दगी भर जेल के अँधेरे में नहीं रहेगी। वह अँधेरे को चीर बाहर आएगी। वह हर दबे-छुपे अँधेरे कोनों तक पहुँचेगी। सत्ता के छल, छद्म और पूँजी के खेल से नकाब खींच लेगी। रोशनी से यह उम्मीद, उसके मामा, राधली, और पीछे छुटे दबे-कुचलों की पूरी पलटन को है।
उपन्यास ‘ गाँव भीतर गाँव ’ एक ऎसा आख्यान है, जिसे पाठक एक बार पढ़ना शुरू करे, तो फिर वह चाहकर भी छोड़ नहीं सकता। उपन्यास में क़िस्से दर क़िस्से पाठक को अपने साथ बहाते ही जाते हैं। उपन्यास की भाषा बहुत ही जीवंत है। वाक्यों के भीतर, दो लाइनों के बीच कविता जैसा स्वाद महसूस होता है। लेकिन जब अर्थ पाठक के मन में खुलता-घुलता है, तो पाठक बेचैन हो उठता है। सड़ी-गली व्यवस्था के प्रति उसके मन में ग़ुस्सा पैदा होता है। लेकिन भाषा की ही ताक़त है कि उसके ग़ुस्से को बेकाबू नहीं होने देती है, और उसे पृष्ठ दर पृष्ठ बहाती ले जाती है। भाषा मालवा की संस्कृति, बोली की महक़ से पगी है। और नये-नये मुहावरों से, लोकोक्ति से, भजन से उसका परिचय कराती है।
अंत में इतना ही कहूँगा कि मुझे तो उपन्यासकार की भेदी दृष्टि और बेहद रचनात्मक संवेदनशीलता ही सक्रिय लगती है। गाँव वालों के साथ पँछियों की ऎसी आस कि मैंने कहीं अन्यत्र देखी नहीं। इस किताब को पढ़कर यह तो बख़ुबी जाहिद हो जाता है कि इसका लेखक अपनी रचना की अन्दरुनी और बाहरी देह से इतना अधिक सम्प्रक्त, उस पर इतना अधिक आसक्त है कि दोनों में भेद करना असम्भवप्राय है। बकौल महाकवि जयदेव, ‘‘ अनुखन माधव माधव रटइल, राधा भेलि मधाइ। ’’ लगभग यही दशा सत्यनारायण पटेल और उनके पहले उपन्यास ‘‘ गाँव भीतर गाँव ’’ की है ।
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