इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में हिन्दी में जिन महत्वपूर्ण कथाकारों की आमद हुई है, प्रचण्ड प्रवीर उनमें बेहद ख़ास और अलग नाम है। वे क़िस्सागोई के साथ आलोचना के कुछ उपेक्षित क्षेत्रों में भी सक्रिय हैं। सिनेमा पर उनकी पुस्तक चर्चित रही है। अनुनाद को बाल साहित्य पर उनका यह सुचिंतित लेख हासिल हुआ है। जबकि बाल साहित्य/कविता पर चर्चा होनी लगभग बंद ही हो गई है, प्रचण्ड प्रवीर ने इस इलाक़े में सार्थक और अनिवार्य हस्तक्षेप किया है। इस हस्तक्षेप के लिए अनुनाद लेखक का आभारी है।
थक जाते थे हम कलियाँ चुनते !
[यह आलेख बहुत सी चिन्ताओं का समन्वय है, जिसमें मूल समस्याओं का उत्स निबन्धकार बाल साहित्य की अक्षम्य अनदेखी और निष्काम कर्तव्य निर्वाहन की अरुचि में पाता है। ]
साहित्य में चिन्ताएँ और साहित्य की चिन्ताएँ
पिछले साल हमारी मुलाकात एक साहब से हुयी थी। जनाब उम्दा लेख लिखा करते थे और अवारा मसीहा जैसे नज़र आते थे। कनॉट प्लेस में नमकीन लाइम सोडा पीते हुए अपनी सहेलियों से घिरे होने के बावजूद उन्होंने एक ऐसी बात कही जो उनकी समझ से बड़ी संजीदा थी। उन्होंने फरमाया कि साहित्य पढ़ने-पढ़ाने का क्या फायदा? साहित्य में पीएचडी कर लेने पर भी कोई उम्दा कवि नहीं बन सकता। उनकी बात उनकी सहेलियों ने पसन्द की। बाद में उन्होंने औरों को भी यही सुनाया-पढ़ाया।
इस आपत्ति में एक मूलभूत गलती है कि साहित्य का अध्ययन ‘भावयित्री प्रतिभा’ को पुष्ट करने के लिए कुछ हद तक जिम्मेदार माना जा सकता है, किन्तु साहित्य में शोध की दिशा सामाजिक संरचनाओं को, नयी साहित्य की चुनौतियों को समझने के लिए होती है। यह और बात है कि यह भी अधिकांश शोधार्थी नहीं कर पाते हैं। पर यह तो पक्की बात है कि साहित्य का विद्यार्थी होने के कारण उसमें ‘कारयित्री प्रतिभा’ हो जाए,यह विरले संयोग की बात होगी। आमतौर पर ऐसा नहीं होता, न ही पाठ्यक्रम इस तरह से बनाए जाते हैं कि विद्यार्थी उत्तम ‘भावक’ या ‘कवि’ बन कर निकलें। साहित्य के विद्यार्थी का अधिक से अधिक वितान आलोचना का आकाश ही हो सकता है, जो कि समीक्षा के मैदान से अधिक फैला है।
दूसरी बात जो जनाब ने कही थी, जो मुझे माकूल भी लगी वह यह कि आज की हिन्दी कविता का स्वर शिकायत का अधिक है, जिस तरह आजकल की अधिकतर उर्दू ग़ज़लें महबूब की शबनमीं आँखों और सुर्ख रूखसार तक रुकी हुयी है।
मुकम्मल सवाल है कि आदमी शिकायत क्यों न करे?
लेकिन इस सवाल की तह में जाते हैं कि आदमी शिकायत क्यों कर रहा है? क्या वजहें हैं?
इसके बहुत दिलचस्प जवाब मिलते हैं। मसलन, समाज में बुरा हो रहा है। दुनिया में अंधेर है। राजनैतिक पार्टियों ने देश को डुबो दिया है। इतना खराब समय कभी न आया था। हम इतने अच्छे कवि हैं हमें कोई पूछ नहीं रहा है। हमारा मूल्यांकन नहीं हो रहा है। हमें साहित्य अकादमी नहीं दिया जा रहा है। वेबीनार पर प्रमुख कवियों में हमारा नाम नहीं लिया जा रहा है।
मुकम्मल सवाल है कि आदमी शिकायत क्यों न करे?
लेकिन इस सवाल की तह में जाते हैं कि आदमी शिकायत क्यों कर रहा है? क्या वजहें हैं?
इसके बहुत दिलचस्प जवाब मिलते हैं। मसलन, समाज में बुरा हो रहा है। दुनिया में अंधेर है। राजनैतिक पार्टियों ने देश को डुबो दिया है। इतना खराब समय कभी न आया था। हम इतने अच्छे कवि हैं हमें कोई पूछ नहीं रहा है। हमारा मूल्यांकन नहीं हो रहा है। हमें साहित्य अकादमी नहीं दिया जा रहा है। वेबीनार पर प्रमुख कवियों में हमारा नाम नहीं लिया जा रहा है।
शिकायतें दो तरह की हो जाती हैं। पहली – दुनिया जहान की शिकायत। इसमें पड़ोसियों से ले कर अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प की आदतों तक जिक्र किया जा सकता है। दूसरी – अपने ग़मों की शिकायत। हर शिकायत का एक ही मजमून होता है कि हम कुछ चाहते थे जो हमारे हिसाब से नहीं हो रहा है। कई शिकायतें सही भी होती हैं और कई गलत भी। यह हिन्दी कविता का स्वर हो जाय तो निश्चय ही कविता का बहरहाल एकांगी और जड़ है। मैं समझता हूँ कि इस जड़ता को तोड़ना चाहिए। इसका एक ही उपाय है आत्मचिन्तन और पुनर्मूल्यांकन। इस बिन्दु पर मैं फिर आऊँगा।
आज के साहित्य विमर्श का फैशन है, हाशियों की ही बात करना। कोई बुराई नहीं है कि दबे-कुचले, और हाशियों पर पड़े लोग को चिन्तन केन्द्र पर लाना। इसे फैशन कहने का तात्पर्य यह है कि यह चिन्ता नपुंसक प्रतीत होती है इस तरह कि नारेबाजी और धरनेबाजी तक खुद को सीमित कर लिया जाय। उससे आगे की चुनौतियों की समझ हम में शायद नहीं है या उस उच्च कोटि का विमर्श हम करना नहीं चाहते क्योंकि हमारी तैयारी नहीं है। अपनी धारणाओं को ले कर इतनी निश्चिंतता है कि विरोधियों को हम देखना नहीं चाहते, संवाद तो बहुत दूर की बात है। हमें याद करना चाहिए कि आज से सौ साल पहले भारत की स्थिति कहीं अधिक विकट थी। हम आर्थिक और सामाजिक रूप से बहुत पिछड़े थे, पर शायद नैतिक रूप से बहुत उन्नत थे, क्योंकि विरोधियों से संवाद की परम्परा हमेशा थी। गांधी जी श्रीमद्भगवद्गीता के उस आदर्श पर चलते थे जिसमें प्रिय और अप्रिय से व्यवहार में भेद नहीं करते।
बाल साहित्य
उपरोक्त चिन्ताओं के साथ ही मैं समझता हूँ कि हिन्दी साहित्य का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग आज हाशिये पर पड़ा है। वह है बाल-साहित्य! शोधार्थियों को छोड़ दें, और एक आम हिन्दी के लेखक-कवि-पाठक से पूछा जाय कि क्या आपको दस शिशुगीत, दस सुन्दर हिन्दी बाल कविताएँ याद है, जो मूलत: हिन्दी में लिखे गये हों? क्या आप उसे अपने बच्चों को सुनाते हैं? हिन्दी साहित्य संसार में इसका क्या जवाब आएगा इसकी आप सहज ही कल्पना कर सकते हैं। इसी प्रश्न को आप थोड़ा और घुमा कर पूछिए। हिन्दी के दस प्रसिद्ध बाल साहित्यकारों के नाम बता दें, और हिन्दी के दस समकालीन युवा कवियों के नाम बता दें। जाहिर है दूसरे सवाल के जवाब में लोग आपको सौ कवियों की सूची थमा देंगे। सोशल मीडिया पर पाँच बेहतरीन कवियों को टैग करके जानकारी देंगे। किन्तु सवाल के पहले हिस्से यानी बाल-साहित्यकारों को हमने केवल ‘चौदह नवम्बर : बाल दिवस’ के लिए रख छोड़ा है।
बाल साहित्य
उपरोक्त चिन्ताओं के साथ ही मैं समझता हूँ कि हिन्दी साहित्य का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग आज हाशिये पर पड़ा है। वह है बाल-साहित्य! शोधार्थियों को छोड़ दें, और एक आम हिन्दी के लेखक-कवि-पाठक से पूछा जाय कि क्या आपको दस शिशुगीत, दस सुन्दर हिन्दी बाल कविताएँ याद है, जो मूलत: हिन्दी में लिखे गये हों? क्या आप उसे अपने बच्चों को सुनाते हैं? हिन्दी साहित्य संसार में इसका क्या जवाब आएगा इसकी आप सहज ही कल्पना कर सकते हैं। इसी प्रश्न को आप थोड़ा और घुमा कर पूछिए। हिन्दी के दस प्रसिद्ध बाल साहित्यकारों के नाम बता दें, और हिन्दी के दस समकालीन युवा कवियों के नाम बता दें। जाहिर है दूसरे सवाल के जवाब में लोग आपको सौ कवियों की सूची थमा देंगे। सोशल मीडिया पर पाँच बेहतरीन कवियों को टैग करके जानकारी देंगे। किन्तु सवाल के पहले हिस्से यानी बाल-साहित्यकारों को हमने केवल ‘चौदह नवम्बर : बाल दिवस’ के लिए रख छोड़ा है।
इसका कारण क्या है? बहुत बड़ा कारण है कि हमारा संकुचित ज्ञान। अव्वल हम जानते ही नहीं कि हिन्दी बाल कविता कितनी समृद्ध रही है। हमें इनके बेहतर प्रतिमानों से कोई बावस्ता नहीं है। निम्नलिखित तीन मानक संग्रह हिन्दी के बेहतरीन बाल कविताओं के लिए संजोने लायक हैं :
· 1. बाल पत्रिका ‘पराग’ के सम्पादक रह चुके हरिकृष्ण देवसरे (१९४०-२०१३) द्वारा सम्पादित – बच्चों की
सौ कविताएँ
· 2.बाल पत्रिका ‘नंदन’ के सम्पादक रह चुके जयप्रकाश भारती (१९३६-२००५) द्वारा सम्पादित – हिन्दी
की श्रेष्ठ बाल कविताएँ
· 3. कृष्ण शलभ(१९४५-२०१७) द्वारा सम्पादित – बचपन एक समंदर
क्या उपरोक्त किताबें देश की हर विश्वविद्यालय की हिन्दी पुस्तकालय में उपलब्ध है? अगर सारी नहीं, किन्तु पाँच प्रतिशत हिन्दी विभागों ने भी बाल साहित्य को अपने साहित्यिक विमर्श में जगह दी है तो मेरा आलेख व्यर्थ ही समझा जाय और मेरी बातें प्रलाप! क्या हिन्दी के अध्यापक, प्राध्यापक, साहित्य समाज, हिन्दी बाल साहित्य को समाज मे समावेशित करने के लिए बाल साहित्य की परम्परा से परिचित हैं? क्या समकालीन हिन्दी बाल साहित्य केवल कुछ पत्रिकाओं तक सीमित है? यह भी छोड़िए, हिन्दी के कोरोना काल के वेबीनार संग्राम में कमर कसने वाले, फलाना-ढिमका-चिलाना पुरस्कार पाने और न पाने वाले, बड़े-छोटे, वैचारिक और क्रान्तिकारी कवियों ने कितनी बाल कविताएँ लिखी हैं या इस पर गर्व महसूस किया है कि वह भाषा को मानव विकास यात्रा के महत्त्वपूर्ण अंग में कोई सार्थक योगदान कर सके हैं?
यह बात पुन: रेखांकित करने की आवश्यकता है कि इस गौरवशाली परम्परा में हिन्दी के अधिकतर बड़े कवियों ने बच्चों के लिए समर्थ कविताएँ लिखी हैं, जिनमें कुछ इस तरह से हैं:
· श्रीधर पाठक, अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, रामधारी सिंह दिनकर, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, हरिवंश राय बच्चन, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, प्रभाकर माचवे, भवानीप्रसाद मिश्र, भारतभूषण अग्रवाल, रघुवीर सहाय, त्रिलोचन, प्रयाग शुक्ल, विनोद कुमार शुक्ल, रमेश चन्द्र शाह, राजेश जोशी, प्रभात आदि।
जब हम बाल कविताओं के शिखर व्यक्तित्व से जुड़ते हैं, तब हमें सच्ची चुनौतियों का पता चलता है। हिन्दी में ऐसे कई बहुत अच्छे कवि हुए जिनके काम को आज कोई न पूछ रहा है, न जान रहा है। मेरा यह दावा है कि कुछ बाल कविताओं के सामने हमारी समकालीन वयस्कों की बहुचर्चित कविताएँ पानी भरती नज़र आएँगी। यहाँ पर मैं उन कवियों का स्मरण करना चाह रहा हूँ जिनके बाल साहित्य कर्म ने उनके अन्य कामों पर पर्दा डाल दिया, या वे खुद भी बाल साहित्य तक सीमित हो कर बाल साहित्य में अविस्मरणीय योगदान दिया है :
· सोहनलाल द्विवेदी, द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी, निरंकार देव सेवक, विद्याविभूषण विभु, सभामोहन अवधिया ‘स्वर्णसहोदर’, विद्यावती कोकिल, आरसी प्रसाद सिंह, भूप नारायण दीक्षित, फिल्म अभिनेत्री कामिनी कौशल, दामोदर अग्रवाल, शेरजंग गर्ग, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, कन्हैयालाल मत्त, चन्द्रपालसिंह यादव ‘मयंक’, रमेश तैलंग, दिविक रमेश, योगेन्द्र दत्त शर्मा, हरीश निगम, पद्मा चौगाँवकर, शकुन्तला कालरा, उषा यादव, रंजना अग्रवाल आदि।
हिन्दी का बाल साहित्य बहुत से पत्रिकाओं, छोटे काव्य-संग्रहों और किताबों में फैला हुआ है। इस विस्तृत हिन्दी बाल साहित्य का लेखा-जोखा रखने के लिए हम प्रकाश मनु (जन्म १९५०) के आभारी हैं। आदरणीय प्रकाश मनु की निम्न पुस्तकें हिन्दी बाल साहित्य के बारे में बहुत कुछ बताती है
·
हिन्दी बाल कविता का इतिहास (२००३)
· हिन्दी बाल साहित्य के शिखर व्यक्तित्व (२०१३)
· हिन्दी बाल साहित्य: नयी चुनौतियाँ और सम्भावनाएँ (२०१४)
· हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास (२०१८)
अपनी नवीन पुस्तक ‘हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास’ में प्रकाश मनु कहते हैं: - “... बच्चों को स्वस्थ मनोरंजन देने की सामाजिक जिम्मेदारी में हमने अक्षम्य लापरवाही बरती है। हमने उन्हें ऐसे सीरियलों के भरोसे छोड़ रखा है, जिनमें हिंसा, मारकाट और लुच्चई है। रंगों की उलटियों से भरा ऐसा संसार, जिसमें कहीं घर और कॉरपोरेट जगत के झगड़े हैं, कहीं सेक्स और बदले की उत्तेजना से जुड़ी हुयी हिंसा और षड्यंत्र हैं, कहीं विघटित परिवारों की दुनिया के झगड़े और तनाव हैं। बच्चे चाहे-अनचाहे ऐसे सीरियल देखने को अभिशप्त हैं, जो उन्हें शरीर और मन दोनों से ‘बीमार’ बना रहे हैं।“
प्रकाश मनु हिन्दी बाल कविता की यात्रा का काल विभाजन तीन खण्डों में करते हैं
1. प्रारम्भिक युग – १९०० से १९४७
2. गौरव युग – १९४७ से १९८०
3. विकास धारा – १९८० से अब तक
प्रकाश मनु यह रेखांकित करते हैं कि प्रारम्भिक युग में हिन्दी बाल कविता का मुख स्वर उपदेशात्मक और चरित्र निर्माण तक था। गौरव युग में बाल साहित्य का सृजनात्मक उपलब्धियों का चरम था जहाँ कल्पना और भाव विन्यास ही नहीं, परम्परा और समसामयिक युगबोध का विलक्षण तालमेल था। विकास युग में कवियों ने बच्चों की विवशताएँ, लाचारी, मानसिक उद्वेलन को प्रमुखता दी है।
कुछ कविताएँ
इन कविताओं के विषय में अधिक कहना या इनकी व्याख्या में पड़ना बहुत लाभप्रद न होगा। इसलिए नहीं कि यह सुलभता से बोधगम्य है, बल्कि इसलिए कि यह सहज और सुन्दर हैं जिन्हें अधिक इशारा देने की किसी आलोचक के टॉर्चलाइट की ज़रूरत नहीं है। इन कविताओं पर ध्यान देते हैं और इनसे पुन: स्मरण करते हैं कि सौ साल का हिन्दी बाल साहित्य कितना समृद्ध और उन्नत है।
एक बूँद
ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर फिर यही मन में लगी
आह क्यों घर छोड़ कर मैं यों बढ़ी।
दैव मेरे भाग्य में है क्या बदा
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में
या जलूँगी गिर अंगारे पर किसी
चू पड़ूँगी या कमल के फूल में।
बह गई उस काल कुछ ऐसी हवा
वह समुंदर ओर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी।
लोग यों ही हैं झिझकते सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किंतु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ ओर ही देता है कर।
- अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ (१८६५-१९४७)
नंदू की छींक
आई एक छींक नंदू को,
एक रोज वह इतना छींका,
इतना छींका, इतना छींका,
इतना छींका, इतना छींका,
सब पत्ते गिर गए पेड़ के
धोखा उन्हें हुआ आँधी का।
- राम नरेश त्रिपाठी (१८८९-१९६२)
हिमालय
खड़ा हिमालय बता रहा है
डरो न आँधी पानी में,
खड़े रहो अपने पथ पर
सब कठिनाई तूफानी में!
डिगो न अपने प्रण से तो ––
सब कुछ पा सकते हो प्यारे!
तुम भी ऊँचे हो सकते हो
छू सकते नभ के तारे!!
अचल रहा जो अपने पथ पर
लाख मुसीबत आने में,
मिली सफलता जग में उसको
जीने में मर जाने में!
- सोहन लाल द्विवेदी (१९०६-१९८८)
अगर मगर
अगर मगर दो भाई थे,
लड़ते खूब लड़ाई थे।
अगर मगर से छोटा था,
मगर अगर से खोटा था।
अगर मगर कुछ कहता था,
मगर नहीं चुप रहता था।
बोल बीच में पड़ता था,
और अगर से लड़ता था।
अगर एक दिन झल्लाया,
गुस्से में भरकर आया।
और मगर पर टूट पड़ा,
हुई खूब गुत्थम-गुत्था।
छिड़ा महाभारत भारी,
गिरीं मेज-कुर्सी सारी।
माँ यह सुनकर घबराई,
बेलन ले बाहर आई!
दोनों के दो-दो जड़कर,
अलग दिए कर अगर-मगर।
खबरदार जो कभी लड़े,
बंद करो यह सब झगड़े।
एक ओर था अगर पड़ा,
मगर दूसरी ओर खड़ा।
- निरंकार देव सेवक (१९१९-१९९४), साभार: बालसखा, मई, 1946, 169
एक शहर है चिकमंगलूर
यहाँ बहुत से हैं लंगूर
एक बार जब मियाँ गफूर
खाने गए वहाँ अंगूर
बिल्ली एक निकल आई
वह तो थी उनकी ताई
कान पकड़ कर पटकी दी
जै हो बिल्ली माई की।
- निरंकार देव सेवक (१९१९-१९९४),
सैर सपाटा
कलकत्ते से दम दम आए,
बाबू जी के हम-दम आए!
हम वर्षा में झम-झम आए,
बर्फी, पेड़े, चमचम लाए!
खाते-पीते पहुँचे पटना,
पूछो मत पटना की घटना!
पथ पर गुब्बारे का फटना,
ताँगे से बेलाग उलटना!
पटना से हम पहुँचे राँची,
राँची में मन-मीरा नाची!
सबने अपनी किस्मत जाँची,
देश-देश की पोथी बाँची!
राँची से आए हम टाटा,
सौ-सौ मन का लोहा काटा!
मिला नहीं जब चावल-आटा
भूल गए हम सैर-सपाटा!
- आरसी प्रसाद सिंह (१९११-१९९६), साभार: नंदन, जुलाई 1994, 32
रंग-रंग का खाना
आज रात बिस्तर में लेटे
सोचा मैंने ध्यान लगाकर,
कितने रंग की चीजें खाईं
मैंने दिन भर मँगा-मँगाकर।
श्वेत रंग का दूध पिया था,
पीला मक्खन साथ लिया था।
फिर थे लाल संतरे खाए,
रंग-बिरंगे सेब चबाए।
आइसक्रीम गुलाबी चाटी,
भूरी चाकलेट भी काटी।
पेट भरा था हरी मटर से,
और लाल-लाल गाजर से।
मैंने इतना सब था खाया,
पेट अचानक फटने आया।
अगर कहीं सचमुच जाता फट,
इंद्रधनुष बाहर आता झट!
- कामिनी कौशल (जन्म १९२७)
कितनी अच्छी कितनी प्यारी
सब पशुओं में न्यारी गाय,
सारा दूध हमें दे देती
आओ इसे पिला दें चाय।
- शेरजंग गर्ग (जन्म १९३७)
हमारी समस्याएँ
हिन्दी के अधिकांश बाल साहित्यकर्मी मुख्यधारा विमर्श से उपेक्षित हैं। इस उपेक्षा का कारण भी विचित्र लगता है। वह है इसे जानबूझ कर हाशिये पर डाल देना। एक विचार यह भी आता है कि बच्चों की कविताएँ केवल बच्चों को लिखनी चाहिए। बच्चों का साहित्य बच्चों द्वारा लिखा होना चाहिए। एक एनजीओ ऐसा कर भी रही हैं। देखा जाय तो यह उसी बात का विस्तार है कि दलित कविताएँ केवल दलित लिखें, नारी विमर्श केवल नारी, प्रवासी विमर्श केवल प्रवासी। कहने का आशय यह है कि विषय मिलते ही पहला काम उसे कुछ ऐसी जातिवाचक संज्ञा देना जिससे कुछ बातें थोपी जा सकें, भले ही विषय अपने मूल स्वरूप में कितना कुछ हो।
ऐसे संज्ञापरक विमर्श में समस्या है कि आप किसी से संवाद नहीं कर सकते। क्योंकि बच्चे से बात करने के लिए आपको बच्चा होना होगा, स्त्री से बात करने के लिए आपको स्त्री होना होगा, युवा से बात करने के लिए आपको युवा होना होगा (यह सबसे सरल है क्योंकि हिन्दी सभी चिरयुवा हैं), पुरस्कृत से बात करने ने लिए पुरस्कृत होना होगा (यह भी आसान ही है!) आदि आदि। लेकिन यह बात हम भूल जाते हैं कि इन जातिपरक संज्ञा के मूल में सामाजिक चित्त हैं जो भाषा और संस्कार अपने अर्थों मे गढ़ता है और हम संवाद कर पाते हैं। हम इस तरह किसी कोरियाई, अफ्रीकी से अनजाने में टकरा जाएँ जो हमारी भाषा न समझता हो और हम उनकी भाषा न समझते हों, तब भी हम इतना तो जानते हैं कि मनुष्य होने के नाते उसे भी भूख-प्यास लगेगी, अच्छा बुरा, मान सम्मान की उसकी अपनी समझ होगी भले ही वह समझ हम सुगमता से सम्प्रेषित न कर पाएँ।
ऐसे संज्ञापरक विभाजन का परिणाम है कि हमने अपने को बहुत बड़ा और वैचारिक समझ कर बाल साहित्य को हाशिये पर डाल रखा है। वह कुछ शोध का काम बन गया है। न हम बच्चों की तरह निश्चलता से अपनी कविताओं में हँसते हैं, न प्रफ्फुलित होते हैं।
मैं समझता हूँ हर कवि को सही अर्थों में मनुष्य होना चाहिए। मनुष्य की पहचान है सुख-दु:ख का संवेदन। उसके विकास की चरम अवस्था है कि वह सुख-दु:ख के संवेदन को अपने अन्त:करण में जड़े न जमाने दे। एक परिपक्व और सच्चे मनुष्य की पहचान है बच्चों जैसी निश्चलता। हम अगर यह संवेदन खो चुके हैं तो निश्चित ही मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं हैं। अपने एकांत में ही सही, उड़ते फिरते रहें तितली बन के। वे दिन आज से बहुत अधिक अलग नहीं - वहाँ फिरते थे हम फूलों में पड़े, जहाँ ढूँढते सब हमें छोटे बड़े, थक जाते थे हम कलियाँ चुनते!
अगर शिकायत यह है कि बाल कविताएँ की जान तुकबंदी में अटकी है, तो आइए बदलिए। आपको लगता है कि बच्चों की कहानियाँ पंचतंत्र की छाया से मुक्त नहीं हो पाई हैं और आपको यह नहीं पसन्द आता; अगर आपकी आपत्ति इसमें है कि ‘सिण्डरेला’ और ‘स्नो वह्वाइट’ की कहानियाँ बाल मन पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही है, तो सभी कवियों-लेखको से अनुरोध है कि इसे विधा पर ध्यान दीजिए। इसके लिए आपको कोई पुरस्कार न मिले, लेकिन यही किसी भी सृजनात्मक व्यक्तित्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती है कि वे स्वयं को सिद्ध करें। और यह स्वीकार करने में हमें संकोच नहीं होना चाहिए कि अधिकतर नामचीन हस्तियों की न इसमें रुचि है, न कोई सरोकार। हमारा संकोच ही हमारा पाखण्ड है कि हम समकालीन चुनौतियों की कलियाँ चुनते-चुनते इतने थक चुके हैं कि अब सुस्ता के सोशल मीडिया पर सस्ता विमर्श कर के दिन गुजार रहे हें।
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prachand@prachandpraveer.com
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