Quantcast
Channel: अनुनाद
Viewing all articles
Browse latest Browse all 208

बृजेश नीरज के कुछ नवगीत

$
0
0

बहुत पहले रोहित रूसिया के कुछ नवगीत अनुनाद पर छपे थे। आज प्रस्तुत हैं जनवादी लेखक संघ से जुड़े कार्यकर्ता बृजेश नीरज के नवगीत।
***
हाकिम निवाले देंगे

गाँव-नगर में हुई मुनादी
हाकिम आज निवाले देंगे

चूल्हे अपनी राख झाड़ते
बासन सारे चमक रहे हैं
हरियाई सी एक लता है
फूल कहीं पर महक रहे हैं

मासूमों को पता नहीं है
वादे और हवाले देंगे

सूख गयी आशा की खेती
घर-आँगन अँधियारा बोती
छप्पर से भी फूस झर रहा
द्वार खड़ी कुतिया है रोती

जिन आँखों की ज्योति गई है
उनको आज दियाले देंगे

सर्द हवाएँ देह खँगालें
तपन सूर्य की माँस जारती
गुदड़ी में लिपटी रातें भी
इस मन को बस आह बाँटती

आस भरे पसरे हाथों को 
मस्जिद और शिवाले देंगे
***

लालसा कनेर कोई  

दायरों के
इस घने से संकुचन में
अब कहाँ वह
नीम या कनेर कोई
जेठ से तपते हुए
ये प्रश्न सारे
ढूँढ़ते हैं
पीत सा कनेर कोई

राह का हर आचरण
अब पत्थरों सा
ओस की बूँदें गिरीं
घायल हुई थीं
इन पठारों को
कहाँ आभास होगा
जो शिराएँ बीज की
आहत हुई थीं

अब हवा भी खोजती है
वह किनारा
हो जहाँ पर
लाल-सा कनेर कोई  

अब बवंडर रेत के
उठने लगे हैं
आँख में मारीचिका
फिर भी पली है
पाँव धँसते हैं
दरकती हैं जमीनें
आस हर अब
ठूँठ सी होती खड़ी है

दृश्य से ओझल हुए हैं
रंग सारे
काश होता
श्वेत सा कनेर कोई
***
 
सो गए सन्दर्भ तो सब मुँह अँधेरे

सो गए सन्दर्भ तो सब
मुँह-अँधेरे
पर कथा
अब व्यर्थ की बनने लगी है
गौढ़ होते
व्याकरण के प्रश्न सारे
रात
भाषा इस तरह गढ़ने लगी है

संकुचन यूँ मानसिक
औ भाव ऐसे
नीम
गमलों में सिमटकर रह गई है
भित्तियों की
इन दरारों के अलावा
ठौर पीपल को
कहाँ अब रह गई है

बरगदों के बोनसाई
हैं विवश से
धूप में
हर देह अब तपने लगी है

व्योम तो माना
सदा ही है अपरिमित
खिड़कियों के सींखचे
अनजान लेकिन
है धरा-नभ के मिलन का
दृश्य अनुपम
चौखटों को कब हुआ
आभास लेकिन

ओस से ही
प्यास को अपनी बुझाने
यह लता
मुंडेर पर चढ़ने लगी है
***

कुछ अकिंचन शब्द हैं बस

कुछ अकिंचन शब्द हैं बस
विलोपित
धार बहती
भाव की
तपती धरा यह
बस गरल के पान करती

क्लिष्ट होती वृत्तियों में
भावना निश्चलशिला सी
धूलभरती  
आँधियों में  
आसभी  बुझते दिया सी

मौन साधे 
हर घड़ी ज्यों 
वेदना के दंश सहती

व्योम का आकार सिमटा
हर दिशा है
राह भटकी
धुन्ध में ठिठकी
खड़ी है
अबकिरण की
साँस अटकी

भोर ओढ़े 
रंग धूसर 
साँझ हर  पल रात रचती 
***
 
जीवन 

इस नदिया की धारा में
कितने टापू हैं उभरे
कहीं हुई उथली-छिछली 
तो, कहीं भँवर हैं गहरे

पंख नदारद मोरों के
तितली का है रंग उड़ा
भौंरा भी अब यह सोचे
आखिर कैसे फूल झड़ा

चिड़ियों की गुनगुन गायब
यहाँ नहीं अब पग ठहरे

कल-कल करती जलधारा
अब सहमी औठिठकी सी
सिकुड़ी-सिमटी देह लिए
नदिया चलती, बचती सी

इक मरीचिका सी छलने
बीज मरू के हैं अँकुरे

काली सी बदरी छाई
नील गगन भी स्याह हुआ
कोयल, पपिहा आस लिए
अब तो फूटे फिर अँखुआ

सीप खड़ी तट पर सोचे
अब तो कोई बूँद झरे
***

ढूँढती नीड़ अपना

ढूँढती है एक चिड़िया
इस शहर में नीड़ अपना
आज उजड़ा वह बसेरा
जिसमें बुनती रोज सपना

छाँव बरगद सी नहीं है
थम गया है पात पीपल
ताल,पोखर,कूप सूना
अब नहीं वह नीर शीतल

किरचियाँ चुभती हवा में
टूटता बल, क्षीण पखना

कुछ विवश सा राह तकता
आज दिहरी एक दीपक
चरमराती भित्तियाँ हैं
चाटती है नींव दीमक

आज पग मायूस, ठिठके
जो फुदकते रोज अँगना

भीड़ है हर ओर लेकिन
पथ अपरिचित, साथ छूटा
इस नगर के शोर में अब
नेह का हर बंध टूटा

खोजती है एक कोना
फिर बनाए ठौर अपना
***
जन्मतिथि- 19-08-1966
ईमेल- brijeshkrsingh19@gmail.com
निवास-65/44, शंकर पुरी, छितवापुर रोड, लखनऊ-226001
सम्प्रति-उ0प्र0 सरकार की सेवा में कार्यरत
कविता संग्रह-कोहरा सूरज धूप 
संपादन- साझाकविता संकलन-सारांश समय का
विशेष-जनवादी लेखक संघ, लखनऊ इकाई के कार्यकारिणी सदस्य


Viewing all articles
Browse latest Browse all 208

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>