हमारे वक़्त के महत्वपूर्ण कवि लाल्टू की कविताएं हमें मिली हैं। समाज और राजनीति के संकटों के आगे सदैव मुखर खड़े रहने वाले कवियों में लाल्टू अग्रणी हैं। इन कविताओं के लिए उनका शुक्रिया।
1
तुम जहाँ भी रहते हो
सबसे लंबा कद दिखना चाहते हो
रोशनी के सामने खड़े हो मुड़कर अपना साया देखते हो
घबराहट में मुस्कराते हो कि
तुम्हारा साया दीवारों तक फैला है
मैं जानती हूँ
कि तुम घबराए हुए हो
सबकी नज़रें बचाकर समेट लेती हूँ
तुम्हारे साए को अपने अंदर।
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2
रात को सिर्फ मर्द बाहर निकलते हैं
आपको जल्दी घर चले जाना चाहिए
वह कहता है जब मैं पिछली सीट में बैठी
पर्स से आईना निकाल गालों और बालों को
सँवारती हूँ; सोचती हूँ कि आज फ़ोन पर कैसे फूहड़
आदमी से पाला पड़ा था जो बीमा का विज्ञापन सुनकर
कह रहा था कि मेरी आवाज़ मीठी है, मैं
बात करती जाऊँ। ऑटो चलाते हुए वह बोलता रहता है
कि गंदे लोग हैं सड़कों पर घूम रहे
और पूछता है कि मेरी शादी हुई कि नहीं
एकबार झटका सा लगता है मुझे, हँस उठती हूँ
ठीक जब कहीं तूफान सा उठता लगता है
या कि ऑटो ही झटके के साथ घूमता है
नहीं, कहकर सोचती हूँ जिससे शादी करने की सोची
थी, जो गलबँहियों से बहुत दूर तक जाकर
नशे में कहता था कि जाना, तेरे बिन क्या जीना
यहाँ तक कि मंदिर में शादी तक करने की सोची थी
फिर सब कुछ जैसे किसी और कायनात की कहानी
बन गई। अचानक लफ्ज़ खो जाते हैं और मैं
कहती हूँ कि आराम से चलाओ भैया और वह बड़बड़ाता है
ट्राफिक को गाली देता है। रोशनी और अँधेरे के दरमियान
सड़क दिखती है मत्त बलखाती हुई गाड़ियों के बीच
बच-बच कर पीछे भागती हुई। रात को तो सिर्फ मर्द
बाहर निकलते हैं, कुछ तो जवाब
होता ही है, गुस्सा नहीं आता मुझे
आराम से ही कहती हूँ कोई कहानी
कि अँधेरा सूरज की रोशनी में भी है।
***
3
तुमने कहा कि
मैं परेशान न होऊँ, सब ठीक हो जाएगा
मैंने समझा कि तुम पेड़ हो
तुम्हारी डालों, तुम्हारे तने से बतियाती रही
तुम्हें गलबँहियों में लेना चाहा
और तुम बहुत चौड़े लगे
मैंने समझा कि तुम आस्माँ हो
तुम्हारे बादलों से बतियाती रही
सब ठीक हो जाएगा, ठीक हो जाएगा
कहकर ही तो मैंने छलाँग लगाई थी
सपाट धरती पर जब गिरी तो कुछ भी ठीक नहीं था
तुम धरती नहीं थे
मैं कहाँ थी मुझे नहीं पता था
तुम बहुत पहले खो गए थे
मेरे चेहरे पर अनगिनत पत्थरों से लगे चोट थे
मैं चाहती थी कि मेरा हर पोर दर्द से चीख उठे
पर उन घावों को छुआ तो कोई एहसास न था
अपने साथ दर्द का एहसास लिए पत्थर
कहीं अंदर धँस चुके थे; तुम तब भी कह रहे थे
कि मैं परेशान न होऊँ, सब ठीक हो जाएगा
कहीं खयालों की दौड़ में
रुक कर उकड़ूँ बैठी मैं उल्टी कर रही थी
हवा मुझे सहला रही थी; मेरे गालों को छूते हुए मेरी साँसें
उठ रही थीं गिर रही थीं
मेरे अंदर कोई कह रहा था
साँस लेती रहो, फिलहाल साँस लेती रहो।
***
4
मैंने भी पी
जीभ पर से फिसलता
तरल गरल सीने को चीरता बहा
ग्लास खाली हुआ और मैंने और डालने को
बोतल की ओर हाथ बढ़ाया तो तुमने
एकबारगी मुझे देखा
क्या तुम मुझे रोकना चाहते थे
या कह रहे थे कि ले लो और थोड़ी सी
मुझे समझ नहीं आया
सवाल में उलझी हुई काँपते हाथों
फिर से जाम होंठों तक लाते ही
मुझे एहसास हुआ, जलन बढ़ रही थी
मैंने बर्फ के दो टुकड़े और डाले
उठकर खिड़कियों तक गई
सारी खिड़कियाँ खुली थीं
और जलन कहीं खिड़कियों से बाहर चल निकली थी
तुम वहीं थे
किसी से बतियाते
या कि टी वी पर कुछ देख रहे थे
मैं चाह रही थी कि और पिऊँ
तब तक जलन का एहसास जिऊँ
जब तक तुम मेरे सीने में बने छेदों से
गुजरते हुए कायनात के दूसरे छोर पर पहुँच न जाओ।
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5
तुमने कहा कि मैं बहुत होशियार हूँ
मेरी समझ, काबिलियत पर तुम फिदा थे
मेरी आँखों के सामने खुशी के बादल बरस पड़े
गालों पर खारा स्वाद-सा था तो अचरज हुआ
बरस रहे थे अश्क कि
तुमने मेरा लिखा देखा एक बार
और हँस कर डेस्क के एक कोने पर रख दिया
बाद में भूले-से अंदाज़ में तुमने समझाया कि
कैसे मैं ज़रा लाउड लिखती हूँ
कि जो निज है उसे विस्तार देने में मुझे अभी काम करना है
कि उदासीन होना ज़रूरी होता है अच्छा लिखने के लिए
कि दूरी रखनी पड़ती है
बादल अब भी मेरे गालों को छू रहे थे
कितनी दूरी ठीक होगी मैंने सोचा
और उन्हें उँगलियों में थामते हुए दूर किया
हाथ भर। खारापन मिटता ही नहीं था
या कि कुछ था जो दूर होता ही नहीं था।
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