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अरुण देव की नई कविताएं

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अरुण देव हमारे वक़्त के दुश्चक्रों से लड़ने वाले कवि हैं। उनकी कविता देश के कठिन समय में संविधान की प्रस्तावना हमारे सामने रखती है। विक्षत मनुष्यता के लिए कलपती कविता, जिस ज़रूरी क्षोभ से भरी होनी चाहिए, उसका अनन्य उदाहरण अरुण देव की कविताएं हैं। कविता में राजनीतिक समझ का एक अचूक औज़ार उन्होंने अर्जित किया है, जिससे सीखा जा सकता है। वे छह वर्षों से हिंदी की महत्वपूर्ण ई-पत्रिका समालोचन का सम्पादन कर रहे हैं। महज सहित्यकार हो जाने के बरअक्स उन्होंने साहित्य और विचार का कार्यकर्ता हो रहना स्वीकार किया है। ज्ञानपीठ और राजकमल से उनके दो कविता संग्रह आए हैं। अनुनाद को अरुण देव की कविताओं का इंतज़ार रहता है। इन कविताओं के लिए अनुनाद अपने कवि को शुक्रिया कहता है।  
**** 

वे अभी व्यस्त हैं

जब गाँधी अहिंसा तराश रहे थे
आम्बेडकर गढ़ रहे थे मनुष्यता का विधान
भगत सिंह साहस, सच और स्वाध्याय से होते हुए
नास्तिकता तक चले आये थे
सुभाषचंद्र बोस ने खोज़ लिया था खून से आज़ादी का रिश्ता
नेहरु निर्मित कर रहे थे शिक्षा और विज्ञान का घर

फतवों की कटीली बाड़ के बीच
सैय्यद अहमद खान ने तामीर की ज्ञान की मीनारें

तब तुम क्या कर रहे थे ?

तुम व्यस्त थे हिंदुत्व गढ़ने में
लिखने में एक ऐसा इतिहास जहाँ नफरतों की एक बड़ी नदी थी
सिन्धु से भी बड़ी

तुम तलाश रहे थे एक गोली, एक हत्यारा और एक राष्ट्रीय शोक

सहिष्णुता की जगह कट्टरता
आधुनिकता की जगह मृत परम्पराएँ
चेतना की जगह जड़ता

तुम माहिर हो उन्माद रचने में

किसान, श्रमिक, युवा, स्त्री, वंचित जब भी तुमसे कुछ कहना चाहते
उधर से एक मशीनी आवाज़ आती
आप जिनसे सम्पर्क करना चाहते हैं वे अभी व्यस्त हैं?


इस देश की सबसे सार्थक कविता

याद हो कि न याद हो
भारत एक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य है

इसके समस्त नागरिकों को
सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक
न्याय, विचार, अभिव्यक्ति
विश्वास, धर्म, उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा, अवसर की समता प्राप्त है

समरसता, समानता, भ्रातृत्व की भावना बहे
धर्म, भाषा, जाति, वर्ग और क्षेत्र की सीमाएं बाधक न बनें

त्याग दी जाएँ ऐसी प्रथाएं और विचार
जो मनुष्यों में भेद करते हों
स्त्रियों के सम्मान और गरिमा के प्रतिकूल हों

गंगा जमुनी तहज़ीब की मजबूत रवायत के महत्व को समझा जाए
वे समृद्ध हों सार्थक बनें

वन, झील, नदी, जीवों के लिए भी इस भूभाग पर जगह रहे
वे इसके आदि नागरिक हैं
फले, फूले, निर्भीक विचरें

वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद, ज्ञानार्जन, प्रगति की भावना से हम बढ़ें
हिंसा से दूर रहें

हो सतत प्रयास
सभी क्षेत्रों में बेहतरी की ओर बढ़ने का

जिससे राष्ट्र बढ़ें
विश्व सजे

यह वही कविता है जिसे इस देश के नागरिकों ने मिलकर अपने खून से लिखा है
आज़ादी की कविता

यही है देशप्रेम और राष्ट्रभक्ति.


उत्तर – पैगम्बर  

१.
वह यह तो चाहेगा कि तुम नेक बनो
पर तुम्हारी वफ़ादारी उसने कभी नहीं मांगी
उसे आज्ञाकारी दास नहीं चाहिए थे

ये ज़ंजीरें तुम्हारी ख़ुद की हैं.

२.
तुम ख़ुशहाल रहो
आख़िरकार उसने तुम्हें बनाया जो है

पर तुम उसके कहर से न जाने क्यूँ डरते रहे
बचते रहे उसके श्राप से
वह तुम्हारे लिए विनाश और तबाहियाँ क्यों लाएगा
जबकि उसने तुम्हारे लिए सूरज चाँद तारे बनाये
सुकून भरी रातें और स्वाद भरे फल बिखरे दिए धरती पर

उसने सुन्दरता को पहचानने  के लिए रौशनी दी है तुम्हे.

३.
वह सर्वशक्तिमान है
वह तुम्हारे प्रसाद और बलि का मोहताज़ नहीं
उसे तुम्हारी कृतज्ञता भी नहीं चाहिए.

४.
उसे कुछ कहना होगा तो कह लेगा
उसे सब भाषाएँ आती हैं

वह आकाश के कागज़ पर कडकती बिजलियों से इबारत लिख सकता है

उसे किसी सन्देशवाहक की जरूरत नहीं
न कभी उसने भेजे

क्या उसने शेर को बताया उसका जंगल
चिड़िया को उसकी उड़ान
नदी को उसकी गति

क्या तुमने कभी खरगोश को प्रार्थना गाते सुना है
उसकी दौड़ ही प्रार्थना है.

५.
वह न्यायप्रिय ठहरा

और तुम उसके मानने वाले अपनी बहनों से ही नाइंसाफी करते हो
और फर्क करते हो उसकी संतानों में
काले गोरे नाटे लम्बे सब उसके ही साँचें ढले हैं

लोगों को उनके सद्गुणों  से पहचानों
उनके ज्ञान, विवेक और सहृदयता का सम्मान करो
श्रम की इज़्ज़त करना सीखो.

६.
वह तुम्हारा रखवाला है

बेवज़ह उसकी कृपा के लिए
झुके हुए बुदबुदाते रहते हो उसका नाम
वह बेख़बर  नहीं है तुमसे
उसकी कोई रीति नहीं
न ही उसका कहीं कोई घर है.

७.
वह सर्वव्यापी है
दिग्दिगन्त तक फैली है उसकी आभा
उसने तुम्हें विवेक दिया

वह कोई कातिब नहीं कि आखिरत में तुम्हारा हिसाब-किताब करेगा
न जन्म के पहले कुछ था न मृत्य के बाद कुछ है.

८.
तुम कैसे रहते हो
क्या पहनते हो
तुम्हें क्या खाना चाहिए

इसके लिए उसने कोई दिशा निर्देश नहीं दिए
नहीं तो वह तो तुम्हारी पीठ पर इन्हें उकेर देता

यह तुम खुद तय करो.

९.

जहाँ हो
वहीँ बना लो स्वर्ग

खिलो और फिर अपनी सन्ततियों में खिलते रहो
अपने कर्मों में महकते रहो
यही अमरता है.

१०.

और यह भी कि
यह धरती सिर्फ तुम्हारी नहीं है
आकाश, समुद्र और जमीन साझे के हैं
इस पर रहने वाले छोटे से छोटे कीट की भी यह उतनी ही है

एक असमय पड़ा पीला पत्ता  
कहीं किसी पेड़ के सूख जाने की तरफ इशारा करता है
और पेड़ों का काटा जाना जगलों की तबाही है
जहाँ से मिलती है तुम्हें हवा
और पहाड़ों के पीठ पर पानी से भरे बादल हैं
काले धुंए से पीला पड़ा प्रकाश तुम्हारे लिए विभीषका लाएगा
बचो खुद के पैदा किये कचरे से

मैंने तो तुम्हें साफ-सुथरी पृथ्वी दी थी
कल-कल करती नदी
और चमकती हवा


अगर कहीं कोई पीछे रह गया है तो रुक कर अपने में उसे शामिल कर लो.
         ***


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