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अमित श्रीवास्तव की दो कविताएं

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इस दुनिया में रात भर जागती है कोई स्त्री
इसी दुनिया में कोई कोई पागल प्रेम कर बैठता है

सरल, लगभग अभिधात्मक दीखते वाक्यों के बीच भाषा जीवन के बिम्ब बनाती है तो कविता में एक अलग हूक उभरती है। अमित का कवि आजकल ऐसी ही किसी हूक के बीच छपटपटा रहा है। अतिपदत्व की आशंका भी उसे राह से विचलित नहीं करती। हठ सरीखी हूक और हठ सरीखी ही एक भाषा के साथ वह ऐसे इलाक़े में है जहां धूप में पत्तियां गर्म नहीं होतीं/चुपचाप सिर झुकाकर/विलगा लेतीं खुद को..... यह बेबसी अनायास ही उस संसार का पता देती है, जो अब सरल से जटिल हुआ जाता है -  इस जटिलता को ऐसी ही अकस्मात् सरलता में संभव किया जा सकता है।

मित्रताएं, प्रेम, अकेलापनऔर बहुत तपाक से कही गई लगती कई बातें यहां हैं, किन्तु उतना ही ख़ामोश करवटें बदलता एक भीतरी जगत भी है, जिसे समझा जाना हमेशा बाक़ी ही रहा है। कहीं कुछ चरमराने-टूटने की आवाज़ आती है तो आप न देखते हुए भी एक वृक्ष को टूटते देखते हैं – समूचे संसार और उसके अवयवों से हर ओर ऐसी ही आवाज़ें आएं तो आप क्या समझेंगे... गिरती हुई संरचनाओं को थामने जो हाथ आगे बढ़ते हैं, कवि के हाथ हैं .... किसी टूटन को समूचा प्रकट कर देने के बीच ही कहीं उसे थाम भी लेना कवि का काम है – इस मायने में अमित बहुत समर्थ कवि है ..... बहुत दिन बाद अमित की कविताएं अनुनाद को मिली हैं, संयोग ही कहिए कि बहुत दिन अनुनाद पर कोई पोस्ट लग रही है।
***
फिर फिर गुएर्निका

फ्रेंड फॉलोवर एन्ड लाइक

इस दुनिया में

अक्सर
इसका तर्जुमा इतना भर होता
कि वो होता है
क्या होना इतना ही आसान है होना
मैं पूछता हूँ और अतिपदत्व का दोषी हो  जाता हूँ

मेरा होना व्यक्त होना भी है
मैं प्रेम के अतिरेक में थूक देता हूँ
वो घृणा की हद पर जाकर चूम लेता
अनुभूति के सघनतम क्षणों में
इस तरह दोनों ही
स्किज़ोफ्रेनिया के पीड़ित कहलाते

इसी दुनिया में
प्रेम पाने की न्यूनतम योग्यता
न्यूनतम मनुष्य होने की कसौटी से हटाकर
कुछ प्रश्नों के आतुर जवाबों के पीछे छिपा दी गयी है
प्रश्नों में रक्त चाप से सम्बंधित सवाल ज़्यादा हैं
घृणा के बारे में न्यूनतम शर्त कुछ नहीं
आदमी दिखना बस एक बहाना है
पशु हो जाने का

वैसे तो सबकुछ कहा जा चुका
लेकिन अभी अभी कहा गया कुछ
अभी अभी सुना गया है यहां

कहा गया कि तस्वीर के पीछे पहेली वही है
कहा गया कि तस्वीर के हिज्जे वही हैं
सुना गया कि तस्वीर वही है
होने न होने के बीच
पसन्द नापसन्द का झीना पर्दा है
कुछ इशारों की दूरी है
जो अक्सर उतना ही कहती है
सुना ज़्यादा जाता है

कभी किसी इजलास में
भाषा को जब कटघरे में खींचा जाएगा
कौन तय करेगा इशारों की जवाबदेही
गो कि मनुष्यता के सरलतम दांव पेंच में 
फैसला मुश्किल होगा

इस दुनिया में
पर्दे के ऊपर का नीला उजाला
पीछे की अँधेरी धूप से रोशन है
ऐसा कहना इतिहास को प्रेयसी की नज़र से देखना है
धूप में पत्तियां गर्म नहीं होतीं
चुपचाप सिर झुकाकर
विलगा लेतीं खुद को
मियाद पूरी होने के बाद
क्यों तुम्हारे ख़त गुलाबी न रहे
इसलिए क्या कि ख़ाक से रिश्ता टूट गया

इसी दुनिया में मगध सज गया है
द्वारिका बस गयी है
हड़प्पा की अधटूटी मूर्ति  
फिर दफनाई गयी है अभी अभी
समझ नहीं आता यहां घर हैं या चौसर

अपनी उड़ान स्थगित कर दी है पंछियो ने
हमेशा हमेशा के लिए
उन्होंने उड़ते हुए कुछ मगर देखे हैं
इस दुनिया में एक टुकड़ा ज़मीन के लिए
कई घरों का आसमान उधार पर है
इसी दुनिया में हवाएं रुख़ बदलती हैं तो
पानी रंगत छोड़ देता है
इस दुनिया में जलकर भी
प्यास नहीं बुझती
राख से उठती है फिर उड़ने लगती है पंख फड़फड़ाते

ये दुनिया अब भी इसी दुनिया में है
इस दुनिया में इसी दुनिया की
मुकम्मल आवाजाही है 
यही दुनियादारी है

इस दुनिया में रात भर जागती है कोई स्त्री
इसी दुनिया में कोई कोई पागल प्रेम कर बैठता है
***
 
आधा दरिया आधा ख़ाक


कांटे की तरह चुभने लगे 'वो'शब्द
चुन चुन कर निकाले
.......
लहरा रहा गूंगापन
दबे हुए कण्ठ से
अब बोलना मुश्किल लगता है
देखो मैंने मुश्किल कहा ना
लंगड़ी भाषा में
बिना गिरे चलना मुश्किल है
दौड़कर कैसे आऊंगा पास तुम्हारे
कैसे जताऊंगा अपना प्रेम

मैंने किताबें जलाईं 'उनकी'
फैज़ मोमिन ग़ालिब
अरे उफ़ हाय
आधे तो प्रेमचन्द ही जल गए
प्यास के किनारे सूखे होठ
राख से बिखर गए
इस मुए गुलज़ार का क्या करूँ

कटोरियाँ पांच लगाईं
खाली रह गईं तीन
अब भूख से कुलबुलाते
स्वाद से बेजान
दस्तरखान
लपेटकर उठ गया हूँ

कानों को थोड़ा कष्ट हो शायद
अहम् सन्तुष्ट
इसलिए कुछ रागनियां छाँट कर अलग कीं
कुछ भजन रख दिए परे
कुछ घराने अलगाए
वाद्य यन्त्र तो फोड़ ही दिए 'उनके'दिए
नृत्य मुद्राओं से छीन लीं सारी गतियां
इश्क़ मजाज़ी से इश्क़ हक़ीक़ी तक
चौंसठ पड़ाव थे
इतने ही घाव दिए
अपाहिज हुई कला के साथ
सम्राट सा व्यवहार नहीं
सीमा पार से घुसपैठिये आतंकियों
सा व्यवहार किया
अब आलाप में गर्म शीशे सा पड़ता हूँ

मैंने खारिज की नींद आज की
वापिस किया खर्राटों को सिरहाने से खाली हाथ
मुझे 'उनके'बुने नर्म गलीचों से घिन थी
छत को भेद कर बाहिर जाना चाहती थीं नज़रें
ये छत उनके शागिर्दों ने बिछाई थी
मैं रात भर जागता रहा
ये पूरे जीवन की अनिद्रा की शुरुआत थी
सभ्यता के इतिहास में
मैं बेघर हुआ था अभी अभी

उतार कर रख दिए सब लिबास
जिस्म से खाल सी नोच ली
बदबू आती थी उनमें
जिनपर छापे थे 'उनके'
अब नंगा घूमता हूँ
सभ्यता की दहलीज़ के आर पार

आग हवा पानी मिट्टी और आसमान
सबको काटा आधा आधा
आधा उनका आधा मेरा
आधी सांस आधी हिचकी का अनुवाद
पूरी पूरी मौत हुआ मगर
इस तरह जो जतन किये
ख़ुद को अलगाने के
वो अंततः
खुद को ही विसराने के मानी बने

'उन्हें'खरोंच कर निकलता हूँ बार बार
बार बार 'वो'मुझमें उग आते हैं
इस उगने और निकलने के बीच
पहचान के सारे रास्ते बन्द हो जाते
मैं नहीं रह जाता कतई मैं

सच कहूँ तो
मैं भूखा रहना नहीं चाहता
मैं नंगा रहना नहीं चाहता
मैं गूंगा रहना नहीं चाहता
मैं इस तरह मरना नहीं चाहता
मैं बस इतना भर 'वो'होना चाहता
कि मैं 'मैं'रह सकूं

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