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दस नई कविताएँ : पंकज चतुर्वेदी

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पंकज समर्थ आलोचक और प्रिय कवि हैं। अनुनाद की स्थापना से ही उनका इस पत्रिका से गहरा लगाव रहा है। अनुनाद के पन्नों पर उनकी कविताएं अौर लम्बे आलोचनात्मक लेख सहेजे हमनें और उन पर हुई स्वस्थ लम्बी बहसें भी। इधर पंकज की दस नई कविताएं हमें उपहार की तरह मिली हैं। मैं इन कविताओं पर कोई टिप्पणी नहीं लगा रहा हूं, उसे बचा रखा है कहीं और विस्तार से लिखने के लिए। 
अनुनाद इन कविताओं के लिए आपको शुक्रिया कहता है पंकज, साथ जन्मदिन की मुूबारकबाद भी।  


1
और सुंदर

तुम अनन्य सुंदर हो
प्यार तुम्हें और सुंदर करेगा

जैसे नीम है हरा कोई रंग नहीं है हरा
जैसे गुलाब है लाल कोई रंग नहीं है लाल

जैसे प्रकृति का व्यवहार
इनमें और
रंग भरेगा

प्यार तुम्हें
और सुंदर करेगा

2

आज मैंने

आज मैंने तुम्हें देखा
तो पहले कहाँ देखा था
यह ध्यान नहीं कर पाया
जीवन एक निर्जन प्रतीक्षा-सा लगा
क्योंकि न जाने कब से
तुम्हें नहीं देखा

आज देखा तो लगा
कि देखता ही रहूँ
पर यह संभव नहीं हुआ

रौशनी उमड़ती हुई जाती थी मुझसे दूर कहीं
और वह मुझे जानती भी तो न थी

3
सफ़र

खन्ना बंजारी और व्यौहारी
किन्हीं व्यक्तियों के
नाम या विशेषण नहीं
कटनी और सिंगरौली के बीच पड़नेवाले
रेलवे स्टेशन हैं
मुमकिन है ऐसे व्यक्ति कभी रहे हों
जगहें जिन्हें याद करती हैं

इसी तरह जुगमंदिर और वीर भारत
व्यक्ति हैं
किसी इमारत या मुल्क की
विशेषता बताते

वस्तुओं और व्यक्तियों का
एक-दूसरे में ढलता और बदलता
यह सफ़र है जि़ंदगी

आप किसी से मिलते हैं
तो कहीं पहुँचते हैं
और जहाँ पहुँचते हैं
वहाँ फिर किसी से मिलना चाहते हैं

4
दादी

दादी की मुझे इतनी भी याद नहीं है
कि घर के एल्बम में उनकी छवि से उसका
मिलान कर सकूँ

मैं बहुत छोटा था जब वे नहीं रहीं
गाँव से बहुत दूर शहर के
एक टी.बी. अस्पताल में

माँ ने बताया
कि वे बार-बार कहती थीं:
भैया को मैं देखना चाहती हूँ

जि़ंदगी के आखि़री तीन महीने
उन्होंने बिताये अस्पताल में
पर उनसे मुझे मिलवाया नहीं गया

घर के लोग उनके रोग की
संक्रामकता को जानते थे
पर जीवन, जो उनसे छूट रहा था
उसके क़रीब आने की
उनकी कोशिश को
नहीं जानते थे

5
प्रश्न

मैं उस शहर को जा रहा हूँ
जहाँ मैं नौकरी करता था
मैं उस शहर से आ रहा हूँ
जहाँ मैं नौकरी करता हूँ

भागती हुई ट्रेन में
उसने मुझसे पूछा:
आपका घर कहाँ है?

मैंने कहा:
गाँव में

इसके पहले कि मैं बताता
वह किस जि़ले का
कौन-सा गाँव है

सहसा एक प्रश्न
मुझे चुप कर गया:
घर वह मेरे जानने को
रह गया है
मानने को
मुझे क्या करना चाहिए?

6
आस्था

बचपन में स्कूल से लौटकर घर आता 
तो कभी-कभी माँ नहीं मिलती 
सामने चाचा के घर में जाकर पूछता 
तो छोटी दादी मेरी परेशानी से 
प्रसन्न होकर कहतीं :
माँ तुम्हारी चली गयी 
किसी के साथ 
मैं अचरज में पड़ जाता :
कैसे चली गयी ?
''सड़क पर जो बस आती है 
उसमें बैठकर''
मगर माँ आस-पड़ोस में कहीं गयी होती 
थोड़ी देर बाद मिल जाती 

मेरे इस एहसास को 
सत्यापित करती हुई 
कि माँ कहीं जा नहीं सकती 
इस तरह आस्था मुझे मिली 
माँ से 

7
समयांतर
                    
बरसों पहले अपने एक रिश्तेदार से मिलने 
उनकी दुकान पर जाता था 
तो वे प्रायः कभी नहीं मिलते थे 
पर दुकान खुली रहती थी 
तब मेरा एक सपना यह था 
कि मैं एक दुकान खोलूँगा 
और उसमें मिलूँगा नहीं 
कितना अखंड विश्वास है इसमें 
अपने समाज पर 
कि सामान चोरी होगा नहीं 
और बैठे रहने से वह बिकेगा नहीं 
और कुछ बिक भी गया तो 
उसकी उम्मीद में बैठे रहना 
बेवक़ूफ़ी है 
तब यह नहीं पता था 
कि एक ऐसा समय आयेगा 
जब दुकानें जो चलेंगी नहीं 
बंद हो जायेंगी 

8
खनक
                    
जब मैंने उससे कहा :
आपने सत्ता बदलने के साथ ही 
अपने विचार बदल लिये 
उसने जवाब दिया :
ऐसा नहीं है 
और अगर ऐसा है भी तो 
मुझमें एक नज़रिये पर 
क़ायम रह सकने का 
विवेक नहीं है 
और ऐसी निष्ठा भी नहीं है 
मगर यह कहते हुए 
उसके स्वर में 
किसी अभाव की कसक नहीं 
बल्कि एक अभिमान की खनक थी 
कि देखो, नीचे मैं गिरा हूँ 
ऊँचा उठने के लिए 

9
मैं जागते रहना चाहता था 

मैं जागते रहना चाहता था 
इसलिए सोना 
मुझे अनिवार्य था 
अगर कुछ नहीं हो सका 
दुख का निदान 
तो सोना सुख था 
जब बहुत ज़्यादा 
यथार्थ हो जाता था 
तो सोना न होना था 
जो उसे संतुलित करता था 

10
नियंता कहते हैं
  
क्रिकेट में अगर 
अपने विकेट की रक्षा की 
पात्रता नहीं है 
तो बल्लेबाज़ को---------
चाहे वह कितना ही महान हो---------
मैदान छोड़कर जाना होगा 
कोई क्षमा नहीं है 
यही नियम लोकतंत्र का है 
पर उसके नियंता कहते हैं 
कि क्रिकेट का है
***
पता: हिन्दी विभाग, डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय,
सागर (म.प्र. )-470003
मोबा. 09425614005


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